बहुआयामी जलवायु संकट से निपटना
यह एडिटोरियल 05/10/2023 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित ‘‘Keeping tabs on carbon with an accounting system’’ लेख पर आधारित है। इसमें ‘बहुआयामी जलवायु संकट’ की अवधारणा के बारे में चर्चा की गई है और विचार किया गया है कि इस जलवायु संकट से प्रभावी ढंग से कैसे निपटा जाए।
प्रिलिम्स के लिये:जलवायु परिवर्तन, बहुआयामी जलवायु संकट, जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC), राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC), राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन अनुकूलन कोष (NAFCC), जलवायु परिवर्तन पर राज्य कार्य योजना (SAPCC)। मेन्स के लिये:बहुआयामी जलवायु संकट: बहुआयामी जलवायु संकट के प्रभाव और इससे निपटने के तरीके; सरकारी पहल। |
हम एक बहुआयामी जलवायु संकट (Climate Polycrisis) का सामना कर रहे हैं। यह एक जटिल और बहुआयामी समस्या है जिसके लिये तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है। वर्ष 2021 के WHO के ‘स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन सर्वेक्षण रिपोर्ट’ के अनुसार, जलवायु परिवर्तन मानव स्वास्थ्य और कल्याण के लिये एक गंभीर खतरा है, विशेष रूप से भेद्य या संवेदनशील आबादी के लिये। WHO का अनुमान है कि वर्ष 2030 और 2050 के बीच, जलवायु परिवर्तन के कारण कुपोषण, मलेरिया, डायरिया और ‘हीट स्ट्रेस’ के प्रभाव से प्रति वर्ष लगभग 250,000 अतिरिक्त मौतें होंगी।
इस परस्पर संबद्ध संकट से प्रभावी ढंग से निपटने के लिये, हमें एक ऐसी समग्र रणनीति विकसित करने की आवश्यकता है जो विभिन्न हितधारकों के विविध दृष्टिकोण और लक्ष्यों को ध्यान में रखे। इस रणनीति में प्रत्यास्थता, समानता और न्याय के सिद्धांतों पर भी बल दिया जाना चाहिये।
‘क्लाइमेट पॉलीक्राइसिस/बहुआयामी जलवायु संकट’:
- ‘बहुआयामी जलवायु संकट’ (Climate Polycrisis) अँग्रेज़ इतिहासकार सह प्राध्यापक एडम टूज़ (Adam Tooze) द्वारा लोकप्रिय बनाया गया शब्द है जो जलवायु परिवर्तन से संबंधित उन परस्पर संबद्ध और जटिल संकटों को संदर्भित करता है जो पृथ्वी को केवल कुछ क्षेत्रों में ही नहीं, बल्कि कई क्षेत्रों और डोमेन में प्रभावित कर रहे हैं।
- इसमें जलवायु परिवर्तन के भौतिक प्रभाव (बढ़ता तापमान, समुद्र-स्तर में वृद्धि एवं चरम मौसमी घटनाएँ) और इन प्रभावों से उत्पन्न होने वाली सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक चुनौतियाँ शामिल हैं।
- भारत में ऊर्जा, आधारभूत संरचना, स्वास्थ्य, प्रवासन और खाद्य उत्पादन जैसे विभिन्न पर्याप्त अलग-अलग क्षेत्रों के बीच अंतर्संबंध देखा जा सकता है जो जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हो रहे हैं।
बहुआयामी जलवायु संकट के प्रमुख कारण:
- ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन: मानवीय गतिविधियाँ—विशेष रूप से जीवाश्म ईंधन (जैसे कोयला, तेल एवं प्राकृतिक गैस) का दहन, वनों की कटाई, कृषि पद्धतियाँ और औद्योगिक प्रक्रियाएँ, वायुमंडल में CO2, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैसों (GHGs) के उत्सर्जन का कारण बनती हैं। ये GHGs सूर्य से प्राप्त ऊष्मा/ताप को जब्त या ट्रैप कर लेते हैं, जिससे ‘ग्लोबल वार्मिंग’ और पृथ्वी की जलवायु प्रणाली में परिवर्तन की स्थिति बनती है।
- असंवहनीय उपभोग और उत्पादन: असंवहनीय उपभोग पैटर्न में प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग इस तरह से करना शामिल है जहाँ उनका उनके उपभोग की दर उनके पुनर्जनन दर से अधिक हो जाती है, जिससे इन संसाधनों की समाप्ति हो जाती है। इसके अतिरिक्त, असंवहनीय उत्पादन अभ्यास अपशिष्ट एवं प्रदूषण उत्पन्न करती हैं, जिससे पर्यावरण को आगे और अधिक नुकसान पहुँचता है। असंवहनीय अभ्यास स्वच्छ जल, उर्वर मृदा और जैव विविधता जैसी आवश्यक सेवाएँ प्रदान करने की पृथ्वी की क्षमता को कम कर सकते हैं।
- राजनीतिक इच्छाशक्ति और सामूहिक कार्रवाई का अभाव: जलवायु संकट और पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटने के लिये स्थानीय, राष्ट्रीय एवं वैश्विक स्तर पर समन्वित प्रयासों की आवश्यकता है। राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और अपर्याप्त सामूहिक कार्रवाई उत्सर्जन को कम करने, जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूल बनने और कमज़ोर समुदायों का समर्थन करने के लिये प्रभावी नीतियों एवं उपायों के कार्यान्वयन में बाधक बन सकती है।
- उदाहरण के लिये, पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर करने के 8 वर्ष बाद भी, यह जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने में व्यापक रूप से विफल रहा है।
- समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद, पिछले 8 वर्ष (2015-2022) वैश्विक स्तर पर लगातार रिकॉर्ड 8 सबसे गर्म वर्ष रहे हैं।
- ग्लोबल वार्मिंग को 1.5°C तक सीमित करने के लिये वैश्विक स्तर पर अद्यतन किये गए NDCs, यहाँ तक कि 2°C के लक्ष्य को भी प्राप्त करने में विफल रहे हैं।
- यह जलवायु संकट के लिये मुख्य रूप से ज़िम्मेदार जीवाश्म ईंधन को उपयुक्त रूप से समाप्त करने में सक्षम नहीं रहा है।
बहुआयामी जलवायु संकट के संभावित प्रभाव:
- चरम मौसमी घटनाएँ: भारत पहले से ही चक्रवात, बाढ़, सूखा और ‘हीटवेव’ जैसी चरम मौसमी घटनाओं की आवृत्ति एवं तीव्रता में वृद्धि का सामना कर रहा है। बहुआयामी जलवायु संकट इन घटनाओं की आवृत्ति और गंभीरता को बढ़ा सकता है, जिससे अवसंरचना, कृषि और मानव बस्तियों को व्यापक क्षति पहुँच सकती है।
- RBI की एक रिपोर्ट के अनुसार, अत्यधिक गर्मी और आर्द्रता श्रम के घंटों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है और वर्ष 2030 तक भारत की GDP का 4.5% तक इसके जोखिम में आ सकता है।
- कृषि: भारत का कृषि क्षेत्र मानसूनी वर्षा पर अत्यधिक निर्भर है। अनियमित वर्षा पैटर्न, लंबे समय तक सूखे की स्थिति और बाढ़ के साथ बहुआयामी जलवायु संकट फसल चक्र को बाधित कर सकता है, जिससे पैदावार कम हो सकती है तथा खाद्य असुरक्षा बढ़ सकती है। इसके परिणामस्वरूप खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ सकती हैं और किसानों के लिये आर्थिक चुनौतियाँ पैदा हो सकती हैं।
- श्री श्री इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज एंड टेक्नोलॉजी ट्रस्ट (SSIAST) के अनुसार, चूँकि भारत की GDP में कृषि का योगदान 15% है, इसलिये जलवायु परिवर्तन के कारण GDP में लगभग 1.5% की हानि हो सकती है। वर्ष 2030 तक चावल और गेहूँ की पैदावार में लगभग 6-10% की कमी आने की भी संभावना है।
- जल की कमी: जलवायु परिवर्तन भारत में जल की कमी की समस्या को बढ़ा सकता है। बढ़ते तापमान और वर्षा के बदलते पैटर्न से पेयजल, कृषि और औद्योगिक उपयोग के लिये ताजे जल की उपलब्धता कम हो सकती है। इससे जल संसाधनों के लिये संघर्ष उत्पन्न हो सकता है और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर असर पड़ सकता है।
- समुद्र-स्तर में वृद्धि: भारत एक लंबी तटरेखा रखता है और कई प्रमुख शहर समुद्र तट पर स्थित हैं। तूफानों की आवृत्ति में वृद्धि के साथ समुद्र के जल-स्तर में वृद्धि तटीय कटाव और निचले इलाकों में बाढ़ का कारण बन सकती है, जो समुदायों को विस्थापित कर सकती है और आर्थिक हानि का कारण बन सकती है।
- स्वास्थ्य पर प्रभाव: बहुआयामी जलवायु संकट से स्वास्थ्य समस्याओं का खतरा बढ़ सकता है, जिसमें गर्मी से संबंधित बीमारियाँ, वेक्टरजनित बीमारियाँ (जैसे मलेरिया और डेंगू) और वायु प्रदूषण एवं वनाग्नि के कारण उत्पन्न श्वसन संबंधी समस्याएँ शामिल हैं। बच्चों और वृद्धों सहित कमज़ोर आबादी विशेष रूप से इसका जोखिम रखती है।
- आर्थिक व्यवधान: विभिन्न क्षेत्रों की परस्पर संबद्धता का अर्थ है कि किसी एक क्षेत्र में व्यवधान (जैसे कि कृषि या अवसंरचना के क्षेत्र में) का समग्र अर्थव्यवस्था पर सोपानी प्रभाव पड़ सकता है। कृषि उत्पादकता में कमी, अवसंरचना की क्षति और स्वास्थ्य देखभाल की बढ़ती लागत देश की अर्थव्यवस्था पर दबाव डाल सकती है।
- ऊर्जा मांग में वृद्धि: बढ़े हुए तापमान से शीतलन (cooling) के लिये ऊर्जा की मांग बढ़ सकती है, जो फिर बिजली ग्रिड पर दबाव बढ़ा सकती है। यदि अतिरिक्त बिजली उत्पादन के लिये जीवाश्म ईंधन का उपयोग किया जाता है तो यह फिर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में योगदान कर सकता है।
- क्लाइमेट फीडबैक लूप: बहुआयामी जलवायु संकट फीडबैक लूप (feedback loops) को उत्प्रेरित कर सकते हैं, जहाँ एक संकट दूसरे संकट को बढ़ा देता है। उदाहरण के लिये, वनाग्नि (wildfires) संग्रहित कार्बन की रिहाई का कारण बन सकती है, जो फिर जलवायु परिवर्तन में योगदान कर सकती है।
- राजनीतिक अस्थिरता: संसाधनों की कमी, विस्थापन और आर्थिक कठिनाइयाँ प्रभावित क्षेत्रों में राजनीतिक अस्थिरता, संघर्ष और सामाजिक अशांति में योगदान कर सकती हैं।
- राष्ट्रीय सुरक्षा: जलवायु संबंधी चुनौतियाँ जल और कृषि योग्य भूमि जैसे संसाधनों पर तनाव एवं संघर्ष को बढ़ा सकती हैं, जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा पर संभावित प्रभाव पड़ सकता है।
बहुआयामी जलवायु संकट से निपटने के उपाय:
- राष्ट्रीय कार्बन लेखांकन (National Carbon Accounting- NCA) का क्रियान्वयन: एक व्यापक NCA प्रणाली स्थापित किया जाए जो व्यवसायों और घरों सहित पूरे देश में व्यक्तियों के कार्बन उत्सर्जन का मापन और ट्रैकिंग करे।
- कार्बन जागरूकता को बढ़ावा देना: आम लोगों को कार्बन उत्सर्जन के महत्त्व और जलवायु परिवर्तन पर इसके प्रभाव के बारे में शिक्षित किया जाए। कार्बन उत्सर्जन और उनके प्रभावों को सामान्य आबादी के लिये अधिक दृश्यमान बनाया जाए।
- कार्बन कराधान का प्रवेश कराना: NCA डेटा के आधार पर एक प्रगतिशील कार्बन कर प्रणाली लागू की जाए। कार्बन कटौती के प्रयासों को प्रोत्साहित करने के लिये औसत उपभोक्ताओं की तुलना में बड़े उत्सर्जकों को अधिक दंडित किया जाए।
- यथार्थवादी कटौती लक्ष्य निर्धारित करना: राष्ट्र के लिये विशिष्ट, विज्ञान-आधारित कार्बन कटौती लक्ष्य निर्धारित करने के लिये NCA प्रणाली का उपयोग किया जाए। इन लक्ष्यों को वैश्विक जलवायु लक्ष्यों (जैसे कि शुद्ध-शून्य उत्सर्जन प्राप्त करना) के अनुरूप बनाया जाना चाहिये।
- प्रगति का पूर्वानुमान और ट्रैकिंग करना: भविष्य की उत्सर्जन कटौती के बारे में पूर्वानुमान लगाने और कार्बन कटौती लक्ष्यों को पूरा करने की दिशा में प्रगति को लगातार ट्रैक करने के लिये NCA डेटा का उपयोग किया जाए। आवश्यकतानुसार नीतियों और रणनीतियों को समायोजित किया जाए।
- कार्बन कटौती के लिये नवाचार: कार्बन उत्सर्जन को कम करने वाली नई प्रौद्योगिकियों और अभ्यासों के विकास एवं अंगीकरण को प्रोत्साहित किया जाए। सतत/संवहनीय प्रौद्योगिकियों में अनुसंधान और विकास का समर्थन किया जाए।
- एक समानांतर लक्ष्य के रूप में कार्बन GDP: पारंपरिक आर्थिक GDP के साथ-साथ एक एक समानांतर लक्ष्य के रूप ‘कार्बन GDP’ पेश किया जाए। पारिस्थितिक संवहनीयता को बढ़ावा देने के लिये देशों को अपने कार्बन GDP को कम करने की दिशा में कार्य करने के लिये प्रोत्साहित किया जाए।
- सार्वजनिक विमर्श और संलग्नता: कार्बन उत्सर्जन और संवहनीयता के संबंध में सार्वजनिक विमर्श के एक नए रूप को बढ़ावा दिया जाए। पर्यावरण और इसमें अर्थव्यवस्था की भूमिका के बारे में आहूत चर्चाओं में नागरिकों को शामिल किया जाए।
- विकास और संवहनीयता को संरेखित करना: सुनिश्चित करें कि आर्थिक विकास और संवहनीयता के लक्ष्य संरेखित हों। पर्यावरण संरक्षण के साथ आर्थिक विकास को संतुलित करने वाले सूचना-संपन्न निर्णय लेने के लिये NCA डेटा का उपयोग किया जाए।
- वैश्विक अंगीकरण: वैश्विक स्तर पर NCA प्रणालियों के अंगीकरण को बढ़ावा दिया जाए। अन्य देशों को कार्बन उत्सर्जन पर नज़र रखने और उसे प्रबंधित करने के लिये सदृश ढाँचे को लागू करने हेतु प्रोत्साहित किया जाए।
- आजीविका के नए स्रोतों का सृजन: कार्बन कटौती से संबंधित नवीन आजीविका और आर्थिक गतिविधियों के सृजन (जैसे नवीकरणीय ऊर्जा उद्योग और कार्बन ऑफसेट परियोजनाएँ) के लिये अवसरों की तलाश की जानी चाहिये।
- नीति एकीकरण: ऊर्जा, परिवहन, कृषि और उद्योग सहित विभिन्न नीति क्षेत्रों में कार्बन लेखांकन एवं कटौती उपायों को एकीकृत किया जाए।
- अंतर्राष्ट्रीय सहयोग: बहुआयामी जलवायु संकट की वैश्विक प्रकृति को संबोधित करने के लिये अन्य देशों के साथ सहयोग स्थापित किया जाए। सामूहिक प्रयास के लिये सर्वोत्तम अभ्यासों, प्रौद्योगिकियों और संसाधनों की साझेदारी की जाए।
भारत की प्रमुख जलवायु परिवर्तन शमन पहलें
- जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना (NAPCC):
- इसे भारत में जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिये वर्ष 2008 में लॉन्च किया गया।
- इसका उद्देश्य भारत के लिये निम्न-कार्बन और जलवायु-प्रत्यास्थी विकास हासिल करना है।
- NAPCC के मूल में 8 राष्ट्रीय मिशन शामिल हैं जो जलवायु परिवर्तन के विषय में प्रमुख लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये बहुआयामी, दीर्घकालिक और एकीकृत रणनीतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये हैं-
- राष्ट्रीय सौर मिशन (National Solar Mission)
- संवर्द्धित ऊर्जा दक्षता के लिये राष्ट्रीय मिशन (National Mission for Enhanced Energy Efficiency- NMEEE)
- सतत् पर्यावास पर राष्ट्रीय मिशन (National Mission on Sustainable Habitat- NMSH)
- राष्ट्रीय जल मिशन (National Water Mission- NWM)
- सुस्थिर हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र हेतु राष्ट्रीय मिशन (National Mission for Sustaining the Himalayan Ecosystem)
- हरित भारत के लिये राष्ट्रीय मिशन (National Mission for A Green India)
- राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन (National Mission for Sustainable Agriculture)
- जलवायु परिवर्तन के लिये रणनीतिक ज्ञान पर राष्ट्रीय मिशन (National Mission on Strategic Knowledge for Climate Change)
- राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contributions- NDCs)
- राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन अनुकूलन कोष (National Adaptation Fund on Climate Change- NAFCC)
- जलवायु परिवर्तन पर राज्य कार्ययोजना (State Action Plan on Climate Change- SAPCC)
- राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDCs):
- ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने और जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बनने की भारत की प्रतिबद्धताएँ।
- सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता को वर्ष 2030 तक वर्ष 2005 के स्तर से 45% तक कम करने और वर्ष 2030 तक गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोतों से 50% बिजली उत्पन्न करने का संकल्प।
- वर्ष 2070 तक अतिरिक्त कार्बन सिंक का निर्माण करने और शुद्ध शून्य उत्सर्जन हासिल करने का संकल्प।
- राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन अनुकूलन कोष (NAFCC):
- इसे विभिन्न क्षेत्रों में अनुकूलन परियोजनाओं को लागू करने के लिये राज्य सरकारों को वित्तीय सहायता प्रदान करने हेतु वर्ष 2015 में स्थापित किया गया।
- जलवायु परिवर्तन पर राज्य कार्ययोजना (SAPCC):
- यह सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को उनकी अपनी विशिष्ट आवश्यकताओं और प्राथमिकताओं के आधार पर स्वयं के SAPCC तैयार करने के लिये प्रोत्साहित करता है
- SAPCC उप-राष्ट्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने के लिये रणनीतियों और कार्यों की रूपरेखा तैयार करती है
- यह NAPCC और NDCs के उद्देश्यों से संरेखित है
निष्कर्ष:
बहुआयामी जलवायु संकट से निपटने के लिये एक व्यापक और एकीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता है जिसमें व्यक्तियों और व्यवसायों से लेकर सरकारों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों तक समाज के विभिन्न क्षेत्रों को शामिल किया जाए। राष्ट्रीय कार्बन लेखा प्रणाली का कार्यान्वयन इस प्रयास में एक महत्त्वपूर्ण कदम होगा, क्योंकि यह सूचना-संपन्न निर्णय लेने और अधिक सतत भविष्य की दिशा में प्रगति को ट्रैक करने के लिये आवश्यक डेटा एवं रूपरेखा प्रदान करेगा।
अभ्यास प्रश्न: बहुआयामी जलवायु संकट की अवधारणा पर चर्चा कीजिये और एक ऐसी व्यापक रणनीति पर विस्तार से विचार कीजिये जिसे दुनिया की सरकारें और अंतर्राष्ट्रीय संगठन इस जटिल संकट को प्रभावी ढंग से संबोधित करने के लिये अपना सकते हैं।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न: जलवायु-स्मार्ट कृषि के लिये भारत की तैयारी के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:
उपर्युक्त कथनों में से कौन-से सही हैं? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (d) प्रश्न: निम्नलिखित में से कौन भारत सरकार के 'हरित भारत मिशन' के उद्देश्य का सबसे अच्छा वर्णन करता है? (2016)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 उत्तर: (c) प्रश्न.3 'वैश्विक जलवायु परिवर्तन गठबंधन' के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (2017)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (a) मेन्स:प्रश्न 1. जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) के पक्षकारों के सम्मेलन (COP) के 26वें सत्र के प्रमुख परिणामों का वर्णन कीजिये। इस सम्मेलन में भारत द्वारा की गई प्रतिबद्धताएँ क्या हैं? (2021) प्रश्न 2. 'जलवायु परिवर्तन' एक वैश्विक समस्या है। जलवायु परिवर्तन से भारत कैसे प्रभावित होगा? भारत के हिमालयी और तटीय राज्य जलवायु परिवर्तन से कैसे प्रभावित होंगे? (2017) |