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डेली न्यूज़

  • 06 Jan, 2022
  • 47 min read
भारतीय राजनीति

ईडब्ल्यूएस कोटा के लिये आय मानदंड

प्रिलिम्स के लिये:

ईडब्ल्यूएस कोटा और संवैधानिक प्रावधान।

मेन्स के लिये:

सामाजिक गतिशीलता और संबंधित मुद्दों में ईडब्ल्यूएस कोटे का महत्त्व।

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में एक सरकारी समिति की रिपोर्ट में सर्वोच्च न्यायालय को बताया गया कि "आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग" (Economical Weaker Sections- EWS) को परिभाषित करने हेतु "आय" एक "व्यवहार्य मानदंड" है।

  • अक्तूबर 2021 में NEET के उम्मीदवारों द्वारा एक याचिका दायर कर पूछा गया कि अखिल भारतीय कोटा (AIQ) श्रेणी के तहत NEET मेडिकल प्रवेश में 10% आरक्षण के अनुदान हेतु  EWS की पहचान करने के लिये वार्षिक आय मानदंड के रूप में '8 लाख रुपए'का निर्धारण किस प्रकार से किया गया है।

EWS कोटा 

  • 10% EWS कोटा 103वें संविधान (संशोधन) अधिनियम, 2019 के तहत अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन करके पेश किया गया था
    • इससे संविधान में अनुच्छेद 15 (6) और अनुच्छेद 16 (6) को सम्मिलित किया गया।
  • यह आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों (EWS) हेतु शिक्षा संस्थानों में नौकरियों और प्रवेश में आर्थिक आरक्षण के लिये है।
  • यह अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) तथा सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों (एसईबीसी) के लिये 50% आरक्षण नीति द्वारा कवर नहीं किये गए गरीबों के कल्याण को बढ़ावा देने हेतु अधिनियमित किया गया था।
  • यह केंद्र और राज्यों दोनों को समाज के EWS को आरक्षण प्रदान करने में सक्षम बनाता है।
  • ईडब्ल्यूएस की पहचान हेतु आय मानदंड 17 जनवरी, 2019 की एक अधिसूचना द्वारा पेश किया गया था, जिसमें ईडब्ल्यूएस की पहचान के लिये अन्य शर्तें रखी गई थीं, जैसे- लाभार्थी के परिवार के पास पांच एकड़ कृषि भूमि,  1,000 वर्ग फुट का आवासीय फ्लैट और अधिसूचित/गैर-अधिसूचित नगर पालिकाओं में 100/200 वर्ग गज और उससे अधिक का आवासीय भूखंड नहीं होनाचाहिये।

प्रमुख बिंदु

  • रिपोर्ट के बारे में
    • 8 लाख रुपए उपयुक्त राशि:
      • समिति ने कहा कि 8 लाख रुपए का मानदंड अधिक समावेश और समावेशन त्रुटियों के बीच एक उपयुक्त राशि है और प्रवेश एवं नौकरियों में आरक्षण का विस्तार करने के लिये ईडब्ल्यूएस का निर्धारण करने हेतु इसे "उचित" सीमा पाया।
      • यह देखते हुए कि वर्तमान में प्रभावी आयकर छूट की सीमा व्यक्तियों के लिये लगभग 8 लाख रुपए है, समिति का विचार है कि पूरे परिवार के लिये 8 लाख रुपए की सकल वार्षिक आय सीमा ईडब्ल्यूएस में शामिल करने के लिये उचित होगी।
    • ओबीसी मानदंड के अनुकरण की अस्वीकृत धारणा:
      • इसने इस धारणा को खारिज कर दिया कि केंद्र ने एक संख्या के रूप में 8 लाख रुपए को "अप्रासंगिक रूप से अपनाया" था क्योंकि इसका उपयोग ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) क्रीमी लेयर कट-ऑफ के लिये भी किया जाता था।
    • ईडब्ल्यूएस के लिये आय मानदंड अधिक सख्त:
      • सबसे पहले ईडब्ल्यूएस का मानदंड आवेदन के वर्ष से पहले के वित्तीय वर्ष से संबंधित है, जबकि ओबीसी श्रेणी में क्रीमी लेयर के लिये आय मानदंड लगातार तीन वर्षों के लिये सकल वार्षिक आय पर लागू होता है।
      • दूसरे, ओबीसी क्रीमी लेयर के मामले में वेतन, कृषि और पारंपरिक कारीगर व्यवसायों से होने वाली आय को विचार से बाहर रखा गया है, जबकि ईडब्ल्यूएस के लिये 8 लाख रुपए के मानदंड में खेती सहित सभी स्रोत शामिल हैं।
      • इसलिये एक ही कट-ऑफ संख्या होने के बावजूद उनकी रचना अलग है और दोनों को समान नहीं माना जा सकता है।
    • अनुसूचित जाति द्वारा समर्थित समान आय सीमा:
      • एक समान आय-आधारित सीमा की वांछनीयता को सर्वोच्च न्यायालय ने बरकरार रखा है और इसे देश भर में आर्थिक एवं सामाजिक नीति के रूप में अपनाया जा सकता है।
  • सिफारिशें:
    • शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के मामले में अनिवार्य रूप से नए मानदंडों को अपनाने से प्रक्रिया में कई महीनों की देरी होगी जिसका भविष्य के सभी प्रवेशों और शैक्षिक गतिविधियों / शिक्षण / परीक्षाओं पर अनिवार्य रूप से व्यापक प्रभाव पड़ेगा जो विभिन्न वैधानिक या न्यायिक रूप से बाध्य हैं।
    • हालाँकि ईडब्ल्यूएस आय की परवाह किये बिना उस व्यक्ति को बाहर कर सकता है जिसके परिवार के पास 5 एकड़ या उससे अधिक की कृषि भूमि है इसके साथ ही आवासीय संपत्ति मानदंड पूरी तरह से हटाया जा सकता है।
      • समिति ने आवासीय संपत्ति मानदंड को पूरी तरह से छोड़ दिया लेकिन 5 एकड़ कृषि भूमि मानदंड को बरकरार रखा है।
    • तीन वर्ष के फीडबैक लूप चक्र का उपयोग इन मानदंडों के वास्तविक परिणामों की निगरानी के लिये और भविष्य में उन्हें समायोजित करने के लिये किया जा सकता है।
    • आय और संपत्तियों को सत्यापित करने तथा ईडब्ल्यूएस आरक्षण व सरकारी योजनाओं हेतु लक्ष्यीकरण में सुधार के लिये डेटा एक्सचेंज एवं सूचना प्रौद्योगिकी का अधिक सक्रिय रूप से उपयोग किया जाना चाहिये।
    • प्रत्येक चल रही प्रक्रिया में मौजूदा और प्रचलित मानदंड में जहाँ ईडब्ल्यूएस आरक्षण उपलब्ध है, जारी रखा जाना चाहिये तथा इस रिपोर्ट में अनुशंसित मानदंड अगले विज्ञापन/प्रवेश चक्र से लागू किये जा सकते हैं।

स्रोत: द हिंदू 


शासन व्यवस्था

पीएमएफएमई योजना

प्रिलिम्स के लिये:

PMFME, NAFED, FPO, एक ज़िला एक उत्पाद, खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र से संबंधित पहल।

मेन्स के लिये:

कृषि विपणन में सुधार के लिये PMFME योजना का महत्त्व।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय और NAFED (नेशनल एग्रीकल्चरल कोऑपरेटिव मार्केटिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड) द्वारा ‘PM फॉर्मलाइज़ेशन ऑफ माइक्रो फूड प्रोसेसिंग एंटरप्राइजेज’ (PM Formalization of Micro Food Processing Enterprises - PM FME) योजना  के अंतर्गत छह, एक ज़िला एक उत्पाद (ODOP) ब्रांड लॉन्च किये गए हैं।

  • मंत्रालय ने PMFME योजना के ब्रांडिंग और विपणन घटक के तहत चयनित ODOP के 10 ब्रांड विकसित करने के लिये NAFED के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं। इनमें से छह ब्रांड अमृत फाल, कोरी गोल्ड, कश्मीरी मंत्र, मधु मंत्र, सोमदाना और दिल्ली बेक्स की सभी व्हीट कुकीज़ हैं।

प्रमुख बिंदु

  • परिचय:
    • इसे आत्म निर्भर अभियान के तहत शुरू किया गया है, इसका उद्देश्य खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के असंगठित क्षेत्र में मौजूदा व्यक्तिगत सूक्ष्म उद्यमों की प्रतिस्पर्द्धात्मकता को बढ़ाना और क्षेत्र की औपचारिकता को बढ़ावा देना तथा किसान उत्पादक संगठनों, स्वयं सहायता समूहों एवं उत्पादक सहकारी समितियों को सहायता प्रदान करना है। 
    • यह योजना इनपुट की खरीद, सामान्य सेवाओं और उत्पादों के विपणन के संबंध में पैमाने का लाभ उठाने के लिये एक ज़िला एक उत्पाद (ओडीओपी) दृष्टिकोण अपनाती है।
    • इसे पाँच वर्ष (2020-21 से 2024-25) की अवधि के लिये लागू किया जाएगा।
  • विशेषताएंँ:
    • एक ज़िला एक उत्पाद (ODOP) दृष्टिकोण:
      • योजना के लिये ODOP मूल्य शृंखला विकास और समर्थन बुनियादी ढांँचे के संरेखण के लिये रुपरेखा प्रदान करेगा। एक ज़िले में ODOP उत्पादों के एक से अधिक समूह हो सकते हैं। 
        • एक राज्य में एक से अधिक निकटवर्ती ज़िलों को मिलाकर ODOP उत्पादों का एक समूह हो सकता है।
      • राज्य मौजूदा समूहों और कच्चे माल की उपलब्धता को ध्यान में रखते हुए ज़िलों के लिये खाद्य उत्पादों की पहचान करेंगे।
      • ओडीओपी में एक क्षेत्र में व्यापक रूप से उत्पादित तथा खराब होने वाली उपज या अनाज या खाद्य पदार्थ हो सकता है जैसे- आम, आलू, अचार, बाजरा आधारित उत्पाद, मत्स्य पालन, मुर्गी पालन आदि।
    • अन्य केंद्रित क्षेत्र:
      • वेस्ट टू वेल्थ उत्पाद, लघु वन उत्पाद और आकांक्षी ज़िले
      • क्षमता निर्माण और अनुसंधान: राज्य स्तरीय तकनीकी संस्थानों के साथ-साथ MoFPI के तहत शैक्षणिक और अनुसंधान संस्थानों को सूक्ष्म इकाइयों हेतु प्रशिक्षण, उत्पाद विकास, उपयुक्त पैकेजिंग एवं मशीनरी के लिये सहायता प्रदान की जाएगी।
    • वित्तीय सहायता:
      • मौजूदा व्यक्तिगत सूक्ष्म खाद्य प्रसंस्करण इकाइयां अपनी इकाइयों को अपग्रेड करने की इच्छुक हैं, वे अधिकतम 10 लाख रुपए प्रति यूनिट के साथ पात्र परियोजना लागत के 35% पर क्रेडिट-लिंक्ड कैपिटल सब्सिडी का लाभ प्राप्त सकती हैं।
      • एफपीओ/ एसएचजी/ सहकारी समितियों या राज्य के स्वामित्व वाली एजेंसियों या निजी उद्यम के माध्यम से सामान्य प्रसंस्करण सुविधा, प्रयोगशाला, गोदाम आदि सहित सामान्य बुनियादी ढांँचे के विकास के लिये  35% पर क्रेडिट लिंक्ड अनुदान के माध्यम से सहायता प्रदान की जाएगी।
      •  40,000 रुपए सीड कैपिटल (प्रारंभिक वित्तपोषण) प्रति स्वयं सहायता समूह के सदस्य को कार्यशील पूंजी और छोटे उपकरणों की खरीद हेतु  प्रदान किया जाएगा।
    • ‘मार्केटिंग’ और ‘ब्रांडिंग’ सहायता:
      • इस योजना के तहत एफपीओ/एसएचजी/सहकारिता समूहों या सूक्ष्म खाद्य प्रसंस्करण उद्यमों के SPV को ‘मार्केटिंग’ और ब्रांडिंग सहायता प्रदान की जाएगी, जो इस प्रकार हैं:
        • ‘मार्केटिंग’ से संबंधित प्रशिक्षण।
        • मानकीकरण सहित एक सामान्य ब्रांड और पैकेजिंग का विकास करना।
        • राष्ट्रीय और क्षेत्रीय खुदरा शृंखलाओं के साथ विपणन गठजोड़।
        • उत्पाद की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिये गुणवत्ता नियंत्रण आवश्यक मानकों को पूरा करना।
  • वित्तपोषण:
    • यह 10,000 करोड़ रुपए के परिव्यय के साथ केंद्र प्रायोजित योजना है।
    • इस योजना के तहत व्यय को केंद्र और राज्य सरकारों के बीच 60:40 के अनुपात में, उत्तर पूर्वी और हिमालयी राज्यों के संदर्भ में 90:10 के अनुपात में, विधायिका युक्त केंद्रशासित प्रदेशों के साथ 60:40 के अनुपात में और अन्य केंद्रशासित प्रदेशों के लिये केंद्र द्वारा 100% साझा किया जाएगा।
  • आवश्यकता:
    • लगभग 25 लाख इकाइयों वाले असंगठित खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र का खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र से जुड़े रोज़गार में 74 प्रतिशत योगदान है।
    • इनमें से लगभग 66% इकाइयाँ ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित हैं और उनमें से लगभग 80% परिवार आधारित उद्यम हैं जो ग्रामीण परिवारों की आजीविका का समर्थन करते हैं तथा शहरी क्षेत्रों में उनके प्रवास को कम करते हैं।
      • ये इकाइयाँ बड़े पैमाने पर सूक्ष्म उद्यमों की श्रेणी में आती हैं।
    • असंगठित खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र कई चुनौतियों का सामना करता है जो उनके प्रदर्शन और विकास को सीमित करता है। इन चुनौतियों में आधुनिक तकनीक व उपकरणों तक पहुँच की कमी, प्रशिक्षण, संस्थागत ऋण तक पहुँच, उत्पादों के गुणवत्ता नियंत्रण पर बुनियादी जागरूकता की कमी और ब्रांडिंग व मार्केटिंग कौशल आदि की कमी शामिल हैं।
  • संबंधित विभिन्न पहल:

राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन फेडरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड

  • परिचय:
    • यह भारत में कृषि उत्पादों संबंधी विपणन सहकारी समितियों का एक शीर्ष संगठन है।
    • इसकी स्थापना 2 अक्तूबर, 1958 को हुई थी और यह बहु-राज्य सहकारी समिति अधिनियम, 2002 के तहत पंजीकृत है।
    • NAFED अब भारत में कृषि उत्पादों के लिये सबसे बड़ी खरीद एवं विपणन एजेंसियों में से एक है।
  • उद्देश्य:
    • कृषि, बागवानी और वन उपज के विपणन, प्रसंस्करण तथा भंडारण को व्यवस्थित करना, बढ़ावा देना एवं विकसित करना
    • कृषि मशीनरी, उपकरण तथा अन्य आदानों को वितरित करना, अंतर-राज्यीय, आयात और निर्यात व्यापार, थोक या खुदरा किसी भी प्रकार का उत्तरदायित्त्व लेना।
    • भारत में इसके सदस्यों, भागीदारों, सहयोगियों और सहकारी विपणन, प्रसंस्करण एवं आपूर्ति समितियों के प्रचार तथा कामकाज के लिये कृषि उत्पादन में तकनीकी सलाह हेतु कार्य करना व सहायता करना

स्रोत- पी.आई.बी


भारतीय राजनीति

भारत में न्यायालयों की भाषा

प्रिलिम्स के लिये:

सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय, अधीनस्थ न्यायालय, न्यायालय में भाषा, अनुच्छेद 19, अनुच्छेद 21, अनुच्छेद 343, अनुच्छेद 348

मेन्स के लिये:

न्यायालयों में प्रयुक्त भाषा और उसका महत्त्व, उच्च न्यायपालिका में क्षेत्रीय भाषाओं के प्रयोग का विश्लेषण।

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में गुजरात उच्च न्यायालय में न्यायालय की अवमानना ( Contempt of Court) का सामना कर रहे एक पत्रकार को न्यायालय द्वारा यह कहते हुए केवल अंग्रेज़ी में बोलने के लिये कहा गया कि यह उच्च न्यायपालिका की भाषा है।

प्रमुख बिंदु 

  • पृष्ठभूमि:
    • भारत में न्यायालयों में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा ने मुगल काल के दौरान उर्दू से फारसी और फारसी लिपियों में बदलाव के साथ सदियों से एक संक्रमण देखा है जो ब्रिटिश शासन के दौरान भी अधीनस्थ न्यायालयों में जारी रहा।
    • अंग्रेज़ों ने भारत में राजभाषा के रूप में अंग्रेज़ी के साथ कानून की एक संहिताबद्ध प्रणाली की शुरुआत की। 
    • स्वतंत्रता के बाद भारत के संविधान के अनुच्छेद 343 में प्रावधान है कि संघ की आधिकारिक भाषा देवनागरी लिपि में हिंदी होगी। 
    • हालाँकि यह अनिवार्य है कि भारत के संविधान के प्रारंभ से 15 वर्षों तक संघ के सभी आधिकारिक उद्देश्यों हेतु अंग्रेज़ी भाषा का उपयोग जारी रहेगा।
      • यह आगे प्रावधान करता है कि राष्ट्रपति उक्त अवधि के दौरान अंग्रेज़ी भाषा के अलावा संघ के किसी भी आधिकारिक उद्देश्य के लिये हिंदी भाषा के उपयोग को अधिकृत कर सकता है।
  • संबंधित प्रावधान:
    • अनुच्छेद 348 (1) (A), जब तक संसद कानून द्वारा अन्यथा प्रदान नहीं करती है, सर्वोच्च न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय के समक्ष सभी कार्यवाही अंग्रेज़ी में आयोजित की जाएगी।
    • अनुच्छेद 348 (2) यह भी प्रावधान करता है कि अनुच्छेद 348 (1) के प्रावधानों के बावजूद किसी राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से उच्च न्यायालय की  कार्यवाही में हिंदी या किसी भी आधिकारिक उद्देश्य के लिये इस्तेमाल की जाने वाली किसी अन्य भाषा के उपयोग को अधिकृत कर सकता है। 
      • उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान तथा मध्य प्रदेश राज्यों ने पहले ही अपने-अपने उच्च न्यायालयों के समक्ष कार्यवाही में हिंदी के उपयोग को अधिकृत कर दिया है और तमिलनाडु भी अपने उच्च न्यायालय के समक्ष तमिल भाषा के उपयोग को अधिकृत करने के लिये उसी दिशा में काम कर रहा है
    • एक अन्य प्रावधान में यह कहा गया है कि इस खंड का कोई भी भाग उच्च न्यायालय द्वारा किये गए किसी भी निर्णय, डिक्री या आदेश पर लागू नहीं होगा।
    • इसलिये संविधान इस चेतावनी के साथ अंग्रेज़ी को सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों की प्राथमिक भाषा के रूप में मान्यता देता है कि भले ही उच्च न्यायालयों की कार्यवाही में किसी अन्य भाषा का उपयोग किया जाए लेकिन उच्च न्यायालयों के निर्णय अंग्रेज़ी में दिये जाने चाहये।
  • राजभाषा अधिनियम 1963:
    • राजभाषा अधिनियम- 1963 राज्यपाल को यह अधिकार देता है कि वह राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से उच्च न्यायलय द्वारा दिये गए निर्णयों, पारित आदेशों में हिंदी अथवा राज्य की किसी अन्य भाषा के प्रयोग की अनुमति दे सकता है, परंतु इसके साथ ही इसका अंग्रेज़ी अनुवाद भी संलग्न करना होगा।
    • यह प्रावधान करता है कि जहाँ कोई निर्णय/आदेश ऐसी किसी भी भाषा में पारित किया जाता है, तो उसके साथ उसका अंग्रेज़ी में अनुवाद होना चाहिये।
      • यदि इसे संवैधानिक प्रावधानों के साथ पढ़ें तो यह स्पष्ट है कि इस अधिनियम द्वारा भी अंग्रेज़ी को प्रधानता दी गई है।
    • राजभाषा अधिनियम में सर्वोच्च न्यायालय का कोई उल्लेख नहीं है,जहाँ अंग्रेज़ी ही एकमात्र ऐसी भाषा है जिसमें कार्यवाही की जाती है।

नोट:

  • वादी को अदालत की कार्यवाही को समझने और उसमें भाग लेने का मौलिक अधिकार है क्योंकि यह यकीनन अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 21 के तहत अधिकारों का एक बंडल प्रदान करता है।
  • वादी को मज़िस्ट्रेट के सामने उस भाषा में बोलने का अधिकार है जिसे वह समझता/समझती है। इसी तरह संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत "न्याय के अधिकार" को भी मान्यता दी गई है।
  • इसलिये संविधान ने वादी को न्याय का अधिकार प्रदान किया है जिसमें आगे यह भी शामिल है कि उसे पूरी कार्यवाही तथा दिये गए निर्णय को समझने का अधिकार होगा।
  • अधीनस्थ न्यायालयों की भाषा:
    • उच्च न्यायालयों के अधीनस्थ सभी न्यायालयों की भाषा आमतौर पर वही रहती है जो राज्य सरकार द्वारा निर्धारित किये जाने तक सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के प्रारंभ पर भाषा के रूप में होती है।
    • अधीनस्थ न्यायालयों में भाषा के प्रयोग के संबंध में प्रावधान में यह शामिल है कि नागरिक प्रक्रिया संहिता की धारा 137 के तहत ज़िला न्यायालयों की भाषा अधिनियम की भाषा के समान होगी।
    • राज्य सरकार के पास न्यायालय की कार्यवाही के विकल्प के रूप में किसी भी क्षेत्रीय भाषा को घोषित करने की शक्ति है।
      • हालाँकि मजिस्ट्रेट द्वारा अंग्रेज़ी में निर्णय, आदेश और डिक्री पारित की जा सकती है
      • साक्ष्यों को दर्ज करने का कार्य राज्य की प्रचलित भाषा में किया जाएगा।
      • अभिवक्ता के अंग्रेज़ी से अनभिज्ञ होने की स्थिति में उसके अनुरोध पर अदालत की भाषा में अनुवाद उपलब्ध कराया जाएगा और इस तरह की लागत अदालत द्वारा वहन की जाएगी।
    • दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 272 में कहा गया है कि राज्य सरकार उच्च न्यायालयों के अलावा अन्य सभी न्यायालयों की भाषा का निर्धारण करेगी। मोटे तौर पर इसका तात्पर्य यह है कि ज़िला अदालतों में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा राज्य सरकार के निर्देशानुसार क्षेत्रीय भाषा होगी।
  • अंग्रेज़ी प्रयोग करने का कारण:
    • जिस तरह पूरे देश से मामले सर्वोच्च न्यायालय में आते हैं, उसी तरह सर्वोच्च न्यायालय के जज और वकील भी भारत के सभी हिस्सों से आते हैं।
    • न्यायाधीशों से शायद ही उन भाषाओं में दस्तावेज़ पढ़ने और तर्क सुनने की उम्मीद की जा सकती है जिनसे वे परिचित नहीं हैं।
    • अंग्रेज़ी के प्रयोग के बिना अपने कर्तव्य का निर्वहन करना असंभव होगा। सर्वोच्च न्यायालय के सभी निर्णय भी अंग्रेज़ी में दिये जाते हैं।
      • हालाँकि वर्ष 2019 में न्यायालय ने अपने निर्णयों को क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद करने के लिये एक पहल की शुरुआत की, बल्कि यह एक लंबा आदेश है, जो न्यायालय द्वारा दिये गए निर्णयों की भारी मात्रा को देखते हुए दिया गया है।
  • अंग्रेज़ी का उपयोग करने का महत्त्व:
    • एकरूपता: वर्तमान में भारत में न्यायिक प्रणाली पूरे देश में अच्छी तरह से विकसित, एकीकृत और एक समान है।
    • आसान पहुँच: वकीलों के साथ-साथ न्यायाधीशों को समान कानूनों और कानून व संविधान के अन्य मामलों पर अन्य उच्च न्यायालयों के विचारों तक आसान पहुँच का लाभ मिलता है।
    • निर्बाध स्थानांतरण: वर्तमान में एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को अन्य उच्च न्यायालयों में निर्बाध रूप से स्थानांतरित किया जाता है।
    • एकीकृत संरचना: इसने भारतीय न्यायिक प्रणाली को एक एकीकृत संरचना प्रदान की है। किसी भी मज़बूत कानूनी प्रणाली की पहचान यह है कि कानून निश्चित, सटीक और अनुमानित होना चाहिये तथा हमने भारत में इसे लगभग हासिल कर लिया है।
    • संपर्क भाषा: बहुत हद तक हम अंग्रेज़ी भाषा के लिये ऋणी हैं, जिसने भारत के लिये एक संपर्क भाषा के रूप में कार्य किया है जहाँ हमारे पास लगभग दो दर्जन आधिकारिक राज्य भाषाएँ हैं।

आगे की राह

  • भारत में भाषा हमेशा एक भावनात्मक मुद्दा रहा है और 25 विभिन्न उच्च न्यायालयों में राज्यों की संबंधित आधिकारिक भाषाओं की शुरुआत का मुद्दा बड़ा है, जिसका भारतीय न्यायिक प्रणाली पर बहुत गंभीर असर होगा।
  • देश के भीतर अब तक एकीकृत और अच्छी तरह से संरचित कानूनी प्रणाली राज्यों द्वारा भाषायी एकता के विघटन से विघटित हो सकती है।
  • कार्यवाही के लिये आधिकारिक राज्य भाषाओं की शुरुआत भी सीधे उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की स्थानांतरण नीति का सामना करती है और हस्तक्षेप करती है।
  • इस प्रकार विभिन्न राज्यों द्वारा अपने-अपने उच्च न्यायालयों में किसी भी स्तर पर अन्य राज्यों के साथ चर्चा किये बिना या अंग्रेज़ी के स्थान पर वैकल्पिक संपर्क भाषा के लिये सर्वसम्मति की एक समानता प्राप्त करने हेतु कोई प्रयास किये बिना अपनी आधिकारिक भाषा को पेश करने का विकल्प प्रदान करेगा।
  • विभिन्न राज्यों की न्यायपालिकाओं के बीच संचार के माध्यम समाप्त हो जाएंगे। उस स्थिति में देश की न्यायिक व्यवस्था का एकीकृत ढाँचा ही एकमात्र वस्तु नहीं होगी, जो क्षुद्र क्षेत्रीय राजनीति और भाषायी रूढ़िवाद की वेदी पर चढ़ सकती है।

स्रोत: द हिंदू


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

इंटरनेट ऑफ थिंग्स की सुरक्षा

प्रिलिम्स के लिये:

इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IoT), आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस / मशीन लर्निंग, क्लाउड / एज कंप्यूटिंग

मेन्स के लिये:

उपभोक्ता इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IoT) को सुरक्षित करने के लिये अभ्यास संहिता, साइबर-सिक्योरिटी, इंटरनेट ऑफ थिंग्स और इसके उपयोग।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में संचार मंत्रालय, दूरसंचार विभाग के अंतर्गत आने वाले दूरसंचार इंजीनियरिंग केंद्र (TEC) ने उपभोक्ता इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IoT) उपकरणों को सुरक्षित करने के उद्देश्य से "उपभोक्ता इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IoT) को सुरक्षित करने के लिये अभ्यास संहिता" (Code of Practice for Securing Consumer Internet of Things) नामक एक रिपोर्ट जारी की है।

  • ये दिशा-निर्देश उपभोक्ता IoT उपकरणों और पारिस्थितिकी तंत्र को सुरक्षित करने के साथ-साथ सुभेद्यताओं को प्रबंधित करने में मदद करेंगे।

IoT

प्रमुख बिंदु 

  • इंटरनेट ऑफ थिंग्स:
    • परिभाषा: सामान्य रूप से यह इंटरनेट का एक नेटवर्क है जो उन वस्तुओं को आपस में जोड़ता है जो डेटा को संग्रहित और परिवर्तित करने में सक्षम हैं।
    • फास्टिंग ग्रोइंग टेक्नोलॉजी में से एक: यह दुनिया भर में सबसे तेज़ी से उभरती प्रौद्योगिकियों में से एक है, जो समाज, उद्योग और उपभोक्ताओं के लिये काफी लाभकारी अवसर प्रदान करती है।
    • IoT का उपयोग: इसका उपयोग बिजली, मोटर वाहन, सुरक्षा और निगरानी, ​​​​दूरस्थ स्वास्थ्य प्रबंधन, कृषि, स्मार्ट होम और स्मार्ट सिटी आदि में प्रयुक्त उपकरणों का उपयोग करके स्मार्ट बुनियादी ढाँचे को बनाने के लिये किया जा रहा है।
      • एक स्मार्ट डिवाइस- यह अत्यंत आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक उपकरण है जो स्वायत्त कंप्यूटिंग और डेटा एक्सचेंज के लिये तार या वायरलेस के माध्यम से अन्य उपकरणों से कनेक्ट करने में सक्षम है।
    • पूरक तकनीकें: IoT सेंसर, संचार प्रौद्योगिकियों (सेलुलर और गैर-सेलुलर), आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस / मशीन लर्निंग, क्लाउड / एज कंप्यूटिंग आदि जैसी कई तकनीकों में हालिया प्रगति से लाभान्वित हुआ है।
  • IOT का परिमाण: यह अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2025 तक वैश्विक स्तर पर लगभग 11.4 बिलियन उपभोक्ता IoT डिवाइस और 13.3 बिलियन इंटरप्राइजेज़ IoT डिवाइस से युक्त होंगे, यानी उपभोक्ता IoT डिवाइस सभी IoT उपकरणों का लगभग 45% हिस्सा होंगे।
    • ‘मार्केट्स एंड मार्केट्स’ द्वारा प्रकाशित एक मार्केट रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक IoT सुरक्षा बाज़ार का आकार वर्ष 2018 में USD 8.2 बिलियन से बढ़कर वर्ष 2023 तक USD 35.2 बिलियन होने की उम्मीद है।
  • दिशा-निर्देशों की आवश्यकता:
    • प्रत्याशित वृद्धि: IoT उपकरणों की प्रत्याशित वृद्धि को देखते हुए यह सुनिश्चित करना महत्त्वपूर्ण है कि IoT समापन बिंदु सुरक्षा और सुरक्षा मानकों का अनुपालन करते हैं।
    • साइबर-सुरक्षा हमला: दैनिक जीवन में उपयोग किये जा रहे उपकरणों/नेटवर्क की हैकिंग से कंपनियों, संगठनों, राष्ट्रों और अधिक महत्त्वपूर्ण रूप से लोगों को नुकसान होगा।
      • इसलिये IoT इकोसिस्टम को एंड-टू-एंड यानी डिवाइस से एप्लीकेशन तक सुरक्षित करना बहुत महत्त्वपूर्ण है।
      • कनेक्टेड IoT उपकरणों के लिये ‘एंड टू एंड’ सुरक्षा सुनिश्चित करना इस बाज़ार में सफलता की कुंजी है। इस सुरक्षा के बिना IoT का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।
    • गोपनीयता संबंधी चिंताएँ: इस डेटा-संचालित भविष्य में सरकारी निगरानी में वृद्धि और नागरिक अधिकारों के परिणामी अतिक्रमण, असंतोष या हाशिए के समुदायों के दमन की संभावना के बारे में चिंता बढ़ रही है।
    • साइबर सुरक्षा हमले के परिणाम: ऐसे हमलों के संभावित परिणामों में शामिल हो सकते हैं:
      • महत्त्वपूर्ण सेवाओं/बुनियादी ढाँचे में रुकावट।
      • निजता का उल्लंघन।
      • जीवन, धन, समय, संपत्ति, स्वास्थ्य, संबंधों आदि की हानि।
      • नागरिक अशांति सहित राष्ट्रीय स्तर पर व्यवधान।
  • उपभोक्ता IoT हासिल करने के लिये दिशा-निर्देश:
    • कोई यूनिवर्सल डिफॉल्ट पासवर्ड नहीं: प्रति डिवाइस सभी IoT डिवाइस डिफॉल्ट पासवर्ड  अद्वितीय होंगे और/या डिवाइस प्रोविज़निंग के दौरान उपयोगकर्त्ता को एक पासवर्ड चुनने की आवश्यकता होगी जो सर्वोत्तम आदेशों का पालन करता हो।
    • संवेदनशील रिपोर्ट को प्रबंधित करने के लिये एक साधन लागू करना: IoT डेवलपर्स को भेद्यता प्रकटीकरण नीति के हिस्से के रूप में एक समर्पित सार्वजनिक संपर्क बिंदु प्रदान करना चाहिये।
    • सॉफ्टवेयर को अद्यतन रखना: IoT उपकरणों में सॉफ्टवेयर घटकों को सुरक्षित रूप से अद्यतन करने योग्य होना चाहिये।
    • संवेदनशील सुरक्षा मापदंडों को सुरक्षित रूप से संग्रहीत करना: IoT उपकरणों को सुरक्षा मापदंडों जैसे कि कुंजी और क्रेडेंशियल, प्रमाणपत्र, डिवाइस पहचान आदि जो कि डिवाइस के सुरक्षित संचालन के लिये महत्त्वपूर्ण हैं, को संग्रहीत करने की आवश्यकता हो सकती है।
    • सुरक्षित संचार: किसी भी दूरस्थ प्रबंधन और नियंत्रण सहित सुरक्षा-संवेदनशील डेटा, जो तकनीकी गुणों तथा डिवाइस के उपयोग हेतु उपयुक्त हो, को ट्रांज़िट में एन्क्रिप्ट किया जाना चाहिये
    • प्रत्यक्ष हमलों की बारंबारता को कम करना: उपकरणों और सेवाओं को 'कम-से-कम विशेषाधिकार के सिद्धांत' पर काम करना चाहिये।
      •  'कम-से-कम विशेषाधिकार के सिद्धांत'  के अनुसार, किसी व्यक्ति को केवल वही विशेषाधिकार दिये जाने चाहिये जो उसके कार्य को पूरा करने के लिये आवश्यक हों।
    • व्यक्तिगत डेटा की सुरक्षा सुनिश्चित करना: यदि डिवाइस व्यक्तिगत डेटा को एकत्र या प्रसारित करता है, तो ऐसे डेटा को सुरक्षित रूप से संग्रहीत किया जाना चाहिये।
    • सिस्टम को लचीला बनाना: IoT उपकरणों और सेवाओं में लचीलापन लाया जाना चाहिये जहांँ उनका उपयोग अन्य भरोसेमंद सिस्टम द्वारा करना आवश्यक हो।

आगे की राह 

  • डेटा सुरक्षा से संबंधित चिंताओं को संबोधित करना: IoT तकनीक स्पष्ट रूप से दुनिया भर के नागरिकों के लिये सकारात्मक रूप से महत्त्वपूर्ण है, जिससे अधिक लाभ के साथ गोपनीयता के लिये संभावित जोखिम भी उत्पन्न होता है।
    • डेटा संरक्षण हेतु इस चिंता को दूर करने की आवश्यकता होगी और IoT निर्माताओं को अपने उपकरणों के प्रति उपभोक्ता विश्वास को बनाए रखना होगा।
    • इस संदर्भ में डेटा संरक्षण विधेयक, 2019 सही दिशा में एक कदम है।
  • वैश्विक विचार-विमर्श की आवश्यकता: वैश्विक स्तर पर कानून निर्माताओं, उपकरण निर्माताओं और कानून प्रवर्तन एजेंसियों को जोखिमों को कम करते हुए IoT से अधिक लाभ प्राप्त करने हेतु एक साथ आना चाहिये।

स्रोत: पी.आई.बी 


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद

प्रिलिम्स के लिये:

संयुक्त राष्ट्र और उसके प्रमुख अंग, UNSC और इसकी विशेषताएँ।

मेन्स के लिये:

UNSC के कामकाज से संबंधित मुद्दे, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार लाने की आवश्यकता, UNSC के एक अस्थायी सदस्य के रूप में भारत की भूमिका, UNSC में स्थायी सदस्यता हेतु भारत का दावा।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में पाँच नए अस्थायी सदस्यों (अल्बानिया, ब्राज़ील, गैबॉन, घाना और संयुक्त अरब अमीरात) का चयन किया गया है।

  • एस्टोनिया, नाइजर, सेंट विंसेंट और ग्रेनेडाइंस, ट्यूनीशिया व वियतनाम ने हाल ही में अपना कार्यकाल पूरा कर लिया है।
  • अल्बानिया पहली बार सुरक्षा परिषद में शामिल हो रहा है, जबकि ब्राज़ील 11वीं बार सुरक्षा परिषद में अस्थायी सदस्य के तौर पर शामिल हो रहा है। गैबॉन और घाना पहले तीन बार परिषद में रहे हैं तथा संयुक्त अरब अमीरात एक बार परिषद में शामिल हो चुका है।
  • संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में से 50 से अधिक देशों को इसके गठन के बाद से कभी भी परिषद के लिये नहीं चुना गया है।

प्रमुख बिंदु

  • संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद:
    • परिचय:
      • सुरक्षा परिषद की स्थापना 1945 में संयुक्त राष्ट्र चार्टर द्वारा की गई थी। यह संयुक्त राष्ट्र के छह प्रमुख अंगों में से एक है।
        • संयुक्त राष्ट्र के अन्य 5 अंगों में शामिल हैं- संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA), ट्रस्टीशिप परिषद, आर्थिक और सामाजिक परिषद, अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय एवं सचिवालय।
      • यह मुख्य तौर पर अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखने हेतु उत्तरदायी है।
      • परिषद का मुख्यालय न्यूयॉर्क में स्थित है।
    • सदस्य:
      • सुरक्षा परिषद में कुल 15 सदस्य होते हैं: पाँच स्थायी सदस्य और दो वर्षीय कार्यकाल हेतु चुने गए दस अस्थायी सदस्य।
        • पाँच स्थायी सदस्य संयुक्त राज्य अमेरिका, रूसी संघ, फ्राँँस, चीन और यूनाइटेड किंगडम हैं।
        • भारत ने पिछले वर्ष (2021) आठवीं बार एक अस्थायी सदस्य के रूप में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में प्रवेश किया था और दो वर्ष यानी वर्ष 2021-22 तक परिषद में रहेगा।
      • प्रतिवर्ष महासभा दो वर्ष के कार्यकाल के लिये पाँच अस्थायी सदस्यों (कुल दस में से) का चुनाव करती है। दस अस्थायी सीटों का वितरण क्षेत्रीय आधार पर किया जाता है।
      • परिषद की अध्यक्षता प्रतिमाह 15 सदस्यों के बीच रोटेट होती है।
    • मतदान शक्ति
      • सुरक्षा परिषद के प्रत्येक सदस्य का एक मत होता है। सभी मामलों पर सुरक्षा परिषद के निर्णय स्थायी सदस्यों सहित नौ सदस्यों के सकारात्मक मत द्वारा लिये जाते हैं, जिसमें सदस्यों की सहमति अनिवार्य है। पाँच स्थायी सदस्यों में से यदि कोई एक भी प्रस्ताव के विपक्ष में वोट देता है तो वह प्रस्ताव पारित नहीं होता है।
      • संयुक्त राष्ट्र का कोई भी सदस्य जो सुरक्षा परिषद का सदस्य नहीं है, बिना वोट के सुरक्षा परिषद के समक्ष लाए गए किसी भी प्रश्न की चर्चा में भाग ले सकता है, यदि सुरक्षा परिषद को लगता है कि उस विशिष्ट मामले के कारण उस सदस्य के हित विशेष रूप से प्रभावित होते हैं।
  •  UNSC और भारत  :
    • भारत ने वर्ष 1947-48 में मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा (यूडीएचआर) के निर्माण में सक्रिय रूप से भाग लिया और दक्षिण अफ्रीका में नस्लीय भेदभाव के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद की।
    • भारत ने संयुक्त राष्ट्र में पूर्व उपनिवेशों को स्वीकार करने, मध्य पूर्व में प्राणघातक संघर्षों को संबोधित करने और अफ्रीका में शांति बनाए रखने जैसे कई मुद्दों पर निर्णय लेने में अपनी भूमिका निभाई है।
    • इसने संयुक्त राष्ट्र में विशेष रूप से अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के रखरखाव के लिये बड़े पैमाने पर योगदान दिया है।
      • भारत ने 43 शांति अभियानों में भाग लिया है, जिसमें कुल योगदान 160,000 से अधिक सैनिकों और महत्त्वपूर्ण संख्या में पुलिस कर्मियों का है।
    • भारत की जनसंख्या, क्षेत्रीय आकार, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी), आर्थिक क्षमता, सभ्यतागत विरासत, सांस्कृतिक विविधता, राजनीतिक व्यवस्था और संयुक्त राष्ट्र की गतिविधियों में अतीत तथा वर्तमान में भारत द्वारा दिये जा रहे योगदानों ने इसकी यूएनएससी में स्थायी सीट की मांग को पूरी तरह से तर्कसंगत बना दिया है।
  • यूएनएससी के साथ मुद्दे:
    • अभिलेखों और बैठकों की अनुपस्थिति:
      • संयुक्त राष्ट्र के सामान्य नियम यूएनएससी के विचार-विमर्श पर लागू नहीं होते हैं और इसकी बैठकों का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता है।
      • इसके अतिरिक्त चर्चा, संशोधन या आपत्ति के लिये बैठक का कोई प्रावधान नहीं है।
    • UNSC में भूमिका: 
      • यूएनएससी के पाँच स्थायी सदस्यों को जो वीटो शक्तियाँ प्राप्त हैं, वह कालानुक्रमिक हैं।
      • यूएनएससी अपने वर्तमान स्वरूप में मानव सुरक्षा और शांति के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय परिवर्तनों व गतिशीलता को समझने में एक बाधा बन गया है।
    • P5 के बीच विभाजन: 
      • संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता में एक ध्रुवीकरण की स्थिति देखी जाती है इसलिये  निर्णय या तो नहीं लिये जाते हैं या उन पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
      • UNSC के भीतर बार-बार विभाजन, P-5 प्रमुख के निर्णयों को अवरुद्ध करता है।
        • उदाहरण: कोरोनावायरस महामारी के उद्भव के साथ संयुक्त राष्ट्र, UNSC और विश्व स्वास्थ्य संगठन राष्ट्रों को महामारी के प्रसार से निपटने में मदद करने में प्रभावी भूमिका निभाने में विफल रहे।
    • संगठन में प्रतिनिधित्व का अभाव:
      • विश्व स्तर पर महत्त्वपूर्ण देश- भारत, जर्मनी, ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका की  UNFC में अनुपस्थिति चिंता का विषय है।

आगे की राह 

  • P5 और शेष विश्व के बीच शक्ति संबंधों में असंतुलन को तत्काल ठीक करने की आवश्यकता है।
  • साथ ही स्थायी और अस्थायी सीटों के विस्तार के माध्यम से सुरक्षा परिषद में सुधार करने की भी आवश्यकता है ताकि संयुक्त राष्ट्र संघ अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के रखरखाव हेतु "सदा जटिल और उभरती चुनौतियों" से बेहतर तरीके से निपट सके।
  • UNSC के अस्थायी सदस्यों में से एक के रूप में भारत UNSC में सुधार के लिये एक व्यापक सेट वाले प्रस्ताव का मसौदा तैयार करके शुरू कर सकता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


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