भारतीय राजनीति
राज्यपाल की भूमिका संबंधित विवाद
- 19 Jun 2021
- 9 min read
प्रिलिम्स के लियेराज्यपाल के पद से संबंधित संवैधानिक प्रावधान मेन्स के लियेराज्यपाल की भूमिका संबंधित विवाद और इस संबंध की गई विभिन्न सिफारिशें |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने राज्य के राज्यपाल को केंद्र सरकार के व्यक्ति के रूप में संबोधित किया।
- कई सांसदों सहित मुख्यमंत्री ने भारत के राष्ट्रपति को पत्र लिखकर राज्यपाल को वापस बुलाने की मांग की है।
प्रमुख बिंदु
राज्यपाल से संबंधित संवैधानिक प्रावधान
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 153 के तहत प्रत्येक राज्य के लिये एक राज्यपाल का प्रावधान किया गया है। एक व्यक्ति को दो या दो से अधिक राज्यों के राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया जा सकता है।
- राज्यपाल केंद्र सरकार का एक नामित व्यक्ति होता है, जिसे राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है।
- संविधान के मुताबिक, राज्य का राज्यपाल दोहरी भूमिका अदा करता है।
- वह राज्य के मंत्रिपरिषद (CoM) की सलाह मानने को बाध्य राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है।
- इसके अतिरिक्त वह केंद्र सरकार और राज्य सरकार के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में कार्य करता है।
- अनुच्छेद 157 और 158 के तहत राज्यपाल पद के लिये पात्रता संबंधी आवश्यकताओं को निर्दिष्ट किया गया है।
- राज्यपाल को संविधान के अनुच्छेद 161 के तहत क्षमादान और दंडविराम आदि की भी शक्ति प्राप्त है।
- कुछ विवेकाधीन शक्तियों के अतिरिक्त राज्यपाल को उसके अन्य सभी कार्यों में सहायता करने और सलाह देने के लिये मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में एक मंत्रिपरिषद का गठन किये जाने का प्रावधान है। (अनुच्छेद 163)
- राज्य के मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है। (अनुच्छेद 164)
- राज्यपाल, राज्य की विधानसभा द्वारा पारित विधेयक को अनुमति देता है, अनुमति रोकता है अथवा राष्ट्रपति के विचार के लिये विधेयक को सुरक्षित रखता है। (अनुच्छेद 200)
- राज्यपाल कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में अध्यादेशों को प्रख्यापित कर सकता है। (अनुच्छेद 213)
राज्यपाल की भूमिका संबंधित विवाद
- केंद्र सरकार द्वारा सत्ता का दुरुपयोग: प्रायः केंद्र में सत्ताधारी दल के निर्देश पर राज्यपाल के पद के दुरुपयोग के कई उदाहरण देखने को मिलते हैं।
- राज्यपाल की नियुक्ति की प्रकिया को इसमें प्रमुख कारण माना जाता है।
- पक्षपाती विचारधारा: कई मामलों में एक विशेष राजनीतिक विचारधारा वाले राजनेताओं और पूर्व नौकरशाहों को केंद्र सरकार द्वारा राज्यपालों के रूप में नियुक्त किया जाता है।
- यह संवैधानिक रूप से अनिवार्य तटस्थ पद के पूर्ण विरुद्ध है और यह पक्षपात को जन्म देता है, जैसा कि कर्नाटक और गोवा के मामलों में देखा गया।
- कठपुतली शासक: हाल ही में राजस्थान के राज्यपाल पर आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन का आरोप लगाया गया है। केंद्रीय सत्ताधारी दल के प्रति उनका समर्थन गैर-पक्षपात की भावना के विरुद्ध है जिसकी अपेक्षा संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति से की जाती है।
- ऐसी घटनाओं के कारण ही राज्य के राज्यपाल के लिये केंद्र के एजेंट, कठपुतली और रबर स्टैम्प जैसे नकारात्मक शब्दों का उपयोग किया जाता है।
- एक विशेष राजनीतिक दल का पक्ष लेना: चुनाव के बाद सबसे बड़ी पार्टी/गठबंधन के नेता को सरकार बनाने के लिये आमंत्रित करने की राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों का प्रायः किसी विशेष राजनीतिक दल के पक्ष में दुरुपयोग किया जाता है।
- शक्ति का अनुचित उपयोग: प्रायः यह देखा गया है कि किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356) के लिये राज्यपाल की सिफारिश सदैव 'तथ्यों' पर आधारित न होकर राजनीतिक भावना और पूर्वाग्रह पर आधारित होती है।
राज्यपाल के पद से संबंधित सिफारिशें
राज्यपाल की नियुक्ति और निष्कासन के संबंध में
- ‘पुंछी आयोग’ (2010) ने सिफारिश की थी कि राज्य विधायिका द्वारा राज्यपाल पर महाभियोग चलाने का प्रावधान संविधान में शामिल किया जाना चाहिये।
- राज्यपाल की नियुक्ति में राज्य के मुख्यमंत्री की राय भी ली जानी चाहिये।
अनुच्छेद 356 के संबंध में
- ‘पुंछी आयोग’ ने अनुच्छेद 355 और 356 में संशोधन करने की सिफारिश की थी।
- ‘सरकारिया आयोग’ (1988) ने सिफारिश की थी कि अनुच्छेद 356 का उपयोग बहुत ही दुर्लभ मामलों में विवेकपूर्ण तरीके से ऐसी स्थिति में किया जाना चाहिये जब राज्य में संवैधानिक तंत्र को बहाल करना अपरिहार्य हो गया हो।
- इसके अलावा प्रशासनिक सुधार आयोग (1968), राजमन्नार समिति (1971) और न्यायमूर्ति वी. चेलैया आयोग (2002) आदि ने भी इस संबंध में सिफारिशें की हैं।
अनुच्छेद 356 के तहत राज्य सरकार की बर्खास्तगी के संबंध में
- एस.आर. बोम्मई मामला (1994): इस मामले के तहत केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों की मनमानी बर्खास्तगी को समाप्त कर दिया गया।
- निर्णय के मुताबिक, विधानसभा ही एकमात्र ऐसा मंच है, जहाँ तत्कालीन सरकार के बहुमत का परीक्षण करना चाहिये, न कि राज्यपाल की व्यक्तिपरक राय के आधार पर।
विवेकाधीन शक्तियों के संबंध में
- नबाम रेबिया मामले (2016) में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा था कि अनुच्छेद 163 के तहत राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग सीमित है और राज्यपाल की कार्रवाई मनमानी या काल्पनिक तथ्यों के आधार पर नहीं होनी चाहिये।
आगे की राह
- विवेकाधीन शक्तियों का विवेकपूर्ण उपयोग: सरकार की कार्यप्रणाली के सुचारु संचालन के लिये आवश्यक है कि राज्यपाल अपनी विवेकाधीन शक्तियों और व्यक्तिगत निर्णय का प्रयोग करते हुए विवेकपूर्ण, निष्पक्ष और कुशलता से कार्य करे।
- संघवाद को मज़बूत करना: राज्यपाल पद के दुरुपयोग को रोकने के लिये भारत में संघीय व्यवस्था को मज़बूत करने की आवश्यकता है।
- इस संबंध में अंतर-राज्य परिषद और राज्यसभा की भूमिका को मज़बूत किया जाना महत्त्वपूर्ण साबित हो सकता है।
- राज्यपाल की नियुक्ति की पद्धति में सुधार: राज्यपाल की नियुक्ति राज्य विधायिका द्वारा तैयार किये गए पैनल के आधार पर की जा सकती है, वहीं वास्तविक नियुक्ति का अधिकार अंतर-राज्य परिषद को होना चाहिये, न कि केंद्र सरकार को।
- राज्यपाल के लिये आचार संहिता: इस 'आचार संहिता' में कुछ 'मानदंड और सिद्धांत' निर्धारित किये जाने चाहिये, जो राज्यपाल के 'विवेक' और उसकी शक्तियों के प्रयोग हेतु मार्गदर्शन कर सके।