विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
प्रयोगशाला में उत्पादित मांस हेतु विनियामक ढाँचा
- 19 Nov 2024
- 15 min read
प्रिलिम्स के लिये:भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (FSSAI), पादप-आधारित प्रोटीन उत्पाद, संवर्द्धित प्रोटीन, ज़ूनोटिक रोग, बर्ड फ्लू, स्वाइन फ्लू, कोविड-19, ग्रीनहाउस गैसें, पशु कोशिका, फलियाँ, पादप तेल, खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम 2006, बायोरिएक्टर। मेन्स के लिये:भारत में प्रयोगशाला में उत्पादित मांस का विनियमन। प्रयोगशाला में उत्पादित मांस संबंधी संभावनाएँ और चुनौतियाँ। |
स्रोत: लाइवमिंट
चर्चा में क्यों?
भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (FSSAI) प्रयोगशाला में उत्पादित मांस, डेयरी और अंडा उत्पादों के लिये एक नियामक ढाँचा तैयार करने की योजना बना रहा है।
- FSSAI द्वारा पादप-आधारित प्रोटीन उत्पादों को विनियमित किया जाता है लेकिन प्रयोगशाला में विकसित और किण्वन-व्युत्पन्न प्रोटीन के लिये कोई स्पष्ट विनियमन नहीं है।
प्रयोगशाला में विकसित मांस क्या है?
- प्रयोगशाला में विकसित मांस का उत्पादन, पशुओं की हत्या से प्राप्त मांस के बजाय जीवित पशुओं की कोशिकाओं या निषेचित अंडों का उपयोग करके प्रयोगशालाओं में किया जाता है।
- इसे संवर्द्धित मांस (Cultured meat or Cultivated meat) के नाम से भी जाना जाता है।
- उत्पादन प्रक्रिया:
- कोशिका निष्कर्षण: यह प्रक्रिया जीवित प्राणियों से कोशिकाओं को निकालने से शुरू होती है।
- ग्रोन मीडियम: इसके बाद कोशिकाओं को अमीनो एसिड, फैटी एसिड, शर्करा, लवण, विटामिन और अन्य आवश्यक पोषक तत्त्वों वाले मिश्रण में रखा जाता है।
- संवर्द्धन: ये कोशिकाएँ विकसित होकर अंततः मांसपेशी ऊतक में परिवर्तित हो जाती हैं जो पारंपरिक मांस जैसा दिखता है।
- वर्तमान बाज़ार उपलब्धता: अमेरिका, यूरोपीय संघ, सिंगापुर और इज़रायल ने संवर्द्धित और किण्वन-व्युत्पन्न प्रोटीन के लिये विनियमन जारी किये हैं।
- पर्यावरणीय प्रभाव: प्रयोगशाला में उत्पादित मांस को पारंपरिक मांस उत्पादन की तुलना में अधिक पर्यावरण अनुकूल माना जाता है।
- प्रारंभिक अध्ययनों से पता चलता है कि प्रयोगशाला में उत्पादित मांस के लिये 45% कम ऊर्जा की तथा 99% तक कम भूमि की आवश्यकता होने के साथ इससे गोमांस की तुलना में 96% तक कम ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन होता है।
वनस्पति आधारित मांस
- परिचय: यह पौधों से निर्मित होने के साथ पारंपरिक मांस का विकल्प है। इसमें किसी भी पशु उत्पाद का उपयोग किये बिना वास्तविक पशु मांस (जैसे सॉसेज और चिकन) जैसा स्वाद एवं बनावट का निरूपण होता है।
- सामग्री: वनस्पति आधारित मांस मुख्य रूप से सब्जियों, अनाज और फलियों से बनाया जाता है।
- इसके सामान्य अवयवों में प्रोटीन स्रोत जैसे टोफू, टेम्पेह, सोया और मटर के साथ ही वनस्पति तेल (जैसे, सूरजमुखी, कैनोला) एवं शाकाहारी बाइंडिंग एजेंट (जैसे, आटा, एक्वाफाबा, बीन्स) शामिल होते हैं।
- प्रसंस्करण: वनस्पति-आधारित मांस निर्माता उत्पाद की बनावट और स्थिरता को बेहतर करने के लिये एक्सट्रूज़न और वेट टेक्सचराइज़ेशन जैसी उन्नत तकनीकों का उपयोग करते हैं।
- ऊष्मा और यांत्रिक दबाव से पौधों के उत्पादों को मांस जैसा बनाने के साथ उनमें पशु मांस के समान रेशेदार या तंतुमय संरचना बन जाती है।
भारत में प्रयोगशाला में उत्पादित मांस को विनियमित करने की आवश्यकता क्यों है?
- लोक स्वास्थ्य संबंधी चिंताएँ: प्रयोगशाला में विकसित मांस को विनियमित करने से सुरक्षा और गुणवत्ता मानकों को सुनिश्चित करके बर्ड फ्लू, स्वाइन फ्लू और कोविड-19 जैसे ज़ूनोटिक रोगों के जोखिम को कम करने में मदद मिल सकती है।
- पारिस्थितिकीय स्थिरता: प्रयोगशाला में विकसित मांस एक धारणीय विकल्प है जिसमें कम भूमि, जल और ऊर्जा की आवश्यकता होने के साथ ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम होता है।
- धारणीय उत्पादन सुनिश्चित करने एवं पर्यावरणीय लाभ को अधिकतम करने के लिये स्पष्ट विनियमन की आवश्यकता है।
- बाज़ार विकास: भारत में 15 से अधिक कंपनियाँ संवर्द्धित मांस पर कार्य कर रही हैं तथा कई स्टार्ट-अप्स इन उत्पादों को लॉन्च करने एवं विनियामक अनुमोदन प्राप्त करने की तैयारी कर रही हैं।
- उपभोक्ताओं का विश्वास बनाने और खाद्य सुरक्षा अनुपालन सुनिश्चित करने के लिये प्रयोगशाला में विकसित मांस की गुणवत्ता, लेबलिंग एवं विपणन के संदर्भ में स्पष्ट मानकों की आवश्यकता है।
- विकास की संभावना: विशेषज्ञों के अनुसार प्रयोगशाला में उत्पादित मांस द्वारा पारंपरिक पशु मांस उद्योग के बाज़ार में 10-15% की हिस्सेदारी हासिल की जा सकती है क्योंकि युवाओं के साथ पर्यावरण के प्रति अधिक जागरूक लोग इसमें अधिक रुचि दिखा सकती है।
- नैतिक दृष्टिकोण: प्रयोगशाला में विकसित मांस (जिसे पशु हत्या के बिना पशु कोशिकाओं से तैयार किया जाता है), पारंपरिक मांस उत्पादन से संबंधित पशु क्रूरता संबंधी चिंताओं को हल करने में सहायक है।
- वैश्विक प्रतिस्पर्द्धात्मकता: चूँकि अमेरिका, यूरोपीय संघ, सिंगापुर और इज़रायल जैसे देशों में संवर्द्धित और किण्वन-व्युत्पन्न प्रोटीन के लिये पहले से ही नियामक ढाँचे मौजूद हैं, इसलिये स्पष्ट नियामक दृष्टिकोण के बिना भारत के इस उभरते उद्योग पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने का खतरा है।
भारत का माँस बाज़ार
- भारत में विश्व की सबसे बड़ी पशुधन आबादी है।
- भारत भैंस के माँस का सबसे बड़ा उत्पादक देश है, बकरी के माँस का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है और मुर्गी के माँस का उत्पादन करने में पाँचवें स्थान पर है।
- वर्ष 2022-23 में, भारत ने लगभग 2.1 मिलियन टन मवेशी, 13.6 मिलियन टन भैंस, 73.7 मिलियन टन भेड़, 9.3 मिलियन टन सूअर और 331.5 मिलियन पोल्ट्री माँस का उत्पादन किया।
- वर्ष 2023-24 में भारत का पशु उत्पादों का निर्यात 4.5 बिलियन अमरीकी डॉलर का था, जिसमें 3.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर का भैंस का माँस, 184.58 मिलियन अमरीकी डॉलर का पोल्ट्री माँस और 77.68 मिलियन अमरीकी डॉलर का भेड़ या बकरी का माँस शामिल था।
- भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR)-केंद्रीय समुद्री मत्स्य अनुसंधान संस्थान (CMFRI) ने प्रयोगशाला में विकसित मछली का माँस विकसित करने के लिये एक शोध परियोजना शुरू की है।
भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण
- FSSAI खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम, 2006 के तहत स्थापित एक स्वायत्त वैधानिक निकाय है।
- वर्ष 2006 के अधिनियम में खाद्य पदार्थों से संबंधित विभिन्न कानून शामिल हैं, जैसे कि खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम, 1954, फल उत्पाद आदेश, 1955, माँस खाद्य उत्पाद आदेश, 1973 और विभिन्न मंत्रालयों और विभागों द्वारा प्रबंधित अन्य अधिनियम।
- स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के तहत कार्य करते हुए FSSAI भारत में खाद्य सुरक्षा तथा गुणवत्ता का विनियमन व पर्यवेक्षण करके सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा एवं प्रोत्साहन के लिये उत्तरदायी है।
- FSSAI के अध्यक्ष और मुख्य कार्यकारी अधिकारी की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाती है। इसका अध्यक्ष भारत सरकार के सचिव के पद के सामान पर पर आसीन व्यक्ति होता है।
प्रयोगशाला में उत्पादित माँस को बढ़ावा देने में क्या चुनौतियाँ हैं?
- नियामक अनिश्चितता: प्रयोगशाला में उत्पादित माँस के लिये स्पष्ट नियामक ढाँचे का अभाव अनिश्चितता पैदा करता है, निर्माताओं और निवेशकों को भ्रमित करता है तथा क्षेत्र के विकास में बाधा डालता है।
- बड़े पैमाने पर उत्पादन बढ़ाना एक महत्त्वपूर्ण चुनौती बनी हुई है, क्योंकि कोई भी देश बड़े पैमाने पर उत्पादन बढ़ाने में सक्षम नहीं है।
- आहार संबंधी प्राथमिकताएँ: भारत में भोजन की आदतें सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक कारकों से प्रभावित होती हैं, तथा कई लोग माँस एवं माँस जैसे उत्पादों से परहेज करते हैं।
- यद्यपि प्रयोगशाला में उत्पादित माँस का स्वाद और बनावट एक जैसी हो सकती है, लेकिन इसमें समतुल्य पोषण का अभाव होता है।
- एक सर्वेक्षण से पता चला है कि 73% भारतीयों में प्रोटीन की कमी है, तथा 90% से अधिक लोग अपनी दैनिक प्रोटीन आवश्यकताओं से अनभिज्ञ हैं।
- यद्यपि प्रयोगशाला में उत्पादित माँस का स्वाद और बनावट एक जैसी हो सकती है, लेकिन इसमें समतुल्य पोषण का अभाव होता है।
- उपभोक्ता जागरूकता की कमी: प्रयोगशाला में उत्पादित माँस की अवधारणा भारत में अभी भी अपेक्षाकृत नई है। माँस खाने वाले लोग इसका उपयोग कर सकते हैं, लेकिन लंबे समय तक इसे जारी नहीं रख सकते।
- पर्यावरणीय प्रभाव: प्रयोगशाला में उत्पादित माँस का उत्पादन अत्यधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है, तथा खुदरा माँस की तुलना में इसमें 4 से 25 गुना अधिक ऊर्जा का उपयोग होता है, जिससे इसके दीर्घकालिक पर्यावरणीय प्रभाव के बारे में चिंताएँ उत्पन्न होती हैं, विशेष रूप से भारत जैसे संसाधन-सीमित देशों में।
- पारंपरिक माँस उद्योग का प्रतिरोध: प्रयोगशाला में उत्पादित माँस को भारत के पारंपरिक माँस उद्योग का प्रतिरोध झेलना पड़ रहा है, जो इसे छोटे किसानों की आजीविका के लिये खतरा मानता है।
- इसके अतिरिक्त बाज़ार में इसकी स्वीकार्यता सीमित है, क्योंकि अधिकांश भारतीय उपभोक्ता इसके परिचित स्वाद, बनावट और किफायती मूल्य के कारण पारंपरिक माँस को पसंद करते हैं।
आगे की राह
- स्पष्ट नियामक ढाँचा: FSSAI को प्रयोगशाला में उत्पादित माँस के लिये विनियमों के निर्माण को प्राथमिकता देनी चाहिये ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि प्रयोगशाला में उत्पादित माँस का उत्पादन राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मानकों और वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाओं के अनुरूप हो।
- उपभोक्ता जागरूकता: प्रयोगशाला में उत्पादित माँस की सुरक्षा, पोषण मूल्य और पर्यावरणीय प्रभाव के बारे में जनता को शिक्षित करने से दृष्टिकोण बदलने तथा नई तकनीक में विश्वास पैदा करने में मदद मिल सकती है।
- जैव प्रौद्योगिकी में अनुसंधान: जैव प्रौद्योगिकी में अनुसंधान एवं विकास में निवेश से लागत कम हो सकती है, पोषण में सुधार हो सकता है, तथा प्रयोगशाला में विकसित माँस को पारंपरिक माँस का एक दीर्घकालिक विकल्प बनाया जा सकता है।
- पशुधन जनसंख्या का लाभ उठाना: भारत प्रयोगशाला में उत्पादित मांस को विकसित करने के लिये भैंस, बकरी और मुर्गी जैसे अपने विविध पशुधन का लाभ उठा सकता है, जिससे प्रतिस्पर्द्धात्मक बढ़त प्राप्त होगी और वैश्विक बाज़ार में एक प्रमुख अभिकर्त्ता के रूप में अपनी स्थिति बना सकेगा।
- उत्पादन बढ़ाना: भारत को प्रयोगशाला में उत्पादित माँस उत्पादन बढ़ाने के लिये बायोरिएक्टर और सेल कल्चर सुविधाओं सहित बुनियादी ढाँचे को विकसित करने की आवश्यकता है।
- वैश्विक जैव प्रौद्योगिकी कंपनियों के साथ सहयोग से तीव्र विस्तार के लिये आवश्यक तकनीकी विशेषज्ञता उपलब्ध हो सकती है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: प्रयोगशाला में उत्पादित माँस क्या है? भारत में प्रयोगशाला में उत्पादित माँस के लिये नियामक ढाँचे की आवश्यकता पर चर्चा कीजिये। |