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गैर-कानूनी धर्मांतरण पर उत्तर प्रदेश सरकार का अध्यादेश

  • 01 Dec 2020
  • 7 min read

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गैर-कानूनी धर्मांतरण की समस्या से निपटने के लिये एक अध्यादेश जारी किया गया है, जिसके तहत विवाह के लिये धर्मांतरण को गैर-जमानती अपराध घोषित करते हुए कारावास के साथ आर्थिक दंड का भी प्रावधान किया गया है।  

प्रमुख बिंदु:

  • ‘उत्‍तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म पविर्तन प्रतिषेध अध्‍यादेश, 2020:
    • इस अध्यादेश के तहत विवाह के लिये धर्मांतरण को गैर-जमानती अपराध घोषित कर दिया गया है तथा इसके तहत प्रतिवादी को यह प्रमाणित करना होगा कि धर्मांतरण विवाह के उद्देश्य से नहीं किया गया था।
    • इस अध्यादेश के अनुसार, किसी भी व्यक्ति को धर्मांतरण के लिये दो माह पूर्व ज़िला मजिस्ट्रेट को एक नोटिस देना होगा। 
    • यदि किसी मामले में एक महिला द्वारा केवल विवाह के उद्देश्य से ही धर्म परिवर्तन किया जाता है, तो ऐसे विवाह को अमान्य घोषित कर दिया जाएगा। 
    • इस अध्यादेश के प्रावधानों के उल्लंघन के मामलों में आरोपी को न्यूनतम एक वर्ष के कारावास का दंड दिया जा सकता है, जिसे पाँच वर्ष के कारावास और 15 हज़ार रुपए के जुर्माने तक बढ़ाया जा सकता है। 
    • हालाँकि यदि किसी नाबालिक, महिला अथवा अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से संबंधित व्यक्ति का गैर-कानूनी तरीके से धर्मांतरण कराया जाता है तो ऐसे मामलों में कम-से-कम तीन वर्ष के कारावास का दंड दिया जा सकता है, जिसे 25,000 रुपए के ज़ुर्माने के साथ 10 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है।  
    • इस अध्यादेश के तहत सामूहिक धर्मांतरण के खिलाफ सख्त कार्रवाई का प्रावधान किया गया है, सामूहिक धर्मांतरण के मामलों में कम-से-कम तीन वर्ष के कारावास का दंड दिया जा सकता है, जिसे 50,000रुपए के ज़ुर्माने के साथ 10 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है।
    • साथ ही इसके तहत धर्मांतरण में शामिल सामाजिक संस्थानों के पंजीकरण को रद्द किये जाने का प्रावधान भी किया गया है।

विवाह और धर्मांतरण पर उच्चतम न्यायालय का मत:  

  • सर्वोच्च न्यायालय ने अपने विभिन्न निर्णयों में यह स्वीकार किया है कि जीवन साथी के चयन के मामले में एक वयस्क नागरिक के अधिकार पर राज्य और न्यायालयों का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है यानी सरकार अथवा न्यायालय द्वारा इन मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है।
  • भारत एक ‘स्वतंत्र और गणतांत्रिक राष्ट्र’ है और एक वयस्क के प्रेम तथा विवाह के अधिकार में राज्य का हस्तक्षेप व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। 
  • विवाह जैसे मामले किसी व्यक्ति की निजता के अंतर्गत आते हैं, विवाह अथवा उसके बाहर जीवन साथी के चुनाव का निर्णय व्यक्ति के "व्यक्तित्व और पहचान" का हिस्सा है।
  • किसी व्यक्ति द्वारा जीवन साथी चुनने का पूर्ण अधिकार कम-से-कम धर्म से प्रभावित नहीं होता है। 

संबंधित पूर्व मामले: 

  • वर्ष 2017 का हादिया मामला: 
    • हादिया मामले में निर्णय देते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ‘अपनी पसंद के कपड़े पहनने, भोजन करने, विचार या विचारधाराओं और प्रेम तथा जीवनसाथी के चुनाव का मामला  किसी व्यक्ति की पहचान के केंद्रीय पहलुओं में से एक है।’ ऐसे मामलों में न तो राज्य और न ही कानून किसी व्यक्ति को जीवन साथी के चुनाव के बारे में कोई आदेश दे सकते हैं या न ही वे ऐसे मामलों में निर्णय लेने के लिये किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित कर सकते हैं।  

के. एस. पुत्तुस्वामी निर्णय (वर्ष 2017): 

  •  किसी व्यक्ति की स्वायत्तता से आशय जीवन के महत्त्वपूर्ण मामलों में उसकी निर्णय लेने की क्षमता से है। 

लता सिंह मामला (वर्ष 1994): 

  • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि देश एक बड़े बदलाव के दौर से गुज़र रहा है और इस दौरान संविधान तभी मज़बूत बना रह सकता है जब हम अपनी संस्कृति की बहुलता तथा विविधता को स्वीकार कर लें।  
  • अंतर्धार्मिक विवाह से असंतुष्ट रिश्तेदार हिंसा या उत्पीड़न का सहारा लेने की  बजाय सामाजिक संबंधों को तोड़ने’ का विकल्प चुन सकते हैं।  

सोनी गेरी मामला, 2018:

  • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने न्यायाधीशों को ‘माँ की भावनाओं या पिता के अभिमान’ के आगे झुककर ‘सुपर-गार्ज़ियन’ की भूमिका निभाने से आगाह किया। 

इलाहाबाद हाईकोर्ट 2020 के सलामत अंसारी-प्रियंका खरवार केस:

  • अपनी पसंद के साथी को चुनना या उसके साथ रहने का अधिकार नागरिक के जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हिस्सा है। (अनुच्छेद-21)
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि विवाह के लिये धर्मांतरण के निर्णय को पूर्णतः अस्वीकृत करने के विचार के समर्थन से जुड़े अदालत के पूर्व फैसले वैधानिक रूप से सही नहीं हैं।

आगे की राह:

  • ऐसे कानूनों को लागू करने वाली सरकार को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि ये किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों को सीमित न करते हों और न ही इनसे राष्ट्रीय एकता को क्षति पहुँचती हो; ऐसे कानूनों के लिये स्वतंत्रता और दुर्भावनापूर्ण धर्मांतरण के मध्य संतुलन बनाना बहुत ही आवश्यक है।

स्रोत: द हिंदू

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