भारत में किसान विद्रोह | 18 Jul 2024
प्रिलिम्स के लिये:भू-राजस्व व्यवस्था, अनुपस्थित ज़मींदारी, संन्यासी विद्रोह, रंगपुर किसान विद्रोह, मैसूर विद्रोह, फराज़ी आंदोलन, वहाबी आंदोलन, नील विद्रोह, दक्कन विद्रोह, पाबना आंदोलन, चंपारण आंदोलन, खेड़ा सत्याग्रह, एका आंदोलन, मोपला विद्रोह, बारदोली सत्याग्रह, अखिल भारतीय किसान सभा, तेभागा आंदोलन, तेलंगाना आंदोलन, बंगाल अकाल, ईस्ट इंडिया कंपनी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, सरदार वल्लभभाई पटेल, सविनय अवज्ञा आंदोलन, सत्याग्रह, पूना सार्वजनिक सभा मेन्स के लिये:औपनिवेशिक शोषण के विरुद्ध संघर्ष में किसान समुदाय की भूमिका, |
किसान कौन हैं?
यह मोटेतौर पर भूमिहीन कृषि मज़दूरों, बटाईदारों, काश्तकारों, गरीब कारीगरों और लघु एवं सीमांत किसानों के विशाल समूह का प्रतिनिधित्व करता है।
- वे स्वयं भूमि पर कृषि करते थे।
- वे सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर पड़े, सांस्कृतिक रूप से वशीभूत और राजनीतिक रूप से अशक्त सामाजिक समूह हैं।
किसानों ने विद्रोह क्यों किया?
- जनजातीय विद्रोह के कारण निम्नलिखित थे:
- भारतीय हथकरघा और हस्तशिल्प उद्योग का विनाश: इसके कारण बड़े पैमाने पर श्रमिकों का उद्योग से कृषि की ओर पलायन हुआ।
- ब्रिटिश भूमि राजस्व समझौते: नए करों के भारी बोझ ने किसानों को पूरी तरह से राजस्व मध्यस्थों और अधिकारियों की दया पर निर्भर बना दिया।
- जनजातीय भूमि पर अतिक्रमण: जनजातीय क्षेत्रों पर ब्रिटिश राजस्व प्रशासन के विस्तार के कारण कृषि और वन भूमि पर जनजातीय लोगों का नियंत्रण समाप्त हो गया।
- मध्यस्थ राजस्व संग्रहकर्त्ता: बढ़ते काश्तकार एवं साहूकार, भ्रष्ट आचरण तथा कर वसूलने वाले अधिकारियों के कठोर रवैये ने समस्या को और बढ़ा दिया।
- ऋणग्रस्तता: किसान भूमि राजस्व का भुगतान करने के लिये साहूकारों से धन उधार लेते थे। गरीब किसान कभी भी उधार लिया गया धन वापस नहीं कर पाते थे।
- अनुपस्थित ज़मींदारी: अंग्रेज़ों ने ज़ब्त की गई ज़मीन को सबसे ऊँची बोली लगाने वाले को नीलाम कर दिया, जो अक्सर शहरी इलाकों से आते थे। शहर के नए ज़मींदारों की ज़मीन में बहुत कम या कोई दिलचस्पी नहीं थी। वे ज़मीन की उर्वरता बढ़ाने के लिये बीज या खाद पर पैसा नहीं लगाते थे, बल्कि सिर्फ उतना ही राजस्व इकट्ठा करने की परवाह करते थे जितना वे कर सकते थे।
- संस्थागत शोषण: ब्रिटिश कानून और न्यायपालिका ने किसानों की मदद नहीं की। इसने सरकार तथा उसके सहयोगियों यानी ज़मींदारों, व्यापारियों एवं साहूकारों के हितों की रक्षा की।
- किसानों का सुलगता असंतोष भारत के विभिन्न भागों में अलग-अलग समय पर लोकप्रिय विद्रोहों के रूप में सामने आया।
महत्त्वपूर्ण किसान विद्रोह क्या हैं?
- संन्यासी विद्रोह (1763-1800)
- संन्यासी और फकीर धार्मिक भिक्षु थे। मूलतः वे किसान थे।
- किसानों की बढ़ती कठिनाई, राजस्व की बढ़ती मांग और 1770 के बंगाल के अकाल के कारण बड़ी संख्या में बेदखल छोटे ज़मींदार, बर्खास्त सैनिक तथा ग्रामीण गरीब लोग संन्यासियों एवं फकीरों के समूह में शामिल हो गए।
- वे 5 से 7 हज़ार के समूहों में बंगाल और बिहार के विभिन्न भागों में घूमते रहे तथा गुरिल्ला तकनीक अपनाई।
- उनके हमले का लक्ष्य अमीरों के अनाज भंडार और बाद में सरकारी अधिकारी थे।
- उन्होंने बोगरा और मैमनसिंह में एक स्वतंत्र सरकार स्थापित की।
- इन विद्रोहों की एक उल्लेखनीय विशेषता यह थी कि इनमें हिंदुओं और मुसलमानों की समान भागीदारी थी।
- इन आंदोलनों के कुछ महत्त्वपूर्ण नेता मंजू शाह, मूसा शाह, भवानी पाठक और देवी चौधरानी थे।
- वर्ष 1872 में बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने आनंदमठ नामक ऐतिहासिक उपन्यास प्रकाशित किया, जो संन्यासी विद्रोह की पृष्ठभूमि पर आधारित था।
- रंगपुर किसान विद्रोह (1783):
- रंगपुर और दिनाजपुर बंगाल के दो ऐसे ज़िले थे जिन्हें ईस्ट इंडिया कंपनी और उसके राजस्व ठेकेदारों द्वारा सभी प्रकार की अवैध मांगों का सामना करना पड़ा।
- देबी सिंह (राजस्व ठेकेदार) और उसके आदमी किसानों को पीटते तथा कोड़े मारते थे, उनके घर जला देते थे एवं उनकी फसलें नष्ट कर देते थे, यहाँ तक कि महिलाओं को भी नहीं बख्शा जाता था।
- विद्रोही किसानों ने तलवारों, ढालों, धनुष-बाणों से लैस बड़ी संख्या में किसान एकत्र किये।
- उन्होंने दिर्जिनरायन को अपना नेता चुना और स्थानीय कटघरों तथा ठेकेदारों एवं सरकारी अधिकारियों के फसल भंडारों पर हमला किया।
- विद्रोहियों ने राजस्व का भुगतान रोक दिया और विद्रोह के खर्चों को पूरा करने के लिये "विद्रोह शुल्क" लगाया।
- इस विद्रोह में हिंदू और मुसलमान दोनों ने कंधे से कंधा मिलाकर लड़ाई लड़ी।
- मैसूर विद्रोह (1830-31):
- मैसूर शासक पर कंपनी के वित्तीय दबाव ने उन्हें ज़मींदारों से राजस्व की मांग बढ़ाने के लिये मजबूर किया।
- किसानों का बढ़ता असंतोष नगर प्रांत में खुले विद्रोह (Open Revolt) में बदल गया।
- विद्रोही किसानों को क्रेम्सी (Kremsi) के एक आम किसान के बेटे सरदार मल्ला के रूप में अपना नेता मिल गया।
- फराज़ी आंदोलन (1838-1848):
- फराज़ी आंदोलन की स्थापना फरीदपुर के हाजी शरीयतुल्लाह ने की थी।
- आंदोलन के संस्थापक के पुत्र दुदु मियाँ (Dudu Miyan) के नेतृत्व में फराज़ी आंदोलन एक समतावादी विचारधारा वाले धार्मिक संप्रदाय के रूप में एकजुट हो गया।
- उन्होंने उपदेश दिया कि सभी मनुष्य समान हैं और भूमि भगवान की है तथा किसी को भी उस पर कर लगाने का अधिकार नहीं है।
- उन्होंने ज़मींदारों के घरों और कचहरियों पर छापा मारा तथा पंचचर में नील कारखाने को जला दिया।
- वहाबी आंदोलन (1830-1860 का दशक):
- इस आंदोलन के नेता रायबरेली के सैयद अहमद बरेलवी (Syed Ahmed Barelvi) थे, जो अरब के अब्दुल वहाब और दिल्ली के संत शाह वलीउल्लाह की शिक्षाओं से काफी प्रभावित थे।
- यह आंदोलन मूलतः धार्मिक था, लेकिन शीघ्र ही इसने कुछ स्थानों पर, विशेषकर बंगाल में वर्ग संघर्ष का स्वरूप धारण कर लिया।
- इसने किसानों को उनके ज़मींदारों के विरुद्ध एकजुट किया।
- नील विद्रोह (1859-1862):
- ज़मींदारों और किसानों पर उच्च कर चुकाने और वाणिज्यिक फसलों का उत्पदान करने हेतु विवश किया गया।
- ऐसी ही एक वाणिज्यिक फसल थी नील।
- नील की खेती अंग्रेज़ी कपड़ा बाज़ारों की आवश्यकताओं के अनुरूप निर्धारित की जाती थी।
- किसानों ने नील की खेती करने से इनकार करते हुए बंगाल में आंदोलन शुरू किया ।
- प्रेस और मिशनरियों ने इन किसानों का समर्थन मिला।
- हरीश चंद्र मुखर्जी ने अपने अखबार "द हिंदू पैट्रियट" में बंगाल के किसानों की दुर्दशा का वर्णन किया।
- दीनबंधु मित्र ने अपने नाटक "नील दर्पण" में नील की खेती करने वालों द्वारा भारतीय किसानों के साथ किये जाने वाले व्यवहार को दर्शाया।
- सरकार ने नवंबर 1860 में आदेश पारित कर अधिसूचित किया कि रैयतों (किसान) को नील की खेती करने के लिये विवश करना विधि-विरुद्ध है। यह निर्णय आंदोलन में शामिल सभी किसानों के लिये जीत थी।
- ज़मींदारों और किसानों पर उच्च कर चुकाने और वाणिज्यिक फसलों का उत्पदान करने हेतु विवश किया गया।
- दक्कन दंगे (1875):
- ब्रिटिश प्रशासन द्वारा राजस्व की अत्यधिक मांगों और कुप्रशासन के परिणामस्वरुप कृषि प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुई।
- कारण:
- अमेरिकी गृह युद्ध (1861-1865) के दौरान अधिकांश किसान कपास के लिये मिलने वाली उच्च कीमतों से आकर्षित होकर कपास की खेती करने लगे किंतु युद्ध समाप्त होने पर कीमतों में भारी गिरावट आई और अमेरिका से पुनः कपास की आपूर्ति शुरू हो गई।
- आगामी कई वर्षों में एक शृंखला में फसल नाश की घटनाएँ जारी रहीं जिससे स्थिति को और भी बदतर बना दिया।
- संकट के इस दौर में ही ब्रिटिश प्रशासन ने अचानक भूमि राजस्व में 50% से अधिक की वृद्धि की।
- 12 मई, 1875 को पुणे स्थित सुपा में किसानों ने विद्रोह शुरू किया।
- किसानों ने साहूकारों पर हमला किया और ऋण अनुबंधों तथा बॉण्ड को नष्ट कर दिया।
- पूना सार्वजनिक सभा जैसे संगठनों ने किसानों का समर्थन किया और संघर्षरत कृषकों को राहत देने के लिये सक्रिय रूप से अभियान चलाया।
- साहूकारों से किसानों को सुरक्षा प्रदान करने के लिये दक्खन कृषक राहत अधिनियम, 1879 पारित किया गया था।
- पाबना आंदोलन (1873-1885):
- यह बंगाल के यूसुफशाही परगना में ज़मींदारों के उत्पीड़न के विरुद्ध एक प्रतिरोध आंदोलन था।
- बंगाल रेंट एक्ट, 1859 ने ज़मींदारों को केवल तीन विशिष्ट आधारों पर किराया बढ़ाने की अनुमति दी किंतु ज़मींदारों ने जबरन लेवी, अबवाब (उपकर) आदि जैसे अवैध तरीकों से किसानों से नियमित रूप से धन एकत्र किया।
- किसानों ने एक नो-रेंट यूनियन का गठन किया और ज़मींदारों तथा उनके सहायकों पर हमले किये।
- मई 1873 में पाबना रैयत लीग अस्तित्व में आई।
- इसने मुकदमेबाज़ी के खर्चों को कम करने के लिये धन जुटाया, सामूहिक बैठकें कीं।
- लीग के नेताओं में से एक ईशान चंद्र रॉय (ईशान राजा) थे।
- कूडी मोल्ला और शंभू नाथ पाल उनके प्रमुख अनुयायी थे।
- उन्होंने ज़मींदारी लठियालों (क्लबमैन) से लड़ने के लिये एक 'विद्रोही सेना' भी स्थापित की।
- चंपारण सत्याग्रह (1917):
- बिहार के चंपारण क्षेत्र के किसानों को उनके कुल भू-भाग के 3/20 भाग (तिनकठिया प्रणाली) पर नील की खेती करने के लिये विवश किया गया, जिससे उनके लिये संकट की स्थिति उत्पन्न हुई।
- वे अपनी आवश्यकता अनुरूप खाद्यान्न का उत्पादन नहीं कर पा रहे थे तथा न ही उन्हें नील के लिये पर्याप्त भुगतान किया जा रहा था जिससे उनकी परेशानी और बढ़ गई।
- इसके अतिरिक्त उन्हें ज़मींदार की इच्छा के अनुसार विशिष्ट फसलें उगाने के लिये अपनी ज़मीन का सबसे उपजाऊ हिस्सा खाली रखने के लिये विवश किया गया।
- राजकुमार शुक्ल के अनुरोध पर महात्मा गांधी चंपारण आए।
- चंपारण सत्याग्रह पहला सविनय अवज्ञा आंदोलन था जिसे महात्मा गांधी ने वर्ष 1917 में शुरू किया था।
- प्रायः यह माना जाता है कि गांधी ने अन्यत्र जाने से पहले अपने प्रारंभिक सत्याग्रह प्रयोग यहीं किये थे।
- महात्मा गांधी ने इस अभियान के लिये ब्रजकिशोर प्रसाद, राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिन्हा, रामनवमी प्रसाद और जे.बी. कृपलानी सहित कई प्रतिष्ठित व्यक्तियों को शामिल किया।
- चंपारण कृषि अधिनियम, 1918 पारित किया गया जिसके परिणामस्वरूप बागान की तिनकठिया प्रणाली समाप्त हो गयी।
- बिहार के चंपारण क्षेत्र के किसानों को उनके कुल भू-भाग के 3/20 भाग (तिनकठिया प्रणाली) पर नील की खेती करने के लिये विवश किया गया, जिससे उनके लिये संकट की स्थिति उत्पन्न हुई।
- खेड़ा सत्याग्रह (1918):
- 1917-18 के दौरान फसल खराब होने और आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में हुई वृद्धि के कारण आंदोलन शुरू हुआ।
- किसानों ने अपनी परेशानियों को कम करने के लिये समग्र वर्ष के राजस्व में छूट की मांग की थी किंतु ब्रिटिश सरकार ने उनके मुद्दों पर कोई ध्यान नहीं दिया।
- किसानों की समस्या को लेकर मोहनलाल पंड्या जैसे स्थानीय नेताओं ने नवंबर 1917 में नो-रेवेन्यू (कोई राजस्व नहीं) आंदोलन की पहल की।
- सत्याग्रहियों ने गांधीजी से इस अभियान का नेतृत्व करने वाले राजनीतिक निकाय गुजरात सभा के माध्यम से उनका नेतृत्व संभालने का अनुरोध किया।
- गांधीजी के साथ सरदार पटेल, अनसुयाबेन साराभाई, मीराबेन, आनंदीबाई, मणिबेन पटेल (सरदार पटेल की पुत्री) और कस्तूरबा गांधी भी थीं।
- सत्याग्रह इस समझौते पर समाप्त हुआ कि अगर संपन्न किसान भुगतान कर देंगे तो गरीबों को भुगतान न करने की अनुमति दी जाएगी और ज़ब्त की गई सभी संपत्तियाँ वापस कर दी जाएंगी।
- एका आंदोलन (1921-1922):
- किसानों को निर्धारित लगान से ज़्यादा किराया देने के लिये मजबूर किया गया। राजस्व संग्रहकर्त्ताओं द्वारा उन पर अत्याचार किये गए।
- इस आंदोलन के तहत किसानों पर थोपी गयी लगान और नवीनीकरण शुल्क जिसे नज़राना कहा जाता है, से ज़्यादा भुगतान करने से इनकार कर दिया। उन्होंने बेगारी न करने का भी निर्णय लिया।
- इसका नेतृत्व मदारी पासी ने किया था।
- मोपला या मालाबार विद्रोह (1836-1921):
- मोपला विद्रोह 19वीं शताब्दी और 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में (1836-1921) केरल के मालाबार के मोपला मुसलमानों द्वारा मुख्य रूप से हिंदू ज़मींदारों और राज्य के खिलाफ किये गए दंगों की एक शृंखला थी।
- 1921 के मोपला विद्रोह को अक्सर इसका चरमोत्कर्ष माना जाता है।
- मोपला अरब प्रवासियों और धर्मांतरित हिंदुओं के वंशज हैं।
- उनमें से अधिकांश लोग काश्तकार, भूमिहीन मज़दूर, छोटे व्यापारी और मछुआरे थे।
- मालाबार पर ब्रिटिश कब्ज़े के कारण ‘जेनमी’ की मोपला के साथ पारंपरिक साझेदारी से भूमि के स्वतंत्र मालिक के रूप में स्थानांतरण हुआ।
- ‘जेनमी’ उस भूमि के स्वामी थे जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होती थी।
- मोपलाओं ने अधिक कर निर्धारण, अवैध कर, अपनी भूमि से बेदखली और सरकारी अधिकारियों के शत्रुतापूर्ण रवैये के कारण अंग्रेज़ों तथा ज़मींदारों के खिलाफ विद्रोह किया।
- मोपला विद्रोह 19वीं शताब्दी और 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में (1836-1921) केरल के मालाबार के मोपला मुसलमानों द्वारा मुख्य रूप से हिंदू ज़मींदारों और राज्य के खिलाफ किये गए दंगों की एक शृंखला थी।
- बारदोली सत्याग्रह (1928):
- इसने मांग की कि अकाल और बाढ़ की पृष्ठभूमि में बॉम्बे प्रेसीडेंसी द्वारा की गई 22% की कर वृद्धि को निरस्त किया जाए।
- सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में यह आंदोलन 1930 के बड़े सविनय अवज्ञा आंदोलन के लिये एक मज़बूत आधार बन गया।
- उन्होंने आंदोलन में भाग लेने वाली महिलाओं से "सरदार" की उपाधि प्राप्त की और एक राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरे।
- बारदोली सत्याग्रह पत्रिका का प्रयोग सत्याग्रह के दौरान किसानों को संगठित करने के साधन के रूप में किया गया था।
- इसका संपादन सूरत से जुगतराम दवे ने किया।
- जनता को संगठित करने के लिये इस्तेमाल की जाने वाली अन्य विधियाँ भजन मंडली, पवित्र कल्पना और ‘भुव’ (आदिवासियों से संवाद करने के लिये इस्तेमाल की जाने वाली) थीं।
- कुछ प्रमुख महिला नेता भक्तिबा, शारदाबेन मेहता और मिथुबेन पेटिट थीं।
- अखिल भारतीय किसान सभा (1936):
- स्वामी सहजानंद सरस्वती ने 1936 में भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेसके लखनऊ अधिवेशन में अखिल भारतीय किसान सभा (AIKS) के गठन का नेतृत्व किया।
- इसमें एन.जी. रंगा, आर.एम. लोहिया, इंदुलाल याग्निक, आचार्य नरेंद्र देव, ई.एम.एस. नंबूदिरीपाद, जयप्रकाश नारायण और अन्य जैसे नेता मौजूद थे।
- जवाहरलाल नेहरू ने भी AIKS को अपना समर्थन दिया। 1936 AIKS घोषणा-पत्र में 4 मूलभूत लक्ष्य प्रतिपादित किये गये:
- ज़मींदारी प्रथा का उन्मूलन
- ग्रामीण ऋण का उन्मूलन
- भूमि राजस्व में कमी
- भूमि स्वामित्व का किसानों के हाथों में स्थानांतरण।
- तेभागा आंदोलन (1946-47):
- यह बंगाल में 1946-47 में बंगीय प्रादेशिक किसान सभा (BPKS) के नेतृत्व में शुरू हुआ किसान प्रतिरोध था।
- इसने फसल की कटाई में जोतदारों (ज़मींदारों) के हिस्से को आधे से घटाकर एक तिहाई करने की मांग की।
- पश्चिम बंगाल के दक्षिण 24 परगना ज़िले में काकद्वीप आंदोलन के केंद्रों में से एक के रूप में उभरा।
- लगभग 40% बटाईदार किसानों को भूमिधारकों द्वारा स्वेच्छा से दिये गए तेभागा अधिकार (दो-तिहाई हिस्से) प्राप्त हुए, अन्यायपूर्ण और अवैध वसूली को निरस्त या कम किया गया।
- तेलंगाना आंदोलन(1948-51):
- यह हैदराबाद के निज़ाम द्वारा संरक्षित दमनकारी ज़मींदारी के खिलाफ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में किसानों का सशस्त्र विद्रोह था।
- किसानों पर शोषणकारी करों और शुल्कों की बढ़ती संख्या थोपी गई तथा उन्हें 'वेट्टी' (ज़बरन श्रम) करने के लिये मजबूर किया गया।
- किसानों को कम्युनिस्टों द्वारा सशस्त्र गुरिल्ला दस्तों में संगठित किया गया ताकि वे निज़ाम की सशस्त्र बटालियनों से लड़ सकें जिन्हें "रज़ाकार" कहा जाता था, जिन्हें आंदोलन को कुचलने के लिये तेज़ी से तैनात किया गया था।
निष्कर्ष:
ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान, भारतीय किसानों ने कृषि उत्पादन और भूमि संबंधों में परिवर्तन के कारण महत्त्वपूर्ण उथल-पुथल का अनुभव किया। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भूमि एक वस्तु बन गई और वाणिज्यिक कृषि बढ़ने के कारण पारंपरिक कृषि बंधन बाधित हो गए। इस बदलाव के कारण किसानों में अशांति फैल गई, जिन्हें ऐसे बदलावों का सामना करना पड़ा जैसे कि ज़मींदारों द्वारा नकद के बजाय उच्च मूल्य वाले अनाज में किराया वसूलना। इन आंदोलनों ने स्वतंत्रता के बाद के कृषि सुधारों की नींव रखी, जैसे कि ज़मींदारी प्रथा का उन्मूलन, जिसने भूस्वामी अभिजात वर्ग के प्रभाव को कम किया और भारत के कृषि परिदृश्य को बदल दिया।