भारत के न्यायिक परिदृश्य का रूपांतरण | 10 Oct 2024

यह संपादकीय "Case for compassion guiding the judiciary" पर आधारित है, जो 09/10/2024 को हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित हुआ था। यह लेख न्याय वितरण प्रणाली में करुणा को समेकित करके न्यायिक सुधार की तत्काल आवश्यकता को प्रकट करता है, बाल यौन शोषण के मामलों और हाशिये पर स्थित विचाराधीन कैदियों की दुर्दशा को संबोधित करने में इसकी भूमिका पर बल देता है। यह न्यायिक अधिकारियों के लिये करुणा संबंधी प्रशिक्षण और विधिक कार्यवाही तक अभिगम्यता और निष्पक्षता को संवर्द्धित करने के लिये "करुणा लब्धि" जैसे उपायों का प्रस्ताव करता है।

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय न्यायपालिका, सर्वोच्च न्यायालय, ई-कोर्ट परियोजना, राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो, अनूप बरनवाल मामला, निर्वाचन आयुक्त, केंद्र प्रायोजित योजना, लोक अदालतें, FASTER, नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल 

मेन्स के लिये:

भारतीय न्यायपालिका से संबंधित वर्तमान प्रमुख मुद्दे, भारत में न्यायिक सुधार से संबंधित प्रमुख हालिया पहल। 

भारतीय न्यायपालिका एक ऐसे महत्त्वपूर्ण मोड़ पर खड़ी है, जहाँ न्याय और करुणा के सिद्धांतों को विधि व्यवस्था में बढ़ती चुनौतियों का समाधान करने के लिये एक साथ आना चाहिये। जबकि विधि और संस्थाओं का ढाँचा न्याय प्रदान करने का मेरुदंड है। यह मानवीय तत्व है, जो प्रणाली के भीतर विद्यमान व्यक्तियों की करुणाका संवर्द्धन करती है, जो वास्तव में इन संस्थाओं में प्राण तत्व को संचारित करती है। लंबित बाल यौन शोषण मामलों में खतरनाक वृद्धि, वर्ष 2017 में 71,000 से वर्ष 2023 के अंत तक 236,000 तक, साथ ही जेलों में बंद हाशिये पर स्थित वर्गों के विचाराधीन कैदियों की दुर्दशा, सुधार की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करती है।

इस सुधार के मूल में न्याय प्रदान करने की प्रणाली में करुणा का समेकन निहित है। न्यायिक और पुलिस अधिकारियों के लिये करुणा प्रशिक्षण को शामिल करने, "करुणा लब्धि" के आधार पर उनके प्रदर्शन का मूल्यांकन करने और यह सुनिश्चित करने का प्रस्ताव कि विधिक व्याख्याएँ सिद्धांतों से समझौता किये बिना मानवाधिकारों को संधारित रखें, जो न्यायिक सुधार के लिये एक परिवर्तनकारी दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।

भारतीय न्यायपालिका से संबंधित वर्तमान प्रमुख मुद्दे क्या हैं? 

  • लंबित मामलों की संख्या: भारतीय न्यायपालिका लंबित मामलों की भारी समस्या से जूझ रही है, जिससे समय पर न्याय मिलने पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
    • सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मामलों की संख्या वर्तमान में लगभग 83,000 है, जो अब तक का सर्वाधिक आंकड़ा है।
    • भारतीय न्यायालयों में एक मामले के लंबित रहने का औसत समय अब ​​लगभग 3-5 वर्ष माना जाता है तथा कुछ मामले दशकों तक चलते रहते हैं।
      • इस वृहत् लंबित मामले के कारण न केवल वादियों को समय पर न्याय नहीं मिल पाता, बल्कि न्यायिक प्रणाली में जनता का विश्वास भी समाप्त हो रहा है।
  • न्यायिक रिक्तियाँ: न्यायपालिका के सभी स्तरों पर  न्यायाधीशों की कमी एक गंभीर चिंता का विषय बनी हुई है, जिससे लंबित मामलों की संख्या में अतिशय वृद्धि हो रही है।
    • सर्वोच्च न्यायालय वर्तमान में 32 न्यायाधीशों के साथ संचालित है, जो इसके स्वीकृत पद से दो कम है ( जुलाई 2024 तक) जबकि भारत में 25 उच्च न्यायालय हैं जिनमें न्यायाधीशों के स्वीकृत पद 1,114 हैं, परंतु वर्तमान में केवल 782 पद ही भरे हुए हैं, जिससे 332 न्यायाधीश पद रिक्त हैं।
    • निचली अदालतों में स्थिति और भी भयावह है, फरवरी 2023 तक ज़िला और अधीनस्थ न्यायालयों में 5,000 से अधिक रिक्तियाँ बताई गई हैं
    • इस कमी से न केवल मौजूदा न्यायाधीशों पर काम का बोझ बढ़ता है, बल्कि पूरी न्यायिक प्रक्रिया भी धीमी हो जाती है। प्रायः न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच मतभेदों के कारण नियुक्तियों में देरी से यह समस्या और भी जटिल हो जाती है।
  • आधारिक संरचना और तकनीकी अंतराल: आधुनिकीकरण के प्रयासों के बावजूद, कई भारतीय न्यायालयों में अभी भी पर्याप्त आधारिक संरचना और तकनीकी सहायता का अभाव है, जिससे कुशल न्याय वितरण में बाधा आ रही है।
    • ज़िला न्यायपालिका में न्यायाधीशों के स्वीकृत 25,081 पदों के लिये 4,250 न्यायालय कक्षों और 6,021 आवासीय इकाइयों की कमी है।
      • उल्लेखनीय है कि कुल न्यायालय कक्षों में से 42.9% का निर्माण कार्य 3 वर्षों से अधिक समय से चल रहा है।
    • ई-कोर्ट परियोजना, जिसका उद्देश्य न्यायालयी प्रक्रियाओं को डिजिटल बनाना है, ने प्रगति की है, परंतु कार्यान्वयन और अंगीकरण में चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, विशेष रूप से निचली अदालतों और ग्रामीण क्षेत्रों में।
      • न्याय तक अभिगम्यता में सुधार लाने तथा लंबित मामलों की संख्या कम करने के लिये इस डिजिटल विभाजन को पाटना महत्त्वपूर्ण है।
  • न्यायिक उत्तरदायित्व का अभाव: न्यायिक उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने के लिये एक सशक्त प्रणाली का अभाव चिंता का विषय रहा है, जिससे न्यायपालिका में जनता का विश्वास प्रभावित हो सकता है।
    • न्यायाधीशों को पद से हटाने के लिये महाभियोग की वर्तमान प्रणाली का प्रयोग शायद ही कभी किया जाता है तथा इसे ऐसे कदाचार से निपटने के लिये अपर्याप्त माना जाता है, जो महाभियोग योग्य अपराधों से कमतर है।
    • कॉलेजियम प्रणाली के स्थान पर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) के प्रस्ताव को वर्ष 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया था, जिसके कारण न्यायिक स्वतंत्रता बनाम उत्तरदायित्व के विषय में बहस जारी है।
    • हाल के विवादों, जैसे कुछ न्यायाधीशों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोप और सेवानिवृत्ति के बाद नियुक्तियों के विषय में प्रश्नचिह्न, ने न्यायिक कार्यप्रणाली और नियुक्तियों में अधिक पारदर्शिता की माँग को तीव्र कर दिया है।
  • न्याय तक अभिगम्यता में बाधाएँ: न्याय तक अभिगम्यता में बाधाएँ एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बनी हुई हैं, विशेष रूप से समाज के हाशिये पर स्थित और आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों के लिये।
    • विगत् दशक में, भारतीय जेलों में विचाराधीन कैदियों की संख्या में वृद्धि हुई है, जिनकी हिस्सेदारी वर्ष 2012 में कैदियों के 66% से बढ़कर वर्ष 2022 में 76% हो गई है, जैसा कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा निर्गत जेल सांख्यिकी भारत रिपोर्ट में बताया गया है, जिसमें असंगत संख्या वंचित समुदायों से आती है और जाति-आधारित भेदभाव का सामना करती है।
      • 3 अक्तूबर, 2024 को सर्वोच्च न्यायालय ने एक व्यापक फैसला सुनाते हुए कहा कि जाति-आधारित भेदभाव की अनुमति देने वाले कारागार निर्देशिका के प्रावधान असंवैधानिक हैं।
    • मुकदमेबाज़ी की उच्च लागत, जटिल विधिक प्रक्रियाएँ और भाषा संबंधी बाधाएँ प्रायः कई लोगों को विधिक सहायता प्राप्त करने से रोकती हैं।
    • यद्यपि विधिक सहायता सेवाएँ सुलभ हैं, फिर भी उन्हें प्रायः नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।
      • भारत न्याय रिपोर्ट 2019 के अनुसार, भारत की 1.3 बिलियन आबादी में से 80% से अधिक लोग विधिक सहायता के लिये अर्हत हैं, फिर भी वर्ष 1995 में NALSA की स्थापना के बाद से केवल 15 मिलियन लोग ही इससे लाभान्वित हुए हैं ।
  • कार्यपालिका हस्तक्षेप और न्यायिक स्वतंत्रता: न्यायिक स्वतंत्रता और कार्यपालिका निगरानी के मध्य नाजुक संतुलन एक विवादास्पद मुद्दा बना हुआ है।
    • हाल के वर्षों में न्यायिक मामलों में कार्यपालिका के हस्तक्षेप के कई उदाहरण सामने आए हैं, जिससे न्यायिक स्वायत्तता के क्षरण के विषय में चिंताओं में वृद्धि हुई हैं।
    • फरवरी 2020 में दिल्ली उच्च न्यायालय से न्यायमूर्ति एस. मुरलीधर के स्थानांतरण को लेकर हुए विवाद को प्रायः एक उदाहरण के रूप में उद्धृत किया जाता है।
  • प्रतिनिधित्व और विविधता: भारतीय न्यायपालिका में विविधता का अभाव, विशेष रूप से लिंग, जाति और क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व के संदर्भ में, एक गंभीर मुद्दा बना हुआ है।
    • वर्ष 2023 तक, उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों में महिलाओं की संख्या क्रमशः 13.4% और 9.3% है, जो प्रतिनिधित्व के वांछित स्तर से काफी कम है।
    • अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के न्यायाधीशों का प्रतिनिधित्व भी कम है।
      • एक हालिया रिपोर्ट में पाया गया कि परीक्षित छह राज्यों में अनुसूचित वर्ग के लिये  आरक्षित कुल 168 सीटों में से 142 (84.5%) सीटें रिक्त रह गई हैं।
    • विविधता का यह अभाव न केवल न्यायपालिका की धारणा को प्रभावित करता है, बल्कि हाशिये पर स्थित समुदायों से संबंधित मामलों के अभिज्ञता और व्याख्या को भी संभावित रूप से प्रभावित करता है।
  • न्यायिक अतिक्रमण और सक्रियता: न्यायिक सक्रियता और अतिक्रमण के मध्य सूक्ष्म रेखा विवाद का विषय बना हुआ है।
    • यद्यपि न्यायिक सक्रियता के कारण मूल अधिकारों के संरक्षण हेतु ऐतिहासिक निर्णय सामने आए हैं, आलोचकों का तर्क है कि यह कभी-कभी विधायिका के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण करता है।
    • एक महत्त्वपूर्ण मामला अनूप बरनवाल मामला (2023) से संबंधित है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने  निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया पर निर्णय सुनाया था, जिसमें एक चयन समिति का गठन किया गया था जिसमें प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और भारत के मुख्य न्यायाधीश शामिल थे।
      • आलोचकों का तर्क है कि यह निर्णय कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण करता है तथा भारत के लोकतांत्रिक ढाँचे में शक्ति संतुलन को परिवर्तित करता है।
    • ये हस्तक्षेप, प्रायः समुचित अभिप्राय से किये जाते हैं तथा शक्तियों के पृथक्करण और नीति-निर्माण में न्यायपालिका की भूमिका के विषय में प्रश्न उठाते हैं।
  • निर्णयों का प्रवर्तन: न्यायालय के आदेशों और निर्णयों को प्रभावी ढंग से प्रवर्तित करने की चुनौती एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बनी हुई है।
    • बड़ी संख्या में न्यायालय के आदेश, विशेषकर सरकारी निकायों के विरुद्ध दिये गए आदेशों का प्रवर्तन नहीं होता।
      • यमुना नदी को साफ करने के लिये सरकार को निर्देश देने वाले अनेक न्यायालयी आदेशों के बावजूद, प्रदूषण का स्तर चिंताजनक रूप से उच्च बना हुआ है।
      • ऐसा कई कारकों के कारण हुआ है, जिनमें अपर्याप्त आधारिक संरचना, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और शक्तिशाली हितों की संलिप्तता शामिल है।
    • इससे न केवल न्यायालयों का अधिकार कमज़ोर होता है, बल्कि उन वादियों को भी न्याय से वंचित किया जाता है, जिन्होंने अपने मामलों को सफलतापूर्वक अग्रेषित किया है।
      • न्यायालयी आदेशों का पर्यवेक्षण और अनुपालन सुनिश्चित करने के लिये सुव्यवस्थित प्रणाली का अभाव इस समस्या को बढ़ाता है, जिससे न्यायिक प्रणाली की समग्र प्रभावकारिता प्रभावित होती है।
  • ई-फाइलिंग और केस रिकॉर्ड का डिजिटलीकरण: 31 जुलाई 2023 तक 18,36,627 मामले ई-फाइल किये जा चुके हैं, जिनमें से 11,88,842 (65%) मामले ज़िला न्यायालयों में ई-फाइल किये गए। यद्यपि, आईज्यूरिस पर न्यायिक अधिकारियों द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, केवल 48.6% ज़िला न्यायालय परिसरों में ही कार्यात्मक ई-फाइलिंग सुविधा है।
    • भारत के सर्वोच्च न्यायालय की ई-समिति के अनुसार, 22 नवंबर 2022 तक, लगभग 12 बिलियन पृष्ठों, जिनमें से अधिकांश निपटाए गए मामलों के विरासत रिकॉर्ड शामिल हैं, को डिजिटल रूप से संरक्षित करने की आवश्यकता है।
      • यद्यपि, इस संरक्षण पर प्रगति धीमी रही है।

भारत में न्यायिक सुधार से संबंधित प्रमुख हालिया पहल क्या हैं?

  • न्याय प्रतिपादन और विधिक सुधार के लिये राष्ट्रीय मिशन: अगस्त 2011 में स्थापित, इसका उद्देश्य संरचनात्मक परिवर्तनों और प्रदर्शन मानकों के माध्यम से उत्तरदायित्व में सुधार करते हुए विलंबता और शेष मामलों को कम करके न्याय तक अभिगम्यता में वृद्धि करना है।
  • आधारिक संरचना का विकास
  • न्यायिक अवसंरचना के लिये केंद्र प्रायोजित योजना (CSS) न्यायालय कक्ष, न्यायिक अधिकारियों के लिये आवास, अधिवक्ताओं के लिये कक्ष और डिजिटल कंप्यूटर कक्षों के निर्माण में महत्त्वपूर्ण रही है।
    • वर्ष 1993-94 में योजना की शुरुआत के बाद से सरकार ने वर्ष 2023 तक ₹9,755.51 करोड़ जारी किये हैं।
  • डिजिटलीकरण प्रयास: 
    • ई-कोर्ट और सूचना-प्रौद्योगिकी सक्षमता: ई -कोर्ट मिशन मोड परियोजना का उद्देश्य डिजिटल समाधानों के माध्यम से न्याय प्रदान करने में सुधार करना है। वर्ष 2023 तक की उपलब्धियों में शामिल हैं:
      • कम्प्यूटरीकृत न्यायालय: 18,735 ज़िला एवं अधीनस्थ न्यायालय।
      • वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग : 3,240 न्यायलय 1,272 कारागारों से जुड़ीं।
    • ई-सेवा केंद्र: वर्ष 2023 तक, 689 केंद्र मामलों की जानकारी, निर्णय और ई-फाइलिंग सहायता प्रदान करेंगे।
    • आभासी न्यायालय: 17 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में 21 आभासी न्यायालय, 2.53 करोड़ से अधिक मामलों को संभालेंगे और जनवरी 2023 तक 359 करोड़ रुपये का जुर्माना वसूलेंगे।
  • विधायी एवं नीतिगत सुधार: लंबित मामलों को कम करने के लिये कई विधियों में संशोधन किया गया है, जिनमें शामिल हैं:
    • फास्ट ट्रैक और विशेष न्यायालय: सरकार ने चौदहवें वित्त आयोग के तहत जघन्य अपराधों एवं वरिष्ठ नागरिकों, महिलाओं और बच्चों जैसे सुभेद्य समूहों से संबंधित मामलों के लिये फास्ट ट्रैक न्यायालयों की स्थापना की।
      • वर्ष 2023 तक 843 फास्ट ट्रैक कोर्ट कार्यरत हैं।
        • बलात्संग और पोक्सो अधिनियम मामलों के लिये 1023 फास्ट ट्रैक विशेष न्यायालयों (FTSC) को मंजूरी दी गई है, जिसमें 28 राज्य/केंद्र शासित प्रदेश इस योजना में शामिल हो गए हैं।
    • वाणिज्यिक न्यायालय (संशोधन) अधिनियम, 2018
    • माध्यस्थम् और सुलह (संशोधन) अधिनियम, 2019
  • वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) प्रणाली: ADR को प्रोत्साहित करने के लिये, वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 को वर्ष 2018 में संशोधित किया गया ताकि पूर्व-संस्था मध्यस्थता और निपटान (PIMS) को अनिवार्य बनाया जा सके
    • देश भर में आयोजित लोक अदालतों ने लाखों मामलों का निपटारा किया है, जिसके अंतर्गत वर्ष 2021 और वर्ष 2023 के बीच 7.53 करोड़ मामले निपटाए गए।
  • टेली-लॉ और प्रो बोनो पहल: टेली -लॉ कार्यक्रम (वर्ष 2017 में शुरू किया गया) कॉमन सर्विस सेंटर (CSC) के माध्यम से वंचित समूहों को विधिक परामर्श प्रदान करता है।
    • फरवरी 2023 तक टेली-लॉ के तहत 34.28 लाख मामले दर्ज़ किये जा चुके हैं।
    • एक प्रो बोनो एडवोकेट्स पैनल स्थापित किया गया है, जिसमें अधिवक्ता न्यायबंधु जैसे प्लेटफार्मों के माध्यम से निशुल्क विधिक सेवाएँ प्रदान करने के लिये स्वेच्छा से कार्य करते हैं

भारत की न्यायपालिका को सुदृढ़ बनाने के लिये क्या उपाय अपनाए जा सकते हैं?

  • प्रौद्योगिकी के माध्यम से केस प्रबंधन का संरेखन: भारत ई-कोर्ट परियोजना को पूरी तरह से कार्यान्वित करके और उसका विस्तार करके लंबित मामलों की संख्या को काफी हद तक न्यून कर सकता है, जिसमें न्यायालय के रिकॉर्ड के डिजिटलीकरण, ऑनलाइन केस फाइलिंग और एआई-सहायता प्राप्त केस प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित किया जा सकता है।
    • सिंगापुर की न्यायपालिका की इंटीग्रेटेड केस मैनेजमेंट सिस्टम (ICMS) की सफलता एक उत्कृष्ट मॉडल के रूप में कार्य करती है।
    • भारत में, जमानत आदेशों के त्वरित प्रसारण के लिये सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वर्ष 2022 में  FASTER (इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड्स का त्वरित और सुरक्षित प्रसारण) प्रणाली का शुभारंभ सही दिशा में उठाया गया कदम है।
    • ऐसी पहलों को न्यायालयों के सभी स्तरों तक विस्तारित करने तथा न्यायिक कर्मचारियों और अधिवक्ताओं को व्यापक प्रशिक्षण देने से केस प्रबंधन दक्षता में नाटकीय रूप से सुधार हो सकता है।
  • वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) प्रणाली: मध्यस्थता, पंचनिर्णय और लोक अदालतों जैसे ADR प्रणाली को संवर्द्धित और सुदृढ़ करने से औपचारिक न्यायालयों पर भार काफी कम हो सकता है। 
    • भारत का हालिया मध्यस्थता अधिनियम, 2023, मध्यस्थता के लिये एक सांविधिक आधार प्रदान करता है, परंतु इसके कार्यान्वयन में तेज़ी लाने की आवश्यकता है। 
    • अधिक मध्यस्थता केंद्रों की स्थापना, पेशेवर मध्यस्थों को प्रशिक्षण तथा कर लाभ या समझौतों के तीव्र प्रवर्तन के माध्यम से ADR को प्रोत्साहित करने से, वादियों को विवाद समाधान के इन तीव्र, कम विरोधात्मक तरीकों को अपनाने के लिये प्रोत्साहित किया जा सकता है।
  • न्यायिक नियुक्तियाँ और रिक्तियाँ: न्यायिक रिक्तियों के समाधान के लिये दो-आयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है: नियुक्ति प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना और न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या में वृद्धि करना।
    • मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की हाल की टिप्पणी कि "कॉलेजियम महज एक खोज समिति नहीं है" और महान्यायवादी से लंबित नियुक्तियों पर रिपोर्ट मांगना, प्रक्रिया में पारदर्शिता और दक्षता की तत्काल आवश्यकता को प्रदर्शित करता है, जो न्यायिक प्रभावशीलता में बाधा डालने वाली प्रणालीगत विलंबता को संबोधित करता है।
    • वर्तमान कॉलेजियम प्रणाली में सुधार किया जा सकता है, ताकि इसमें अधिक विविधतापूर्ण चयन समिति शामिल की जा सके, जो ब्रिटेन के न्यायिक नियुक्ति आयोग के समान है, जिसमें आम सदस्य भी शामिल होते हैं।
    • इसके अतिरिक्त, न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाने से, जैसा कि ब्रिटेन में किया गया है (सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के लिए 75 वर्ष), अनुभवी न्यायविदों का संधारण और रिक्तियों को कम करने में सहायता मिल सकती है।
  • विशिष्ट न्यायालय और न्यायाधिकरण: अधिक विशिष्ट न्यायालयों और न्यायाधिकरणों की स्थापना से विधि के विशिष्ट क्षेत्रों में मामलों के समाधान में तेज़ी आ सकती है।
    • उदाहरण के लिये, भारत के नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (NCLT) ने कॉर्पोरेट विवादों को कुशलतापूर्वक सुलझाने में सफलता दिखाई है।
    • हाल ही में विशेष POCSO न्यायालयों की स्थापना एक और सकारात्मक कदम है।
    • विभिन्न विधिक क्षेत्रों के लिये जर्मनी की विशेष न्यायालयों की प्रणाली से सीखते हुए, भारत इस मॉडल को पर्यावरण विधि, साइबर अपराध और बौद्धिक संपदा अधिकार जैसे क्षेत्रों तक विस्तारित कर सकता है, जिससे इस क्षेत्र में विशेषज्ञता वाले न्यायाधीशों के माध्यम से तीव्र और अधिक सूचित निर्णय सुनिश्चित हो सके।
  • विधिक सहायता और न्याय तक अभिगम्यता: न्याय तक अभिगम्यता में सुधार के लिये विधिक सहायता सेवाओं में सुधार महत्त्वपूर्ण है। भारत नीदरलैंड की प्रणाली से प्रेरणा ले सकता है, जहाँ प्रत्येक नागरिक आय स्तर के आधार पर सब्सिडी वाली विधिक सहायता पाने का हकदार है।
    • राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण को उसके वित्त पोषण में वृद्धि करके सुदृढ़ करना, सचल विधिक क्लीनिकों के माध्यम से इसकी अभिगम्यता का विस्तार करना (जैसा कि कुछ भारतीय राज्यों में देखा गया है) तथा निशुल्क सेवाओं के लिये विधि विश्वविद्यालयों के साथ साझेदारी करना, विधिक सहायता को अधिक सुलभ बना सकता है।
    • वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से निशुल्क विधिक परामर्श प्रदान करने वाली टेली-लॉ सेवा की शुरूआत एक सकारात्मक कदम है, जिसका और अधिक विस्तार एवं प्रचार किया जा सकता है।
  • न्यायिक प्रदर्शन मात्रिक और उत्तरदायित्व: न्यायिक प्रदर्शन मूल्यांकन की पारदर्शी प्रणाली को कार्यान्वित करने से उत्तरदायित्व और दक्षता में वृद्धि हो सकती है।
    • संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा अनेक राज्यों में न्यायिक निष्पादन मूल्यांकन का प्रयोग एक आदर्श प्रस्तुत करता है।
    • भारत भी अपने संदर्भ के अनुरूप एक समान प्रणाली विकसित कर सकता है, जिसके अंतर्गत न्यायपालिका के सभी स्तरों को सम्मिलित करने वाली एक व्यापक, वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन प्रणाली लाभकारी होगी, जिससे यह सुनिश्चित होगा कि इससे न्यायिक स्वतंत्रता से समझौता नहीं होगा।
  • न्यायालय की आधारिक संरचना और संसाधन प्रबंधन: दक्ष न्याय प्रतिपूर्ति के लिये न्यायालय की आधारिक संरचना में सुधार करना महत्त्वपूर्ण है।
    • उन्नत प्रौद्योगिकी के साथ आधुनिक न्यायालय सुविधाओं में जापान का निवेश प्रेरणा का स्रोत बन सकता है।
    • ज़िला एवं अधीनस्थ न्यायालयों में आधारिक संरचना के विकास के लिये केंद्र सरकार की केंद्र प्रायोजित योजना (CSS), जिसका कुल परिव्यय 9,000 करोड़ रुपये है, एक सकारात्मक कदम है, परंतु इसके कार्यान्वयन में तेज़ी लाने की ज़रूरत है।
    • लक्षित क्षेत्रों में अधिक न्यायालय कक्षों का निर्माण, वादियों और गवाहों के लिये सुविधाओं में सुधार तथा यह सुनिश्चित करना शामिल होना चाहिये कि सभी न्यायालयों में आधारिक सुविधाएँ और प्रौद्योगिकी उपलब्ध हो।
      • न्यायालय के समय का इष्टतम उपयोग और उचित केस शेड्यूलिंग सहित दक्ष संसाधन प्रबंधन, उत्पादकता में वृद्धि कर सकता है।
  • न्यायिक अधिकारियों के लिये करुणा प्रशिक्षण का कार्यान्वयन: सभी स्तरों पर न्यायिक अधिकारियों के लिये व्यापक करुणा प्रशिक्षण कार्यक्रमों के कार्यान्वयन से न्याय प्रदान करने की गुणवत्ता और कथित निष्पक्षता में उल्लेखनीय वृद्धि हो सकती है।
    • इस तरह के प्रशिक्षण में भावनात्मक बुद्धिमत्ता, सांस्कृतिक संवेदनशीलता और सामाजिक संदर्भों की समझ पर मॉड्यूल शामिल हो सकते हैं।
    • भारत में, राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी न्यायाधीशों के लिये अपने पाठ्यक्रम में अनिवार्य करुणा प्रशिक्षण को शामिल कर सकती है, जिसमें वास्तविक मामलों के परिदृश्यों और भूमिका-निर्धारण अभ्यासों पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा।
      • नियमित पुनश्चर्या पाठ्यक्रम और विधिक कौशल के साथ-साथ समानुभूति के आधार पर न्यायाधीशों का मूल्यांकन, करुणामय न्याय प्रदान करने पर निरंतर ध्यान केंद्रित करना सुनिश्चित कर सकता है।
    • इसके अतिरिक्त, न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं के लिये अनिवार्य निरंतर विधिक शिक्षा से विधिक सेवाओं और न्यायिक निर्णयन की गुणवत्ता में उल्लेखनीय सुधार हो सकता है।
      • अधिवक्ताओं के लिये  सिंगापुर की अनिवार्य निरंतर व्यावसायिक विकास (CPD) योजना एक उत्कृष्ट मॉडल है।
    • न्यायिक आचरण के बैंगलूरू सिद्धांत न्यायाधीशों के बीच नैतिक आचरण के लिये एक रूपरेखा प्रदान करते हैं तथा सत्यनिष्ठता, निष्पक्षता और उत्तरदायित्व पर बल देते हैं।
  • न्यायिक पहुँच और सार्वजनिक शिक्षा: विधिक प्रणाली के विषय में जनता की अभिज्ञता में सुधार से अनावश्यक मुकदमेबाज़ी में कमी आ सकती है और न्यायालयी आदेशों के अनुपालन में सुधार हो सकता है।
    • भारतीय सर्वोच्च न्यायालय की कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग और क्षेत्रीय भाषाओं में निर्णय प्रकाशित करने जैसी हालिया पहल पारदर्शिता की दिशा में सराहनीय कदम हैं।
    • सार्वजनिक व्याख्यानों, मुक्त न्यायालय दिवसों तथा स्कूलों और कॉलेजों में शैक्षिक कार्यक्रमों के माध्यम से इन प्रयासों का विस्तार करके न्यायपालिका के साथ जनता की बेहतर सहभागिता को संवर्द्धित किया जा सकता है।

निष्कर्ष: 

भारतीय न्यायपालिका एक ऐसे महत्त्वपूर्ण मोड़ पर खड़ी है, जहाँ विधिक सिद्धांतों के साथ-साथ करुणा को अंगीकृत करने से न्याय प्रदान करने की प्रक्रिया में व्यापक परिवर्तन आ सकता है। करुणा प्रशिक्षण को समेकित करना और विधिक प्रक्रियाओं के विषय में लोगों की अभिज्ञता को बेहतर बनाना एक अधिक समानुभूतिपूर्ण और प्रभावी न्यायिक ढाँचे को संवर्द्धित कर सकता है। इन व्यापक सुधारों के माध्यम से, भारत यह सुनिश्चित कर सकता है कि न्याय न केवल प्रदान किया जाए, बल्कि इसे सभी नागरिकों के लिये निष्पक्ष, न्यायसंगत और सुलभ भी बनाया जाए।

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

Q. भारतीय न्यायपालिका द्वारा संवैधानिक मूल्यों के संधारण की प्रशंसा की जाती रही है, परंतु लंबित मामलों, न्यायिक अतिक्रमण और अवसंरचनागत सीमाओं की हालिया चुनौतियों ने चिंताओं में वृद्धि की हैं। इन मुद्दों को संबोधित करने में विशिष्ट पहलों और न्याय तक अभिगम्यता और न्यायिक दक्षता पर उनके प्रभाव का संदर्भ प्रस्तुत करते हुए न्यायिक सुधारों की भूमिका पर चर्चा कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत् वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए :

  1. भारत के संविधान के 44वें संशोधन द्वारा लाए गए एक अनुच्छेद ने प्रधानमंत्री के निर्वाचन को न्यायिक पुनर्विलोकन के परे कर दिया।
  2. भारत के संविधान के 99वें संशोधन को भारत के उच्चतम न्यायालय ने अभिखंडित कर दिया क्योंकि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अतिक्रमण करता था।

उपर्युक्त में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1, न ही 2

उत्तर: (b)


प्रश्न. राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:

  1. इसका उद्देश्य समान अवसरों के आधार पर समाज के कमज़ोर वर्गों को निशुल्क एवं सक्षम विधिक सेवाएँ उपलब्ध कराना है।
  2. यह देश-भर में विधिक कार्यक्रमों और योजनाओं को लागू करने के लिये राज्य विधिक सेवा प्राधिकरणों को निर्देश जारी करता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (c)


मेन्स

Q. भारत में उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017)

Q. निशुल्क कानूनी सहायता प्राप्त करने के हकदार कौन है? निशुल्क कानूनी सहायता के प्रतिपादन में राष्ट्रीय विधि सेवा प्राधिकरण (NALSA) की भूमिका का आकलन कीजिये। (2023)