भारतीय अर्थव्यवस्था
जलवायु परिवर्तन से हरित अर्थव्यवस्था में उभरते अवसर
- 24 Dec 2024
- 37 min read
यह एडिटोरियल 24/12/2024 को द लाइवमिंट में प्रकाशित “India's climate challenge and the rise of a new green economy” पर आधारित है। इस लेख में जलवायु परिवर्तन के कारण भारत के समक्ष आने वाली महत्त्वपूर्ण चुनौतियों, जैसे कि बाढ़ और कृषि अस्थिरता को दर्शाता है, साथ ही अक्षय ऊर्जा, हरित हाइड्रोजन और संवहनीय कृषि के माध्यम से हरित आर्थिक परिवर्तन के अवसरों पर प्रकाश डाला गया है। इस परिवर्तन को प्राप्त करने के लिये अभिनव वित्तपोषण और सतत् विकास की दिशा में वैश्विक मानक निर्धारित करने के लिये संवहनीयता और शहरी समुत्थानशक्ति पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।
प्रिलिम्स के लिये:जलवायु परिवर्तन, वर्ष 2030 तक 500 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा, हिमाचल प्रदेश बाढ़- 2023, अनियमित मानसून, परिशुद्ध कृषि, शून्य बजट प्राकृतिक खेती, तटरेखा आवास और मूर्त आय के लिये मैंग्रोव पहल, प्रदर्शन, उपलब्धि और व्यापार (PAT) योजना, राष्ट्रीय शीतलन कार्य योजना, अटल भूजल योजना, ग्रीन एनर्जी कॉरिडोर (GEC), NITI आयोग, मूल सीमा शुल्क, कार्बन सीमा समायोजन तंत्र, राष्ट्रीय निवेश और अवसंरचना कोष मेन्स के लिये:जलवायु परिवर्तन की भेद्यता भारत की हरित अर्थव्यवस्था में परिवर्तन को प्रेरित कर रही है, भारत की हरित अर्थव्यवस्था की ओर परिवर्तन में बाधाएँ। |
भारत जलवायु परिवर्तन से गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है, जिसमें बाढ़ और कृषि अस्थिरता शामिल है, लेकिन इसके साथ ही हरित आर्थिक परिवर्तन के लिये विशिष्ट अवसर भी हैं। वर्ष 2030 तक 500 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा के लक्ष्य और हरित हाइड्रोजन एवं संवहनीय कृषि में प्रगति के साथ, भारत विकासशील देशों के लिये एक मॉडल बन सकता है। हालाँकि, इसे प्राप्त करने के लिये सीमित वैश्विक जलवायु वित्त को देखते हुए सार्वजनिक निधियों से परे अभिनव वित्तपोषण की आवश्यकता है। बाधाओं के बावजूद, नवीकरणीय ऊर्जा, संवहनीयता और शहरी समुत्थानशीलन पर भारत का ध्यान इसके भविष्य को सुरक्षित कर सकता है तथा एक हरित अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिये वैश्विक मानक स्थापित कर सकता है।
हरित अर्थव्यवस्था क्या है?
- हरित अर्थव्यवस्था एक आर्थिक प्रणाली है जिसका उद्देश्य पर्यावरणीय संवहनीयता, सामाजिक समावेशन और आर्थिक विकास को एक साथ बढ़ावा देना है।
- यह नवीकरणीय ऊर्जा, स्वच्छ प्रौद्योगिकी, ऊर्जा दक्षता और संवहनीय कृषि जैसे हरित क्षेत्रों में निवेश करके पर्यावरणीय जोखिमों एवं पारिस्थितिकीय अभावों को कम करने पर ध्यान केंद्रित करता है।
- इसका लक्ष्य रोज़गार सृजन, जीवन स्तर में सुधार, तथा पर्यावरण के प्राकृतिक संसाधनों पर नकारात्मक प्रभाव को न्यूनतम करते हुए सतत् विकास को बढ़ावा देना है।
जलवायु परिवर्तन की संवेदनशीलता भारत की हरित अर्थव्यवस्था में किस प्रकार परिवर्तन को प्रेरित कर रही है?
- निरंतर आपदाओं के कारण नवीकरणीय ऊर्जा का अंगीकरण : बाढ़, हीट वेव्स और चक्रवातों जैसी चरम जलवायु घटनाओं के प्रति भारत के बढ़ते जोखिम ने ऊर्जा आपूर्ति शृंखलाओं को बाधित कर दिया है तथा जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता के कारण सुभेद्यता को रेखांकित किया है।
- उदाहरण के लिये, वर्ष 2023 में हिमाचल प्रदेश बाढ़ के कारण ऊर्जा नेटवर्क सहित व्यापक बुनियादी अवसंरचना को व्यापक नुकसान हुआ।
- भारत की कुल नवीकरणीय ऊर्जा स्थापित क्षमता केवल एक वर्ष में 13.5% की प्रभावशाली वृद्धि के साथ अक्तूबर 2024 में 203.18 गीगावाट तक पहुँच गई, जो वर्ष 2030 तक 500 गीगावाट तक पहुँचने के लक्ष्य का हिस्सा है।
- कृषि में होने वाले नुकसान से स्थायी प्रथाओं को प्रोत्साहन: जलवायु परिवर्तन से जुड़े अनियमित मानसून और बढ़ते तापमान ने फसल की उपज व किसानों की आय पर भारी प्रभाव डाला है।
- जलवायु परिवर्तन के कारण वर्ष 2050 तक गेहूँ की उपज में 19.3% तथा वर्ष 2080 तक 40% की कमी आ सकती है, जबकि खरीफ मक्का की उपज में समान अवधि में 18% व 23% की कमी आ सकती है, जिसमें क्षेत्रीय तथा समय के अनुसार महत्त्वपूर्ण भिन्नताएँ होंगी।
- इस संवेदनशीलता ने आंध्र प्रदेश में परिशुद्ध कृषि, शून्य बजट प्राकृतिक कृषि और जलवायु-अनुकूल बीजों के लिये अंगीकरण जैसी पहलों को प्रेरित किया है, जिससे संवहनीय कृषि पद्धतियों के लिये बाज़ार का निर्माण हुआ है।
- अगस्त 2024 में, भारतीय प्रधानमंत्री ने 109 जलवायु-अनुकूल और जैव-फोर्टिफाइड फसलों की किस्मों को लॉन्च करने की घोषणा की, जिनमें 34 क्षेत्र फसलें एवं 27 बागवानी फसलें शामिल हैं।
- समुद्र का बढ़ते स्तर से तटीय अनुकूलन परियोजनाओं को बढ़ावा: भारत की 7,500 किलोमीटर लंबी तटरेखा समुद्र के बढ़ते स्तर के कारण खतरे का सामना कर रही है, जिससे मुंबई और चेन्नई जैसे शहरों में आजीविका एवं बुनियादी अवसंरचना को खतरा हो रहा है।
- एक हालिया रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि तटीय जलप्लावन के कारण वर्ष 2050 तक 36 मिलियन भारतीय विस्थापित हो सकते हैं।
- इसे कम करने के लिये, तटरेखा आवास और मूर्त आय के लिये मैंग्रोव पहल (MISHTI) के तहत मैंग्रोव वनीकरण जैसी परियोजनाओं ने गति पकड़ी है, जो प्रकृति-आधारित समाधानों के माध्यम से भारत की हरित अर्थव्यवस्था में परिवर्तन के साथ संरेखित है।
- हीटवेव-प्रेरित शहरी ऊर्जा दक्षता: बढ़ते हीट वेव्स के कारण, भारत में वर्ष 2022 में 200 से अधिक हीटवेव दिन दर्ज किये गए, जिससे शीतलन की मांग बढ़ गई है और परंपरागत ऊर्जा स्रोतों पर दबाव बढ़ गया है।
- बढ़ती हुई कमज़ोरियों ने शहरी क्षेत्रों को हरित भवन संहिता और ऊर्जा-कुशल शीतलन प्रौद्योगिकियों के अंगीकरण के लिये प्रेरित किया है।
- राष्ट्रीय शीतलन कार्य योजना (NCAP) जैसी पहलों का लक्ष्य वर्ष 2037-38 तक शीतलन ऊर्जा आवश्यकताओं को 20-25% तक कम करना है, जिससे शहरी आर्थिक विकास में स्थिरता को एकीकृत किया जा सके।
- प्रदर्शन, उपलब्धि और व्यापार (PAT) योजना उद्योगों में ऊर्जा दक्षता को प्रोत्साहित करती है, जबकि नवीकरणीय ऊर्जा निर्यात क्षेत्र हरित विनिर्माण को बढ़ावा देते हैं।
- जल की कमी से हरित नवाचारों को बढ़ावा: भारत में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता वर्ष 1951 में 5,177 m³ से घटकर वर्ष 2022 में 1,486 m³ रह गई है, जलवायु-प्रेरित जल संकट ने अपशिष्ट जल पुनर्चक्रण और सौर ऊर्जा चालित सिंचाई जैसी हरित आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा दिया है।
- उदाहरण के लिये, भूजल प्रबंधन पर केंद्रित अटल भूजल योजना, जल निकासी के लिये नवीकरणीय ऊर्जा समाधान को बढ़ावा देती है।
- जैवविविधता ह्रास से पारिस्थितिकी तंत्र आधारित समाधान: जलवायु पैटर्न में परिवर्तन के कारण वनों की कटाई और जैवविविधता के ह्रास ने आजीविका के लिये महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिकी सेवाओं को प्रभावित किया है।
- भारत ने वर्ष 2030 तक 26 मिलियन हेक्टेयर बंजर भूमि के पुनः सृजन करने की प्रतिबद्धता जताई है, जैसा कि COP15 में वादा किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप पारिस्थितिकी पर्यटन और कृषि वानिकी जैसी हरित अर्थव्यवस्था की पहल को बढ़ावा मिला है, जिससे रोज़गार सृजन के साथ-साथ जलवायु जोखिमों से निपटने में भी मदद मिली है।
- हरियाणा के गुड़गाँव में अरावली जैवविविधता पार्क एक पुनर्स्थापित पारिस्थितिक हॉटस्पॉट के रूप में कार्य करता है जो मरुस्थलीकरण से लड़ते हुए जैवविविधता का पोषण कर रहा है।
- जलवायु वित्त पहल को बढ़ावा देने वाले वित्तीय जोखिम: लगातार जलवायु संबंधी आपदाओं ने वित्तीय कमज़ोरियों की ओर ध्यान आकर्षित किया है। भारत में जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होने के लिये संचयी कुल व्यय वर्ष 2030 तक ₹85.6 लाख करोड़ (सत्र 2011-12 की कीमतों पर) तक पहुँचने का अनुमान है।
- हरित वित्त तंत्र, जैसे कि वर्ष 2023 में जारी किये जाने वाले 16,000 करोड़ रुपए मूल्य के सॉवरेन ग्रीन बॉण्ड, नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं और संधारणीय बुनियादी अवसंरचना को वित्तपोषित करते हैं, जो जलवायु अनुकूलन आर्थिक नीति का एक मुख्य घटक बन जाता है।
- सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट से जलवायु कार्रवाई में तीव्रता: जलवायु परिवर्तन से प्रेरित स्वास्थ्य संकट, जैसे तापमान में वृद्धि के कारण वेक्टर जनित रोगों में वृद्धि, स्वास्थ्य देखभाल की लागत में वृद्धि कर रहे हैं।
- अध्ययनों से पता चलता है कि प्रतिवर्ष लगभग 37.7 मिलियन भारतीय जल जनित रोगों से प्रभावित होते हैं।
- इसने भारत को हरित अवसंरचना समाधानों को अपनाने के लिये प्रेरित किया है, जैसे कि कायाकल्प और शहरी परिवर्तन के लिये अटल मिशन (अमृत), जो समुत्थानशील शहरी जल आपूर्ति और स्वच्छता प्रणालियों पर केंद्रित है।
- इसके अतिरिक्त, नमामि गंगे कार्यक्रम जैसी पहलों का उद्देश्य नदियों को साफ और पुनर्जीवित करना, जल प्रदूषण एवं उससे जुड़े स्वास्थ्य जोखिमों को कम करना है।
हरित अर्थव्यवस्था की ओर भारत के कदम बढ़ाने में क्या बाधाएँ हैं?
- अपर्याप्त नवीकरणीय ऊर्जा अवसंरचना: वर्ष 2030 तक 500 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता प्राप्त करने के भारत के महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य को अपर्याप्त अवसंरचना और ग्रिड एकीकरण के मुद्दों के कारण बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है।
- वर्तमान में, भारत में ऑन-ग्रिड अक्षय ऊर्जा का प्रतिशत केवल 28.04% है। इसके अलावा, ग्रिड कनेक्टिविटी में सुधार के उद्देश्य से ग्रीन एनर्जी कॉरिडोर (GEC) जैसी परियोजनाओं में विलंब नीतिगत लक्ष्यों और निष्पादन के बीच अंतर को उजागर करता है।
- जीवाश्म ईंधन पर उच्च निर्भरता: नवीकरणीय ऊर्जा में प्रगति के बावजूद, भारत का 77% बिजली उत्पादन (वित्त वर्ष 2023 तक) कोयले से होता है, जिससे जीवाश्म ईंधन से आर्थिक विकास को अलग करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
- कोयला मंत्रालय ने समग्र कोयला उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हासिल की है, जो अगस्त 2024 तक 384.08 मिलियन टन (अनंतिम) तक पहुँच गया है, जो भारत के ऊर्जा मिश्रण में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका को दर्शाता है।
- कोयला संयंत्रों को चरणबद्ध तरीके से धीरे-धीरे बंद करने के लिये एक सुदृढ़ रणनीति का अभाव, हरित अर्थव्यवस्था की ओर संक्रमण के प्रयासों को कमज़ोर करता है।
- वित्तीय बाधाएँ और जलवायु वित्त का अभाव: इस परिवर्तन के लिये बड़े पैमाने पर निवेश की आवश्यकता है, NITI आयोग का अनुमान है कि शुद्ध-शून्य लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये वर्ष 2070 तक 10.1 ट्रिलियन डॉलर की आवश्यकता होगी।
- हालाँकि, हरित वित्तपोषण सीमित है, भारत का स्वच्छ ऊर्जा निवेश वर्ष 2022 में 17 बिलियन डॉलर रहा।
- वर्ष 2023 के लिये 16,000 करोड़ रुपए मूल्य का सॉवरेन ग्रीन बॉण्ड जारी करना एक अगला कदम है, लेकिन मांग के पैमाने को पूरा करने के लिये यह अपर्याप्त है।
- नीतिगत एवं विनियामक अनिश्चितता: नवीकरणीय ऊर्जा शुल्कों में लगातार परिवर्तन और अस्पष्ट विनियमन, हरित परियोजनाओं में निजी निवेश को बाधित करते हैं।
- उदाहरण के लिये, सौर आयात पर मूल सीमा शुल्क (BCD) लगाए जाने के कारण सौर डेवलपर्स को नुकसान उठाना पड़ा, जिससे परियोजना लागत में 20-25% की वृद्धि हुई।
- ऐसी अनिश्चितता निवेशकों के विश्वास को कमज़ोर करती है और हरित पहल में विलंब करती है।
- कार्यबल में परिवर्तन की चुनौतियाँ: कार्बन-प्रधान उद्योगों से हरित क्षेत्रों की ओर संक्रमण से लाखों नौकरियों पर खतरा मंडरा रहा है, विशेष रूप से झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे कोयला-निर्भर राज्यों में।
- त्वरित डीकार्बनाइज़ेशन से वर्ष 2050 तक 30 मिलियन से अधिक नौकरियाँ समाप्त हो सकती हैं। सुदृढ़ कौशल विकास कार्यक्रमों की अनुपस्थिति श्रमिकों की हरित नौकरियों में बदलाव की क्षमता को बाधित करती है।
- जन-जागरूकता और व्यवहार परिवर्तन का अभाव: शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में उच्च ऊर्जा अपव्यय के साथ, सतत् उपभोग प्रथाएँ अविकसित बनी हुई हैं।
- ऊर्जा, पर्यावरण एवं जल परिषद के अनुसार विद्युतीकृत घरों में से केवल एक-चौथाई ने ही ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (BEE) के स्टार लेबल (मई, 2006 में शुरू) का व्यवहार किया है, तथा ग्रामीण उपभोक्ताओं में तो इसकी जानकारी और भी कम है।
- सीमित जन जागरूकता अभियान और LED अंगीकरण के लिये उजाला जैसे कार्यक्रमों का अपर्याप्त क्रियान्वयन, संक्रमण की गति को धीमा कर देता है।
- तकनीकी अंतराल और आयात पर निर्भरता: विशेष रूप से बैटरी भंडारण और सौर पैनलों के लिये भारत का हरित प्रौद्योगिकी परिदृश्य, मुख्य रूप से चीन से आयात पर बहुत अधिक निर्भर है।
- वित्त वर्ष 2024 में भारत का सौर क्षेत्र का आयात 7 बिलियन डॉलर तक पहुँच गया, जिसमें से 3.89 बिलियन डॉलर अकेले चीन से आया, जिससे भारत भू-राजनीतिक जोखिमों के प्रति भेद्य हो गया है।
- घरेलू विनिर्माण क्षमता का अभाव सौर विनिर्माण के लिये सरकार की PLI योजना को कमज़ोर करता है, जिससे हरित प्रौद्योगिकी में आत्मनिर्भरता धीमी पड़ जाती है।
- नवीकरणीय परियोजनाओं पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव: विडंबना यह है कि जलवायु संबंधी कमज़ोरियाँ, जैसे कि अनियमित मौसम और चरम घटनाएँ, नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन को बाधित करती हैं।
- उदाहरण के लिये, अप्रत्याशित पवन पैटर्न के कारण तमिलनाडु में पवन ऊर्जा उत्पादन सत्र 2023-24 की तुलना में सत्र 2024-2025 में 5% कम होने का अनुमान है।
- इसी प्रकार, बढ़ते तापमान के कारण सौर पैनलों की दक्षता कम हो रही है, तथा अध्ययनों से पता चलता है कि प्रत्येक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के कारण दक्षता में महत्त्वपूर्ण कमी आ रही है।
- शहरीकरण और संसाधनों की कमी: तीव्र शहरीकरण, जिसके वर्ष 2031 तक 600 मिलियन शहरी निवासियों के जुड़ने की उम्मीद है, संसाधनों पर दबाव उत्पन्न करता है जो सतत् लक्ष्यों को कमज़ोर करता है।
- खराब शहरी अपशिष्ट प्रबंधन, जहाँ केवल 22-28% ठोस अपशिष्ट का ही प्रसंस्करण किया जाता है, पर्यावरणीय क्षरण का कारण बनता है।
- स्मार्ट सिटी मिशन के अंतर्गत परियोजनाओं में विलंब हुआ है, जिससे हरित शहरी विकास में प्रगति सीमित हो गई है।
- अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और कार्बन सीमा कर: यूरोपीय संघ की कार्बन सीमा समायोजन तंत्र (CBAM) जैसी उभरती नीतियाँ भारत के निर्यात, विशेष रूप से इस्पात और एल्यूमीनियम के लिये चुनौतियाँ खड़े करती हैं।
- CBAM से यूरोप को होने वाले भारतीय स्टील निर्यात का 15-40% हिस्सा प्रभावित होगा। इससे आर्थिक और पर्यावरणीय प्राथमिकताओं के बीच संतुलन बनाने में संघर्ष कर रही भारतीय कंपनियों के लिये प्रतिस्पर्द्धात्मक नुकसान की स्थिति उत्पन्न होगी।
- खंडित शासन और समन्वय अंतराल: पर्यावरण, ऊर्जा और वित्त जैसे मंत्रालयों के बीच अंतर-विभागीय समन्वय की कमी के परिणामस्वरूप प्रायः नीति कार्यान्वयन खंडित हो जाता है।
- उदाहरण के लिये, नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय और राज्य विद्युत बोर्डों के बीच क्षेत्राधिकार का अतिव्यापन नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं में विलंब का कारण बनता है।
- हरित प्रौद्योगिकियों में सीमित अनुसंधान एवं विकास निवेश: नवीकरणीय प्रौद्योगिकियों के लिये अनुसंधान एवं विकास पर भारत का व्यय सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.7% है, जो जर्मनी और अमेरिका जैसे वैश्विक भागीदारों से बहुत कम है।
- वित्त पोषण की कमी से हरित हाइड्रोजन, ऊर्जा भंडारण और कार्बन कैप्चर जैसे क्षेत्रों में नवाचार धीमा हो जाता है।
- उदाहरण के लिये, भारत वैश्विक स्तर पर CO₂ का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक होने के बावजूद कार्बन कैप्चर परियोजनाओं में पिछड़ रहा है।
- विद्युतीकरण लक्ष्यों में परिवहन चुनौतियाँ: परिवहन क्षेत्र, जो उत्सर्जन में 14% का योगदान देता है, अपर्याप्त चार्जिंग बुनियादी अवसंरचना और उच्च वाहन लागत के कारण EV के लिये संक्रमण में महत्त्वपूर्ण चुनौतियों का सामना कर रहा है।
- वर्ष 2024 तक भारत में केवल 25,000 सार्वजनिक चार्जिंग स्टेशन होंगे। इसके अलावा, FAME-II योजना के तहत सब्सिडी बंद होने से इलेक्ट्रिक वाहनों के अंगीकरण की गति और भी धीमी हो गई है।
- नवीकरणीय परियोजनाओं के लिये भूमि अधिग्रहण के प्रति सामाजिक प्रतिरोध: भूमि संबंधी विवादों के कारण प्रायः नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं में विलंब होता है, क्योंकि बड़े पैमाने पर सौर और पवन ऊर्जा फार्मों के लिये बड़ी मात्रा में भूमि अधिग्रहण की आवश्यकता होती है।
- उदाहरण के लिये, राजस्थान में स्थित भड़ला सौर पार्क, जो विश्व के सबसे बड़े सौर पार्कों में से एक है, को विस्थापन की चिंताओं के कारण स्थानीय समुदायों के विरोध का सामना करना पड़ा।
हरित अर्थव्यवस्था की ओर तेज़ी से बढ़ने के लिये भारत क्या उपाय अपना सकता है?
- ग्रिड आधुनिकीकरण के साथ नवीकरणीय ऊर्जा अवसंरचना का विस्तार: भारत को सौर और पवन जैसे अस्थायी स्रोतों को एकीकृत करने के लिये ग्रिड अवसंरचना को उन्नत करते हुए नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं के विस्तार पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
- ग्रीन एनर्जी कॉरिडोर के अंतर्गत परिकल्पित क्षेत्रीय ग्रिड-संतुलन प्रणालियों की स्थापना से नवीकरणीय ऊर्जा के कम उपयोग की समस्या का समाधान हो सकता है तथा स्थिर आपूर्ति सुनिश्चित हो सकती है।
- वन सन, वन वर्ल्ड, वन ग्रिड (OSOWOG) पहल के साथ बढ़ा हुआ सहयोग निवेश को और बढ़ा सकता है तथा भारत को वैश्विक अक्षय ऊर्जा केंद्र के रूप में स्थापित कर सकता है।
- हरित प्रौद्योगिकियों के लिये घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देना: उत्पादन-संबद्ध प्रोत्साहन (PLI) योजना के माध्यम से सौर पैनलों, पवन टर्बाइनों और ऊर्जा भंडारण प्रणालियों के स्थानीय विनिर्माण को बढ़ावा देने से आयात पर निर्भरता कम हो सकती है।
- यह सत्र 2025-26 तक 110 गीगावाट सौर मॉड्यूल विनिर्माण क्षमता का उत्पादन करने के भारत के लक्ष्य के अनुरूप है, जिससे चीनी आयात पर निर्भरता कम हो जाएगी।
- इसे मेक इन इंडिया पहल के साथ जोड़ने से रोज़गार सृजन और हरित औद्योगिकीकरण को बढ़ावा मिल सकता है।
- नवीन तंत्रों के माध्यम से हरित वित्त को बढ़ावा देना: भारत को अधिक संप्रभु हरित बॉण्ड जारी करके हरित वित्तपोषण तक पहुँच का विस्तार करना चाहिये।
- MSME के लिये ग्रीन क्रेडिट गारंटी फंड की स्थापना से संवहनीय प्रथाओं को प्रोत्साहन मिल सकता है और उधार लेने की लागत कम हो सकती है।
- राष्ट्रीय निवेश और अवसंरचना कोष (NIIF) जैसे मंचों के माध्यम से निजी निवेश का एकीकरण बड़े पैमाने पर हरित परियोजनाओं के लिये संसाधन जुटा सकता है।
- नवीकरणीय परियोजनाओं के लिये एकीकृत भूमि उपयोग नीतियाँ विकसित करना: भूमि अधिग्रहण चुनौतियों से निपटने की दिशा में, भारत को नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं हेतु एक एकीकृत नीति फ्रेमवर्क की आवश्यकता है जो पारिस्थितिक और सामाजिक चिंताओं में संतुलन बनाए रखे।
- राष्ट्रीय भूमि अभिलेख आधुनिकीकरण कार्यक्रम (NLRMP) को नवीकरणीय विकास के साथ जोड़ने से भूमि आवंटन को सुव्यवस्थित किया जा सकता है।
- थार रेगिस्तान और गुजरात के शुष्क क्षेत्रों जैसी बंजर भूमि का उपयोग सौर एवं पवन फार्मों के लिये करने से विस्थापन एवं पर्यावरणीय क्षति न्यूनतम हो जाती है।
- इलेक्ट्रिक वाहन पारिस्थितिकी तंत्र का विस्तार: चार्जिंग नेटवर्क और बैटरी रीसाइक्लिंग इकाइयों सहित सुदृढ़ EV बुनियादी अवसंरचना का निर्माण, परिवहन क्षेत्र में संक्रमण की गति को तीव्र कर सकता है।
- भारत को प्रतिवर्ष नए EV चार्जिंग स्टेशनों की स्थापना का लक्ष्य रखना चाहिये, उन्हें ढाबों और पेट्रोल पंपों से जोड़ना चाहिये, तथा शहरी एवं राजमार्ग नेटवर्क पर विशेष ध्यान देते हुए महत्त्वपूर्ण प्रोत्साहन देना चाहिये।
- FAME योजना को बैटरी अपशिष्ट प्रबंधन नियम (वर्ष 2022) के साथ जोड़ने से एक चक्रीय EV अर्थव्यवस्था बनाई जा सकती है, जिससे संधारणीयता को बढ़ावा मिलेगा और लिथियम-आयन सेल पर आयात निर्भरता कम हो सकती है।
- जलवायु-अनुकूल कृषि को बढ़ावा देना: परंपरागत कृषि विकास योजना (PKVY) के तहत जैविक खेती और सूक्ष्म सिंचाई जैसी संवहनीय कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देने से जलवायु-अनुकूल कृषि में सुधार हो सकता है और उत्सर्जन में कमी आ सकती है।
- इसे जलवायु अनुकूल कृषि में राष्ट्रीय नवाचारों (NICRA) के साथ जोड़ने से किसान जलवायु अनुकूल प्रौद्योगिकियों को अपनाने में सक्षम हो सकते हैं, जिससे फसल हानि में कमी आएगी।
- उदाहरण के लिये, ड्रोन दीदी योजना में प्रोत्साहित ड्रोन का उपयोग करके परिशुद्ध कृषि, संसाधनों के उपयोग को अनुकूलित कर सकती है।
- राष्ट्रीय कार्बन मूल्य निर्धारण फ्रेमवर्क की स्थापना: उत्सर्जन व्यापार योजना (ETS) सहित एक व्यापक कार्बन मूल्य निर्धारण तंत्र को लागू करने से उद्योगों को कम कार्बन प्रौद्योगिकियों के अंगीकरण के लिये प्रोत्साहित किया जा सकता है।
- गुजरात और महाराष्ट्र में पायलट ETS कार्यक्रमों को राष्ट्रव्यापी मंच पर विस्तारित करने से प्रतिवर्ष एक बड़ी राशि प्राप्त हो सकती है, जिससे अक्षय ऊर्जा और जलवायु अनुकूलन को वित्तपोषित किया जा सकता है। कार्बन मूल्य निर्धारण भारत को यूरोपीय संघ के CBAM जैसे वैश्विक व्यापार फ्रेमवर्क के साथ भी जोड़ता है।
- औद्योगिक प्रक्रियाओं में चक्रीय अर्थव्यवस्था को एकीकृत करना: भारत को अपशिष्ट को न्यूनतम करने के लिये निर्माण, इलेक्ट्रॉनिक्स और वस्त्र जैसे क्षेत्रों में चक्रीय अर्थव्यवस्था प्रथाओं को अपनाना चाहिये।
- उदाहरण के लिये, स्मार्ट सिटी मिशन के तहत निर्माण परियोजनाओं में 30% पुनर्चक्रित सामग्रियों के उपयोग को अनिवार्य करने से स्थायित्व को बढ़ावा मिल सकता है।
- स्टार्टअप इंडिया सीड फंड स्कीम जैसी पहलों के माध्यम से अपशिष्ट प्रबंधन में स्टार्टअप को प्रोत्साहित करने से नवाचार और रोज़गार सृजन को बढ़ावा मिल सकता है।
- शहरी हरित अवसंरचना को सुदृढ़ बनाना: स्मार्ट सिटी मिशन के अंतर्गत हरित शहरी परियोजनाओं जैसे ग्रीन रूफ्स, सोलर रूफटॉप और अपशिष्ट से ऊर्जा संयंत्रों का विस्तार करके शहरों को समुत्थानशील बनाया जा सकता है।
- इस मिशन को राष्ट्रीय सौर मिशन के साथ एकीकृत करने से, विशेष रूप से मेट्रो शहरों में, रूफटॉप सोलर पैनल के अंगीकरण को प्रोत्साहन मिल सकता है।
- उदाहरण के लिये, सूरत की एकीकृत अपशिष्ट-से-ऊर्जा और सौर पहल ने शहरी उत्सर्जन को कम कर दिया है।
- ज़मीनी स्तर पर ग्रीन मूवमेंट्स के माध्यम से समुदायों को सशक्त बनाना: पर्यावरण के लिये जीवनशैली (LiFE) जैसे कार्यक्रमों के तहत नागरिक-नेतृत्व वाली पहलों को बढ़ावा देने से ज़मीनी स्तर पर हरित प्रथाओं को बढ़ावा मिल सकता है।
- इसमें संवहनीय उपभोग और अपशिष्ट पृथक्करण पर जागरूकता अभियान शामिल हैं।
- LiFE को स्वच्छ भारत मिशन के साथ जोड़ने से व्यवहारगत परिवर्तन को बढ़ावा मिल सकता है, तथा सामुदायिक स्तर पर अपशिष्ट प्रबंधन और पुनर्चक्रण में सुधार हो सकता है।
- मैंग्रोव और आर्द्रभूमि पुनरुद्धार कार्यक्रमों का विस्तार: भारत को कार्बन अवशोषण और तटीय अनुकूलन को बढ़ाने के लिये मैंग्रोव एवं आर्द्रभूमि पुनर्भरण करके प्रकृति-आधारित समाधानों को आगे बढ़ाना चाहिये।
- आजीविका के अवसर प्रदान करने के लिये तटीय आवास और मूर्त आय के लिये मैंग्रोव पहल (MISHTI) को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) के साथ एकीकृत किया जा सकता है।
- बड़े पैमाने पर ऊर्जा भंडारण समाधान में निवेश: लिथियम-आयन और सोडियम-आयन जैसी उन्नत बैटरी भंडारण प्रौद्योगिकियों का विकास, नवीकरणीय ऊर्जा एकीकरण के लिये आवश्यक है।
- ऊर्जा भंडारण के लिये PLI योजना के अंतर्गत गीगाफैक्ट्रियों की स्थापना से भारत की वर्ष 2030 तक 30 गीगावाट भंडारण की अनुमानित मांग को पूरा किया जा सकता है।
- टेस्ला और CATL जैसी वैश्विक कंपनियों के साथ सहयोग करके इस पहल को त्वरित किया जा सकता है।
- हरित कौशल कार्यबल का विकास करना: राष्ट्रीय हरित कौशल विकास मिशन का शुभारंभ भारत के कार्यबल को नवीकरणीय ऊर्जा, EV और संधारणीय विनिर्माण में हरित अर्थव्यवस्था की नौकरियों के लिये तैयार कर सकता है।
- इसे स्किल इंडिया जैसे मौजूदा कार्यक्रमों के साथ एकीकृत करने से पारंपरिक उद्योगों के श्रमिकों को कुशल बनाया जा सकता है, जिससे सुचारू परिवर्तन संभव हो सकेगा।
- उदाहरण के लिये, झारखंड में कोयला क्षेत्र के श्रमिकों को सौर पैनल स्थापना के लिये प्रशिक्षण देने से समावेशी अवसरों का सृजन हो सकता है।
निष्कर्ष:
भारत का हरित अर्थव्यवस्था में संक्रमण केवल एक पर्यावरणीय आवश्यकता नहीं है, बल्कि सतत् विकास का मार्ग भी है, जो सीधे संयुक्त राष्ट्र सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) से जुड़ा हुआ है। SDG, विशेष रूप से SDG7: किफायती और स्वच्छ ऊर्जा और SDG 13: क्लाइमेट एक्शन भारत की हरित अर्थव्यवस्था की आकांक्षाओं के केंद्र में हैं। अक्षय ऊर्जा स्रोतों को आगे बढ़ाकर, हरित हाइड्रोजन को बढ़ावा देकर और संवहनीय कृषि को बढ़ावा देकर, भारत कृषि अस्थिरता से निपटते हुए तथा जलवायु जोखिमों को कम करते हुए SDG7 में योगदान देता है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. "भारत का हरित अर्थव्यवस्था की ओर संक्रमण, जलवायु परिवर्तन और सतत्त विकास दोनों को संबोधित करने के लिये आवश्यक माना जाता है।" इस संक्रमण को प्राप्त करने में भारत के सामने आने वाली चुनौतियों और अवसरों पर चर्चा करें। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न. भारतीय अक्षय ऊर्जा विकास एजेंसी लिमिटेड (IREDA) के संदर्भ में, निम्नलिखित में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं? (2015)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 उत्तर: (c) मेन्सप्रश्न. "वहनीय (ऐफोर्डेबल), विश्वसनीय, धारणीय तथा आधुनिक ऊर्जा तक पहुँच संधारणीय (सस्टेनबल) विकास लक्ष्यों (एस.डी.जी.) को प्राप्त करने के लिये अनिवार्य है।" भारत में इस संबंध में हुई प्रगति पर टिप्पणी कीजिये। (2018) |