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डेली न्यूज़

  • 22 May, 2023
  • 44 min read
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आंतरिक सुरक्षा

भारत में रोहिंग्या शरणार्थी

प्रिलिम्स के लिये:

रोहिंग्या, म्याँमार, संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (UNHCR), नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 (CAA), शरणार्थी सम्मेलन, 1951 

मेन्स के लिये:

भारत द्वारा 1951 के शरणार्थी सम्मेलन पर हस्ताक्षर नहीं करने के निर्णय के पीछे का कारण, शरणार्थियों के प्रबंधन हेतु भारत में वर्तमान विधायी ढाँचा

चर्चा में क्यों?

'ए शैडो ऑफ रिफ्यूजी: रोहिंग्या रिफ्यूजीज़ इन इंडिया' शीर्षक वाली हालिया रिपोर्ट भारत में रोहिंग्या शरणार्थियों द्वारा सामना की जाने वाली चुनौतियों को उजागर करती है।

  • यह रिपोर्ट संयुक्त रूप से आज़ादी प्रोजेक्ट, ए वुमेन राईट नॉन प्रॉफिट एंड रिफ्यूजी इंटरनेशनल, अंतर्राष्ट्रीय NGO द्वारा तैयार की गई है जो राज्यविहीन लोगों के अधिकारों की रक्षा करती है।

रोहिंग्या संकट:

  • रोहिंग्या लोगों ने म्याँमार में दशकों से हिंसा, भेदभाव और उत्पीड़न का सामना किया है।
    • रोहिंग्या को आधिकारिक जातीय समूह के रूप में मान्यता नहीं दी गई है और वर्ष 1982 से उन्हें नागरिकता से वंचित कर दिया गया है। वे दुनिया की सबसे बड़ी राज्यविहीन आबादी में से एक हैं।
  • म्याँमार में हिंसा के कारण रोहिंग्याओं ने 1990 के दशक की शुरुआत से पलायन शुरू कर दिया।
    • उनका सबसे बड़ा और तीव्र पलायन अगस्त 2017 में शुरू देखा गया जब म्याँमार के रखाइन राज्य में हिंसा भड़क उठी, जिसके कारण 742,000 से अधिक लोग पड़ोसी देशों में शरण लेने हेतु मजबूर हुए, जिनमें अधिकांश महिलाएँ एवं बच्चे थे।

रिपोर्ट में उल्लिखित चुनौतियाँ एवं सिफारिशें:  

  • रोहिंग्या से संबंधित चुनौतियाँ:
    • पुनर्वास हेतु अस्वीकृत निकास अनुमतियाँ:
      • वे रोहिंग्या शरणार्थी, जिन्होंने शरणार्थी स्थिति निर्धारण प्रक्रिया पूरी कर ली है और अन्य देशों में पुनर्वास के लिये अनुमोदन प्राप्त कर चुके हैं, भारत का रोहिंग्या शरणार्थी को निकास वीजा देने से इनकार करना एक महत्त्वपूर्ण चिंता का विषय है।
    • लांछन और शरणार्थी विरोधी भावना:
      • भारत में रोहिंग्या शरणार्थियों को विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिसमें "अवैध प्रवासी" के रूप में चिह्नित किया जाना भी शामिल है।
      • यह लांछन न केवल समाज में उनके एकीकरण को बाधित करता है बल्कि उन्हें म्याँमार वापस निर्वासित किये जाने के जोखिम में भी डालता है, जो कि शासन के डर से वहाँ से पलायन कर गए थे।
    • निर्वासन का डर: 
      • वास्तविक और धमकी भरे निर्वासन ने रोहिंग्या समुदाय के अंदर भय की भावना उत्पन्न कर दी है, जिससे कुछ लोग बांग्लादेश में शिविरों में लौटने के लिये मजबूर हो गए हैं।
      • नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध एवं बाल अधिकारों पर सम्मेलन सहित अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय, भारत को रोहिंग्याओं को म्याँमार वापस नहीं भेजने को बाध्य करते हैं।
        • हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय सुरक्षा खतरों के संबंध में सरकार के तर्कों को स्वीकार कर लिया है, जिससे निर्वासन को आगे बढ़ाने की अनुमति मिल गई है।
    • जीवनयापन की जटिल स्थिति
      • रिपोर्ट में भारत में रोहिंग्या शरणार्थियों की गंभीर जीवन स्थितियों का विवरण दिया गया है, जो असुरक्षित पेयजल, शौचालय या बुनियादी स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा के अभाव के कारण झुग्गी जैसी बस्तियों में रहते हैं। 
        • वैध यात्रा दस्तावेज़ों के बिना उनका आवश्यक सेवाओं जैसे स्कूल में प्रवेश के लिये आधार कार्ड प्राप्त करना असंभव हो गया है।
  • सिफारिशें: 
    • औपचारिक मान्यता और घरेलू कानून: भारत को औपचारिक रूप से रोहिंग्या शरणार्थियों को अवैध प्रवासियों के बजाय शरण के अधिकार वाले व्यक्तियों के रूप में मान्यता देनी चाहिये। 
      • शरणार्थी सम्मेलन 1951 पर हस्ताक्षर करना और शरणार्थियों एवं शरण पर घरेलू कानूनों की स्थापना इसे प्राप्त करने के लिये महत्त्वपूर्ण कदम हो सकते हैं।
    • निवास की स्वीकृति: भारत UNHCR कार्ड को बुनियादी शिक्षा, कार्य और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच के लिये पर्याप्त माना जा सकता है। 
      • UNHCR कार्ड  संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (United Nations High Commissioner for Refugees- UNHCR) द्वारा शरणार्थियों को जारी किये गए पहचान दस्तावेज़ को संदर्भित करता है, जो कि ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें शरण चाहने वालों के रूप में मान्यता प्रदान की गई है।
      • UNHCR संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था है जो विश्व भर में शरणार्थियों की सुरक्षा और सहायता के लिये कार्य करती है।
      • UNHCR कार्ड एक शरणार्थी या शरण चाहने वाले के रूप में व्यक्ति की स्थिति का प्रमाण है और यह उन्हें उस देश में कुछ अधिकार एवं उनके निवास हेतु देशों या स्थानों पर उन्हें कुछ बुनियादी सेवाओं तक पहुँच प्रदान करने में सहायक हो सकते हैं।
    • वैश्विक विश्वसनीयता और राष्ट्रीय सुरक्षा: शरणार्थियों के साथ बेहतर व्यवहार करने से भारत की वैश्विक विश्वसनीयता बढ़ेगी, अतः उन पर कठोर निगरानी को हतोत्साहित कर तथा इनके आगमन का दस्तावेज़ीकरण करने से  राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों की पूर्ति होगी।
      • रिपोर्ट बताती है कि भारत अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी जैसे सहयोगी देशों और अन्य यूरोपीय देशों  में उनकी स्वीकृति की वकालत करके रोहिंग्या शरणार्थियों के लिये पुनर्वास के अवसरों को सुविधाजनक बनाने में सक्रिय भूमिका निभा सकता है।

भारत द्वारा 1951 के शरणार्थी समझौते पर हस्ताक्षर न करने के निर्णय के पीछे क्या कारण हो सकते हैं?

  • शरणार्थी की परिभाषा से जुड़ा मुद्दा: 1951 के समझौते के अनुसार, शरणार्थियों को ऐसे लोगों के रूप में परिभाषित किया गया है जो अपने नागरिक और राजनीतिक अधिकारों से वंचित हैं, किंतु अपने आर्थिक अधिकारों से नहीं।
  • अगर आर्थिक अधिकारों के हनन को शरणार्थी की परिभाषा में शामिल कर लिया जाए तो यह स्पष्ट रूप से विकसित देशों पर एक बड़ा बोझ होगा।
  • संप्रभुता संबंधी चिंताएँ: देश अंतर्राष्ट्रीय समझौतों पर हस्ताक्षर करने के लिये अनिच्छुक हो सकते हैं, जो यह मानते हैं कि वे उनकी संप्रभुता से समझौता कर सकते हैं या उनकी घरेलू नीतियों और निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में हस्तक्षेप कर सकते हैं।
    • सम्मेलन पर हस्ताक्षर न करके भारत अपनी शरणार्थी नीतियों को लागू करने की स्वतंत्रता को बनाए रखता है।
  • सीमित संसाधन: भारत, विश्व के सबसे अधिक आबादी वाले देशों में से एक है और पहले से ही अपनी आबादी को बुनियादी सेवाएँ एवं संसाधन प्रदान करने के लिये गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है।
    • सम्मेलन पर हस्ताक्षर करने से शरणार्थियों की सुरक्षा के साथ सहायता से संबंधित उत्तरदायित्व और संसाधन बोझ अधिक बढ़ सकता है
  • क्षेत्रीय गतिशीलता: भारत एक ऐसे क्षेत्र में स्थित है जो ऐतिहासिक रूप से विभिन्न संघर्षों और विस्थापन स्थितियों से प्रभावित रहा है।
    • दक्षिण एशिया में सीमाओं की खुली प्रकृति के कारण भारत को पड़ोसी देशों से शरणार्थियों के प्रवाह का सामना करना पड़ा है।
    • हालाँकि भारत अभी भी अन्य अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संधियों और प्रथागत अंतर्राष्ट्रीय कानूनी सिद्धांतों से संबद्द है।

शरणार्थियों को संभालने के लिये भारत में वर्तमान विधायी ढाँचा क्या है? 

  • भारत सभी विदेशियों के साथ समान व्यवहार करता है चाहे वे अवैध अप्रवासी, शरणार्थी/शरण चाहने वाले हों या वीज़ा परमिट के साथ अधिक समय तक रहने वाले हों।
    • विदेशी अधिनियम, 1946 : धारा 3 के अंतर्गत केंद्र सरकार को अवैध विदेशी नागरिकों का पता लगाने, हिरासत में लेने और निर्वासित करने का अधिकार है।
    • पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम, 1920: धारा 5 के अंतर्गत अधिकारी भारत के संविधान के अनुच्छेद 258 (1) के अंतर्गत एक अवैध विदेशी को बलपूर्वक हटा सकते हैं।
    • विदेशी पंजीकरण अधिनियम, 1939 (Registration of Foreigners Act of 1939): इसके अंतर्गत एक अनिवार्य आवश्यकता लागू है जिसके तहत भारत आने वाले सभी विदेशी नागरिकों (विदेशी भारतीय नागरिकों को छोड़कर) को दीर्घावधिक वीज़ा (180 दिनों से अधिक) पर भारत आने के 14 दिनों के भीतर एक पंजीकरण अधिकारी के समक्ष स्वयं को पंजीकृत कराना होगा।
    • नागरिकता अधिनियम, 1955 (Citizenship Act, 1955): इसमें नागरिकता का त्याग, नागरिकता पर्यवसान और नागरिकता से वंचित किये जाने संबंधी प्रावधान किये गए हैं।
      • इसके अलावा नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आने वाले हिंदू, ईसाई, जैन, पारसी, सिख तथा बौद्ध प्रवासियों को नागरिकता प्रदान करने का उद्देश्य रखता है।
  • भारत ने शरणार्थी होने का दावा करने वाले विदेशी नागरिकों के साथ व्यवहार करते समय सभी संबंधित एजेंसियों द्वारा अनुपालन हेतु एक मानक संचालन प्रक्रिया (Standard Operating Procedure- SOP) स्थापित की है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित युग्मों पर विचार कीजिये: (2016)

कभी-कभी समाचारों में उल्लिखित समुदाय    किसके  मामलों में 

  1. कुर्द                                                    बांग्लादेश 
  2. मधेसी                                                  नेपाल  
  3. रोहिंग्या                                                 म्याँमार  

उपर्युक्त युग्मों में से कौन-सा/से सही सुमेलित है/हैं?

(a) केवल 1 और 2  
(b) केवल 2  
(c) केवल 2 और 3 
(d) केवल 3 

उत्तर: (c) 


मेन्स:

प्रश्न. अवैध सीमा पार प्रवास भारत की सुरक्षा के लिये कैसे खतरा उत्पन्न करता है? इस तरह के प्रवासन को बढ़ावा देने वाले कारकों को उजागर करते हुए इसे रोकने के लिये रणनीतियों पर चर्चा कीजिये। (2014)

स्रोत: द हिंदू


सामाजिक न्याय

कुपोषण

प्रिलिम्स के लिये:

कुपोषण, SAM, MAM, NFHS, वैश्विक भुखमरी सूचकांक, पोषण अभियान

मेन्स के लिये:

कुपोषण और इसकी व्यापकता

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उड़ीसा उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को वर्ष 2023 के अंत तक राज्य में बच्चों में गंभीर तीव्र कुपोषण (SAM) की पूर्ण अनुपस्थिति और मध्यम तीव्र कुपोषण (MAM) में कमी सुनिश्चित करने के लिये एक कार्ययोजना तैयार करने का निर्देश दिया है।

कुपोषण:

  • परिचय: 
    • कुपोषण पोषक तत्त्वों के सेवन में कमी या अधिकता, आवश्यक पोषक तत्त्वों में असंतुलन या खराब पोषक उपयोग को संदर्भित करता है।
    • कुपोषण के दोहरे बोझ में कुपोषण और अधिक वज़न तथा मोटापा दोनों के साथ-साथ आहार संबंधी गैर-संचारी रोग शामिल हैं।
    • कुपोषण चार व्यापक रूपों में प्रकट होता है- वेस्टिंग, स्टंटिंग, कम वज़न और सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी।
  • गंभीर तीव्र कुपोषण:
    • विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) 'गंभीर तीव्र कुपोषण' (SAM) को बहुत कम वज़न-ऊँचाई या मध्य-ऊपरी बाँह की परिधि 115 मिमी. से कम या पोषण संबंधी शोफ (Oedema) की उपस्थिति के रूप में परिभाषित करता है (भुखमरी या कुपोषण की स्थिति में ऊतकों में असामान्य द्रव प्रतिधारण विशेष रूप से प्रोटीन की कमी के परिणामस्वरूप)।
      • SAM से पीड़ित बच्चों में कमज़ोर प्रतिरक्षा प्रणाली के कारण विभिन्न रोगों से ग्रसित होने पर उनकी मौत की संभावना नौ गुना अधिक हो जाती है।
      • SAM से पीड़ित बच्चे, ऐसे बच्चे हैं जो रेड ज़ोन की श्रेणी में आते हैं जिनमें द्वितीयक संक्रमण से ग्रसित होने का उच्च जोखिम रहता है। पीड़ितों का यह वर्ग  गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हो सकता है। 
  • मध्यम तीव्र कुपोषण : 
    • मध्यम तीव्र कुपोषण (MAM) जिसे निर्बलता (Wasting) के रूप में भी जाना जाता है, इसे लंबाई के अनुपात में आवश्यक वज़न के अंतर्राष्ट्रीय मानक संकेतकों [z-स्कोर- 3 और 2  (मानक विचलन) के मध्य] या 11 सेमी. से 12.5 सेमी. के बीच मध्य-ऊपरी भुजा परिधि (MUAC) द्वारा परिभाषित किया गया है।
    • MAM से पीड़ित बच्चे कुपोषण के लक्षणों को दर्शाते हैं किंतु ये यलो ज़ोन की श्रेणी में आते हैं जिसका अर्थ है कि उनका जीवन खतरे में नहीं है।
  • प्रसार या व्यापकता: 
    • वैश्विक भुखमरी सूचकांक (Global Hunger Index), 2022 में भारत का स्थान  सूची में सबसे नीचे स्थित देशों में है, भारत 121 देशों में 107वीं रैंक पर है जिसका निर्धारण बच्चों में नाटापन (स्टंटिंग), निर्बलता (वेस्टिंग) और बाल मौत दर जैसे कारकों द्वारा होता है।
    • राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) वर्ष 2019-21 के अनुसार, भारत में  पाँच वर्ष से कम आयु वर्ग के बच्चों में से 35.5 प्रतिशत बच्चे नाटेपन (स्टंटिंग), जबकि 19.3 प्रतिशत निर्बलता (वेस्टिंग) और 32.1 प्रतिशत बच्चे कम वज़न की समस्या से ग्रसित थे
      • SAM के सबसे अधिक मामले उत्तर प्रदेश (3,98,359) में हैं और इसके बाद बिहार (2,79,427) का स्थान है।
        • देश में सबसे अधिक बच्चे उत्तर प्रदेश और बिहार में हैं।
  • पहलें:
    • पोषण अभियान: भारत सरकार ने वर्ष 2022 तक "कुपोषण मुक्त भारत" सुनिश्चित करने के लिये राष्ट्रीय पोषण मिशन (NNM) या पोषण अभियान प्रारंभ किया है।
    • मध्याह्न भोजन (MDM) योजना: इसका उद्देश्य स्कूली बच्चों के बीच पोषण स्तर में सुधार करना है जिससे स्कूलों में नामांकन, प्रतिधारण और उपस्थिति पर प्रत्यक्ष तथा सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
    • राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA), 2013: इसका उद्देश्य अपनी संबद्ध योजनाओं और कार्यक्रमों के माध्यम से सबसे कमज़ोर लोगों के लिये भोजन एवं पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करना है जिससे भोजन तक पहुँच को कानूनी अधिकार बनाया जा सके।
    • प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना (PMMVY): गर्भवती महिलाओं को प्रसव के लिये बेहतर सुविधाओं का लाभ उठाने हेतु 6,000 रुपए सीधे उनके बैंक खातों में स्थानांतरित किये जाते हैं।
    • एकीकृत बाल विकास सेवा (ICDS) योजना: इसे वर्ष 1975 में शुरू किया गया था और इस योजना का उद्देश्य 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों तथा उनकी माताओं को पूरक पोषण, स्कूल पूर्व अनौपचारिक शिक्षा, पोषण एवं स्वास्थ्य शिक्षा, टीकाकरण, स्वास्थ्य जांँच तथा  रेफरल सेवाएंँ प्रदान करना है।
    • एनीमिया मुक्त भारत अभियान: इसे वर्ष 2018 में शुरू किया गया, मिशन का उद्देश्य एनीमिया की वार्षिक दर को एक से तीन प्रतिशत अंक तक कम करना है।

आगे की राह 

  • महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य तथा पोषण में उनके सतत् विकास एवं जीवन की बेहतर गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिये निवेश बढ़ाने की अधिक आवश्यकता है।
  • भारत को पोषण कार्यक्रमों पर परिणामोन्मुखी दृष्टिकोण अपनाना चाहिये। इसका अर्थ केवल गतिविधियों को लागू करने के बजाय विशिष्ट परिणाम प्राप्त करने पर ध्यान केंद्रित करना है।
  • पोषण की दृष्टि से कमज़ोर समूहों (इसमें बुजुर्ग, गर्भवती महिलाएँ, विशेष आवश्यकता वाले और छोटे बच्चे शामिल हैं) के साथ सीधा जुड़ाव होना चाहिये तथा प्रमुख पोषण सेवाओं एवं हस्तक्षेपों के अंतिम-मील वितरण को सुनिश्चित करने में योगदान करना चाहिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट की गणना के लिये IFPRI द्वारा उपयोग किया/किये जाने वाला/वाले संकेतक निम्नलिखित में से कौन-सा/से है/हैं? (2016)

  1. अल्पपोषण 
  2. चाइल्ड स्टंटिंग 
  3. बाल मौत दर

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1
(b) 1, 2 और 3
(c) केवल 2 और 3
(d) केवल 1 और 3

उत्तर: (c)


प्रश्न. आप इस मत से कहाँ तक सहमत हैं कि भूख के मुख्य कारण के रूप में खाद्य की उपलब्धता की कमी पर मुख्य फोकस भारत में अप्रभावी मानव विकास नीतियों से ध्यान हटा देता है? (मुख्य परीक्षा, 2018)

स्रोत: द हिंदू


शासन व्यवस्था

हिरासत में यातना

प्रिलिम्स के लिये:

मौलिक अधिकार, भारतीय दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता

मेन्स के लिये:

हिरासत में यातना और हिरासत में मौत के कारण, पुलिस प्रणाली में सुधार, प्रौद्योगिकी और पूछताछ, हिरासत में मौत से बचाव के उपाय

चर्चा में क्यों?  

हाल ही में दो पुलिस अधिकारियों को पुलिस हिरासत में अभियुक्तों को प्रताड़ित करने, हिरासत में यातना (हिंसा) देने के आरोप में निलंबित किया गया है।   

हिरासत में यातना (हिंसा): 

  • परिचय: 
    • हिरासत में यातना से तात्पर्य एक ऐसे व्यक्ति को शारीरिक या मानसिक यातना या पीड़ा देना है जो पुलिस या अन्य अधिकारियों की हिरासत में है।
    • यह मानवाधिकारों और गरिमा का गंभीर उल्लंघन है तथा अक्सर यह हिरासत में होने वाली मौत ,जो किसी व्यक्ति की हिरासत के दौरान होती है, का कारण भी बनता है।
  • हिरासत में मौत के प्रकार: 
    • पुलिस हिरासत में मौत:
      • पुलिस हिरासत में मौत अत्यधिक बल, यातना, चिकित्सा देखभाल से इनकार या अन्य प्रकार के दुर्व्यवहार के परिणामस्वरूप हो सकती है।
    • न्यायिक हिरासत में मौत :
      • अत्यधिक भीड़भाड़, अपर्याप्त स्वच्छता, चिकित्सा सुविधाओं का अभाव, कैदी हिंसा या आत्महत्या न्यायिक हिरासत में मौत के कारण हो सकते हैं।
    • सैन्यबलों या अर्द्धसैनिक बलों की हिरासत में मौत :
      • यह यातना,  असामान्य हत्याओं, मुठभेड़ या गोलीबारी की घटनाओं के माध्यम से हो सकता है।
  • भारत में हिरासत में मौत:
    • गृह मंत्रालय (MHA) के अनुसार, वर्ष 2017-2018 की अवधि में पुलिस हिरासत में मौत के कुल 146 मामले पाए गए, जबकि:
      • वर्ष 2018-2019 में 136 
      • वर्ष 2019-2020 में 112
      • वर्ष 2020-2021 में 100
      • वर्ष 2021-2022 में 175
    • पिछले पाँच वर्षों में हिरासत में सबसे अधिक (80) मौतें गुजरात में दर्ज की गई हैं, इसके बाद महाराष्ट्र (76), उत्तर प्रदेश (41), तमिलनाडु (40) और बिहार (38) का स्थान है।

  • भारत में हिरासत अवधि में अत्याचार को रोकने में चुनौतियाँ: 
    • अत्याचार और अन्य क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार या सज़ा (UNCAT) के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के अनुसमर्थन का अभाव, जिस पर भारत ने वर्ष 1997 में हस्ताक्षर किये थे लेकिन अब तक इसकी पुष्टि नहीं की है।
      • यह भारत को हिरासत में यातना को रोकने और विरोध करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों और मानकों द्वारा बाध्य होने से रोकता है।

हिरासत में यातना संबंधी संवैधानिक तथा कानूनी ढाँचा:

  • संवैधानिक प्रावधान:
    • भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है, जिसमें यातना तथा अन्य क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार या सज़ा से मुक्त होने का अधिकार शामिल है।
    • अनुच्छेद 20(1) में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को तब तक किसी भी अपराध के लिये दोषी नहीं ठहराया जाएगा,जब तक कि उसने ऐसा कार्य करते समय,जो कि अपराध के रूप में आरोपित है, किसी प्रवृत्त विधि का अतिक्रमण नहीं किया है  इस प्रकार यह कानून अपराध से संबंधित कानूनी रूप से उल्लिखित सज़ा से अधिक की सज़ा पर रोक लगाता है। 
    • अनुच्छेद 20(3) के अनुसार, किसी को भी अपने विरुद्ध गवाही देने हेतु विवश नहीं किया जा सकता। यह एक बहुत ही उपयोगी नियम है क्योंकि यह अभियुक्तों के कबूलनामे, जब उन्हें ऐसा करने के लिये मजबूर या प्रताड़ित किया जाता है, पर रोक लगता है ।
  • कानूनी सुरक्षा:
    • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 24 में यह घोषित किया गया है कि अभियुक्त द्वारा जाँच एजेंसियों की धमकी, वादे या प्रलोभन के कारण दिये गए सभी इकबालिया बयान कानून की अदालत में स्वीकार्य नहीं होंगे। यह धारा मुख्य रूप से अभियुक्त को उसकी इच्छा के विरुद्ध संस्वीकृति देने से रोकने का काम करती है।
    • भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 330 और 331 के तहत जब कोई संपत्ति हड़पने के इरादे से किसी व्यक्ति को चोट पहुँचाता है या उस व्यक्ति को अवैध कार्य करने के लिए प्रेरित करता है तो उसे दंडित किया जाता है।
    • आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 41 को वर्ष 2009 में संशोधित किया गया और इसमें सुरक्षा उपाय शामिल किये गए ताकि पूछताछ के लिए गिरफ्तारी एवं हिरासत हेतु उचित आधार एवं दस्तावेज़ी प्रक्रियाओं का पालन किया जाए, गिरफ्तारी को परिवार, दोस्तों एवं आम जनता के लिये पारदर्शी बनाया जा सके तथा कानून के माध्यम से सुरक्षा प्रदान की जाए।

मानवाधिकारों के लिये अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन:

  • अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून, 1948: 
    • अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून में एक प्रावधान है जो लोगों को यातना और जबरन गायब करने से बचाता है।
  • संयुक्त राष्ट्र चार्टर, 1945: 
    • संयुक्त राष्ट्र चार्टर कैदियों के साथ गरिमापूर्ण व्यवहार करने का आह्वान करता है। चार्टर में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कैदी होने के बावजूद उनकी मौलिक स्वतंत्रता एवं मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा, नागरिक तथा राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध व आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध में निर्धारित हैं।
  • नेल्सन मंडेला नियम, 2015: 
    • नेल्सन मंडेला नियमों को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा वर्ष 2015 में कैदियों से  सम्मान के साथ व्यवहार करने और यातना एवं अन्य दुर्व्यवहार को प्रतिबंधित करने हेतु अपनाया गया था। 

हिरासत में यातना से निपटने संबंधी उपाय:

  • कानूनी प्रणालियों को मज़बूत बनाना:
    • ऐसे कानून पारित करना जो  हिरासत में यातना का अपराधीकरण करता हो।
    • हिरासत में प्रताड़ना के आरोपों की त्वरित और निष्पक्ष जाँच सुनिश्चित करना।
    • निष्पक्ष और त्वरित सुनवाई के माध्यम से अपराधियों को जवाबदेह ठहराना।
  • पुलिस सुधार और संवेदीकरण: 
    • मानवाधिकारों और गरिमा के सम्मान पर ज़ोर देने हेतु पुलिस प्रशिक्षण कार्यक्रमों को बढ़ाना।
    • कानून प्रवर्तन एजेंसियों के भीतर जवाबदेही, व्यावसायिकता और सहानुभूति की संस्कृति को बढ़ावा देना।
    • हिरासत में प्रताड़ना के मामलों की प्रभावी ढंग से निगरानी और समाधान करने हेतु निरीक्षण तंत्र स्थापित करना।
  • नागरिक समाज और मानवाधिकार संगठनों को सशक्त बनाना: 
    • नागरिक समाज संगठनों को हिरासत में यातना के पीड़ितों की सक्रिय रूप से वकालत करने हेतु प्रोत्साहित करना।
    • पीड़ितों और उनके परिवारों को सहायता एवं कानूनी सहायता प्रदान करना।
    • निवारण और न्याय के लिये अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार निकायों एवं संगठनों के साथ सहयोग करना।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. भारत में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (एन.एच.आर.सी.) सर्वाधिक प्रभावी तभी हो सकता है, जब इसके कार्यों को सरकार की जवाबदेही को सुनिश्चित करने वाले अन्य यांत्रिकत्वों का पर्याप्त समर्थन प्राप्त हो। उपरोक्त टिप्पणी के प्रकाश में मानव अधिकार मानकों की प्रोन्नति और उनकी रक्षा करने में न्यायपालिका तथा अन्य संस्थाओं के प्रभावी पूरक के तौर पर एन.एच.आर.सी. की भूमिका का आकलन कीजिये। (2014) 

स्रोत: टाइम्स ऑफ इंडिया


भारतीय राजनीति

सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति

प्रिलिम्स के लिये:

कॉलेजियम प्रणाली, भारत का मुख्य न्यायाधीश

मेन्स के लिये:

कॉलेजियम प्रणाली का विकास और इसकी आलोचना, सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति 

चर्चा में क्यों?  

हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ द्वारा भारत के सर्वोच्च न्यायालय में दो नए न्यायाधीशों- न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की नियुक्ति की गई है।

  • इनके शामिल होने के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय में 34 न्यायाधीशों की निर्धारित स्वीकृत संख्या  पूर्ण हो गई है।

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया:

  • सर्वोच्च न्यायालय की संरचना और शक्ति: 
    • मूल रूप से सर्वोच्च न्यायालय में आठ न्यायाधीश थे (एक मुख्य न्यायाधीश और सात अन्य)। 
    • संसद ने समय के साथ न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि की है।
    • सर्वोच्च न्यायालय में वर्तमान में 34 न्यायाधीश (एक मुख्य न्यायाधीश और 33 अन्य) है।
  • न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिये योग्यताएँ:
    • संविधान के अनुच्छेद 124 (3) के अनुसार, एक व्यक्ति को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जा सकता है: 
      • व्यक्ति को भारत का नागरिक होना चाहिये।
      • एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कम-से-कम पाँच साल या लगातार दो ऐसी न्यायालयों में सेवा की हो।
      • वैकल्पिक रूप से कम-से-कम दस वर्षों के लिये एक उच्च न्यायालय का अधिवक्ता या कुल मिलाकर दो या दो से अधिक विभिन्न न्यायालयों में अधिवक्ता रहा हो।
      • राष्ट्रपति की राय में एक प्रतिष्ठित न्यायविद होना चाहिये।
  • नियुक्ति: 
    • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा संविधान के अनुच्छेद 124 के खंड (2) के अंतर्गत की जाती है
      •  राष्ट्रपति सूचित नियुक्तियाँ करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के साथ परामर्श करता है।
  • शपथ:
    • प्रत्येक नियुक्त न्यायाधीश को राष्ट्रपति या इस कार्य के लिये नियुक्त व्यक्ति के समक्ष शपथ लेनी होती है और उस पर हस्ताक्षर करने होते हैं।
    • शपथ में भारत के संविधान, संप्रभुता और अखंडता को बनाए रखने तथा भय या पक्षपात के बिना कर्त्तव्यों का पालन करने की प्रतिबद्धता शामिल है
  • कार्यकाल और निष्कासन: 
    • संविधान में न्यायाधीश की नियुक्ति के लिये कोई निर्धारित न्यूनतम समय-सीमा तय नहीं है।
    • सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक पद पर बना रहता है।
      • हालाँकि एक न्यायाधीश राष्ट्रपति को अपना इस्तीफा देकर 65 वर्ष की आयु से पूर्व भी इस्तीफा दे सकता है।
  • वेतन एवं भत्ते: 
    • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन, भत्ते एवं विशेषाधिकार, अवकाश और पेंशन संसद द्वारा निर्धारित किये जाते हैं।
      • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन, पेंशन और भत्ते भारत की संचित निधि पर भारित होते हैं।
  • सेवानिवृत्ति के बाद प्रतिबंध:
    • सेवानिवृत्ति के बाद सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश को भारत में किसी भी अदालत में कानून का अभ्यास करने या किसी भी सरकारी प्राधिकरण के समक्ष वकालत करने से प्रतिबंधित किया जाता है।
    • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 128 के अनुसार, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी सेवानिवृत्त न्यायाधीश को भारत के राष्ट्रपति की पूर्व- अनुमति से ही भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में बैठने और कार्य करने के लिये वापस बुलाया जा सकता है
  • निष्कासन:
    • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को राष्ट्रपति के आदेश से ही पद से हटाया जा सकता है। जिसे पद से हटाने की प्रक्रिया के लिये संसद के प्रत्येक सदन द्वारा संबोधित करने की आवश्यकता होती है जिसे विशेष बहुमत द्वारा समर्थित किया जाता है, यानी उस सदन की कुल सदस्यता का बहुमत तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा किया जा सकता है।
    • निष्कासन के आधार में दुर्व्यवहार या अक्षमता भी सम्मिलित होते हैं।
    • संसद के पास अभिभाषण प्रस्तुत करने और किसी न्यायाधीश के दुर्व्यवहार या अक्षमता की जाँच करने तथा उसे सिद्ध करने की प्रक्रिया को विनियमित करने का अधिकार है।
    • एक बार नियुक्त होने के बाद न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक सेवा करते हैं तथा उनके कार्यकाल की अवधि में सिद्ध कदाचार या अक्षमता को छोड़कर उन्हें हटाया नहीं जा सकता है।
  • न्यायिक नियुक्तियों के लिये कॉलेजियम प्रणाली:
    • उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति कॉलेजियम प्रणाली के माध्यम से की जाती है।
    • कॉलेजियम, जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल हैं, न्यायाधीशों की नियुक्ति, पदोन्नति एवं स्थानांतरण पर निर्णय लेते हैं।
    • भारतीय संविधान में "कॉलेजियम" शब्द का उल्लेख नहीं है, लेकिन न्यायिक घोषणाओं के माध्यम से स्थापित किया गया है।

कॉलेजियम प्रणाली का विकास:

  • प्रथम न्यायाधीश मामला (1981): 
    • इसने यह निर्धारित किया कि न्यायिक नियुक्तियों और तबादलों पर भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) के सुझाव की "प्रधानता" को "ठोस कारणों" के चलते अस्वीकार किया जा सकता है।
    • इस निर्णय ने अगले 12 वर्षों के लिये न्यायिक नियुक्तियों में न्यायपालिका पर कार्यपालिका की प्रधानता स्थापित कर दी है।
  • दूसरा न्यायाधीश मामला (1993): 
    • सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट करते हुए कॉलेजियम प्रणाली की शुरुआत की कि "परामर्श" का अर्थ वास्तव में "सहमति" है।
    • इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि यह CJI की व्यक्तिगत राय नहीं होगी, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों के परामर्श से ली गई एक संस्थागत राय होगी।
  • तीसरा न्यायाधीश मामला (1998):
    • राष्ट्रपति द्वारा जारी एक प्रेज़िडेंशियल रेफरेंस (Presidential Reference) (अनुच्छेद 143) के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने पाँच सदस्यीय निकाय के रूप में कॉलेजियम का विस्तार किया, जिसमें CJI और उनके चार वरिष्ठतम सहयोगी शामिल होंगे।
  • चौथा न्यायाधीश मामला (2015): 
    • 99वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2014 एवं राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014 ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (National Judicial Appointments Commission- NJAC) नामक एक नए निकाय के साथ सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली को बदल दिया है।
    • हालाँकि वर्ष 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने 99वें संवैधानिक संशोधन के साथ-साथ NJAC अधिनियम को असंवैधानिक और चौथे न्यायाधीश के मामले में शून्य घोषित कर दिया। नतीजतन, पहले की कॉलेजियम प्रणाली फिर से सक्रिय हो गई। 

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. भारतीय न्यायपालिका के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:

  1. भारत के सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी सेवानिवृत्त न्यायाधीश को भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा भारत के राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति से वापस बैठने और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य करने के लिये बुलाया जा सकता है। 
  2. भारत में उच्च न्यायालय के पास अपने निर्णय की समीक्षा करने की शक्ति है जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय करता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (c)


मेन्स:

प्रश्न. भारत में उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017) 

स्रोत: द हिंदू


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