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डेली न्यूज़

  • 24 Jan, 2022
  • 56 min read
आंतरिक सुरक्षा

आतंकवाद के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन 2022

प्रिलिम्स के लिये:

आतंकवाद के खिलाफ भारत का वार्षिक संकल्प, अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद पर व्यापक समझौता, वित्तीय कार्रवाई कार्य बल

मेन्स के लिये:

आतंकवाद में वृद्धि, संबंधित मुद्दे और इसके निराकरण हेतु उठाए जा सकने वाले आवश्यक कदम।

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में वैश्विक आतंकवाद रोधी परिषद  (Global Counter Terrorism Council- GCTC) द्वारा आतंकवाद के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन (International Counter Terrorism Conference) 2022 का आयोजन किया गया।

  • GCTC एक अंतर्राष्ट्रीय थिंक-टैंक काउंसिल है, जिसका उद्देश्य दुनिया भर में लोगों की आतंकवाद के प्रति सुभेद्यता को कम करना, आतंकवादी गतिविधियों पर अंकुश लगाना, उनका मुकाबला करना और आतंकवाद के लिये उकसाने एवं आतंकी गतिविधयों के लिये भर्ती करने वालों पर मुकदमा चलाना है।
  • इससे पूर्व वर्ष 2021 में आयोजित 13वें ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में ब्रिक्स आतंकवाद विरोधी कार्य योजना को अपनाया गया था।

प्रमुख बिंदु 

  • भारत द्वारा उठाए गए मुद्दे:
    • नए रिलिजियोफोबिया (धार्मिक भय) का उदय:
      • विशेष रूप से हिंदुओं, बौद्धों और सिखों के खिलाफ नए "धार्मिक भय" का उभरना गंभीर चिंता का विषय है और ऐसे मुद्दों पर संतुलित चर्चा हेतु इसे क्रिश्चियनोफोबिया, इस्लामोफोबिया और यहूदी-विरोधी की तरह ही पहचानने की ज़रूरत है।
      • रिलिजियोफोबिया (Religiophobia): यह धर्म, धार्मिक विश्वासों, धार्मिक लोगों या धार्मिक संगठनों के प्रति विवेकहीन या आसक्तिपूर्ण भय या चिंता है।
    • आतंकवाद का वर्गीकरण:
      • पिछले दो वर्षों में कई सदस्य राज्य आतंकवाद को नस्लीय और जातीय रूप से प्रेरित हिंसक उग्रवाद, हिंसक राष्ट्रवाद एवं दक्षिणपंथी उग्रवाद आदि जैसी श्रेणियों में वर्गीकृत करने का प्रयास करते रहे हैं।
      • इसे "खतरनाक" प्रवृत्ति बताते हुए भारत ने कहा कि यह हाल ही में अपनाई गई वैश्विक आतंकवाद विरोधी रणनीति में संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य देशों द्वारा स्वीकार किये गए कुछ स्वीकृत सिद्धांतों के खिलाफ है।
        • वैश्विक आतंकवाद विरोधी रणनीति में कहा गया है कि आतंकवाद के सभी रूपों एवं अभिव्यक्तियों की निंदा की जानी चाहिये और आतंकवाद के किसी भी कृत्य को उचित नहीं ठहराया जा सकता है।
  • आतंकवाद का मुकाबला करने हेतु भारत के प्रयास:
    • आतंकवाद के खिलाफ भारत का वार्षिक संकल्प:
      • आतंकवाद विरोधी मुद्दे पर भारत के वार्षिक संकल्प को संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) की पहली समिति में सर्वसम्मति से अपनाया गया था।
      • भारत, जो कि राज्य-प्रायोजित सीमा पार आतंकवाद से पीड़ित रहा है, आतंकवादी समूहों द्वारा बड़े पैमाने पर विनाशकारी हथियारों के अधिग्रहण से अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के समक्ष उत्पन्न गंभीर खतरे को उजागर करने में सबसे आगे रहा है।
    • अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद पर व्यापक समझौता (CCIT):
      • बढ़ती आशंकाओं के बीच कि आतंकवादी फिर से अफगानिस्तान में नियंत्रण स्थापित करेंगे और अफ्रीका में हमले तीव्र गति से होंगे, भारत के विदेश मंत्री ने हाल ही में सम्मेलन को अपनाने का आग्रह किया है।
        • वर्ष 1996 में आतंकवाद का मुकाबला करने के लिये एक बोधगम्य कानूनी ढाँचा प्रदान करने के उद्देश्य से भारत ने UNGA को ‘अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद पर व्यापक समझौता’ (Comprehensive Convention on International Terrorism-CCIT) को अपनाने का प्रस्ताव दिया था।
        • CCIT आतंकवाद की एक सार्वभौमिक परिभाषा, विशेष कानूनों के तहत आतंकवादियों के खिलाफ मुकदमा चलाने, सीमा पार आतंकवाद को दुनिया भर में एक प्रत्यर्पण योग्य अपराध बनाने की मांग करता है।
    • वित्तीय कार्रवाई कार्यबल  (FATF):
      • भारत FATF का सदस्य है, जिसका उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली की अखंडता हेतु मनी लॉन्ड्रिंग, आतंकवादी वित्तपोषण और अन्य संबंधित खतरों से निपटने के लिये मानक निर्धारित करना तथा कानूनी, नियामक एवं परिचालन उपायों के प्रभावी कार्यान्वयन को बढ़ावा देना है।
  • भारत में आतंकवाद
    • ‘गैर-कानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) संशोधन अधिनियम’ भारत में लागू एक महत्त्वपूर्ण आतंकवाद विरोधी कानून है।
    • राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (NSG) एक अर्द्ध-सैनिक बल है जो मुख्य रूप से आतंकवाद रोधी और अपहरण रोधी अभियानों हेतु उत्तरदायी है।
    • भारत को कश्मीर, उत्तर-पूर्व और कुछ हद तक पंजाब में अलगाववादियों, मध्य, पूर्व-मध्य और दक्षिण-मध्य भारत में वामपंथी चरमपंथी समूहों से आतंकवाद का सामना करना पड़ रहा है।
    • भारत दुनिया में आतंकवाद से सबसे ज़्यादा प्रभावित देशों में से एक है।

आगे की राह

  • आतंकवाद के खिलाफ युद्ध एक कम तीव्रता वाला संघर्ष या स्थानीय युद्ध है, इसे समाज के पूर्ण एवं निरंतर समर्थन के बिना प्रारंभ नहीं किया जा सकता है, अगर आतंकवाद के खिलाफ लड़ने के लिये समाज के मनोबल और संकल्प में कमी आ जाए तो आतंकवाद के खिलाफ इस युद्ध की तीव्रता में कमी आ सकती  है।
  • भारत को अपनी अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के प्रबंधन से संबंधित कई मुद्दों पर नीतियों का पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता है, जैसे कि खुफिया तंत्र, आंतरिक सुरक्षा और सीमा प्रबंधन।
  • सीमा सुरक्षा के पारंपरिक तरीकों को बढ़ाने और इनके पूरक विकल्प तलाशने के लिये तकनीकी समाधान आवश्यक है।

स्रोत- इंडियन एक्सप्रेस


जैव विविधता और पर्यावरण

भारतीय पर्यावरण सेवा (IES)

प्रिलिम्स के लिये:

वर्ष 2014 में स्थापित टी.एस.आर. सुब्रमण्यम समिति, भारतीय पर्यावरण सेवा (IES)।

मेन्स के लिये:

वर्ष 2014 में स्थापित टी.एस.आर सुब्रमण्यम समिति, भारतीय पर्यावरण सेवा (IES), पर्यावरण क्षरण।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को अखिल भारतीय स्तर पर एक समर्पित भारतीय पर्यावरण सेवा (Indian Environment Service- IES) स्थापित करने के लिये कहा है।

  • भारतीय पर्यावरण सेवा (IES) के गठन की सिफारिश वर्ष 2014 में पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम की अध्यक्षता वाली एक समिति द्वारा की गई थी।

नोट:

  • उच्च स्तरीय समिति का गठन अगस्त 2014 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEF & CC) द्वारा सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में किया गया था।
  • इसका गठन देश में पर्यावरण कानूनों की समीक्षा करने और उन्हें तत्कालीन ज़रूरतों  के अनुरूप बनाने के लिये किया गया था।

प्रमुख बिंदु

  • परिचय: यह पर्यावरणीय मामलों के संबंध में आगामी दशकों में सार्वजनिक और अर्द्ध-सरकारी क्षेत्रों में एक विशेषज्ञ समूह के रूप में कार्य करेगी।
  • आवश्यकता: निरंतर पर्यावरणीय क्षरण, पारिस्थितिकी असंतुलन, जलवायु परिवर्तन, जल की कमी आदि भारत के समक्ष मौजूद बड़ी चिंताएँ हैं।
    • नागरिकों को पर्यावरण संबंधी विभिन्न समस्याओं जैसे- वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ठोस अपशिष्ट और कचरे का निपटान न हो पाना तथा प्राकृतिक पर्यावरण प्रदूषण आदि का सामना करना पड़ रहा है।
    • मौजूदा प्रणाली में व्याप्त दोष पर्यावरणीय क्षरण के प्रमुख कारणों में से एक है जो विभिन्न स्तरों पर पर्यावरण संबंधी संस्थानों की प्रवर्तन क्षमताओं में निहित है।
  • टी.एस.आर. सुब्रमण्यम समिति की टिप्पणी: वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था को देखते हुए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि सरकारी कर्मचारी पर्यावरणीय उद्देश्यों हेतु विशेष समय निकलने में समर्थ नहीं है।
    • विशिष्ट संवर्ग का अभाव: राज्यों और केंद्र सरकार की नीतियों के कार्यान्वयन, प्रशासन, नीति निर्माण और पर्यवेक्षण में शामिल प्रशिक्षित कार्मिकों का अभाव बना हुआ है।
    • भारत के पास एक मज़बूत पर्यावरण नीति और विधायी ढांँचा तो था लेकिन इसके कमजोर कार्यान्वयन के परिणामस्वरूप संरक्षण विशेषज्ञों एवं न्यायपालिका द्वारा इसके पर्यावरण प्रशासन की आलोचना की जाती रही है।
    • इस समिति ने पर्यावरण संबंधी चिंताओं के एकीकरण के संबंध में विभिन्न मंत्रालयों/संस्थाओं के मध्य प्रभावी समन्वय के अभाव  को उजागर किया।
  • संबद्ध चुनौतियाँ: भारतीय पर्यावरण सेवा (IES) पहले से मौजूद एक अखिल भारतीय सेवा (भारतीय वन सेवा) के साथ ओवरलैप करेगी।
    • इसके अलावा भारतीय पर्यावरण सेवा (IES) देश के संघीय ढाँचे के लिये भी एक चुनौती होगी।

आगे की राह

  • नई अखिल भारतीय सेवाओं (AIS) का निर्माण इस तथ्य से उत्पन्न होता है कि AIS अधिकारियों का एक सामान्यीकृत दृष्टिकोण है, जबकि समकालीन चुनौतियों के लिये अधिक विशिष्ट दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है।
  • दोनों के बीच संतुलन बनाए रखने और पर्यावरण कानूनों को लागू करने हेतु अधिकारियों को प्रशिक्षित करने के लिये एक ‘भारतीय पर्यावरण सेवा अकादमी’ की स्थापना की जा सकती है।

स्रोत: द हिंदू


सामाजिक न्याय

वैवाहिक/दांपत्य अधिकारों पर याचिका

प्रिलिम्स के लिये:

वैवाहिक/दांपत्य अधिकार, वैवाहिक बलात्कार, सर्वोच्च न्यायालय, विवाह से संबंधित अधिनियम/कानून।

मेन्स के लिये:

वैवाहिक अधिकार, वैवाहिक बलात्कार, विवाह से संबंधित अधिनियम/कानून, महिलाओं से संबंधित मुद्दे।

चर्चा में क्यों?

हिंदू पर्सनल लॉ (हिंदू विवाह अधिनियम 1955) के तहत वैवाहिक/दांपत्य अधिकारों की बहाली की अनुमति देने वाले प्रावधान को चुनौती देने वाली एक याचिका महीनों से सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है।

  • ओजस्वा पाठक बनाम भारत संघ शीर्षक वाली यह याचिका फरवरी 2019 में सर्वोच्च न्यायालय में दायर की गई थी। इस मामले की आखिरी सुनवाई जुलाई 2021 में हुई थी।

प्रमुख बिंदु

  • वैवाहिक/दांपत्य अधिकार:
    • वैवाहिक अधिकार विवाह द्वारा स्थापित अधिकार हैं, उदाहरण के लिये पति या पत्नी का एक-दूसरे के समाज पर अधिकार।
    • विवाह, तलाक आदि से संबंधित हिंदू पर्सनल लॉ तथा आपराधिक कानून दोनों में ही इन अधिकारों को मान्यता दी गई है, जिसके तहत पति या पत्नी को भरण-पोषण और गुज़ारा भत्ता के भुगतान की आवश्यकता होती है।
      • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 और विशेष विवाह अधिनियम, 1954 की धारा 22 पति या पत्नी को स्थानीय ज़िला न्यायालय के समक्ष यह शिकायत करने हेतु सशक्त बनाती हैं कि दूसरा साथी बिना किसी ‘उचित कारण’ के विवाह से अलग हो गया।
    • वैवाहिक अधिकारों की बहाली की अवधारणा को अब हिंदू पर्सनल लॉ में संहिताबद्ध किया गया है, लेकिन इसकी उत्पत्ति औपनिवेशिक काल में हुई थी। 
    • यहूदी कानून से उत्पन्न, वैवाहिक अधिकारों की बहाली का प्रावधान ब्रिटिश शासन के माध्यम से भारत तथा अन्य समान कानून वाले देशों तक पहुँचा। 
    • ब्रिटिश कानून पत्नियों को पति की निजी संपत्ति/अधिकार मानता था, इसलिये उन्हें अपने पति को छोड़ने की अनुमति नहीं थी।
    • मुस्लिम पर्सनल लॉ के साथ-साथ तलाक अधिनियम, 1869 (जो ईसाई समुदाय के कानून को नियंत्रित करता है) में भी इसी तरह के प्रावधान किये गए हैं।
    • वर्ष 1970 में ब्रिटेन ने वैवाहिक अधिकारों की बहाली के कानून को समाप्त कर दिया था।
  • प्रावधान जिसे चुनौती दी गई है:
    • हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9:
      • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 वैवाहिक अधिकारों की बहाली से संबंधित है। इसके अनुसार,
        • जब पति और पत्नी दोनों में से कोई एक पक्ष किसी उचित कारण के बिना ही दूसरे के समाज से अलग हो जाता है तब पीड़ित पक्ष ज़िला अदालत में याचिका द्वारा आवेदन कर सकता है। 
        • यदि अदालत याचिका में दिये गए बयानों की सच्चाई से संतुष्ट है और आश्वस्त है कि कोई ऐसा कानूनी आधार नहीं है कि इस तरह के आवेदन को क्यों खारिज किया जाना चाहिये तो वह वैवाहिक अधिकारों की बहाली का आदेश दे सकती है।
  • कानून को चुनौती देने का कारण:
    • अधिकारों का उल्लंघन:
      • कानून को अब इस मुख्य आधार पर चुनौती दी जा रही है कि यह निजता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है।
      • वर्ष 2017 में सर्वोच्च न्यायालय की नौ-न्यायाधीशों की पीठ ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी थी।
        • निजता का अधिकार अनुच्छेद 21 (Article 21) के तहत जीवन के अधिकार तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के अंतर्गत संविधान के भाग III द्वारा गारंटीकृत स्वतंत्रता के रूप में संरक्षित है।
      • वर्ष 2017 में सर्वोच्च न्यायालय के एक निर्णय ने समलैंगिकता के अपराधीकरण, वैवाहिक बलात्कार, वैवाहिक अधिकारों की बहाली, बलात्कार की जांँच में टू-फिंगर टेस्ट जैसे कई कानूनों की संभावित चुनौतियों के लिये एक आधार निर्मित किया है।
      • याचिका में तर्क दिया गया कि न्यायालय द्वारा दांपत्य अधिकारों की अनिवार्य बहाली राज्य की ओर से एक "जबरन लागू किया गया अधिनियम" (Coercive Act) है, जो किसी की यौन और निर्णयात्मक स्वायत्तता तथा निजता एवं गरिमा के अधिकार का उल्लंघन है।
    • महिलाओं के खिलाफ भेदभावपूर्ण:
      • यद्यपि यह कानून लैंगिक रुप से तटस्थ है क्योंकि यह पत्नी और पति दोनों को वैवाहिक अधिकारों की बहाली की अनुमति देता है लेकिन इसके प्रावधान महिलाओं को असमान रूप से प्रभावित करते हैं।
      • प्रावधान के तहत महिलाओं को अक्सर अपने पति के घर वापस आना पड़ता है और यह मानते हुए कि वैवाहिक बलात्कार एक अपराध नहीं है, इच्छा न होने के बावजूद उन्हें पति के साथ रहना होता है।
      • यह भी तर्क दिया गया है कि क्या विवाह को सुरक्षित करने में राज्य की इतनी अधिक रुचि हो सकती है कि राज्य कानून द्वारा पति-पत्नी को एक साथ रहने के लिये बाध्य कर सकता है।
    • सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के अनुरूप नहीं:
      • वर्ष 2019 के जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ (Joseph Shine v Union of India) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने हालिया निर्णय में विवाहित महिलाओं की निजता के अधिकार और दैहिक स्वायत्तता पर ज़ोर दिया है जिसमें न्यायालय ने कहा है कि विवाह महिलाओं की यौन स्वतंत्रता और उनकी पसंद के अधिकार को समाप्त नहीं कर सकता है।
      • यदि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शारीरिक स्वायत्तता, पसंद और निजता का अधिकार है तो न्यायालय दो वयस्कों को एक साथ रहने के लिये कैसे बाध्य कर सकता है यदि उनमें से एक ऐसा नहीं करना चाहता है।
    • प्रावधान का दुरुपयोग:
      • एक अन्य विचारणीय और प्रासंगिक मामला यह है कि तलाक की कार्यवाही तथा गुज़ारा भत्ता भुगतान के खिलाफ ढाल के रूप में इस प्रावधान का दुरुपयोग किया जा सकता है।
      • अक्सर पीड़ित पति या पत्नी अपने निवास स्थान से तलाक के लिये अर्जी देते हैं और मुआवज़े हेतु मांग करते हैं।
  • पूर्व के निर्णय:
    • 1960 के दशक में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने तीरथ कौर मामले में वैवाहिक अधिकारों की बहाली को बरकरार रखा, यह देखते हुए कि "एक पत्नी का अपने पति के प्रति पहला कर्तव्य है कि वह आज्ञाकारितापूर्वक स्वयं को उसके अधिकारों के प्रति प्रस्तुत करे और उसकी शरण एवं आश्रय के अधीन बनी रहे।” 
    • 1980 के दशक के दौरान कई फैसलों में न्यायालयों ने कानून का समर्थन किया है, जिसमें कहा गया है कि पत्नी द्वारा पति को स्थायी रूप से वापस आने से इनकार करके उसे वैवाहिक और यौन जीवन से वंचित करना मानसिक व शारीरिक दोनों तरह की क्रूरता है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1984 में सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार चड्ढा (Saroj Rani v Sudarshan Kumar Chadha) मामले में हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 को बरकरार रखा था, जिसमें कहा गया था कि यह प्रावधान विवाह को टूटने से रोककर एक सामाजिक उद्देश्य को पूरा करता है।
    • वर्ष 1983 में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय की एकल न्यायाधीश पीठ ने इस प्रावधान को पहली बार टी. सरिता बनाम टी. वेंकटसुब्बैया (T. Sareetha vs T. Venkatasubbaiah) मामले में शून्य घोषित कर दिया था।
      • इसने अन्य कारणों के साथ निजता के अधिकार का हवाला दिया। अदालत ने यह भी माना कि "पत्नी या पति से इतने घनिष्ठ रूप से संबंधित मामले में पक्षकारों को राज्य के हस्तक्षेप के बिना अकेला छोड़ दिया जाता है"।
      • न्यायालय ने महत्त्वपूर्ण रूप से यह भी माना था कि "यौनिक संबंधों" के लिये मज़बूर किये जाने से महिलाओं पर गंभीर परिणाम होंगे।
    • पत्नी (धर्मपत्नी, अर्धांगिनी, भार्या या अनुगमिनी) की इस रूढ़िवादी अवधारणा और खुद को पति की इच्छा के अधीन करने की उम्मीदों में महिलाओं में शिक्षा एवं उच्च साक्षरता के साथ, संविधान में महिलाओं के समान अधिकारों की मान्यता के साथ व जीवन के सभी क्षेत्रों में लिंग भेद के उन्मूलन में एक क्रांतिकारी बदलाव आया है।
    • वह पति के साथ समान स्थिति और समान अधिकारों के साथ विवाह में भागीदार है तथा विवाह एक अत्याचार नहीं हो सकता।
    • हालाँकि उसी वर्ष दिल्ली उच्च न्यायालय की एकल न्यायाधीश पीठ ने इस कानून के बिल्कुल विपरीत दृष्टिकोण अपनाया और हरविंदर कौर बनाम हरमंदर सिंह चौधरी (Harvinder Kaur vs Harmander Singh Chaudhary) के मामले में इस प्रावधान को बरकरार रखा।
    • विभा श्रीवास्तव मामले में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा:

आगे की राह

  • वैवाहिक बलात्कार के अपराधीकरण पर बहस इस बात पर फिर से विचार करने के लिये मजबूर करती है कि कैसे वैवाहिक अधिकारों की बहाली के प्रावधान लिंग-तटस्थ होने के बावजूद महिलाओं पर एक अतिरिक्त दवाब उत्पन्न करते हैं और उनकी शारीरिक स्वायत्तता, गोपनीयता एवं व्यक्तिगत गरिमा के लिये प्रत्यक्ष खतरा पैदा करते हैं।
  • हम लैंगिक समानता और कानून की लिंग तटस्थ गुणवत्ता के विषय में तो बात करते हैं, लेकिन भारतीय समाज में महिलाएँ अभी भी प्रतिकूल परिस्थिति में हैं जिसे ऐसे प्रावधान बढ़ावा देते हैं।
  • दहेज हत्याएँ समाज पर कलंक हैं, जिसके लिये महिलाओं को भावनात्मक और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता रहा है।
  • यह समय भारतीय न्यायपालिका और समाज द्वारा विवाह के प्रगतिशील सिद्धांत के साथ ही अधिक प्रगतिशील विचारों को अपनाने का है। विवाह, समारोहों के आधार पर नहीं बल्कि दो व्यक्तियों की स्वायत्तता तथा स्वतंत्रता पर निर्मित होता है, जिसे नए दंपत्ति एक-दूसरे के साथ साझा करने के लिये सहमत होते हैं।

स्रोत- द हिंदू


कृषि

कृषि में ड्रोन के उपयोग को बढ़ावा देना

प्रिलिम्स के लिये:

कृषि मशीनीकरण पर उप मिशन (SMAM)

मेन्स के लिये:

प्रौद्योगिकी का विकास और उनके अनुप्रयोग तथा दैनिक जीवन पर इसका  प्रभाव, कृषि मशीनीकरण की आवश्यकता एवं इसका महत्त्व।

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय ने किसानों के लिये ड्रोन को अधिक सुलभ बनाने के उद्देश्य से "कृषि मशीनीकरण पर उप-मिशन" (Sub-Mission on Agricultural Mechanization- SMAM) योजना के संशोधित दिशा-निर्देश जारी किये हैं।

  • ये वित्तपोषण दिशा-निर्देश कृषि ड्रोन को खरीदने, किराए पर लेने और उनके निरूपण  में सहायता करके इस तकनीक को किफायती बनाएंगे।
  • वित्तीय सहायता और अनुदान 31 मार्च 2023 तक लागू रहेंगे।
  • SMAM योजना वर्ष 2014-15 में लघु और सीमांत किसानों तथा दुर्गम क्षेत्रों (जहाँ कृषि बिजली की उपलब्धता कम है) में कृषि मशीनीकरण की पहुंँच बढ़ाने के उद्देश्य से शुरू की गई थी।

प्रमुख बिंदु 

  • 40-100% सब्सिडी:
    • ड्रोन की खरीद हेतु अनुदान या सब्सिडी के रूप में कृषि ड्रोन की लागत का 100% या 10 लाख रुपए जो भी कम हो, सब्सिडी प्रदान की जाएगी।
  • कृषि स्नातकों को सब्सिडी:
    • कस्टम हायरिंग सेंटर्स (CHCs) स्थापित करने वाले कृषि स्नातक ड्रोन और उसके संलग्नकों की मूल लागत का 50% या ड्रोन खरीद के लिये 5 लाख रुपए तक का अनुदान तक प्राप्त करने हेतु पात्र होंगे।
  • एफपीओ या किसानों की सहकारी समिति को सब्सिडी:
    • मौजूदा या नए CHCs पहले से स्थापित या किसानों की सहकारी समिति द्वारा स्थापित किये जाने वाले किसान उत्पादक संगठन (FPOs) और ग्रामीण उद्यमी ड्रोन की मूल लागत पर अनुदान के रूप में 4% (अधिकतम 4 लाख रुपए) प्राप्त करने के हकदार हैं।
      • कृषि यंत्रीकरण को लोकप्रिय बनाने के लिये CHCs ज़मीनी स्तर की मुख्य एजेंसियाँ ​​हैं और जब तक उन्हें प्रोत्साहन नहीं दिया जाता, ड्रोन के उपयोग में तेज़ी नहीं आएगी।
      • ग्रामीण उद्यमियों को उन लोगों के रूप में परिभाषित किया जाता है जिन्होंने किसी मान्यता प्राप्त बोर्ड से दसवीं कक्षा की परीक्षा उत्तीर्ण की है और जिनके पास नागरिक उड्डयन महानिदेशालय (DGCA) द्वारा मान्यता प्राप्त संस्थान से रिमोट पायलट लाइसेंस है।
  • प्रदर्शन के उद्देश्य:
    • FPOs ड्रोन की लागत का 75% सब्सिडी प्राप्त करने के पात्र होंगे यदि उनका उपयोग केवल प्रदर्शन उद्देश्यों के लिये किया जाता है।
    • इसके अतिरिक्त, ऐसी कार्यान्वयन एजेंसियों को 6,000 रुपए/हेक्टेयर दिया जाएगा जो तकनीक प्रदर्शनों हेतु CHCs, हाई-टेक हब, ड्रोन निर्माताओं और स्टार्ट-अप से ड्रोन किराये पर लेती हैं।
    • लेकिन, यदि वे केवल प्रदर्शनों के लिये ड्रोन खरीदती हैं, तो उन्हें 3,000 रुपए प्रति हेक्टेयर ही मिलेगा।
  • महत्त्व
    • CHCs/हाई-टेक हब के लिये कृषि ड्रोन की सब्सिडी के माध्यम से खरीद इस प्रौद्योगिकी को सस्ती बना देगी, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें व्यापक रूप से अपनाया जा सकेगा।
    • यह भारत में आम आदमी के लिये ड्रोन को अधिक सुलभ बना देगा और घरेलू ड्रोन उत्पादन को भी काफी प्रोत्साहित करेगा।
  • अन्य संबंधित पहलें

कृषि मशीनीकरण

  • परिचय:
    • मशीनीकृत कृषि, कृषि कार्य को यंत्रीकृत करने के लिये कृषि मशीनरी का उपयोग करने की एक प्रक्रिया है।
    • कृषि क्षेत्र में मशीनीकरण को बढ़ावा देने के लिये उन्नत कृषि उपकरण और मशीनरी आवश्यक इनपुट हैं।
  • कृषि मशीनीकरण का स्तर:
    • भारत में लगभग 40-45% के साथ उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब जैसे राज्यों में मशीनीकरण का स्तर बहुत अधिक है, लेकिन उत्तर-पूर्वी राज्यों में मशीनीकरण नगण्य है।
    • कृषि यंत्रीकरण का यह स्तर अभी भी अमेरिका (95%), ब्राज़ील (75%) और चीन (57%) जैसे देशों की तुलना में कम है।
  • महत्त्व:
    • यह उपलब्ध कृषि योग्य क्षेत्र की उत्पादकता को अधिकतम करने और ग्रामीण युवाओं के लिये कृषि को अधिक लाभदायक एवं आकर्षक पेशा बनाने हेतु भूमि, जल ऊर्जा संसाधनों, जनशक्ति तथा अन्य इनपुट जैसे बीज, उर्वरक, कीटनाशक आदि के उपयोग को अनुकूलित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  • यह कृषि क्षेत्र के सतत् विकास हेतु प्रमुख चालकों में से एक है।
  • नकारात्मक प्रभाव:
    • कार्यबल कम होने के कारण कृषि रोज़गार में कमी होती है।
    • मशीनरी का प्रयोग प्रदूषण को बढ़ावा देता है।

स्रोत: पी.आई.बी.


जैव विविधता और पर्यावरण

पेरू में पर्यावरणीय आपातकाल

प्रिलिम्स के लिये: तेल रिसाव, बायोरेमेडिएशन, नेशनल ऑयल स्पिल डिज़ास्टर कंटीजेंसी प्लान ऑफ 1996, अंतर्राष्ट्रीय समुद्री संगठन, बंकर कन्वेंशन।

मेन्स के लिये: तेल रिसाव, बायोरेमेडिएशन का पर्यावरणीय और आर्थिक प्रभाव।

चर्चा में क्यों?

पेरू की सरकार ने तेल रिसाव के बाद क्षतिग्रस्त तटीय क्षेत्रों में 90-दिवसीय "पर्यावरणीय आपातकाल" की घोषणा की है, इस तेल रिसाव की घटना के दौरान समुद्र में 6,000 बैरल कच्चे तेल का रिसाव हुआ था।

  • यह रिसाव टोंगा में एक ज्वालामुखी के विस्फोट के परिणामस्वरूप उत्पन्न ‘फ्रीक वेव्स’ यानी अत्यधिक प्रतिक्रियाशील लहरों के कारण हुआ था।
  • यह तेल रिसाव स्पेनिश ऊर्जा फर्म रेप्सोल के एक टैंकर से हुआ। यह घटना पेरू की राजधानी लीमा से करीब 30 किलोमीटर उत्तर में स्थित ‘ला पैम्पिला रिफाइनरी’ में हुआ जो कि बंदरगाह शहर कैलाओ के वेंटानिला ज़िले में स्थित है।

PERU

प्रमुख बिंदु

  • फ्रीक वेव्स: 
    • ‘फ्रीक वेव्स’ को आमतौर पर एक ऐसी लहर के रूप में परिभाषित किया जाता है जिनकी ऊँचाई किसी क्षेत्र की ‘सिग्नीफिकेंट वेब’ की ऊँचाई से दो गुना अधिक होती है।
    • ‘सिग्नीफिकेंट वेब’ की ऊँचाई एक निश्चित अवधि में उठने वाली उच्चतम एक-तिहाई तरंगों का औसत है।
    • ये तथाकथित ‘फ्रीक वेव्स’ अटलांटिक महासागर या उत्तरी सागर तक ही सीमित नहीं हैं।
    • दक्षिण अफ्रीका के दक्षिण-पूर्वी तट उन जगहों में से एक है, जहाँ पर सबसे अधिक बार इस प्रकार की लहरें दर्ज की जाती हैं।
  • तेल रिसाव:
    • परिचय: तेल रिसाव पर्यावरण में कच्चे तेल, गैसोलीन, ईंधन या अन्य तेल उत्पादों के अनियंत्रित रिसाव को संदर्भित करता है। 
      • तेल रिसाव की घटना भूमि, वायु या पानी को प्रदूषित कर सकती है, हालाँकि इसका उपयोग सामान्य तौर पर समुद्र में तेल रिसाव के संदर्भ में किया जाता है।
    • प्रमुख कारण:
      • मुख्य रूप से महाद्वीपीय चट्टानों पर गहन पेट्रोलियम अन्वेषण एवं उत्पादन तथा जहाज़ों में बड़ी मात्रा में तेल के परिवहन के परिणामस्वरूप तेल रिसाव एक प्रमुख पर्यावरणीय समस्या बन गई है।
      • नदियों, खाड़ियों और समुद्र में होने वाला तेल रिसाव अक्सर टैंकरों, नावों, पाइपलाइनों, रिफाइनरियों, ड्रिलिंग क्षेत्र तथा भंडारण सुविधाओं से जुड़ी दुर्घटनाओं के कारण होता है। 
    • पर्यावरणीय प्रभाव:
      • स्थानीय लोगों के लिये खतरा: समुद्री भोजन पर निर्भर रहने वाली स्थानीय आबादी हेतु तेल प्रदूषण स्वास्थ्य के लिये खतरा उत्पन्न करता है।
      • जलीय जीवों के लिये हानिकारक: समुद्र की सतह पर मौजूद तेल जलीय जीवों के कई रूपों में हानिकारक होता है, क्योंकि यह पर्याप्त मात्रा में सूर्य के लिये प्रकाश को सतह में प्रवेश करने से रोकता है और साथ ही घुलित ऑक्सीजन के स्तर को भी कम करता है।
      • अतिताप (Hyperthermia): कच्चा तेल पक्षियों के पंखों और फर के तापरोधक व जलरोधक गुणों को नष्ट कर देता है।
        • अतः अतिताप (शरीर का  तापमान सामान्य स्तर से अधिक) के कारण तेल से लिप्त पक्षी व समुद्री स्तनधारी की मृत्यु हो सकती है।
      • विषाक्त प्रभाव: उपरोक्त के अलावा अंतर्ग्रहण तेल प्रभावित जानवरों के लिये विषाक्त हो सकता है और उनके आवास व प्रजनन दर को नुकसान पहुँचा सकता है।
      •  मैंग्रोव के लिये खतरा: खारे पानी युक्त दलदल और मैंग्रोव अक्सर तेल रिसाव से प्रभावित होते हैं।
    • आर्थिक प्रभाव:
      • पर्यटन: यदि समुद्र के तट और आबादी वाली तटरेखाएँ प्रदूषित होती है, तो पर्यटन व वाणिज्य बुरी तरह प्रभावित हो सकते हैं।
      • ऊर्जा संयंत्र: ऊर्जा संयंत्र और अन्य उपयोगिताएँ जो समुद्र के जल को खींचने या विसर्जित करने पर निर्भर करती हैं, तेल रिसाव से गंभीर रूप से प्रभावित होती हैं।
      • मत्स्य पालन: तेल रिसाव के बाद अक्सर वाणिज्यिक उद्देश्य से मछली पकड़ने में तत्काल कमी आती है।
    • उपचार:
      • जैव उपचार: जैव उपचार (बायोरेमेडिएशन) के ज़रिये समुद्र में फैले तेल को साफ करने के लिये बैक्टीरिया का इस्तेमाल किया जा सकता है। 
        • कुछ विशिष्ट जीवाणुओं, जो तेल और गैसोलीन में मौजूद होते हैं, का उपयोग हाइड्रोकार्बन जैसे विशिष्ट संदूषकों को जैव उपचारित करने के लिये किया जा सकता है।
        • पैरापरलुसीडिबाका(Paraperlucidibaca),साइक्लोक्लास्टिकस (Cycloclasticus), ओईस्पिरा (Oleispira), थैलासोलिटस (Thalassolituus) ज़ोंंगशानिया (Zhongshania) और इसी प्रकार के अन्य बैक्टीरिया का उपयोग करने से कई प्रकार के दूषित पदार्थों को हटाने में मदद मिल सकती है।
      • कंटेनमेंट बूम्स: तेल के प्रसार को रोकने और इसे हटाने के लिये फ्लोटिंग बैरियर, जिन्हें ‘बूम’ के नाम से जाना जाता है, का उपयोग किया जा सकता है।
      • स्कीमर: ये पानी की सतह पर मौजूद तेल को भौतिक रूप से अलग करने के लिये उपयोग किये जाने वाले उपकरण हैं।
      • सॉर्बेंट्स: विभिन्न प्रकार के सॉर्बेंट्स (उदाहरण के लिये स्ट्रॉ, ज्वालामुखीय राख और पॉलिएस्टर-व्युत्पन्न प्लास्टिक की छीलन) जो पानी से तेल को अवशोषित करते है, का उपयोग किया जाता है।
      • डिस्पर्सिंग एजेंट: ये ऐसे रसायन होते हैं, जिनमें तेल जैसे तरल पदार्थों को छोटी बूँदों में तोड़ने का काम करने वाले यौगिक मौजूद होते हैं। वे समुद्र में इसके प्राकृतिक फैलाव को तेज़ करते हैं।
    • भारत में संबंधित कानून:
      • वर्तमान में भारत में तेल रिसाव और इसके परिणामी पर्यावरणीय क्षति को कवर करने वाला कोई कानून नहीं है लेकिन ऐसी स्थितियों से निपटने हेतु भारत के पास वर्ष 1996 की राष्ट्रीय तेल रिसाव आपदा आकस्मिक योजना (National Oil Spill Disaster Contingency Plan- NOS-DCP) है।
        • यह दस्तावेज़ रक्षा मंत्रालय द्वारा वर्ष 1996 में जारी किया गया था। इसे अंतिम बार मार्च 2006 में अपडेट किया गया था।
        • यह भारतीय तटरक्षक बल को तेल रिसाव के सफाई कार्यों में सहायता के लिये  राज्य के विभागों, मंत्रालयों, बंदरगाह प्राधिकरणों तथा पर्यावरण एजेंसियों के साथ समन्वय करने का अधिकार देता है।
      • वर्ष 2015 में भारत ने बंकर तेल प्रदूषण क्षति, 2001 (बंकर कन्वेंशन) के लिये नागरिक दायित्व पर अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन की पुष्टि की। 
        • कन्वेंशन तेल रिसाव से होने वाले नुकसान के लिये पर्याप्त, त्वरित और प्रभावी मुआवज़ा सुनिश्चित करता है।
        • यह अंतर्राष्ट्रीय समुद्री संगठन (International Maritime Organization - IMO) द्वारा प्रशासित है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय अर्थव्यवस्था

के-शेप्ड इकोनाॅमिक रिकवरी

प्रिलिम्स के लिये:

के-शेप्ड इकोनॉमिक रिकवरी, इकोनॉमिक रिकवरी के प्रकार

मेन्स के लिये:

भारतीय अर्थव्यवस्था की के-शेप्ड इकोनॉमिक रिकवरी उदाहरण के साथ, आर्थिक विकास का महत्त्व और सीमाएँ।

चर्चा में क्यों?

ICE360 सर्वे 2021 के नवीनतम आँकड़ों के अनुसार, K-आकार की रिकवरी (K-shaped recovery) कोरोनोवायरस महामारी की चपेट में आई अर्थव्यवस्था से उत्पन्न होती है।

  • यह सर्वेक्षण मुंबई स्थित थिंक टैंक पीपुल्स रिसर्च ऑन इंडियाज़ कंज़्यूमर इकॉनमी (PRICE) द्वारा किया गया है।
  • सर्वेक्षण में अप्रैल और अक्टूबर 2021 के बीच, पहले दौर में 2,00,000 घरों और दूसरे दौर में 42,000 घरों को कवर किया गया।

प्रमुख बिंदु:

  • वार्षिक आय पर प्रभाव:
    • सबसे गरीब 20% भारतीय परिवारों की वार्षिक आय वर्ष 1995 से लगातार बढ़ रही थी, जो महामारी वर्ष 2020-21 में वर्ष 2015-16 के स्तर से 53% कम हो गई है।
    • इसी पाँच वर्ष की अवधि में सबसे अमीर 20% की वार्षिक घरेलू आय में 39% की वृद्धि हुई है, जो पिरामिड के सबसे निचले और शीर्ष भाग पर कोविड के विपरीत आर्थिक प्रभाव को दर्शाता है।

Covid

  • शहरी गरीब सर्वाधिक प्रभावित:
    • सर्वेक्षण से पता चलता है कि महामारी ने शहरी गरीबों को सबसे अधिक प्रभावित किया जिससे उनकी घरेलू आय कम हो गई है।
      • इसके परिणामस्वरूप अनौपचारिक श्रमिकों और घरेलू कामगारों का रोज़गार चौपट हो गया, जिससे उनकी आय में कमी आई है।
      • महामारी ने वर्ष 2020-21 में कम-से-कम दो तिमाहियों के लिये आर्थिक गतिविधियों को ठप कर दिया और इसके परिणामस्वरूप वर्ष 2020-21 में सकल घरेलू उत्पाद में 7.3% का संकुचन हुआ।

Rural-Urban-Split

  • शहरों में गरीबों की संख्या में वृद्धि:
    • यद्यपि वर्ष 2016 में सबसे गरीब 20% में से 90% लोग ग्रामीण भारत में रहते थे, यह संख्या वर्ष 2021 में घटकर 70% हो गई।
    • दूसरी ओर, शहरी क्षेत्रों में सबसे गरीब 20% की हिस्सेदारी अब लगभग 10% बढ़कर 30% हो गई है।
  • ‘के-शेप्ड’ रिकवरी पर अर्थशास्त्रियों का दृष्टिकोण:
    • सरकार को कोरोना वायरस महामारी से प्रभावित अर्थव्यवस्था की ‘के-शेप्ड’ रिकवरी को रोकने के लिये और अधिक प्रयास करने की आवश्यकता है।
    • भारतीय अर्थव्यवस्था में कुछ ‘ब्राइट स्पॉट’ और बहुत से ‘डार्क स्टेंस’ हैं तथा सरकार को अपने व्यय को ‘सावधानीपूर्वक’ लक्षित करना चाहिये, ताकि कोई बड़ा घाटा न हो।
      • बड़ी फर्में, आईटी और आईटी-सक्षम क्षेत्र ‘ब्राइट स्पॉट’ हैं, साथ ही इसमें यूनिकॉर्न का उदय और वित्तीय क्षेत्र भी शामिल है।
      • ‘डार्क स्टेंस’ के तहत बेरोज़गारी और ‘निम्न खरीद शक्ति’ शामिल हैं, विशेष रूप से निम्न मध्यम वर्ग के बीच, वहीं छोटे और मध्यम आकार की फर्में वित्तीय तनाव का अनुभव कर रही हैं, इसके साथ ही ‘क्रेडिट वृद्धि’ कमज़ोर हो गई है तथा स्कूली शिक्षा की स्थिति भी काफी चिंतनीय है।

आर्थिक रिकवरी

  • परिचय:
    • यह मंदी के बाद ‘व्यापार चक्र’ का एक विशिष्ट चरण है, जिसमें प्रायः व्यावसायिक गतिविधि में निरंतर आधार पर सुधार दर्ज किया जा रहा है।
    • आमतौर पर आर्थिक रिकवरी के दौरान अर्थव्यवस्था में सुधार के साथ GDP में बढ़ोतरी होती है, आय में वृद्धि होती है और बेरोज़गारी में गिरावट आती है।
  • प्रकार:
  • K-शेप्ड रिकवरी:
    • K-शेप्ड रिकवरी (K-Shaped Recovery) तब होती है, जब मंदी के बाद अर्थव्यवस्था के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग दर, समय या परिमाण में ‘रिकवरी’ होती है। यह विभिन्न क्षेत्रों, उद्योगों या लोगों के समूहों में समान ‘रिकवरी’ के सिद्धांत के विपरीत है।
    • K-शेप्ड रिकवरी से अर्थव्यवस्था की संरचना में व्यापक परिवर्तन होता है और आर्थिक परिणाम मंदी के पहले तथा बाद में मौलिक रूप से बदल जाते हैं।
    • इस प्रकार की रिकवरी को ‘K-शेप्ड कहा जाता है क्योंकि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्र जब एक मार्ग पर साथ चलते हैं तो डायवर्ज़न के कारण ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है जो कि रोमन अक्षर ‘K’ की दो भुजाओं से मिलती-जुलती है।

K-Shaped

आगे की राह 

  • अर्थव्यवस्था के सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्रों को संतुलित करने हेतु सरकार को इस समय जहांँ आवश्यक हो वहांँ खर्च करना चाहिये।
  • अगले पांँच वर्षों में देश के समेकित ऋण के लिये विश्वसनीय लक्ष्य की घोषणा के साथ-साथ बजट की गुणवत्ता को आगे बढ़ाने हेतु  एक स्वतंत्र वित्तीय परिषद की स्थापना करना बहुत उपयोगी कदम होगा।
  • सरकारी उद्यमों के कुछ हिस्सों और अधिशेष सरकारी भूमि सहित परिसंपत्ति बिक्री के माध्यम से बजटीय संसाधनों का विस्तार किया जा सकता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


शासन व्यवस्था

साझा पालन-पोषण

प्रिलिम्स के लिये:

बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (UNCRC)।

मेन्स के लिये:

कस्टोडियल अधिकार, साझा पेरेंटिंग, कस्टोडियल अधिकारों पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय।

चर्चा में क्यों?

माता-पिता के विवाह से अलग होने की स्थिति में बच्चे की कस्टडी मांगना बच्चों के लिये एक बहुत ही दर्दनाक घटना है। यद्यपि तलाक के बाद माता-पिता अलग हो जाते हैं, लेकिन यह ‘बच्चे के सर्वोत्तम हित’ में नहीं है।

  • सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2019 में फैसला सुनाया था कि 'एक बच्चे को अपने माता-पिता दोनों के स्नेह का अधिकार है'।
  • इस संदर्भ में ‘साझा पेरेंटिंग’ की अवधारणा बच्चे के लिये मददगार हो सकती है। हालाँकि, पुरातन कानूनों के कारण यह भारत में एक विकल्प नहीं है।
  • ‘साझा पेरेंटिंग’ का आशय उस स्थिति से है, जब बच्चों को माता-पिता के अलगाव के बाद माता-पिता दोनों के प्यार और मार्गदर्शन के साथ पाला जाता है।

प्रमुख बिंदु

  • 'बच्चे के सर्वोत्तम हितों' का आशय:
  • भारत में बच्चों की कस्टडी का निर्धारण करने वाले कानून:
    • वर्ष 1956 का हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम (HMGA): 
      • इस अधिनियम में कहा गया है कि एक हिंदू नाबालिग लड़के या अविवाहित लड़की का नैसर्गिक अभिभावक (Natural Guardian) पिता और माता होंगे, बशर्ते कि एक नाबालिग की कस्टडी जिसकी पांँच वर्ष की उम्र पूरी नहीं हुई है सामान्यत मां के पास होगी। 
      • हालांँकि HMGH में कस्टडी अधिकार तय करने या न्यायालय द्वारा अभिभावक घोषित करने हेतु कोई स्वतंत्र, कानूनी या प्रक्रियात्मक तंत्र शामिल नहीं है।
    • संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 (GWA)
      • यह बच्चे और संपत्ति दोनों के संबंध में एक व्यक्ति को बच्चे के 'अभिभावक' के रूप में नियुक्त करने से संबंधित है।
      • माता-पिता के बीच चाइल्ड कस्टडी, संरक्षकता और मुलाकातों के मुद्दों को GWA के तहत निर्धारित किया जाता है, अगर नैसर्गिक अभिभावक अपने बच्चे के लिये  एक विशेष अभिभावक के रूप में घोषित होना चाहते हैं।
      • GWA के तहत एक याचिका में माता-पिता के बीच विवाद होने पर, HMGA के साथ जोड़कर पढ़ा जाता है, अभिभावकता और कस्टडी एक माता-पिता के साथ दूसरे माता-पिता के मिलने या मुलाकत के अधिकारों के साथ निहित हो सकती है।
      • ऐसा करने में नाबालिग या "बच्चे के सर्वोत्तम हित" का कल्याण सर्वोपरि होगा।
  • सर्वोच्च न्यायालय के संबंधित निर्णय:
    • सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2017 में विवेक सिंह बनाम रोमानी सिंह मामले में ‘पेरेंटल एलीनेशन सिंड्रोम’ की अवधारणा पर प्रकाश डाला।
      • यह अपने माता-पिता के प्रति एक बच्चे के अनुचित तिरस्कार को संदर्भित करता है।
      • निर्णय में इसके "मनोवैज्ञानिक विनाशकारी प्रभावों" को रेखांकित किया गया।
    • वर्ष 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘लहरी सखामुरी बनाम शोभन कोडाली मामले’ में कहा कि "बच्चे के सर्वोत्तम हित" अपने अर्थ में व्यापक हैं और "प्राथमिक देखभाल, के मामले में माँ का प्यार और देखभाल ही काफी नहीं है। 
    • वर्ष 2022 में वसुधा सेठी बनाम किरण वी. भास्कर मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि एक बच्चे का कल्याण माता-पिता का व्यक्तिगत या व्यक्तिगत कानूनी अधिकार ही नहीं बल्कि अभिरक्षा की लड़ाई में सर्वोपरि है। माता-पिता के अधिकारों पर बच्चे के कल्याण को प्राथमिकता मिलनी चाहिये।
  • साझा पालन-पोषण पर कानूनी राय:
    • वर्ष 2015 में भारतीय विधि आयोग की रिपोर्ट में भारत में संरक्षकता और अभिरक्षा कानूनों में सुधार के मुद्दे पर संयुक्त अभिरक्षा एवं साझा पालन-पोषण की सिफारिश की गई।
      • यह एक माता-पिता के साथ एकल बाल अभिरक्षा के विचार से असहमत था।
      • इसने संयुक्त अभिरक्षा के लिये HMGA और GWA में संशोधन हेतु और इस तरह की हिरासत, बाल सहायता और मुलाक़ात व्यवस्था से संबंधित दिशा-निर्देशों की विस्तृत सिफारिशें कीं।
    • भारत के विधि आयोग की रिपोर्ट 263, जिसका शीर्षक है बच्चों का संरक्षण (अंतर-देश निष्कासन और ध्यान) विधेयक, 2016 ने यूएनसीआरसी (UNCRC) के अनुसार हिरासत से संबंधित "बच्चों के सर्वोत्तम हितों" की रक्षा के लिये एक विधेयक प्रस्तुत करने की सिफारिश की है।
    • वर्ष 2018 में सरकार को सौंपी गई जस्टिस बिंदल कमेटी की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि यूएनसीआरसी (UNCRC) के मद्देनज़र चाइल्ड कस्टडी से संबंधित मामलों में "बच्चों के सर्वोत्तम हित" सर्वोपरि हैं।

आगे की राह

  • एक बाल-केंद्रित मानवाधिकार न्यायशास्त्र (child-centric human rights jurisprudence) जो समय के साथ विकसित और इस सिद्धांत पर स्थापित किया गया है कि सार्वजनिक भलाई बच्चे के उचित विकास की मांग करती है,जो राष्ट्र का भविष्य है।
  • इसलिये समान अधिकारों के साथ साझा या संयुक्त पालन-पोषण बच्चे के इष्टतम विकास हेतु एक व्यवहार्य, व्यावहारिक, संतुलित समाधान हो सकता है।

स्रोत: द हिंदू


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