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डेली न्यूज़

  • 07 Dec, 2020
  • 57 min read
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

कैंसर जीनोम एटलस सम्मेलन, 2020

चर्चा में क्यों?

हाल ही में विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री ने नई दिल्ली में  द्वितीय कैंसर जीनोम एटलस (The Cancer Genome Atlas- TCGA) सम्मेलन का उद्घाटन किया।

  • भारतीय कैंसर जीनोम एटलस (Indian Cancer Genome Atlas) के निर्माण के लिये यह सम्मेलन दुनिया भर के वैज्ञानिकों और चिकित्सकों को एक साथ लाता है।

प्रमुख बिंदु

  • भारतीय कैंसर जीनोम एटलस:
    • इसका उद्देश्य भारतीय आबादी में पाए जाने वाले सभी प्रकार के कैंसर के आणविक प्रोफाइल का स्वदेशी, ओपन-सोर्स और व्यापक डेटाबेस बनाना है।
    • कैंसर के कारकों में आनुवंशिक और जीवन-शैली सहित विविध आणविक तंत्र को उत्तरदायी माना जाता है जो उपचार में अत्यधिक चुनौती की स्थिति उत्पन्न करते हैं।
    • इसलिये रोगी द्वारा इन कारकों को बेहतर ढंग से समझना आवश्यक है।
  • कैंसर जीनोम एटलस :
    • यह आणविक रूप से 20,000 से अधिक प्राथमिक कैंसर और 33 कैंसर प्रकारों के साथ सामान्य नमूनों से मेल खाता है।
      • जीनोमिक्स का उद्देश्य जीनोम की संरचना और कार्य को अनुक्रमित, एकत्रण और विश्लेषण करना है।
      • जीनोम (Genome) एक जीव पाए जाने वाले सभी आनुवंशिक पदार्थ होते हैं। इसमें DNA (या RNA में RNA वायरस) भी शामिल है।
    • TCGA राष्ट्रीय कैंसर संस्थान ( National Cancer Institute) और राष्ट्रीय मानव जीनोम अनुसंधान संस्थान (National Human Genome Research Institute) का एक संयुक्त प्रयास है जो राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान अमेरिका के स्वास्थ्य विभाग तथा मानव सेवा का हिस्सा है। 
      • इसे 2006 में शुरू किया गया था।
    • TCGA ने जीनोमिक, एपिजीनोमिक (Epigenomic), ट्रांसस्क्रिप्टोमिक (Transcriptomic) और प्रोटिओमिक (Proteomic) डेटा की एक बड़ी मात्रा उत्पन्न की।
      • ट्रांसस्क्रिप्टोमिक प्रौद्योगिकी (Transcriptomic Technology) एक जीव के ट्रांसक्रिप्टोम (Transcriptome) का अध्ययन करने के लिये उपयोग की जाने वाली तकनीक है।
      • प्रोटम (Proteome) जीव में उत्पादित प्रोटीन का समूह है।
    • इस डेटा से कैंसर के निदान, उपचार और रोकथाम की क्षमता में सुधार हुआ है।
    • इसी तर्ज़ पर भारत सरकार के वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के नेतृत्व में प्रमुख हितधारकों के संघ द्वारा भारतीय कैंसर जीनोमिक्स एटलस (Indian Cancer Genomics Atlas) की स्थापना की गई है, जिसमें कई सरकारी एजेंसियाँ, कैंसर अस्पताल, अकादमिक संस्थान और निजी क्षेत्र भागीदार हैं।

इस प्रकार के अन्य मिशन:

  • जीनोम इंडिया:
    • इस परियोजना में कैंसर जैसे रोगों के उपचार के लिये नैदानिक परीक्षणों और प्रभावी उपचारों हेतु (अगले पाँच वर्षों में) 20,000 भारतीयों के जीनोम की स्कैनिंग (Scanning) किये जाने पर विचार करना है।
    • परियोजना के पहले चरण में 10,000 स्वस्थ भारतीयों के संपूर्ण जीनोम का अनुक्रमण किया जाएगा।
  • इंडीजेन जीनोम परियोजना:
    • अप्रैल 2019 में शुरू हुई इंडीजेन जीनोम परियोजना (IndiGen Genome Project) को सी.एस.आई.आर.– जिनोमिकी और एकीकृत जीवविज्ञान संस्थान दिल्ली (CSIR-Institute of Genomics and Integrative Biology - IGIB) तथा कोशिकीय एवं आणविक जीवविज्ञान केंद्र, हैदराबाद (CSIR-Centre for Cellular and Molecular Biology - CCMB) द्वारा लागू किया गया है।
    • इंडीजेन परियोजना का उद्देश्य भारत के विभिन्न जातीय समूहों का प्रतिनिधित्व करने वाले हज़ारों लोगों का संपूर्ण जीनोम अनुक्रमण करना है।

स्रोत: पी.आई.बी.


भारतीय राजनीति

गैर-निवासी भारतीयों को मतदान का अधिकार

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारतीय चुनाव आयोग (Election Commission of India- ECI) ने कानून और न्याय मंत्रालय को सूचित किया है कि वह अगले वर्ष असम, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुद्दुचेरी में होने वाले चुनावों में इलेक्ट्रॉनिक रूप से प्रेषित पोस्टल बैलट सिस्टम (ETPBS) का प्रयोग गैर-निवासी भारतीय (NRI) के लिये करने हेतु "तकनीकी और प्रशासनिक रूप से तैयार है"।

प्रमुख बिंदु:

पृष्ठभूमि:

  • वर्ष 2013 और 2014 में ECI ने कई सांसदों, उद्योगपतियों, मंत्रियों के अनुरोध करने और सर्वोच्च न्यायालय (SC) में गैर-निवासी भारतीयों द्वारा याचिका दायर करने के बाद संभावित विकल्पों की तलाश शुरू कर दी थी।
  • वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद मुख्य रूप से तीन विकल्पों का अध्ययन करने के लिये एक 12 सदस्यीय समिति का गठन किया गया था:
    • डाक द्वारा मतदान।
    • विदेशों में भारतीय मिशनों पर मतदान
    • ऑनलाइन वोटिंग।
  • समिति ने ऑनलाइन मतदान से इनकार कर दिया। इसके पीछे उनका मत था कि यह "मतदान की गोपनीयता" को खत्म कर सकता है, इसके अलावा पर्याप्त संसाधनों के अभाव के कारण विदेशों में भारतीय मिशनों पर मतदान करने के प्रस्ताव को भी रद्द कर दिया।
  • वर्ष 2015 में पैनल ने समिति से सिफारिश की कि NRIs को व्यक्तिगत रूप से मतदान के अलावा "ई-पोस्टल बैलट और प्रॉक्सी वोटिंग जैसे अतिरिक्त वैकल्पिक विकल्प" दिये जाएँ।
    • प्रॉक्सी वोटिंग के तहत एक पंजीकृत मतदाता अपने मतदान के अधिकार का प्रयोग एक प्रतिनिधि के माध्यम से कर सकता है।
    • वर्तमान में भारत में रहने वाले मतदाताओं (सेवा मतदाता) की कुछ श्रेणियों के लिये डाक मतपत्रों की अनुमति है, जिसमें शामिल हैं:
      • सशस्त्र बलों के सदस्य।
      • किसी राज्य के सशस्त्र पुलिस बल के सदस्य, जो उस राज्य के बाहर सेवारत हैं।
      • भारत सरकार के अधीन किसी पद पर भारत के बाहर कार्यरत व्यक्ति।
  • वर्ष 2017 में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने NRIs के लिये प्रॉक्सी वोटिंग अधिकारों पर प्रस्ताव पारित किया और जनप्रतिनिधित्व कानून 1950 में संशोधन के लिये एक विधेयक लाया गया।
  • हालाँकि 16वीं लोकसभा के विघटन होने के कारण यह बिल राज्यसभा में निरस्त हो गया और इस प्रस्ताव को दोबारा नहीं लाया गया।
    • ECI ने गैर-निवासी भारतीयों के लिये प्रॉक्सी वोटिंग के बजाय केवल पोस्टल मतदान के अधिकार पर ज़ोर दिया।
    • विदेशी मतदाताओं को पोस्टल मतदान की सुविधा प्रदान करने के लिये सरकार को केवल चुनाव नियम, 1961 में संशोधन करने की आवश्यकता है। इसके लिये संसद की अनुमति की आवश्यकता नहीं है।

 NRIs के लिये वर्तमान मतदान प्रक्रिया:

  • NRIs के लिये मतदान का अधिकार जनप्रतिनिधित्व कानून, 1950 में संशोधन के माध्यम से वर्ष 2011 में पुरःस्थापित किया गया था।
  • एक NRIs पासपोर्ट में उल्लेखित अपने निवास स्थान के निर्वाचन क्षेत्र में मतदान कर सकता है।
  • वह केवल व्यक्तिगत रूप से मतदान कर सकता है और मतदान केंद्र पर अपनी  पहचान सिद्ध करने के लिये उसे अपने पासपोर्ट की मूल प्रति उपलब्ध करानी होगी।

NRIs मतदाताओं के पास वर्तमान शक्ति:

  • संयुक्त राष्ट्र की वर्ष 2015 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत की प्रवासी आबादी विश्व में सबसे ज़्यादा (16 मिलियन) है।
    • यद्यपि भारत में मतदाताओं के रूप में पंजीकृत एक लाख से कुछ ही अधिक प्रवासी भारतीयों के साथ NRI मतदाताओं का पंजीकरण बहुत कम है।
  • वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में उनमें से लगभग 25,000 लोग मतदान करने के लिये भारत आए।

पोस्टल बैलेट द्वारा मतदान की प्रक्रिया:

  • पोस्टल बैलेट के माध्यम से मतदान में रुचि रखने वाले किसी भी NRI को चुनाव की अधिसूचना के पाँच दिन के अंदर मतदान के बारे में निर्वाचन अधिकारी (Returning Officer-RO) को सूचित करना होगा।
    • संसदीय या विधानसभा क्षेत्र का RO संसदीय या विधानसभा क्षेत्र में चुनाव के संचालन के लिये ज़िम्मेदार होता है।
  • इस तरह की सूचना प्राप्त करने के बाद RO इलेक्ट्रॉनिक रूप से बैलेट पेपर भेजेगा
  • NRI मतदाता बैलेट पेपर का प्रिंटआउट लेकर उस पर अपनी पसंद को चिह्नित करेंगे और इसे देश के राजनयिक या कांसुलर प्रतिनिधि द्वारा नियुक्त एक अधिकारी द्वारा सत्यापित घोषणा पत्र के साथ वहाँ भेज दिया जाएगा जहाँ का वह NRI निवासी है।

राजनीतिक पक्ष:

  • समिति ने राष्ट्रीय राजनीतिक दलों और विदेश मंत्रालय (MEA) से NRIs के संबंध में विदेश में वोट डालने के लिये विचार किये जा रहे विकल्पों पर सलाह ली थी।
  • राजनीतिक दलों में केवल एनसीपी ने पूर्ण समर्थन व्यक्त किया है और बीएसपी, भाजपा तथा सीपीआई के अनुसार, समय की कमी के कारण डाक मतपत्र एक व्यवहार्य विकल्प नहीं था। काॅन्ग्रेस पोस्टल बैलेट को इलेक्ट्रॉनिक रूप में भेजने के पक्ष में नहीं थी।

गैर- निवासी भारतीय (Non Resident Indian- NRI)

  • ‘अनिवासी भारतीय’ (Non-Resident Indian-NRI) का अर्थ ऐसे नागरिकों से है जो भारत के बाहर रहते हैं और भारत के नागरिक हैं या जो नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 7(A) के दायरे में ‘विदेशी भारतीय नागरिक’ कार्डधारक हैं। 
  • आयकर अधिनियम के अनुसार, कोई भी भारतीय नागरिक जो "भारत के निवासी" के रूप में मानदंडों को पूरा नहीं करता है, वह भारत का निवासी नहीं है और उसे आयकर देने के लिये अनिवासी भारतीय माना जाता है।
  • ध्यातव्य है कि 1 फरवरी, 2020 को प्रस्तुत बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने आवासीय स्थिति (Residential Status) के आधार पर व्यक्तियों की कर-क्षमता का निर्धारण करने के लिये मापदंड और अवधि को संशोधित किया था। 
    • संशोधित नियमों के अनुसार, एक व्यक्ति को तब भारत का साधारण निवासी (Resident) माना जाएगा, जब वह पिछले वित्तीय वर्ष में कम-से-कम 120 दिनों के लिये भारत में रहा हो, यह अवधि पूर्व में 182 दिन थी। 

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


सामाजिक न्याय

कोविड-19 तथा अत्यंत गरीबी : UNDP

चर्चा में क्यों?

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (United Nations Development Programme- UNDP) के एक नए अध्ययन में यह बात सामने आई है कि कोरोनोवायरस महामारी के गंभीर दीर्घकालिक प्रभावों के चलते वर्ष 2030 तक अतिरिक्त 207 मिलियन लोग अत्यधिक गरीबी अथवा चरम गरीबी की स्थिति में पहुँच सकते हैं जिसके परिणामस्वरूप विश्वभर में  इनकी संख्या 1 बिलियन से अधिक हो जाएगी।

  • यह अध्ययन अमेरिका के डेनवर विश्वविद्यालय (University of Denver) में पारडी सेंटर फॉर इंटरनेशनल फ्यूचर्स (Pardee Center for International Futures) तथा UNDP के बीच लंबे समय से चली आ रही साझेदारी का हिस्सा है।
  • अध्ययन में अगले दशक में महामारी के बहुआयामी प्रभावों का मूल्यांकन करते हुए सतत् विकास लक्ष्यों (SDGs) पर Covid19 रिकवरी से संबंधित विभिन्न परिदृश्यों के प्रभाव का आकलन किया गया है।

प्रमुख बिंदु

निष्कर्ष

  • ‘कोविड बेसलाइन’ (Covid Baseline) परिदृश्य (वर्तमान मृत्यु दरों तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के नवीनतम  विकास अनुमानों पर आधारित) के तहत, कोविड-19 के कारण वर्ष 2030 तक 44 मिलियन लोग अत्यंत गरीबी की स्थिति में पहुँच सकते हैं।
    • विश्व बैंक "अत्यंत गरीबी" अथवा “चरम " की स्थिति को प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 1.90 अमरीकी डॉलर से कम राशि पर जीवन निर्वाह के रूप में परिभाषित करता है।
  • ‘उच्च क्षति’ (High Damage) परिदृश्य जिसमें रिकवरी विलंबित होती है, के तहत कोविड-19 के कारण वर्ष 2030 तक 207 मिलियन अतिरिक्त लोगों के अत्यधिक गरीबी की स्थिति में पहुँचने की संभावना है।
    • यह महिला गरीबों की संख्या में अतिरिक्त 102 मिलियन की वृद्धि कर सकता है।
    • ‘उच्च क्षति’ परिदृश्य के तहत यह अनुमान व्यक्त किया गया है कि उत्पादकता में नुकसान के कारण कोविड-19 प्रेरित आर्थिक संकट का 80%, 10 वर्षों तक बना रहेगा जो कि महामारी से पहले देखे गए विकास प्रक्षेपवक्र की पूरी तरह से रिकवरी को बाधित करेगा।

सुझाव:

  • अगले दशक में सामाजिक विकास/कल्याण कार्यक्रमों, शासन, डिजिटलीकरण और हरित अर्थव्यवस्था (Green Economy) से जुड़े सतत् विकास लक्ष्यों (SDGs) में निवेश का एक केंद्रित समूह न केवल अत्यधिक गरीबी को बढ़ने से रोक सकता है बल्कि वास्तव में विकास की उस गति को पार कर सकता है जो विश्व में महामारी से पहले विद्यमान थी।
    • इस प्रकार महत्त्वाकांक्षी SDGs प्रोत्साहन का परिदृश्य (SDG Push Scenerio) 146 मिलियन लोगों को अत्यधिक गरीबी की स्थिति से बाहर लाने, लैंगिक आधार पर व्याप्त गरीबी के अंतर को कम करने और गरीब महिलाओं की संख्या को 74 मिलियन तक कम करने का कार्य करेगा।
  • अनुकूल SDG हस्तक्षेप, सरकारों और नागरिकों दोनों के माध्यम से व्यवहार परिवर्तन को जोड़ने का कार्य करते हैं, जो इस प्रकार हैं:
    • शासन में प्रभावशीलता और दक्षता में सुधार।
    • भोजन, ऊर्जा और जल के उपभोग पैटर्न में बदलाव
    • जलवायु कार्रवाई के लिये वैश्विक सहयोग
    • कोविड -19 रिकवरी में अतिरिक्त निवेश
    • उन्नत ब्रॉडबैंड एक्सेस और प्रौद्योगिकी नवाचार की आवश्यकता।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय अर्थव्यवस्था

मौद्रिक नीति: RBI

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में भारतीय रिज़र्व बैंक (Reserve Bank of India- RBI) की ‘मौद्रिक नीति समिति’ (Monetary Policy Committee- MPC) ने रेपो रेट में कोई बदलाव न करते हुए अपने समायोजन नीति के रुख को जारी रखा है। गौरतलब है कि वर्तमान में COVID-19 महामारी के बीच RBI ने महँगाई की अपेक्षा आर्थिक सुधार को समर्थन को अधिक प्राथमिकता दी है।

  • RBI द्वारा अन्य कई तरलता प्रबंधन उपायों के साथ वित्तीय प्रणाली के नियामकीय निरीक्षण में सुधार के लिये आवश्यक कदमों की भी घोषणा की गई है।
  • RBI की ‘मौद्रिक नीति समिति’ ‘भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934’ के तहत स्थापित एक संविधिक निकाय है। यह आर्थिक विकास के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए मुद्रा स्थिरता को बनाए रखने हेतु कार्य करती है। यह महँगाई दर (4%) को प्राप्त करने के लिये रेपो रेट के निर्धारण का कार्य करती है।  

प्रमुख बिंदु: 

रेपो रेट: 

  • मौद्रिक नीति समिति ने रेपो रेट (Repo Rate) को 4% पर और रिवर्स रेपो रेट (Reverse Repo Rate) को 3.35% पर बनाए रखा है।
    • रेपो रेट या नीतिगत दर, वह ब्याज़ दर होती है जिस पर RBI बैंकों को ऋण उपलब्ध कराता है।  
    • रिवर्स रेपो रेट, वह ब्याज़ दर होती है जिस पर बैंकों को RBI में धन जमा कराने पर ब्याज़ प्राप्त होता है।
  • MPC ने वर्तमान में खुदरा मुद्रास्फीति में हो रही वृद्धि के बीच लगातार तीसरी बार प्रमुख मौद्रिक नीतिगत दरों को यथावत बनाए रखने का निर्णय लिया है।
  • RBI ने COVID-19 महामारी और इसके नियंत्रण हेतु लागू लॉकडाउन के कारण उत्पन्न हुई आर्थिक चुनौतियों से निपटने में अर्थव्यवस्था को सहयोग प्रदान करने के लिये मार्च 2020 से रेपो रेट में 115 बेसिस पॉइंट्स की कटौती की है।
    • सामान्य तौर पर रेपो रेट के कम होने से सामान्य जनता को बैंकों से पूर्व की अपेक्षा सस्ता ऋण प्राप्त होता है।    

सकल घरेलू उत्पाद अनुमान:

  • वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिये वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद (Gross Domestic Product-GDP) में 7.5% की गिरावट का अनुमान व्यक्त किया गया है।
    • वास्तविक GDP में मुद्रास्फीति को समायोजित किया जाता है, यह किसी दिये गए एक वर्ष में अर्थव्यवस्था द्वारा उत्पादित कुल वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य को दर्शाता है।     
  • हालाँकि लॉकडाउन के बाद वर्तमान वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही में देश के अधिकांश हिस्सों में औद्योगिक गतिविधियों में सुधार को देखते हुए तीसरी तिमाही में जीडीपी में 0.1% और चौथी तिमाही में 0.7% की वृद्धि का अनुमान है।  
    • गौरतलब है कि वर्ष 2020 की पहली तिमाही में देश की जीडीपी में 23.9% की गिरावट (वर्ष 2019 की पहली तिमाही की तुलना में) देखने को मिली थी।   

मुद्रास्फीति

  • मुद्रास्फीति मौजूदा समय में नीति निर्माताओं के लिये चिंता का विषय बनी हुई है, क्योंकि आपूर्ति बाधित होने से मुद्रास्फीति में तीव्र वृद्धि देखी गई, जिसके कारण उपभोक्ता से काफी अधिक शुल्क लिया जा रहा था।
  • कोर मुद्रास्फीति पर लागत जनित मुद्रास्फीति का प्रभाव अभी भी जारी है, इसमें अधिक बदलाव नहीं हुआ है और आर्थिक गतिविधियों के सामान्य होने तथा माँग में तेजी के साथ यह और भी दृढ़ हो सकती है।  
    • लागत जनित मुद्रास्फीति: किसी वस्तु के उत्पादन से जुड़े कारकों (भूमि, पूंजी, श्रम, कच्चा माल आदि) की लागत में वृद्धि से वस्तुओं की कीमतों में होने वाली वृद्धि लागत जनित मुद्रास्फीति (Cost-Push Inflation) कहलाती है।
    • कोर मुद्रास्फीति: कोर मुद्रास्फीति बाज़ार में वस्तुओं और सेवाओं की लागत के अंतर को दर्शाती है परंतु इसमें खाद्य और ऊर्जा क्षेत्र को शामिल नहीं किया जाता।  
  • RBI द्वारा चालू वित्तीय वर्ष की तीसरी तिमाही में खुदरा महँगाई के औसतन 6.8% और चौथी तिमाही में 5.8% रहने का अनुमान लगाया गया है, साथ ही वित्तीय वर्ष 2021-22 की पहली और दूसरी तिमाही में यह घटकर क्रमशः 5.2% तथा 4.6% तक पहुँचने का अनुमान है।   
  • उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति (Consumer Price Inflation): अक्तूबर में CPI पिछले 6 वर्षों के अपने सबसे अधिकतम स्तर (7.6%) पर पहुँच गई, जो कि इसके मध्यम लक्ष्य 4% (+/-2%) से बहुत ही अधिक है।       

उदार रुख:

  • मौद्रिक नीति समिति ने COVID-19 महामारी के कारण उत्पन्न आर्थिक चुनौतियों को कम करने और अर्थव्यवस्था की वृद्धि को स्थायी गति प्रदान करने के लिये जहाँ तक आवश्यक (कम-से-कम वर्तमान वित्तीय वर्ष और अगले वित्तीय वर्ष में भी) हो, अपने उदार रूख को जारी रखने का निर्णय लिया है। 

जोखिम-आधारित आंतरिक लेखा परीक्षा मानदंड:

  • RBI ने बड़े शहरी सहकारी बैंकों (Urban Cooperative Banks- UCBs) और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों’ (Non-Banking Financial Companies- NBFC) के लिये जोखिम-आधारित आंतरिक लेखा परीक्षा मानदंड शुरू करने की घोषणा की है, RBI की यह पहल इसकी निगरानी में सक्रिय संस्थाओं में शासन और विश्वसनीयता को बेहतर बनाने के उद्देश्य से शुरू किये गए प्रयासों का हिस्सा है।
  • RBI द्वारा वित्तीय रिपोर्टिंग की गुणवत्ता में सुधार के लिये वाणिज्यिक बैंकों, UCB और NBFC के सांविधिक लेखा परीक्षकों की नियुक्ति पर दिशा-निर्देशों के सामंजस्य के लिये भी कदम उठाए गए हैं।
  • NBFC की विभिन्न श्रेणियों द्वारा लाभांश की घोषणा के लिये पारदर्शी मापदंड अपनाने का निर्णय लिया गया है।
  • वित्तीय बाज़ार को और अधिक व्यापक करने के लिये क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को रिज़र्व बैंक की ‘तरलता समायोजन सुविधा’ (Liquidity Adjustment Facility- LAF) और ‘सीमांत स्थायी सुविधा’  (Marginal Standing Facility- MSF) के साथ कॉल/नोटिस मनी मार्केट का उपयोग करने की भी अनुमति दी जाएगी। 
  • तरलता समायोजन सुविधा (Liquidity Adjustment Facility- LAF): LAF भारतीय रिज़र्व बैंक की मौद्रिक नीति के तहत प्रयोग किया जाने वाला उपकरण है जो बैंकों को पुनर्खरीद समझौतों, रेपो एग्रीमेंट के माध्यम से ऋण प्राप्त करने या रिवर्स रेपो एग्रीमेंट के माध्यम से RBI को ऋण प्रदान करने की अनुमति प्रदान करता है।   
  • सीमांत स्थायी सुविधा (Marginal Standing Facility- MSF): सीमांत स्थायी सुविधा (MSF) के तहत बैंक अंतर-बैंक तरलता (Inter-Bank Liquidity) की कमी को पूरा करने के लिये आपातकालीन स्थिति में भारतीय रिज़र्व बैंक से उधार लेते हैं।

डिजिटल भुगतान सुरक्षा: 

  • उपयोगकर्त्ता के लिये मज़बूत सुरक्षा और सुविधा के साथ डिजिटल भुगतान चैनलों के ईको-सिस्टम में महत्त्वपूर्ण सुधार के लिये RBI ने विनियमित संस्थाओं हेतु ‘भारतीय रिज़र्व बैंक (डिजिटल भुगतान सुरक्षा नियंत्रण) निर्देश’ जारी करने का प्रस्ताव किया है।
  • इन निर्देशों में इंटरनेट, मोबाइल बैंकिंग और कार्ड से भुगतान जैसे माध्यम के लिये सामान्य सुरक्षा नियंत्रण को लेकर कुछ न्यूनतम मानकों को सुदृढ़ करने, उनके प्रशासन, कार्यान्वयन और निगरानी की आवश्यकता होगी।

लक्षित दीर्घकालिक रेपो परिचालन:

  • RBI ने कामथ समिति द्वारा चिह्नित 26 तनावग्रस्त क्षेत्रों को लक्षित दीर्घकालिक रेपो परिचालन (Targeted Long Term Repo Operation- TLTRO) के तहत पात्र क्षेत्रों के दायरे में लाने का निर्णय लिया है ताकि सुस्त अर्थव्यवस्था को और अधिक तरलता उपलब्ध कराई जा सके।
    • RBI ने अक्तूबर 2020 में TLTRO की घोषणा की थी, जो 31 मार्च 2021 तक उपलब्ध होगी।
    • तद्नुसार, योजना को लेकर प्राप्त प्रतिक्रिया की समीक्षा के बाद धनराशि और अवधि बढ़ाने हेतु लचीलेपन के साथ पॉलिसी रेपो दर से सहलग्न अस्थायी दर पर कुल 1,00,000 करोड़ रुपए तक की राशि के लिये तीन वर्षों तक के लक्षित दीर्घावधि रेपो परिचालनों को माँग पर संचालित करने का निर्णय लिया गया था।
    • TLTRO के तहत बैंक अर्थव्यवस्था में ऋण प्रवाह को बढ़ाने के लिये कॉर्पोरेट बॉण्ड, वाणिज्यिक पत्र और गैर-परिवर्तनीय डिबेंचर (Non-Convertible Debentures) जैसे ऋण माध्यमों से विशिष्ट क्षेत्रों में निवेश कर सकते हैं।
  • आत्मनिर्भर भारत पैकेज 3.0 के हिस्से के रूप में केंद्र सरकार ने आपातकालीन क्रेडिट लाइन गारंटी योजना 2.0 (Emergency Credit Line Guarantee Scheme- ECLGS 2.0) शुरू की। 
    • इसके तहत रिज़र्व बैंक की कामथ कमेटी द्वारा चिह्नित 26 तनावग्रस्त क्षेत्रों में संस्थाओं को मौजूदा ECLGS 1.0 के 3.0 लाख करोड़ रुपए के कोष को 100 प्रतिशत गारंटीकृत संपार्श्विक मुक्त अतिरिक्त ऋण प्रदान करने की सुविधा दी गई।
  • RBI के अनुसार, बैंकों को दो योजनाओं के तालमेल के लिये रिज़र्व बैंक से मांग के आधार पर TLTRO के तहत प्राप्त धनराशि का लाभ उठाने और तनावग्रस्त क्षेत्रों को ऋण सहायता प्रदान करने के लिये ECLGS 2.0 के तहत गारंटी लेने हेतु प्रोत्साहित किया जाता है।

स्रोत: द हिंदू


सामाजिक न्याय

आयुर्वेद और सर्जरी

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सरकार ने एक अधिसूचना के माध्यम से कुछ विशिष्ट सर्जिकल प्रक्रियाओं को सूचीबद्ध किया, जिनके लिये आयुर्वेद के स्नातकोत्तर मेडिकल छात्र को प्रशिक्षित किया जाएगा।

  • भारतीय चिकित्सा संघ (IMA) ने केंद्रीय भारतीय चिकित्सा परिषद (CCIM) द्वारा जारी इस अधिसूचना का विरोध किया है।
  • भारतीय चिकित्सा संघ (IMA) आधुनिक चिकित्सकीय प्रणालियों का उपयोग करने वाले डॉक्टरों का स्वैच्छिक राष्ट्रीय संगठन है, जो कि डॉक्टरों के हितों की रक्षा करते हुए संपूर्ण मानव समाज के कल्याण के लक्ष्य को आगे बढ़ा रहा है।

प्रमुख बिंदु

  • आयुर्वेद में सर्जरी का इतिहास
    • ऋग्वेद, अब तक के ज्ञात सबसे पुरानी वैदिक संस्कृत रचनाओं में से एक है, जिसमें अश्विनी कुमारों का उल्लेख किया गया है, जिन्हें देव वैद्य के रूप में जाना जाता था, ये वैदिक काल के प्रमुख सर्जन थे और उन्होंने कई दुर्लभ पौराणिक शल्यक्रियाएँ की थीं।
    • भारत में आयुर्वेद से संबंधित कई ग्रंथ और संहिताएँ हैं, जिनमें चरक संहिता, सुश्रुत संहिता और अष्टांग संग्रह का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।
      • चरक संहिता और अष्टांग संग्रह मुख्य तौर पर औषधि ज्ञान से संबंधित हैं, जबकि सुश्रुत संहिता मुख्य रूप से शल्य ज्ञान (Surgical Knowledge) से संबंधित है।
      • सुश्रुत को भारत में शल्य चिकित्सा का जनक माना जाता है और उनकी रचनाएँ सुश्रुत संहिता के रूप में संकलित हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक में 120 प्रकार के उपाकर्मों (Upakarmas) और 300 प्रकार की सर्जिकल प्रक्रियाओं का वर्णन किया है। उन्होंने सर्जरी को 8 प्रकार की श्रेणियों में वर्गीकृत किया है।
      • सुश्रुत ने सर्जरी को चिकित्सा की पहली और सबसे महत्त्वपूर्ण शाखा माना है। उनके मुताबिक, इसके अंतर्गत चिकित्सकीय उपकरणों के माध्यम से तात्कालिक प्रभाव उत्पन्न करने की क्षमता है, इसलिये चिकित्सा की अन्य प्रणालियों की तुलना में इसका महत्त्व काफी अधिक है।
  • मौजूदा विवाद: यह पूरा विवाद आयुर्वेद में स्नातकोत्तर शिक्षा की शल्य (सामान्य सर्जरी) और शालाक्य (आँख, कान, नाक, गला, सर, गर्दन और दंत चिकित्सा आदि से संबंधित सर्जरी) धाराओं से संबंधित छात्रों को 58 निर्दिष्ट सर्जिकल प्रक्रियाओं को करने की अनुमति देने से जुड़ा है।
  • पक्ष में तर्क
    • आयुर्वेद में सर्जरी की दो शाखाएँ हैं- शल्य तंत्र और शालाक्य तंत्र। नियम के मुताबिक, आयुर्वेद के सभी स्नातकोत्तर छात्रों को इन शाखाओं का अध्ययन करना होता है और जो लोग इन विषयों का विशिष्ट अध्ययन करते हैं, वे आयुर्वेद सर्जन बन जाते हैं।
    • आयुर्वेद में स्नातकोत्तर शिक्षा को इंडियन मेडिसिन सेंट्रल काउंसिल (स्नातकोत्तर आयुर्वेद शिक्षा) विनियम, 2016 द्वारा विनियमित किया जाता है।
      • यह विनियम आयुर्वेद के सभी स्नातकोत्तर छात्रों को शल्य, शालाक्य, प्रसूति और स्त्री रोग जैसी शाखाओं में विशेषज्ञता हासिल करने की अनुमति देता है।
      • इन तीन शाखाओं के छात्रों को एमएस (MS) यानी ‘मास्टर इन सर्जरी इन आयुर्वेद’ की उपाधि दी जाती है।
    • आयुर्वेद के छात्रों के लिये शिक्षा, इंटर्नशिप और सीखने की प्रक्रिया मॉडर्न चिकित्सा के छात्रों के समान ही है।
      • आयुर्वेद के छात्रों को सुश्रुत के सर्जिकल सिद्धांतों और प्रथाओं को सिखाने के अलावा चिकित्सा विधिक (मेडिको लीगल) मुद्दों, सर्जिकल नैतिकता और सूचित सहमति (Informed Consent) आदि में भी प्रशिक्षित किया जाता है।
    • यद्यपि अधिकांश आयुर्वेदिक सर्जिकल प्रक्रियाएँ लगभग आधुनिक सर्जिकल प्रक्रियाओं के समान ही हैं, किंतु दोनों शाखाओं में सर्जरी के बाद होने वाली देखभाल की प्रक्रिया में काफी अंतर है।
    • जयपुर में राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान का दावा है कि अस्पताल में प्रत्येक वर्ष कम-से-कम 1,000 प्रमुख सर्जरी की जाती हैं। आयुर्वेद चिकित्सकों के मुताबिक यह हालिया अधिसूचना केवल एक स्पष्टीकरण के तौर पर है।
      • प्रायः रोगियों को यह स्पष्ट नहीं होता है आयुर्वेदिक चिकित्सक के पास किसी सर्जरी प्रक्रिया को करने की क्षमता है अथवा नहीं। इस तरह यह अधिसूचना रोगियों की दुविधा को समाप्त करेगी।
  • विरोध
    • भारतीय चिकित्सा संघ (IMA) के चिकित्सकों का दावा है कि केंद्रीय भारतीय चिकित्सा परिषद (CCIM) द्वारा जारी अधिसूचना यह गलत धारणा उत्पन्न करती है कि आधुनिक सर्जरी करने में आयुर्वेद चिकित्सकों का कौशल एवं प्रशिक्षण, आधुनिक चिकित्सा पद्धति का उपयोग करने वाले चिकित्सकों के समान ही है, जो कि पूर्णतः भ्रामक है तथा आधुनिक चिकित्सा के अधिकार क्षेत्र पर एक अतिक्रमण है।
    • केवल इसलिये कि आयुर्वेद संस्थानों द्वारा आधुनिक चिकित्सा पद्धति से संबंधित पुस्तकों का प्रयोग किया जाता है अथवा वे आधुनिक चिकित्सा पद्धति के चिकित्सकों की मदद से सर्जरी करते हैं, उन्हें इस प्रकार का अतिक्रमण करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
    • भारतीय चिकित्सा संघ (IMA) के चिकित्सकों ने केंद्रीय भारतीय चिकित्सा परिषद (CCIM) से यह स्पष्ट करने को कहा है कि किस प्रकार आयुर्वेद के साहित्य में वर्णित प्रत्येक प्रक्रिया आधुनिक सर्जिकल प्रक्रियाओं के समान है।
    • सर्जरी के लिये चिकित्सकों को तकनीकी विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है, जो कि उन्नत प्रशिक्षण और कार्यशालाओं आदि के माध्यम से प्रदान की जाती है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आधुनिक चिकित्सा में प्रशिक्षण, अनुसंधान और ज्ञान के आदान-प्रदान हेतु कार्यशालाओं का बुनियादी ढाँचा आयुर्वेद के संस्थानों की तुलना में काफी बेहतर है।
      • सरकार द्वारा वित्तपोषित आयुर्वेदिक शिक्षण संस्थान गुणवत्ता प्रशिक्षण प्रदान करने के लिये आवश्यक बुनियादी ढाँचे, कुशल श्रमशक्ति और सहायक कर्मचारियों से सुसज्जित नहीं हैं।
  • स्वास्थ्य देखभाल के बुनियादी ढाँचे में अंतराल
    • अमेरिका स्थित ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूट द्वारा इस वर्ष की शुरुआत में किये गए शोध के अनुसार, देश में प्रति 1,000 लोगों पर केवल 0.55 बिस्तर मौजूद हैं।
    • वर्ष 2019 में सरकार ने संसद को सूचित किया था कि प्रत्येक 1,445 भारतीयों के लिये देश में केवल एक आधुनिक चिकित्सक मौजूद है।
      • विश्व स्वास्थ्य संगठन के मापदंडों के अनुसार प्रति 1,000 लोगों पर एक चिकित्सक का होना अनिवार्य है।
      • सर्जन समेत एलोपैथिक डॉक्टरों की कमी है इस तथ्य के कारण भी काफी जटिल हैं क्योंकि भारत में अधिकांश मेडिकल कॉलेज दक्षिण के राज्यों में स्थित हैं। इसके अलावा कई चिकित्सक ऐसे है जो स्वयं ग्रामीण क्षेत्रों में सेवा प्रदान करने के इच्छुक नहीं होते हैं।

आगे की राह

  • सरकार के लिये स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार के लिये आवश्यक कदम उठाना काफी महत्त्वपूर्ण है, हालाँकि यहाँ यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि आयुर्वेद चिकित्सकों को सर्जरी की अनुमति देते समय सुरक्षा मानकों के साथ समझौता न किया जाए।
  • राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (NMC) विधेयक 2017 में सरकार ने आयुष डॉक्टरों को आधुनिक दवाओं के प्रयोग की अनुमति देने हेतु दो-वर्षीय ब्रिज कोर्स शुरू करने की बात की थी। ध्यातव्य है कि यह कोर्स स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार करने के लिये महत्त्वपूर्ण कदम हो सकता है, अतः सरकार को इस पर पुनर्विचार करना चाहिये।
  • सरकार को साक्ष्य-आधारित दृष्टिकोण द्वारा स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र के बुनियादी ढाँचे में मौजूद इस अंतर को समाप्त करने के रचनात्मक तरीकों का पता लगाना चाहिये।
  • भारत को चिकित्सा बहुलवाद के लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिये, जो कि पहले से ही कई देशों जैसे- चीन और जापान आदि में वास्तविक रूप प्राप्त कर चुका है।
  • देश के स्वास्थ्य क्षेत्र में पर्याप्त निवेश की आवश्यकता है ताकि एक ऐसी स्वास्थ्य विकसित की जा सके जो किसी भी प्रकार के सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल का सामना करने, सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज़ प्रदान करने और सतत् विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में सक्षम हो।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय विरासत और संस्कृति

हम्पी मंदिर में अवस्थित पत्थर के रथ

चर्चा में क्यों?

भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण (Archaeological Survey of India- ASI) ने हम्पी के यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल पर विट्ठल मंदिर परिसर के अंदर पत्थर के रथ की सुरक्षा के लिये कदम उठाए हैं।

  • ASI, पुरातात्त्विक अनुसंधान और राष्ट्र की सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण हेतु संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत एक प्रमुख संगठन है।

Vitthal-temple

प्रमुख बिंदु:

  • हम्पी रथ: 
    • यह भारत में पत्थर से निर्मित तीन प्रसिद्ध रथों में से एक है, अन्य दो रथ  कोणार्क (ओडिशा) और महाबलीपुरम (तमिलनाडु) में हैं।
    • इसका निर्माण 16वीं शताब्दी में विजयनगर शासक, राजा कृष्णदेवराय के आदेश पर हुआ था।
      • विजयनगर शासकों ने 14वीं से 17वीं शताब्दी तक शासन किया।
    • यह भगवान विष्णु के आधिकारिक वाहन गरुड़ को समर्पित एक मंदिर है।
  • विट्ठल मंदिर:
    • इसका निर्माण 15वीं शताब्दी में विजयनगर साम्राज्य के शासकों में से एक देवराय द्वितीय के शासन के दौरान हुआ था।
    • यह विट्ठल को समर्पित है और इसे विजया विट्ठल मंदिर भी कहा जाता है।
      • विट्ठल को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है।
    • विट्टल मंदिर दक्षिण भारतीय मंदिर वास्तुकला की द्रविड़ शैली में निर्मित है।
  • हम्पी:
    • चौदहवीं शताब्‍दी के दौरान मध्‍यकालीन भारत के महानतम साम्राज्‍यों में से एक विजयनगर साम्राज्‍य की राजधानी हम्‍पी कर्नाटक राज्‍य में स्थित है।
      • इसकी स्थापना हरिहर और बुक्का ने वर्ष 1336 में की थी।
    • यूनेस्को (वर्ष 1986) द्वारा विश्व विरासत स्थल के रूप में वर्गीकृत, यह "विश्व का सबसे बड़ा ओपन-एयर संग्रहालय" भी है।
    • हम्पी, उत्तर में तुंगभद्रा नदी और अन्‍य तीन ओर से पथरीले ग्रेनाइट के पहाड़ों से घिरा हुआ है। हम्पी के चौंदहवीं शताब्‍दी के भग्‍नावशेष यहाँ लगभग 26 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले हुए हैं।
    • विजयनगर शहर के स्मारक जिन्हें विद्या नारायण संत के सम्‍मान में विद्या सागर के नाम से भी जाना जाता है, को वर्ष 1336-1570 ईस्वी के बीच हरिहर-I से लेकर सदाशिव राय आदि राजाओं ने बनवाया था। यहाँ पर सबसे अधिक इमारतें तुलुव वंश (Tuluva Dynasty) के महान शासक कृष्णदेव राय (1509 -30 ईस्वी) ने बनवाई थीं।
    • हम्‍पी के मंदिरों को उनकी बड़ी विमाओं, पुष्प अलंकरण, स्‍पष्‍ट नक्काशी, विशाल खम्‍भों, भव्‍य मंडपों एवं मूर्ति कला तथा पारंपरिक चित्र निरुपण के लिये जाना जाता है, जिसमें रामायण और महाभारत के विषय शामिल किये गए हैं।
    • हम्‍पी में मौजूद विठ्ठल मंदिर विजय नगर साम्राज्य की कलात्मक शैली का एक उत्‍कृष्‍ट उदाहरण है। एक पत्‍थर से निर्मित देवी लक्ष्‍मी, नरसिंह तथा गणेश की मूर्तियाँ अपनी विशालता एवं भव्‍यता के लिये उल्‍लेखनीय हैं। यहाँ स्थित जैन मंदिरों में कृष्‍ण मंदिर, पट्टाभिराम मंदिर, हजारा राम चंद्र और चंद्र शेखर मंदिर प्रमुख हैं।

विजयनगर साम्राज्य:

  •  विजयनगर या "विजय का शहर" एक शहर और साम्राज्य दोनों का नाम था।
  • साम्राज्य की स्थापना चौदहवीं शताब्दी (1336 ईस्वी) में संगम वंश के हरिहर और बुक्का ने की थी।
  • यह उत्तर में कृष्णा नदी से लेकर प्रायद्वीप के दूरतम दक्षिण तक फैला हुआ है।
  • विजयनगर साम्राज्य पर चार महत्त्वपूर्ण राजवंशों का शासन था जो इस प्रकार हैं:
    • संगम
    • सुलुव
    • तुलुव
    • अराविदु
  • तुलुव वंश का कृष्णदेवराय (शासनकाल 1509-29) विजयनगर का सबसे प्रसिद्ध शासक था। उनके शासन में विस्तार और समेकन की विशेषता थी।
    • उन्हें कुछ बेहतरीन मंदिरों के निर्माण और कई महत्त्वपूर्ण दक्षिण भारतीय मंदिरों में प्रभावशाली गोपुरम जोड़ने का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने विजयनगर के पास एक उपनगरीय बस्ती की भी स्थापना की, जिसे नागालपुरम कहा जाता था।
    • उन्होंने तेलुगु में अमुक्तमलयद (Amuktamalyada) के नाम से जाने जाने वाले शासन कला के ग्रंथ की रचना की।
  • विजयनगर शासकों के संरक्षण में फैले दक्षिण भारत के हिस्सों में द्रविड़ वास्तुकला संरक्षित है। 
  • विजयनगर वास्तुकला को 'रानी का स्नान' और हाथी अस्तबल जैसी धर्मनिरपेक्ष इमारतों में इंडो इस्लामिक वास्तुकला के तत्त्वों को अपनाने के लिये भी जाना जाता है, जो एक अत्यधिक विकसित बहु-धार्मिक और बहु-जातीय समाज का प्रतिनिधित्त्व करते हैं।

द्रविड़ वास्तुकला

  • छठी शताब्दी ई. तक उत्तर और दक्षिण भारत में मंदिर वास्तुकला शैली लगभग एक समान थी, लेकिन छठी शताब्दी ई. के बाद प्रत्येक क्षेत्र का भिन्न-भिन्न दिशाओं में विकास हुआ। इस प्रकार आगे ब्राह्मण हिंदू धर्म मंदिरों के निर्माण में तीन प्रकार की शैलियों- नागर, द्रविड़ और बेसर शैली का प्रयोग किया।

मंदिरों के नागर और द्रविड़ शैली की विशेषताएँ:

नागर शैली-

  • ‘नागर’ शब्द नगर से बना है। सर्वप्रथम नगर में निर्माण होने के कारण इसे नागर शैली कहा जाता है।
  • यह संरचनात्मक मंदिर स्थापत्य की एक शैली है जो हिमालय से लेकर विंध्य पर्वत तक के क्षेत्रों में प्रचलित थी।
  • इसे 8वीं से 13वीं शताब्दी के बीच उत्तर भारत में मौजूद शासक वंशों ने पर्याप्त संरक्षण दिया।
  • नागर शैली की पहचान-विशेषताओं में समतल छत से उठती हुई शिखर की प्रधानता पाई जाती है। इसे अनुप्रस्थिका एवं उत्थापन समन्वय भी कहा जाता है।
  • नागर शैली के मंदिर आधार से शिखर तक चतुष्कोणीय होते हैं।
  • ये मंदिर उँचाई में आठ भागों में बाँटे गए हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं- मूल (आधार), गर्भगृह मसरक (नींव और दीवारों के बीच का भाग), जंघा (दीवार), कपोत (कार्निस), शिखर, गल (गर्दन), वर्तुलाकार आमलक और कुंभ (शूल सहित कलश)
  • इस शैली में बने मंदिरों को ओडिशा में ‘कलिंग’, गुजरात में ‘लाट’ और हिमालयी क्षेत्र में ‘पर्वतीय’ कहा गया।

द्रविड़ शैली-

  • कृष्णा नदी से लेकर कन्याकुमारी तक द्रविड़ शैली के मंदिर पाए जाते हैं।
  • द्रविड़ शैली की शुरुआत 8वीं शताब्दी में हुई और सुदूर दक्षिण भारत में इसकी दीर्घजीविता 18वीं शताब्दी तक बनी रही।
  • द्रविड़ शैली की पहचान विशेषताओं में- प्राकार (चहारदीवारी), गोपुरम (प्रवेश द्वार), वर्गाकार या अष्टकोणीय गर्भगृह (रथ), पिरामिडनुमा शिखर, मंडप (नंदी मंडप) विशाल संकेन्द्रित प्रांगण तथा अष्टकोण मंदिर संरचना शामिल हैं।
  • द्रविड़ शैली के मंदिर बहुमंजिला होते हैं।
  • पल्लवों ने द्रविड़ शैली को जन्म दिया, चोल काल में इसने उँचाइयाँ हासिल की तथा विजयनगर काल के बाद से यह ह्रासमान हुई।
  • चोल काल में द्रविड़ शैली की वास्तुकला में मूर्तिकला और चित्रकला का संगम हो गया।
  • यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल तंजौर का वृहदेश्वर मंदिर (चोल शासक राजराज- द्वारा निर्मित) 1000 वर्षों से द्रविड़ शैली का जीता-जागता उदाहरण है।
  • द्रविड़ शैली के अंतर्गत ही आगे नायक शैली का विकास हुआ, जिसके उदाहरण हैं- मीनाक्षी मंदिर (मदुरै), रंगनाथ मंदिर (श्रीरंगम, तमिलनाडु), रामेश्वरम् मंदिर आदि।

Temple-Architecture

स्रोत: द हिंदू


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

चीन का कृत्रिम सूर्य

चर्चा में क्यों?

हाल ही में चीन द्वारा  अपने "कृत्रिम सूर्य" परमाणु संलयन रिएक्टर (“Artificial Sun” Nuclear Fusion Reactor) का सफलतापूर्वक संचालन किया गया जो देश के परमाणु ऊर्जा अनुसंधान क्षमता के क्षेत्र में एक महान उपलब्धि है। इस परमाणु रिएक्टर से स्वच्छ ऊर्जा प्राप्त होने की उम्मीद है।

प्रमुख बिंदु:

  • HL-2M टोकामक रिएक्टर (HL-2M Tokamak reactor) चीन का सबसे बड़ा और सबसे उन्नत परमाणु संलयन प्रौद्योगिकी अनुसंधान उपकरण है। वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि यह उपकरण एक शक्तिशाली स्वच्छ ऊर्जा स्रोत के लिये मार्ग प्रशस्त करेगा।
    • प्राकृतिक रूप से सूर्य में होने वाली परमाणु संलयन प्रक्रिया की प्रतिकृति के लिये  इसमें HL-2M टोकामक यंत्र का उपयोग किया गया है।
  • इसमें गर्म प्लाज्मा को संलयित करने के लिये एक शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र का उपयोग किया गया है तथा इसमें तापमान को सूर्य के कोर के तापमान की तुलना में  लगभग दस गुना अधिक तक गर्म (150 मिलियन डिग्री सेल्सियस) करने की क्षमता है।
  • सिचुआन प्रांत में स्थित इस रिएक्टर को सामान्यत:  "कृत्रिम सूर्य" के नाम से जाना जाता है जो अत्यधिक गर्मी एवं ऊर्जा उत्पन्न करता है।

अन्य समान प्रयोग

  • अंतर्राष्ट्रीय थर्मोन्यूक्लियर प्रायोगिक रिएक्टर
    • वर्ष 1985 में अंतर्राष्ट्रीय थर्मोन्यूक्लियर प्रायोगिक रिएक्टर (International Thermonuclear Experimental Reactor-ITER)  को 35 देशों की सहभागिता में शुरु किया गया।
    • यह फ्रांँस में अवस्थित है।
    • उद्देश्य:  इसका उद्देश्य विश्व के सबसे बड़े टोकामक यंत्र का निर्माण करना है ताकि बड़े पैमाने पर कार्बन-मुक्त ऊर्जा के स्रोत के रूप में संलयन की व्यवहार्यता को सिद्ध किया जा सके।
      • टोकामक एक प्रायोगिक मशीन है जिसे  संलयन की ऊर्जा का उपयोग करने के लिये डिज़ाइन किया गया है। एक टोकामक के अंदर परमाणु संलयन के माध्यम से उत्पादित ऊर्जा को पात्र की दीवारों में ऊष्मा के रूप में अवशोषित किया जाता है। एक पारंपरिक ऊर्जा संयंत्र की तरह एक संलयन ऊर्जा संयंत्र में इस ऊर्जा का उपयोग वाष्प उत्पादन तथा उसके बाद टरबाइन और जनरेटर के माध्यम से विद्युत उत्पादन में किया जा सकता है।

परमाणु अभिक्रियाएँ

  • विवरण:
    • एक परमाणु अभिक्रिया वह प्रक्रिया है जिसमें दो नाभिक अथवा एक नाभिक और एक बाह्य उप-परमाणु कण एक या अधिक नए न्यूक्लाइड का उत्पादन करने के लिये आपस में टकराते हैं। इस प्रकार एक परमाणु अभिक्रिया में कम-से-कम एक न्यूक्लाइड का दूसरे में परिवर्तन होना चाहिये।

प्रकार 

  • नाभिकीय विखंडन (Nuclear Fission):
    • इस प्रक्रिया में एक परमाणु का नाभिक दो संतति नाभिकों (Daughter Nuclei) में विभाजित होता है।
    • यह विभाजन रेडियोधर्मी क्षय द्वारा सहज प्राकृतिक रूप से या प्रयोगशाला में आवश्यक परिस्थितियों (न्यूट्रॉन, अल्फा आदि कणों की बमबारी करके) की उपस्थिति में किया जा सकता है।
    • विखंडन से प्राप्त हुए खंडों/अंशों का एक संयुक्त द्रव्यमान होता है जो मूल परमाणु से कम होता है। द्रव्यमान में हुई यह क्षति सामान्यतः परमाणु ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है।
    • वर्तमान में सभी वाणिज्यिक परमाणु रिएक्टर नाभिकीय विखंडन की प्रक्रिया पर आधारित हैं।
  • नाभिकीय संलयन (Nuclear Fusion):
    • नाभिकीय संलयन की प्रक्रिया को दो हल्के परमाणुओं के संयोजन से एक भारी परमाणु नाभिक के निर्माण के रूप में परिभाषित किया जाता है।
    • इस तरह की नाभिकीय संलयन प्रतिक्रियाएँ सूर्य और अन्य तारों में ऊर्जा का स्रोत होती हैं।
    • इस प्रक्रिया में नाभिक को संलयित करने के लिये अधिक मात्रा में ऊर्जा की की आवश्यकता होती है। इस प्रक्रिया के लिये कई मिलियन डिग्री तापमान तथा कई मिलियन पास्कल दाब वाली परिस्थिति आवश्यक होती है।
    • हाइड्रोजन बम का निर्माण एक तापनाभिकीय संलयन (Thermonuclear Fusion) अभिक्रिया पर आधारित है। हालांँकि प्रारंभिक ऊर्जा प्रदान करने के लिये  हाइड्रोजन बम के मूल में यूरेनियम या प्लूटोनियम के विखंडन पर आधारित एक परमाणु बम को स्थापित किया जाता है।

स्रोत: द हिंदू


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