भारतीय राजनीति
विधिक सफलता और परिहार संबंधी चुनौतियाँ
- 11 Jan 2024
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यह एडिटोरियल 10/01/2024 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “Justice for Bilkis Bano, questions on remission” लेख पर आधारित है। इसमें बिलकिस बानो मामले में दोषियों के लिये छूट के निलंबन के आलोक में राज्यों के छूट नियमों और संबंधित संवैधानिक प्रावधानों के बारे में चर्चा की गई है।
प्रिलिम्स के लिये:राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति, अनुच्छेद 72, राष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय, अनुच्छेद 161, राज्यपाल, कारागार अधिनियम, 1894, केहर सिंह बनाम भारत संघ (1989), दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC)। मेन्स के लिये:भारत में परिहार नियम और संबंधित संवैधानिक प्रावधान। |
सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में बिलकिस याकूब रसूल बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले (2022) में बिलकिस बानो बलात्कार मामले में उम्रकैद की सज़ा काट रहे 11 दोषियों को दी गई छूट या परिहार (remission) को पलट दिया है। गुजरात राज्य ने अपनी वर्ष 1992 की परिहार नीति (remission policy) के आधार पर 10 अगस्त 2023 को परिहार प्रदान करते हुए इन दोषियों को रिहा कर दिया था। राज्य के इस परिहार आदेश से पूर्व सर्वोच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने निर्णय दिया था कि इस मामले में गुजरात राज्य उपयुक्त सरकार है जो दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) के अनुसार परिहार प्रदान करने के लिये अधिकृत है।
बिलकिस बानो मामले में हाल के मुद्दे क्या थे?
- अन्याय और मिलीभगत:
- बिलकिस बानो मामले में ‘असाधारण स्तर का अन्याय’ (injustice of exceptionalism) संलग्न माना गया, जहाँ सामूहिक बलात्कार और हत्या के 11 दोषियों को बिना अधिक सोच-विचार के दंड से परिहार प्रदान कर दिया गया।
- सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से एक याचिकाकर्ता, पूर्व के एक खंडपीठ और गुजरात सरकार के बीच मिलीभगत का पर्दाफाश हुआ जहाँ अवैध रूप से परिहार प्रदान किया गया।
- परिहार अनुप्रयोग क्षेत्राधिकार (Remission Application Jurisdiction):
- एक स्पष्ट कानूनी मिसाल मौजूद होने के बावजूद, गुजरात सरकार ने कानून का उल्लंघन करते हुए महाराष्ट्र सरकार की शक्ति का आहरण कर परिहार अनुप्रयोगों पर अधिकार प्राप्त कर लिया।
- सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात सरकार को परिहार प्रदान कर सकने के लिये ‘समुचित सरकार’ (appropriate government) मानने के पूर्व के निर्णय को अवैध करार देते हुए 11 दोषियों के परिहार आदेश को रद्द कर दिया।
- विधि का शासन बनाए रखने के लिये प्रशंसा:
- असाधारण अन्याय की स्थिति में विधि के शासन को बनाए रखने और कानून के समक्ष समता को अक्षुण्ण बनाए रखने में न्यायिक संवीक्षा के महत्व पर बल देने के लिये सर्वोच्च न्यायालय की प्रशंसा की जा रही है।
- इस निर्णय के सख्त स्वर ने अवैधताओं और मिलीभगत को उजागर किया, जिससे बिलकिस बानो को न्याय के इस संघर्ष में सांत्वना मिली।
- बिलकिस बानो की सहनशीलता:
- न्याय की तलाश में बिलकिस बानो की बनी रही सहनशीलता (वह टूटी नहीं, झुकी नहीं, न्यायपालिका पर आस्था को डिगने नहीं दिया) को चिह्नित किया गया और इसकी सराहना की गई, विशेष रूप से जबकि 11 दोषियों की रिहाई के बाद एक समूह द्वारा निर्लज्ज उत्सव का दृश्य भी देखने को मिला था।
- ताज़ा निर्णय को एक सकारात्मक कदम के रूप में देखा जा रहा है, जो बिलकिस बानो को सांत्वना और समर्थन प्रदान करता है तथा महिला अधिकारवादी अधिवक्ताओं के प्रयासों को चिह्नित करता है।
परिहार या छूट (Remission) क्या है?
- परिचय:
- फर्लो (furlough) और पैरोल (parole) के विपरीत, परिहार के मामले में दंड की मूल प्रकृति को बनाए रखते हुए दंड की अवधि को कम करना शामिल है।
- प्रदत्त परिहार के परिणामस्वरूप एक निर्दिष्ट रिहाई तिथि घोषित की जाती है, लेकिन रिहाई की शर्तों के उल्लंघन के मामले में पूर्ण मूल दंड की पुनर्बहाली की जा सकती है।
- स्वतंत्रता और जवाबदेही को संतुलित करना:
- परिहार की अवधारणा पर विचार करें तो यह रिहाई की एक विशिष्ट तिथि घोषित करता है। लेकिन दोषी द्वारा रिहाई की शर्तों का पालन करना अनिवार्य होता है, जहाँ उल्लंघन के मामले में इस परिहार को रद्द किया जा सकता है।
- शर्तों के उल्लंघन के परिणामस्वरूप परिहार रद्द कर दिया जाता है, जिससे दोषी व्यक्ति को आरंभिक रूप से प्रदत्त दंड की पूरी अवधि गुज़ारनी होती है।
- स्वतंत्रता और जवाबदेही के बीच यह नाजुक संतुलन परिहार की कानूनी गतिशीलता को आकार प्रदान करता है।
- पृष्ठभूमि:
- कारागार अधिनियम 1894:
- कारागार अधिनियम, 1894 द्वारा शासित परिहार प्रणाली कैदियों के लिये मार्क्स प्रदान करने और दंड कम करने के नियमों की रूपरेखा तैयार करती है।
- न्यायालय, जैसा कि केहर सिंह बनाम भारत संघ मामले (1989) में स्पष्ट किया गया, सुधार के सिद्धांतों पर प्रकाश डालते हुए, कैदियों के लिये परिहार पर विचार करने के महत्व पर बल देता है।
- सुधार का सिद्धांत (Principle of Reformation):
- यदि रिहाई या मुक्ति की आशा नहीं हो तो यह अनुच्छेद 20 और 21 के तहत प्रदत्त संवैधानिक सुरक्षा उपायों के विरुद्ध होगा।
- जबकि किसी भी दोषी के पास परिहार या दंड से छूट का मूल अधिकार नहीं है, परिहार के लिये विचार किये जाने का अधिकार वैधानिक माना जाता है जो प्रदत्त संवैधानिक सुरक्षा उपायों के अनुरूप भी है।
- परिहार के मामले में कार्यकारी शक्ति और संवैधानिक सुरक्षा उपाय:
- परिहार के मामले में राज्य की कार्यकारी शक्ति को, जैसा कि हरियाणा राज्य बनाम महेंद्र सिंह मामले (2007) में प्रकट हुआ, व्यक्तिगत मामलों एवं प्रासंगिक कारकों पर विचार करना चाहिये।
- महेंद्र सिंह मामला परिहार और संवैधानिक अधिकारों के बीच के संतुलन को रेखांकित करता है।
- न्यायालय व्यक्तिगत मामले पर विचार करने की आवश्यकता पर बल देते हैं, जहाँ वे परिहार के मूल अधिकार की अनुपस्थिति को स्वीकार करते हुए भी इस पर विचार किये जाने के कानूनी अधिकार को चिह्नित करते हैं।
- परिहार के मामले में राज्य की कार्यकारी शक्ति को, जैसा कि हरियाणा राज्य बनाम महेंद्र सिंह मामले (2007) में प्रकट हुआ, व्यक्तिगत मामलों एवं प्रासंगिक कारकों पर विचार करना चाहिये।
- कारागार अधिनियम 1894:
- संवैधानिक प्रावधान:
- संविधान द्वारा राष्ट्रपति और राज्यपाल दोनों को क्षमादान (pardon) की संप्रभु शक्ति प्रदान की गई है।
- अनुच्छेद 72 के तहत राष्ट्रपति के पास किसी अपराध के लिये सिद्धदोष ठहराए गए किसी व्यक्ति के दंड को क्षमा (pardon), उसका प्रविलंबन (reprieve), विराम (respite) या परिहार (remission) करने की अथवा दंडादेश के निलंबन (suspend), परिहार (remit) या लघुकरण (commute) की शक्ति है।
- ऐसा सभी मामलों में किसी भी अपराध के लिये सिद्धदोष ठहराए गए किसी भी व्यक्ति के लिये किया जा सकता है, जहाँ:
- दंड या दंडादेश सेना न्यायालय या कोर्ट-मार्शल के माध्यम से दिया गया है
- दंड या दंडादेश ऐसे विषय संबंधी किसी विधि के विरुद्ध अपराध के लिये दिया गया है जिस विषय तक संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है
- दंड या दंडादेश मृत्युदंड है।
- अनुच्छेद 161 के तहत राज्यपाल के पास किसी अपराध के लिये सिद्धदोष ठहराए गए किसी व्यक्ति के दंड को क्षमा, उसका प्रविलंबन, विराम या परिहार करने की अथवा दंडादेश के निलंबन, परिहार या लघुकरण की शक्ति है।
- यह राज्य की कार्यकारी शक्ति के अंतर्गत आने वाले किसी भी विषय पर किसी भी विधि के विरुद्ध किसी अपराध के लिये सिद्धदोष ठहराए गए किसी व्यक्ति के लिये किया जा सकता है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि किसी राज्य का राज्यपाल न्यूनतम 14 वर्ष की सज़ा काटने के पूर्व भी किसी बंदी को (मृत्युदंड के लिये प्रतीक्षित बंदी सहित) क्षमादान प्रदान कर सकता है।
- अनुच्छेद 72 के तहत राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति का दायरा अनुच्छेद 161 के तहत राज्यपाल की क्षमादान शक्ति से अधिक व्यापक है।
- संविधान द्वारा राष्ट्रपति और राज्यपाल दोनों को क्षमादान (pardon) की संप्रभु शक्ति प्रदान की गई है।
- परिहार की सांविधिक शक्ति:
- दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) जेल की सज़ा में परिहार का प्रावधान करती है, जिसका अर्थ है कि पूरी सज़ा या उसका कुछ हिस्से को रद्द किया जा सकता है।
- धारा 432 के तहत ‘समुचित सरकार’ किसी दंड का पूरी तरह से या आंशिक रूप से, शर्तों के साथ या शर्तरहित, निलंबन या परिहार कर सकती है।
- धारा 433 के तहत समुचित सरकार द्वारा किसी भी दंड का लघुकरण किया जा सकता है।
- यह शक्ति राज्य सरकारों को उपलब्ध है ताकि वे कारागार दंड पूरा करने से पहले बंदियों की रिहाई का आदेश दे सकें।
सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत परिहार संबधी प्रमुख ऐतिहासिक मामले कौन-से रहे हैं?
- मारू राम बनाम भारत संघ (1980):
- इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यह सच है कि दंड को सुधार का रंग देने की एक आधुनिक प्रवृत्ति उभरती हुई प्रतीत होती है ताकि अपराधी को कारागार में बंद रखने के बजाय उसके सुधार पर बल दिया जा सके, जो कि एक आदर्श उद्देश्य है।
- लक्ष्मण नस्कर बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2000):
- इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने उन कारकों को निर्धारित किया जो परिहार के आधार तय करते हैं, जैसे:
- क्या किया गया अपराध बड़े पैमाने पर समाज को प्रभावित किये बिना अपराध का एक व्यक्तिगत कृत्य है?
- क्या भविष्य में अपराध की पुनरावृत्ति की कोई संभावना है?
- क्या अपराधी अपराध करने की अपनी क्षमता खो चुका है?
- क्या इस सिद्धदोष को अब और कैद में रखने का कोई सार्थक उद्देश्य है?
- दोषी के परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति।
- इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने उन कारकों को निर्धारित किया जो परिहार के आधार तय करते हैं, जैसे:
- ईपुरु सुधाकर बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2006):
- इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि परिहार के आदेश की न्यायिक समीक्षा निम्नलिखित आधारों पर उपलब्ध है:
- विवेक का ग़ैर-अनुप्रयोग (non-application of mind);
- यदि आदेश दुर्भावनापूर्ण है;
- यदि ऐसा आदेश असंगत या पूरी तरह से अप्रासंगिक विचारों पर पारित किया गया है;
- प्रासंगिक सामग्रियों पर विचार नहीं किया गया है;
- आदेश मनमाना है।
- इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि परिहार के आदेश की न्यायिक समीक्षा निम्नलिखित आधारों पर उपलब्ध है:
- भारत संघ बनाम वी. श्रीहरन (2015):
- क्या दोषी को बिना परिहार के विकल्प के उसकी अंतिम साँस तक के लिये आजीवन कारावास का दंड दिया जा सकता है?
- ‘कार्यकारी क्षमादान’ का अधिकार राष्ट्रपति या राज्यपाल में निहित है।
- बिलकिस बानो मामले पर जनहित याचिकाएँ (2023)
- परिहार आवेदन पर निर्णय लेने के लिये ‘समुचित सरकार’ वह राज्य है जहाँ दोषियों को सज़ा सुनाई गई है।
- न्यायालय ने माना कि गुजरात सरकार ने दोषियों को सजा में छूट देते समय महाराष्ट्र सरकार से शक्ति का आहरण किया।
परिहार से संबद्ध प्रमुख मुद्दे कौन-से हैं?
- परिहार के लिये पात्रता और आवेदन प्रक्रिया:
- आजीवन कारावास की सज़ा काट रहे दोषियों को परिहार के लिये आवेदन करने से पहले कम से कम 14 साल की सज़ा काटनी होती है। ‘वन-साइज़-फिट्स-ऑल’ का यह दृष्टिकोण सुधारात्मक प्रक्रियाओं में बाधाएँ उत्पन्न करता है।
- अपराध की प्रकृति, पुनरावृत्ति की संभावना और सामाजिक-आर्थिक स्थितियों जैसे कारकों के आधार पर प्रत्येक आवेदन पर एक समिति द्वारा व्यक्तिगत मामले के आधार पर विचार किया जाता है।
- इस बात का उल्लेख नहीं है कि ऐसी समिति का गठन व्यापक प्रतिनिधित्व की पूर्ति करता हो।
- परिहार प्रक्रिया में पारदर्शिता का अभाव:
- परिहार समितियों के गठन के बारे में पारदर्शिता की कमी और निर्णय के कारणों की अनुपस्थिति मनमानी शक्ति के प्रयोग के बारे में चिंताएँ बढ़ाती है।
- बिलकिस बानो मामले में 11 दोषियों का मामला बानो का मामला अनियंत्रित विवेक को उजागर करता है जहाँ गुजरात सरकार की ओर से प्रत्येक दोषी के लिये सदृश आदेश जारी किये गए।
- परिहार समितियों के गठन के बारे में पारदर्शिता की कमी और निर्णय के कारणों की अनुपस्थिति मनमानी शक्ति के प्रयोग के बारे में चिंताएँ बढ़ाती है।
- परिहार आदेशों की न्यायिक समीक्षा:
- ईपुरू सुधाकर बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2006) मामले में सर्वोच्च न्यायालय के रुख का हवाला दिया गया है, जो दर्शाता है कि परिहार के आदेशों की न्यायिक समीक्षा विवेक के ग़ैर-अनुप्रयोग (non-application of mind) के मामलों तक ही सीमित है।
- बिलकिस बानो मामले में विवेक के ग़ैर-अनुप्रयोग से जुड़ी चिंता बेहद प्रकट है जहाँ प्रत्येक दोषी के लिये सदृश आदेश जारी किये गए।
- परिहार नीतियों में विद्यमान चुनौतियाँ:
- भारत में कुछ राज्यों में ऐसी परिहार संबंधी नीतियाँ मौजूद हैं जो या तो विशिष्ट अपराधी श्रेणियों को अवसरों से वंचित करती हैं या परिहार पर विचार करने से पहले कारावास की विस्तारित अवधि रखती हैं।
- इस बारे में सवाल उठते हैं कि क्या कुछ अपराधियों को परिहार के लिये अयोग्य होना चाहिये, जिससे फिर दंड की रूपरेखा पर बहस शुरू हो गई है जो प्रतिशोधात्मक बनाम शर्त-आधारित की एक जारी बहस है।
- न्यायालय के लिये भविष्य की चुनौतियाँ:
- सर्वोच्च न्यायालय को परिहार नीतियों के संबंध में मानक प्रश्नों को संबोधित करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है, विशेष रूप से जबकि परिहार नीतियों के संबंध में विभिन्न राज्यों के बीच भिन्नताएँ मौजूद हैं।
- कुछ अपराधियों की क्षमादान की पात्रता और शर्तों का निष्पक्ष अनुपालन सुनिश्चित करने जैसे मुद्दों का सामना करने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है, जो न्यायालय के लिये भविष्य की दुविधाओं का संकेत देता है।
निष्कर्ष:
बिलकिस बानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय विधि के शासन का एक सराहनीय दावा है और प्रशासन की मिलीभगत एवं अवैधताओं का खंडन है। हालाँकि, यह मामला परिहार से संबंधित अनसुलझे मुद्दों को भी प्रकाश में लाता है, जहाँ निर्णय लेने की प्रक्रिया में विद्यमान अनियंत्रित विवेक को उजागर करता है।
पारदर्शिता की कमी और परिहार के निर्णयों को निर्देशित करने वाले कारण मनमानी शक्ति की संभावना को उजागर करते हैं। चूँकि समाज इन चुनौतियों का सामना कर रहा है, न्यायालय को परिहार नीतियों और न्याय, पुनर्वास एवं निष्पक्षता के सिद्धांतों के साथ उनके संरेखण के संबंध में मानक प्रश्नों को संबोधित करने के लिये विवश होना पड़ेगा।
अभ्यास प्रश्न: भारत की परिहार नीति में पारदर्शिता की कमी और अनियंत्रित विवेक किस प्रकार न्याय के लिये चुनौती पेश करते हैं तथा कौन-से सुधारात्मक उपाय निष्पक्ष एवं सार्थक अनुपालन सुनिश्चित कर सकते हैं?
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नमेन्स:प्रश्न. मृत्यु दंडादेशों के लघुकरण में राष्ट्रपति के विलंब के उदाहरण न्याय प्राख्यान (डिनायल) के रूप में लोक वाद-विवाद के अधीन आए हैं। क्या राष्ट्रपति द्वारा ऐसी याचिकाओं को स्वीकार करने/अस्वीकार करने के लिये एक समय-सीमा का विशेष रूप से उल्लेख किया जाना चाहिये? विश्लेषण कीजिये। (2014) |