भारतीय राजव्यवस्था
भारत में राष्ट्रपति शासन और संघवाद
यह एडिटोरियल 20/02/2025 को द हिंदू में प्रकाशित “President’s Rule and the road ahead” पर आधारित है। लेख में मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लागू करने पर चर्चा की गई है, जिसमें विश्वास के पुनर्निर्माण, निष्पक्षता को बढ़ावा देने तथा स्थायी शांति के लिये विभाजनकारी एजेंडे से बचने पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
प्रिलिम्स के लिये:मणिपुर में राष्ट्रपति शासन, राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356), संसद, उच्च न्यायालय, अध्यादेश, राज्य की संचित निधि, 44वाँ संशोधन (1978), न्यायिक समीक्षा, सर्वोच्च न्यायालय, एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994), केंद्र-राज्य संबंध मेन्स के लिये:राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356) से जुड़े महत्त्व और मुद्दे। |
मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लागू होने से संघवाद और केंद्रीय हस्तक्षेप पर चर्चा फिर से शुरू हो गई है। शासन की विफलताओं के विरुद्ध सुरक्षा के रूप में बनाया गया अनुच्छेद 356, इसके संभावित दुरुपयोग के लिये प्रायः आलोचना का सामना करता रहा है। वर्ष 1950 से, इसे 134 बार लगाया गया है, जिसमें से मणिपुर में 11 बार इसका सामना करना पड़ा है। अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन, शासन के विफल होने पर केंद्र को राज्य प्रशासन संभालने की अनुमति देता है। हालाँकि, संघवाद, संवैधानिक अखंडता और संभावित राजनीतिक दुरुपयोग पर चिंताएँ इसके अनुप्रयोग को भारतीय लोकतंत्र में एक विवादास्पद मुद्दा बनाती हैं।
राष्ट्रपति शासन के संवैधानिक प्रावधान और महत्त्व क्या हैं?
- संवैधानिक प्रावधान:
- संवैधानिक आधार और आपातकालीन प्रावधान: भारतीय संविधान, भाग XVIII (अनुच्छेद 352 से 360) के तहत, तीन प्रकार की आपात स्थितियों का प्रावधान करता है: राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352), राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356) और वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360)।
- संघ का उत्तरदायित्व: अनुच्छेद 355 में यह प्रावधान है कि संघ सरकार प्रत्येक राज्य को बाह्य आक्रमण और आंतरिक अशांति से बचाएगी तथा संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार शासन सुनिश्चित करेगी।
- राष्ट्रपति शासन लागू करने का आधार: राष्ट्रपति शासन दो संवैधानिक प्रावधानों के तहत घोषित किया जा सकता है:
- अनुच्छेद 356 राष्ट्रपति को राज्य प्रशासन संभालने का अधिकार देता है, कार्यकारी शक्तियों पर संघ का नियंत्रण प्रदान करता है और संसद को विधायी प्राधिकार का प्रयोग करने की अनुमति देता है।
- अनुच्छेद 365 राष्ट्रपति को यह अधिकार देता है कि यदि कोई राज्य संघ के निर्देशों की अवहेलना करता है तो वह शासन की विफलता की घोषणा कर सकता है, जिसके परिणामस्वरूप अनुच्छेद 356 लागू हो सकता है।
- लागू करने की प्रक्रिया: राष्ट्रपति शासन की घोषणा को दो महीने के भीतर संसद के दोनों सदनों द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिये।
- अवधि और विस्तार: राष्ट्रपति शासन आरंभ में छह महीने के लिये लगाया जाता है और इसे तीन वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है।
- एक वर्ष से अधिक के लिये विस्तार हेतु अनुच्छेद 352 के अंतर्गत राष्ट्रीय आपातकाल या चुनाव आयोग से प्रमाणीकरण की आवश्यकता होती है कि राज्य में चुनाव नहीं कराए जा सकते।
- महत्त्व:
- संवैधानिक शासन सुनिश्चित करना: अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन, राज्य के प्रशासनिक पतन के दौरान नेतृत्व शून्यता को रोकता है।
- स्थिरता और कानून एवं व्यवस्था बहाल करना: यह केंद्र सरकार को हस्तक्षेप करने, स्थिरता बहाल करने और नए चुनाव कराने की अनुमति देता है।
- संविधान सभा पर बहस: अनुच्छेद 356 और 365 पर बहस से राजनीतिक दुरुपयोग और संवैधानिक विघटन को परिभाषित करने में अस्पष्टता की आशंकाएँ उत्पन्न हुईं।
- जहाँ कुछ सदस्यों को अत्यधिक केंद्रीकरण की आशंका थी वहीं अन्य ने इन प्रावधानों को राष्ट्रीय एकता और स्थिरता बनाए रखने के लिये आवश्यक बताया।
- डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने इन प्रावधानों का संवैधानिक व्यवस्था के लिये आवश्यक सुरक्षा के रूप में समर्थन किया, लेकिन आशा व्यक्त की कि ये ‘मृत पत्र’ बने रहेंगे और केवल असाधारण मामलों में ही उपयोग किये जाएंगे।
भारत में अब तक राष्ट्रपति शासन
- वर्ष 1950 से अब तक 29 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 134 बार राष्ट्रपति शासन लगाया जा चुका है, जो शासन के साधन के रूप में इसकी उपयोगिता एवं इसके दुरुपयोग पर चिंता दोनों को दर्शाता है।
- प्रथम उदाहरण (वर्ष 1951) - पंजाब राष्ट्रपति शासन के अंतर्गत आने वाला पहला राज्य था।
- सबसे अधिक बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया - मणिपुर और उत्तर प्रदेश में क्रमशः 11-11 बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया, जो दीर्घकालिक राजनीतिक अस्थिरता को दर्शाता है।
- सबसे लंबा राष्ट्रपति शासन –
- जम्मू और कश्मीर में अलगाववादी आंदोलनों के कारण 12 वर्ष (4,668 दिन) से अधिक समय तक अलगाववाद रहा।
- पंजाब (1980 का दशक) में 10 वर्षों (3,878 दिन) से अधिक समय तक उग्रवाद रहा।
- पुडुचेरी सात वर्षों (2,739 दिन) से अधिक समय तक राष्ट्रपति शासन के अधीन रहा।
राष्ट्रपति शासन किस प्रकार कार्य करता है?
- कार्यकारी और विधायी नियंत्रण: राष्ट्रपति शासन के तहत, राज्य की कार्यकारी शक्तियाँ केंद्र सरकार में स्थानांतरित हो जाती हैं तथा विधायी कार्य संसद द्वारा निष्पादित किये जाते हैं।
- हालाँकि, उच्च न्यायालय सहित न्यायपालिका अप्रभावित रहती है।
- केंद्रीय प्रशासक के रूप में राज्यपाल की भूमिका: राज्यपाल राष्ट्रपति की ओर से राज्य का प्रशासन करता है, जिसमें मुख्य सचिव या केंद्र द्वारा नियुक्त सलाहकार उसकी सहायता करते हैं।
- राज्य विधानमंडल पर प्रभाव: राज्य विधान सभा को राष्ट्रपति द्वारा निलंबित या भंग किया जा सकता है।
- राष्ट्रपति शासन की अवधि के दौरान राज्य में कानून बनाने की जिम्मेदारी संसद पर होती है।
- अत्यावश्यक मामलों के समाधान के लिये जब संसद सत्र में न हो, तब भी अध्यादेश जारी किये जा सकते हैं।
- वित्तीय और प्रशासनिक नियंत्रण: राष्ट्रपति राज्य के शासन के लिये राज्य की संचित निधि से व्यय को मंजूरी दे सकता है।
- प्रशासनिक कार्यवाहियाँ और नीतिगत निर्णय केंद्र की प्राथमिकताओं के अनुरूप होते हैं तथा प्रायः राज्य-विशिष्ट आवश्यकताओं को दरकिनार कर दिया जाता है।
- राष्ट्रपति शासन का निरसन: राष्ट्रपति संसदीय अनुमोदन की आवश्यकता के बिना, एक नई घोषणा के माध्यम से राष्ट्रपति शासन को निरस्त कर सकते हैं।
राष्ट्रीय आपातकाल और राष्ट्रपति शासन के बीच अंतर
पहलू |
राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352) |
राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356) |
आरोपण के आधार |
जब भारत की सुरक्षा को युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह से खतरा हो तो इसकी घोषणा की जाती है। |
यह घोषणा तब की जाती है जब कोई राज्य सरकार संविधान के अनुसार कार्य करने में विफल रहती है तथा इसका संबंध युद्ध या बाह्य आक्रमण से नहीं होता है। |
राज्य सरकार पर प्रभाव |
राज्य कार्यपालिका और विधायिका कार्य करना जारी रखती हैं, जबकि केंद्र को समवर्ती शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। |
राज्य कार्यपालिका को बर्खास्त कर दिया जाता है और विधायिका को निलंबित या इसका विघटन कर दिया जाता है तथा राष्ट्रपति राज्यपाल के माध्यम से शासन चलाता है। |
विधायी शक्तियाँ |
संसद राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाती है, लेकिन शक्तियों का हस्तांतरण नहीं कर सकती। |
संसद कानून बनाने की शक्तियाँ राष्ट्रपति या अन्य प्राधिकारियों को सौंप सकती है। |
अवधि |
कोई अधिकतम अवधि नहीं; प्रत्येक छह माह में संसद की मंजूरी से अनिश्चित काल तक जारी रह सकता है। |
तीन वर्ष की अधिकतम सीमा संवैधानिक शासन की बहाली के साथ समाप्त होती है। |
केंद्र-राज्य संबंधों पर प्रभाव |
सभी राज्यों के साथ केंद्र के संबंधों में संशोधन करता है। |
केवल प्रभावित राज्य के साथ केंद्र के संबंधों में संशोधन करता है। |
संसदीय अनुमोदन |
अनुमोदन और जारी रखने के लिये विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है। |
अनुमोदन और जारी रखने के लिये साधारण बहुमत की आवश्यकता होती है। |
मौलिक अधिकारों पर प्रभाव |
अनुच्छेद 19, 20 और 21 के तहत मौलिक अधिकारों को प्रतिबंधित कर सकता है। |
नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। |
निरसन प्रक्रिया |
लोक सभा निरसन हेतु प्रस्ताव पारित कर सकती है। |
निरसन पूर्णतः राष्ट्रपति के विवेक पर निर्भर है। |
राष्ट्रपति शासन लागू करने से जुड़ी बहसें क्या हैं?
- संघवाद और संवैधानिक स्वायत्तता: राष्ट्रपति शासन सत्ता के अत्यधिक केंद्रीकरण और राज्य की स्वायत्तता को कम करके संघवाद को कमज़ोर करता है।
- राष्ट्रपति शासन लागू होने से निर्वाचित राज्य सरकारें कमज़ोर हो जाती हैं, जिससे केंद्र को कार्यकारी और विधायी नियंत्रण हासिल करने का मौका मिल जाता है, जिससे राज्य की स्वायत्तता कम हो जाती है।
- सत्ता सुदृढ़ीकरण के लिये राजनीतिक दुरुपयोग: वर्ष 1950 से ही राष्ट्रपति शासन का दुरुपयोग विपक्ष शासित राज्य सरकारों को बर्खास्त करने के लिये किया जाता रहा है।
- उदाहरण के लिये, सत्र 1966-1977 की अवधि में 48 बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया।
- संवैधानिक विफलता की परिभाषा: संविधान में ‘संवैधानिक मशीनरी की विफलता’ को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है, जिसके कारण केंद्र द्वारा व्यक्तिपरक व्याख्याएँ और दुरुपयोग को बढ़ावा मिलता है।
- संवैधानिक सुरक्षा: प्रारंभ में, अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति की संतुष्टि न्यायिक समीक्षा से परे थी।
- 38वें संशोधन (वर्ष 1975) ने राष्ट्रपति शासन को गैर-न्यायसंगत बना दिया, लेकिन 44वें संशोधन (1978) ने न्यायिक समीक्षा को बहाल कर दिया।
- शासन-व्यवस्था पंगु हो जाती है: राष्ट्रपति शासन से नीतियों के क्रियान्वयन में विलंब होता है तथा प्रशासन कमज़ोर होता है, क्योंकि राज्य के अधिकारी सीधे केंद्र को रिपोर्ट करते हैं।
- राज्यपाल द्वारा दुरुपयोग: राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करने में राज्यपाल की भूमिका विवादास्पद रही है, जैसा कि अरुणाचल प्रदेश मामले (वर्ष 2016) में देखा गया है।
- पुंछी आयोग ने सुझाव दिया कि राज्यपालों को स्वतंत्र रूप से कार्य करना चाहिये और उन्हें ‘केंद्र का एजेंट’ नहीं बनना चाहिये।
राष्ट्रपति शासन पर सर्वोच्च न्यायालय की प्रमुख टिप्पणियाँ क्या हैं?
- राजस्थान राज्य बनाम भारत संघ (वर्ष 1977): सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति शासन लगाने के लिये अनुच्छेद 365 के तहत केंद्र के व्यापक विवेक को बरकरार रखा।
- सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि न्यायिक समीक्षा सीमित है, जिससे भारतीय संघवाद में एकात्मक पूर्वाग्रह को बल मिलता है तथा संवैधानिक गैर-अनुपालन के लिये राज्य सरकारों को बर्खास्त करने की अनुमति मिलती है।
- एस.आर. बोम्मई केस (वर्ष 1994): एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) निर्णय ने अनुच्छेद 356 के उपयोग पर महत्त्वपूर्ण सीमाएँ निर्धारित कीं।
- न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि राष्ट्रपति शासन सशर्त है, निरपेक्ष नहीं तथा न्यायिक समीक्षा के अधीन है।
- न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि अनुच्छेद 356 का प्रयोग केवल अंतिम उपाय के रूप में किया जाना चाहिये, राजनीतिक उद्देश्यों के लिये नहीं।
- न्यायालय ने यह भी निर्णय दिया कि राष्ट्रपति संसद की मंजूरी के बिना किसी राज्य की विधानसभा को भंग नहीं कर सकते तथा उन्हें पहले राज्य सरकार को चेतावनी जारी करनी होगी।
- सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करने से पहले सदन में सरकार के बहुमत का परीक्षण किया जाना चाहिये।
- रामेश्वर प्रसाद केस (वर्ष 2006): सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि राष्ट्रपति शासन के तहत बिहार विधानसभा को भंग करना असंवैधानिक था।
- इसने ऐसे निर्णयों की न्यायिक समीक्षा पर ज़ोर दिया तथा इस बात पर बल दिया कि राष्ट्रपति शासन का प्रयोग केवल शासन में वास्तविक व्यवधान के लिये ही किया जाना चाहिये, राजनीतिक कारणों से नहीं।
- गुजरात मजदूर सभा केस (वर्ष 2020): न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन केवल तभी लागू किया जा सकता है जब आंतरिक गड़बड़ी किसी राज्य की संवैधानिक कार्यप्रणाली को बाधित करती है, जिससे राज्य सरकार के लिये संविधान के अनुसार कार्य करना असंभव हो जाता है।
आगे की राह:
- सरकारिया आयोग की सिफारिशें: अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन) का प्रयोग केवल असाधारण परिस्थितियों में, अंतिम उपाय के रूप में किया जाना चाहिये, जब अन्य सभी विकल्प समाप्त हो गए हों।
- राज्यपाल मंत्रिपरिषद को तब तक बर्खास्त नहीं कर सकते जब तक कि राज्य विधानसभा में उसे बहुमत प्राप्त है।
- पुंछी आयोग की सिफारिशें: जब राज्य प्रशासन बाह्य आक्रमण या आंतरिक अशांति के कारण निरस्त हो जाता है, तो संघ को संवैधानिक विफलता के लिये अनुच्छेद 356 को सख्ती से लागू करने से पहले अनुच्छेद 355 के तहत सभी विकल्पों को समाप्त कर लेना चाहिये।
- दुरुपयोग को रोकने के लिये, अनुच्छेद 356 को संवैधानिक संशोधनों के माध्यम से एस.आर. बोम्मई (वर्ष 1994) के फैसले के अनुरूप बनाया जाना चाहिये, जिससे स्पष्टता सुनिश्चित हो और केंद्र-राज्य संबंधों का संरक्षण हो सके।
- अनुच्छेद 352 और 356 के लिये सख्त शर्तों को देखते हुए, एक स्थानीय आपातकालीन कार्यढाँचा राज्य विधानसभा को भंग किये बिना लक्षित केंद्रीय हस्तक्षेप की अनुमति देगा, जिससे राज्य शासन को बनाए रखा जा सकेगा।
- NCRWC की सिफारिशें: संविधान के कार्यकरण की समीक्षा के लिये राष्ट्रीय आयोग (NCRWC) ने राष्ट्रपति शासन लागू करने से पहले गैर-अनुपालन के लिये स्पष्ट मानदंड सुनिश्चित करके अनुच्छेद 365 के दुरुपयोग को सीमित करने की सिफारिश की।
- इसने न्यायिक सुरक्षा पर ज़ोर दिया, राज्यपाल की रिपोर्ट को विस्तृत बनाने की मांग की तथा राज्य के मामलों में केंद्रीय हस्तक्षेप से पहले वैकल्पिक उपायों पर बल दिया।
- सुरक्षा उपायों को मज़बूत करना: अनुच्छेद 356 को लागू करने से पहले सरकार के बहुमत खोने को साबित करने के लिये अनिवार्य रूप से शक्ति परीक्षण की आवश्यकता होती है।
- जब तक संसद राष्ट्रपति शासन की घोषणा को मंजूरी नहीं दे देती, तब तक राज्य विधानसभाओं का तत्काल विघटन नहीं किया जाना चाहिये, ताकि इसका दुरुपयोग रोका जा सके।
- कानूनी और संवैधानिक सुधार: अनुच्छेद 356 में ‘संवैधानिक तंत्र की विफलता’ को परिभाषित करना दुरुपयोग और व्यक्तिपरक व्याख्या से बचने के लिये आवश्यक है।
- लंबे समय तक केंद्रीय नियंत्रण को रोकने के लिये राष्ट्रपति शासन की अधिकतम अवधि को कम करने पर पुनर्विचार किया जाना चाहिये।
- शासन की जवाबदेही में सुधार: लोकतांत्रिक शासन को बहाल करने के लिये समय पर चुनाव कराना आवश्यक है, तथा यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि शासन को निर्वाचित सरकार के हाथों में लौटाने के लिये चुनाव शीघ्रता से कराए जाएँ।
- स्थानीय शासन तंत्र को सुदृढ़ करके राष्ट्रपति शासन के दौरान विकेंद्रीकृत प्रशासन को प्रोत्साहित करने से राष्ट्रपति शासन के दौरान केंद्र पर अत्यधिक निर्भरता को रोका जा सकता है।
- लोकतांत्रिक अखंडता और संघीय संतुलन सुनिश्चित करना: राष्ट्रपति शासन को राजकौशल के साधन के बजाय संकट प्रबंधन के लिये एक संवैधानिक सुरक्षा के रूप में काम करना चाहिये।
- न्यायिक जाँच को सुदृढ़ करना, संवैधानिक दिशानिर्देशों को संशोधित करना और संघवाद को सुदृढ़ करना यह सुनिश्चित करेगा कि अनुच्छेद 356 को लोकतांत्रिक कार्यढाँचे के भीतर विवेकपूर्ण तरीके से लागू किया जाए।
निष्कर्ष:
डॉ. बी.आर. अंबेडकर को उम्मीद थी कि राष्ट्रपति शासन एक ‘मृत पत्र’ बनकर रह जाएगा। लोकतंत्र को बनाए रखने के लिये, इसे एक संवैधानिक सुरक्षा कवच होना चाहिये, न कि एक राजनीतिक साधन। न्यायिक निगरानी को सुदृढ़ करना, शासन की विफलता को परिभाषित करना और समय पर चुनाव सुनिश्चित करना दुरुपयोग को रोक सकता है। एक संतुलित दृष्टिकोण जो स्थिरता सुनिश्चित करते हुए संघवाद का सम्मान करता है, भारत के लोकतांत्रिक कार्यढाँचे के लिये महत्त्वपूर्ण है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. संवैधानिक व्यवस्था बनाए रखने में अनुच्छेद 355 और अनुच्छेद 356 की भूमिका का विश्लेषण कीजिये। शासन की स्थिरता सुनिश्चित करते हुए उनके दुरुपयोग को किस प्रकार रोका जा सकता है? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न 1. निम्नलिखित में कौन-सी लोक सभा की अनन्य शक्ति (याँ) है/हैं ? (2022)
नीचे दिये कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) 1 और 2 उत्तर: (b) मेन्सप्रश्न 1. यद्यपि परिसंघीय सिद्धांत हमारे संविधान में प्रबल है और वह सिद्धांत संविधान के आधारिक अभिलक्षणों में से एक है, परंतु यह भी इतना ही सत्य है कि भारतीय संविधान के अधीन परिसंघवाद (फैडरलिज़्म) सशक्त केंद्र के पक्ष में झुका हुआ है। यह एक ऐसा लक्षण है जो प्रबल परिसंघवाद की संकल्पना के विरोध में है। चर्चा कीजिये। (2014) |