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सामाजिक न्याय

विशेष : समलैंगिकता अपराध नहीं (Homosexuality is not crime)

  • 14 Sep 2018
  • 26 min read

संदर्भ

समलैंगिकता को लेकर पिछले कई दशकों से एक लंबी बहस और लड़ाई चली, पक्ष और विपक्ष में कई तर्क गढ़े गए। समलैंगिक समुदाय को समाज में स्वीकृति, सुरक्षा और सम्मान दिलाने के लिये सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला यकीनन एक नज़ीर बन गया है। अब भारत में सहमति से समलैंगिक यौन संबंध अपराध की श्रेणी में नहीं है। 6 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया है। हमारा संविधान सभी नागरिकों को समानता का अधिकार देता है। मौलिक अधिकारों को ज़हन में रखकर देश की सर्वोच्च अदालत ने समलैंगिता पर अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया है।

पृष्ठभूमि 

  • धारा 377 जिसे "अप्राकृतिक अपराध" (unnatural offences) के नाम से भी जाना जाता है, को 1857 के विद्रोह के बाद औपनिवेशिक शासन द्वारा अधिनियमित किया गया था। 
  • दरअसल, उन्होंने अपने धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर हमारे लिये कानून बनाया। तब ईसाइयत में समलैंगिकता को अपराध माना जाता था जबकि इससे पहले समलैंगिक गतिविधियों में शामिल लोगों को भारत में दंडित नहीं किया जाता था। 
  • 1861 में अंग्रेज़ों ने भारत में समलैंगिकों के बीच शारीरिक संबंधों को अपराध मानते हुए उनके लिये 10 साल से लेकर उम्रकैद तक की सज़ा का प्रावधान किया था। 
  • चर्च और विक्टोरियन नैतिकता के दबाव से सोलहवीं शताब्दी में समलैंगिकता को अपराध बनाने वाले कानूनों को कई दशक पहले ही यूरोप और अमेरिका में खत्म कर दिया गया, लेकिन भारत समेत अन्य देशों में यह अपराध ही बना रहा।
  • दुर्भाग्य से समाज का एक बड़ा हिस्सा और उसका सांस्कृतिक विमर्श इसी दृष्टिकोण से बंधा हुआ है। विडंबना यह है कि 1860 में लॉर्ड मैकाले द्वारा लाए गए आईपीसी के कानून की इस धारा को हटाने में भारतीय समाज को 157 साल लग गए।
  • फैसला सुनाते हुए जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने अपने निर्णय में कहा कि सदियों तक बदनामी और बहिष्कार झेलने वाले समुदाय के सदस्यों और उनके परिवारों को राहत प्रदान करते हुए विलंब की बात को इतिहास में खेद के साथ दर्ज किया जाना चाहिये।

समलैंगिकता अपराध क्यों नहीं है?

सुप्रीम कोर्ट ने 157 साल पुरानी भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 377 को आंशिक रूप से निरस्त करते हुए अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि जब दो वयस्क चाहे वे किसी भी लिंग के हों आपसी सहमति से एकांत में संबंध बनाते हैं तो इसे अपराध नहीं माना जा सकता।

  • सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि LGBT समुदाय के लोगों को भी संविधान में उसी प्रकार का बराबरी का अधिकार मिला हुआ है जैसे बाकी लोगों को।
  • मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ जिसमें जस्टिस आर.एफ. नरीमन, जस्टिस ए.एम. खानविलकर, जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल हैं, ने एक मत से फैसला दिया कि परस्पर सहमति से वयस्कों के बीच समलैंगिक यौन संबंध यौन अपराध नहीं है।
  • कोर्ट ने कहा कि धारा 377 के प्रावधान द्वारा ऐसे यौन संबंधों को अपराध के दायरे में रखने से संविधान में मिले समता और गरिमा के अधिकार का हनन होता है।
  • शीर्ष अदालत ने सहमति से यौन संबंधों को अपराध के दायरे से बाहर करते हुए कहा कि यह प्रावधान तर्कहीन, सरासर मनमाना और बचाव नहीं किये जाने वाला है।
  • शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में यह साफ़ किया कि अगर दो वयस्कों में से किसी एक की सहमति के बगैर समलैंगिक यौन संबंध बनाए जाते हैं तो यह धारा 377 के तहत अपराध की श्रेणी में आएगा और दंडनीय होगा।
  • संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से 495 पेजों में दिये गए आदेश में कहा कि LGBT समुदाय को देश के दूसरे नागरिकों के समान ही संवैधानिक अधिकार हासिल हैं।
  • पीठ ने लैंगिक रुझानों को जैविक घटना और स्वाभाविक बताते हुए कहा कि इस आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव से मौलिक अधिकारों का हनन होता है।
  • कोर्ट ने कहा कि धारा 377 पुराने ढर्रे पर चल रही सामाजिक व्यवस्था पर आधारित है, जबकि समलैंगिकता मानसिक विकार नहीं है बल्कि यह पूरी तरह से स्वाभाविक अवस्था है।
  • कोर्ट ने आदेश में कहा कि जहाँ तक धारा 377 के तहत एकांत में वयस्कों द्वारा सहमति से यौन क्रियाओं को अपराध के दायरे में रखने का संबंध है तो इससे संविधान के अनुच्छेद 14 (समता का अधिकार), 15 (धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध), 19 (स्वतंत्रता का अधिकार) और 21 (दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण) में प्रदत्त अधिकारों का हनन होता है।
  • हालाँकि आदेश में यह स्पष्ट किया गया है कि ऐसी सहमति स्वतः होनी चाहिये जो कि पूरी तरह से स्वैच्छिक हो और किसी भी तरह के दबाव या भय से मुक्त हो।
  • नैतिकता को सामाजिक नैतिकता की वेदी पर शहीद नहीं किया जा सकता और कानून के शासन के अंतर्गत सिर्फ संवैधानिक नैतिकता की अनुमति दी जा सकती है।
  • पीठ ने कहा कि LGBT समाज के सदस्यों को परेशान करने के लिये धारा 377 का इस्तेमाल एक हथियार के रूप में किया जा रहा है जिसकी परिणति भेदभाव से होती है।
  • शीर्ष अदालत ने ताज़ा आदेश में कहा है कि धारा 377 में शामिल पशुओं और बच्चों से संबंधित अप्राकृतिक यौन संबंध स्थापित करने को अपराध की श्रेणी में रखने वाले प्रावधान पहले की ही तरह लागू रहेंगे। यानी बच्चों और पशुओं से यौन संबंध बनाना पूर्व की तरह ही अपराध की श्रेणी में आएगा।

जब शीर्ष न्यायालय ने पलट दिया अपना ही फैसला

  • 2 जुलाई, 2009 को नाज़ फाउंडेशन की याचिका पर सुनवाई करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि दो वयस्कों के बीच यदि आपसी सहमति से एकांत में समलैंगिक संबंध बनता है तो उसे आईपीसी की धारा 377 के तहत अपराध नहीं माना जाएगा। कोर्ट ने सभी नागरिकों के समानता के अधिकार की बात की थी।
  • सुप्रीम कोर्ट ने 11 दिसंबर, 2013 को दिये गए अपने ऐतिहासिक फैसले में समलैंगिकता मामले में उम्रकैद की सज़ा के प्रावधान के कानून को बहाल रखने का फैसला किया था। 
  • सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के उस फैसले को खारिज कर दिया था जिसमें दो वयस्कों के आपसी सहमति से समलैंगिक संबंध को अपराध की श्रेणी से बाहर माना गया था। 
  • सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जब तक धारा 377 रहेगी तब तक समलैंगिक संबंध को वैध नहीं ठहराया जा सकता।

क्या है आईपीसी की धारा 377?

  • आईपीसी की धारा 377 अप्राकृतिक यौन अपराधों से संबंधित है। इसके अनुसार, किसी भी व्यक्ति, महिला या पशु के साथ स्वैच्छिक रूप से संभोग करने वाले व्यक्ति को अपराधी माना जाएगा और उसे आजीवन कारावास की सज़ा या दस साल तक का कारावास हो सकती है और ज़ुर्माना भी लगाया जा सकता है।
  • अदालतों ने धारा 377 की कई बार व्याख्या की है और उन व्याख्याओं से निकलने वाला सामान्य सा निष्कर्ष यह है कि ‘धारा 377 में गैर-प्रजनन यौन कृत्यों और यौन विकृति के किसी भी कृत्य को दंडित करने का प्रावधान है। 
  • दरअसल, धारा 377 में गैर-प्रजनन यौन कृत्यों यानी अप्राकृतिक यौन संबंधों जैसे गुदा मैथुन (sadomy), ओरल सेक्स आदि को अपराध माना जाता है और दंडित करने का भी प्रावधान है।
  • दिल्ली हाईकोर्ट में नाज़ फाउंडेशन द्वारा एक याचिका दायर की गई जिसमें यह पूछा गया कि ‘क्या धारा 377 संविधान के द्वारा आम नागरिकों को मिले समानता और मूल अधिकारों का हनन नहीं करती? अगर ऐसा है तो क्यों न इसे असंवैधानिक करार दे दिया जाए और दो समान लिंग के लोगों के आपसी सहमति से बने संबंधों को कानूनी मान्यता दे दी जाए।’

भारत में समलैंगिक अधिकारों को लेकर जागरूकता 

समलैंगिक समुदाय दुनिया भर में भेदभाव के शिकार होते रहे हैं। इनके अधिकारों के लिये कई देशों में लड़ाई अपने मकाम तक पहुँची लेकिन कई देश लंबे वक्त तक समलैंगिक अधिकारों को लेकर चुप्पी साधे रहे।

  • 1 अप्रैल, 2001 को नीदरलैंड में समलैंगिक विवाह का कानून बना। नीदरलैंड पहला ऐसा देश बना जहाँ समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता मिली। यही वह साल था जब पूरी दुनिया में समलैंगिक अधिकारों को लेकर बहस अगले चरण में पहुँच गई।
  • कई देशों में समलैंगिक संबंधों के पैरोकार और उनसे हमदर्दी रखने वाले संगठनों ने अपने-अपने स्तर पर अधिकारों की पैरवी करनी तेज़ कर दी। भारत में भी समलैंगिक अधिकारों को लेकर जागरूकता बढ़ाने की कवायद परवान चढ़ने लगी।
  • 2001 में दिल्ली उच्च न्यायालय में समलैंगिक संबंधों को अपराध घोषित करने वाली आईपीसी की धारा 377 को गैर-संवैधानिक घोषित करने की मांग उठी।
  • सामाजिक संस्था नाज़ फाउंडेशन ने अपनी याचिका में कहा कि धारा 377 कई लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन कर रही है।
  • इस याचिका पर न्यायालय को यह तय करना था कि धारा 377 संविधान के अनुच्छेद 21, 14 और 15 का अतिक्रमण करती है या नहीं।
  • दिल्ली हाईकोर्ट में यह मामला करीब 9 साल चला। इस बीच कोर्ट ने सरकार से अपना पक्ष रखने को भी कहा जिसके जवाब में जहाँ केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने धारा को हटाने के पक्ष में अपना हलफनामा दिया तो वहीँ गृह मंत्रालय ने धारा 377 को बरकरार रखने की पैरवी की। 
  • मामले में प्रतिवादी पक्ष का यह कहना था कि समलैंगिकता प्राकृतिक नहीं बल्कि एक मानसिक बीमारी है और इसे सुधारा जा सकता है।
  • दूसरी तरफ, याचिकाकर्त्ताओं ने कहा कि अनुच्छेद 15 के अनुसार किसी भी व्यक्ति से लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता जिसमें उस व्यक्ति की यौन अभिरुचि भी शामिल है।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने कहा कि आईपीसी की धारा 377 संविधान के अनुच्छेद 21 का भी उल्लंघन करती है जिसमें हर व्यक्ति को जीने के अधिकार की गारंटी दी गई है।
  • इस अधिकार में सम्मान से जीवन जीना और गोपनीयता तथा एकांतता का अधिकार भी शामिल है।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने संविधान के अनुच्छेद 14 के अतिक्रमण की आशंका भी जताई जिसमें हर व्यक्ति को बिना भेदभाव के पूरी तरह कानूनी संरक्षण मिलने का भी अधिकार है जो एड्स जैसी जानलेवा बीमारी के बाद इस कानून के डर से उन्हें नहीं मिल पाता।
  • जुलाई 2009 को दिल्ली हाईकोर्ट ने फैसला याचिकाकर्त्ता के पक्ष में दिया। न्यायालय ने कहा कि हम घोषित करते हैं कि आईपीसी की धारा 377 जिस हद तक वयस्क व्यक्तियों द्वारा एकांत में सहमति से बनाए गए यौन संबंधों का अपराधीकरण करती है, संविधान के अनुच्छेद 21, 14 और 15 का उल्लंघन है।
  • यह फैसला पूरे देश में चर्चा का विषय बना। LGBT अधिकारों का समर्थन करने वाले लाखों लोगों ने फैसले का स्वागत किया।
  • लेकिन यह मामला दिल्ली हाईकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट पहुँच गया। दिसंबर 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को पलट दिया।
  • न्यायालय का मानना था कि धारा 377 कुछ हद तक असंवैधानिक है लेकिन फिर भी उसे संसद ने बदलने से परहेज किया है। यानी संसद इसे हटाना नहीं चाहती।
  • दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले के उलट सुप्रीम कोर्ट ने माना कि धारा 377 मौलिक अधिकारों का हनन इसलिये नहीं करती क्योंकि इन पर भी कुछ नियंत्रण लगाए जा सकते हैं।
  • 2013 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के साथ ही करीब साढ़े चार साल तक सहमति से बना समलैंगिक यौन संबंध कानूनी रहने के बाद फिर से गैरकानूनी हो गया।
  • लेकिन सुप्रीम कोर्ट के 6 सितंबर, 2018 को दिये गए ऐतिहासिक फैसले से समलैंगिकता अपराध के दायरे से बाहर हो गई।

समलैंगिकों के अधिकारों के लिये किये गए प्रयास

समलैंगिकों के अधिकार को लेकर सरकारी और सामाजिक मंचों पर लंबे समय से बहस होती रही है। संसद में भी ट्रांसजेंडर को लेकर गंभीर बहस हुई। 2014 में सुप्रीम कोर्ट के एक ऐतिहासिक फैसले में ट्रांसजेंडरों को तीसरे लिंग के तौर पर मान्यता दी गई। इसके साथ ही उन्हें ओबीसी के तहत नौकरियों में आरक्षण देने का भी प्रावधान है।

  • दिसंबर 2014 में राज्यसभा में डीएमके सांसद तिरुची शिवा ने एक निजी विधेयक के रूप में उभयलिंगी व्यक्ति विधेयक पेश किया।
  • अप्रैल 2015 में इस मसले पर राज्यसभा एक ऐतिहासिक पल का गवाह भी बनी। सदन ने विधेयक को सर्वसम्मति से मंज़ूरी दे दी।
  • दरअसल, 36 साल में यह पहला मौका था जब किसी गैर-सरकारी विधेयक को सदन की मंज़ूरी मिली हो। इससे पहले सिर्फ 14 गैर-सरकारी विधेयक पारित हुए थे।
  • इस विधेयक में 58 प्रावधान थे जिसमें विपरीत लिंगी लोगों को समाज में बराबरी का हक़ दिलाने, मानवीय अधिकारों की रक्षा, आर्थिक और कानूनी मदद, शिक्षा तथा रोज़गार से जुड़े प्रशिक्षण मुहैया कराने का जिक्र शामिल है। 
  • बिल में उभयलिंगी विशेषाधिकार प्राप्त न्यायालयों एवं राष्ट्रीय तथा राज्य आयोगों की स्थापना का भी ज़िक्र था। 
  • तिरुची शिवा के इस विधेयक पर लोकसभा में चर्चा नहीं हो सकी लेकिन सरकार 2015 में ही उभयलिंगी व्यक्तियों के अधिकार विधेयक, 2015 के नाम से अपना विधेयक लेकर आई।
  • सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने बिल पर सिविल सोसायटी से भी सुझाव मांगे। अप्रैल 2016 में इस बिल के मसौदे को वित्त और कानून मंत्रालय के पास भेजा गया।
  • जुलाई 2016 में बिल को कैबिनेट की मंज़ूरी मिली और अगस्त 2016 में इसे लोकसभा में पेश किया गया। यह विधेयक लोकसभा से फ़िलहाल पारित नहीं हो सका है।
  • इसके अलावा 12 नवंबर, 2015 को सरकार ने ट्रांसजेंडर नीति जारी की थी। State policy for transgender for Kerala, 2015 नाम की इस नीति में लैंगिक अल्पसंख्यक समूह को सामाजिक कलंक मानने की प्रवृत्ति ख़त्म करने की बात कही गई थी।

दुनिया में समलैंगिकता को लेकर क्या स्थिति है?

समलैंगिक समुदाय के अधिकारों पर सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के दूसरे देशों में भी लंबे समय तक चर्चा होती रही। अब सुप्रीम कोर्ट द्वारा भारत में समलैंगिकों को मान्यता देने के बाद भारत उन 125 देशों में शामिल हो गया है जहाँ समलैंगिकता को कानूनी मान्यता प्राप्त है। हालाँकि अभी भी 72 देशों में इसे अपराध की श्रेणी में रखा गया है।

  • अमेरिका में 2013 से वयस्कों के लिये समलैंगिकता वैध है। सितंबर 2011 में बनी “डोंट आस्क, डोंट टेल” नीति के तहत समलैंगिकों को देश की सैन्य सेवाओं में नौकरी करने का अधिकार है।
  • वर्ष 2017 में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक शादियों को कानूनी मान्यता दी। इसके अलावा, अमेरिका के कई राज्यों में समलैंगिक जोड़ों को शादी कर परिवार बसाने का भी अधिकार दिया गया है।
  • इंग्लैंड और वेल्स में 1967 से, स्कॉटलैंड में 1981 से, जबकि नॉर्दर्न आयरलैंड में 1982 से समलैंगिकता को कानूनी मान्यता मिल चुकी है।
  • 2005 में ब्रिटेन के संविधान में समलैंगिक जोड़ों को पहचान प्रदान करने का प्रावधान किया गया।
  • जर्मनी में संसद का ऊपरी सदन समलैंगिक लोगों से भेदभाव ख़त्म करने का प्रस्ताव पारित कर चुका है। इस प्रस्ताव में समलैंगिक जोड़ों की शादी और उन्हें गोद लेने का अधिकार देना भी शामिल है। इससे पहले जर्मनी की संवैधानिक अदालत समलैंगिक पार्टनर को शादी की मान्यता दे चुकी है।
  • जर्मनी में समलैंगिक पार्टनरशिप को पंजीकृत कराने की सुविधा है।
  • डेनमार्क में समलैंगिकों को व्यापक अधिकार मिले हुए हैं। यहाँ समलैंगिक सेक्स 1933 से ही वैधानिक है। 1977 में यहाँ यौन संबंधों के लिये सहमति की उम्र घटाकर 15 साल कर दी गई थी।
  • 1989 से डेनमार्क में समलैंगिकता को कानूनी मान्यता देने का सिलसिला शुरू हुआ। इस तरह डेनमार्क पहला देश था जिसने समलैंगिक जोड़ों को विवाहित दंपति के बराबर का दर्जा दिया।
  • इसके बाद 1996 में नार्वे, स्विट्ज़रलैंड और आइसलैंड ने भी समलैंगिक संबंधों को कानूनी मान लिया।
  • 2001 में नीदरलैंड में समलैंगिक जोड़ों की शादी को पूर्ण विवाह का अधिकार दिया गया।
  • 2003 में बेल्जियम और 2004 में न्यूज़ीलैंड ने समलैंगिक विवाह को कानूनी रूप से स्वीकार किया।

इस्लामिक तथा पड़ोसी देशों की स्थिति

ईरान, सऊदी अरब और सूडान जैसे देशों में समलैंगिकता को लेकर मृत्युदंड का प्रावधान है। भारत के पड़ोसी देशों-पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, इंडोनेशिया, मॉरीशस और सिंगापुर जैसे देशों में भी समलैंगिकता अपराध है। 

  • इस्लामिक देशों में तुर्की ने समलैंगिकों और ट्रांसजेंडरों के अधिकारों को मान्यता दी है। यहाँ 1858 में आटोमन खिलाफत के समय से ही समान सेक्स संबंधों को मान्यता मिली है। हालाँकि आम जीवन में ट्रांसजेंडरों के साथ भेदभाव किया जाता है।
  • बहरीन में 1976 में समान सेक्स संबंधों को मान्यता दी गई। हालाँकि यहाँ अभी भी क्रॉस ड्रेसिंग यानी लड़कों का लड़कियों की तरह कपड़े पहनना मना है।
  • LGBT समुदाय के अधिकारों के मामले में जॉर्डन का संविधान काफी गतिशील माना जाता है। यहाँ 1951 में समान सेक्स संबंधों को कानूनी मान्यता मिली।
  • दक्षिण अफ्रीका में समलैंगिकता, समलैंगिक जोड़ों की शादी और बच्चे गोद लेना कानूनी तौर पर वैध है। माली उन चुनिंदा अफ़्रीकी देशों में शामिल है जहाँ LGBT संबंधों को कानूनी दर्जा मिला हुआ है।
  • पड़ोसी देश चीन में 2002 में समलैंगिकता को वैध किया गया, हालाँकि पाकिस्तान में समलैंगिक संबंधों को कानूनी या सामाजिक मान्यता नहीं है।
  • रूस में भी समलैंगिकों के अधिकारों के लिये कोई कानून नहीं है और यहाँ ट्रांसजेंडरों के साथ भेदभाव आम बात है। इसके अलावा, दुनिया के कई देशों में समलैंगिकों के अधिकारों को लेकर आंदोलन चल रहे हैं। 

LGBT तथा संबंधित मुद्दे 

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद देश में समलैंगिक संबंधों को कानूनी मान्यता तो मिल गई है लेकिन इसके अलावा कई कानूनी अडचनें भी हैं जिसके लिये समलैंगिक अधिकारों की सुरक्षा का दावा करने वाले लोगों को और भी मज़बूती से लड़ाई लड़नी होगी, जैसे-

  1. अभी तक कानून के लिहाज़ से समलैंगिकों को शादी का अधिकार नहीं है।
  2. बच्चों को गोद लेने का अधिकार नहीं है।
  3. समलैंगिक साथियों का भूमि और दूसरी संपत्ति पर अधिकारों को लेकर भी फ़िलहाल कानून किसी भी तरीके से साफ नहीं।

निष्कर्ष

भारतीय समाज में समलैंगिकों के सामाजिक मुद्दों की लगातार अनदेखी होती रही है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद LGBT समुदाय के लोगों के बीच ख़ुशी का माहौल है। लोगों का यह भी मानना है कि इस फैसले के बाद ऐसे समुदाय के लोगों को समाज की मुख्यधारा से जुड़ने के अधिक मौके मिलेंगे। अन्य पहलुओं पर भी उनकी लड़ाई को मज़बूती मिलेगी। साथ ही देश के सामाजिक ताने-बाने के साथ लोगों के बीच LGBT समुदाय के प्रति उनकी मानसिकता में भी बदलाव आएगा।

समलैंगिकता पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने से पहले देश में विपरीत लिंगी व्यक्तियों के अधिकारों को लेकर काफी लंबे वक्त तक बहस चली जहाँ सरकार का दावा हमेशा से ही रहा है कि संविधान सभी व्यक्तियों को बराबरी का दर्जा देता है वहीँ, हकीकत में विपरीत लिंगी व्यक्ति भेदभाव के शिकार बनते रहे हैं। हालाँकि इसके विरोध के अलावा समर्थन में भी काफी तर्क दिये जाते रहे हैं।

समलैंगिक यौन संबंधों को सुप्रीम कोर्ट की कानूनी मान्यता मिलने के बाद अब यह सवाल उठना बंद हो जाएगा कि धारा 377 संविधान के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है। लेकिन बराबरी के अधिकार का हक़ पाने के लिये लंबी लड़ाई लड़ने के बाद अभी भी इस समुदाय को सामाजिक मान्यता पाने के लिये बहुत दूर तक चलना होगा।

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