बिहार में पहला ई-कलेक्ट्रेट
मेन्स के लिये:लाल फीताशाही और इसके परिणाम |
चर्चा में क्यों?
भारतीय लालफीताशाही को समाप्त करने के उद्देश्य से सहरसा बिहार का पहला ज़िला बन गया जिसे पेपरलेस (ई-ऑफिस) घोषित किया गया।
ई-ऑफिस पहल
- ई-ऑफिस, ई-गवर्नेंस पहल के हिस्से के रूप में एक मिशन-मोड परियोजना है।
- ई-ऑफिस पहल वर्ष 2009 में शुरू हुई थी, लेकिन कागजी कार्रवाई के विशाल ढेर एक बाधा थी और अभी भी है यह ऐसी बाधा है जिसे पार करना बहुत कठिन है।
- केरल में इडुक्की वर्ष 2012 में और हैदराबाद वर्ष 2016 में पेपरलेस हो गया था।
- इसका उद्देश्य कार्यप्रवाह तंत्र और कार्यालय प्रक्रिया नियमावली में सुधार के माध्यम से सरकारी मंत्रालयों और विभागों की परिचालन दक्षता में उल्लेखनीय सुधार करना है।
लालफीताशाही
- यह अत्यधिक विनियमन या औपचारिक नियमों के कठोर अनुपालन हेतु उपहासपूर्ण शब्द है जिसे अनावश्यक या नौकरशाही माना जाता है, यह कार्रवाई या निर्णय लेने में बाधा डालता है या रोकता है।
- यह आमतौर पर सरकार पर लागू होता है लेकिन निगमों जैसे अन्य संगठनों पर भी लागू किया जा सकता है।
- इसमें आम तौर पर प्रतीत होने वाली अनावश्यक कागजी कार्रवाई को भरना, अनावश्यक लाइसेंस प्राप्त करना, कई लोगों या समितियों द्वारा निर्णय तथा विभिन्न निम्न-स्तरीय नियम शामिल होते हैं जो किसी भी मामले को धीमा और/या अधिक जटिल बनाते हैं।
लालफीताशाही के परिणाम:
- व्यापार करने की लागत में वृद्धि:
- फॉर्म भरने में लगने वाले समय और धन के अलावा लालफीताशाही व्यवसायों में उत्पादकता और नवाचारों को कम करती है।
- छोटे व्यवसाय विशेष रूप से इससे बोझिल होते हैं, जो लोगों को एक नया व्यवसाय शुरू करने से हतोत्साहित कर सकता है।
- खराब शासन:
- लालफीताशाही के कारण अनुबंधों को लगातार लागू नहीं किया जाता है और प्रशासन में देरी होती है जिसके परिणामस्वरूप विशेष रूप से गरीबों के लिये न्याय में देरी होती है। विलंबित शासन और कल्याणकारी उपायों के वितरण में देरी के कारण लालफीताशाही आवश्यकताओं का बोझ कई लोगों को अपने अधिकारों के उपयोग से रोकता है।
- नागरिक असंतोष:
- सरकारी प्रसंस्करण के कारण होने वाली देरी और उनसे जुड़ी लागतें नागरिकों के बीच असंतोष का स्रोत बनी हुई हैं। लालफीताशाही ज़्यादातर समय सरकार की प्रक्रिया में विश्वास की कमी की भावना उत्पन्न करती है, जिससे नागरिकों को अनसुलझी समस्याएँ होती हैं।
- योजना के कार्यान्वयन में विलंब:
- लालफीताशाही से प्रभावित योजनाएँ अंततः उस बड़े उद्देश्य को खत्म कर देती है जिसके लिये उन्हें लॉन्च किया गया था।
- उचित निगरानी की कमी, धन जारी करने में देरी, आदि लालफीताशाही से जुड़े सामान्य मुद्दे हैं।
- भ्रष्टाचार:
- विश्व बैंक के एक अध्ययन के अनुसार लालफीताशाही बढ़ने के साथ भ्रष्टाचार बढ़ता है।
- व्यवसायों के सामान्य प्रवाह को जटिल करके, नौकरशाही भ्रष्टाचार को जन्म देती है और विकास को कम करती है।
लालफीताशाही को खत्म करने की ज़रूरत:
- दक्षता बढ़ाना:
- डिजिटलीकरण दक्षता, पारदर्शिता और जवाबदेही लाने में मदद कर सकता है।
- कर्मचारी की उत्पादकता में वृद्धि:
- इसने कर्मचारी के उत्पादन में वृद्धि की है और एक दस्तावेज़ को संसाधित करने के लिये आवश्यक श्रमिकों की संख्या को कम कर दिया है क्योंकि दस्तावेज़ एक दिन के भीतर संसाधित होते हैं।
- सरकारी सिस्टम में कहा जाता है कि कोई फाइल जितनी तेज़ी से आगे बढ़ेगी, उतनी ही तेज़ी से कोई पॉलिसी लागू होगी।
- जवाबदेही बढ़ाना:
- ऑनलाइन प्रणाली अधिक जवाबदे और कर्मचारी सदस्य अंत में उन्हीं दस्तावेजों के इंतजार में नही बैठ सकते।
- सुशासन की दिशा में एक कदम:
- सुशासन और भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था की दिशा में प्रौद्योगिकी का उपयोग अच्छा कदम है।
- जितनी अधिक तकनीक हम लागू करेंगे, हमारी सेवा वितरण जनता के लिये उतनी ही आसान होगी।
आगे की राह:
- अलग-अलग शहरी-ग्रामीण स्तर के सामाजिक-आर्थिक डेटाबेस के माध्यम से नियोजन के निम्न से ऊपर स्तर के दृष्टिकोण के साथ, सरकारी मंत्रालयों द्वारा एक समग्र और एकीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता है जिसमें जल्द से जल्द जनसंख्या की ज़रूरतों को पूरा करने के लिये डेटा संचालित नीतियों की पहचान करना, मूल्यांकन करना, लागू करना और निवारण करना शामिल है। ।
- ई-गवर्नेंस के माध्यम से सरकार के सभी स्तरों पर बदलाव की ज़रूरत है, लेकिन इस संदर्भ में स्थानीय सरकारों पर ध्यान ज़्यादा केंद्रित होना चाहिये क्योंकि स्थानीय सरकारें नागरिकों के सबसे करीब होती हैं।
- बेहतर इंटरनेट कनेक्टिविटी के साथ-साथ विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में डिजिटल अवसंरचना में सुधार पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये।
- क्षेत्रीय भाषाओं के माध्यम से ई-गवर्नेंस भारत जैसे देशों के लिये सराहनीय है जहाँ कई भाषाई पृष्ठभूमि के लोग साथ रहते हैं।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र की स्थिति
प्रिलिम्स के लिये:पंद्रहवाँ वित्त आयोग, समवर्ती सूची, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, आयुष्मान भारत, प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (AB-PMJAY), राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग मेन्स के लिये:भारत में स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र और संबंधित मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में पंद्रहवें वित्त आयोग के अध्यक्ष एन.के. सिंह ने भारतीय उद्योग परिसंघ (CII) के 19वें स्वास्थ्य शिखर सम्मेलन, 2022 को संबोधित किया और इस क्षेत्र से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर प्रकाश डाला।
- CII सलाहकार एवं परामर्शी प्रक्रियाओं के माध्यम से उद्योग, सरकार और नागरिक समाज की भागीदारी के साथ भारत के विकास हेतु अनुकूल वातावरण बनाने और बनाए रखने के लिये काम करता है।
मुख्य सिफारिशें/मुद्दे:
- स्वास्थ्य को समवर्ती सूची में शामिल करना:
- संविधान के अंतर्गत 'स्वास्थ्य' शब्द को समवर्ती सूची में शामिल किया जाना चाहिये।
- 'द मिसिंग मिडिल' के लिये स्वास्थ्य बीमा को सार्वभौमिक बनाने की भी वकालत की।
- द मिसिंग मिडिल (The Missing Middle): वे लोग जो न तो इतने अमीर हैं कि निजी स्वास्थ्य कवर खरीद सकें और न ही इतने गरीब कि सरकारी योजनाओं के लिये अर्हता प्राप्त कर सकें।
- सार्वजनिक परिव्यय में वृद्धि:
- वर्ष 2025 तक सार्वजनिक परिव्यय (स्वास्थ्य पर व्यय) को जीडीपी के 2.5% तक बढ़ाने की आवश्यकता है।
- यह इस वर्ष के बजट आँकड़ों की तुलना में एक बड़ी छलाँग होगी और राज्यों को स्वास्थ्य क्षेत्र के लिये अपने बजट का 8% लक्षित करने की आवश्यकता होगी, जो 'एक कठिन चुनौती' है।
- वर्ष 2025 तक सार्वजनिक परिव्यय (स्वास्थ्य पर व्यय) को जीडीपी के 2.5% तक बढ़ाने की आवश्यकता है।
- स्वास्थ्य क्षेत्र पर खर्च में राज्यों में भिन्नताएँ:
- आवश्यकता इस बात की है कि स्वास्थ्य क्षेत्र पर खर्च और उसके परिणाम संबंधी अंतर-राज्यीय भिन्नताओं की पहचान की जाए।
- उदाहरण के लिये मेघालय को छोड़कर, कई राज्य अपने बजट का 8% से कम स्वास्थ्य क्षेत्र पर खर्च कर रहे हैं। वर्ष 2018-19 में औसत 5.18% रहा है।
- बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड का प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य खर्च केरल और तमिलनाडु की तुलना में लगभग आधा है।
- आवश्यकता इस बात की है कि स्वास्थ्य क्षेत्र पर खर्च और उसके परिणाम संबंधी अंतर-राज्यीय भिन्नताओं की पहचान की जाए।
- विकास वित्तीय संस्थान:
- वित्त आयोग प्रमुख ने स्वास्थ्य क्षेत्र के लिये एक विकास वित्तीय संस्थान स्थापित करने का भी सुझाव दिया।
- विकास वित्तीय संस्थान विशेष रूप से विकासशील देशों में विकास/परियोजना वित्त प्रदान करने के लिये स्थापित विशेष संस्थान हैं। ये आमतौर पर राष्ट्रीय सरकारों के स्वामित्त्व वाले होते हैं।
- वित्त आयोग प्रमुख ने स्वास्थ्य क्षेत्र के लिये एक विकास वित्तीय संस्थान स्थापित करने का भी सुझाव दिया।
- CSS का पुनर्गठन:
- इसके अतिरिक्त, यह सुझाव दिया गया था कि केंद्र प्रायोजित योजनाओं (Centrally Sponsored Schemes-CSS) को पुनर्गठित किया जाना चाहिये ताकि राज्यों द्वारा अपनाए जाने और नवाचार के लिये उन्हें और अधिक लचीला बनाया जा सके।
भारत में स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र का परिदृश्य:
- परिचय:
- स्वास्थ्य सेवाओं में अस्पताल, चिकित्सा उपकरण, नैदानिक परीक्षण, आउटसोर्सिंग, टेलीमेडिसिन, चिकित्सा पर्यटन, स्वास्थ्य बीमा और चिकित्सा उपकरण शामिल हैं।
- भारत की स्वास्थ्य सेवा वितरण प्रणाली को दो प्रमुख घटकों में वर्गीकृत किया गया है - सार्वजनिक और निजी।
- सरकार (सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली) प्रमुख शहरों में सीमित माध्यमिक और तृतीयक देखभाल संस्थानों को शामिल करती है और ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल केंद्रों (Primary Healthcare Centres-PHC) के रूप में बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएँ प्रदान करने पर ध्यान केंद्रित करती है।
- निजी क्षेत्र, महानगरों या टियर-I और टियर-II शहरों में अधिकांश माध्यमिक, तृतीयक और चतुर्थक देखभाल संस्थान केंद्रित है।T
- भारतीय स्वास्थ्य क्षेत्र की क्षमता:
- भारत का प्रतिस्पर्धात्मक लाभ अच्छी तरह से प्रशिक्षित चिकित्सा पेशेवरों के अपने बड़े पूल में निहित है। भारत एशिया और पश्चिमी देशों में अपने साथियों की तुलना में लागत प्रतिस्पर्धी भी है। भारत में सर्जरी की लागत अमेरिका या पश्चिमी यूरोप की तुलना में लगभग दसवाँ हिस्सा है।
- इस क्षेत्र में तेज़ी से वृद्धि के लिये भारत के पास सभी आवश्यक सामग्री है, जिसमें एक बड़ी आबादी, एक मज़बूत फार्मा और चिकित्सा आपूर्ति शृंखला, 750 मिलियन से अधिक स्मार्टफोन उपयोगकर्त्ता तक आसान पहुँच के साथ विश्व स्तर पर तीसरा सबसे बड़ा स्टार्ट-अप पूल और वैश्विक स्वास्थ्य समस्याओं को हल करने के लिये नवीन तकनीकी उद्यमी शामिल हैं।
- देश में विकास और नवाचार को बढ़ावा देने हेतु चिकित्सा उपकरणों का तेज़ी से नैदानिक परीक्षण करने के लिये लगभग 50 क्लस्टर होंगे।
- जीवन प्रत्याशा, स्वास्थ्य समस्याओं के प्रभाव में बदलाव, वरीयताओं में बदलाव, बढ़ते मध्यम वर्ग, स्वास्थ्य बीमा में वृद्धि, चिकित्सा सहायता, बुनियादी ढाँचे के विकास और नीति समर्थन तथा प्रोत्साहन इस क्षेत्र को आगे बढ़ाएंँगे।
- वर्ष 2021 तक भारतीय स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र भारत के सबसे बड़े नियोक्ताओं में से एक है क्योंकि इसमें कुल 4.7 मिलियन लोग कार्यरत हैं। इस क्षेत्र ने वर्ष 2017-22 के बीच भारत में 2.7 मिलियन अतिरिक्त नौकरियाँ उत्पन्न की हैं (प्रति वर्ष 500,000 से अधिक नई नौकरियाँ)।
स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र से संबंधित पहल:
आगे की राह
- भारत की बड़ी आबादी के कारण बोझ से दबे सरकारी अस्पतालों के बुनियादी ढाँचे में सुधार की तत्काल आवश्यकता है।
- सरकार को निजी अस्पतालों को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है, क्योंकि इनका स्वास्थ्य क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान होता है।
- चूँकि कठिनाइयाँ गंभीर हैं और केवल सरकार द्वारा ही इसका समाधान नहीं किया जा सकता है, निजी क्षेत्र को भी इसमें शामिल होना चाहिये।
स्रोत: द हिंदू
CCUS पॉलिसी फ्रेमवर्क
प्रिलिम्स के लिये:CCUS प्रौद्योगिकी, पेरिस समझौता. मेन्स के लिये:CCUS प्रौद्योगिकी, अनुप्रयोग, 2050 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन , पर्यावरण क्षरण, संरक्षण। |
चर्चा में क्यों?
नीति आयोग ने “कार्बन संकलन, उपयोग और भंडारण (Carbon Capture, Utilisation, and Storage- CCUS) नीति के ढाँचे और भारत में इसके लागू करने की व्यवस्था” शीर्षक से एक अध्ययन रिपोर्ट जारी किया।
- इस रिपोर्ट में चुनौतीपूर्ण उद्योगों को कार्बनरहित बनाने के माध्यम से उत्सर्जन को कम करने के तरीके के रूप में कार्बन संकलन, उपयोग और भंडारण के महत्त्व के बारे में पता लगाया गया है।
रिपोर्ट के मुख्य बिंदु:
- परिचय:
- CCUS संकलित किये गए CO2 को विभिन्न मूल्य वर्धित उत्पादों जैसे कि ग्रीन यूरिया, खाद्य और निर्माण सामग्री, रसायन (मेथनॉल और इथेनॉल), पॉलीमर (जैव-प्लास्टिक सहित) और एनहांस्ड ऑयल रिकवरी में परिवर्तित करने के अवसरों की एक विस्तृत विविधता प्रदान कर सकता है, इस प्रकार यह भारत में व्यापक बाज़ार के अवसरों के साथ काफी योगदान देता है।
- CCUS परियोजनाओं से महत्त्वपूर्ण रोज़गार सृजन भी होगा। यह अनुमान है कि वर्ष 2050 तक लगभग 750 प्रतिवर्ष मिलियन टन कार्बन संकलन चरणबद्ध तरीके से पूर्णकालिक समतुल्य (full time equivalent - FTE) आधार पर लगभग 8-10 मिलियन रोज़गार के अवसर पैदा कर सकता है।
- सुझाव:
- इसके आवेदन के लिये विभिन्न क्षेत्रों में व्यापक स्तर के नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता है।
- जैसा कि भारत ने अपने NDC लक्ष्यों को अद्यतन करते हुए गैर-जीवाश्म-आधारित ऊर्जा स्रोतों से अपनी कुल स्थापित क्षमता का 50% प्राप्त करने तथा वर्ष 2030 तक उत्सर्जन तीव्रता में 45% की कमी और 2070 तक शुद्ध शून्य प्राप्त करने की दिशा में कदम उठाया है , इससे CCUS की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि कठिन क्षेत्रों से डीकार्बोनाइजेशन में कटौती करने के लिये रणनीति बनाना ज़रूरी है।
- जीवाश्म आधारित ऊर्जा संसाधनों पर भारत की निर्भरता भविष्य में जारी रहने की संभावना है, इसलिये भारतीय संदर्भ में CCUS नीति की आवश्यकता है।
कार्बन संकलन, उपयोग और भंडारण:
- कार्बन संकलन, उपयोग और भंडारण (CCUS) में फ्लू गैस (चिमनियों या पाइप से निकलने वाली गैसें) और वातावरण से CO2 को हटाने के तरीकों एवं प्रौद्योगिकियों को शामिल किया गया है। इसके बाद CO2 को उपयोग करने के लिये उसका पुनर्चक्रण तथा सुरक्षित और स्थायी भंडारण विकल्पों का निर्धारण किया जाता है।
- CO2 को CCUS का उपयोग करके ईंधन (मीथेन और मेथनॉल) निर्माण संबंधित सामग्री में परिवर्तित किया जाता है।
- संचय की गई गैस का उपयोग सीधे आग बुझाने वाले यंत्रों, फार्मा, खाद्य और पेय उद्योगों के साथ-साथ कृषि क्षेत्र में भी किया जाता है।
- CCUS प्रौद्योगिकियाँ नेट ज़ीरो लक्ष्यों को पूरा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं, जिसमें भारी उद्योगो से उत्सर्जित कार्बन से निपटने और वातावरण से कार्बन को हटाने से संबंधित कुछ समाधान शामिल हैं।
- CCUS को वर्ष 2030 तक देशों को अपने उत्सर्जन को आधा करने तथा वर्ष 2050 तक नेट ज़ीरो के लक्ष्य तक पहुँचने में मदद करने हेतु एक महत्त्वपूर्ण उपकरण माना जाता है।
- यह ग्लोबल वार्मिंग को 2°C (डिग्री सेल्सियस) तक सीमित रखने के लिये पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा करने हेतु महत्त्वपूर्ण है, साथ ही पूर्व-औद्योगिक स्तरों पर5 डिग्री सेल्सियस के लिये बेहतर भूमिका निभा सकती है।
CCUS के अनुप्रयोग:
- जलवायु परिवर्तन को कम करना: CO2 उत्सर्जन की दर को कम करने के लिये वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों और ऊर्जा कुशल प्रणालियों को अपनाने के बावजूद जलवायु परिवर्तन के हानिकारक प्रभावों को सीमित करने के लिये वातावरण में CO2 की संचयी मात्रा को कम करने की आवश्यकता है।
- कृषि: ग्रीनहाउस वातावरण में फसल उत्पादन को बढ़ावा देने के लिये पौधों और मिट्टी जैसे बायोजेनिक स्रोतों से CO2 का संचय किया जा सकता है।
- औद्योगिक उपयोग: पेरिस समझौते के लक्ष्यों के अनुकूल निर्माण सामग्री के लिये स्टील निर्माण प्रक्रिया का एक औद्योगिक उपोत्पाद (स्टील स्लैग के साथ CO2 का संयोजन)।
- बढ़ी हुई तेल रिकवरी: CCU प्रौद्योगिकी का उपयोग पहले से ही भारत में किया जा रहा है। उदाहरण के लिये ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉरपोरेशन ने CO2 को इंजेक्ट करके एन्हांस्ड ऑयल रिकवरी (EOR) हेतु इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन लिमिटेड (IOCL) के साथ एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये हैं।
CCUS से जुड़ी चुनौतियाँ:
- महँगा: कार्बन कैप्चर में सॉर्बेंट्स का विकास शामिल है जो प्रभावी रूप से ग्रिप गैस या वातावरण में मौजूद CO2 के संयोजन से हो सकता है, यह अपेक्षाकृत महँगी प्रक्रिया है।
- पुनर्नवीनीकृत CO2 की कम मांग: CO2 को व्यावसायिक महत्त्व के उपयोगी रसायनों में परिवर्तित करना या CO2 का उपयोग तेल निष्कर्षण या क्षारीय औद्योगिक कचरे के उपचार के लिये करना, इस ग्रीनहाउस गैस के मूल्य में वृद्धि कर देगा।
- CO2 की विशाल मात्रा की तुलना में मांग सीमित है, इसे वातावरण से हटाने की आवश्यकता है, ताकि जलवायु परिवर्तन के हानिकारक पर्यावरणीय प्रभावों को कम किया जा सके।
आगे की राह
- कार्बन के भंडारण के लिये कोई भी व्यवहार्य प्रणाली प्रभावी एवं लागत प्रतिस्पर्द्धी, दीर्घकालिक भंडारण के रूप में स्थिर एवं पर्यावरण के अनुकूल होनी चाहिये।
- देशों को उन चुनिंदा तकनीकों पर ज़ोर देना चाहिये, जो अधिक निवेश आकर्षित कर सकती हैं।
- कार्बन कैप्चर एंड यूटिलाइज़ेशन के माध्यम से उत्पादित मेथनॉल जैसे सिंथेटिक ईंधन के साथ पारंपरिक ईंधन को प्रतिस्थापित करना केवल तभी एक सफल शमन रणनीति होगी, जब CO2 को कैप्चर करने और इसे सिंथेटिक ईंधन में बदलने के लिये स्वच्छ ऊर्जा का उपयोग किया जाएगा।
स्रोत: द हिंदू
ग्रीन फंड जुटाना
प्रिलिम्स के लिये:जलवायु वित्त, COP27, जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) मेन्स के लिये:जलवायु वित्त और इसका महत्व |
हाल ही में शर्म अल-शेख (मिस्र) में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (United Nations Framework Convention on Climate Change Conference- UNFCCC) के COP27 में, देशों ने सहमति व्यक्त की कि जलवायु कार्रवाई के लिये संसाधनों को महत्त्वपूर्ण रूप से बढ़ाने हेतु अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली के पूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता है।
- वर्तमान में जलवायु कार्रवाई के लिये लगाया जा रहा धन अनुमानित आवश्यकताओं का मुश्किल से 1% -10% है।
जलवायु वित्त
- जलवायु वित्त से तात्पर्य स्थानीय, राष्ट्रीय, या अंतर्राष्ट्रीय वित्तपोषण से है जो सार्वजनिक, निजी और वैकल्पिक स्रोतों से संगृहित किया गया हो साथ ही जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने वाले एवं अनुकूलन संबंधी कार्यों का समर्थन करता है।
- UNFCCC, क्योटो प्रोटोकॉल और पेरिस समझौते के अंतर्गत अधिक वित्तीय संसाधनों वाले (विकसित देशों) से कमज़ोर देशों (विकासशील देश) को वित्तीय सहायता प्रदान करने का आह्वान किया।
- यह "सामान्य परंतु विभेदित उत्तरदायित्त्वों और संबंधित क्षमताओं" (Common but Differentiated Responsibility and Respective Capabilities (CBDR) के सिद्धांत के अनुसार है।
- CBDR, UNFCCC में निहित एक सिद्धांत है जो जलवायु परिवर्तन से निपटने में अलग-अलग देशों की भिन्न-भिन्न क्षमताओं और अलग-अलग ज़िम्मेदारियों को स्वीकार करता है। CBDR का सिद्धांत वर्ष 1992 में रियो डी जनेरियो, ब्राज़ील में आयोजित अर्थ समिट में निहित है।
जलवायु कार्रवाई हेतु आवश्यक वित्त:
- कम कार्बन वाली अर्थव्यवस्था की ओर वैश्विक परिवर्तन के लिये वर्ष 2050 तक प्रत्येक वर्ष लगभग 4-6 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता होगी।
- यदि शुद्ध-शून्य उत्सर्जन लक्ष्यों को हासिल करना है तो वर्ष 2030 तक नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र में सालाना लगभग 4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश करने की आवश्यकता होगी।
- वर्ष 2022-2030 के बीच विकासशील देशों की संचयी आवश्यकता, उनकी जलवायु कार्य योजनाओं को लागू करने के लिये लगभग 6 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर थी।
- इसका मतलब है कि वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (Gross Domestic Product- GDP) के कम से कम 5% को प्रत्येक वर्ष जलवायु कार्रवाई में निर्देशित करने की आवश्यकता होगी।
- कुछ साल पहले अनुमानित आवश्यकताएँ वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद के 1 और 1.5% के बीच थीं।
- विकसित देशों ने प्रतिवर्ष 100 अरब डॉलर जुटाने का वादा किया है जो व्यावहारिक रूप से अभी तक के धन का प्रतिनिधित्त्व करता है।
- यहाँ तक कि यह 100 अरब अमेरिकी डॉलर भी अभी तक पूरी तरह से वसूल नहीं हुआ है।
- विकसित देशों का कहना है कि वे वर्ष 2023 तक इस लक्ष्य तक पहुँच जाएंगे। फिलहाल प्रतिवर्ष करीब 50-80 अरब डॉलर का निवेश हो रहा है।
जलवायु निधि जुटाने में चुनौतियाँ:
- यहाँ तक कि यदि विकसित देश अपने योगदान में वृद्धि करते हैं तो इसके परिणामस्वरूप समग्र राशि में मामूली वृद्धि ही होगी।
- अधिक महत्त्वपूर्ण उछाल व्यवसायों और निगमों द्वारा हरित परियोजनाओं में धन निवेश से आएग
- जलवायु वित्त में अब तक निजी निवेश सार्वजनिक वित्त से कम रहा है।
- वर्तमान वित्तीय प्रवाह का मुश्किल से 30% निजी स्रोतों से आ रहा है।
- वैश्विक वित्तीय प्रणाली के मौजूदा नियम और विनियम बड़ी संख्या में देशों के लिये अंतर्राष्ट्रीय वित्त तक पहुँच को बेहद कठिन बना देते हैं, विशेष रूप से राजनीतिक अस्थिरता या कमज़ोर संस्थागत और शासन संरचनाओं वाले देशों के लिये।
- जलवायु वित्त द्विपक्षीय, क्षेत्रीय तथा बहुपक्षीय चक्रव्यूह प्रणाली के माध्यम से प्रवाहित होता है।
- यह अनुदान, रियायती ऋण, इक्विटी, कार्बन क्रेडिट इत्यादि के रूप में है।
- इस बात पर मतभेद हैं कि क्या कोई विशेष राशि वास्तव में जलवायु से संबंधित है। वर्तमान में जुटाए जा रहे जलवायु वित्त की मात्रा के व्यापक रूप से अलग-अलग आकलन हैं।
कर (Tax) जलवायु कोष के लिये एक स्रोत:
- जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिये अतिरिक्त वित्तीय संसाधनों का बड़ा हिस्सा करों के रूप में आम नागरिक की जेब से आएगा।
- पेट्रोल और डीजल तथा अन्य जीवाश्म ईंधन के उपयोग पर कर लगाया जा सकता है।
- भारत में कई वर्षों से कोयले के उत्पादन पर पहले से ही कर लगाया जा रहा है और यह सरकार के लिये मूल्यवान संसाधन रहा है जिसने इसका उपयोग मुख्य रूप से स्वच्छ प्रौद्योगिकियों में निवेश के लिये किया है।
- इस धनराशि का उपयोग स्वच्छ गंगा मिशन और कोविड-19 महामारी के दौरान भी किया गया है।
- कार्बन टैक्स के नए रूपों को व्यवसायों पर भी लगाए जाने की संभावना है।
- कई मामलों में ये देश के आम आदमी तक पहुँच जाएंगे।
जलवायु वित्त के लिये भारत की पहल:
- जलवायु परिवर्तन के लिये राष्ट्रीय अनुकूलन निधि (NAFCC):
- NAFCC की स्थापना 2015 में भारत के राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों के लिये जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन की लागत को पूरा करने के लिये की गई थी जो विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों के लिये संवेदनशील हैं।
- राष्ट्रीय स्वच्छ ऊर्जा कोष:
- फंड स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिये बनाया गया था और उद्योगों द्वारा कोयले के उपयोग पर प्रारंभिक कार्बन कर के माध्यम से वित्त पोषित किया गया था।
- यह एक अंतर-मंत्रालयी समूह द्वारा शासित होता है जिसके अध्यक्ष वित्त सचिव होते हैं।
- इसका अधिदेश जीवाश्म और गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित क्षेत्रों में स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकी के अनुसंधान और विकास को निधि देना है।
- राष्ट्रीय अनुकूलन निधि:
- इस कोष की स्थापना 2014 में 100 करोड़ रुपये के कोष के साथ की गई थी, जिसका उद्देश्य आवश्यकता और उपलब्ध धन के बीच के अंतर को पाटना था।
- यह फंड पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEF&CC) के तहत है।
आगे की राह:
- इसके अलावा, नए वित्त जुटाने के लिये एक राजनीतिक प्रतिबद्धता बनाए रखने की आवश्यकता है,
- यह सुनिश्चित करना कि प्रदान किया गया वित्त इस उत्सर्जन और भेद्यता को कम करने के लिये पर्याप्त है।
- हाल के अनुभवों से सीखना और सुधार करना, खासकर ये देखना की ग्रीन क्लाइमेट फंड कैसे काम करता है।
- अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान हरित परियोजनाओं में निवेश के लिये सही वातावरण बनाने के लिये राष्ट्रीय या क्षेत्रीय स्तर पर काम करने वाली सरकारों, केंद्रीय बैंकों, वाणिज्यिक बैंकों और अन्य वित्तीय खिलाड़ियों के साथ जुड़ सकते हैं।
- जलवायु के अनुकूल निवेश को प्रोत्साहित करना और खराब निवेश को हतोत्साहित करना, यहाँ तक कि दंडित करने का भी अभ्यास किया जाना चाहिये।
- फंडिंग परिवर्तन में प्रथाओं का सरलीकरण, निवेश के लिये जोखिमों का आकलन करने के तरीके में बदलाव और क्रेडिट रेटिंग को भी शामिल करता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)प्रश्न. ‘मीथेन हाइड्रेट’ के निक्षेपों के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन-से सही हैं?
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (d) व्याख्या:
अतः विकल्प (d) सही है। प्रश्न: नवंबर, 2021 में ग्लासगो में विश्व के नेताओं के शिखर सम्मेलन में COP26 संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में, आरंभ की गई हरित ग्रिड पहल का प्रयोजन स्पष्ट कीजिये। अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) में यह विचार पहली बार कब दिया गया था? (मुख्य परीक्षा, 2021) प्रश्न: संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन (UNFCCC) के COP के 26वें सत्र के प्रमुख परिणामों का वर्णन कीजिये। इस सम्मेलन में भारत द्वारा की गई प्रतिबद्धताएं क्या हैं? (मुख्य परीक्षा, 2021) |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
भारत और शरणार्थी नीति
प्रिलिम्स के लिये:भारत में शरणार्थी, वर्ष 1951 का शरणार्थी सम्मेलन, विदेशी अधिनियम, 1946, नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 (CAA), रोहिंग्या शरणार्थी, शरणार्थियों के लिये संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त मेन्स के लिये:भारत में शरणार्थियों की स्थिति, शरणार्थियों से संबंधित भारत में वर्तमान विधायी ढाँचा, भारत में शरणार्थियों द्वारा सामना की जाने वाली चुनौतियाँ |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में बांग्लादेश में चटगाँव के पहाड़ी पथ क्षेत्र से कई कुकी-चिन शरणार्थी बांग्लादेश सुरक्षा बलों के हमले के डर से मिज़ोरम में प्रवेश कर गए।
- मिज़ोरम सरकार ने चिन-कुकी-मिज़ो समुदायों से संबंधित शरणार्थियों के प्रति सहानुभूति व्यक्त की है और राज्य सरकार की सुविधा के अनुसार अस्थायी आश्रय, भोजन और अन्य राहत देने का संकल्प लिया।
शरणार्थियों की घुसपैठ का कारण?
- चटगाँव का पहाड़ी पथ क्षेत्र एक कम उपजाऊ पहाड़ी, वन क्षेत्र है जो दक्षिण-पूर्वी बांग्लादेश के खागड़ाछड़ी, रंगमती और बंदरबन ज़िलों के 13,000 वर्ग किमी. से अधिक में फैला हुआ है, जो पूर्व में मिज़ोरम, उत्तर में त्रिपुरा और दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्व में म्याँमार की सीमा से लगा हुआ है।
- आबादी का एक बड़ा हिस्सा आदिवासी है और सांस्कृतिक और जातीय रूप से बहुसंख्यक मुस्लिम बांग्लादेशियों से अलग है जो देश के डेल्टा मुख्य भूमि में रहते हैं।
- CHT की जनजातीय आबादी का भारत के निकटवर्ती क्षेत्रों में मुख्य रूप से मिज़ोरम में जनजातीय आबादी के साथ जातीय संबंध हैं।
- मिज़ोरम बांग्लादेश के साथ 318 किलोमीटर लंबी सीमा साझा करता है।
- मिज़ोरम पहले से ही लगभग 30,000 शरणार्थियों का आश्रयदाता है जो जुलाई-अगस्त 2021 के बाद से ही म्याँमार के चिन राज्य में हो रहे लड़ाई से भागे फिर रहे हैं।
भारत में शरणार्थियों की रक्षा कैसे की जाती है?
- भारत यह सुनिश्चित करता है कि शरणार्थी साथी भारतीय लोगों के समान सुरक्षा सेवाओं तक पहुँच प्राप्त कर सकेंं।
- सरकार द्वारा सीधे पंजीकृत श्रीलंका के शरणार्थियों के लिये आर्थिक और वित्तीय समावेशन को सक्षम करने के लिये आधार कार्ड और पैन कार्ड की भी सुविधा दी गई है।
- उन्हें राष्ट्रीय कल्याण योजनाओं का भी लाभ मिल सकता है और वे भारतीय अर्थव्यवस्था में प्रभावी ढंग से योगदान कर सकते हैं।
- हालाँकि UNHCR के साथ पंजीकृत लोगों के लिये जैसे कि अफगानिस्तान, म्याँमार और अन्य देशों के शरणार्थी, जबकि उनके पास सुरक्षा एवं सीमित सहायता सेवाओं तक पहुँच है, उनके पास सरकार द्वारा जारी दस्तावेज़ नहीं हैं।
- इस प्रकार, वे बैंक खाते खोलने में असमर्थ हैं और सभी सरकारी कल्याणकारी योजनाओं से लाभ प्राप्त नहीं करते हैं और इस प्रकार अनजाने में पीछे रह जाते हैं।
भारत की शरणार्थी नीति
- भारत में शरणार्थियों की समस्या के समाधान के लिये विशिष्ट कानून का अभाव है, इसके बावजूद उनकी संख्या में लगातार वृद्धि हुई है।
- इसके वर्ष 1951 के शरणार्थी सम्मेलन और वर्ष 1967 के प्रोटोकॉल के पक्ष में नहीं होने के बावजूद भारत में शरणार्थियों की बहुत बड़ी संख्या निवास करती है।
- हालाँकि शरणार्थी संरक्षण के मुद्दे पर भारत का शानदार रिकॉर्ड रहा है। भारत में विदेशी लोगों और संस्कृति को आत्मसात करने की एक नैतिक परंपरा है।
- विदेशी अधिनियम, 1946 शरणार्थियों से संबंधित समस्याओं का समाधान करने में विफल रहता है।
- यह केंद्र सरकार को किसी भी विदेशी नागरिक को निर्वासित करने के लिये अपार शक्ति भी देता है।
- इसके अलावा भारत का संविधान मनुष्यों के जीवन, स्वतंत्रता और गरिमा का भी सम्मान करता है।
- राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग बनाम स्टेट ऑफ अरुणाचल प्रदेश (1996) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि "सभी अधिकार नागरिकों के लिये उपलब्ध हैं, जबकि विदेशी नागरिकों सहित सभी व्यक्तियों को समानता का अधिकार और जीवन का अधिकार उपलब्ध है।"
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद- 21 में शरणार्थियों को उनके मूल देश में वापस नहीं भेजे जाने यानी ‘नॉन-रिफाउलमेंट’ (Non-Refoulement) का अधिकार शामिल है।
- नॉन-रिफाउलमेंट, अंतर्राष्ट्रीय कानून के अंतर्गत एक सिद्धांत है, जिसके अनुसार अपने देश से उत्पीड़न के कारण भागने वाले व्यक्ति को उसी देश में वापस जाने के लिये मजबूर नहीं किया जाना चाहिये।
भारत में शरणार्थियों की स्थिति:
- स्वतंत्रता के बाद से भारत ने पड़ोसी देशों के शरणार्थियों के विभिन्न समूहों को स्वीकार किया है, जिनमें शामिल हैं:
- 1947 के विभाजन से पाकिस्तान से शरणार्थी।
- वर्ष 1959 में तिब्बती शरणार्थी।
- वर्ष 1960 के दशक की शुरुआत वर्तमान बांग्लादेश से चकमा और हाजोंग
- वर्ष 1965 और 1971 में अन्य बांग्लादेशी शरणार्थी।
- वर्ष 1980 के दशक में श्रीलंकाई तमिल शरणार्थी।
- हाल ही में म्याँमार के रोहिंग्या शरणार्थी, 2022।
भारत में अभी तक शरणार्थियों पर कानून नहीं:
- शरणार्थी बनाम अप्रवासी: हाल के दिनों में पड़ोसी देशों के कई लोग अवैध रूप से भारत में प्रवास करते रहे हैं और उत्पीड़न के कारण नहीं बल्कि भारत में बेहतर आर्थिक अवसरों की तलाश में करते हैं।
- जबकि वास्तविकता यह है कि देश में अधिकांश बहस अवैध प्रवासियों के बारे में है, शरणार्थियों के बारे में नहीं, तथा दोनों एक साथ जुड़ जाती हैं।
- विकल्पों का खुला दायरा: कानून की अनुपस्थिति ने भारत को शरणार्थियों के सवाल पर अपने विकल्प खुले रखने की अनुमति दी है। सरकार शरणार्थियों के किसी भी समूह को अवैध अप्रवासी घोषित कर सकती है।
- यह वह मामला था जो रोहिंग्या के साथ हुआ है (वे राज्यविहीन, इंडो-आर्यन जातीय समूह हैं जो म्यांँमार के रखाइन राज्य में रहते हैं), UNHCR सत्यापन के बावजूद, सरकार ने उन्हें विदेशी अधिनियम या भारतीय पासपोर्ट अधिनियम के तहत सरकार ने उनसे अत्याचारियों के रूप में निपटने का फैसला किया है।
शरणार्थियों को संभालने के लिये वर्तमान विधायी ढाँचा:
- विदेशी अधिनियम 1946: धारा 3 के तहत, केंद्र सरकार को अवैध विदेशी नागरिकों का पता लगाने, हिरासत में लेने और निर्वासित करने का अधिकार है।
- पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम, 1920: धारा 5 के तहत, अधिकारी भारत के संविधान के अनुच्छेद 258 (1) के तहत बलपूर्वक एक अवैध विदेशी को हटा सकते हैं।
- 1939 का विदेशी नागरिक पंजीकरण अधिनियम: इसके तहत, एक अनिवार्य आवश्यकता है जिसके तहत दीर्घकालिक वीजा (180 दिनों से अधिक) पर भारत आने वाले सभी विदेशी नागरिकों (भारत के विदेशी नागरिकों को छोड़कर) को भारत आने के 14 दिनों के भीतर पंजीकरण अधिकारी के साथ खुद को पंजीकृत करना आवश्यक है।
- नागरिकता अधिनियम, 1955: इसने त्याग, समाप्ति और नागरिकता से वंचित करने के प्रावधान प्रदान किए।
- इसके अलावा, नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 (CAA) केवल बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में सताए गए हिंदू, ईसाई, जैन, पारसी, सिख और बौद्ध प्रवासियों को नागरिकता प्रदान करना चाहता है।
शरणार्थियों और प्रवासियों के बीच अंतर
- शरणार्थी (Refugees) अपने मूल देश से बाहर रहने को विवश ऐसे लोग हैं जो अपने मूल देश में उत्पीड़न, सशस्त्र संघर्ष, हिंसा या गंभीर सार्वजनिक अव्यवस्था के परिणामस्वरूप जीवन, शारीरिक अखंडता या स्वतंत्रता पर गंभीर खतरे का सामना करते हैं और अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा की आवश्यकता महसूस करते हैं।
- प्रवासी (Migrants) वे लोग होते हैं जो कार्य या अध्ययन करने के लिये अथवा विदेशों में रह रहे अपने परिवार से जुड़ने के लिये अपना मूल देश छोड़ देते हैं।
- किसी व्यक्ति के ‘शरणार्थी’ के रूप में चिह्नित होने के लिये सुपरिभाषित और विशिष्ट आधार सुनिश्चित किये गए हैं जिनकी पुष्टि करनी होती है।
- प्रवासी की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत कोई कानूनी परिभाषा नहीं है।
आगे की राह
- शरण और शरणार्थियों पर मॉडल कानून जो दशकों पहले राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) द्वारा तैयार किये गए थे लेकिन सरकार द्वारा लागू नहीं किये गए थे, उन्हें एक विशेषज्ञ समिति द्वारा संशोधित किया जा सकता है।
- यदि इस तरह के कानून बनाए जाते हैं तो यह मानवाधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए कानूनी पवित्रता और एकरूपता प्रदान करेगा।
- यदि भारत में शरणार्थियों के संबंध में घरेलू कानून होता तो यह पड़ोस में किसी भी दमनकारी सरकार को उनकी आबादी को सताने और उन्हें भारत की तरफ भागने से रोक सकता था।
- हमारे संविधान में निहित मौलिक कर्तव्य के अनुरूप अधिकारियों या स्थानीय निवासियों द्वारा हिंसा और उत्पीड़न से महिलाओं तथा बाल शरणार्थियों की सुरक्षा।
- अनुच्छेद 51A (e) प्रत्येक नागरिक को महिलाओं की गरिमा के लिये अपमानजनक प्रथाओं का त्याग करने का आदेश देता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्षों के प्रश्न (PYQs)प्रश्न. निम्नलिखित युग्मों पर विचार कीजिये: (2016)
उपर्युक्त युग्मों में से कौन-सा/से सही सुमेलित है/हैं: (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (c) प्रश्न. भारत की सुरक्षा को गैर-कानूनी सीमापार प्रवसन किस प्रकार एक खतरा प्रस्तुत करता है? इसे बढ़ावा देने के कारणों को उजागर करते हुए ऐसे प्रवसन को रोकने की रणनीतियों का वर्णन कीजिये। (मेन्स-2014) |