राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020
प्रीलिम्स के लिये:राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020, कस्तूरीरंगन समिति मेन्स के लिये:राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 और शिक्षा क्षेत्र में सुधारों से संबंधित प्रश्न |
चर्चा में क्यों?
हाल ही के केंद्र सरकार ने ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020’ (National Education Policy- 2020) को मंज़ूरी दी है। नई शिक्षा नीति 34 वर्ष पुरानी ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986’ [National Policy on Education (NPE),1986] को प्रतिस्थापित करेगी।
प्रमुख बिंदु:
- राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में शिक्षा की पहुँच, समानता, गुणवत्ता, वहनीय शिक्षा और उत्तरदायित्व जैसे मुद्दों पर विशेष ध्यान दिया गया है।
- नई शिक्षा नीति के निर्माण के लिये जून 2017 में पूर्व इसरो (ISRO) प्रमुख डॉ. के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया था, इस समिति ने मई 2019 में ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मसौदा’ प्रस्तुत किया था।
- 'राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP), 2020' वर्ष 1968 और वर्ष 1986 के बाद स्वतंत्र भारत की तीसरी शिक्षा नीति होगी।
- NEP-2020 के तहत केंद्र व राज्य सरकार के सहयोग से शिक्षा क्षेत्र पर देश की जीडीपी के 6% हिस्से के बराबर निवेश का लक्ष्य रखा गया है।
- नई शिक्षा नीति में वर्तमान में सक्रिय 10+2 के शैक्षिक मॉडल के स्थान पर शैक्षिक पाठ्यक्रम को 5+3+3+4 प्रणाली के आधार पर विभाजित करने की बात कही गई है।
- तकनीकी शिक्षा, भाषाई बाध्यताओं को दूर करने, दिव्यांग छात्रों के लिये शिक्षा को सुगम बनाने आदि के लिये तकनीकी के प्रयोग को बढ़ावा देने पर बल दिया गया है।
- इस शिक्षा नीति में छात्रों में रचनात्मक सोच, तार्किक निर्णय और नवाचार की भावना को प्रोत्साहित करने पर बल दिया गया है।
MHRD के नाम में परिवर्तन
- कैबिनेट द्वारा ‘मानव संसाधन विकास मंत्रालय’ (Ministry of Human Resource Development- MHRD) का नाम बदल कर ‘शिक्षा मंत्रालय’ (Education Ministry) करने को भी मंज़ूरी दी गई है।
- NEP-2020 के तहत MHRD का नाम बदलकर ‘शिक्षा मंत्रालय’ करने का उद्देश्य ‘शिक्षा और सीखने (Education and Learning)’ पुनः अधिक ध्यान आकर्षित करना है।
प्रारंभिक शिक्षा:
- 3 वर्ष से 8 वर्ष की आयु के बच्चों के लिये शैक्षिक पाठ्यक्रम का दो समूहों में विभाजन-
- 3 वर्ष से 6 वर्ष की आयु के बच्चों के लिये आँगनवाड़ी/बालवाटिका/प्री-स्कूल (Pre-School) के माध्यम से मुफ्त, सुरक्षित और गुणवत्तापूर्ण ‘प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा’ (Early Childhood Care and Education- ECCE) की उपलब्धता सुनिश्चित करना।
- 6 वर्ष से 8 वर्ष तक के बच्चों को प्राथमिक विद्यालयों में कक्षा-1 और 2 में शिक्षा प्रदान की जाएगी।
- प्रारंभिक शिक्षा को बहुस्तरीय खेल और गतिविधि आधारित बनाने को प्राथमिकता दी जाएगी।
- ECCE से जुड़ी योजनाओं का निर्माण और क्रियान्वयन केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय , महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय व जनजातीय कार्य मंत्रालय के साझा सहयोग से किया जाएगा।
‘बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान पर एक राष्ट्रीय मिशन’
- NEP में MHRD द्वारा ‘बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान पर एक राष्ट्रीय मिशन’ (National Mission on Foundational Literacy and Numeracy) की स्थापना की मांग की गई है।
- राज्य सरकारों द्वारा वर्ष 2025 तक प्राथमिक विद्यालयों में कक्षा-3 तक के सभी बच्चों में बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान प्राप्त करने हेतु इस मिशन के क्रियान्वयन की योजना तैयार की जाएगी।
भाषाई विविधता को बढ़ावा और संरक्षण:
- NEP-2020 में कक्षा-5 तक की शिक्षा में मातृभाषा/ स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा को अध्यापन के माध्यम के रूप में अपनाने पर बल दिया गया है, साथ ही इस नीति में मातृभाषा को कक्षा-8 और आगे की शिक्षा के लिये प्राथमिकता देने का सुझाव दिया गया है।
- स्कूली और उच्च शिक्षा में छात्रों के लिये संस्कृत और अन्य प्राचीन भारतीय भाषाओं का विकल्प उपलब्ध होगा परंतु किसी भी छात्र पर भाषा के चुनाव की कोई बाध्यता नहीं होगी।
- बधिर छात्रों के लिये राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर पाठ्यक्रम सामग्री विकसित की जाएगी तथा भारतीय संकेत भाषा (Indian Sign Language- ISL) को पूरे देश में मानकीकृत किया जाएगा।
- NEP-2020 के तहत भारतीय भाषाओं के संरक्षण और विकास के लिये एक ‘भारतीय अनुवाद और व्याख्या संस्थान’ (Indian Institute of Translation and Interpretation- IITI), ‘फारसी, पाली और प्राकृत के लिये राष्ट्रीय संस्थान (या संस्थान)’ [National Institute (or Institutes) for Pali, Persian and Prakrit] स्थापित करने के साथ उच्च शिक्षण संस्थानों में भाषा विभाग को मज़बूत बनाने एवं उच्च शिक्षण संस्थानों में अध्यापन के माध्यम से रूप में मातृभाषा/ स्थानीय भाषा को बढ़ावा दिये जाने का सुझाव दिया है।
पाठ्यक्रम और मूल्यांकन से जुड़े सुझाव:
- NEP-2020 में एक ऐसे पाठ्यक्रम और अध्यापन प्रणाली/विधि के विकास पर बल दिया गया है जिसके तहत पाठ्यक्रम के बोझ को कम करते हुए छात्रों में 21वीं सदी के कौशल के विकास, अनुभव आधारित शिक्षण और तार्किक चिंतन को प्रोत्साहित करने पर विशेष ध्यान दिया जाए।
- इस नीति में प्रस्तावित सुधारों के अनुसार, कला और विज्ञान, व्यावसायिक तथा शैक्षणिक विषयों एवं पाठ्यक्रम व पाठ्येतर गतिविधियों के बीच बहुत अधिक अंतर नहीं होगा।
- कक्षा-6 से ही शैक्षिक पाठ्यक्रम में व्यावसायिक शिक्षा को शामिल कर दिया जाएगा और इसमें इंटर्नशिप (Internship) की व्यवस्था भी दी जाएगी।
- ‘राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद’ (National Council of Educational Research and Training- NCERT) द्वारा ‘स्कूली शिक्षा के लिये राष्ट्रीय पाठ्यक्रम रूपरेखा’ [National Curricular Framework for School Education, (NCFSE, 2020-21) तैयार की जाएगी।
- NEP-2020 में छात्रों के सीखने की प्रगति की बेहतर जानकारी हेतु नियमित और रचनात्मक आकलन प्रणाली को अपनाने का सुझाव दिया गया है। साथ ही इसमें विश्लेषण तथा तार्किक क्षमता एवं सैद्धांतिक स्पष्टता के आकलन को प्राथमिकता देने का सुझाव दिया गया है।
- छात्र कक्षा-3, 5 और 8 के स्तर पर स्कूली परीक्षाओं में भाग लेंगे जिन्हें उपयुक्त प्राधिकरण द्वारा संचालित किया जाएगा।
- छात्रों के समग्र विकास के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए कक्षा-10 और कक्षा-12 की परीक्षाओं में बदलाव किये जाएंगे। इसमें भविष्य में समेस्टर या बहुविकल्पीय प्रश्न आदि जैसे सुधारों को शामिल किया जा सकता है।
- छात्रों की प्रगति के मूल्यांकन के लिये मानक-निर्धारक निकाय के रूप में ‘परख’ (PARAKH) नामक एक नए ‘राष्ट्रीय आकलन केंद्र’ (National Assessment Centre) की स्थापना की जाएगी।
- छात्रों की प्रगति के मूल्यांकन तथा छात्रों को अपने भविष्य से जुड़े निर्णय लेने में सहायता प्रदान करने के लिये ‘कृत्रिम बुद्धिमत्ता’ (Artificial Intelligence- AI) आधारित सॉफ्टवेयर का प्रयोग।
शिक्षण प्रणाली से जुड़े सुधार:
- शिक्षकों की नियुक्ति में प्रभावी और पारदर्शी प्रक्रिया का पालन तथा समय-समय पर लिये गए कार्य-प्रदर्शन आकलन के आधार पर पदोन्नति।
- राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद वर्ष 2022 तक ‘शिक्षकों के लिये राष्ट्रीय व्यावसायिक मानक’ (National Professional Standards for Teachers- NPST) का विकास किया जाएगा।
- राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद द्वारा NCERT के परामर्श के आधार पर ‘अध्यापक शिक्षा हेतु राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा’ [National Curriculum Framework for Teacher Education (NCFTE), 2021] का विकास किया जाएगा।
- वर्ष 2030 तक अध्यापन के लिये न्यूनतम डिग्री योग्यता 4-वर्षीय एकीकृत बी.एड. डिग्री का होना अनिवार्य किया जाएगा।
उच्च शिक्षा:
- NEP-2020 के तहत उच्च शिक्षण संस्थानों में ‘सकल नामांकन अनुपात’ (Gross Enrolment Ratio) को 26.3% (वर्ष 2018) से बढ़ाकर 50% तक करने का लक्ष्य रखा गया है, इसके साथ ही देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में 3.5 करोड़ नई सीटों को जोड़ा जाएगा।
- NEP-2020 के तहत स्नातक पाठ्यक्रम में महत्त्वपूर्ण सुधार किया गया है, इसके तहत 3 या 4 वर्ष के स्नातक कार्यक्रम में छात्र कई स्तरों पर पाठ्यक्रम को छोड़ सकेंगे और उन्हें उसी के अनुरूप डिग्री या प्रमाण-पत्र प्रदान किया जाएगा (जैसे- 1 वर्ष के बाद सर्टिफिकेट, 2 वर्षों के बाद एडवांस डिप्लोमा, 3 वर्षों के बाद स्नातक की डिग्री तथा 4 वर्षों के बाद शोध के साथ स्नातक)।
- विभिन्न उच्च शिक्षण संस्थानों से प्राप्त अंकों या क्रेडिट को डिजिटल रूप से सुरक्षित रखने के लिये एक ‘एकेडमिक बैंक ऑफ क्रेडिट’ (Academic Bank of Credit) दिया जाएगा, जिससे अलग-अलग संस्थानों में छात्रों के प्रदर्शन के आधार पर उन्हें डिग्री प्रदान की जा सके।
- नई शिक्षा नीति के तहत एम.फिल. (M.Phil) कार्यक्रम को समाप्त कर दिया गया है।
- भारत उच्च शिक्षा आयोग
- चिकित्सा एवं कानूनी शिक्षा को छोड़कर पूरे उच्च शिक्षा क्षेत्र के लिये एक एकल निकाय के रूप में भारत उच्च शिक्षा आयोग (Higher Education Commission of India -HECI) का गठन किया जाएगा।
- HECI के कार्यों के प्रभावी और प्रदर्शितापूर्ण निष्पादन के लिये चार संस्थानों/निकायों का निर्धारण किया गया है-
- विनियमन हेतु- राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा नियामकीय परिषद (National Higher Education Regulatory Council- NHERC)
- मानक निर्धारण- सामान्य शिक्षा परिषद (General Education Council- GEC)
- वित पोषण- उच्चतर शिक्षा अनुदान परिषद (Higher Education Grants Council-HEGC)
- प्रत्यायन- राष्ट्रीय प्रत्यायन परिषद (National Accreditation Council- NAC)
- महाविद्यालयों की संबद्धता 15 वर्षों में समाप्त हो जाएगी और उन्हें क्रमिक स्वायत्तता प्रदान करने के लिये एक चरणबद्ध प्रणाली की स्थापना की जाएगी।
- देश में आईआईटी (IIT) और आईआईएम (IIM) के समकक्ष वैश्विक मानकों के ‘बहुविषयक शिक्षा एवं अनुसंधान विश्वविद्यालय’ (Multidisciplinary Education and Research Universities- MERU) की स्थापना की जाएगी।
अन्य सुधार:
- शिक्षा, मूल्यांकन, योजनाओं के निर्माण और प्रशासनिक क्षेत्र में तकनीकी के प्रयोग पर विचारों के स्वतंत्र आदान-प्रदान हेतु ‘राष्ट्रीय शैक्षिक प्रौद्योगिकी मंच’ (National Educational Technology Forum- NETF) नामक एक स्वायत्त निकाय की स्थापना की जाएगी।
स्रोत: द हिंदू
डिजिटल शिक्षा पर भारत रिपोर्ट, 2020
प्रीलिम्स के लिये:डिजिटल शिक्षा पर भारत रिपोर्ट, 2020 मेन्स के लिये:डिजिटल शिक्षा को बढ़ावा देने के लिये केंद्र/विभिन्न राज्यों द्वारा किये गए प्रयास |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में मानव संसाधन विकास मंत्रालय (MHRD) द्वारा डिजिटल शिक्षा, 2020 पर भारत रिपोर्ट (India Report on Digital Education, 2020) जारी की गई है।
प्रमुख बिंदु:
- यह रिपोर्ट MHRD के डिजिटल शिक्षा प्रभाग (Digital Education Division) द्वारा राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के शिक्षा विभागों के परामर्श से तैयार की गई है।
- यह घर पर बच्चों के लिये सुलभ और समावेशी शिक्षा सुनिश्चित करने तथा कोविड-19 महामारी के दौरान सीखने के अंतराल को कम करने के लिये MHRD द्वारा अपनाई गई अभिनव विधियों को संदर्भित करती है।
MHRD की पहलें:
- DIKSHA मंच, स्वंय प्रभा टीवी चैनल, ऑन एयर-शिक्षा वाणी, ई-पाठशाला और टीवी चैनलों के प्रसारणों के माध्यम से शिक्षकों, विद्वानों और छात्रों की सहायता के लिये कई परियोजनाओं की शुरुआत की गई है।
- इसके अलावा डिजिटल शिक्षा पर 'PRAGYATA' नामक दिशा-निर्देश भी जारी किये हैं।
राज्य सरकारों की पहलें:
- राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने विभिन्न पहलों के माध्यम से छात्रों को घर बैठे डिजिटल शिक्षा की सुविधा प्रदान की है। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं:
- सोशल मीडिया इंटरफेस फॉर लर्निंग एंगेज़मेंट (Social Media Interface for Learning Engagement- SMILE)- राजस्थान
- प्रोजेक्ट होम क्लासेस (Project Home Classes)- जम्मू
- पढाई तोहार द्वार- छत्तीसगढ़
- उन्नयन पहल- बिहार
- मिशन बुनियाद (Mission Buniyaad)- NCT दिल्ली
- केरल का अपना शैक्षिक टीवी चैनल- काइट विक्टर्स (KITE VICTERS)
- ई-स्कोलर पोर्टल (E-scholar Portal) और शिक्षकों के लिये मुफ्त ऑनलाइन पाठ्यक्रम- मेघालय
- इसके अलावा सोशल मीडिया टूल्स जैसे- व्हाट्सएप ग्रुप, यूट्यूब चैनल के माध्यम से ऑनलाइन कक्षाएँ और छात्रों से जुड़ने के लिये गूगल मीट (Google Meet) का प्रयोग किया जा रहा है।
- कुछ राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों जैसे- लक्षद्वीप, नगालैंड और जम्मू-कश्मीर ने छात्रों को ई-सामग्री से युक्त (E-contents Equipped) टैबलेट, DVD और पेनड्राइव वितरण जैसी सुविधाएँ भी उपलब्ध कराई हैं।
- इसके अतिरिक्त समावेशी शिक्षा को सुनिश्चित करने के लिये दूरदराज के क्षेत्रों, जहाँ इंटरनेट कनेक्टिविटी और बिजली की समस्या है, में छात्रों के आवासों पर ही पाठ्यपुस्तकों का वितरण किया गया है।
- इसके अलावा कई राज्यों द्वारा छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य को महत्त्व देते हुए कुछ विशिष्ट कक्षाएँ, जैसे- दिल्ली में हेप्पीनेस (Happiness) कक्षाएँ भी संचालित की गई हैं।
- MHRD ने 'मनोदर्पण' पहल की भी शुरुआत की है। इसका उद्देश्य कोविड-19 महामारी के दौरान छात्रों, परिवार के सदस्यों और शिक्षकों को उनके मानसिक स्वास्थ्य एवं कल्याण के लिये मनोसामाजिक सहायता प्रदान करना है।
आगे की राह:
- यह रिपोर्ट देश भर में क्रॉस-लर्निंग (Cross Learning) [अर्थात् अध्ययन के साथ-साथ प्रशिक्षण भी], सीखने और शिक्षा से जुड़ी सर्वोत्तम प्रथाओं को अपनाने के उद्देश्य को पूरा इंगित करेगी।
- चूँकि भारत की शिक्षा प्रणाली ऑनलाइन और ऑफलाइन मोड के माध्यम से मिश्रित शिक्षा की ओर बढ़ रही है, ऐसे में शिक्षा के क्षेत्र में सभी हितधारकों को यह प्रयास करना होगा कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की पहुँच से कोई भी छात्र अछूता न रहे।
स्रोत: PIB
विरोध करना एक मौलिक अधिकार है: संयुक्त राष्ट्र
प्रीलिम्स के लिये:ICCPR, UNHRC, ICCPR का अनुच्छेद- 21, 19(1)(b) मेन्स के लिये:मानवाधिकार |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में 'संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति' (UN Human Rights Committee- UNHRC) ने इस बात की पुष्टि की है कि शांतिपूर्ण ऑनलाइन या व्यक्तिगत रूप से विरोध करना मनुष्य का एक ‘मौलिक मानवीय अधिकार’ है।
प्रमुख बिंदु:
- UNHRC स्वतंत्र विशेषज्ञों वाला एक निकाय है जो 'नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय नियम' (The International Covenant on Civil and Political Rights - ICCPR) के कार्यान्वयन की निगरानी करता है।
- 18 सदस्यीय मानवाधिकार समिति ने ICCPR के अनुच्छेद- 21; जो शांतिपूर्ण तरीके से एकत्रित होने के अधिकार की गारंटी देता है, के संबंध में एक नवीनतम व्याख्या जारी की है।
ICCPR के अनुच्छेद- 21 की नवीनतम व्याख्या:
- शांतिपूर्ण एकत्रित होने का अधिकार एक मूल अधिकार:
- जश्न मनाने या असंतुष्टि प्रदर्शित करने के उद्देश्य से सार्वजनिक या निजी स्थानों पर, घर के अंदर या बाहर या फिर ऑनलाइन रूप से एकत्रित होना मानव का एक मौलिक अधिकार है।
- प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार:
- बच्चों, विदेशी नागरिकों, महिलाओं, प्रवासी श्रमिकों, शरण चाहने वालों (Asylum seekers) और शरणार्थियों सहित प्रत्येक व्यक्ति शांतिपूर्ण तरीके से एकत्रित होने के अधिकार का उपयोग कर सकता है।
- शारीरिक सुरक्षा का अधिकार:
- प्रदर्शनकारियों को अपना चेहरा ढँकने के लिये मास्क या हुड पहनने का अधिकार है।
- डिजिटल अधिकार:
- शांतिपूर्ण तरीके से एकत्रित होने के अधिकार का विस्तार 'डिजिटल गतिविधियों' पर भी होगा।
- सरकारों को प्रदर्शनकारियों को डराने के लिये उनके व्यक्तिगत डेटा को एकत्रित नहीं करना चाहिये।
- अनुच्छेद-21 के तहत सरकारों को निर्देश:
- सरकारें सार्वजनिक व्यवस्था या सार्वजनिक सुरक्षा या संभावित हिंसा के अनिर्दिष्ट जोखिम के किसी सामान्यीकृत संदर्भ को आधार बनाकर विरोध प्रदर्शन को रोक नहीं सकती है।
- सरकारें प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिये इंटरनेट नेटवर्क को ब्लॉक नहीं कर सकती हैं।
- शांतिपूर्ण रूप से एकत्रित होने के आयोजन में किसी वेबसाइट की भूमिका होने के आधार पर सरकारें इन वेबसाइटों को बंद नहीं कर सकती हैं।
नवीनतम व्याख्या का महत्त्व:
- एक लंबे समय से इस मुद्दे पर बहस चल रही थी कि क्या शांतिपूर्ण रूप से एकत्रित होने के अधिकार का विस्तार ऑनलाइन गतिविधियों तक भी है अथवा नहीं। नवीनतम व्याख्या ने इसमें स्पष्टता लाकर इस बहस को समाप्त कर दिया है।
- दुनिया भर के राष्ट्रीय न्यायालयों में मौलिक अधिकारों की व्याख्या में नवीनतम व्याख्या महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन की भूमिका निभाएगी।
भारतीय संवैधानिक प्रावधान:
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) सभी नागरिकों को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है।
- अनुच्छेद 19(1)(b) में सभी नागरिकों को बिना हथियार के शांतिपूर्ण रूप से एकत्रित होने का मौलिक अधिकार प्रदान है।
- इस प्रकार विरोध के अधिकार को संविधान के तहत एक मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता प्राप्त है।
- संविधान के अनुच्छेद- 19(1)(a) और 19(1)(b) के तहत पूर्वोक्त अधिकार अपने दायरे में अछूता और असीमित नहीं हैं तथा इन पर भी युक्तियुक्त निर्बंधन लगाए गए हैं।
- राज्य दो आधारों पर एकत्रित होने के अधिकार पर उचित प्रतिबंध लगा सकता है:
- भारत की संप्रभुता और अखंडता
- संबंधित क्षेत्र में यातायात के रखरखाव सहित सार्वजनिक व्यवस्था।
नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय नियम (ICCPR):
- ICCPR नागरिक और राजनीतिक अधिकारों की सुरक्षा प्रदान करने वाली एक प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संधि है।
- संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव 2200A (XXI) द्वारा इसे 16 दिसंबर, 1966 को हस्ताक्षर, अनुसमर्थन और परिग्रहण के लिये प्रस्तुत किया गया। 23 मार्च, 1976 को यह संधि प्रभावी हुई।
- भारत सहित कुल 173 देशों ने इस संधि के नियमों की अभिपुष्टि की है।
- नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय नियम (ICCPR), 'मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा' (Universal Declaration of Human Rights) और 'आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय नियम (International Covenant on Economic Social and Cultural Rights) को संयुक्त रूप में ‘अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार विधेयक’ (International Bill of Human Rights) के रूप में माना जाता है।
- ICCPR के तहत कुछ महत्त्वपूर्ण अधिकार:
- अनुच्छेद-7 यातना, क्रूरता या अपमानजनक उपचार से स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है।
- अनुच्छेद-9 व्यक्ति की सुरक्षा का अधिकार प्रदान करता है।
- अनुच्छेद-18 के तहत सभी को धर्म अपनाने का अधिकार है।
- अनुच्छेद-24 प्रत्येक बच्चे को विशेष सुरक्षा का अधिकार प्रदान करता है।
- अनुच्छेद-26 सभी व्यक्तियों के लिये ‘कानून के समान संरक्षण का अधिकार’ Equal Protection of the Law- EPL) प्रदान करता है।
- ICCPR, संधि के तहत अपनाए गए अधिकारों की रक्षा के लिये सरकारों को प्रशासनिक, न्यायिक और विधायी उपाय करने के लिये विवश करती है।
स्रोत: द हिंदू
उपभोक्ता आहार पर महामारी का प्रभाव
प्रीलिम्स के लियेCOVID-19, खाद्य सुरक्षा मेन्स के लियेउपभोक्ता आहार पर COVID-19 का प्रभाव, COVID-19 और खाद्य सुरक्षा |
चर्चा में क्यों?
न्यूयॉर्क स्थित टाटा-कॉर्नेल इंस्टीट्यूट फॉर एग्रीकल्चर एंड न्यूट्रिशन (Tata-Cornell Institute for Agriculture and Nutrition) के एक हालिया अध्ययन के अनुसार, कोरोना काल के दौरान भारत में आम लोगों की खाद्य आदतें (Food Habits) विविध एवं पोषक आहार से हटकर स्टेपल आहार (Staple Foods) जैसे- गेहूं और चावल आदि की ओर स्थानांतरित हो सकती हैं।
प्रमुख बिंदु
- इस अध्ययन के दौरान अध्ययनकर्त्ताओं ने 1 मार्च, 2020 से 31 मई, 2020 के दौरान भारत के 11 टियर-1 और टियर-2 शहरों में अनाज (गेहूं और चावल) और गैर-अनाज (प्याज़, टमाटर, आलू, दाल और अंडे) की कीमतों का बीते वर्ष की कीमतों के साथ विश्लेषण किया।
- अध्ययन के दौरान यह सामने आया कि देश में लागू किये गए लॉकडाउन के बाद दोनों ही समूहों (अनाज और गैर-अनाज) की कीमतों में वर्ष 2019 की अपेक्षा बढ़ोतरी दर्ज की गई, किंतु यह बढ़ोतरी अनाज की अपेक्षा गैर-अनाज समूह में काफी अधिक थी।
- हालाँकि लॉकडाउन की समाप्ति के बाद से अनाज, अंडे, आलू, प्याज़ और टमाटर आदि की कीमतें तो स्थिर हो गईं, किंतु प्रोटीन युक्त दालों की कीमतें अभी भी उच्च बनी हुई हैं।
महामारी-जनित लॉकडाउन और खाद्य कीमतें
- अध्ययन के मुताबिक, लॉकडाउन अवधि के दौरान गेहूं और चावल की खुदरा कीमतें बीते वर्ष की अपेक्षा या तो स्थिर रहीं या फिर उससे भी कम रहीं।
- बीते वर्ष की अपेक्षा इस वर्ष लॉकडाउन की अवधि के दौरान देश के कई शहरों में आलू की कीमतों में 30-90 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखने को मिली, हालाँकि मई माह के पहले सप्ताह में कीमतें स्थिर हो गईं।
- देश के अधिकांश शहरों में प्याज की कीमतों में 200-250 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखने को मिली, कई शहरों में यह बढ़ोतरी इससे भी अधिक थी, हालाँकि अप्रैल के अंत तक प्याज की कीमतें भी स्थिर हो गई हैं।
- अध्ययन के अनुसार, देश में अंडों की कीमतों में पूर्णतः विपरीत प्रवृत्ति देखने को मिली, और लॉकडाउन के शुरुआती दौर में इसकी कीमतें काफी नीचे गिर गईं, हालाँकि मार्च का अंत आते-आते इसकी कीमतों में भी बढ़ोतरी दर्ज की जाने लगी और आगामी 2 माह में यह पूर्णतः स्थिर हो गईं।
- अध्ययनकर्त्ताओं का मानना है कि शुरुआत में अंडों की कीमतों में कमी का मुख्य कारण है कि लोगों में यह भय था कि कोरोना वायरस (COVID-19) मुर्गियों और मांसाहारी भोजन से भी प्रसारित हो सकता है।
- लॉकडाउन की अवधि के दौरान दाल की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी दर्ज की गई है, और इनकी कीमतों में अभी भी बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है।
प्रभाव
- रिपोर्ट में कहा गया है कि अनाज (गेहूं और चावल) की कीमतों में अपेक्षाकृत स्थिरता और प्रोटीन युक्त दालों आदि की कीमतों में बढ़ोतरी आम उपभोक्ताओं खासतौर पर भारत के मध्यम और निम्न आय वाले वर्ग के खपत निर्णय (Consumption Decisions) को प्रभावित करेगी।
- इस प्रकार देश के आम उपभोक्ता अनाज आधारित कम प्रोटीन युक्त भोजन की ओर प्रेरित हो सकते हैं।
- पौष्टिक भोजन की अपेक्षाकृत उच्च कीमतें भारत के आम लोगों खास तौर पर गरीब और संवेदनशील वर्ग पोषक के समक्ष तत्वों से युक्त भोजन ग्रहण करने में बड़ी चुनौती उत्पन्न करेगा।
- नतीजतन, लोगों के आहार में खाद्य पौष्टिक युक्त पदार्थों का अनुपात कम हो जाएगा और लोगों इसकी पूर्ति के लिये इसे कम पौष्टिक वाले भोजन के साथ प्रतिस्थापित करेंगे।
- इससे देश भर में महिलाओं एवं बच्चों की स्थिति बिगड़ने की संभावना और अधिक बढ़ जाएगी, साथ ही इसका मुख्य प्रभाव देश के पिछड़े क्षेत्रों में देखने को मिलेगा।
सुझाव
- रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि सरकार नीतिगत हस्तक्षेप के माध्यम से भोजन में प्रोटीन की आवश्यकता को पूरा करने के लिये दालों आदि की कीमतों में वृद्धि को स्थिर करने का प्रयास कर सकती हैं, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि कोई भी व्यक्ति आवश्यक प्रोटीन के अभाव वाला भोजन ग्रहण करने के लिये मज़बूर न हो।
- रिपोर्ट के अंतर्गत आवश्यक वस्तु अधिनियम में सरकार के हालिया संशोधन की आलोचना की गई है, जिसके द्वारा सरकार ने अनाज, खाद्य तेल, तिलहन, दलहन, प्याज़ और आलू सहित कृषि खाद्य पदार्थों को आवश्यक वस्तु अधिनियम के प्रावधानों से मुक्त करने की घोषणा की थी।
स्रोत: द हिंदू
मॉरीशस का नया सर्वोच्च न्यायालय भवन
प्रीलिम्स के लियेमॉरीशस का नया सर्वोच्च न्यायालय भवन मेन्स के लियेभारत-मॉरीशस संबंध |
चर्चा में क्यों?
भारतीय प्रधानमंत्री और मॉरीशस के प्रधानमंत्री 30 जुलाई, 2020 को मॉरीशस के नए सर्वोच्च न्यायालय भवन का उद्घाटन करेंगे। यह भवन मॉरीशस की राजधानी पोर्ट लुइस के भीतर भारत के द्वारा सहायता प्राप्त पहली बुनियादी ढाँचा परियोजना होगी।
प्रमुख बिंदु
- दोनों देशों के बीच मज़बूत द्विपक्षीय साझेदारी के प्रतीक के रूप में यह नया भवन एक महत्त्वपूर्ण मील का पत्थर साबित होगा।
- यह भारत सरकार द्वारा वर्ष 2016 में मॉरीशस में विस्तारित 353 मिलियन अमेरिकी डॉलर के ‘विशेष आर्थिक पैकेज’ के तहत कार्यान्वित पाँच परियोजनाओं में से एक है।
भारत-मॉरीशस संबंध
- भारत-मॉरीशस संबंध दोनों देशों के बीच मौजूद ऐतिहासिक, राजनीतिक, आर्थिक, सैन्य, सामाजिक और सांस्कृतिक संबंधों को संदर्भित करते हैं।
- भारत और मॉरीशस के बीच के संबंध वर्ष 1730 से स्थापित है, हालाँकि दोनों देशों के मध्य राजनयिक संबंध मॉरीशस के एक स्वतंत्र राज्य (1968) बनने से पहले वर्ष 1948 में ही स्थापित हुए।
- प्रवासी भारतीयों के संदर्भ में बात करें तो मॉरीशस भारत के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण है। संभवतः इसका एक स्वाभाविक कारण यह है कि इस द्वीप पर भारतीय मूल के समुदाय काफी अधिक संख्या में रहते हैं। मॉरीशस की 68% से अधिक आबादी भारतीय मूल की है, जिसे आमतौर पर इंडो-मॉरीशस के रूप में जाना जाता है।
- यह भारत के ‘प्रवासी भारतीय दिवस’ उत्सव का एक महत्त्वपूर्ण भागीदार देश है, इस मंच पर प्रवासी भारतीयों से संबंधित मुद्दों को संबोधित किया जाता है।
महत्त्व:
- भू-रणनीतिक: हिंद महासागर क्षेत्र में भारत द्वारा स्वयं को एक महान शक्ति के रूप में स्थापित करने की दिशा में मॉरीशस के साथ मज़बूत संबंधों का विशेष रणनीतिक महत्त्व है।
- वर्ष 2015 में भारत ने मॉरीशस के साथ आठ भारतीय नियंत्रित तटीय निगरानी रडार स्टेशनों की स्थापना के लिये एक समझौते पर हस्ताक्षर किये।
- मॉरीशस भारत के सुरक्षा ग्रिड का हिस्सा है, जिसमें भारतीय नौसेना के राष्ट्रीय कमांड कंट्रोल कम्युनिकेशन इंटेलिजेंस नेटवर्क (Indian Navy’s National Command Control Communication Intelligence Network) के तटीय निगरानी रडार (CSR) स्टेशन शामिल हैं।
- वर्ष 2015 में भारत ने SAGAR-Security and Growth for All नामक एक महत्वाकांक्षी नीति का अनावरण किया।
- यह कई दशकों में हिंद महासागर के संबंध में भारत का पहला महत्त्वपूर्ण नीतिगत कदम था।
- SAGAR के माध्यम से, भारत अपने समुद्री पड़ोसियों के साथ आर्थिक और सुरक्षा सहयोग को मज़बूत करने और उनकी समुद्री सुरक्षा क्षमताओं के निर्माण में सहायता पर बल दे रहा है।
- वर्ष 2015 में भारत और मॉरीशस के मध्य एक समझौते पर हस्ताक्षर किये गए जो भारत को मॉरीशस के द्वीपों पर सैन्य ठिकानों की स्थापना करने हेतु बुनियादी ढाँचे को विकसित करने की अनुमति प्रदान करता है।
- समझौते के उद्देश्यों के तहत एंटी-पायरेसी ऑपरेशंस मे दोनों देशों के साझा प्रयासों द्वारा अवैध रूप से मछली पकड़ने, अवैध शिकार, ड्रग और मानव तस्करी में लिप्त लोगों सहित संभावित आर्थिक अपराधियों को रोकने के लिये विशेष आर्थिक क्षेत्र (Exclusive Economic Zones-EEZ) में निगरानी बढ़ाना है।
- भू-आर्थिक (Geo-Economic):
- विशेष भौगोलिक अवस्थिति के कारण हिंद महासागर क्षेत्र में मॉरीशस का वाणिज्यिक एवं कनेक्टिविटी के लिहाज़ से विशेष महत्त्व है।
- अफ्रीकी संघ, इंडियन ओशियन रिम एसोसिएशन और हिंद महासागर आयोग के सदस्य के तौर पर भी मॉरीशस की भौगोलिक अवस्थिति बहुत महत्त्वपूर्ण है।
- SIDS (Small Island Developing States) के संस्थापक सदस्य के रूप में यह एक विशेष पड़ोसी राष्ट्र है।
- भारत मॉरीशस का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार देश है जो वर्ष 2007 से मॉरीशस में वस्तुओं और सेवाओं का सबसे बड़ा निर्यातक बना हुआ है।
- मॉरीशस भारत के लिये सिंगापुर के बाद प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (Foreign Direct Investment- FDI) का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत है।
- क्षेत्रीय केंद्र के रूप में: मॉरीशस में नए निवेश अफ्रीका से आते हैं, अतः मॉरीशस भारत की अपनी अफ्रीकी आर्थिक आउटरीच के लिये सबसे बड़ा केंद्र हो सकता है।
- भारत तकनीकी नवाचार के एक क्षेत्रीय केंद्र के रूप में मॉरीशस के विकास में योगदान दे सकता है। अतः भारत को उच्च शिक्षा सुविधाओं के लिये मॉरीशस की माँगों पर अपनी सकारात्मक प्रतिक्रिया देनी चाहिये।
- मॉरीशस क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय समुद्री वैज्ञानिक अनुसंधान के लिये एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र साबित हो सकता है।
- द्वीप नीति का केंद्र बिंदु: अभी तक भारत दक्षिण पश्चिमी हिंद महासागर के वैनिला द्वीप (Vanilla islands) कहे जाने वाले देशों; जिनमें कोमोरोस, मेडागास्कर, मॉरीशस, मैयट, रीयूनियन और सेशेल्स शामिल हैं, का द्विपक्षीय रणनीतिक आधार पर सामना करने का प्रयास कर रहा है।
- यदि भारत मॉरीशस के विकास में सहयोगात्मक दृष्टिकोण अपनाता है तो आने वाले समय में मॉरीशस दिल्ली की द्वीपीय नीति का केंद्र बिंदु बन जाएगा।
- यह दक्षिण-पश्चिमी हिंद महासागर में एक बैंकिंग गेटवे और पर्यटन के केंद्र के रूप में भारत की वाणिज्यिक गतिविधियों को बढ़ावा दे सकता है।
- चीन के संदर्भ में बात करें तो: चीन ने “स्ट्रिंग्स ऑफ पर्ल्स” की अपनी नीति के तहत ग्वादर (पाकिस्तान) से लेकर हम्बनटोटा (श्रीलंका), यौप्यु (म्यांमार) तक हिंद महासागर क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण संबंध स्थापित किये हैं।
- ऐसे में भारत को अपनी समुद्री क्षमताओं को मज़बूत करने में और क्षमता वृद्धि करने के लिये मॉरीशस, मालदीव, श्रीलंका और सेशल्स जैसे हिंद महासागर के तटवर्ती राज्यों की सहायता करनी चाहिये।
चुनौतियाँ:
- अवधारणा बदलने की ज़रूरत है: भारत को मॉरीशस के संबंध में अपनी इस अवधारणा में तत्काल परिवर्तन की आवश्यकता है कि मॉरीशस केवल भारत की विस्तारवादी नीति का एक भाग है।
- मॉरीशस एक संप्रभु इकाई है, हिंद महासागर में अपनी विशेष स्थिति के चलते यह आर्थिक रूप से संपन्न केंद्र और एक आकर्षक रणनीतिक स्थान के कारण एक विशेष अंतर्राष्ट्रीय पहचान रखता है।
- चीन की ओर केंद्रित: हिंद महासागर के उत्तरी भाग में चीन की तेज़ी से बढ़ती उपस्थिति के साथ-साथ इस क्षेत्र में चीनी पनडुब्बियों और जहाज़ों की तैनाती भारत के लिये एक चुनौती है।
- हालाँकि भारत पर अक्सर अपने पड़ोसियों के साथ संबंधों में आत्म-केंद्रित होने का आरोप लगाया जाता रहा है।
- अक्सर इस क्षेत्र में मुख्य रूप से बड़ी और महत्वाकांक्षी बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के माध्यम से पड़ोसी देशों तक अपनी पहुँच का विस्तार करने के भारत के कदम को चीन की बढ़ती भागीदारी से प्रेरित माना जाता है।
- अति-उत्साही सुरक्षा नीति: अपने पड़ोसियों के प्रति भारत की एक अति-उत्साही सुरक्षा संचालित नीति से अतीत में भारत को कोई विशेष मदद नहीं मिली है।
- जलवायु परिवर्तन, सतत् विकास और नीली अर्थव्यवस्था जैसी कुछ सामान्य चुनौतियों पर भारत को मॉरीशस के दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करना चाहिये।
- वैश्विक एकीकरण: मॉरीशस एक द्वीपीय राष्ट्र होने के नाते दुनिया के बाकी हिस्सों से भौतिक रूप से कटा हुआ है, हालाँकि इसके बावजूद दुनिया में जो कुछ भी होता है, जैसे- विश्व आर्थिक संकट, FDI में गिरावट, व्यापार युद्ध आदि से मॉरीशस भी प्रभावित होता है।
- इसलिये, भारत के लिये IOR के समुद्री सुरक्षा के दायरे से परे अपने दृष्टिकोण को व्यापक करना बहुत ज़रूरी हो गया है।
- हिंद महासागर क्षेत्र (Indian Ocean Region): जैसे-जैसे हिंद महासागर क्षेत्र (IOR) में शक्ति संतुलन में परिवर्तन हो रहा है, दुनिया ने मॉरीशस को नए सुरक्षा प्रारूप के अभिन्न अंग के रूप में देखना शुरू कर दिया है।
- हिंद महासागर क्षेत्र में चीन की बढ़ती उपस्थिति और छोटे देशों का लाभ उठाने के लिये अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, फ्राँस और यू.के. जैसे देशों की निरंतर बढ़ती कोशिशें भारत के लिये चिंताजनक हैं।
आगे की राह:
- मॉरीशस में पंजीकृत कंपनियाँ भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (foreign direct investment-FDI) का सबसे बड़ा स्रोत हैं, जिससे भारत के लिये अपनी द्विपक्षीय कर संधि का फिर से उन्नयन करना आवश्यक हो गया है।
- जैसा कि भारत दक्षिण पश्चिमी हिंद महासागर में सुरक्षा सहयोग के लिये एक एकीकृत दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है जिसमें मॉरीशस का स्वाभाविक रूप से एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है इसलिये, भारत की नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी (Neighbourhood First policy) में सुधार करना आवश्यक हो गया है।
स्रोत: PIB
इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों पर आयात शुल्क संबंधी विवाद
प्रीलिम्स के लियेविश्व व्यापार संगठन, WTO का विवाद निपटान तंत्र मेन्स के लियेइलेक्ट्रॉनिक उत्पाद संबंधी विवाद और उसमें भारत की स्थिति |
चर्चा में क्यों?
विश्व व्यापार संगठन (World Trade Organization-WTO) ने हाल ही में जापान और ताइवान के अनुरोध पर दो और विवाद निपटान पैनल (Dispute Settlement Panels) गठित किये हैं, जो कि भारत द्वारा मोबाइल फोन समेत कुछ विशिष्ट सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (ICT) उत्पादों पर लगाए गए आयात शुल्क की जाँच करेंगे।
प्रमुख बिंदु
- भारत द्वारा अधिरोपित शुल्क के इस मुद्दे पर विश्व व्यापार संगठन (WTO) द्वारा गठित कुल विवाद निपटान पैनलों की संख्या अब बढ़कर 3 हो गई है।
- इससे पूर्व विश्व व्यापार संगठन (WTO) ने यूरोपीय संघ (EU) के अनुरोध पर इसी मुद्दे को लेकर भारत के विरुद्ध एक विवाद निपटान पैनल का गठन किया था।
विवाद
- सर्वप्रथम बीते वर्ष मई माह में, जापान और ताइवान ने विश्व व्यापार संगठन (WTO) में भारत के विरुद्ध कुछ इलेक्ट्रॉनिक सामानों पर लगाए गए आयात शुल्क को लेकर एक मामला दर्ज कराया था और परामर्श (Consultations) की मांग की थी।
- इन देशों द्वारा जिन उत्पादों के संबंध में मामला दर्ज किया गया था, उनमें टेलीफोन; ट्रांसमिशन मशीने और टेलिफोन आदि के कुछ कलपुर्जे शामिल हैं।
- इन देशों ने आरोप लगाया है कि भारत द्वारा इन उत्पादों पर आयात शुल्क लगाने से विश्व व्यापार संगठन के मानदंडों का उल्लंघन होता है क्योंकि भारत ने इन उत्पादों पर शून्य प्रतिशत बाध्य शुल्क (Bound Tariffs) की प्रतिबद्धता व्यक्त की है।
- बाध्य शुल्क (Bound Tariffs) का अभिप्राय उस अधिकतम शुल्क सीमा से होता है, जिससे अधिक आयात शुल्क विश्व व्यापार संगठन (WTO) के सदस्यों द्वारा नहीं लगाया जा सकता है।
भारत का पक्ष
- भारत ने जापान और ताइवान द्वारा लगाए गए आरोप का कड़ा विरोध किया है।
- भारत ने कहा है कि उसके द्वारा जिन सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (ICT) संबंधी विशिष्ट उत्पादों पर आयात शुल्क अधिरोपित किया गया है, वे सभी सूचना प्रौद्योगिकी समझौते- 2 (ITA-2) का हिस्सा हैं, किंतु भारत इस समझौता का हिस्सा नहीं है।
- गौरतलब है कि भारत वर्ष 1997 में हस्ताक्षरित किये गए सूचना प्रौद्योगिकी उत्पाद- 1 (ITA-1) समझौते का हिस्सा है।
- अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुए भारत ने कहा कि वह ITA-1 के प्रति पूर्ण रूप से प्रतिबद्ध है और वर्षों से इस समझौता का पालन कर रहा है।
- इस संबंध में आयोजित बैठक में भारत ने दोहराया कि भारत ITA-1 के दायरे से बाहर किसी भी प्रकार के दायित्त्व के लिये प्रतिबद्ध नहीं है।
WTO का विवाद निपटान तंत्र
- WTO की विवाद निपटान प्रणाली में किसी भी व्यापार विवाद को आरंभ में संबंधित सदस्य देशों के बीच परामर्श के माध्यम से निपटाने की कोशिश की जाती है।
- यदि यह उपाय सफल नहीं होता है तो मामला एक विवाद पैनल (Dispute Panel) के पास जाता है। विवाद पैनल का निर्णय अंतिम होता है, लेकिन उसके निर्णय के खिलाफ अपील अपीलीय प्राधिकरण (Appellate Body-AB) के समक्ष की जा सकती है।
- ध्यातव्य है कि विवाद निपटान पैनल के गठन के बाद भी अंतिम निर्णय आने में 1 से 1.5 वर्ष के समय लग सकता है, हालाँकि मौजूद महामारी के दौर में यह समय और अधिक बढ़ सकता है।
- अपीलीय प्राधिकरण (AB) द्वारा विवाद पैनल के निर्णय की समक्ष की जाती है और इस संबंध में अपीलीय प्राधिकरण का निर्णय अंतिम होता है और सदस्य देशों के लिये बाध्यकारी होता है।
- हालाँकि विश्व व्यापार संगठन (WTO) का अपीलीय प्राधिकरण बीते वर्ष दिसंबर माह से कार्य नहीं कर रहा है।
सूचना प्रौद्योगिकी समझौता
- मूल सूचना प्रौद्योगिकी समझौता (ITA) सिंगापुर में आयोजित विश्व व्यापार संगठन के पहले मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में 13 दिसंबर, 1996 को हुआ था और 1997 को हस्ताक्षित किया गया था।
- WTO सूचना प्रौद्योगिकी समझौता मुख्य तौर पर सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (ICT) संबंधी उत्पादों पर लगने वाले शुल्क को समाप्त करता है।
- इस समझौते के तहत मुख्य प्रौद्योगिकी उत्पादों को शामिल किया गया है, जिनमें कंप्यूटर, दूरसंचार उपकरण, अर्द्ध-चालक, परीक्षण उपकरण, सॉफ्टवेयर, वैज्ञानिक उपकरण और साथ ही इन उत्पादों के अधिकांश हिस्सों और सहायक उपकरण शामिल हैं।
- वर्तमान में सूचना प्रौद्योगिकी समझौते (ITA) में विश्व व्यापार संगठन (WTO) के कुल 81 सदस्य शामिल हैं।
- ध्यातव्य है कि वर्ष 2015 में सूचना प्रौद्योगिकी समझौते (ITA) को अपग्रेड किया गया था और इसमें कुछ उत्पाद शामिल किये गए थे।
स्रोत: फाइनेंशियल एक्सप्रेस
दसवीं अनुसूची के तहत विलय
प्रीलिम्स के लिये:दसवीं अनुसूची, व्हिप, राष्ट्रीय राजनैतिक दल मेन्स के लिये:राजनैतिक दलों को स्थिरता प्रदान करने में दलबदल विरोधी कानून का महत्त्व |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में बहुजन समाज पार्टी (BSP) ने राजस्थान विधानसभा मे व्हिप (Whip) जारी कर अपने छह विधान सभा सदस्यों (Member of Legislative Assemblies-MLAs) को बहुमत परीक्षण में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विरुद्ध मतदान करने के लिये कहा है। हालाँकि BSP के ये 6 विधायक विलय घोषणा के साथ सितंबर 2019 में कांग्रेस में शामिल हुए थे।
प्रमुख बिंदु:
- BSP का तर्क है कि राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी का विलय किये बिना किसी राष्ट्रीय पार्टी की राज्य इकाई का विलय नहीं किया जा सकता है।
- BSP द्वारा इन 6 विधानसभा सदस्यों के विलय को अवैध और असंवैधानिक करार दिया गया है तथा सर्वोच्च न्यायालय के दो निर्णयों का हवाला दिया गया है-
- जगजीत सिंह बनाम हरियाणा राज्य, 2006: इस वाद में, हरियाणा विधानसभा में एकल सदस्यीय दलों (Single-Member Parties) के चार विधायकों द्वारा कहा गया कि उनकी पार्टियाँ विभाजित हो गईं है और वे बाद में कांग्रेस में शामिल हो गए। न्यायालय ने इस मामले में सदस्यों को अयोग्यता ठहराने के अध्यक्ष के निर्णय को बरकरार रखा।
- राजेंद्र सिंह राणा और अन्य बनाम स्वामी प्रसाद मौर्य, 2007: वर्ष 2002 में उत्तर प्रदेश में, समाजवादी पार्टी को समर्थन देने के लिये BSP से 37 विधानसभा सदस्य सरकार गिराने के उद्देश्य से अपनी पार्टी से अलग हो गए जिनकी कुल संख्या दल की सदस्य संख्या की एक-तिहाई थी। यहाँ सर्वोच्च न्यायालय यह कहते हुए इस विभाजन को अमान्य घोषित करार दिया कि ये सभी विधायक एक साथ पार्टी से अलग नहीं हुए हैं।
- ध्यातव्य है कि उपर्युक्त दोनों मामले 91वें संवैधानिक संशोधन, 2003 से पूर्व हुए थे जिसके द्वारा दसवीं अनुसूची के अनुच्छेद 3 को हटा दिया गया था।
- विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा 'हॉर्स ट्रेडिंग’ (सदन के सदस्यों की खरीद-फरोख्त) द्वारा एक-तिहाई विभाजन के नियम के दुरुपयोग को रोकने के लिये यह संशोधन लाया गया। किसी भी राजनैतिक दल द्वारा दल-बदल हेतु एक-तिहाई सदस्यों के लक्ष्य को प्राप्त करना आसान था जबकि वर्तमान प्रावधानों के अनुसार दलीय विभाज़न की स्थिति में दल के कुल सदस्यों के दो-तिहाई सदस्य किसी दूसरे दल में शामिल हो जाते हैं तो उन्हें दल-बदल के नियमों से छूट प्रदान की गई है।
विलय के संदर्भ में संवैधानिक प्रावधान:
- पी.डी.टी. आचार्य के अनुसार, दसवीं अनुसूची (दलबदल विरोधी कानून) के तहत विलय केवल दो मूल राजनीतिक दलों (Original Political Parties) के मध्य हो सकता है जिसके लिये दो शर्तों को पूरा करने की आवश्यकता है-
- विलय दो मूल राजनीतिक दलों के बीच होना चाहिये।
- इसके बाद सदन के दो-तिहाई सदस्य जो उस पार्टी से संबंधित है उन्हें इस विलय को स्वीकार करना होगा यदि दो-तिहाई सदस्य इसे स्वीकार नहीं करते हैं तो इस विलय को स्वीकार नहीं किया जाएगा।
- आचार्य के अनुसार, दलबदल विरोधी कानून केवल दल बदल पर अंकुश नहीं लगता है बल्कि मूल रूप से यह दलीय प्रणाली की भी रक्षा करता है।
- संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप, पी.डी.टी. आचार्य के इस मत से सहमत हैं कि वह पार्टी चुनाव के लिये उम्मीदवारों को खड़ा कर सकती है जिसका विलय दसवीं अनुसूची के तहत हुआ हो तथा एक आवश्यक शर्त यह है कि उस पार्टी के दो-तिहाई विधानसभा सदस्य विलय के लिये सहमत हों।
- हालाँकि, फैजान मुस्तफा ने उपरोक्त स्थिति से असहमति व्यक्त करते हुए दो मूल दलों के बीच विलय की अवधारणा पर सवाल उठाया है। उनके अनुसार, इसका मतलब यह होगा कि विधायक दल को किसी भी राज्य में किसी के साथ विलय करने का कोई अधिकार नहीं है।
- उन्होंने दसवीं अनुसूची के तहत 'विधानमंडल दल' की परिभाषा का उल्लेख किया, जिसे उन्होंने 'उस सदन के सभी सदस्यों से युक्त समूह' (group consisting of all the members of that House) के रूप में परिभाषित किया है
- फैजान मुस्तफा के अनुसार, विलय को स्थानीय स्तर पर देखा जाना चाहिये न कि राष्ट्रीय स्तर पर। इन्होंने इस तथ्य की और ध्यान दिलाया कि दसवीं अनुसूची ’राष्ट्रीय पार्टी’ या क्षेत्रीय पार्टी के विभाजन के विषय में सूचित नहीं करती है।
पूर्व निर्णय:
- जून 2019 में, तेलुगु देशम पार्टी (Telugu Desam Party-TDP) के पाँच में से चार संसद सदस्यों द्वारा भाजपा में शामिल होने के बाद उपराष्ट्रपति द्वारा तेलुगु देशम पार्टी को राज्यसभा में सत्तारुढ़ भाजपा के साथ ‘विलय’ करने के आदेश जारी किया गया था।
- हालाँकि अभी भी उच्च सदन में अपने एक सांसद के माध्यम से तेलुगु देशम पार्टी ने अपनी उपस्थिति दर्ज़ की हुई है।
- तेलुगु देशम पार्टी ने भी बसपा की तरह ही अपनी दलील दी थी कि ‘विलय’ केवल पार्टी के संगठनात्मक स्तर पर हो सकता है न कि सदन में।
स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस
राज्यों को GST क्षतिपूर्ति का भुगतान
प्रीलिम्स के लिये:‘वस्तु एवं सेवा कर’ संरचना, अप्रत्यक्ष कर मेन्स के लिये:वस्तु एवं सेवा कर का महत्त्व, वित्तीय संघवाद पर GST का प्रभाव |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में वित्त पर गठित संसदीय स्थायी समिति को सूचित किया गया है कि वर्तमान सरकार राजस्व बँटवारे के फार्मूले के अनुसार राज्यों को ‘वस्तु एवं सेवा कर’ (Goods and Services Tax-GST) के हिस्से का भुगतान करने की स्थिति में नहीं है।
प्रमुख बिंदु:
- केंद्र सरकार द्वारा वित्त वर्ष 2019-20 के लिये राज्यों GST की क्षतिपूर्ति के लिये 13,806 करोड़ रुपए की राशि जारी की जा चुकी है।
- इससे सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल क्षमता को बेहतर करने तथा कोविड-19 महामारी हेतु राहत कार्यों को त्वरित करने में जुटे राज्यों को सहायता मिलेगी।
- महामारी के कारण वित्त वर्ष 2020-21 में राजस्व में कमी होने वाली है। यहाँ तक कि मार्च 2020 में भी GST संग्रह में भी गिरावट देखी गई है।
- यदि राजस्व संग्रह एक निश्चित सीमा से नीचे चला जाता है, तो राज्य सरकारों को क्षतिपूर्ति के भुगतान के लिये फॉर्मूले पर फिर से निर्धारित करने का GST अधिनियम में प्रावधान किया गया है।
GST के तहत मुआवज़ा:
- 101वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2016 के लागू होने के बाद 1 जुलाई, 2017 से GST व्यवस्था को लागू को लागू किया गया जिसमे बड़ी संख्या में केंद्रीय और राज्य अप्रत्यक्ष कर एकल GST में शामिल कर लिये गए।
- GST कार्यान्वयन से कर राजस्व में कमी होने पर केंद्र सरकार द्वारा पाँच वर्ष के लिये राज्यों को क्षतिपूर्ति के भुगतान का वायदा किया गया है। इसी कारण GST व्यवस्था के लिये अनिच्छुक कई राज्यों ने भी इस नई अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था पर हस्ताक्षर किये थे।
- GST अधिनियम के अनुसार यदि प्रथम पाँच वर्षों तक राजस्व संग्रहण में संवृद्धि 14% (आधार वर्ष 2015-16) से नीचे आने पर राज्यों को इसकी क्षतिपूर्ति का भुगतान केंद्र द्वारा किया जाएगा।
- क्षतिपूर्ति उपकर (Compensation Cess) के माध्यम से केंद्र सरकार द्वारा राज्यों को प्रति दो माह पर GST क्षतिपूर्ति का भुगतान किया जाता है।
- इस उपकर को 1 जुलाई, 2022 तक चुनिंदा वस्तुओं (विलासिता और उपभोग की वस्तु) और/या सेवाओं या दोनों की आपूर्ति पर लगाकर एकत्र किया जाएगा।
- विशिष्ट अधिसूचित वस्तुओं का निर्यात करने वाले तथा’ GST कंपोज़िशन योजना’ (GST Composition Scheme) का विकल्प चुनने वालों के अलावा, सभी करदाता केंद्र सरकार को क्षतिपूर्ति उपकर के संग्रहण एवं प्रेषण हेतु उत्तरदायी हैं।
चिंताएँ:
- प्राथमिकताओं से विचलन: समिति द्वारा लॉकडाउन के बाद अपनी पहली बैठक आयोजित की गई जिसमे वर्तमान महामारी और इसके विरुद्ध भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति पर चर्चा करने के बजाय ‘नवाचार पारितंत्र एवं भारत की विकास कंपनियों का वित्तीयन’ जैसे विषय पर चर्चा की गई।
- अस्पष्ट वित्त: वर्ष 2020-21 का बजट अब प्रासंगिक नहीं है क्योंकि यह राजस्व संग्रह के बारे में कुछ अनुमानों पर आधारित था और इस वर्ष समग्र राजस्व कमी पर सरकार की ओर से कोई स्पष्टीकरण प्रस्तुत नहीं किया गया है।
- विभिन्न आर्थिक गतिविधियों को प्रेरित करने के लिये सरकार द्वारा किसी राहत पैकेज की प्रभावकारिता पर भी कोई स्पष्टता व्यक्त नहीं की गई है।
- बढ़ता अंतराल: क्षतिपूर्ति उपकर तथा केंद्र द्वारा राज्यों को किये जाने वाले भुगतान के बीच अंतराल संभावित आर्थिक संकुचन के साथ बढ़ने की आंशका है और इससे GST संग्रह भी प्रभावित हो सकता है।
- महामारी के दौरान लोगों द्वारा विलासिता की वस्तुओं पर कम खर्च करने की प्रवृत्ति से क्षतिपूर्ति उपकर अंतर्वाह में कमी आ सकती है।
- भुगतान की समस्या: इस वर्ष राज्यों को मुआवजा देना केंद्र के लिये और भी कठिन होने वाला है क्योंकि वित्त वर्ष 2019-20 में राज्यों को दिया जाने वाला क्षतिपूर्ति भुगतान लगभग 70,000 करोड़ रुपए कम है।
- GST लागू होने के पहले दो वर्षों में उपकर राशि एवं भारत की संचित निधि से एकीकृत GST (Integrated Goods and Service Tax-IGST) निधियों का प्रयोग करके इस समस्या का समाधान किया गया था।
- IGST को वस्तुओं और सेवाओं की अंतर्राज्यीय आपूर्ति पर लगाया जाता है तथा वर्ष 2017-18 में एकत्र किये गए इसके कुछ हिस्से का अभी तक राज्यों को आवंटन नहीं किया गया है।
- बैठकों में विलंब: क्षतिपूर्ति के मुद्दे पर कार्य करने के लिये GST परिषद (GST Council) की बैठक जुलाई में प्रस्तावित थी लेकिन अभी तक बैठक आयोजित नहीं की गई है।
आगे की राह:
- राज्यों को क्षतिपूर्ति के वायदे को पूरा करने के लिये केंद्र द्वारा भविष्य में GST उपकर संग्रहण की गारंटी पर विशेष ऋण लेने के सुझाव पर विचार किया जा सकता है।
- केंद्र एवं राज्यों दोनों को महामारी के कारण पैदा हुई कई चुनौतियों से निपटने के लिये नकदी पर स्पष्टता और निश्चितता की आवश्यकता है ताकि महामारी की स्थिति को प्रभावी ढंग से संभाला जा सके।
- देश की आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देने की आवश्यकता है और सरकार को उन तरीकों के बारे में सोचने की जरूरत है जिनके माध्यम से GST संग्रह को बढ़ाया जा सकता है।
स्रोत: द हिंदू