मध्यकालीन और आधुनिक भारतीय साहित्य | 01 Nov 2024
प्रिलिम्स के लिये:शास्त्रीय संस्कृत साहित्य, वेद, उपनिषद, पुराण, प्राचीन बौद्ध साहित्य, प्राचीन जैन साहित्य, प्रारंभिक द्रविड़ साहित्य, मध्यकालीन साहित्य, मध्यकालीन साहित्य में रुझान, आधुनिक भारतीय साहित्य मेन्स के लिये:मध्यकालीन और आधुनिक भारतीय साहित्य की विशेषताएँ, मध्यकालीन भारतीय साहित्य में धर्म और समाज का प्रभाव, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय पहचान को आकार देने में आधुनिक भारतीय साहित्य की भूमिका। |
मध्यकालीन से लेकर आधुनिक काल तक का भारतीय साहित्य देश की समृद्ध सांस्कृतिक और भाषाई विविधता को दर्शाता है। मध्यकालीन भारतीय साहित्य (600-1700 ई.) क्षेत्रीय भाषाओं, भक्ति काव्य और सूफी रहस्यवाद के उदय के साथ फला-फूला, जिससे सामाजिक और धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा मिला। कबीर, मीरा बाई और अमीर खुसरो जैसे कवियों ने स्थानीय भाषाओं का उपयोग करके साहित्य को लोकतांत्रिक बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
उपनिवेशवाद, राष्ट्रवाद और क्षेत्रीय प्रभावों से प्रभावित आधुनिक भारतीय साहित्य (19वीं सदी के अंत से 21वीं सदी के प्रारंभ तक) ने विविध विधाओं तथा शैलियों के माध्यम से आधुनिक विश्व की जटिलताओं को दर्शाया है, जिसमें हिंदी, बंगाली, ओड़िया एवं अन्य भाषाओं का उदय हुआ, जो गतिशील सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों को दर्शाती हैं तथा भारत के विविध साहित्यिक परिदृश्य में योगदान देती हैं।
मध्यकालीन भारतीय साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?
- मध्यकालीन भारतीय साहित्य के चरण
- प्रारंभिक मध्यकालीन भारतीय साहित्य (7वीं से 14वीं शताब्दी) : इस अवधि में दक्षिण भारत में अलवार और नयनमार जैसे भक्ति कवियों का उदय हुआ, जिन्होंने शास्त्रीय संस्कृत और तमिल रचनाओं से अलग साहित्य का निर्माण किया।
- उत्तर मध्यकालीन भारतीय साहित्य (14वीं से 18वीं शताब्दी): इस युग में कबीर, गुरु नानक, तुलसीदास और अन्य जैसे साहित्यिक दिग्गजों ने साहित्यिक परिदृश्य में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
- मध्यकालीन भारतीय साहित्य में भाषाई परिदृश्य भाषा संबंधी संघर्ष:
- लेखकों को पल्लव और चोल राजवंशों के शाही संरक्षण द्वारा समर्थित संस्कृत तथा भक्ति आंदोलन के माध्यम से प्रमुखता प्राप्त करने वाली स्थानीय भाषाओं के बीच चयन करने की चुनौती का सामना करना पड़ा।
- शिव और वैष्णवों द्वारा शुरू किये गए भक्ति आंदोलन ने वैष्णवों के बीच थेनकलाई (तमिल के पक्ष में) और वडकलाई (संस्कृत के पक्ष में) स्कूलों में विभाजन किया।
- अपभ्रंश काल (700 ई. - 1000 ई.):
- यह काल मध्यकालीन भारतीय-आर्य भाषाओं के अंतिम चरण को चिह्नित करता है, जहाँ अपभ्रंश प्राकृत से व्युत्पन्न एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक भाषा के रूप में उभरी। हालाँकि प्रारंभ में इसे निम्न माना जाता था, लेकिन अंततः इसे एक वैध साहित्यिक भाषा के रूप में मान्यता दी गई।
- पाली का पतन:
- बौद्ध साहित्य की प्रमुख भाषा रही पाली की स्थिति 12वीं शताब्दी के बाद कम हो गई, जिसमें पद्य चूड़ामणि और जिनचरित जैसी उल्लेखनीय रचनाएँ पाली में लिखी गई अंतिम महत्त्वपूर्ण रचनाओं में से थीं। इसके बाद संस्कृत बौद्ध धर्म की प्राथमिक साहित्यिक भाषा के रूप में उभरी।
- संस्कृत की स्थिति:
- संस्कृत को शिक्षित अभिजात वर्ग की भाषा के रूप में सम्मान दिया जाता था, जो मुख्य रूप से ब्राह्मणों द्वारा बोली जाती थी और पूरे भारत में साहित्यिक भाषा के रूप में कार्य करती थी। अपनी प्रतिष्ठा के बावजूद यह आम जनता द्वारा व्यापक रूप से नहीं बोली जाती थी और इसके साहित्यिक कार्यों में वेद, पुराण एवं उपनिषद शामिल थे।
- संस्कृत साहित्य:
- पाल साम्राज्य संस्कृत साहित्य में अपने योगदान के लिये प्रसिद्ध था। मदन पाल के शासनकाल के दौरान, बंगाली कवि संध्याकर नंदी की रामचरित और श्रीधर नंदी की न्यायकंदली, तत्त्वप्रबोध, तत्त्वसंगबदिनी तथा तत्त्व संग्रह टीका जैसी प्रमुख रचनाएँ प्रसिद्ध थीं।
- अन्य महत्त्वपूर्ण योगदानों में चक्रपाणि दत्ता की चिकित्सा संग्रह, आयुर्वेद दीपिका, भानुमती और जिमुतबाहाना की दयाभाग शामिल हैं ।
- सेन राजवंश में, बल्लाल सेन के दान-सागर, अदवुत-सागर और प्रतिष्ठा-सागर ने हिंदू शास्त्र को समृद्ध किया।
- जयदेव की गीत गोविंदा और धोयी की मेघदूत भी इस काल की प्रमुख रचनाएँ थीं।
- तमिल की स्थिति:
- तमिल, जिसे भारत की सबसे पुरानी भाषाओं में से एक माना जाता है, की साहित्यिक परंपरा बहुत समृद्ध रही है, विशेषकर भक्ति साहित्य में। इसने एक महत्त्वपूर्ण पाठक वर्ग बनाए रखा और अपने प्राचीन स्वरूप से काफी विकसित हुई, जिसमें प्राचीन और आधुनिक दोनों विशेषताएँ प्रतिबिंबित होती हैं।
- तमिल साहित्य:
- मध्यकालीन भारतीय साहित्य का सांस्कृतिक परिदृश्य
- लोक साहित्य का विनाश: मध्यकालीन साहित्य का अधिकांश हिस्सा या तो धार्मिक था या अभिजात वर्ग के लिये था, आम लोगों के मनोरंजन के लिये कम रचनाएँ बनाई गईं। अपर्याप्त संरक्षण के कारण ये लोकप्रिय रचनाएँ अक्सर बच नहीं पाईं।
- प्रसारण के तरीके: साहित्य निर्माण को सीमित संसाधनों और उच्च निरक्षरता दर जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिसके कारण अधिकांश साहित्य पेशेवर कहानीकारों और कलाकारों द्वारा मौखिक रूप से प्रसारित किया गया। मौन वाचन असामान्य था, और केवल धार्मिक, शैक्षणिक संस्थान और धनी लोग ही पुस्तकालय बनाए रख सकते थे।
- प्रदर्शन के स्थान: साहित्य या तो शाही दरबारों के लिये या आम जनता के लिये रचा जाता था। दरबारी कविताएँ विशिष्ट होती थीं, जो राजाओं और कुलीन वर्ग के लिये होती थीं, जबकि मंदिर में होने वाले प्रदर्शन सामाजिक स्थिति की परवाह किये बिना बड़े, विविध दर्शकों को ध्यान में रखकर किये जाते थे।
- लेखकों की स्थिति: दरबारी कवि मुख्य रूप से प्रतिष्ठित पृष्ठभूमि से आए शिक्षित ब्राह्मण थे, जबकि आम जनता के कवियों में निम्न जातियों सहित विभिन्न सामाजिक स्तरों से आए सम्मानित संत कवि शामिल थे। उल्लेखनीय महिला लेखिकाएँ दुर्लभ थीं, जिनमें अक्का महादेवी और कराईकल अम्मैयार जैसी प्रमुख हस्तियाँ शामिल थीं।
- श्रोता गतिशीलता: साहित्य को आकार देने में श्रोताओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, संस्कृत कविता मुख्य रूप से कुलीन समूहों को लक्षित करती है जिन्हें गोष्ठी के रूप में जाना जाता है , जिससे अकादमिक चर्चा (शास्त्रगोष्ठी) और रचनात्मक लेखन (विदग्धा गोष्ठी) की सुविधा मिलती है । कवि अक्सर तात्कालिक अपील और मनोरंजन पर ध्यान केंद्रित करते थे, जिसके परिणामस्वरूप अभिजात वर्ग के दर्शकों के लिए एक सजावटी और कामुक शैली तैयार की गई।
मध्यकालीन भारतीय साहित्य पर धर्म का क्या प्रभाव था?
- धार्मिक संप्रदायों का उद्भव: मध्ययुगीन काल में बौद्ध धर्म और जैन धर्म में गिरावट के साथ-साथ विभिन्न धार्मिक संप्रदायों, विशेष रूप से ब्राह्मण धर्म का उदय हुआ।
- इस युग में मंदिर निर्माण, मूर्ति पूजा और विस्तृत अनुष्ठानों में वृद्धि देखी गई। ब्राह्मणवाद ने त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु और शिव की त्रयी) की अवधारणा विकसित की, जो दिव्य पूजा की बहुमुखी प्रकृति को दर्शाती है।
- सांप्रदायिक प्रभाव: यह काल विभिन्न संप्रदायों के बीच तनाव और अंतर्क्रियाओं से चिह्नित था, विशेष रूप से शैव (शिव की पूजा) और वैष्णव (विष्णु की पूजा) तथा शक्तिवाद (देवी की पूजा) के बीच।
- पुराणों ने इन संप्रदायों को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, भागवत पुराण जैसे ग्रंथ वैष्णववाद के लिये आधारभूत साहित्य के रूप में कार्य करते हैं, जबकि मार्कण्डेय पुराण शाक्तवाद के लिये महत्त्वपूर्ण था।
- पुराणों की भूमिका: पुराणों में देवताओं की वंशावली, मिथक और कथाएँ शामिल थीं जो लोकप्रिय धार्मिक चेतना को आकार देने में महत्त्वपूर्ण थीं।
- सांप्रदायिक हितों के आधार पर वर्गीकृत 18 प्रमुख पुराणों ने धार्मिक विचारधाराओं को संरक्षित और बढ़ावा दिया और इनके साथ एक द्वितीयक साहित्य भी था जिसे उप-पुराण के रूप में जाना जाता है।
- इन ग्रंथों ने सृष्टि, ब्रह्मांडीय चक्रों और शाही वंशों के बारे में अंतर्दृष्टि प्रदान की, जिससे सामाजिक और सांस्कृतिक प्रथाओं पर प्रभाव पड़ा।
- पवित्र भूगोल: महाकाव्य महाभारत और रामायण ने पुराणों के साथ मिलकर भारत के पवित्र भूगोल में योगदान दिया। उन्होंने उस समय के राजनीतिक विखंडन के बावजूद पवित्र पर्वतों, नदियों और वनों की विशेषता वाले एकीकृत पवित्र स्थान की भावना को जगाया। इस साहित्यिक चित्रण ने जनता के बीच एक सामूहिक धार्मिक पहचान को बढ़ावा दिया।
- यथार्थवाद और पौराणिक तत्व: मध्यकालीन भारतीय साहित्य में अलौकिक तत्व विद्यमान थे, लेकिन इसमें यथार्थवाद की प्रबल भावना भी सम्मिलित होने लगी, विशेष रूप से 9वीं और 10वीं शताब्दी में।
- साहित्यिक रचनाओं ने रोज़मर्रा के जीवन को स्पष्ट रूप से चित्रित करना शुरू कर दिया, जिससे विश्व को भ्रम के रूप में देखने और मानवीय अनुभवों को पहचानने के बीच के तनाव पर प्रकाश डाला गया।
- यह यथार्थवाद विशेष रूप से संकलनों और बौद्ध सहजिया काव्य में स्पष्ट था, जो वास्तविक जीवन की स्थितियों को प्रामाणिक रूप से प्रतिबिंबित करता था।
- उल्लेखनीय कवि और दार्शनिक:
- शंकर (8वीं शताब्दी): अद्वैत वेदांत के एक प्रमुख व्यक्ति, उन्होंने अद्वैत और पृथकता (माया) के भ्रम पर ज़ोर दिया।
- रामानुज (11वीं-12वीं शताब्दी): उन्होंने विशिष्टाद्वैत को प्रारंभ किया, जिसमें एक योग्य अद्वैतवाद की वकालत की गई, जिसने भौतिक संसार को ब्रह्म की अभिव्यक्ति के रूप में मान्यता दी।
मध्यकालीन भारतीय साहित्य पर भक्ति आंदोलन का क्या प्रभाव था?
- भक्तिपूर्ण ध्यान: भक्ति आंदोलन ने चुने हुए देवता के प्रति व्यक्तिगत भक्ति पर ज़ोर दिया, जिसे अक्सर प्रेम कविता के माध्यम से व्यक्त किया जाता था। कृष्ण और राम जैसे केंद्रीय चरित्र दिव्य प्रेम का प्रतिनिधित्व करते थे, जो प्रेमी या बालक के समान व्यक्तिगत संबंध को दर्शाता था, जिसने आध्यात्मिकता को आम व्यक्ति के लिये सुलभ बना दिया।
- समन्वयवाद और धार्मिक सद्भाव: इस आंदोलन ने हिंदू धर्म और इस्लाम के तत्वों को सम्मिश्रित करते हुए विविध धार्मिक परंपराओं के बीच एकता को बढ़ावा दिया।
- क्षेत्रीय भाषा और साहित्य: भक्ति काव्य स्थानीय भाषाओं में रचा गया, जिससे आध्यात्मिक साहित्य आम जनता के लिये अधिक प्रासंगिक और समझने योग्य बन गया। इससे क्षेत्रीय भाषाओं का विकास हुआ, जिससे एक समृद्ध साहित्यिक परंपरा का निर्माण हुआ जिसमें हिंदी में तुलसीदास, राजस्थानी में मीरा बाई और कन्नड़ में बसवन्ना जैसे उल्लेखनीय व्यक्ति शामिल थे।
- सामाजिक सुधार और जाति-विरोधी भावना: भक्ति आंदोलन ने कठोर जाति व्यवस्था को चुनौती दी, मानवता की पूजा की वकालत की और इस विचार को बढ़ावा दिया कि ईश्वर की भक्ति सभी के लिये सुलभ है, चाहे उनकी जाति या सामाजिक स्थिति कुछ भी हो। आंदोलन के कई कवि निचली जाति की पृष्ठभूमि से थे, जिसने आंदोलन को सामाजिक पदानुक्रम के प्रति एक निम्नस्तरीय प्रतिक्रिया के रूप में स्थापित किया।
- व्यक्तिगत और रहस्यवादी अनुभव: इस आंदोलन ने कर्मकांडीय प्रथाओं या धार्मिक विद्वत्ता पर निर्भर रहने के बजाय ईश्वर के प्रत्यक्ष, व्यक्तिगत अनुभवों पर ज़ोर दिया। इस अनुभवात्मक दृष्टिकोण ने रहस्यवाद के एक ऐसे रूप को जन्म दिया जो सांसारिकता को ईश्वर से जोड़ने का प्रयास करता था, जिससे भावनात्मक गहराई और आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि से भरपूर कविताएँ बनती थीं।
- विविध काव्य रूप: भक्ति आंदोलन ने प्राचीन महाकाव्यों और स्थानीय परंपराओं के तत्वों को शामिल करते हुए विभिन्न काव्य रूपों के विकास में योगदान दिया। गीतात्मक अभिव्यक्ति पर ज़ोर देने से प्रेम, भक्ति और सामाजिक टिप्पणी के जटिल विषयों की खोज करने का अवसर मिला, जिससे एक विशाल और विविध कृति का निर्माण हुआ।
- महिला कवियों की भूमिका: भक्ति आंदोलन में महिलाओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, मीरा बाई और लाल देद जैसी कवियों ने अपनी वाणी का उपयोग गहन आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि व्यक्त करने और सामाजिक मानदंडों को चुनौती देने के लिये किया। उनके योगदान ने उस समय की लैंगिक गतिशीलता को उजागर किया और आध्यात्मिक प्रवचन में महिलाओं के दृष्टिकोण के महत्त्व पर ज़ोर दिया।
आधुनिक भारतीय साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?
- आधुनिक भारतीय साहित्य का विकास:
- आधुनिक भारतीय साहित्य, या आधुनिक काल साहित्य , एक विशाल और विविध साहित्यिक परिदृश्य का प्रतिनिधित्व करता है जो भाषाई और सांस्कृतिक सीमाओं से परे है।
- इसमें हिंदी, बंगाली, ओडिया, असमिया, राजस्थानी और गुजराती जैसी भाषाएँ शामिल हैं, जो उपनिवेशवाद, राष्ट्रवाद और क्षेत्रीय प्रभावों से प्रेरित सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों को दर्शाती हैं।
- यह ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा लाई गई पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव में उभरा। शिक्षा और प्रशासन में अंग्रेजी की शुरूआत ने इसे अभिजात्य समाज में एकीकृत कर दिया, जिससे लेखकों को इस भाषा को अपनाने की प्रेरणा मिली।
- कोलकाता के हिन्दू कॉलेज में डेरोजियन आंदोलन ने इस बदलाव को गति दी, जिसमें मधुसूदन भट्टाचार्य और बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय जैसे शुरुआती लेखकों ने अगुवाई की।
- समय के साथ साहित्य एक क्रांतिकारी मानसिकता की ओर विकसित हुआ, जिसका उदाहरण रवींद्रनाथ टैगोर, शरत चंद्र चट्टोपाध्याय और मुंशी प्रेमचंद हैं।
- हाल के वर्षों में, वैश्वीकरण ने चेतन भगत और अरुंधति रॉय जैसे समकालीन लेखकों की रचनाओं के विषयों को प्रभावित किया है, जो भारत के औपनिवेशिक अतीत से उपजे सामाजिक परिवर्तनों को प्रतिबिंबित करते हैं।
- हिंदी साहित्य:
- ब्रिटिश उपनिवेशी शासन के उदय ने हिंदी साहित्य में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन का संकेत दिया। इस समय के दौरान शास्त्रीय और संस्कृत के प्रभावों का पुनर्जीवन हुआ, साथ ही राष्ट्रवाद की भावना में भी वृद्धि हुई।
- 1850 के दशक में भारतेन्दु हरिश्चंद्र जैसे महत्वपूर्ण व्यक्तित्व सामने आए, जिनकी रचनाओं में "अंधेर नगरी" (अंधकार का शहर) शामिल है, जिसने आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा दी।
- आधुनिक हिंदी साहित्य के चरण:
- भारतेंदु युग (1868-1893)
- द्विवेदी युग (1893-1918)
- छायावाद युग (1918-1937)
- समकालीन काल (1937-वर्तमान)
- मुंशी प्रेमचंद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' और महादेवी वर्मा जैसे प्रमुख लेखकों ने सामाजिक न्याय और महिला संघर्ष जैसे विषयों पर अपनी विविध कथाओं के माध्यम से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है।
- बंगाली साहित्य:
- इसका विकास हिंदी और उर्दू के साथ-साथ हुआ, जो अंग्रेज़ विलियम कैरी के कार्यों से प्रभावित था, जिन्होंने 1800 में बंगाल में बैपटिस्ट मिशन प्रेस की स्थापना की थी।
- साहित्यिक आंदोलन का नेतृत्व राजा राम मोहन राय और बंकिम चंद्र चटर्जी जैसे दूरदर्शी लोगों ने किया और आनंद मठ ने राष्ट्रवादी साहित्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- प्रथम भारतीय नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर अपनी उत्कृष्ट कृति गीतांजलि के साथ बंगाली साहित्य के प्रकाश स्तंभ बने हुए हैं ।
- असमिया और उड़िया साहित्य:
- असमिया साहित्य दरबारी इतिहास ("बुरंजियों") से आगे बढ़कर आम आदमी की पीड़ा और राष्ट्रवादी भावनाओं पर केंद्रित हो गया, जो पद्मनाभ गोहेन बरुआ जैसे लेखकों से प्रभावित था।
- राधा नाथ रे और फकीर मोहन सेनापति जैसे आधुनिक लेखकों के माध्यम से ओड़िया साहित्य में पुनरुत्थान देखा गया, जिनकी रचनाओं में मज़बूत राष्ट्रवादी विषयवस्तु व्यक्त की गई।
-
गुजराती साहित्य:
-
भक्ति आंदोलन ने गुजराती साहित्य को काफी प्रभावित किया, नरसिंह मेहता जैसे कवियों ने भक्ति गीतों की रचना की।
-
गोवर्धन राम द्वारा रचित सरस्वती चंद्र जैसे क्लासिक उपन्यास और डॉ. के.एम. मुंशी की ऐतिहासिक कृतियाँ गुजराती साहित्य में समृद्ध कथात्मक परंपरा का प्रतीक हैं।
-
राजस्थानी साहित्य:
- इसमें विविध बोलियाँ शामिल हैं, जिनमें ढोला मारू जैसे मध्ययुगीन ग्रंथों और मीराबाई जैसे संतों की भक्ति कविताओं का महत्त्वपूर्ण योगदान है। यह साहित्य क्षेत्र के सांस्कृतिक लोकाचार तथा आध्यात्मिक मान्यताओं को समाहित करता है।
- सिंधी और कश्मीरी साहित्य:
- सिंधी साहित्य में राजस्थान और गुजरात के प्रभावों का मिश्रण प्रतिबिंबित होता है , जिसे सूफीवाद और इस्लामी प्रवासियों ने आकार दिया है।
- उल्लेखनीय लेखकों में दीवान कौरमल और मिर्ज़ा कलीच बेग शामिल हैं।
- कश्मीरी साहित्य एक समृद्ध इतिहास से प्रेरित है, जिसमें कल्हण की राजतरंगिणी और लाल देद की रहस्यवादी कविता जैसे प्राचीन ग्रन्थों के साथ-साथ बाद के सूफी प्रभाव भी शामिल हैं।
- पंजाबी साहित्य:
- पंजाबी साहित्य को पुनर्जीवित करने के हालिया प्रयासों से इस पर फारसी और गुरुमुखी लिपियों का प्रभाव उजागर होता है।
- धार्मिक ग्रंथ आदि ग्रंथ एक उत्कृष्ट कृति के रूप में सामने आता है, जबकि हीर-रांझा जैसी कहानियाँ क्षेत्रीय कहानी कहने की परंपराओं को प्रतिबिंबित करती हैं।
- बाबा फरीद और बुल्ले शाह की सूफी कविता ने भी आधुनिक पंजाबी साहित्य को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
-
मराठी साहित्य:
- ज्ञानेश्वर (जिन्हें ज्ञानेश्वर, ज्ञानदेव, ज्ञानेश्वर विट्ठल कुलकर्णी या मौली के नाम से भी जाना जाता है) पहले मराठी लेखक थे जिनके व्यापक पाठक थे और उनका गहरा प्रभाव था, उनकी कुछ रचनाएँ 'अमृतानुभव' और ' भावार्थ दीपिका' थीं।
- भक्ति संत नामदेव इस युग के अन्य महत्त्वपूर्ण साहित्यिक व्यक्तित्व हैं। उन्होंने मराठी के साथ-साथ हिंदी में भी धार्मिक गीत रचे। उनकी कुछ हिंदी रचनाएँ सिखों के पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में शामिल की गईं।
- एक अन्य मराठी लेखक मुकुंदराज थे जिन्होंने 'विवेक सिंधु' और 'परमामृत' लिखी।
- राष्ट्रवादी आंदोलन ने बाल गंगाधर तिलक और एम.जी. रानाडे जैसे लेखकों को प्रेरित किया, जिससे एक समृद्ध साहित्यिक परंपरा का जन्म हुआ, जो महाराष्ट्र की सांस्कृतिक विरासत को प्रतिबिंबित करती है।
औपनिवेशिक काल के दौरान आधुनिक भारतीय साहित्य ने भारतीय राष्ट्रीय पहचान को किस प्रकार आकार दिया?
- राष्ट्रवाद में भारतीय लेखकों की भूमिका:
- बंकिम चंद्र चटर्जी (1838-1894): वे राष्ट्रवाद को भारतीय परंपराओं के साथ मिलाने वाले पहले लोगों में से एक थे। दुर्गेश नंदिनी (1865) और आनंद मठ (1882) जैसे उनके ऐतिहासिक उपन्यास राष्ट्रवादी एवं देशभक्ति के मूल्यों को स्थापित करने के लिये लोकप्रिय हुए, जिससे राष्ट्रवाद भारतीय धर्म का एक हिस्सा बन गया।
- उनकी रचनाओं में भारत की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर से प्रेरित होकर भारतीयों को उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया है।
- रवींद्रनाथ टैगोर (1861-1942): वे एक अन्य महत्त्वपूर्ण व्यक्ति थे, जिन्होंने संघवाद और विविधता में एकता पर ज़ोर देकर राष्ट्रवाद को पुनर्परिभाषित किया।
- टैगोर का राष्ट्रवाद भारत की आध्यात्मिक परंपराओं से जुड़ा हुआ था तथा सहिष्णुता और बहुलवाद पर केंद्रित था।
- उनकी रचना गोरा (1910) उपनिवेशवाद को दी गई उनकी चुनौती तथा भारतीय राष्ट्रवाद को समावेशी और विविधतापूर्ण रूप में प्रस्तुत करने का प्रतिबिंब है।
- बंकिम चंद्र चटर्जी (1838-1894): वे राष्ट्रवाद को भारतीय परंपराओं के साथ मिलाने वाले पहले लोगों में से एक थे। दुर्गेश नंदिनी (1865) और आनंद मठ (1882) जैसे उनके ऐतिहासिक उपन्यास राष्ट्रवादी एवं देशभक्ति के मूल्यों को स्थापित करने के लिये लोकप्रिय हुए, जिससे राष्ट्रवाद भारतीय धर्म का एक हिस्सा बन गया।
- देशभक्ति साहित्य और सुधारवाद:
- 19वीं और 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में, कई भारतीय भाषाओं में देशभक्ति साहित्य की लहर उठी।
- रंगलाल (बंगाली), भारतेंदु हरिश्चंद्र (हिंदी) और मिर्ज़ा गालिब (उर्दू) जैसे लेखकों ने औपनिवेशिक शासन का विरोध करने और भारत की विरासत का महिमामंडन करने के लिये साहित्य का उपयोग किया। उनके कामों ने विदेशी वर्चस्व का विरोध करने के साथ-साथ आंतरिक सामाजिक सुधारों की ज़रूरत को भी संबोधित किया।
- तमिल कवि सुब्रमण्य भारती (1882-1921) ने देशभक्ति को सामाजिक सुधार के मुद्दों से जोड़ा। उन्होंने राष्ट्रीय एकता और अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन पर ध्यान केंद्रित करते हुए तमिल कविता में एक नई क्रांति का सूत्रपात किया।
- ऐतिहासिक उपन्यास राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने का एक लोकप्रिय माध्यम थे। हरि नारायण आप्टे (मराठी) और बंकिम चंद्र चटर्जी (बंगाली) जैसे लेखकों ने भारतीयों को उनके गौरवशाली अतीत की स्मृति दिलाने तथा ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संघर्ष को प्रेरित करने के लिये लेखन किया। इन उपन्यासों ने राष्ट्र के प्रति दायित्व की भावना को बढ़ावा दिया और स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिये संघर्ष का आह्वान किया।
- पुनरुत्थानवाद और सामाजिक सुधार:
- भारतीय भाषाओं के शुरुआती उपन्यासों, जैसे एच. कैथरीन मुलेंस द्वारा रचित फुलमनी ओ करुणार बिबरन (1852, बंगाली), प्रताप मुदलियार चरित्रम (1879, तमिल) और श्री रंगराज चरित्र (1872, तेलुगु) ने अस्पृश्यता, जाति आधारित भेदभाव तथा विधवा पुनर्विवाह के निषेध जैसी सामाजिक बुराइयों को संबोधित किया।
- इन लेखकों ने भारत के सांस्कृतिक मूल्यों के पुनरुद्धार का समर्थन किया, साथ ही सुधार के लिये ज़ोर दिया और रूढ़िवादी प्रथाओं को चुनौती दी।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न. भारत के सांस्कृतिक इतिहास के संदर्भ में, निम्नलिखित युग्मों पर विचार कीजिये- (2020)
उपर्युक्त युग्मों में से कौन-से सही सुमेलित हैं? (a) केवल 1 और 2 (d) 1, 2 और 3 उत्तर: (b) प्रश्न. भारत के सांस्कृतिक इतिहास के संदर्भ में, ‘परामिता’ शब्द का सही विवरण निम्नलिखित में से कौन-सा है?(2020) (a) सूत्र पद्धति में लिखे गए प्राचीनतम धर्मशास्त्र पाठ उत्तर : (c) प्रश्न. भारत के धार्मिक इतिहास के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये- (2020)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (b) मेन्सप्रश्न. भारत में बौद्ध धर्म के इतिहास में पाल काल अति महत्त्वपूर्ण चरण है। विश्लेषण कीजिये। (2020) |