भारतीय अर्थव्यवस्था
दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता के सात वर्ष
प्रिलिम्स के लिये:दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता (IBC), राष्ट्रीय कंपनी विधि अधिकरण न्यायाधिकरण (NCLT), दिवाला, शोधन अक्षमता मेन्स के लिये:IBC के समक्ष चुनौतियाँ, भारतीय अर्थव्यवस्था और योजना से संबंधित मुद्दे, संसाधनों को जुटाना, वृद्धि, विकास एवं रोज़गार |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता (IBC) को वर्ष 2016 में पेश किया गया। यह भारत में तनावग्रस्त परिसंपत्तियों के समाधान और क्रेडिट संस्कृति में सुधार करने में एक परिवर्तनकारी उपकरण रहा है।
- हालाँकि CRISIL रेटिंग की एक हालिया रिपोर्ट में कुछ चुनौतियों पर प्रकाश डाला गया है जो IBC के सात वर्ष पूरे होने पर इसकी सफलता को प्रभावित कर रही हैं।
टिप्पणी:
- CRISIL रेटिंग भारत की अग्रणी क्रेडिट रेटिंग एजेंसी CRISIL लिमिटेड की सहायक कंपनी है।
- यह एक पूर्ण-सेवा रेटिंग एजेंसी है जो विनिर्माण कंपनियों से लेकर वित्तीय संस्थानों तक ऋण उपकरणों की संपूर्ण शृंखला की रेटिंग करती है।
IBC की सफलता में क्या बाधा आ रही है?
- गिरती रिकवरी दरें:
- मार्च 2019 और सितंबर 2023 के दौरान रिकवरी दर में 43% से 32% तक की उल्लेखनीय गिरावट देखी गई है।
- पुनर्प्राप्ति/रिकवरी दर स्वीकृत दावों का प्रतिशत है जिसे लेनदार IBC के तहत कॉर्पोरेट देनदार के रिज़ॉल्यूशन या परिसमापन से वसूल करते हैं।
- मूल कारण
- सीमित न्यायिक पीठ की शक्ति: IBC समाधान प्रक्रिया न्यायाधीशों की कमी के कारण बाधित होती है, जिसके परिणामस्वरूप मामले की प्रोसेसिंग/कार्रवाई मंद पड़ जाती है। जिस कारण इसके समाधान में अधिक समय लगता है।
- डिफॉल्ट की पहचान में देरी: डिफॉल्ट की पहचान और उसे स्वीकार करने में समय लेने वाली प्रक्रियाएँ पुनर्प्राप्ति दर को कम करने में योगदान देती हैं। यह समाधान कार्यवाही को समय पर शुरू करने में बाधा उत्पन्न करता है, जिससे वसूली दर कम हो जाती है।
- प्रभाव:
- परिसंपत्ति मूल्य में कमी
- ऋणदाताओं और हितधारकों को प्रभावित करने वाली वसूली इष्टतम से कम।
- मार्च 2019 और सितंबर 2023 के दौरान रिकवरी दर में 43% से 32% तक की उल्लेखनीय गिरावट देखी गई है।
- बढ़ा हुआ समाधान समय:
- औसत समाधान समय 324 से बढ़कर 653 दिन हो गया है, जो निर्धारित 330 दिनों से कहीं अधिक है।
- समाधान समय दिवाला आवेदन के स्वीकार होने और समाधान योजना के अनुमोदन या राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (NCLT) द्वारा परिसमापन के आदेश के बीच की अवधि है।
- मूल कारण:
- लंबे समय तक पूर्व-IBC प्रवेश चरण: इस चरण में विलंब, वित्तीय वर्ष 2022 में 650 दिनों तक (वित्तीय वर्ष 2019 में लगभग 450 दिनों से अधिक) रहा।
- प्रभाव:
- धीमी समाधान प्रक्रियाएँ।
- कार्यवाही शुरू करने में देरी के कारण वसूली दर का दमन।
- औसत समाधान समय 324 से बढ़कर 653 दिन हो गया है, जो निर्धारित 330 दिनों से कहीं अधिक है।
दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता (IBC), 2016 क्या है?
- परिचय:
- IBC, 2016 भारत का शोधन अक्षमता कानून है जो कॉर्पोरेट, साझेदारी फर्मों एवं व्यक्तियों के दिवाला और शोधन अक्षमता से संबंधित मौजूदा कानूनों को समेकित तथा संशोधित करता है।
- दिवाला एक ऐसी स्थिति है जहाँ किसी व्यक्ति या संगठन की देनदारियाँ उसकी संपत्ति से अधिक हो जाती हैं और वह संस्था अपने दायित्वों या ऋणों को पूरा करने के लिये पर्याप्त नकदी जुटाने में असमर्थ होती है क्योंकि उनका भुगतान बकाया हो जाता है।
- शोधन अक्षमता की स्थिति तब होती है जब किसी व्यक्ति या कंपनी को कानूनी तौर पर उनके देय बिलों का भुगतान करने में असमर्थ घोषित कर दिया जाता है।
- IBC का लक्ष्य दिवाला समाधान के लिये समयबद्ध और लेनदार-संचालित प्रक्रिया प्रदान करना तथा देश में क्रेडिट संस्कृति व कारोबारी माहौल में सुधार करना है।
- IBC शोधन अक्षमता कंपनियों से जुड़े दावों का समाधान करती है। इसका उद्देश्य बैंकिंग प्रणाली को प्रभावित करने वाली खराब ऋण समस्याओं से निपटना था।
- IBC, 2016 भारत का शोधन अक्षमता कानून है जो कॉर्पोरेट, साझेदारी फर्मों एवं व्यक्तियों के दिवाला और शोधन अक्षमता से संबंधित मौजूदा कानूनों को समेकित तथा संशोधित करता है।
- नियामक प्राधिकरण:
- भारतीय दिवाला एवं शोधन अक्षमता बोर्ड (IBBI) की स्थापना दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता, 2016 के तहत की गई थी।
- यह एक वैधानिक निकाय है, जो भारत में कॉर्पोरेट, साझेदारी फर्मों व व्यक्तियों के दिवाला और शोधन अक्षमता समाधान के लिये नियम एवं विनियम बनाने तथा लागू करने हेतु ज़िम्मेदार है।
- IBBI में 10 सदस्य हैं, जो वित्त मंत्रालय, कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय और भारतीय रिज़र्व बैंक का प्रतिनिधित्व करते हैं।
- निर्णायक प्राधिकारी:
- राष्ट्रीय कंपनी विधि अधिकरण (National Company Law Tribunal- NCLT) का कंपनियों, अन्य सीमित देयता संस्थाओं पर अधिकार क्षेत्र है।
- ऋण वसूली न्यायाधिकरण (Debt Recovery Tribunal- DRT) के पास सीमित देयता भागीदारी के अलावा अन्य व्यक्तियों और साझेदारी फर्मों पर अधिकार क्षेत्र है।
- IBC में संशोधन:
- उभरती चुनौतियों से निपटने और इसकी प्रभावशीलता बढ़ाने के लिये पिछले 12 महीनों में IBC में महत्त्वपूर्ण संशोधन हुए हैं।
- इन संशोधनों में अलग-अलग आधार पर परिसंपत्तियों की बिक्री या समाधान योजनाओं को मंज़ूरी देना, NCLT पीठों की संख्या बढ़ाकर 16 करना और दावे दायर करने के लिये समयसीमा बढ़ाना शामिल है।
- अद्वितीय चुनौतियों का समाधान करने के लिये सेक्टर-विशिष्ट संशोधन, कॉर्पोरेट देनदारों के ऑडिट के प्रावधान और फॉर्म G2 में संशोधन पेश किये गए हैं।
- उभरती चुनौतियों से निपटने और इसकी प्रभावशीलता बढ़ाने के लिये पिछले 12 महीनों में IBC में महत्त्वपूर्ण संशोधन हुए हैं।
- उपलब्धियाँ:
- CRISIL के अनुसार, वर्ष 2016 में अपनी स्थापना के बाद से IBC ने सात वर्षों में 808 मामलों में फँसे 3.16 लाख करोड़ रुपए के कर्ज़ का निपटान किया है।
- इसने ऋण वसूली न्यायाधिकरण, वित्तीय संपत्तियों का प्रतिभूतिकरण और पुनर्निर्माण एवं सुरक्षा हित का प्रवर्तन (SARFAESI) अधिनियम, 2002 तथा लोक अदालत जैसे पिछले तंत्रों की तुलना में बेहतर वसूली दरों के साथ बड़ी मात्रा में तनावग्रस्त संपत्तियों का निपटान किया है।
- IBC ने उच्च वसूली दर हासिल की है, लेनदारों को औसतन 32% स्वीकृत दावों और 169% परिसमापन मूल्य का एहसास हुआ है।
- इसके विपरीत अन्य तंत्रों में पुनर्प्राप्ति दर 5-20% के बीच थी।
- IBC का निवारक प्रभाव स्पष्ट है क्योंकि उधारकर्त्ताओं ने कंपनियों के नुकसान के डर से सक्रिय रूप से दिवालिया प्रक्रिया मामले में शामिल होने से पहले 9 लाख करोड़ रुपए से अधिक के ऋण का निपटान किया है।
- यह उधारकर्त्ताओं के बीच एक महत्त्वपूर्ण व्यावहारिक परिवर्तन को उजागर करता है, जो समय पर निपटान को प्रोत्साहित करने में दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता की प्रभावकारिता को प्रदर्शित करता है।
IBC संबंधित चुनौतियों का समाधान कैसे कर सकता है?
- CRISIL रेटिंग ने IBC के प्रदर्शन को बढ़ाने के लिये एक CDE दृष्टिकोण का सुझाव दिया, जहाँ C का अर्थ क्षमता (Capacity) वृद्धि, D का अर्थ डिजिटलीकरण (Digitalisation) तथा E का अर्थ बड़े कॉरपोरेट्स के लिये प्री-पैक रिज़ॉल्यूशन का विस्तार (Expansion of pre-pack resolutions to large corporates) है।
- क्षमता वृद्धि मामले में IBC कार्यान्वयन के लिये उत्तरदायी NCLT जैसे प्रमुख संस्थानों के बुनियादी ढाँचे तथा मानव संसाधनों को बढ़ाना शामिल है।
- इसका उद्देश्य समाधान के विभिन्न चरणों में 13,000 मामलों के बैकलॉग को कम करके संबंधित मामलों के समाधान में गतिशीलता प्रदान करना है।
- डिजिटलीकरण का तात्पर्य IBC प्रक्रिया में शामिल सभी हितधारकों को जोड़ने के लिये एक डिजिटल प्लेटफॉर्म बनाना है।
- इससे डेटा विषमता को खत्म करने, पारदर्शिता बढ़ाने तथा त्वरित निर्णय लेने की सुविधा मिलेगी।
- प्री-पैकेज़्ड इन्सॉल्वेंसी रिज़ॉल्यूशन प्रोसेस (PPIRP) को बड़े निगमों तक विस्तारित करने से समय के साथ मूल्य में गिरावट को रोकने में मदद मिलेगी।
- क्षमता वृद्धि मामले में IBC कार्यान्वयन के लिये उत्तरदायी NCLT जैसे प्रमुख संस्थानों के बुनियादी ढाँचे तथा मानव संसाधनों को बढ़ाना शामिल है।
विधिक दृष्टिकोण:
महत्वपूर्ण संस्थानों के बारे में विस्तार से पढ़ें:
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा हाल ही में समाचारों में आए 'दबावयुक्त परिसंपत्तियों के धारणीय संरचना पद्धति (स्कीम फॉर सस्टेनेबल स्ट्रक्चरिंग ऑफ स्ट्रेस्ड एसेट्स/S4A)' का सर्वोत्कृष्ट वर्णन करता है? (2017) (a) यह सरकार द्वारा निरूपित विकासपरक योजनाओं की पारिस्थितिकीय कीमतों पर विचार करने की पद्धति है । उत्तर: (b) |
भारतीय राजनीति
विशेष श्रेणी का दर्जा
प्रिलिम्स के लिये:विशेष श्रेणी का दर्जा, बिहार जाति-आधारित सर्वेक्षण, 2022, योजना आयोग, अनुच्छेद 370, केंद्र प्रायोजित योजना मेन्स के लिये:विशेष श्रेणी का दर्जा, विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये सरकारी नीतियाँ और हस्तक्षेप तथा उनकी रूपरेखा और कार्यान्वयन से उत्पन्न होने वाले मुद्दे |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में बिहार कैबिनेट ने बिहार को विशेष श्रेणी का दर्जा (SCS) देने की मांग करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया है।
- यह मांग "बिहार जाति-आधारित सर्वेक्षण, 2022" के निष्कर्षों की पृष्ठभूमि में उठी है, जिसमें पता चला है कि बिहार की लगभग एक-तिहाई आबादी निर्धनता में जीवन यापन कर रही है।
विशेष श्रेणी का दर्जा क्या है?
- परिचय:
- SCS भौगोलिक तथा सामाजिक-आर्थिक नुकसान का सामना करने वाले राज्यों के विकास में सहायता के लिये केंद्र द्वारा निर्धारित एक वर्गीकरण है।
- संविधान SCS के लिये कोई प्रावधान नहीं करता है तथा यह वर्गीकरण बाद में वर्ष 1969 में पाँचवें वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर किया गया था।
- पहली बार वर्ष 1969 में जम्मू-कश्मीर, असम तथा नगालैंड को यह दर्जा प्रदान किया गया था।
- पूर्व में योजना आयोग की राष्ट्रीय विकास परिषद द्वारा योजना के तहत सहायता के लिये SCS प्रदान किया गया था।
- असम, नगालैंड, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम, उत्तराखंड और तेलंगाना सहित 11 राज्यों को विशेष श्रेणी का दर्जा दिया गया।
- भारत के सबसे नए राज्य तेलंगाना को यह दर्जा दिया गया क्योंकि इसे दूसरे राज्य आंध्र प्रदेश से अलग कर गठित किया गया था।
- SCS, विशेष दर्जे से भिन्न है जो कि उन्नत विधायी तथा राजनीतिक अधिकार प्रदान करता है, जबकि SCS केवल आर्थिक एवं वित्तीय पहलुओं से संबंधित है।
- उदाहरण के लिये अनुच्छेद 370 के निरस्त होने से पहले जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा प्राप्त था।
- निर्धारक (गाडगिल सिफारिश पर आधारित):
- पहाड़ी इलाका
- कम जनसंख्या घनत्व और/या जनजातीय जनसंख्या का बड़ा हिस्सा
- पड़ोसी देशों के साथ सीमाओं पर सामरिक स्थिति
- आर्थिक तथा आधारभूत संरचना में पिछड़ापन
- राज्य के वित्त की अव्यवहार्य प्रकृति
- लाभ:
- अतीत में SCS राज्यों को गाडगिल-मुखर्जी फॉर्मूले द्वारा निर्धारित लगभग 30% केंद्रीय सहायता मिलती थी।
- हालाँकि 14वें और 15वें वित्त आयोग (Finance Commissions- FC) की सिफारिशों तथा योजना आयोग के विघटन के बाद SCS राज्यों को यह सहायता सभी राज्यों के लिये वितरण पूल फंड (Divisible Pool Funds) के बड़े हस्तांतरण में शामिल कर दी गई है (जो कि 15वें वित्त आयोग में 32% से 41% तक बढ़ गई है)।
- केंद्र विशेष श्रेणी दर्जा प्राप्त राज्यों को केंद्र-प्रायोजित योजना में आवश्यक धनराशि का 90% का भुगतान करता है, जबकि अन्य राज्यों के मामले में यह 60% या 75% है, जबकि शेष धनराशि राज्य सरकारों द्वारा प्रदान की जाती है।
- एक वित्तीय वर्ष में खर्च नहीं किया गया धन आगामी सत्र के लिये संरक्षित कर लिया जाता है और समाप्त नहीं होता है।
- इन राज्यों को उत्पाद शुल्क एवं सीमा शुल्क, आयकर एवं कॉर्पोरेट कर में महत्त्वपूर्ण रियायतें प्रदान की जाती हैं।
- केंद्र के सकल बजट का 30% विशेष श्रेणी के राज्यों को जाता है।
- अतीत में SCS राज्यों को गाडगिल-मुखर्जी फॉर्मूले द्वारा निर्धारित लगभग 30% केंद्रीय सहायता मिलती थी।
बिहार क्यों मांग रहा है विशेष राज्य का दर्जा (SCS)?
- आर्थिक असमानताएँ:
- बिहार को औद्योगिक विकास की कमी और सीमित निवेश अवसरों सहित गंभीर आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
- राज्य के विभाजन के परिणामस्वरूप उद्योगों को झारखंड में स्थानांतरित कर दिया गया, जिससे बिहार में रोज़गार और आर्थिक विकास के मुद्दे बढ़ गए।
- प्राकृतिक आपदाएँ:
- राज्य, उत्तरी क्षेत्र में बाढ़ और दक्षिणी भाग में गंभीर सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाओं से जूझ रहा है।
- बार-बार आने वाली आपदाएँ कृषि गतिविधियों को बाधित करती हैं, जिससे आजीविका और आर्थिक स्थिरता प्रभावित होती है।
- बुनियादी ढाँचे की कमी:
- बुनियादी ढाँचा, विशेषकर सिंचाई सुविधाओं और जल आपूर्ति के मामले में अपर्याप्त बना हुआ है।
- सिंचाई के लिये पर्याप्त संसाधनों का अभाव कृषि उत्पादकता को प्रभावित करता है, जो आबादी के एक बड़े हिस्से के लिये आजीविका का प्राथमिक स्रोत है।
- गरीबी और सामाजिक विकास:
- बिहार में गरीबी दर उच्च है, यहाँ बड़ी संख्या में परिवार गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं।
- लगभग 54,000 रुपए प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के साथ बिहार लगातार सबसे गरीब राज्यों में से एक रहा है। बिहार में लगभग 94 लाख गरीब परिवार हैं और SCS देने से सरकार को अगले 5 वर्षों में विभिन्न कल्याण उपायों के लिये आवश्यक लगभग 2.5 लाख करोड़ रुपए प्राप्त करने में मदद मिलेगी।
- विकास के लिये वित्तपोषण:
- SCS की मांग का उद्देश्य केंद्र सरकार से पर्याप्त वित्तीय सहायता प्राप्त करना है, जिससे बिहार को विकास परियोजनाओं के लिये आवश्यक धन प्राप्त करने और लंबे समय से चली आ रही सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों का समाधान करने में सहायता मिलेगी।
क्या बिहार SCS के अनुदान हेतु मानदंड पूरा करता है?
- यद्यपि बिहार SCS अनुदान के अधिकांश मानदंडों को पूरा करता है, लेकिन यह पहाड़ी इलाकों और भौगोलिक रूप से विषम क्षेत्रों की आवश्यकता को पूरा नहीं करता है, जिसे बुनियादी ढाँचे के विकास में कठिनाई का प्राथमिक कारण माना जाता है।
- वर्ष 2013 में केंद्र द्वारा गठित रघुराम राजन समिति ने बिहार को ‘अल्प विकसित श्रेणी’ में रखा और SCS के बजाय ‘बहु-आयामी सूचकांक’ पर आधारित एक नई पद्धति का सुझाव दिया, जिस पर राज्य के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिये पुनः विचार किया जा सकता है।
क्या अन्य राज्य भी SCS चाहते हैं?
- वर्ष 2014 में अपने विभाजन के बाद आंध्र प्रदेश ने हैदराबाद के तेलंगाना में जाने के कारण राजस्व हानि के आधार पर SCS अनुदान मांगा है।
- इसके अतिरिक्त ओडिशा भी चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदाओं और एक बड़ी जनजातीय आबादी (लगभग 22%) के प्रति अपनी संवेदनशीलता को उजागर करते हुए SCS के लिये अनुरोध कर रहा है।
- फिर भी केंद्र सरकार ने 14वीं FC रिपोर्ट का हवाला देते हुए उनके अनुरोधों को लगातार खारिज़ कर दिया है, जिसमें केंद्र को सिफारिश की गई थी कि किसी भी राज्य को SCS नहीं दिया जाना चाहिये।
विशेष श्रेणी दर्जे (SCS) से संबंधित चिंताएँ क्या हैं?
- संसाधनों का आवंटन:
- SCS देने में राज्य को अतिरिक्त वित्तीय सहायता प्रदान करना शामिल है, जो केंद्र सरकार के संसाधनों पर दबाव डाल सकता है। विभिन्न राज्यों के बीच धन के आवंटन को संतुलित करना महत्त्वपूर्ण हो जाता है और SCS देने से गैर-विशेष श्रेणी दर्जा राज्यों के बीच असमानता या असंतोष उत्पन्न हो सकता है।
- केंद्रीय सहायता पर निर्भरता:
- SCS वाले राज्य अक्सर केंद्रीय सहायता पर अत्यधिक निर्भर हो जाते हैं। यह संभावित रूप से आत्मनिर्भरता और स्वतंत्र आर्थिक विकास रणनीतियों के प्रयासों को हतोत्साहित कर सकता है।
- कार्यान्वयन चुनौतियाँ:
- SCS के अनुदान के बाद भी प्रशासनिक अक्षमताओं, भ्रष्टाचार या उचित योजना की कमी के कारण धनराशि के प्रभावी उपयोग जैसी चुनौतियाँ आवंटित धनराशि का उपयोग इच्छित उद्देश्यों के लिये करने में बाधक बन सकती हैं।
आगे की राह
- निष्पक्षता और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिये SCS देने के मानदंडों पर पुनः विचार करने और उन्हें परिष्कृत करने की आवश्यकता है। सामाजिक-आर्थिक संकेतकों, बुनियादी ढाँचे के विकास और अन्य प्रासंगिक कारकों के आधार पर पात्रता के मापदंडों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करना।
- राज्यों को व्यापक विकास योजनाएँ बनाने के लिये प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है जिसमें सतत् विकास, रोज़गार सृजन, बुनियादी ढाँचे का विकास और मानव पूंजी विकास पर ध्यान केंद्रित करना शामिल है। SCS को समग्र विकास के लिये व्यापक रणनीति का हिस्सा बनाना चाहिये।
- ऐसी नीतियाँ लागू करना जो आत्मनिर्भरता और आर्थिक विविधीकरण को बढ़ावा देकर केंद्रीय सहायता पर राज्यों की निर्भरता को धीरे-धीरे कम करें। राज्यों को अपना राजस्व उत्पन्न करने के लिये प्रोत्साहित करना।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
भारत में फार्म फायर डेटा का संग्रह
प्रिलिम्स के लिये:अंतरिक्ष से एग्रोइकोसिस्टम मॉनीटरिंग और मॉडलिंग पर रिसर्च हेतु कंसोर्टियम, सुओमी NPP सैटेलाइट, मॉडरेट रिज़ॉल्यूशन इमेजिंग स्पेक्ट्रोरेडियोमीटर (MODIS), विज़िबल इन्फ्रारेड इमेजिंग रेडियोमीटर सूट, बेलर मशीन, हैप्पी सीडर, बायो-एंज़ाइम PUSA मेन्स के लिये:खेतों में आगजनी के डेटा संग्रह से संबंधित पहलू, फसल-अवशेष प्रबंधन हेतु नवीन तकनीकें |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
जैसे-जैसे खेतों में आगजनी का मौसम करीब आ रहा है, सितंबर से नवंबर 2023 तक छह उत्तर भारतीय राज्यों में ऐसी आग की कुल 55,725 घटनाएँ दर्ज की गई हैं।
- ये आँकड़े स्थापित और मानकीकृत निगरानी प्रोटोकॉल का पालन करते हुए उपग्रह निगरानी के माध्यम से प्राप्त किये गए हैं।
खेत की आग क्या है?
- खेत की आग (Farm Fires) आमतौर पर कृषि क्षेत्रों में मुख्य रूप से फसल के मौसम के बाद फसल के अवशेषों को साफ करने के लिये जान-बूझकर लगाई गई आग को संदर्भित करती है, विशेष रूप से उन क्षेत्रों में जहाँ पराली जलाई जाती है।
- इन आग को घटनाओं में प्रायः आगामी रोपण मौसम हेतु खेतों को जल्दी से तैयार करने के लिये बचे हुए पुआल, ठूँठ या फसल के अवशेषों का दहन शामिल होता है।
- हालाँकि मशीनरी की खराबी या अन्य अनपेक्षित कारणों से भी खेत में आग लग सकती है।
- हालाँकि यह किसानों के लिये लागत प्रभावी और समय बचाने वाला तरीका हो सकता है, लेकिन इससे वायु प्रदूषण की गंभीर स्थिति उत्पन्न होती है, जिससे वायुमंडल में बड़ी मात्रा में धुआँ, कणिका पदार्थ और ग्रीनहाउस गैसें उत्सर्जित होती हैं।
खेतों में लगी आग के डेटा संग्रहण से संबंधित प्रमुख पहलू क्या हैं?
- डेटा संग्रहण निकाय:
- भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) कंसोर्टियम फॉर रिसर्च ऑन एग्रोइकोसिस्टम मॉनीटरिंग एंड मॉडलिंग फ्रॉम स्पेस (CREAMS) प्रयोगशाला द्वारा धान के अवशेषों की आग पर एक दैनिक रिपोर्ट जारी की गई है।
- इसकी स्थापना वर्ष 2013 में की गई थी, जिसका प्राथमिक उद्देश्य चरम जलवायु घटनाओं के खिलाफ फसल की स्थिति की निगरानी करना था।
- इस व्यापक बुलेटिन में पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और दिल्ली में खेतों में आग लगने की घटनाओं का विवरण दिया गया है।
- इसमें वर्ष 2020 के बाद से दर्ज की गई घटनाओं का ज़िला-वार विवरण शामिल है, जिसमें आग का स्थान, उपयोग किये गए उपग्रह, टाइमस्टैम्प और तीव्रता को निर्दिष्ट किया गया है।
- रिपोर्ट को केंद्रीय एवं राज्य-स्तरीय एजेंसियों के साथ साझा किया जाता है, ताकि कार्यों का मार्गदर्शन किया जा सके और केंद्रित हस्तक्षेप की आवश्यकता वाले हॉटस्पॉट की पहचान की जा सके।
- भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) कंसोर्टियम फॉर रिसर्च ऑन एग्रोइकोसिस्टम मॉनीटरिंग एंड मॉडलिंग फ्रॉम स्पेस (CREAMS) प्रयोगशाला द्वारा धान के अवशेषों की आग पर एक दैनिक रिपोर्ट जारी की गई है।
- उपग्रहों के माध्यम से डेटा संग्रह:
- नासा के तीन अलग-अलग उपग्रहों पर लगे तीन सेंसर: एक जिसे सुओमी NPP सैटेलाइट पर विज़िबल इन्फ्रारेड इमेजिंग रेडियोमीटर सूट (VIIRS) कहा जाता है और दो मॉडरेट रेज़ोल्यूशन इमेजिंग स्पेक्ट्रोरेडियोमीटर (MODIS) हैं, जो टेरा और एक्वा उपग्रहों पर हैं, भूमि सतह तापमान रिकॉर्ड करके इस डेटा को एकत्र करता है।
- प्रत्येक उपग्रह प्रत्येक 24 घंटे में दो बार अलग-अलग समय पर भारतीय उपमहाद्वीप के ऊपर से गुज़रता है।
- पिछले पाँच वर्षों में प्रयोगशाला ने जले हुए क्षेत्रों का मानचित्रण करने के लिये एक अलग उपग्रह सेट का उपयोग किया है। यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी का हिस्सा सेंटिनल-2 उपग्रह इस उद्देश्य को पूरा करता है।
- नासा के तीन अलग-अलग उपग्रहों पर लगे तीन सेंसर: एक जिसे सुओमी NPP सैटेलाइट पर विज़िबल इन्फ्रारेड इमेजिंग रेडियोमीटर सूट (VIIRS) कहा जाता है और दो मॉडरेट रेज़ोल्यूशन इमेजिंग स्पेक्ट्रोरेडियोमीटर (MODIS) हैं, जो टेरा और एक्वा उपग्रहों पर हैं, भूमि सतह तापमान रिकॉर्ड करके इस डेटा को एकत्र करता है।
- निगरानी प्रोटोकॉल:
- IARI अपने ग्राउंड स्टेशन और नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर से सैटेलाइट डेटा प्राप्त करता है, जिससे पूरे देश में खेतों में लगने वाली आग की साल भर निगरानी सुनिश्चित होती है।
- वर्ष 2021 से पहले विभिन्न कार्यप्रणालियों के चलते विभिन्न निगरानी केंद्रों में दर्ज की गई खेत में आग की घटनाओं में विसंगतियाँ पाई गईं।
- हालाँकि वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग ने वर्ष 2021 में एक मानकीकृत प्रोटोकॉल लागू किया।
- IARI ने इस प्रोटोकॉल का उपयोग करके वर्ष 2020 में डेटा को पुन: संसाधित किया, जिससे वर्ष 2020 से तुलनात्मक विश्लेषण करना संभव हो पाया।
- धान के खेत में लगी आग की पहचान:
- धान के खेत में लगी आग की पहचान करने में उसे वनाग्नि या उद्योगों से उत्पन्न होने वाली आग से अलग करना शामिल है। पहचान के लिये धान की आग को वनाग्नि और औद्योगिक क्षेत्र में लगने वाली आग से अलग करना होगा।
- यह प्रक्रिया धान की खेती के क्षेत्रों की पहचान करने और उसके अनुसार खेत की आग का मानचित्रण करने से शुरू होती है।
- गन्ना या मक्का जैसी अन्य फसलों के विपरीत धान की खेती जल की अपनी विशिष्ट पृष्ठभूमि के कारण समय के साथ एक विशिष्ट परावर्तन संकेत प्रदर्शित करती है। इस संकेत को आग की घटनाओं के साथ जोड़ने से धान के खेत में लगी आग को पहचानने में मदद मिलती है।
- उपग्रह विशिष्ट सीमा से ऊपर भूमि की सतह के ताप में वृद्धि का पता लगाकर धान के खेतों में सक्रिय आग का निर्धारण किया जाता है तथा उसे आसपास के क्षेत्रों से अलग कर सकते हैं।
- धान के खेत में लगी आग की पहचान करने में उसे वनाग्नि या उद्योगों से उत्पन्न होने वाली आग से अलग करना शामिल है। पहचान के लिये धान की आग को वनाग्नि और औद्योगिक क्षेत्र में लगने वाली आग से अलग करना होगा।
नोट: आग का पता लगाना प्रभावित क्षेत्र की तुलना में जले हुए अवशेषों की मात्रा पर अधिक निर्भर करता है। अधिक मात्रा में अवशेष जलाने से आसपास के ताप की तुलना में उल्लेखनीय वृद्धि होती है, जो आग की अधिक तीव्रता तथा पता लगाने की संभावना को दर्शाता है।
- जलाए गए अवशेषों की मात्रा का अनुमान आग की तीव्रता से लगाया जा सकता है, जिसे प्रति इकाई क्षेत्र और अवधि के मामले में उत्सर्जित ऊर्जा की मात्रा के रूप में परिभाषित किया गया है।
- सीमाएँ और चुनौतियाँ:
- मौसम का प्रभाव: जलवायु परिस्थितियाँ, विशेष रूप से मेघ आवरण तथा जल वाष्प, उपग्रह सेंसर को बाधित कर सकते हैं, सटीक रीडिंग एवं डेटा अधिग्रहण में बाधा डाल सकते हैं।
- मौसम तथा दिन के समय में परिवर्तनशीलता: मौसम में बदलाव तथा दिन एवं रात की स्थितियों के बीच विसंगतियाँ आग का पता लगाने की सीमा की प्रभावशीलता को प्रभावित करती हैं, जिससे लगातार निगरानी में बाधाएँ उत्पन्न होती हैं।
फसल-अवशेष प्रबंधन के लिये नवीन तकनीकें क्या हैं?
निष्कर्ष:
- खेत की आग को रोकने तथा पर्यावरण व सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं पर उसके प्रभाव को कम करने के लिये प्रभावी रणनीति तैयार करने में डेटा संग्रह की जटिलताओं एवं सीमाओं को समझना महत्त्वपूर्ण है। प्रौद्योगिकी एवं कार्यप्रणाली में निरंतर प्रगति बेहतर अंतर्दृष्टि व सक्रिय हस्तक्षेप के लिये निगरानी दृष्टिकोण को परिष्कृत करने का अभिन्न अंग बनी हुई है।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
विकेंद्रीकृत स्वायत्त संगठन
प्रिलिम्स के लिये:विकेंद्रीकृत स्वायत्त संगठन, क्रिप्टोकरेंसी, ब्लॉकचेन तकनीक, लोकतांत्रिक और स्व-निष्पादन प्रणाली, बौद्धिक संपदा मेन्स के लिये:विकेंद्रीकृत स्वायत्त संगठन, विज्ञान और प्रौद्योगिकी में भारतीयों की उपलब्धियाँ |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
विकेंद्रीकृत स्वायत्त संगठन (DAO) ब्लॉकचेन तकनीक तथा शासन के गठजोड़ में एक अभूतपूर्व नवाचार का प्रतिनिधित्व करते हैं।
विकेंद्रीकृत स्वायत्त संगठन (DAO) क्या हैं?
- परिचय:
- DAO डिजिटल संस्थाएँ हैं जो केंद्रीकृत नियंत्रण के बिना कार्य करती हैं तथा स्मार्ट कॉन्ट्रेक्ट एवं उनके सदस्यों की सर्वसम्मति द्वारा शासित होती हैं, जो अमूमन निर्णय लेने एवं संसाधन आवंटन के साधन के रूप में क्रिप्टोकरेंसी का उपयोग करती हैं।
- DAO ने पारदर्शी, लोकतांत्रिक तथा स्व-निष्पादन प्रणालियों को बढ़ावा देकर वित्त, कला व शासन सहित विभिन्न उद्योगों को बदलने की अपनी क्षमता के लिये ध्यान आकर्षित किया है।
- ये संस्थाएँ न केवल पारंपरिक व्यावसायिक संरचनाओं को नया आकार दे रही हैं बल्कि डिजिटल विश्व में हमारे विश्वास, शासन एवं सहयोग को समझने के तरीके में भी सुधार रही हैं।
- DAO का उद्देश्य ब्लॉकचेन नेटवर्क पर स्मार्ट कॉन्ट्रेक्ट द्वारा शासित आत्मनिर्भर, समुदाय-संचालित इकाइयाँ बनाना है।
- विभिन्न क्षेत्रों में उपयोग:
- वैश्विक वित्तीय पारिस्थितिकी तंत्र: विकेंद्रीकृत वित्त के क्षेत्र में कंपाउंड तथा मेकर DAO जैसे प्लेटफार्मों ने ऋण प्रदान करने और प्राप्त करने हेतु सेवाएँ शुरू की हैं, जो उपयोगकर्त्ताओं को पारंपरिक बैंकों पर भरोसा किये बिना वैश्विक वित्तीय पारिस्थितिकी तंत्र में भाग लेने में सक्षम बनाती हैं।
- कला जगत में: कला जगत में कलाकार अपनी रचनाओं के लिये टोकन प्राप्त कर रहे हैं तथा रॉयल्टी का प्रबंधन करने एवं अपनी बौद्धिक संपदा पर नियंत्रण बनाए रखने के लिये DAO का उपयोग कर रहे हैं।
- आपूर्ति शृंखला प्रबंधन: आपूर्ति शृंखला प्रबंधन एक और क्षेत्र है जहाँ DAO लोकप्रियता हासिल कर रहे हैं, क्योंकि वे उत्पादों की प्रामाणिकता एवं गुणवत्ता सुनिश्चित करते हुए वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं में पारदर्शिता व पता लगाने की क्षमता प्रदान करते हैं।
- ऑनलाइन समुदायों का शासन: ऑनलाइन समुदायों के शासन में भी DAO निर्णय लेने के लिये उपकरण के रूप में उभरे हैं, DAO स्टैक जैसे प्लेटफॉर्म इंटरनेट पर समुदायों के लिये विकेंद्रीकृत शासन संरचनाओं की सुविधा प्रदान करते हैं।
- महत्त्व:
- विकेंद्रीकरण और लोकतांत्रिक शासन: DAO विकेंद्रीकरण को मूर्त रूप देते हैं, सत्ता को केंद्रीय सरकार से दूर ले जाते हैं।
- वे लोकतांत्रिक निर्णय लेने को बढ़ावा देते हैं, टोकन धारकों को प्रस्ताव देने और निर्णयों पर मतदान करने की अनुमति देते हैं। प्रभाव का यह न्यायसंगत वितरण अधिक समावेशी एवं निष्पक्ष शासन संरचना सुनिश्चित करता है।
- पारदर्शिता और विश्वास: DAO को रेखांकित करने वाले स्मार्ट अनुबंध पारदर्शिता और अपरिवर्तनीयता सुनिश्चित करते हैं। यह संचालन के विषय में स्पष्ट दृष्टिकोण प्रदान कर तथा अक्सर केंद्रीकृत संगठनों से जुड़ी अस्पष्टता को दूर करके प्रतिभागियों के बीच विश्वास को बढ़ावा देता है।
- हालाँकि इन स्मार्ट अनुबंधों में कमज़ोरियाँ सुरक्षा संबंधी चिंताएँ बढ़ा सकती हैं।
- समावेशिता और वैश्विक सहयोग: DAO के सबसे महत्त्वपूर्ण लाभों में से एक भौगोलिक और सामाजिक-आर्थिक बाधाओं को पार करने की उनकी क्षमता है।
- वे विभिन्न पृष्ठभूमि के व्यक्तियों को सहयोग और योगदान करने की अनुमति देकर वैश्विक भागीदारी को सक्षम बनाते हैं, विविधता तथा नवाचार को बढ़ावा देते हैं।
- सहयोग के नए रूपों को सुविधाजनक बनाना: DAO मध्यस्थों की आवश्यकता को समाप्त करते हुए साझा उद्देश्यों वाले प्रतिभागियों के बीच सीधे सहयोग की सुविधा प्रदान करते हैं।
- यह वातावरण नवाचार, सहयोग और पदानुक्रमित संरचनाओं द्वारा अप्रतिबंधित विचारों के मुक्त प्रवाह को प्रोत्साहित करता है।
- विकेंद्रीकरण और लोकतांत्रिक शासन: DAO विकेंद्रीकरण को मूर्त रूप देते हैं, सत्ता को केंद्रीय सरकार से दूर ले जाते हैं।
DAO से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?
- सुरक्षा सुभेद्यता:
- स्मार्ट कॉन्ट्रैक्ट्स में कमज़ोरियों के कारण वर्ष 2016 में DAO हैक जैसी कुख्यात घटनाएँ हुई हैं, जिससे ब्लॉकचेन सिस्टम की सुरक्षा और अपरिवर्तनीयता पर सवाल खड़े हो गए हैं।
- ये घटनाएँ सख्त सुरक्षा अंकेक्षण और संहिता की विश्वसनीयता में सुधार की आवश्यकता को रेखांकित करती हैं।
- कानूनी और नियामक अनिश्चितता:.
- DAO की विकेंद्रीकृत प्रकृति वैधानिक वर्गीकरण, कराधान, दायित्व असाइनमेंट और विभिन्न न्यायालयों में नियमों के अनुपालन में चुनौतियाँ पेश करती है।
- शासन, बौद्धिक संपदा और सीमा पार संचालन से संबंधित प्रश्न काफी हद तक अनुत्तरित हैं, जिनके लिये नियामक अनुकूलन की आवश्यकता है।
- शासन और विवाद समाधान:
- विकेंद्रीकृत निर्णय लेने से DAO के भीतर विवादों को हल करना और ज़िम्मेदारियाँ सौंपना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
- स्मार्ट अनुबंधों की स्वचालित प्रकृति पारंपरिक कानूनी तंत्र के बिना जवाबदेही और संघर्षों से निपटने के बारे में सवाल उठाती है।
आगे की राह
- चुनौतियों के बावजूद DAO लगातार विकसित हो रहे हैं और विभिन्न उद्योगों में परिवर्तनकारी क्षमता प्रदान कर रहे हैं। एक ऐसा भविष्य सुनिश्चित कर जहाँ विकेंद्रीकृत नवाचार कानूनी अनुपालन के साथ संरेखित हो जोखिमों को कम करते हुए अपने लाभों को अधिकतम करने के लिये चल रही चर्चाएँ और अनुकूलन महत्त्वपूर्ण हैं।
- DAO संगठनात्मक संरचनाओं में एक आदर्श बदलाव का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो एक ऐसे भविष्य की झलक पेश करते हैं जहाँ विकेंद्रीकृत, पारदर्शी और लोकतांत्रिक प्रणालियाँ विभिन्न क्षेत्रों को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
भारतीय राजनीति
ECI ने रयथू बंधु योजना संवितरण रद्द किया
प्रिलिम्स के लिये:आदर्श आचार संहिता, भारतीय निर्वाचन आयोग, रयथू बंधु योजना, PM किसान सम्मान निधि मेन्स के लिये:आदर्श आचार संहिता के विकास में भारतीय निर्वाचन आयोग की भूमिका, आदर्श आचार संहिता - चुनावों में महत्त्व और इसकी आलोचना |
स्रोत इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
भारतीय निर्वाचन आयोग (Election Commission of India- ECI) ने तेलंगाना की रयथू बंधु योजना के तहत धन के वितरण के लिये अपने पिछले 'नो ऑब्जेक्शन' को रद्द कर दिया है।
- यह कदम आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct- MCC) के उल्लंघन के आरोपों के बीच उठाया गया है।
ECI ने रयथू बंधु संवितरण को रद्द क्यों कर दिया?
- ECI ने अन्य मौजूदा केंद्र और राज्य सरकार की योजनाओं की तरह MCC अवधि के दौरान रयथू बंधु संवितरण के लिये 'नो ऑब्जेक्शन' की मंज़ूरी इस शर्त पर दी कि इसे राजनीतिक लाभ हेतु प्रकाशित नहीं किया जाएगा और भुगतान मतदान की तारीख से 48 घंटे पहले की संवितरण अवधि के दौरान नहीं किया जाएगा।
- पीएम किसान सम्मान निधि के समान इस योजना का उद्देश्य किसानों की सहायता करना था और सरकार को कुछ दिशा-निर्देशों के तहत अनुमति मिली।
- चुनाव के दौरान रयथू बंधु योजना के तहत धन जारी करने का प्रचार करने वाले तेलंगाना के एक मंत्री के भाषण को MCC का उल्लंघन पाया गया और ECI ने इसे रद्द कर दिया।
- निर्वाचन आयोग का आदेश MCC के दौरान रयथू बंधु संवितरण की अनुमति को तत्काल वापस लेने का निर्देश देता है।
- अब जब तक तेलंगाना में MCC बंद नहीं हो जाती तब तक संवितरण रोक दिया गया है, जिससे संभावित रूप से किसानों की वित्तीय सहायता प्रभावित होगी।
रयथू बंधु योजना:
- यह तेलंगाना सरकार की एक पहल है जो किसानों को कृषि और बागवानी फसलों के लिये निवेश सहायता प्रदान करती है।
- इसका उद्देश्य किसानों के कर्ज़ के बोझ को कम करना है। योजना के अनुसार, प्रत्येक किसान को बीज, उर्वरक, कीटनाशकों की खरीद और अन्य आवश्यकताओं के लिये प्रत्येक सीज़न में 5,000 रुपए प्रति एकड़ का प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (DBT) मिलता है।
- वर्ष 2018 में 50.25 लाख किसानों के साथ शुरुआत के साथ आज रयथू बंधु लाभार्थियों की संख्या 70 लाख हो गई है।
ECI की आदर्श आचार संहिता (MCC) क्या है?
- परिचय:
- MCC, ECI द्वारा जारी दिशा-निर्देशों का एक समूह है, जो संविधान के अनुच्छेद 324 के अनुरूप चुनाव से पहले पार्टियों और उम्मीदवारों को नियंत्रित करता है।
- यह चुनाव आयोग को संसद और राज्य विधानमंडलों में निष्पक्ष चुनावों की निगरानी सुनिश्चित करने का अधिकार देता है।
- यह चुनाव कार्यक्रम की घोषणा से लेकर परिणाम घोषित होने तक सक्रिय रहता है।
- राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के लिये MCC:
- सामान्य आचरण:
- पार्टियों और उम्मीदवारों को ऐसी गतिविधियों से बचना चाहिये जो विभिन्न जातियों, समुदायों, धार्मिक या भाषायी समूहों के बीच आपसी नफरत या तनाव उत्पन्न करती हैं।
- अन्य दलों की आलोचना व्यक्तिगत पहलुओं से बचते हुए नीतियों, पिछले रिकॉर्ड और काम तक ही सीमित होनी चाहिये।
- वोट के लिये जाति या सांप्रदायिक भावनाओं की अपील करना प्रतिबंधित है।
- पूजा स्थलों का उपयोग चुनाव प्रचार के लिये नहीं किया जाना चाहिये।
- सत्तारूढ़ पार्टी:
- MCC ने वर्ष 1979 में सत्तारूढ़ पार्टी के आचरण को विनियमित करने के लिये कुछ प्रतिबंध शामिल किये।
- मंत्रियों को आधिकारिक दौरों को चुनाव कार्य के साथ नहीं जोड़ना चाहिये या इसके लिये आधिकारिक मशीनरी का उपयोग नहीं करना चाहिये।
- मंत्रियों तथा अधिकारियों को चुनाव की घोषणा के बाद भुगतान देने, वित्तीय अनुदान की घोषणा करने, शिलान्यास, परियोजनाओं का वादा करने, तदर्थ नियुक्तियाँ करने अथवा सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में मतदाताओं को प्रभावित करने से बचना चाहिये।
- दल को चुनावों में जीत की संभावनाओं को बेहतर बनाने के लिये सार्वजनिक राजकोष की लागत से विज्ञापन जारी करने अथवा उपलब्धियों के प्रचार के लिये आधिकारिक जन संचार माध्यमों का उपयोग करने से बचना चाहिये।
- केंद्र अथवा राज्य सरकार के मंत्रियों को उम्मीदवार, मतदाता अथवा अधिकृत एजेंट के रूप में अपनी क्षमता के अलावा मतदान केंद्रों अथवा मतगणना स्थलों में प्रवेश नहीं करना चाहिये।
- निर्वाचन घोषणापत्र:
- ECI का निर्देश है कि राजनीतिक दलों तथा उम्मीदवारों को किसी भी चुनाव (संसद/राज्य विधानमंडल) के लिये निर्वाचन घोषणापत्र जारी करते समय निम्नलिखित दिशा-निर्देशों का पालन करना चाहिये:
- घोषणापत्रों को संविधान तथा MCC के अनुरूप होना चाहिये।
- ऐसे वादों से बचें जो मतदाताओं को अनुचित रूप से प्रभावित कर सकते हैं।
- घोषणापत्र में तर्क एवं वित्तीय परामर्श प्रतिबिंबित होने चाहिये।
- एकल चरण निर्वाचन की दशा में लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम (RPA), 1951 की धारा 126 के अंतर्गत यथा-विहित निषेधात्मक अवधि के दौरान घोषणा पत्र जारी नहीं किया जाएगा।
- ECI का निर्देश है कि राजनीतिक दलों तथा उम्मीदवारों को किसी भी चुनाव (संसद/राज्य विधानमंडल) के लिये निर्वाचन घोषणापत्र जारी करते समय निम्नलिखित दिशा-निर्देशों का पालन करना चाहिये:
- बैठक (सभा):
- दल अथवा अभ्यर्थी किसी भी प्रस्तावित बैठक के स्थान और समय के बारे में स्थानीय पुलिस प्राधिकारियों को समय रहते सूचित करेंगे ताकि पुलिस पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था कर सके।
- जलूस:
- यदि दो या दो से अधिक दल के अभ्यर्थी एक ही मार्ग पर जलूस की योजना बनाते हैं, तो राजनीतिक दलों को यह सुनिश्चित करने के लिये पहले से संपर्क स्थापित करना होगा कि जलूस में टकराव न हो।
- अन्य राजनीतिक दलों के सदस्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले पुतले ले जाना तथा उन्हें जलाने की अनुमति नहीं है।
- मतदान के दिन:
- केवल मतदाताओं तथा निर्वाचन आयोग के वैध पास वाले लोगों को ही मतदान केंद्रों में प्रवेश की अनुमति है।
- मतदान केंद्रों पर सभी अधिकृत पार्टी कार्यकर्त्ताओं को उपयुक्त बैज या पहचान पत्र की आपूर्ति की जानी चाहिये।
- उनके द्वारा मतदाताओं को दी जाने वाली पहचान पर्चियाँ सादे (सफेद) कागज़ पर होंगी और उनमें कोई प्रतीक, उम्मीदवार का नाम या पार्टी का नाम नहीं होगा।
- पर्यवेक्षक:
- चुनाव आयोग पर्यवेक्षकों की नियुक्ति करेगा जिनके पास कोई भी उम्मीदवार चुनाव के संचालन के संबंध में समस्याओं की रिपोर्ट कर सकता है।
- सामान्य आचरण:
- MCC की वैधता:
- हालाँकि MCC के पास कोई वैधानिक समर्थन नहीं है, लेकिन चुनाव आयोग द्वारा इसके सख्त कार्यान्वयन के कारण पिछले दशक में इसे ताकत मिली है।
- अन्य कानूनों, जैसे भारतीय दंड संहिता, 1860, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 और RPA 1951, के अनुरूप कानूनों का उपयोग करके, MCC के कुछ प्रावधानों को लागू किया जा सकता है।
- कार्मिक, लोक शिकायत, कानून और न्याय पर स्थायी समिति ने वर्ष 2013 में सुझाव दिया कि MCC को RPA 1951 में शामिल किया जाए तथा इसे कानूनी रूप से अनिवार्य बनाया जाए।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2017)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (d) मेन्स:प्रश्न. आदर्श आचार संहिता के विकास के आलोक में भारत के चुनाव आयोग की भूमिका पर चर्चा कीजिये। (2022) |