सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विधायी समीक्षा का आह्वान | 08 Jan 2025

प्रिलिम्स के लिये:

भारत का सर्वोच्च न्यायालय, साइबर अपराध, आईटी अधिनियम, 2000राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT)

मेन्स के लिये:

कानूनों की समय-समय पर समीक्षा की आवश्यकता, भारत में कानूनों को अधिक प्रभावी बनाने के उपाय, कानून निर्माण में चुनौतियाँ, आगे की राह

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, सर्वोच्च न्यायालय (SC) द्वारा लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 81 के तहत 45 दिन की सीमा के संबंध में एक याचिका पर सुनवाई करते हुए कानूनों की प्रभावशीलता का आकलन करने के लिये समय-समय पर विधायी समीक्षा की आवश्यकता पर बल दिया। 

  • इसमें कानूनों का मूल्यांकन करने तथा कमियों या बाधाओं की पहचान करने के लिये एक विशेषज्ञ तंत्र की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया तथा प्रत्येक 20, 25 या 50 वर्ष में समीक्षा का प्रस्ताव रखा गया।

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम (RPA), 1951:

  • RPA, 1951 का उद्देश्य  राष्ट्रीय और राज्य दोनों स्तरों पर निर्वाचन प्रणाली को विनियमित करना है ।
  • RPA अधिनियम के प्रमुख प्रावधान:
    • इसमें लोकसभा, राज्य विधानसभाओं तथा राज्य विधान परिषदों के लिये सीटों के आवंटन की रूपरेखा दी गई है ।
    • यह अधिनियम निर्वाचन के प्रयोजनार्थ निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन को नियंत्रित करता है।
    • यह मतदाताओं की योग्यता एवं अयोग्यता को निर्दिष्ट करता है तथा मतदाता सूची तैयार करने के लिये रूपरेखा प्रदान करता है ।
  • अधिनियम 1951 की धारा 81 में प्रावधान है कि परिणाम की घोषणा के 45 दिनों के भीतर परिणाम को चुनौती देने वाली निर्वाचन याचिका दायर की जानी चाहिये।
    • यह अवैध प्रथाओं, भ्रष्टाचार या निर्वाचन विधियों के उल्लंघन जैसे आधारों पर दायर किया जा सकता है और इसे निर्वाचन क्षेत्र पर अधिकार क्षेत्र वाले  उच्च न्यायालय में दायर किया जाना चाहिये।

विधायिका द्वारा कानूनों की आवधिक समीक्षा की आवश्यकता क्यों है?

  • कमियों की पहचान करना: चूँकि बदलती परिस्थितियों के कारण समय के साथ कानून प्रासंगिकता खो सकते हैं, इसलिये यह सुनिश्चित करने के लिये नियमित समीक्षा आवश्यक है कि वे अपने इच्छित उद्देश्य को पूरा करते हैं और आवश्यक संशोधन या निरसन की अनुमति देते हैं।
    • उदाहरण: आईटी अधिनियम, 2000 में उन साइबर अपराधों से निपटने के लिये संशोधन किया गया जो पूर्व में प्रचलित नहीं थे।
  • कानून की प्रासंगिकता सुनिश्चित करना: समय-समय पर समीक्षा यह सुनिश्चित करती है कि कानून प्रासंगिक, प्रभावी और सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप बने रहे। वे कानूनी प्रभावकारिता और सार्वजनिक हित पर ध्यान केंद्रित करने को सुनिश्चित करते हुए, जल्दबाज़ी में या राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित कानूनों को भी संबोधित करते हैं।
  • उदाहरण: बिहार में शराब विरोधी कानून लागू होने से जमानत आवेदनों में वृद्धि हुई और राज्य की न्यायपालिका के दबाव में वृद्धि हुई।
  • इसी प्रकार, राजस्थान में नागरिक समाज संगठनों को गौहत्या रोकने के लिये संस्थाओं पर छापे मारने का अधिकार देने वाले कानून से सत्ता के संभावित दुरुपयोग और संस्थागत अखंडता के उल्लंघन के बारे में चिंताएँ उत्पन्न हुई। 
  • अनपेक्षित परिणामों को संबोधित करना: आवधिक समीक्षा उन क्षेत्रों की पहचान कर सकती है जहाँ कानून अनजाने में न्यायिक प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करते हैं । 
  • उदाहरण के लिये, जन ​​प्रतिनिधि कानून, 1951 की धारा 81 जो 45 दिन की सीमा प्रक्रियागत बाधाओं के कारण वैध निर्वाचन संबंधी विवादों को कम कर सकती है।
  • जवाबदेहिता में सुधार: नियमित समीक्षा यह सुनिश्चित करती है कि कानून अपने मूल उद्देश्यों एवं लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुरूप बने रहें।
  • उदाहरण के लिये, भारतीय दंड संहिता की धारा 498A, (जिसका मूल उद्देश्य महिलाओं को उनके पतियों या ससुराल वालों द्वारा क्रूरता एवं उत्पीड़न से बचाना था) की दुरुपयोग के लिये आलोचना की गई।
  • वैश्विक मानक: कई लोकतांत्रिक राष्ट्र यह सुनिश्चित करने के लिये नियमित विधायी समीक्षा करते हैं, कि कानून अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथाओं एवं मानवाधिकार मानदंडों के अनुरूप हों। 
  • उदाहरण के लिये, गोपनीयता एवं नागरिक स्वतंत्रता पर चिंताओं को दूर करने के लिये अमेरिकी पैट्रियट अधिनियम में समय-समय पर संशोधन किया गया है।

अन्य लोकतांत्रिक देशों में कानूनों का आवधिक संशोधन

  • यूनाइटेड किंगडम: इंग्लैंड तथा वेल्स के विधि आयोग को मौजूदा कानूनों की नियमित समीक्षा करने का कार्य सौंपा गया है। 
    • इसकी सिफारिशों के परिणामस्वरूप महत्त्वपूर्ण कानूनी सुधार हुए हैं, जैसे कि जादू-टोना अधिनियम, 1735 को निरस्त करना, जो पुरातन कानूनों के आधुनिकीकरण में इसकी भूमिका को दर्शाता है।
  • ऑस्ट्रेलिया: ऑस्ट्रेलियाई विधि सुधार आयोग नियमित रूप से कानूनी ढाँचे की व्यवस्थित समीक्षा करता है और विधायी संशोधनों के लिये सिफारिशों के साथ विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत करता है। 
    • यह प्रक्रिया सुनिश्चित करती है कि समकालीन मुद्दों के समाधान में कानून प्रासंगिक एवं प्रभावी बने रहें।

कानूनों की आवधिक समीक्षा करने में चुनौतियाँ क्या हैं?

  • राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव: विधायी समीक्षा कभी-कभी राजनीतिक एजेंडों से प्रभावित होती हैं, जिसके परिणामस्वरूप पक्षपातपूर्ण संशोधन होते हैं, जो सार्वजनिक कल्याण के स्थान पर निर्वाचन संबंधी हितों की पूर्ति करते हैं, जिससे समीक्षा प्रक्रिया की निष्पक्षता में कमी हो जाती है।
  • उदाहरण: कृषि कानूनों (2020) की आलोचना इस बात के लिये की गई कि इनमें संकट के मूल कारणों को दूर करने के लिये भारत के कृषि बाज़ार में सुधार करने के स्थान पर किसानों की चिंताओं पर कॉर्पोरेट हितों को तरजीह दी गई ।
  • न्यायिक अतिक्रमण: कभी-कभी, न्यायपालिका पर कानूनों की समीक्षा करते समय अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करने तथा समीक्षा प्रक्रिया के सुचारू संचालन को प्रभावित करने का आरोप लगाया जा सकता है।
  • उदाहरण: राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) मामले (वर्ष 2015) में, जहाँ सर्वोच्च न्यायालय द्वारा NJAC अधिनियम को रद्द कर दिया, जिसका उद्देश्य कार्यपालिका को शामिल करके न्यायिक नियुक्तियों में सुधार करना था। 
  • कानूनी जटिलता: कई कानून एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं, और साथ ही अलग-अलग संशोधनों से अनपेक्षित परिणाम हो सकते हैं या मौजूदा कानून के साथ टकराव हो सकता है, जिससे समीक्षा प्रक्रिया जटिल हो सकती है।
  • उदाहरण: POCSO अधिनियम तथा  IPC के तहत चाइल्ड पोर्नोग्राफी से संबंधित कानूनी प्रावधानों में विसंगतियाँ 
  • सीमित सार्वजनिक भागीदारी:
    • विधायी प्रक्रियाओं और विधिक पहलुओं के बारे में लोगों की समझ सीमित होने से समीक्षा प्रक्रिया का प्रभाव सीमित हो जाता है।
    • उदाहरण: आपराधिक कानूनों में सुधार के लिये गठित रणबीर सिंह समिति की कानूनी सुधारों के लिये परामर्श प्रक्रिया में जनता की भागीदारी बहुत सीमित थी, जिससे सुधारों की समावेशिता एवं व्यापकता के बारे में चिंताएँ उत्पन्न हुईं।

भारत में विधिक सुधार से संबंधित संस्थाएँ

आगे की राह

  • भारत के विधि आयोग को मज़बूत बनाना: चूंकि भारत में आवधिक विधायी समीक्षा के लिये समर्पित निकायों का अभाव है, इसलिये भारतीय विधि आयोग जैसी संस्थाओं को अधिक स्वतंत्रता एवं संसाधनों के साथ मज़बूत बनाने से विधिक सुधारों की गुणवत्ता एवं स्थिरता में वृद्धि हो सकती है।
  • प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना: प्रौद्योगिकी से समीक्षा प्रक्रिया उन्नत हो सकती है। 
    • सार्वजनिक परामर्श के लिये MyGov जैसे प्लेटफॉर्म एवं कानून की प्रभावशीलता के मूल्यांकन हेतु AI जैसे उपकरण, विधि निर्माण में दक्षता के साथ नागरिक सहभागिता में सुधार कर सकते हैं।
  • संसाधन आवंटन: सरकार को कार्यान्वयन में सुधार के क्रम में सिविल सेवकों, न्यायाधीशों और कानून प्रवर्तकों के लिये विधिक सुधारों, समीक्षाओं और क्षमता निर्माण कार्यक्रमों हेतु समर्पित बजट आवंटित करना चाहिये।
  • अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथाओं को अपनाना: भारत को अपने कानूनों को अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप बनाना (जैसा कि राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) के मामले में देखा गया है) चाहिये, ताकि पर्यावरण और प्रौद्योगिकी प्रशासन जैसे क्षेत्रों में प्रभावशीलता बढ़ाई जा सके।

भारत का विधि आयोग

  • यह विधिक सुधारों पर शोध करने एवं सिफारिश करने के लिये एक गैर-सांविधिक सलाहकार निकाय है। 
  • यह एक निश्चित कार्यकाल तक कार्य करता है तथा सरकार को विधिक मामलों पर सलाह देता है।
  • प्रथम विधि आयोग चार्टर अधिनियम,1833 के तहत वर्ष 1834 में गठित हुआ था, जिसकी अध्यक्षता लॉर्ड मैकाले ने की थी। इसके द्वारा भारतीय दंड संहिता (IPC) और दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) के संहिताकरण की सिफारिश की गई थी । 
  • स्वतंत्र भारत का प्रथम विधि आयोग वर्ष 1955 में गठित किया गया था, जिसके अध्यक्ष  एम.सी.सीतलवाड़ थे।
  • सितंबर 2024 में 23वें विधि आयोग का गठन तीन वर्ष की अवधि (1 सितंबर 2024 से 31 अगस्त 2027 तक) के लिये किया गया।
  • यह अप्रचलित विधियों को निरस्त करने की समीक्षा एवं सिफारिश करने तथा राज्य की नीति के निर्देशक तत्त्वों को लागू करने हेतु नए कानून का प्रस्ताव करने के साथ न्यायिक प्रशासन के मुद्दों पर सरकार को सिफारिशें देता है।

निष्कर्ष

समय-समय पर विधायी समीक्षा को संस्थागत रूप देकर, भारत एक गतिशील विधिक ढाँचे को बढ़ावा दे सकता है जिससे सामाजिक आवश्यकताओं, लोकतांत्रिक आदर्शों एवं वैश्विक मानकों को पूरा किया जा सके। न्यायिक घोषणाएँ और अंतर्राष्ट्रीय प्रथाएँ इस प्रयास में मार्गदर्शक मानदंड के रूप में कार्य करती हैं।

दृष्टि मुख्य प्रश्न:

भारत में समय-समय पर विधायी समीक्षा क्यों आवश्यक है तथा कौन सी चुनौतियाँ इसके कार्यान्वयन में बाधक हैं?

 

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न    

प्रश्न. भारतीय न्यायपालिका के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)

  1. भारत के सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी सेवानिवृत्त न्यायाधीश को भारत के राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति से भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में बैठने और कार्य करने के लिये वापस बुलाया जा सकता है।
  2.  भारत में एक उच्च न्यायालय को अपने स्वयं के निर्णय की समीक्षा करने की शक्ति है जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय करता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: C

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)

1- भारत के संविधान के 44वें संशोधन द्वारा लाए गए एक अनुच्छेद ने प्रधानमंत्री के चुनाव को न्यायिक पुनरावलोकन से परे कर दिया।
2- भारत के संविधान के 99वें संशोधन को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने विखंडित कर दिया क्योंकि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अतिक्रमण करता था।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2  
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (b) 

प्र. भारत के संविधान के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)

1- किसी भी केंद्रीय विधि को सांविधानिक रूप से अवैध घोषित करने की किसी भी उच्च न्यायालय की अधिकारिता नहीं होगी।
2- भारत के संविधान के किसी भी संशोधन पर भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रश्न नहीं उठाया जा सकता।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (d)


मेन्स

प्रश्न: संवैधानिक नैतिकता' की जड़ संविधान में ही निहित है और इसके तात्त्विक फलकों पर आधारित है। प्रासंगिक न्यायिक निर्णयों की सहायता से 'संवैधानिक नैतिकता' के सिद्धांत की व्याख्या कीजिये। (2021) 

प्रश्न: न्यायिक विधायन, भारतीय संविधान में परिकल्पित शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का प्रतिपक्षी है। इस संदर्भ में कार्यपालक अधिकरणों को दिशा-निर्देश देने की प्रार्थना करने संबंधी, बड़ी संख्या में दायर होने वाली, लोकहित याचिकाओं का न्याय औचित्य सिद्ध कीजिये। (2020)