नोएडा शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 9 दिसंबर से शुरू:   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

टू द पॉइंट


भारतीय इतिहास

भारत छोड़ो आंदोलन में महिलाओं की भूमिका

  • 16 Jan 2020
  • 20 min read

पृष्ठभूमि:

  • वर्ष 1939 में इंग्लैंड ने जर्मन राइख (साम्राज्य) पर आक्रमण कर दिया। जिसके बाद द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत मानी जाती है। विश्व युद्ध के प्रारंभ होते ही भारत को उसमें शामिल कर लिया गया तथा इस संबंध में भारत के नेताओं से कोई परामर्श नहीं लिया गया था।
  • उस समय भारत के वाइसरॉय लार्ड लिनलिथगो थे तथा उन्होंने तत्काल भारत के युद्ध में शामिल होने की औपचारिक घोषणा कर दी। इसके प्रत्युत्तर में वाइसरॉय के मत्रिमंडल में शामिल कॉन्ग्रेस के नेताओं ने तुरंत अपने पद से त्यागपत्र दे दिया।
  • कॉन्ग्रेस सहित कई राजनीतिक दलों ने अंग्रेजों की इस नीति का विरोध किया तथा जनसामान्य में यह भावना फैली कि ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों की भावनाओं की उपेक्षा की जा रही है।
  • इसके विरोध के लिये कॉन्ग्रेस कार्य समिति ने 7-8 अगस्त, 1942 को मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान में सभा आयोजित की गई जिसमें महात्मा गांधी ने “करो या मरो” (Do or Die) का नारा दिया और भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुई।
  • लेकिन अगली सुबह 9 अगस्त को महात्मा गांधी समेत कॉन्ग्रेस के सभी मुख्य नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया तथा उन्हें देश में अलग-अलग स्थानों पर जेलों में बंद कर दिया गया।
  • इन परिस्थितियों में आंदोलन के मुख्य नेतृत्व के अभाव में स्थानीय स्तर के नेताओं तथा महिलाओं को इसका नेतृत्व संभालने का अवसर प्राप्त हो गया।
  • यह आंदोलन स्थानीय स्तर पर अलग-अलग तरीकों से जारी रहा। कुछ स्थानों पर लोग शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन कर रहे थे, जबकि कई स्थानों पर यह आंदोलन हिंसक हो गया।
  • उत्तर प्रदेश के बलिया, पश्चिम बंगाल के मिदनापुर तथा महाराष्ट्र के सतारा में आंदोलनकारियों ने अंग्रेजी सरकार को हटा कर समानांतर सरकारें स्थापित कीं।
  • भारत छोड़ो आंदोलन की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें जनसामान्य तथा महिलाओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसकी वजह से यह आंदोलन भारतीय इतिहास के सबसे सफलतम आंदोलनों में से गिना जाता है।

भारत छोड़ो आंदोलन में निम्नलिखित महिला नेताओं ने अपना बहुमूल्य योगदान किया:

कनकलता बरुआ:

  • कनकलता बरुआ असम के सोनितपुर ज़िले के गोहपुर की रहने वाली थीं। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उनकी आयु मात्र 18 वर्ष की थी। स्थानीय लोग उन्हें ‘बीरबाला’ के नाम से जानते हैं।
  • 20 सितंबर, 1942 को भारी संख्या में लोग गोहपुर पुलिस चौकी पर पर शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन करने के लिये पहुँच रहे थे। उनका उद्देश्य पुलिस चौकी पर लगे यूनियन जैक को उतार कर भारतीय झंडा फहराना था।
  • कनकलता महिलाओं के समूह का प्रतिनिधित्व कर रही थीं। थाने के दरोगा के धमकी देने पर भी वो नहीं मानी और झंडा लेकर आगे बढ़ती रहीं। आखिरकार वो पुलिस की गोली का शिकार हुईं और शहीद हो गईं।

कल्पना दत्ता:

  • कल्पना दत्ता बंगाल में वामपंथी राजनीति तथा क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय थीं। वर्ष 1930 के चटगाँव शस्त्रागार लूट (Chittagong Armoury Raid) में वो सूर्य सेन (मास्टर दा) के साथ लड़ी थीं तथा वर्ष 1932 में उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई थी।
  • वर्ष 1935 के भारत शासन अधिनियम के बाद राज्यों स्वायत्तता दी गई। जिसके बाद भारतीय नेताओं- रबींद्रनाथ टैगोर, सी.एफ. एंड्रू तथा महात्मा गांधी ने उनको जेल से छुड़ाने में मदद की तथा वर्ष 1939 में वो जेल से रिहा हुईं।
  • जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने अपनी आगे की पढ़ाई पूरी की तथा बंगाल के धोबीपाड़ा में मज़दूरों के हक में कार्य करती रहीं। वे बाद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (Communist Party of India- CPI) से जुड़ गईं तथा CPI के नेता पी.सी. घोष से उन्होंने विवाह किया।
  • द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सरकार ने उनके बाहर निकलने पर प्रतिबंध लगा दिया था तथा 24 घंटे के अन्दर गिरफ्तार करने का आदेश दिया। लेकिन वो भूमिगत तरीके से पार्टी तथा आज़ादी के लिये लगातार कार्य करती रहीं।

राजकुमारी अमृत कौर:

  • राजकुमारी ने भारत छोड़ो आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वो पंजाब के कपूरथला राजघराने से संबंधित थीं तथा लंदन से पढ़ाई करने के बाद वो भारत लौटीं।
  • वो गांधीजी के विचारों से काफी प्रभावित थीं तथा नमक सत्याग्रह में भी उन्होंने अपने योगदान दिया था। उनका मुख्य कार्यक्षेत्र शिक्षा के माध्यम से महिलाओं तथा हरिजन समाज को सशक्त बनाना था। वह अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संगठन (All India Village Industries Association) की अध्यक्ष भी रही थीं।
  • भारत छोड़ो आंदोलन में वो लोगों के साथ मिलकर जुलूस निकालती और विरोध प्रदर्शन करती थीं। शिमला में 9 से 16 अगस्त के बीच उन्होंने प्रतिदिन जुलूस निकला तथा पुलिस ने उनपर 15 बार लगातार निर्दयता से लाठीचार्ज किया।
  • अंततः सरकार ने उन्हें बाहर छोड़ना उचित नहीं समझा तथा कालका में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
  • इसके अलावा राजकुमारी वर्ष 1932 में अखिल भारतीय महिला सभा (All India Women’s Conference) की स्थापना में मुख्य भूमिका निभाई। उन्होंने वर्ष 1932 में मताधिकारों के लिये बनी लोथियन समिति (Lothian Committee) के विरोध में आवाज़ उठाई तथा सार्वभौम वयस्क मताधिकार (Universal Adult Suffrage) की मांग की।

अनुसूयाबाई काले:

  • अनुसूयाबाई काले महाराष्ट्र की थीं परंतु इनका मुख्य कार्यक्षेत्र मध्यप्रदेश था। वर्ष 1920 में उन्होंने महिलाओं का एक संगठन भागिनी मंडल की स्थापना की। इसके अलावा वो अखिल भारतीय महिला सभा की सक्रिय सदस्य रहीं।
  • वर्ष 1928 में अनुसूयाबाई केंद्रीय प्रांत विधानमंडल की सदस्य नियुक्त हुईं तथा इसके उपाध्यक्ष भी रहीं। लेकिन शीघ्र ही नमक सत्याग्रह के बाद गाँधीजी की गिरफ्तारी के बाद उन्होंने अपने पद त्याग दिया तथा गाँधीजी की रिहाई के लिये प्रदर्शन करने लगीं। उनकी राजनैतिक गतिविधियों के लिये उन्हें कई बार गिरफ्तार किया गया।
  • वर्ष 1937 में हुए प्रांतीय चुनावों के बाद अनुसूयाबाई मध्यप्रदेश विधानमंडल की उपाध्यक्ष चुनी गईं लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ होने और भारत को ज़बरन उसमें शामिल करने के बाद काँग्रेस के आह्वान पर उन्होंने फिर अपना पद छोड़ दिया। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वो काफी सक्रिय रहीं।
  • भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान महाराष्ट्र के अश्ती तथा चिमूर में आदिवासियों के साथ किये गए सरकार के दमन के विरुद्ध उन्होंने आवाज़ उठाई। इसके अलावा अश्ती तथा चिमूर में हुए विद्रोह में 25 लोगों को हुई फांसी की सजा हुई थी जिन्हें उनके प्रयासों से बचाया जा सका।

सरोजिनी नायडू:

  • सरोजिनी नायडू प्रारंभ से आज़ादी के संघर्ष में सक्रिय रहीं थीं। उन्होंने धरसाना नमक सत्याग्रह के दौरान गाँधीजी व सभी अन्य नेताओं की गिरफ्तारी के बाद सत्याग्रहियों का नेतृत्व किया था।
  • 3 दिसंबर, 1940 को विनोबा भावे के नेतृत्व में हुए व्यक्तिगत सत्याग्रह में हिस्सा लेने के कारण पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया लेकिन स्वास्थ्य कारणों से उन्हें शीघ्र ही जेल से रिहा कर दिया गया।
  • भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गिरफ्तार हुए प्रमुख नेताओं में वो भी शामिल थीं। उन्हें पुणे के आगा खाँ महल में रखा गया था। 10 महीने के बाद जेल से वो रिहा हुई तथा फिर से राजनीति में सक्रिय हुईं।
  • स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उन्हें उत्तर प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया गया तथा मार्च 1949 तक वो इस पद पर बनी रहीं एवं अपने कार्यकाल के दौरान ही उनकी मृत्यु हो गई।
  • भारत में फैले प्लेग महामारी के दौरान लोगों की सेवा करने के लिये भारत सरकार ने कैसर-ए-हिंद की उपाधि दी थी जिसे उन्होंने जलियाँवाला बाग हत्याकांड के बाद वापस कर दिया था।
  • सरोजिनी नायडू भारत में हिंदू-मुसलमान एकता की प्रबल समर्थक थीं और उन्हें उनकी कविताओं के लिये ‘भारत की बुलबुल’ (Nightingale of India) कहा जाता है।

कमलादेवी चट्टोपाध्याय:

  • कमलादेवी चट्टोपाध्याय नमक सत्याग्रह तथा सविनय अवज्ञा आंदोलन से ही राजनीति में सक्रिय रहीं थीं। उसके बाद वो लगातार स्वतंत्रता संघर्ष के लिये होने वाले आंदोलनों में भागीदारी देती रहीं।
  • अपने राजनीतिक संघर्ष के दौरान उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्हें भी गिरफ्तार किया गया।
  • जेल से छूटने के बाद वो अमेरिका गईं तथा वहाँ के लोगों को भारत में ब्रिटिश हुकूमत की सच्चाई के बारे में बताया।
  • स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने अपना समय भारत की कला, संस्कृति तथा दस्तकारी के उत्थान में लगाया। वह सहकारी संगठनों की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य अकादमी (National School of Drama- NSD), संगीत नाटक अकादमी तथा भारतीय दस्तकारी परिषद (Crafts Council of India) की स्थापना में अपना योगदान दिया।
  • वर्ष 1955 में कला के क्षेत्र में योगदान के लिये उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।

मीराबेन:

  • मीराबेन का वास्तविक नाम मेडलिन स्लेड (Madeleine Slade) था तथा वो ब्रिटेन के एक कुलीन परिवार से संबंधित थीं। मेडलिन ब्रिटिश नेवी ऑफिसर एडमंड स्लेड की बेटी थीं।
  • अपने फ्रांस प्रवास के दौरान जब वो फ्रेंच लेखक रोमन रोलैंड से मिलीं और महात्मा गांधी पर लिखी गई उनकी पुस्तक से वह अत्यंत प्रभावित हुईं। तभी उन्होंने भारत आने का निश्चय किया।
  • वर्ष 1925 में वह भारत पहुँची और साबरमती आश्रम में रहने लगीं। गाँधीजी ने उन्हें अपनी बेटी माना और मीराबेन नाम दिया। तब से वह गाँधीजी की सहयोगी के रूप में हमेशा उनके साथ रहने लगीं।
  • वर्ष 1931 में वह गाँधीजी के साथ दूसरे गोलमेज़ सम्मेलन में लंदन गयी थीं। वह गाँधीजी के विचारों को इंग्लैंड, अमेरिका, फ्राँस, जर्मनी तथा स्विट्ज़रलैंड में स्थित समाचार पत्रों को भेजती थीं। सरकार ने उन्हें ऐसा करने से रोका लेकिन वो ऐसा करती रहीं।
  • लंदन से वापस भारत आने के बाद वह खादी के प्रचार प्रसार में लग गयीं तथा इसके लिये पूरे देश की यात्रा की। यात्रा से वापस आने के बाद सरकार ने उन्हें मुंबई में प्रवेश करने से मना कर दिया था लेकिन इसके बावजूद वह वापस गयीं तथा अपनी गिरफ्तारी दी।
  • भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान मीराबेन को भी गाँधीजी के साथ गिरफ्तार किया गया था और उन्हें आगा खाँ महल में भेज दिया गया जहाँ वो 21 महीने तक रहीं।
  • स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वो उत्तरप्रदेश सरकार की ‘ग्रो मोर फूड’ (Grow More Food) अभियान की सलाहकार रहीं। उन्होंने ऋषिकेश में एक आश्रम की स्थापना की तथा जीवन के अंतिम समय तक वे वहीं रहीं।
  • इस तरह मीराबेन ने अपना पूर्ण जीवन भारत की सेवा में अर्पित किया तथा गाँधीजी के संदेशों का पालन करती रहीं।

ऊषा मेहता:

  • भारत छोड़ो आंदोलन के प्रारंभ होने के बाद जब सभी मुख्य कॉन्ग्रेसी नेता गिरफ्तार कर लिये गए तब जिन लोगों ने गुप्त तरीके से आंदोलन को चलाया उनमें से ऊषा मेहता प्रमुख नाम है।
  • कॉन्ग्रेस के कुछ सदस्यों ने मिलकर भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान होने वाली सभी घटनाओं को जनता तक पहुँचाया। इस सदस्यों में ऊषा मेहता के अलावा, विट्ठलदास, चंद्रकांत झावेरी, बाबूभाई ठक्कर और शिकागो रेडियो, मुंबई के टेक्निशियन नानक मोटवानी शामिल थे।
  • इस रेडियो का प्रसारण मुंबई में विभिन्न स्थानों पर छिपाकर किया जाता था तथा प्रत्येक अगले दिन का प्रसारण किसी दूसरे स्थान से होता था। इसे कॉन्ग्रेस रेडियो के नाम से प्रसारित किया गया तथा 3 महीने तक चलने के बाद ही इसे पुलिस पकड़ पाई।
  • कॉन्ग्रेस रेडियो के माध्यम से ऊषा मेहता ने भारत छोड़ो आंदोलन में अभूतपूर्व योगदान दिया। उनके द्वारा देश भर के विभिन्न स्थानों से आने वाली क्रांति की खबरें इस पर प्रसारित की जाती थीं जिसकी वजह से स्थानीय स्तर पर आंदोलन कर रहे सत्याग्रहियों को हौसला मिलता था।
  • इस रेडियो के माध्यम से चटगाँव बम ब्लास्ट, जमशेदपुर हड़ताल तथा अश्ती और चिमूर में पुलिस के बर्बरता को प्रसारित किया गया तथा इस रेडियो पर राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन एवं पुरुषोत्तम दास जैसे लोगों ने कॉन्ग्रेस रेडियो पर प्रसारण किया।

सुचेता कृपलानी:

  • सुचेता कृपलानी का राजनीतिक जीवन तब प्रारंभ होता है जब वह काशी हिंदू विश्वविद्यालय में इतिहास की लेक्चरर थीं। वर्ष 1936 में कॉन्ग्रेस के वरिष्ठ नेता आचार्य जे.बी. कृपलानी से उनका विवाह हुआ।
  • उसके बाद वो सक्रिय राजनीति में भाग लेने लगीं और अपनी लेक्चरर की नौकरी छोड़ दी।
  • उन्होंने आचार्य विनोबा भावे के नेतृत्व में व्यक्तिगत सत्याग्रह में हिस्सा लिया और जेल गईं।
  • जेल से निकलने के बाद वो भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वो भूमिगत होकर प्रचार-प्रसार करती रहीं। इस कार्य के दौरान उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा किंतु वह पुलिस से बचकर निकलती रहीं।
  • वर्ष 1943 में जब कॉन्ग्रेस में महिला विभाग की स्थापना की गई तब सुचेता कृपलानी को उसका सचिव बनाया गया। उसके बाद उन्होंने महिला कॉन्ग्रेस के प्रचार तथा उसमे लोगों को जोड़ने के लिये लगातार प्रयास किये।
  • भारत विभाजन के समय वो गाँधीजी के साथ मिलकर दंगे से प्रभावित क्षेत्रों में जा रही थीं।
  • वह उत्तर प्रदेश की विधानसभा में सदस्य तथा बाद में लोकसभा की सदस्य भी रहीं। वर्ष 1963 में वह उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं और वह भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री थीं।

अरुणा आसफ अली:

  • अरुणा नमक सत्याग्रह के दिनों से ही राजनैतिक रूप से सक्रिय रहीं थीं लेकिन उनकी पहचान 9 अगस्त, 1942 को मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान में बनी जब सभी नेताओं की गिरफ्तारी के बाद उन्होंने राष्ट्रीय ध्वजारोहण समारोह का नेतृत्व किया।
  • उस समय बहुत बड़ी संख्या में भीड़ एकत्रित हुई थी और पुलिस ने उस पर नियंत्रण हेतु लाठी, आँसू गैस तथा गोली चलायी फिर भी अरुणा ने उस सभा सफलतापूर्वक नेतृत्व किया।
  • भारत छोड़ो आंदोलन में अरुणा आसफ अली ने भी अन्य नेताओं की भाँति ही भूमिगत तरीके से भागीदारी की और आंदोलन के प्रचार में अपना योगदान किया।
  • सितंबर 1942 में दिल्ली प्रशासन की तरफ से अरुणा को आत्मसमर्पण करने के लिये कहा गया था लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इस कारण उनका घर, संपत्ति, गाड़ी आदि को नीलाम कर दिया गया। इसके बावजूद भी अरुणा आसफ अली आंदोलन के लिये प्रचार करती रहीं, पत्रिकाओं में लेख लिखती रहीं तथा लोगों से लगातार मिलती रहीं।
  • उन्होंने राममनोहर लोहिया के साथ मिलकर ‘इंकलाब’ नामक मासिक पत्रिका का संपादन किया।

इसके अलावा असंख्य महिला नेताओं व स्थानीय महिलाओं ने भारत छोड़ो आंदोलन में अपनी भागीदारी दी जिसकी वजह यह आंदोलन सभी पूर्ववर्ती आंदोलनों से व्यापक तथा प्रभावशाली साबित हुआ। इसने द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद अंग्रेजों को भारत छोड़ने में भूमिका तैयार की।

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2
× Snow