CBI के नियमित अन्वेषण के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय की चेतावनी
प्रारंभिक परीक्षा के लिये:उच्च न्यायालय (HC), सर्वोच्च न्यायालय, केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI), दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना (DSPE) अधिनियम, भ्रष्टाचार निवारण पर संथानम समिति, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम मुख्य परीक्षा के लिये:CBI से संबंधित मुद्दे और सिफारिशें, संघ और राज्यों के बीच शक्तियों के विभाजन से संबंधित मुद्दे और राज्यों में केंद्रीय एजेंसियों का उपयोग |
स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य पुलिस के अंतर्गत चल रही जाँच को CBI को हस्तांतरित करने के लिये पर्याप्त तर्क न देने हेतु कलकत्ता उच्च न्यायालय की आलोचना की है तथा इस बात पर बल दिया है कि ऐसे निर्णय नियमित न होकर विशिष्ट, बाध्यकारी कारणों पर आधारित होने चाहिये।
राज्य में CBI के उपयोग के संबंध में क्या नियम हैं?
- पृष्ठभूमि: हाल ही में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने गोरखालैंड प्रादेशिक प्रशासन (GTA) क्षेत्र से संबंधित भर्ती में कथित अनियमितताओं के संदर्भ में CBI जाँच के आदेश दिये, जिसे पश्चिम बंगाल सरकार ने चुनौती दी थी।
- सर्वोच्च न्यायालय का आदेश: सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ कारणों के आधार पर इस मामले के संदर्भ में CBI जाँच से संबंधित कलकत्ता उच्च न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया।
- असाधारण परिस्थितियाँ: CBI जाँच का आदेश केवल असाधारण परिस्थितियों में ही दिया जाना चाहिये, जहाँ स्पष्ट साक्ष्य हों कि राज्य पुलिस निष्पक्ष जाँच नहीं कर सकती है।
- न्यायिक संयम: न्यायालय ने न्यायिक संयम के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहा कि उच्च न्यायालयों को CBI को जाँच हस्तांतरित करने के लिये स्पष्ट कारण बताने चाहिये।
- CBI के उपयोग के संबंध में संबंधित निर्णय:
- CBI बनाम राजेश गांधी केस, 1997: सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि मामले CBI को तभी सौंपे जाने चाहिये जब स्थानीय पुलिस की जाँच असंतोषजनक हो।
- इसके अलावा आरोपी यह निर्णय नहीं ले सकता कि एजेंसी मामले की जाँच करेगी या नहीं।
- विनीत नारायण बनाम भारत संघ मामला, 1997: सर्वोच्च न्यायालय ने भ्रष्टाचार और CBI की जवाबदेही पर फैसला सुनाया। इसे जैन हवाला कांड मामला भी कहा जाता है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार द्वारा जारी वर्ष 1969 के "सिंगल डायरेक्टिव" को अमान्य कर दिया, जिसमें CBI द्वारा मामला शुरू करने और दर्ज करने की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया था।
- न्यायालय के फैसले से जाँच एजेंसियों की स्वतंत्रता मज़बूत हुई तथा सुनिश्चित हुआ कि वे राजनीतिक हस्तक्षेप के बिना कार्य कर सकें इसके साथ ही उच्च-स्तरीय भ्रष्टाचार मामलों से निपटने में जवाबदेही और पारदर्शिता के लिये दिशानिर्देश दिये गए।
- CBI बनाम डॉ. आरआर किशोर मामला, 2023: सर्वोच्च न्यायालय ने घोषित किया कि DSPE अधिनियम की धारा 6A, वर्ष 2003 में शामिल किये जाने की तारीख से असंवैधानिक और शून्य है।
- यह निर्णय किसी विधि को असंवैधानिक घोषित करने के पूर्वव्यापी प्रभाव से संबंधित है।
- CPIO CBI बनाम संजीव चतुर्वेदी केस, 2024: दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि CBI को सूचना का अधिकार (RTI) अधिनियम की धारा 24 से पूरी तरह छूट प्राप्त नहीं है।
- न्यायालय ने कहा कि CBI को "संवेदनशील जाँच" को छोड़कर भ्रष्टाचार और मानवाधिकार उल्लंघन से संबंधित जानकारी के बारे में बताना होगा।
- CBI बनाम राजेश गांधी केस, 1997: सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि मामले CBI को तभी सौंपे जाने चाहिये जब स्थानीय पुलिस की जाँच असंतोषजनक हो।
भारत में केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) किस प्रकार कार्य करता है?
- परिचय:
- CBI की स्थापना गृह मंत्रालय के एक संकल्प द्वारा की गई थी और बाद में इसे कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय में स्थानांतरित कर दिया गया, जो वर्तमान में एक संलग्न कार्यालय के रूप में कार्य कर रहा है।
- इसकी स्थापना की सिफारिश भ्रष्टाचार निवारण पर गठित संथानम समिति ने की थी।
- CBI, दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना (DSPE ) अधिनियम, 1946 के तहत कार्य करता है।
- यह न तो संवैधानिक और न ही वैधानिक निकाय है।
- यह रिश्वतखोरी, सरकारी भ्रष्टाचार, केंद्रीय कानूनों के उल्लंघन, बहु-राज्य संगठित अपराध और बहु-एजेंसी या अंतर्राष्ट्रीय मामलों से संबंधित मामलों की जाँच करता है।
- CBI के निदेशक की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा तीन सदस्यीय समिति की सिफारिशों पर की जाती है जिसमें प्रधानमंत्री (अध्यक्ष), लोकसभा में विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) या CJI द्वारा नामित सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश शामिल होते हैं।
- CBI की कार्यप्रणाली:
- पूर्व अनुमति का प्रावधान: CBI को केंद्र सरकार और उसके अधिकारियों में संयुक्त सचिव एवं उससे ऊपर के रैंक के अधिकारियों द्वारा किये गए किसी अपराध का परीक्षण या जाँच करने से पहले केंद्र सरकार की पूर्व स्वीकृति प्राप्त करने की आवश्यकता होती है।
- हालाँकि वर्ष 2014 के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से इस आवश्यकता को अवैध घोषित कर दिया गया, जिसमें कहा गया कि DSPE अधिनियम की धारा 6A (जो इन अधिकारियों को भ्रष्टाचार के मामलों में प्रारंभिक जाँच से बचाती है) अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है।
- पूर्व अनुमति का प्रावधान: CBI को केंद्र सरकार और उसके अधिकारियों में संयुक्त सचिव एवं उससे ऊपर के रैंक के अधिकारियों द्वारा किये गए किसी अपराध का परीक्षण या जाँच करने से पहले केंद्र सरकार की पूर्व स्वीकृति प्राप्त करने की आवश्यकता होती है।
- सहमति सिद्धांत: CBI के लिये राज्य सरकार की सहमति विशिष्ट या "सामान्य" मामले में हो सकती है।
- जब कोई राज्य, संबंधित अधिनियम की धारा 6 के तहत सामान्य सहमति प्रदान करता है तो CBI को राज्य में जाँच के क्रम में हर बार नई मंजूरी लेने की आवश्यकता नहीं होती है।
- हालाँकि यदि सामान्य सहमति रद्द कर दी जाती है तो CBI को प्रत्येक जाँच के लिये संबंधित राज्य सरकार से विशिष्ट सहमति प्राप्त करने की आवश्यकता होती है।
- विशिष्ट सहमति के बिना CBI अधिकारियों को उस राज्य में कार्य करते समय पुलिस कर्मियों के समान शक्तियाँ प्राप्त नहीं होतीं हैं।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: Q. केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) हाल के दिनों में विश्वसनीयता और विश्वास के संकट का सामना क्यों कर रहा है? इस संकट के कारणों एवं परिणामों का विश्लेषण करते हुए CBI के प्रति लोगों के विश्वास और प्रतिष्ठा को बढ़ाने हेतु उपाय बताइये। |
और पढ़ें: केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. भारतीय न्यायपालिका के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (c) प्रश्न: निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)
उपर्युक्त में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (b) मेन्सप्रश्न. एक राज्य-विशेष के अंदर प्रथम सूचना रिपोर्ट दायर करने तथा जाँच करने के केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सी. बी. आई.) के क्षेत्राधिकार पर कई राज्य प्रश्न उठा रहे हैं। हालाँकि सी. बी. आई. जाँच के लिये राज्यों द्वारा दी गई सहमति को रोके रखने की शक्ति आत्यंतिक नहीं है। भारत के संघीय ढाँचे के विशेष संदर्भ में विवेचना कीजिये। (2021) |
ज़मानत संबंधी प्रावधानों में सुधार
प्रारंभिक परीक्षा के लिये:सर्वोच्च न्यायालय, धन शोधन निवारण अधिनियम (PMLA), 2002, निवारक निरोध कानून, अनुच्छेद 21, संवैधानिक न्यायालय, ज़मानत, केए नजीब केस, कैश बॉण्ड, ज़मानत बॉण्ड। मुख्य परीक्षा के लिये:भारत में ज़मानत प्रावधानों से संबंधित चुनौतियाँ और आवश्यक सुधार। |
स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने किसी अभियुक्त के कारावास को अधिक विस्तारित करने के क्रम में धन शोधन निवारण अधिनियम (PMLA), 2002 को “एक उपकरण के रूप में” उपयोग किये जाने पर चिंता जताई है।
- न्यायालय ने फैसला सुनाया कि संवैधानिक न्यायालय धन शोधन विरोधी कानून के तहत अनिश्चितकालीन पूर्व-परीक्षण निरोध की अनुमति नहीं देंगे।
PMLA और ज़मानत पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के मुख्य बिंदु क्या हैं?
- मनमानी हिरासत नहीं: प्रथम दृष्टया आरोपी के विरुद्ध मामला होने पर भी न्यायालय मुकदमे की स्पष्ट समयसीमा के अभाव में लंबे समय तक हिरासत में रखे जाने के कारण कैदी की रिहाई के पक्ष में फैसला दे सकता है।
- PMLA, 2002 के कड़े प्रावधानों (विशेषकर धारा 45) को आधार बनाकर अभियुक्तों को मनमाने ढंग से हिरासत में नहीं लिया जाना चाहिये।
- PMLA, 2002 की धारा 45 के अनुसार धन शोधन मामले में किसी आरोपी को ज़मानत तभी दी जा सकती है जब दो शर्तें पूरी हों।
- व्यक्ति को न्यायालय में यह साबित करना होगा कि वह प्रथम दृष्टया निर्दोष है।
- अभियुक्त को न्यायाधीश को यह विश्वास दिलाना होगा कि वह ज़मानत पर रहते हुए कोई अपराध नहीं करेगा।
- ज़मानत सिद्धांतों की पुष्टि: न्यायालय ने इस सिद्धांत की पुष्टि की कि भारत के आपराधिक न्यायशास्त्र में " ज़मानत नियम है और जेल अपवाद है"।
- इसमें इस बात पर ध्यान दिया गया कि PMLA के तहत ज़मानत की उच्च सीमा से अभियुक्त की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अनिश्चित काल तक असर नहीं पड़ना चाहिये।
- विलंबित ट्रायल पर न्यायिक चिंताएँ: इस निर्णय के तहत PMLA, 2002 या UAPA, 1967 एवं स्वापक औषधि और मनः प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 (NDPS) जैसे विशेष कानूनों के तहत विलंबित ट्रायल और कठोर ज़मानत प्रावधानों के अंतर्संबंध पर प्रकाश डाला गया।
- इसमें कहा गया कि मुकदमों का शीघ्र निपटारा आवश्यक है और इसे इन कानूनों की व्याख्या में शामिल किया जाना चाहिये।
- ज़मानत देने का न्यायिक अधिकार: सर्वोच्च न्यायालय ने दोहराया कि कठोर ज़मानत प्रावधान संवैधानिक न्यायालयों को ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करने से नहीं रोकते जहाँ सुनवाई में अत्यधिक देरी हो रही हो।
- सर्वोच्च न्यायालय ने केए नजीब मामले में अपने वर्ष 2021 के फैसले का हवाला दिया, जिसमें UAPA मामलों में ज़मानत के आधार के रूप में ट्रायल में अत्यधिक देरी पर प्रकाश डाला गया था।
- मौलिक अधिकारों पर प्रभाव: मुकदमों में अत्यधिक देरी से संविधान के अनुच्छेद 21 (जिससे जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी मिलती है) के तहत व्यक्तियों को प्राप्त मूल अधिकारों का उल्लंघन हो सकता है।
- बिना सुनवाई के लंबे समय तक कारावास में रखने से व्यक्तियों की स्वतंत्रता का हनन हो सकता है, उदाहरण के लिये ऐसे मामले जिनमें व्यक्तियों को वर्षों तक हिरासत में रखने के बाद उन्हें बरी कर दिया जाता है।
- मुआवजे के लिये संभावित दावे: सर्वोच्च न्यायालय ने सुझाव दिया कि गलत तरीके से कारावास में रहने वाले व्यक्तियों को अनुच्छेद 21 के तहत अपने अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर मुआवजे का हक मिल सकता है।
भारत की ज़मानत प्रणाली के संबंध में कौन सी चिंताएँ हैं?
- विचाराधीन कैदियों का उच्च अनुपात: भारत के कारागारों में बंद 75% से अधिक कैदी विचाराधीन हैं तथा कारागारों में क्षमता से अधिक कैदी हैं।
- यह स्थिति ज़मानत प्रणाली में प्रणालीगत अकुशलता को दर्शाती है जिसमें तत्काल सुधार की आवश्यकता है।
- भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम CBI, 2022 मामले में विचाराधीन कैदियों से संबंधित मुद्दे को पहचानने और ज़मानत देने में देश की ज़मानत प्रणाली की विफलता को स्वीकार किया।
- 'निर्दोषता की धारणा' के सिद्धांत का कमज़ोर होना: कारागारों में विचाराधीन कैदियों की अधिकता से 'निर्दोषता की धारणा' का सिद्धांत कमज़ोर होता है।
- निर्दोषता की धारणा के अनुसार किसी व्यक्ति को तब तक निर्दोष माना जाएगा जब तक कि उसे कानून के अनुसार दोषी साबित न कर दिया जाए।
- अनुभवजन्य साक्ष्य का अभाव: विचाराधीन कैदियों की जनसांख्यिकी, अपराधों की श्रेणी और ज़मानत के लिये समयसीमा, ज़मानत के लिये आवेदन करने वाले विचाराधीन कैदियों का अनुपात, ज़मानत आवेदनों की स्वीकृति या अस्वीकृति दर तथा ज़मानत अनुपालन में चुनौतियों के संबंध में जानकारी व्यापक रूप से उपलब्ध नहीं है।
- सुरक्षा उपायों का अभाव: किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी को ऐसी परिस्थिति में 'आवश्यक' माना जाता है यदि पुलिस के पास यह 'विश्वास करने का वैध कारण' हो कि न्यायालय में उसकी उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिये गिरफ्तारी आवश्यक है।
- अनेक गिरफ्तार व्यक्ति (विशेषकर समाज के वंचित वर्ग) असुरक्षित रहते हैं।
- ज़मानत संबंधी निर्णय में चुनौतियाँ: ज़मानत देने की शक्ति काफी हद तक न्यायालय के विवेक पर आधारित है और प्रत्येक मामले के तथ्यों पर निर्भर करती है।
- अपराध की गंभीरता, अभियुक्त के चरित्र और अभियुक्त के फरार होने या साक्ष्यों से छेड़छाड़ करने की संभावना के आधार पर ज़मानत देने से मना किया जाता है।
- ज़मानत अनुपालन में चुनौतियाँ: ज़मानत शर्तों का अनुपालन करने में चुनौतियों के कारण ज़मानत मिलने के बावजूद बड़ी संख्या में विचाराधीन कैदी कारागारों में ही रह रहे हैं।
- नकद बॉण्ड, ज़मानत बॉण्ड, संपत्ति के स्वामित्व और शोधन क्षमता को प्रमाण के रूप में माने जाने से ज़मानत की शर्तें निर्धनों की रिहाई सुनिश्चित करना जटिल बना देती हैं।
- दोषपूर्ण धारणाएँ: ज़मानत प्रणाली में ऐसी दोषपूर्ण धारणाएँ निहित हैं कि प्रत्येक गिरफ्तार व्यक्ति के पास संपत्ति होगी या उसके संपत्ति वाले लोगों से सामाजिक संबंध होंगे।
- इसमें यह माना गया है कि अभियुक्त की न्यायालय में उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिये वित्तीय हानि का जोखिम सुनिश्चित करना आवश्यक है।
ज़मानत प्रणाली के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के क्या फैसले हैं?
- बाबू सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामला, 1978: सामान्यतः ज़मानत तब तक नहीं दी जानी चाहिये जब तक यह संभावना हो कि अभियुक्त फरार हो जाएगा या साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ करेगा।
- राजस्थान राज्य बनाम बालचंद केस, 1978: सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि ज़मानत नियम है और जेल अपवाद है।
- किसी व्यक्ति को हिरासत में लेने से उसके जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार पर प्रभाव पड़ता है और हिरासत का मुख्य उद्देश्य अभियुक्त को बिना किसी असुविधा के मुकदमे की प्रक्रिया को पूरा करना है।
- परवेज़ नूरदीन लोखंडवाला बनाम महाराष्ट्र राज्य मामला, 2020: इसमें कहा गया कि ज़मानत की शर्तें इच्छित उद्देश्य की तुलना में अत्यधिक नहीं होनी चाहिये।
- सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम CBI मामला, 2022: न्यायालयों को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि सख्त ज़मानत शर्तों से अभियुक्त असंगत रूप से प्रभावित न हों।
आगे की राह
- ज़मानत की शर्तों का सरलीकरण: ज़मानत की शर्तों का पुनर्मूल्यांकन और सरलीकरण किया जाना चाहिये ताकि उन्हें अधिक सुलभ (विशेष रूप से आर्थिक रूप से वंचित पृष्ठभूमि के व्यक्तियों के लिये) बनाया जा सके।
- उदाहरण के लिये नकदी और ज़मानत बॉण्ड के विकल्प के रूप में सामुदायिक सेवा को आधार बनाना।
- मनमाने ढंग से की जाने वाली गिरफ्तारी के विरुद्ध सुरक्षा उपाय: मनमाने ढंग से की जाने वाली गिरफ्तारी के विरुद्ध सुरक्षा (विशेष रूप से कमज़ोर वर्गों के लिये) हेतु सख्त दिशा-निर्देश एवं सुरक्षा उपाय लागू किये जाने चाहिये।
- पुलिस द्वारा गिरफ्तारी के लिये स्पष्ट औचित्य बताना चाहिये।
- समुदाय-आधारित पर्यवेक्षण कार्यक्रम: कारावास के विकल्प के रूप में समुदाय-आधारित पर्यवेक्षण कार्यक्रम विकसित करने चाहिये।
- इन कार्यक्रमों में केवल ज़मानत पर निर्भर रहने के बजाय, स्थानीय संगठनों या सामाजिक कार्यकर्त्ताओं के माध्यम से विचाराधीन कैदियों की निगरानी किया जाना, शामिल हो सकता है।
- छोटे अपराधियों के लिये विकल्प: मुकदमे की प्रतीक्षा कर रहे छोटे अपराधियों को सुधारगृहों में रहने का आदेश दिया जा सकता है, जहाँ वे स्वयंसेवी कार्य जैसे उपयोगी श्रम में संलग्न हो सकते हैं।
- शीघ्र सुनवाई: न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) अमिताव रॉय की अध्यक्षता वाली जेल सुधार पर सर्वोच्च न्यायालय की समिति ने इस बात पर बल दिया कि जेलों में भीड़भाड़ की समस्या से निपटने के लिये त्वरित सुनवाई एक प्रभावी साधन हो सकती है।
- पर्याप्त बुनियादी ढाँचा: विधि एवं न्याय मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट “ बेहतर बुनियादी ढाँचे के माध्यम से न्याय प्रदान करने का मूल्यांकन करने संबंधी अनुभवजन्य अध्ययन” में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि न्यायालय कक्षों में वृद्धि, फर्नीचर की उपलब्धता, डिजिटल बुनियादी ढाँचे और कुशल जनशक्ति से विचाराधीन कैदियों की संख्या में कमी आ सकती है।
- स्पष्ट कानूनी प्रावधान: स्पष्ट रूप से परिभाषित कानून से व्यक्तियों को अधिकारों एवं ज़िम्मेदारियों को समझने में मदद मिलती है, जिससे गलतफहमी के कारण लंबे समय तक हिरासत में रहने की संभावना में कमी आती है।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: भारत में ज़मानत से संबंधित चुनौतियों का परीक्षण करते हुए अधिक न्यायसंगत ज़मानत प्रावधान ढाँचे हेतु उपाय बताइये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. भारत के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (b) मेन्सQ. चर्चा कीजिये कि उभरती प्रौद्योगिकियाँ और वैश्वीकरण मनी लॉन्ड्रिंग में किस प्रकार योगदान करते हैं। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर मनी लॉन्ड्रिंग की समस्या से निपटने के लिये विस्तृत उपाय सुझाइये। (2021) |
न्यायाधीशों की परिसंपत्तियों की घोषणा
प्रिलिम्स के लिये:सूचना का अधिकार, उच्च न्यायालय, सचिव, सर्वोच्च न्यायालय, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG), मंत्रिपरिषद, संसदीय समिति, लोकसभा, भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI)। मेन्स के लिये:न्यायिक प्रणाली में पारदर्शिता की आवश्यकता है ताकि इसके कामकाज में जनता का विश्वास मज़बूत हो सके। |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त जानकारी से पता चलता है कि कुल उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में से केवल 13% की परिसंपत्तियों का विवरण सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध है।
- परिसंपत्तियों के विवरण में न्यायाधीशों, उनके जीवनसाथियों और आश्रितों की चल और अचल संपत्तियाँ, शेयरों, म्यूचुअल फंड, सावधि जमाओं में निवेश और बैंक ऋण जैसी देनदारियाँ शामिल हैं।
न्यायाधीशों द्वारा परिसंपत्तियों की घोषणा से संबंधित मुख्य बिंदु क्या हैं?
- घोषणाओं की कम दर: भारत के 25 उच्च न्यायालयों में तैनात 749 न्यायाधीशों में से केवल 98 न्यायाधीशों (लगभग 13%) ने अपनी परिसंपत्तियाँ सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध कराई है। पारदर्शिता के लिये किये गए प्रयासों के बावजूद यह आश्चर्यजनक रूप से कम आँकड़ा है।
- परिसंपत्तियों की घोषणाओं का संकेंद्रण: 80% घोषणाएँ केवल तीन उच्च न्यायालयों- केरल उच्च न्यायालय, पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय तथा दिल्ली उच्च न्यायालय से प्राप्त हुई हैं।
- सर्वोच्च न्यायालय का आंशिक खुलासा: सर्वोच्च न्यायालय ने अपने 33 न्यायाधीशों में से 27 के नाम जारी किये जिन्होंने भारत के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष अपनी परिसंपत्तियाँ घोषित की थी, लेकिन परिसंपत्तियों का विवरण प्रकट नहीं किया गया।
- विविध प्रतिक्रियाएँ: इलाहाबाद और बॉम्बे उच्च न्यायालयों ने कहा कि परिसंपत्तियों की घोषणा RTI अधिनियम, 2005 के तहत “सूचना” के रूप में शामिल नहीं है।
- गुजरात उच्च न्यायालय ने कहा कि न्यायाधीशों की व्यक्तिगत जानकारी का खुलासा करने में कोई सार्वजनिक हित नहीं है।
- आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय और तेलंगाना उच्च न्यायालय ने परिसंपत्तियों की घोषणाओं को गोपनीय बताया और कहा कि उन्हें ऑनलाइन पोस्ट नहीं किया जा सकता।
न्यायाधीशों द्वारा परिसंपत्तियों की घोषणा के प्रावधान क्या हैं?
- अखिल भारतीय सेवा (आचरण) नियम, 1968: सरकार न्यायाधीशों और सिविल सेवकों के बीच तुलना करती है, क्योंकि न्यायाधीशों का वेतन सिविल सेवकों, विशेष रूप से भारत सरकार में सचिव स्तर के अधिकारियों के वेतन के संबंध में निर्धारित किया जाता है।
- नियमों के नियम 16(1) के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति जो सेवा का सदस्य है, उसे अपनी परिसंपत्तियों और देनदारियों का विवरण प्रस्तुत करना होगा, जो न्यायाधीशों पर भी लागू होना चाहिए।
- न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्स्थापन, 1997: वर्ष 1997 में, सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ न्यायिक मानदंड अपनाए, जिनमें कहा गया था कि प्रत्येक न्यायाधीश को अपने नाम पर, अपने जीवनसाथी या उन पर निर्भर किसी अन्य व्यक्ति के नाम पर अचल परिसंपत्तियाँ या निवेश के रूप में रखी गई सभी परिसंपत्तियों की घोषणा मुख्य न्यायाधीश के समक्ष करनी चाहिये।
- वर्ष 2009 का संकल्प: वर्ष 2009 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आधिकारिक वेबसाइट पर न्यायाधीशों की परिसंपत्तियों की घोषित करने का संकल्प लिया और कहा कि यह "पूर्णतया स्वैच्छिक आधार पर" था।
- उसी वर्ष दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें कहा गया कि सभी न्यायाधीश अपनी परिसंपत्तियाँ सार्वजनिक करने पर सहमत हो गए हैं।
- संवैधानिक प्राधिकारी: अन्य संवैधानिक प्राधिकारी, जैसे नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) और मंत्रिपरिषद, द्वारा पहले से ही अपनी परिसंपत्तियों की घोषणा की जा रही है तथा उन्हें सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराया जा रहा है।
- इससे न्यायाधीशों के लिये भी अपनी परिसंपत्तियाँ का नियमित रूप से और सार्वजनिक रूप से खुलासा करने की मिसाल कायम होती है।
- समिति की सिफारिशें: कार्मिक, लोक शिकायत तथा विधि एवं न्याय संबंधी संसदीय समिति ने सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की परिसंपत्तियों और देनदारियों के अनिवार्य प्रकटीकरण के लिये कानून बनाने की सिफारिश की है।
- न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक: न्यायाधीशों द्वारा अनिवार्य परिसंपत्ति घोषणा सहित न्यायिक पारदर्शिता की आवश्यकता को संबोधित करने के लिये "न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक, 2010" नामक एक विधेयक तैयार किया गया था।
- हालाँकि, 15 वीं लोकसभा के भंग होने के बाद यह विधेयक निरस्त हो गया और इसे दोबारा पेश नहीं किया गया।
न्यायाधीशों द्वारा परिसंपत्तियाँ की घोषणा की क्या आवश्यकता है?
- सार्वजनिक विश्वास और जवाबदेही: न्यायाधीश नियमित रूप से कानून, सरकारी नीतियों और निविदाएँ देने से संबंधित निर्णयों की समीक्षा करते हैं, जिससे उनके लिये अपनी परिसंपत्तियों के संबंध में पारदर्शिता सुनिश्चित करना आवश्यक हो जाता है।
- यदि किसी निविदा के लिये ज़िम्मेदार मंत्री को अपनी परिसंपत्ति का खुलासा करना आवश्यक है, तो मंत्री के निर्णयों की समीक्षा करने वाले न्यायाधीश को भी ऐसा ही करना चाहिये।
- जनता का विश्वास मज़बूत करना: न्यायाधीशों द्वारा अपनी परिसंपत्ति की घोषणा से न्यायिक प्रणाली में जनता का विश्वास बढ़ाने में मदद मिलेगी, क्योंकि यह निष्पक्षता और निष्पक्षता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करता है।
- पारदर्शिता: सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) का कार्यालय सूचना का अधिकार (RTI) अधिनियम, 2005 के तहत एक 'सार्वजनिक प्राधिकरण' है और RTI अधिनियम, 2005 के प्रावधानों के अधीन है। परिसंपत्ति की घोषणा न्यायपालिका में अधिक पारदर्शिता की दिशा में एक प्रगतिशील कदम है।
- धारणा का महत्त्व: सार्वजनिक जीवन में, लोग कार्यों और निर्णयों को किस तरह से देखते हैं, यह विचार और विश्वास को काफी हद तक प्रभावित कर सकता है। न्यायपालिका को पारदर्शी और दोषमुक्त माना जाना चाहिये।
- न्यायाधीशों की संपत्ति के बारे में गोपनीयता बनाए रखने से न्यायपालिका में जनता का विश्वास कम हो सकता है।
न्यायाधीशों की परिसंपत्तियों की घोषणा के संबंध में विकसित देश क्या पद्धतियाँ अपनाते हैं?
- संयुक्त राज्य अमेरिका: सरकार में नैतिकता अधिनियम, 1978 के तहत संघीय न्यायाधीशों को आय के स्रोत और परिसंपत्तियों का खुलासा करना होगा।
- न्यायाधीशों को उन उपहारों के स्रोत, विवरण और मूल्य का भी खुलासा करना होगा जिनका कुल मूल्य एक निश्चित न्यूनतम राशि से अधिक है।
- दक्षिण कोरिया: लोक सेवा नैतिकता अधिनियम, 1993 के तहत न्यायाधीशों और उनके जीवनसाथियों सहित सभी उच्च पदस्थ सार्वजनिक अधिकारियों को अचल संपत्ति, अमूर्त संपत्ति और गैर-सार्वजनिक व्यावसायिक संस्थाओं में शेयरों के अपने स्वामित्व का खुलासा करना होगा।
- फिलीपींस: भ्रष्टाचार विरोधी एवं भ्रष्ट आचरण अधिनियम, 1960 के तहत सार्वजनिक अधिकारियों को घोषणा के रूप में अपनी संपत्ति का खुलासा करना आवश्यक है।
- रूस: भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों के तहत न्यायाधीशों और उनके परिवार के सदस्यों तथा न्यायाधीश पद के आवेदकों की परिसंपत्ति और आय पर नियंत्रण अनिवार्य है।
न्यायाधीशों द्वारा परिसंपत्तियों की घोषणा से संबंधित क्या चिंताएँ हैं?
- गोपनीयता और सुरक्षा: सार्वजनिक प्रकटीकरण से न्यायाधीशों और उनके परिवारों को उत्पीड़न या जबरन वसूली जैसे जोखिमों का सामना करना पड़ सकता है, जिससे उनकी सुरक्षा तथा गोपनीयता के बारे में चिंताएँ बढ़ सकती हैं।
- सूचना का दुरुपयोग: परिसंपत्तियों के विवरण का राजनीतिक या व्यक्तिगत उद्देश्यों के लिये दुरुपयोग किया जा सकता है, जिससे न्यायाधीशों पर अनुचित जाँच या दबाव बढ़ सकता है।
- न्यायिक स्वतंत्रता: कुछ लोग तर्क देते हैं कि अनिवार्य रूप से परिसंपत्तियों की घोषणा, न्यायाधीशों को बाहरी प्रभावों या सार्वजनिक आलोचना के अधीन करके न्यायिक स्वतंत्रता को कमज़ोर कर सकती है।
- स्वैच्छिक प्रकृति: चूँकि भारत में परिसंपत्ति प्रकटीकरण स्वैच्छिक है, इसलिये इस व्यवहार में असंगतता के कारण असमान पारदर्शिता की धारणा उत्पन्न हो सकती है।
- अनुमानित सार्वजनिक दबाव: न्यायाधीश वित्तीय मामलों पर जनता की राय के अनुरूप चलने के लिये बाध्य महसूस कर सकते हैं, जिससे वित्तीय या आर्थिक मुद्दों से जुड़े मामलों में उनकी निष्पक्षता प्रभावित हो सकती है।
आगे की राह:
- कानून बनाना: अगस्त 2023 में, एक संसदीय स्थायी समिति ने 'न्यायिक प्रक्रियाएँ और उनके सुधार' शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें सिफारिश की गई कि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को उचित प्राधिकारी को वार्षिक परिसंपत्ति रिटर्न प्रस्तुत करने के लिये आवश्यक कानून बनाया जाना चाहिये।
- स्पष्ट प्रोटोकॉल स्थापित करना: सर्वोच्च न्यायालय को परिसंपत्ति घोषणा के लिये स्पष्ट प्रोटोकॉल स्थापित करना चाहिये, जिसमें समय-सीमा, प्रारूप और प्रकट की जाने वाली विशिष्ट जानकारी शामिल हो।
- वार्षिक सार्वजनिक रिपोर्ट: न्यायपालिका भी अन्य संवैधानिक प्राधिकारियों की तरह, परिसंपत्तियों की घोषणाओं का सारांश प्रस्तुत करते हुए वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित कर सकती है।
- गोपनीयता और जवाबदेही में संतुलन: परिसंपत्तियों की घोषणा के ढाँचे में न्यायाधीशों की गोपनीयता बनाए रखने और सार्वजनिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के बीच संतुलन स्थापित किया जाना चाहिये।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: भारत में न्यायाधीशों द्वारा अनिवार्य संपत्तियों की घोषणा के महत्त्व पर चर्चा कीजिये। |
यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न. भारतीय न्यायपालिका के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (c) प्रश्न. भारत के संविधान के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (d) मेन्सप्रश्न: 'संवैधानिक नैतिकता' की जड़ संविधान में ही निहित है और इसके तात्त्विक फलकों पर आधारित है। 'संवैधानिक नैतिकता' के सिद्धांत की प्रासंगिक न्यायिक निर्णयों की सहायता से विवेचना कीजिये। (2021) प्रश्न: न्यायिक विधायन, भारतीय संविधान में परिकल्पित शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त का प्रतिपक्षी है। इस संदर्भ में कार्यपालक अधिकरणों को दिशा-निर्देश देने की प्रार्थना करने संबंधी, बड़ी संख्या में दायर होने वाली, लोक हित याचिकाओं का न्याय औचित्य सिद्ध कीजिये। (2020) |
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार का आह्वान
प्रारंभिक परीक्षा के लिये:L69 और C-10 देश, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, G4 देश, संयुक्त राष्ट्र महासभा, सुरक्षा परिषद में भारत की भागीदारी। मुख्य परीक्षा के लिये:संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार की आवश्यकता, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सुधार प्रक्रिया, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का महत्त्व। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
वर्ष 2025 में संयुक्त राष्ट्र (UN) की 80वीं वर्षगाँठ आने के आलोक में G4 देशों (भारत, ब्राज़ील, जर्मनी और जापान) ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में तत्काल सुधार की अपनी मांग को दोहराया है।
- इसका समर्थन अन्य बहुपक्षीय समूहों जैसे L69 और C-10 द्वारा भी किया गया है।
- इसके अलावा भारत ने 79वें UNGA शिखर सम्मेलन को संबोधित करने तथा वैश्विक विकास एवं सुधारों पर अपना दृष्टिकोण रखने के साथ इस संदर्भ में सिफारिशें कीं।
G4, L69 और C-10 समूह क्या हैं?
- L69 समूह:
- L69 समूह में एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, कैरीबियाई तथा प्रशांत क्षेत्र के 42 विकासशील देश हैं, जिनमें भारत भी शामिल है।
- यह वर्तमान वैश्विक वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करने तथा जवाबदेही और प्रतिनिधित्व को बढ़ाने के क्रम में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी एवं अस्थायी सदस्यता के विस्तार पर केंद्रित है।
- यह समूह प्रत्येक 15 वर्ष में स्थायी सदस्यता संरचना की समीक्षा पर बल देता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि इससे उभरती वैश्विक वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित किया जा सके।
- इस समूह का नाम वर्ष 2007-08 में प्रस्तुत "L69" मसौदा दस्तावेज के नाम पर रखा गया, जिससे अंतर-सरकारी वार्ता (IGN) प्रक्रिया की शुरुआत हुई थी।
- C-10 समूह:
- अफ्रीकी संघ के दस (C-10) राष्ट्राध्यक्षों और शासनाध्यक्षों की समिति में 10 अफ्रीकी देश शामिल हैं।
- इसका उद्देश्य अफ्रीका के प्रतिनिधित्व की वकालत करके तथा अफ्रीका की स्थिति को उन्नत बनाते हुए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार करना है, जो एज़ुल्विनी सर्वसम्मति और सिरते घोषणा पर आधारित है।
- वर्ष 2005 में अफ्रीकी संघ द्वारा स्वीकृत एज़ुल्विनी सर्वसम्मति का उद्देश्य अफ्रीका को वीटो शक्ति के साथ 2 स्थायी सीटें और 5 गैर-स्थायी सीटें प्रदान करके संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार करना है जिसका उद्देश्य संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में बेहतर प्रतिनिधित्व के साथ लोकतांत्रिक मूल्यों को सुनिश्चित करना है।
- सिरते घोषणा (1999) का आशय अफ्रीकी संघ की स्थापना और अफ्रीकी महाद्वीप में शांति तथा सुरक्षा संबंधी मुद्दों के संदर्भ में अपनाया गया संकल्प है।
- G4 समूह:
- G4 समूह में ब्राज़ील, जर्मनी, भारत और जापान शामिल हैं जो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य बनने के इच्छुक हैं।
- इसकी स्थापना वर्ष 2004 में की गई थी और यह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधारों को बढ़ावा देने पर केंद्रित है।
- G4 देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिये एक-दूसरे के प्रयासों का समर्थन करते हैं तथा आमतौर पर वार्षिक रूप से होने वाले संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) के उच्च स्तरीय सम्मलेन के दौरान बैठकें करते हैं।
अंतर-सरकारी वार्ता (IGN)
- IGN का आशय राष्ट्र-राज्यों के एक ऐसे समूह से है जो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में सुधारों के क्रम में संयुक्त राष्ट्र के तहत (अनौपचारिक रूप से) कार्यरत है।
- IGN कई विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संगठनों से मिलकर बना है।
- अफ्रीकी संघ
- G4 राष्ट्र
- यूनाइटिंग फॉर कंसेंसस ग्रुप (UfC)
- L69 विकासशील देशों का समूह
- अरब लीग
- कैरेबियन समुदाय (CARICOM)।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार की प्रक्रिया
- संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार के लिये अनुच्छेद 108 में उल्लिखित 2 चरणीय प्रक्रिया का पालन करते हुए संयुक्त राष्ट्र चार्टर में संशोधन करना आवश्यक होता है।
- पहला चरण: महासभा को दो तिहाई बहुमत से या 193 सदस्य देशों में से कम से कम 128 द्वारा सुधार को मंजूरी देनी होगी। अनुच्छेद 27 के अनुसार, इस चरण में वीटो की अनुमति नहीं है।
- दूसरा चरण: प्रथम चरण के अनुमोदन के बाद संयुक्त राष्ट्र चार्टर को एक अंतर्राष्ट्रीय संधि माना जाता है और उसमें संशोधन किया जाता है।
- संशोधित चार्टर को सभी P5 सदस्यों सहित कम से कम दो-तिहाई सदस्य देशों द्वारा उनकी राष्ट्रीय प्रक्रियाओं के अनुरूप अनुमोदित किया जाना आवश्यक होता है।
- इस चरण के दौरान अनुसमर्थन P5 सदस्यों की संसदों द्वारा प्रभावित हो सकता है, जिसका प्रभाव संशोधित चार्टर के प्रभावी होने पर पड़ सकता है।
79वीं संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) में विदेश मंत्री के भाषण के मुख्य पहलू क्या हैं?
- बहुपक्षवाद में सुधार: भारत ने 79वें UNGA के विषय "किसी को भी पीछे न छोड़ना" का समर्थन करने के साथ अंतर्राष्ट्रीय प्रणालियों में सुधार का आह्वान किया तथा वैश्विक शांति एवं समृद्धि सुनिश्चित करने के क्रम में न्यायसंगत योगदान और विश्वास बहाल करने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।
- भारत की पहल: भारत ने अपनी पहलों को साझा किया जैसे
- लक्षित नीतियों के माध्यम से सुभेद्य समूहों (महिलाएँ, किसान, युवा) पर ध्यान केंद्रित करना।
- रोज़गार और उद्यमिता के अवसरों का विस्तार करना
- अनुकरणीय शासन मॉडल एवं डिजिटल बुनियादी ढाँचे का निर्माण करना।
- साझा चिंताओं पर प्रकाश डालने के लिये ग्लोबल साउथ शिखर सम्मेलन का आयोजन करना।
- एकता का आह्वान: भारत ने सदस्य देशों से एकजुट होने, संसाधनों को साझा करने तथा विश्व में सकारात्मक परिवर्तन लाने के क्रम में अपने संकल्प को मज़बूत करने का आह्वान किया।
- आतंकवाद की निंदा: भारत ने कट्टरपंथ एवं आतंकवाद से पाकिस्तान के संबंधों की निंदा करने के साथ इस बात पर बल दिया कि इस संबंध में मुख्य मुद्दा पाकिस्तान द्वारा भारतीय क्षेत्र पर कब्जा और आतंकवाद को दिया जाने वाला उसका दीर्घकालिक समर्थन है।
- भारत ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा आतंकवादियों पर राजनीतिक हस्तक्षेप के बिना प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता पर बल दिया तथा ऐसी कार्रवाइयों को रोकने में चीन की भूमिका की ओर संकेत किया।
- आर्थिक व्यवहार और संप्रभुता: भारत ने अनुचित आर्थिक व्यवहार तथा बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं (विशेष रूप से चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे) की आलोचना करते हुए कहा कि संप्रभुता को कमज़ोर करने वाली कनेक्टिविटी के प्रति सावधानी बरती जानी चाहिये।
- वैश्विक समाधान का आह्वान: भारत ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से आग्रह किया कि वे भाग्यवादी मानसिकता से परे रूस-यूक्रेन युद्ध और गाजा संघर्ष जैसे चल रहे संघर्षों का तत्काल समाधान खोजने पर ध्यान केंद्रित करें।
और पढ़ें: भविष्य का संयुक्त राष्ट्र शिखर सम्मेलन और संयुक्त राष्ट्र संस्थाओं में सुधार
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में 5 स्थायी सदस्य होते हैं और शेष 10 सदस्य महासभा द्वारा कितनी अवधि के लिये चुने जाते हैं? (2009) (a) 1 वर्ष उत्तर: (b) प्रश्न. संयुक्त राष्ट्र मौद्रिक और वित्तीय सम्मेलन, जिसमें IBRD, GATT और IMF की स्थापना के लिये समझौते किये गए थे, को किस रूप में जाना जाता है? (2008) (a) बांडुंग सम्मेलन उत्तर: (b) प्रश्न. अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक एवं वित्तीय समिति (International Monetary and Financial Committee- IMFC) के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2016)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (c) प्रश्न. "स्वर्ण ट्रांश" (रिज़र्व ट्रांश) निर्दिष्ट करता है: (2020) (a) विश्व बैंक की ऋण व्यवस्था उत्तर: (d) मेन्स:प्रश्न. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता लेने हेतु भारत के समक्ष आने वाली बाधाओं पर चर्चा कीजिये। (2015) |