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Sambhav-2023

  • 06 Jan 2023 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहास

    दिवस- 51

    प्रश्न.1 भारत में राष्ट्रीय चेतना के विकास और औपनिवेशिक शासन के प्रतिरोध के संदर्भ में कॉन्ग्रेस से पूर्व गठित संगठनों का क्या योगदान था? (250 शब्द)

    प्रश्न.2 बताइए कि भारत में आधुनिक राष्ट्रवाद की शुरुआत कैसे हुई थी। क्या आपको लगता है कि नरमपंथियों की विफलता ने भारत में उग्र राष्ट्रवाद के प्रभुत्व को जन्म दिया था? चर्चा कीजिये।

    उत्तर

    उत्तर 1: 

    दृष्टिकोण:

    • कॉन्ग्रेस -पूर्व संगठनों की प्रकृति का परिचय दीजिये।
    • चर्चा कीजिये कि कॉन्ग्रेस -पूर्व संगठनों ने किस प्रकार भारत में औपनिवेशिक शासन के प्रति राष्ट्रीय चेतना और प्रतिरोध विकसित किया था।
    • उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    • भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन एक जन-आधारित राजनीतिक आंदोलन था जिससे भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन को समाप्त किया गया था। यह एक लंबी और जटिल प्रक्रिया थी जिसमें कई व्यक्तियों और संगठनों के कई दशकों के प्रयास शामिल थे।
    • कॉन्ग्रेस -पूर्व संगठनों ने भारत में औपनिवेशिक शासन के प्रति राष्ट्रीय चेतना और प्रतिरोध के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

    मुख्य भाग:

    • इनमें से अधिकांश संगठनों ने वृहद स्तर के सुधारों पर बल दिया था जैसे-
      • प्रशासनिक सुधार
      • प्रशासन में भारतीयों की भागीदारी
      • शिक्षा का प्रसार करना

    कुछ संगठन और राष्ट्र निर्माण के लिये वैचारिक और राजनीतिक क्षेत्र में उनका योगदान:

    • ब्रिटिश इंडिया एसोसिएशन, 1851: इसे जमींदारी एसोसिएशन और बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसाइटी को मिलाकर बनाया गया था। इसने निम्न पर बल दिया था-
      • विधायिका में जनसामान्य की भागीदारी
      • कार्यकारी और न्यायिक कार्य का अलगाव
      • अधिकारियों के वेतन और भत्तों में कमी।
      • इस संगठन ने अपनी व्यापक स्तर की मांग से मध्यम वर्ग के बुद्धिजीवियों के बीच राजनीतिक जागरूकता को प्रसारित किया था।
    • ईस्ट इंडिया एसोसिएशन, 1866: भारत के कल्याण के लिये इंग्लैंड में लोगों को प्रभावित करने के लिये लंदन में दादाभाई नौरोजी द्वारा इसका गठन किया गया था। यह भारत के हित के लिये विदेशी भूमि पर गठित संगठन था।
    • इंडियन लीग, 1875: इसकी शुरुआत शिशिर कुमार घोष ने की थी। इसका उद्देश्य "लोगों में राष्ट्रवाद की भावना को प्रेरित करना" और "राजनीतिक शिक्षा को प्रोत्साहित करना" था।
    • द इंडिया एसोसिएशन ऑफ कलकत्ता ( इंडियन नेशनल एसोसिएशन): इसका नेतृत्व सुरेंद्रनाथ बनर्जी और आनंद मोहन बोस ने किया था। इसने निम्न पर बल दिया था:
      • राजनीतिक प्रश्न पर एक मजबूत जनमत तैयार करना
      • आम राजनीतिक कार्यक्रम में भारतीय लोगों को एकजुट करना।
    • कॉन्ग्रेस -पूर्व संगठनों के विभिन्न अभियानों से भारत में औपनिवेशिक शासन के प्रति प्रतिरोध विकसित हुआ जैसे:
      • आर्म्स एक्ट, 1878 के खिलाफ
      • वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट, 1878 के खिलाफ
      • अंतर्देशीय उत्प्रवासन अधिनियम के खिलाफ
      • इल्बर्ट बिल के समर्थन में
      • भारत समर्थक पार्टी को वोट देने के संदर्भ में ब्रिटिश लोगों के बीच अभियान
      • सिविल सेवाओं में अधिकतम आयु को कम करने के खिलाफ।
    • कॉन्ग्रेस -पूर्व संगठनों ने विभिन्न अभियानों द्वारा राष्ट्रीय चेतना के विकास के साथ राष्ट्र निर्माण में योगदान दिया था। जैसे:
      • मध्यम वर्ग के बुद्धिजीवियों में राजनीतिक और आर्थिक जागरूकता लाना।
      • जनता के हितों के लिये अभिजात वर्ग के बीच अपनेपन की भावना लाना।
      • प्रमुख कार्यकारी, न्यायिक और विधायी सुधार के लिये आवाज उठाना।
      • सामान्य प्रशासनिक और नागरिक अधिकारों के लिये अभियान करना।

    यद्यपि कॉन्ग्रेस -पूर्व संगठनों ने राष्ट्रीय चेतना के विकास और राष्ट्र निर्माण में योगदान दिया था लेकिन उनकी नीतियों में कुछ खामियाँ थी जैसे:

    • कानून पालन पर उनका बहुत अधिक बल होने के साथ उनका विरोध का संवैधानिक तरीका था जिसे प्रार्थना, याचिका जैसी विरोध पद्धति के रूप में जाना जाता है।
    • उन्होंने पश्चिमीकरण और औपनिवेशिक प्रणाली का सक्रिय रूप से विरोध नहीं किया था।
      • उनका संकीर्ण सामाजिक आधार था। वे अपने लोकतांत्रिक आधार और अपनी मांगों को व्यापक बनाने में विफल रहे थे।
      • उनका मानना था कि ब्रिटिशों के साथ भारत के संबंध भारतीयों के हित में हैं।

    निष्कर्ष:

    • इन संगठनों ने संघर्ष को लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण रूप दिया था जिसके कारण बाद के वर्षों में जन आंदोलन हुआ था।
    • हालाँकि इन संगठनों पर धनी और कुलीन व्यक्तियों का वर्चस्व था, लेकिन इनसे राजनीतिक रूप से प्रशिक्षित और लोकतांत्रिक रूप से प्रबंधित मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों का उदय हुआ जिसने गांधी और अन्य लोगों के नेतृत्व में जन आंदोलन का मार्ग प्रशस्त किया था।

    उत्तर 2: 

    दृष्टिकोण:

    • संक्षेप में भारतीय राष्ट्रवाद के उत्थान और विकास का परिचय दीजिये।
    • चर्चा कीजिये कि भारत में आधुनिक राष्ट्रवाद की शुरुआत कैसे हुई थी और नरमपंथियों की विफलता ने उग्रवादी राष्ट्रवाद के प्रभुत्व को जन्म कैसे दिया था।
    • उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    भारतीय राष्ट्रवाद के उत्थान और विकास को परंपरागत रूप से नई संस्थाओं, नए अवसरों और संसाधनों आदि के के माध्यम से ब्रिटिश राज द्वारा उत्पन्न परिस्थितियों के संदर्भ में भारतीय प्रतिक्रिया के रूप में समझा जाता है। दूसरे शब्दों में भारतीय राष्ट्रवाद आंशिक रूप से उपनिवेशवाद के परिणामस्वरूप विकसित हुआ था। जिसमें औपनिवेशिक नीतियों की प्रमुख भूमिका थी।

    मुख्य भाग:

    भारतीय राष्ट्रवाद विभिन्न कारकों का परिणाम था जैसे:

    • भारतीय और औपनिवेशिक हितों में विरोधाभासों की समझ: इस समय लोगों को यह एहसास हुआ कि औपनिवेशिक शासन भारत के आर्थिक पिछड़ेपन का प्रमुख कारण था। औपनिवेशिक शासन के चरित्र और नीतियों में निहित इन अंतर्विरोधों के क्रम में राष्ट्रवादी आंदोलन का उदय हुआ था।
    • देश का राजनीतिक, प्रशासनिक और आर्थिक एकीकरण: भारतीय उपमहाद्वीप में ब्रिटिश शासन द्वारा बड़े क्षेत्र पर शासन किया गया था। ब्रिटिशों ने भारत में राजनीतिक एकीकरण पर बल दिया था। इस एकीकरण की प्रक्रिया का दोहरा प्रभाव पड़ा था:
    • विभिन्न क्षेत्रों के लोगों के आर्थिक हित आपस में जुड़ गए थे।
    • परिवहन और संचार के आधुनिक साधनों से विभिन्न क्षेत्रों के लोग और नेता संपर्क में आए जिससे राजनीतिक विचारों के आदान-प्रदान की सुविधा प्राप्त हुई थी।
    • पश्चिमी विचार और शिक्षा: इसने आधुनिक पश्चिमी विचारों को आत्मसात करने के अवसर प्रदान किये और भारतीय राजनीतिक सोच को एक नई दिशा दी थी। यूरोपीय लेखकों के उदारवादी विचारों ने कई भारतीयों को आधुनिक तर्कसंगत, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और राष्ट्रवादी विचारों को आत्मसात करने में मदद की थी।
      • इस निरंतर बढ़ते हुए अंग्रेजी शिक्षित वर्ग से मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों का वर्ग तैयार हुआ था, जिन्होंने नए उभरते राजनीतिक असंतोष का आधार तैयार किया था। इस वर्ग ने भारतीय राजनीतिक संघों को नेतृत्व प्रदान किया था।
    • भारत के अतीत की पुनर्खोज: भारतीय विद्वानों ने भारत के अतीत का चित्रण किया और पूर्व में भारत की अच्छी तरह से विकसित राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक संस्थानों एवं बाहरी विश्व के साथ समृद्ध व्यापार, कला और संस्कृति की समृद्ध विरासत और कई शहरों की उपस्थिति जैसी विशेषताओं को प्रदर्शित किया था।
      • इसने शिक्षित भारतीयों को मनोवैज्ञानिक प्रेरणा दी थी। इस प्रकार प्राप्त आत्म-सम्मान और आत्मविश्वास से राष्ट्रवादियों को औपनिवेशिक शक्ति के मिथकों को तोड़ने में सहायता मिली थी।
    • सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों की प्रगतिशील प्रकृति: इन सुधार आंदोलनों ने भारतीय समाज को विभाजित करने वाली सामाजिक बुराइयों को दूर किया। इसने विभिन्न वर्गों को एक साथ लाने पर बल दिया था। यह भारतीय राष्ट्रवाद के विकास में एक महत्त्वपूर्ण कारक साबित हुआ था।
    • मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों का उदय: ब्रिटिश प्रशासनिक और आर्थिक नवाचारों से शहरों में एक नए शहरी मध्यम वर्ग का उदय हुआ था। यह वर्ग अपनी शिक्षा, नवीन स्थिति और शासक वर्ग के साथ घनिष्ठ संबंधों के कारण प्रमुखता से सामने आया था। भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के विकास के सभी चरणों में इसी वर्ग द्वारा नेतृत्व प्रदान किया गया था।
    • विश्व के समकालीन आंदोलनों का प्रभाव: दक्षिण अमेरिका में स्पेनिश और पुर्तगाली साम्राज्यों के पतन के बाद होने वाले कई राष्ट्रों का उदय और सामान्य रूप से ग्रीस और इटली के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों और विशेष रूप से आयरलैंड के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों ने राष्ट्रवादी प्रवृत्ति को गहराई से प्रभावित किया था।
    • प्रतिक्रियावादी नीतियाँ और शासकों का नस्लीय व्यवहार: इनके नस्लीय भेदभाव और अलगाव की नीति से भारतीयों को गहरी चोट पहुँची थी। उदाहरण के लिये वर्ष 1877 का भव्य दिल्ली दरबार (जब देश में गंभीर अकाल था) वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट (1878) और आर्म्स एक्ट (1878) से देश में विरोध आंदोलन को प्रेरणा मिली थी।

    राष्ट्रवाद के उदय और समाज के मुद्दों को हल करने में नरमपंथियों की प्रभावी नीतियों की विफलता के कारण अधिक मुखर और उग्रवादी राष्ट्रवाद का उदय हुआ था। इससे संबंधित लोग लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये असंवैधानिक साधनों को अपनाने में संकोच नहीं करते थे और भारत को औपनिवेशिक शासन से मुक्त करना ही अंतिम उद्देश्य मानते थे।

    नरमपंथियों की विफलता के कारण:

    • शुरुआत के 15-20 वर्षों के दौरान नरम दल की उपलब्धियों से कॉन्ग्रेस के युवा लोग असंतुष्ट थे।
      • वे आंदोलन के शांतिपूर्ण और संवैधानिक तरीकों के कड़े आलोचक थे जिनमें प्रार्थना, याचिका और विरोध शामिल हैं।
    • उदारवादी लोगों ने पश्चिमीकरण और औपनिवेशिक प्रणाली के खिलाफ सक्रिय रूप से विरोध नहीं किया था।
    • नरमपंथियों का संकीर्ण सामाजिक आधार था और शुरुआती राष्ट्रवादियों में जनता के राजनीतिक विश्वास के प्रति निष्क्रियता थी। उन्होंने महसूस किया था कि भारतीय समाज में विभाजन और उपवर्ग होने के साथ जनता आमतौर पर अज्ञानी और रूढ़िवादी विचार वाली है।
      • वे अपने लोकतांत्रिक आधार और अपनी मांगों के दायरे को व्यापक बनाने में विफल रहे थे।
      • उदारवादी, कानून की सीमाओं में रहते हुए संवैधानिक आंदोलन पर बल देते थे और इन्होंने धीमी लेकिन व्यवस्थित राजनीतिक प्रगति प्रदर्शित की थी। उदारवादी मानते थे कि ब्रिटिशों के साथ भारत के संबंध भारतीयों के हित में हैं।

    इस कारण से उदारवादी राष्ट्रवादियों की तुलना में क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों को अधिक महत्त्व मिला था।

    निष्कर्ष:

    हालाँकि उदारवादी नीति पूरी तरह विफल नहीं रही थी। इनके दीर्घकालिक दृष्टिकोण से भारतीय लोगों के बीच राष्ट्रवाद के उग्र और क्रांतिकारी रूप का आधार तैयार हुआ था।

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