भारतीय समाज
अंतर-धार्मिक विवाह और व्यक्तिगत स्वतंत्रता
- 19 Dec 2020
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इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में अंतर-धार्मिक विवाह के विरुद्ध कानूनों के निर्माण और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर इसके प्रभावों व संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ:
हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा ‘उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म पविर्तन प्रतिषेध अध्यादेश, 2020’ जारी किया गया है। देश में कई अन्य राज्यों की सरकारें भी ऐसे ही कानूनों को लागू करने की प्रक्रिया में हैं। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जारी अध्यादेश बल पूर्वक, प्रभाव दिखाकर, प्रलोभन, धोखाधड़ी से या विवाह के उद्देश्य से किये जाने वाले किसी भी धर्मांतरण को प्रतिबंधित करता है, साथ ही इस तरह के विवाह को अवैध घोषित किये जाने का प्रावधान भी करता है। इस अध्यादेश के तहत ऐसे धर्मांतरण को एक गैर-जमानती अपराध माना गया है।
हालाँकि इस कानून की यह कहते हुए आलोचना की गई है कि यह किसी व्यक्ति के अपनी पसंद से विवाह करने के अधिकार का उल्लंघन के साथ ही जीवन, स्वायत्तता तथा गोपनीयता के मौलिक अधिकार के खिलाफ भी है। इसके अलावा इस कानून की जड़ें पितृसत्ता और सांप्रदायिकता से जुड़ी हुई प्रतीत होती हैं , जो सामाजिक सौहार्द तथा व्यक्तिगत गरिमा के सम्मान को प्रभावित कर सकती हैं।
अध्यादेश से संबंधित मुद्दे:
- धर्मनिरपेक्षता के मार्ग में हस्तक्षेप: भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता को बुनियादी सिद्धांतों के रूप में प्रतिस्थापित किया गया है।
- इसके बावजूद देश के कई राज्यों में लंबे समय से धर्मांतरण विरोधी कानून लागू हैं, जिनमें ओडिशा, अरुणाचल प्रदेश, गुजरात, हिमाचल प्रदेश और झारखंड जैसे राज्य शामिल हैं।
- व्यक्तिगत स्वतंत्रता के खिलाफ: भारतीय संविधान के अनुच्छेद-25 से 28 तक एक भारतीय नागरिक को अपनी पसंद के किसी भी धर्म को मानने, उसके नियमों का पालन करने और उसका प्रचार करने का अधिकार प्रदान किया गया है।
- जबकि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा लाया गया हालिया अध्यादेश किसी व्यक्ति द्वारा अपनी पसंद के जीवनसाथी का चुनाव करने में हस्तक्षेप कर उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन करता है।
- उच्चतम न्यायालय के निर्णयों के विपरीत: शफीन जहां बनाम अशोक केएम (2018) मामले में उच्चतम न्यायालय ने ‘अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह के अधिकार’ को भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत प्राप्त अधिकारों का हिस्सा बताया।
- उच्चतम न्यायालय के अनुसार, संविधान किसी भी व्यक्ति के अपनी पसंद का जीवन जीने या विचारधारा को अपनाने की क्षमता/स्वतंत्रता की रक्षा करता है। अतः एक व्यक्ति द्वारा अपनी पसंद के किसी व्यक्ति से विवाह करने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद-21 का अभिन्न अंग है।
- इसके अलावा उच्चतम न्यायालय ने के.एस. पुट्टास्वामी बनाम भारतीय संघ (2017) मामले का फैसला सुनाते हुए कहा कि "पारिवारिक जीवन के चुनाव का अधिकार" एक मौलिक अधिकार है।
- उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा लाया गया हालिया अध्यादेश उच्चतम न्यायालय के इन निर्णयों से मेल नहीं खाता क्योंकि यह एक भावी जीवनसाथी के रूप में पसंद करने के किसी व्यक्ति के अधिकार को सीमित करता है, इसके अनुसार किसी महिला/पुरुष का पति/पत्नी केवल वही हो सकता है जो राज्य द्वारा अनुमोदित होगा।
- प्रमाण प्रस्तुत करने का दायित्व: उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जारी यह धर्मांतरण निषेध अध्यादेश महिला के किसी भी रिश्तेदार को उसके विवाह की वैधता को चुनौती देने की अनुमति देता है।
- ऐसी स्थिति में प्रमाण का उल्टा असर पड़ेगा जिसके तहत धर्मांतरण और विवाह के लिये महिला के सहमत होने की गवाही की अनदेखी करते हुए धर्मांतरण कराने वाले व्यक्ति को यह साबित करना होगा कि धर्मांतरण के लिये महिला को विवश नहीं किया गया था।
- यह ‘दोषी साबित होने तक निर्दोष समझे जाने के अधिकार’ का सीधा उल्लंघन है; अध्यादेश का यह पहलू विशेष रूप से जीवन साथी चुनने के अधिकार का प्रयोग करने वाली महिलाओं के संदर्भ में चिंताजनक है।
- पितृसत्तात्मक जड़ें: इससे पता चलता है कि वर्तमान में भी कानूनों में गहरी पितृसत्तात्मकता की जड़ें विद्यमान हैं, जिसके तहत महिलाओं को परिपक्व नहीं माना जाता और उन्हें माता-पिता तथा सामुदायिक नियंत्रण के अंतर्गत रखा जाता है। यदि उनके जीवन से संबंधित महत्त्वपूर्ण फैसलों पर उनके अभिभावकों की सहमति न हो तो उन्हें अपने जीवन के फैसले लेने के अधिकार से भी वंचित रखा जाता है।
- ऐतिहासिक रूप से विवाह को महिलाओं की यौनिकता को नियंत्रित करने, जातिगत वंशावली को बढ़ावा देने और महिलाओं को उनकी स्वायत्तता का प्रयोग करने से रोकने हेतु एक माध्यम के रूप में देखा जाता रहा है। इस प्रकार के सांप्रदायिक दुष्प्रचार का महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने में कोई योगदान नहीं होता है, बल्कि यह उनकी गतिशीलता, सामाजिक जीवन और पसंद आदि की स्वतंत्रता को कम करता है।
पूर्वाग्रह:
- अंतर-धार्मिक और अंतर-जातीय विवाह के प्रति यह गहरा विरोध समुदायों के बीच ऐतिहासिक पूर्वाग्रहों से उपजा है।
- इस पूर्वाग्रह को देखते हुए मौलिक अधिकारों पर बनी उप-समिति के कुछ सदस्यों, विशेष रूप से महिला सदस्यों जिनमें राजकुमारी अमृत कौर और हंसा जीवराज मेहता भी शामिल हैं , ने अंतर-जातीय विवाह को मौलिक अधिकार के रूप में शामिल करने मांग की थी।
- वे राज्य के लिये अंतर-धार्मिक विवाहों से जुड़ी किसी भी बाधा को हटाने हेतु एक संवैधानिक प्रावधान प्रस्तुत करना चाहते थे ताकि ऐसे विवाहों के विरूद्ध सामाजिक भेदभाव को हटाया जा सके।
निष्कर्ष:
वर्तमान में सभी धर्मों की युवा भारतीय महिलाएँ बढ़-चढ़ कर काम करने, अध्ययन करने, ऐसे व्यक्ति से विवाह करने जिसे वे स्वयं चुनें और जिसके साथ अपनी शर्तों पर जीवन जीने का फैसला करें आदि जैसी स्वतंत्रता की मांग कर रही हैं। ऐसे में न तो इन बुनियादी अधिकारों पर सवाल उठाया जाना चाहिये और न ही इन पर अंकुश लगाया जाना चाहिये। एक महिला की स्वायत्तता उसका अपना अधिकार है, किसी भी माता-पिता, रिश्तेदार या राज्य तंत्र को उससे इस स्वायत्तता को छीनने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। एक महिला को उसकी स्वतंत्रता से वंचित करने का प्रयास, एक ऐसी विनम्र महिला आबादी को तैयार करने का प्रयास है , जो वही करती है जैसा उसे बताया जाता है तथा सामाजिक और पारिवारिक निर्देशों के खिलाफ विद्रोह नहीं करती है।
अभ्यास प्रश्न: एक रूढ़िवादी समाज में नैतिक पुलिसिंग के साथ अंतर-जातीय विवाह को रोकने के लिये बना कोई भी कानून युवा पुरुषों और महिलाओं के अधिकारों पर हमला है। चर्चा कीजिये।