डिफेंस इंडिया स्टार्ट-अप चैलेंज 5.0
प्रिलिम्स के लियेडिफेंस इंडिया स्टार्ट-अप चैलेंज, रक्षा उत्कृष्टता के लिये नवाचार, 5G नेटवर्क, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, अटल इनोवेशन मिशन मेन्स के लियेभारतीय सेना के आधुनिकीकरण की ज़रूरत एवं चुनौतियाँ |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में रक्षा मंत्रालय ने रक्षा उत्कृष्टता के लिये नवाचार - रक्षा नवाचार संगठन (iDEX-DIO) के अंतर्गत डिफेंस इंडिया स्टार्ट-अप चैलेंज (DISC) का 5वाँ संस्करण लॉन्च किया।
- DISC 5.0 के अंतर्गत सेवाओं और रक्षा सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का अनावरण किया गया, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं:
- सिचुएशनल अवेयरनेस, ऑगमेंटेड रियलिटी, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, एयरक्राफ्ट ट्रेनर, नॉनलेथल डिवाइस, 5G नेटवर्क, अंडरवाटर डोमेन अवेयरनेस, ड्रोन SWARMS और डेटा कैप्चरिंग।
रक्षा उत्कृष्टता के लिये नवाचार
रक्षा उत्कृष्टता के लिये नवाचार के विषय में:
- इसे वर्ष 2018 में भारतीय सेना के आधुनिकीकरण के लिये तकनीकी रूप से उन्नत समाधान प्रदान करने हेतु नवप्रवर्तनकर्त्ताओं और उद्यमियों को शामिल कर रक्षा एवं एयरोस्पेस में नवाचार तथा प्रौद्योगिकी विकास को बढ़ावा देने को एक पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में लॉन्च किया गया था।
- यह MSMEs, स्टार्ट-अप्स, व्यक्तिगत इनोवेटर, शोध एवं विकास संस्थानों और अकादमियों को अनुसंधान एवं विकास के लिये अनुदान प्रदान करता है।
- इसको "रक्षा नवाचार संगठन" द्वारा वित्तपोषित और प्रबंधित किया जाता है।
मुख्य उद्देश्य:
- स्वदेशीकरण: नई, स्वदेशी और नवीन प्रौद्योगिकी का तेज़ी से विकास करना।
- नवाचार: सह-निर्माण को प्रोत्साहित करने के लिये स्टार्ट-अप के साथ जुड़ाव की संस्कृति बनाना।
प्रमुख बिंदु
डिफेंस इंडिया स्टार्ट-अप चैलेंज के विषय में:
- इसका उद्देश्य राष्ट्रीय रक्षा एवं सुरक्षा (National Defence and Security) के क्षेत्र में उत्पादों के प्रोटोटाइप/व्यावसायिक उत्पादों का निर्माण करने हेतु स्टार्ट-अप/MSMEs/इनोवेटर्स का समर्थन करना है।
- आत्मनिर्भरता की स्थिति प्राप्त करने और रक्षा तथा एयरोस्पेस क्षेत्रों में नवाचार प्रौद्योगिकी विकास को बढ़ावा देना।
- इसे रक्षा मंत्रालय द्वारा अटल इनोवेशन मिशन (Atal Innovation Mission) के साथ साझेदारी में लॉन्च किया गया था।
- कार्यक्रम के अंतर्गत स्टार्ट-अप, भारतीय कंपनियाँ और व्यक्तिगत नवप्रवर्तनकर्त्ता (अनुसंधान और शैक्षणिक संस्थानों सहित) भाग ले सकते हैं।
- DISC 5.0 भारत की रक्षा प्रौद्योगिकियों, उपकरण डिज़ाइन और विनिर्माण क्षमताओं को विकसित करने के लिये स्टार्ट-अप पारिस्थितिकी तंत्र का लाभ उठाने की दिशा में एक बड़ा कदम होगा।
दृष्टिकोण:
- प्रोटोटाइपिंग: राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये प्रासंगिक उत्पादों/प्रौद्योगिकियों के कार्यात्मक प्रोटोटाइप बनाने में मदद करना और भारतीय रक्षा क्षेत्र में तेज़ी से आगे बढ़ने हेतु नवाचारों को बढ़ावा देना।
- व्यावसायीकरण: भारतीय रक्षा प्रतिष्ठान के रूप में नए तकनीकी उत्पादों/ प्रौद्योगिकियों के लिये एक बाज़ार और शुरुआती ग्राहक खोजने में मदद करना।
महत्त्व:
- यह युवाओं, शिक्षाविदों, अनुसंधान एवं विकास, स्टार्ट-अप और सशस्त्र बलों के बीच एक कड़ी बनाता है।
- ये चुनौतियाँ स्टार्ट-अप्स को नवीन अवधारणाओं के प्रति अधिक अभ्यस्त होने और भारत के नवोदित उद्यमियों में रचनात्मक सोच के दृष्टिकोण को विकसित करने के लिये प्रोत्साहित करेंगी।
रक्षा क्षेत्र का स्वदेशीकरण
परिचय:
- स्वदेशीकरण का तात्पर्य आत्मनिर्भरता प्राप्त करने और आयात के बोझ को कम करने के दोहरे उद्देश्य हेतु देश के भीतर किसी भी रक्षा उपकरण के विकास एवं उत्पादन की क्षमता विकसित करना है।
- रक्षा निर्माण में आत्मनिर्भरता रक्षा उत्पादन विभाग के प्रमुख उद्देश्यों में से एक है।
- रक्षा अनुसंधान विकास संगठन (DRDO), रक्षा सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम (DPSUs), आयुध निर्माणी बोर्ड (OFB) और निजी संगठन रक्षा उद्योगों के स्वदेशीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
- रक्षा मंत्रालय ने वर्ष 2025 तक रक्षा निर्माण में 25 बिलियन अमेरिकी डॉलर के कारोबार का लक्ष्य रखा है जिसमें 5 बिलियन अमेरिकी डॉलर के सैन्य हार्डवेयर का निर्यात लक्ष्य शामिल है।
स्वदेशीकरण की आवश्यकता:
राजकोषीय घाटा कम करना:
- भारत दुनिया में (सऊदी अरब के बाद) दूसरा सबसे बड़ा हथियार आयातक देश है।
- उच्च आयात निर्भरता से राजकोषीय घाटे में वृद्धि होती है।
अनिवार्य सुरक्षा:
- राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये भी स्वदेशीकरण महत्त्वपूर्ण है।
- यह तकनीकी विशेषज्ञता को बरकरार रखता है और स्पिन-ऑफ प्रौद्योगिकियों एवं नवाचार को प्रोत्साहित करता है जो कि अक्सर इससे उत्पन्न होते हैं।
रोज़गार सृजन:
- रक्षा निर्माण से सैटेलाइट उद्योगों का निर्माण होगा जो बदले में रोज़गार के अवसरों के सृजन का मार्ग प्रशस्त करेगा।
सामरिक क्षमता:
- आत्मनिर्भर रक्षा उद्योग भारत को शीर्ष वैश्विक शक्तियों में स्थान देगा।
- रक्षा उपकरणों के स्वदेशी उत्पादन से राष्ट्रीयता और देशभक्ति की भावना बढ़ेगी, जो बदले में न केवल भारतीय बलों के विश्वास को बढ़ावा देगी बल्कि उनमें अखंडता और संप्रभुता की भावना को भी मज़बूत करेगी।
रक्षा क्षेत्र के स्वदेशीकरण की चुनौतियाँ:
- निजी भागीदारी का अभाव:
- रक्षा निर्माण केवल DRDO और रक्षा सार्वजनिक उपक्रमों पर निर्भर रहा है।
- हाल ही में निजी क्षेत्र को भागीदारी की अनुमति दी गई है।
- विशेषज्ञता की कमी:
- केवल नौसेना में वास्तुकारों को IIT के माध्यम से भर्ती किया गया था और उन्हें विदेशों में प्रशिक्षण प्रदान किया गया था।
- हालाँकि थल सेना और वायु सेना के पास ऐसा क्षमता निर्माण कार्यक्रम नहीं है।
- विनिर्माण में बाधाएँ:
- नौकरशाही बाधाएँ, राजनीतिक बाधाएँ, मानव और तकनीकी संसाधनों की कमी, समय पर डिलीवरी का अभाव।
- अक्षम बजट:
- अधिकांश रक्षा बजट वेतन, भत्तों और उपकरणों के रखरखाव में व्यय होता है।
- भ्रष्टाचार:
- हथियारों की बिक्री और लॉबिंग ने रक्षा खर्च की दक्षता और प्रभावशीलता को कम कर दिया।
- तालमेल की कमी:
- सरकारी धन की कमी और खराब उद्योग-अकादमिक सहयोग के कारण शिक्षा, सैन्य और शोध क्षेत्र के बीच समन्वय का अभाव।
अन्य संबंधित पहल:
- प्रथम नकारात्मक स्वदेशीकरण :
- अगस्त 2020 में सरकार ने घोषणा की कि भारत 2024 तक 101 हथियारों और सैन्य प्लेटफ़ार्मों, जैसे-सैन्य परिवहन विमान, हल्के लड़ाकू हेलीकॉप्टर, पारंपरिक पनडुब्बी, क्रूज़ मिसाइल और सोनार सिस्टम के आयात को रोक देगा।
- सकारात्मक स्वदेशीकरण सूची:
- यह 108 सैन्य हथियारों और अगली पीढ़ी के कॉर्वेट, एयरबोर्न अर्ली वार्निंग एंड कंट्रोल (AEW&C) सिस्टम, टैंक इंजन और रडार जैसी प्रणालियों पर आयात प्रतिबंध लगाता है।
- इसे दिसंबर 2021 से दिसंबर 2025 तक प्रभावी रूप से लागू करने की योजना है।
- रक्षा क्षेत्र में नई एफडीआई नीति:
- मई 2020 में सरकार ने रक्षा क्षेत्र के लिये एक नई प्रत्यक्ष विदेशी निवेश नीति को मंज़ूरी दी है, इस नीति में ऑटोमैटिक रूट के तहत रक्षा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (Foreign Direct Investment- FDI) की सीमा को 49% से बढ़ाकर 74% कर दिया गया है।
- रक्षा अधिग्रहण प्रक्रिया 2020:
- इसमें तटरक्षक बल सहित सशस्त्र बलों के आधुनिकीकरण के लिये रक्षा मंत्रालय के पूंजीगत बजट से खरीद और अधिग्रहण हेतु नीतियाँ और प्रक्रियाएँ शामिल हैं।
- रक्षा औद्योगिक गलियारे:
- रक्षा गलियारे एक सुनियोजित और कुशल औद्योगिक आधार की सुविधा प्रदान करेंगे जिससे देश में रक्षा उत्पादन में वृद्धि होगी।
आगे की राह
- निजी क्षेत्र को बढ़ावा देना आवश्यक है क्योंकि यह स्वदेशी रक्षा उद्योग के आधुनिकीकरण के लिये अधिक कुशल और प्रभावी प्रौद्योगिकी तथा मानव पूंजी का संचार कर सकता है।
- तीनों सेवाओं के बीच इन-हाउस डिज़ाइन क्षमता में सुधार किया जाना चाहिये, नौसेना ने स्वदेशीकरण के पथ पर अच्छी तरह से प्रगति की है, मुख्य रूप से इन-हाउस डिज़ाइन क्षमता, नौसेना डिज़ाइन ब्यूरो के कारण।
- सरकार रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) को एक स्वायत्त दर्जा प्रदान कर सकती है जिससे निजी क्षेत्र को उप-अनुबंधों की इकाई में सुधार होगा और निजी क्षेत्रों में भी विश्वास पैदा होगा।
स्रोत : इंडियन एक्सप्रेस
पीएम कुसुम और रूफटॉप सोलर कार्यक्रम फेज़-II
प्रिलिम्स के लिये:पीएम कुसुम और रूफटॉप सोलर कार्यक्रम फेज़-II मेन्स के लिये:पीएम कुसुम और रूफटॉप सोलर कार्यक्रम फेज़-II का कृषि क्षेत्र में महत्त्व |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में नवीन और नवीकरणीय मंत्रालय (MNRE) ने प्रधानमंत्री किसान ऊर्जा सुरक्षा एवं उत्थान महाभियान (पीएम-कुसुम) योजना और रूफटॉप सोलर कार्यक्रम फेज़- II के कार्यान्वयन की समीक्षा की तथा इसके विस्तार के उपायों से संबंधित सुझाव दिया है।
प्रमुख बिंदु
पीएम-कुसुम:
- ग्रामीण क्षेत्रों में ऑफ-ग्रिड सौर पंपों की स्थापना का समर्थन करने और ग्रिड से जुड़े क्षेत्रों में ग्रिड पर निर्भरता को कम करने के लिये 2019 में एमएनआरई द्वारा पीएम-कुसुम योजना शुरू की गई थी।
- इस योजना का उद्देश्य किसानों को अपनी बंजर भूमि पर सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता स्थापित करने और इसे ग्रिड को बेचने में सक्षम बनाना है।
- वर्ष 2020-21 के बजट में सरकार ने 20 लाख किसानों को स्टैंडअलोन सोलर पंप स्थापित करने हेतु सहायता के साथ योजना के दायरे का विस्तार किया तथा अन्य 15 लाख किसानों को उनके ग्रिड से जुड़े पंप सेटों को सोलराइज़ करने हेतु मदद की जाएगी।
पीएम-कुसुम योजना के लाभ:
- किसानों की मदद करना:
- यह सिंचाई गतिविधियों के लिये दिन में बिजली का विश्वसनीय स्रोत प्रदान कर किसानों के लिये जल-सुरक्षा सुनिश्चित करती है।
- यह किसानों को अधिशेष सौर ऊर्जा राज्यों को बेचने के लिये भी प्रोत्साहित करती है, जिससे उनकी आय में वृद्धि होगी।
- पर्यावरण संरक्षण:
- यदि किसान अधिशेष बिजली बेचने में सक्षम होंगे, तो उन्हें बिजली बचाने के लिये प्रोत्साहित किया जाएगा और बदले में भूजल का उचित और कुशल उपयोग होगा।
- साथ ही विकेंद्रीकृत सौर-आधारित सिंचाई प्रदान करना और प्रदूषणकारी डीज़ल से मुक्त सिंचाई कवर का विस्तार करना।
- डिस्कॉम की मदद करना:
- चूँकि किसान सब्सिडी वाली बिजली पर कम निर्भर होंगे, पीएम-कुसुम योजना कृषि क्षेत्र पर सब्सिडी के बोझ को कम करके बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) के वित्तीय सशक्तीकरण का समर्थन करेगी।
- RPO (नवीकरणीय खरीद दायित्व) लक्ष्यों को पूरा करने में उनकी सहायता करना।
- सहयोग:
- विकेंद्रीकृत सौर ऊर्जा उत्पादन को बढ़ावा देती है और पारेषण हानियों को कम करती है।
- यह सिंचाई के लिये सब्सिडी परिव्यय को कम करने का एक संभावित तरीका है।
रूफटॉप सोलर प्रोग्राम फेज़ II के विषय में:
- इसका उद्देश्य वर्ष 2022 तक रूफटॉप सौर परियोजनाओं से 40,000 मेगावाट की संचयी क्षमता हासिल करना है।
- ग्रिड से जुड़े रूफटॉप या छोटे सोलर वोल्टाइक पैनल सिस्टम में सोलर वोल्टाइक पैनल से उत्पन्न डीसी पावर को पावर कंडीशनिंग यूनिट का उपयोग करके एसी पावर में परिवर्तित किया जाता है।
- यह योजना राज्यों में वितरण कंपनियों (DISCOMs) द्वारा लागू की जा रही है।
- MNRE पहले 3 किलोवाट के लिये 40% सब्सिडी और 3 किलोवाट से अधिक तथा सौर पैनल क्षमता के 10 किलोवाट तक 20% सब्सिडी प्रदान कर रहा है।
रूफटॉप सोलर प्रोग्राम के उद्देश्य:
- आवासीय, सामुदायिक, संस्थागत, औद्योगिक और वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों के बीच ग्रिड से जुड़े SPV रूफटॉप और छोटे SPV बिजली उत्पादन संयंत्रों को बढ़ावा देना।
- जीवाश्म ईंधन आधारित बिजली उत्पादन पर निर्भरता को कम करना और पर्यावरण के अनुकूल सौर बिजली उत्पादन को प्रोत्साहित करना।
- निजी क्षेत्र, राज्य सरकार और व्यक्तियों द्वारा सौर ऊर्जा क्षेत्र में निवेश के लिये एक सक्षम वातावरण बनाना।
- छत और छोटे संयंत्रों से ग्रिड तक सौर ऊर्जा की आपूर्ति के लिये एक सक्षम वातावरण बनाना।
- रूफटॉप सोलर लगाने से घरों में बिजली की खपत कम होगी और बिजली खर्च की बचत होगी।
सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिये अन्य योजनाएँ
- अल्ट्रा मेगा रिन्यूएबल एनर्जी पावर पार्क के विकास के लिये योजना: यह मौजूदा सौर पार्क योजना के तहत अल्ट्रा मेगा रिन्यूएबल एनर्जी पावर पार्क (UMREPPs) विकसित करने की एक योजना है।
- राष्ट्रीय पवन-सौर हाइब्रिड नीति 2018: इस नीति का मुख्य उद्देश्य पवन और सौर संसाधनों, बुनियादी ढांँचे और भूमि के इष्टतम व कुशल उपयोग के लिये ग्रिड कनेक्टेड विंड-सोलर पीवी सिस्टम (Wind-Solar PV Hybrid Systems) को बढ़ावा देने हेतु एक रूपरेखा प्रस्तुत करना है।
- अटल ज्योति योजना (AJAY): AJAY योजना को सितंबर 2016 में ग्रिड पावर (2011 की जनगणना के अनुसार) में 50% से कम घरों वाले राज्यों में सौर स्ट्रीट लाइटिंग (Solar Street Lighting- SSL) सिस्टम की स्थापना के लिये शुरू किया गया था।
- अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) : ISA, भारत की एक पहल है जिसे 30 नवंबर, 2015 को पेरिस, फ्रांँस में भारत के प्रधानमंत्री और फ्रांँस के राष्ट्रपति द्वारा पार्टियों के सम्मेलन (COP-21) में शुरू किया गया था। इस संगठन के सदस्य देशों में वे 121 सौर संसाधन संपन्न देश शामिल हैं जो पूर्ण या आंशिक रूप से कर्क और मकर रेखा के मध्य स्थित हैं।
- वन सन, वन वर्ल्ड, वन ग्रिड (OSOWOG): यह वैश्विक सहयोग को सुविधाजनक बनाने हेतु एक रूपरेखा पर केंद्रित है, जो परस्पर नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों (मुख्य रूप से सौर ऊर्जा) के वैश्विक पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण कर उसे साझा करता है।
- राष्ट्रीय सौर मिशन (जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में राष्ट्रीय कार्ययोजना का एक हिस्सा)।
- सूर्यमित्र कौशल विकास कार्यक्रम: इसका उद्देश्य सौर प्रतिष्ठानों की निगरानी हेतु ग्रामीण युवाओं को कौशल प्रशिक्षण प्रदान करना है।
स्रोत : पीआईबी
लैटिन अमेरिका और कैरिबियन क्षेत्र पर जलवायु की स्थिति 2020: WMO
प्रिलिम्स के लिये:विश्व मौसम विज्ञान संगठन, हीटवेव, सूखा, वनाग्नि, चक्रवात, जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल, अमेज़न नदी बेसिन, मैंग्रोव, लैटिन अमेरिका, कैरिबियन क्षेत्र मेन्स के लिये:जलवायु परिवर्तन की चुनौतियाँ एवं समाधान |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) ने लैटिन अमेरिका और कैरिबियन क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन (Climate Change) तथा चरम मौसमी प्रभावों पर एक रिपोर्ट जारी की है।
- इस क्षेत्र के लिये वर्ष 2020 हीटवेव, सूखा, वनाग्नि, चक्रवात और खाद्य असुरक्षा का वर्ष था।
- जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (Intergovernmental Panel on Climate Change) ने अपनी छठी मूल्यांकन रिपोर्ट में भारतीय उपमहाद्वीप पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पर प्रकाश डाला था।
विश्व मौसम विज्ञान संगठन
विश्व मौसम विज्ञान संगठन के विषय में:
- यह 192 देशों और क्षेत्रों की सदस्यता वाला एक अंतर-सरकारी संगठन है। भारत इसका सदस्य है।
- इसकी उत्पत्ति अंतर्राष्ट्रीय मौसम विज्ञान संगठन (International Meteorological Organization) से हुई थी, जिसे वर्ष 1873 में वियना अंतर्राष्ट्रीय मौसम विज्ञान सम्मेलन के बाद स्थापित किया गया था।
स्थापना:
- WMO कन्वेंशन के अनुसमर्थन से 23 मार्च, 1950 को स्थापित यह संगठन मौसम विज्ञान (मौसम और जलवायु), जल विज्ञान तथा संबंधित भूभौतिकीय विज्ञान के लिये संयुक्त राष्ट्र (United Nation) की विशेष एजेंसी बन गया।
मुख्यालय:
- जिनेवा, स्विट्ज़रलैंड।
WMO द्वारा जारी रिपोर्ट:
- वैश्विक जलवायु की स्थिति
- ग्रीनहाउस गैस बुलेटिन
प्रमुख बिंदु
तापमान में वृद्धि:
- वर्ष 2020 मध्य अमेरिका और कैरिबियन क्षेत्र के लिये तीसरा सबसे गर्म वर्ष और दक्षिण अमेरिका के लिये दूसरा सबसे गर्म वर्ष था।
- उष्णकटिबंधीय उत्तरी अटलांटिक महासागर में समुद्र की सतह का तापमान पूरे वर्ष सामान्य से काफी अधिक गर्म रहा।
- वर्ष के अधिकांश समय इस क्षेत्र में गंभीर गर्मी की लहरें हावी रहीं, तापमान लगातार कई दिनों तक 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर रहा।
तीव्र वर्षा:
- तीव्र वर्षा के परिणामस्वरूप वर्ष 2020 के अंत तक मध्य और दक्षिण अमेरिका के ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में भूस्खलन, बाढ़ एवं अचानक बाढ़ की घटनाएँ घटित हुईं।
वनाग्नि और चक्रवात:
- पिछले चार वर्षों में मवेशियों के चरागाह के लिये जंगल की कटाई और वनाग्नि के कारण वनों की गिरावट में वृद्धि हुई है।
- अमेज़न नदी बेसिन (यह दक्षिण अमेरिका के नौ देशों में फैला हुआ है और वैश्विक कार्बन के 10% का भंडारण करता है) में वनों की कटाई से पहले ही जलवायु को संतुलित करने की क्षमता में गिरावट आई है।
- अटलांटिक बेसिन में वर्ष 2020 में 30 चक्रवातों (एक वर्ष में अब तक के सबसे अधिक) को दर्ज किया गया।
प्रभाव:
- चरम मौसम की घटनाओं ने पूरे मध्य अमेरिका में 8 मिलियन से अधिक लोगों को प्रभावित किया, जो कि पहले से ही आर्थिक संकट, कोविड-19 प्रतिबंधों, संघर्ष और खाद्य असुरक्षा से जूझ रहे थे।
सुझाव:
- जोखिम-विशिष्ट निगरानी प्रणाली जैसे FAO की कृषि तनाव सूचकांक प्रणाली (ASIS)) सरकारों को कृषि जैसे विशिष्ट क्षेत्रों के लिये प्रारंभिक चेतावनी अलर्ट जारी करने की अनुमति देने हेतु एक उपयोगी उपकरण का उदाहरण है।
- प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली (EWS) और आकस्मिक योजना विकसित करना।
- इस क्षेत्र में विशेष रूप से दक्षिण अमेरिका में प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली अविकसित थी।
- मैंग्रोव का रोपण अधिकांश वनों की तुलना में तीन-चार गुना अधिक कार्बन को अलग करने में मदद कर सकता है।
- इस क्षेत्र में 2001 और 2018 के बीच मैंग्रोव वृक्षारोपण के तहत क्षेत्र में 20% की गिरावट आई है।
- जोखिम प्रबंधन और अनुकूलन का समर्थन करने के लिये EWS व मौसम परिचालन, जलवायु तथा जल विज्ञान सेवाओं को मज़बूत करने हेतु अधिक राजनीतिक प्रतिबद्धता और वित्तीय सहायता की आवश्यकता है।
लैटिन अमेरिका और कैरिबियन (LAC) क्षेत्र
परिचय:
- लैटिन अमेरिका को आमतौर पर मेक्सिको, मध्य अमेरिका और कैरिबियन द्वीपों के अलावा दक्षिण अमेरिका का पूरा महाद्वीप को मिलाकर समझा जाता है।
- इसमें 33 देश शामिल हैं।
भौगोलिक स्थान:
- अमेज़न नदी, कैरेबियन सागर, मेक्सिको की खाड़ी, प्रशांत महासागर, पनामा नहर, एंडीज़ पर्वत, सिएरा माद्रे पर्वत और अटाकामा रेगिस्तान।
प्रमुख आर्थिक ब्लॉक:
- मर्कोसुर: दक्षिणी साझा अर्थव्यवस्था में दक्षिणी लैटिन अमेरिका के पाँच देश शामिल हैं: अर्जेंटीना, ब्राज़ील, पराग्वे, उरुग्वे और वेनेज़ुएला।
- कैरिकॉम: कैरिबियन समुदाय में 19 द्वीप समूह शामिल हैं: एंटीगुआ और बारबुडा, बहामास, बारबाडोस, बेलीज, डोमिनिका, ग्रेनाडा, गुयाना, हैती, जमैका, मोंटसेराट, सेंट किट्स एंड नेविस, सेंट लूसिया, सेंट विंसेंट और ग्रेनेडाइंस, सूरीनाम एवं त्रिनिदाद व टोबैगो।
- CAN: एंडियन समुदाय में चार देश शामिल हैं: बोलीविया, कोलंबिया, इक्वाडोर और पेरू।
- SICA: सेंट्रल अमेरिकन इंटीग्रेशन सिस्टम में सात देश शामिल हैं: बेलीज, ग्वाटेमाला, अल सल्वाडोर, होंडुरास, निकारागुआ, कोस्टा रिका और पनामा।
स्रोत- डाउन टू अर्थ
भारत में भूमि क्षरण और मरुस्थलीकरण
प्रिलिम्स के लियेमरुस्थलीकरण, भूमि क्षरण, संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण रोकथाम कन्वेंशन, एकीकृत वाटरशेड प्रबंधन कार्यक्रम, राष्ट्रीय वनीकरण कार्यक्रम मेन्स के लियेभूमि क्षरण का कारण एवं प्रभाव, मरुस्थलीकरण/भूमि क्षरण को रोकने के लिये भारत द्वारा किये गए उपाय |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) द्वारा प्रकाशित एक दस्तावेज़ जिसका नाम मरुस्थलीकरण और भूमि क्षरण एटलस है, से पता चलता है कि हाल के वर्षों में भूमि क्षरण और मरुस्थलीकरण में काफी वृद्धि हुई है।
- यह एटलस 2018-19 की समयावधि के दौरान अपरदित भूमि का राज्यवार क्षेत्रीय आकलन दर्शाता है। इसके अतिरिक्त यह 2003-04 से लेकर 2018-19 तक यानी 15 वर्षों की अवधि के दौरान हुए परिवर्तन का विश्लेषण भी प्रदान करता है।
- इससे पूर्व, प्रधानमंत्री ने वीडियो कॉन्फ्रेंस के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र (UN) "मरुस्थलीकरण, भूमि क्षरण और सूखे पर उच्च स्तरीय वार्ता" में मरुस्थलीकरण और भूमि क्षरण एटलस का संबोधन किया।
प्रमुख बिंदु
परिचय :
- भूमि क्षरण :
- भूमि क्षरण कई कारणों से होता है, जिसमें चरम मौसम की स्थिति, विशेष रूप से सूखा आदि शामिल हैं। यह मानवीय गतिविधियों के कारण भी होता है जो मृदा और भूमि की गुणवत्ता में कमी लाता है तथा उन्हें प्रदूषित करता है।
- मरुस्थलीकरण :
- शुष्क भूमि क्षेत्रों (शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और शुष्क उप-आर्द्र क्षेत्रों) के अंदर होने वाले भूमि क्षरण को 'मरुस्थलीकरण' कहा जाता है।
- मरुस्थलीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें प्राकृतिक या मानव निर्मित कारकों के कारण शुष्क भूमि (शुष्क और अर्द्ध शुष्क भूमि) की जैविक उत्पादकता कम हो जाती है लेकिन इसका मतलब मौजूदा रेगिस्तानों का विस्तार नहीं है।
स्थिति:
- भूमि क्षरण:
- भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र के 328.72 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में से लगभग 97.85 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र (29.7%) में 2018-19 के दौरान भूमि क्षरण हुआ है।
- 2003-05 में 94.53 मिलियन हेक्टेयर (कुल भौगोलिक क्षेत्र का 28.76%) क्षेत्र में भूमि क्षरण हुआ। 2011-13 में यह क्षरण बढ़कर 96.40 मिलियन हेक्टेयर (कुल भौगोलिक क्षेत्र का 29.32%) हो गई है।
- मरुस्थलीकरण:
- 2018-19 में लगभग 83.69 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र मरुस्थलीकरण से प्रभावित है । इस समयावधि में 2003-2005 में 81.48 मिलियन हेक्टेयर और 2011-13 में 82.64 मिलियन हेक्टेयर की तुलना में अत्यधिक मरुस्थलीकरण हुआ।
- राज्यवार डेटा:
- देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र के संबंध में मरुस्थलीकरण/भूमि क्षरण से प्रभावित होने वाला लगभग 23.79% क्षेत्र राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, लद्दाख, झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश और तेलंगाना का था।
- भारत ने 2011-13 और 2018-19 के बीच 31 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में से 28 में मरुस्थलीकरण के स्तर में वृद्धि देखी, जैसा कि एटलस में आँकड़ों द्वारा प्रदर्शित किया गया है।
कारण:
- मृदा आवरण का नुकसान:
- वर्षा और सतही अपवाह के कारण मिट्टी के आवरण को होने वाला नुकसान मरुस्थलीकरण के सबसे बड़े कारणों में से एक है। यह देश में 11.01% मरुस्थलीकरण के लिये उत्तरदायी है।
- निर्वनीकरण के कारण मिट्टी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और यह क्षरण का कारण बनता है। जैसे-जैसे शहरीकरण बढ़ रहा है, संसाधनों की मांग भी बढ़ती जा रही है।
- वनस्पति क्षरण:
- वनस्पति क्षरण को ‘वनस्पति आवरण के घनत्व, संरचना, प्रजातियों की संरचना या उत्पादकता में अस्थायी या स्थायी कमी’ के रूप में परिभाषित किया जाता है।
- यह देश में 9.15% मरुस्थलीकरण के लिये उत्तरदायी है।
- जल क्षरण:
- यह ‘बैडलैंड’ स्थलाकृति को जन्म देता है, जो स्वयं मरुस्थलीकरण का प्रारंभिक चरण है।
- ‘बैडलैंड’ एक प्रकार का सूखा क्षेत्र होता है, जहाँ सेडिमेंट्री चट्टानों और क्ले-युक्त मिट्टी का व्यापक पैमाने पर क्षरण होता है।
- वर्ष 2011-13 में यह देश में 10.98% मरुस्थलीकरण के लिये उत्तरदायी था।
- यह ‘बैडलैंड’ स्थलाकृति को जन्म देता है, जो स्वयं मरुस्थलीकरण का प्रारंभिक चरण है।
- हवा का कटाव:
- हवा के कारण आने वाली रेत मिट्टी की उर्वरता को कम कर देती है, जिससे भूमि मरुस्थलीकरण के प्रति अतिसंवेदनशील हो जाती है।
- यह भारत में 5.46% मरुस्थलीकरण के लिये उत्तरदायी है।
- जलवायु परिवर्तन:
- यह तापमान, वर्षा, सौर विकिरण और हवाओं में स्थानिक व अस्थायी पैटर्न के परिवर्तन के माध्यम से मरुस्थलीकरण को बढ़ा सकता है।
प्रभाव:
- आर्थिक प्रभाव:
- भूमि क्षरण से कृषि उत्पादकता को खतरा है। यह मिट्टी के स्वास्थ्य को हानि पहुँचाता है, इस प्रकार ग्रामीण लोगों की आजीविका को प्रभावित करता है।
- जलवायु परिवर्तन:
- यह जलवायु परिवर्तन की घटनाओं को बढ़ा रहा है, जो बदले में और भी अधिक गिरावट का कारण बन रहा है।
- उदाहरण के लिये अपघटित भूमि कार्बन-डाइऑक्साइड (CO2), ग्रीनहाउस गैस (GHG) को अवशोषित करने की अपनी क्षमता खो देती है जो ग्लोबल वार्मिंग में वृद्धि का सबसे बड़ा कारक है।
- यह जलवायु परिवर्तन की घटनाओं को बढ़ा रहा है, जो बदले में और भी अधिक गिरावट का कारण बन रहा है।
- जल संकट
- भूमि क्षरण के परिणामस्वरूप सतही और भूजल संसाधनों की मात्रा और गुणवत्ता दोनों में गिरावट आई है।
- पानी के दबाव और सूखे की तीव्रता की चपेट में आने वाली शुष्क भूमि की आबादी वर्ष 2050 तक 1.5 डिग्री सेल्सियस वार्मिंग की सबसे आदर्श परिस्थितियों में 178 मिलियन तक पहुँचने का अनुमान है।
- स्वदेशी लोगों के अधिकार:
- असुरक्षित भूमि की समस्या लोगों और समुदायों की जलवायु परिवर्तन से लड़ने की क्षमता को प्रभावित करती है, जो कि भूमि क्षरण से और अधिक खतरे में है।
मरुस्थलीकरण/भूमि क्षरण को रोकने के लिये भारत द्वारा किये गए उपाय:
- एकीकृत वाटरशेड प्रबंधन कार्यक्रम:
- इसका उद्देश्य ग्रामीण रोज़गार के सृजन के साथ प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, संरक्षण और विकास कर पारिस्थितिक संतुलन को बहाल करना है। अब इसे प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के अंतर्गत सम्मिलित किया गया है जिसे नीति आयोग द्वारा कार्यान्वित किया जा रहा है।
- मरुस्थल विकास कार्यक्रम:
- इसे वर्ष 1995 में सूखे के प्रतिकूल प्रभाव को कम करने और पहचाने गए रेगिस्तानी क्षेत्रों के प्राकृतिक संसाधन आधार को फिर से जीवंत करने हेतु शुरू किया गया था।
- इसे राजस्थान, गुजरात, हरियाणा के गर्म रेगिस्तानी इलाकों और जम्मू-कश्मीर तथा हिमाचल प्रदेश के ठंडे रेगिस्तानी इलाकों के लिये शुरू किया गया था।
- संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण रोकथाम कन्वेंशन:
- भारत वर्ष 1994 में इसका हस्ताक्षरकर्त्ता बना और वर्ष 1996 में इसकी पुष्टि की। भारत वर्ष 2030 तक 26 मिलियन हेक्टेयर खराब भूमि को पुनः उपजाऊ बनाने के लिये काम कर रहा है।
- भारत भूमि क्षरण तटस्थता (LDN- सतत् विकास लक्ष्य 15.3) पर अपनी राष्ट्रीय प्रतिबद्धता को प्राप्त करने के लिये कड़ी मेहनत कर रहा है।
- LDN एक ऐसी स्थिति है जहाँ पारिस्थितिक तंत्र में कार्यों और सेवाओं का समर्थन करने तथा खाद्य सुरक्षा को बढ़ाने के लिये आवश्यक भूमि संसाधनों की मात्रा एवं गुणवत्ता स्थिर रहती है या निर्दिष्ट अस्थायी व स्थानिक पैमाने और पारिस्थितिक तंत्र (Ecosystem) के भीतर बढ़ जाती है।
- राष्ट्रीय वनीकरण कार्यक्रम:
- इसे वर्ष 2000 मे निम्नीकृत वन भूमि के वनीकरण के लिये पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा शुरू किया था।
- मरुस्थलीकरण का मुकाबला करने के लिये राष्ट्रीय कार्यक्रम:
- इसे वर्ष 2001 में बढ़ते मरुस्थलीकरण के मुद्दों को संबोधित करने और उचित कार्रवाई करने के लिये तैयार किया गया था।
- हरित भारत के लिये राष्ट्रीय मिशन:
- इसे वर्ष 2014 में 10 वर्ष की समय-सीमा के साथ भारत के घटते वन आवरण की रक्षा, पुनर्स्थापना और वनों को बढ़ाने के उद्देश्य से अनुमोदित किया गया था।
स्रोत: डाउन टू अर्थ
भारत का ऊन क्षेत्र
प्रिलिम्स के लिये:ऑस्ट्रेलियाई मेरिनो भेड़, भारत का ऊन क्षेत्र मेन्स के लिये:भारत में भेड़ पालन और ऊन क्षेत्र की संभावनाएँ एवं चुनौतियाँ |
चर्चा में क्यों?
ऊन के आयात की बढ़ती मांग के बीच उत्तराखंड में गड़रियों को वर्ष के अंत तक ऑस्ट्रेलियाई मेरिनो भेड़ के साथ इस क्षेत्र में देशी भेड़ों के क्रॉसब्रीडिंग के माध्यम से मेमनों का एक समूह प्राप्त होगा।
- ऑस्ट्रेलियाई मेरिनो भेड़ को परिधानों के लिये इस्तेमाल किये जाने वाले सबसे नरम और बेहतरीन ऊन के लिये जाना जाता है।
- इसके आयात में वृद्धि का प्रमुख कारण मुलायम परिधान और ऊन की गुणवत्ता एवं मात्रा थी।
प्रमुख बिंदु
परिचय:
- भारत ऊन का सातवाँ सबसे बड़ा उत्पादक है और यह कुल वैश्विक उत्पादन का लगभग 2 से 3% हिस्सा है।
- 64 मिलियन से अधिक भेड़ों के साथ भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी भेड़ आबादी वाला देश है। भारत का वार्षिक ऊन उत्पादन 43-46 मिलियन किलोग्राम के बीच है।
- अपर्याप्त घरेलू उत्पादन के कारण\ भारत कच्चे ऊन के आयात पर निर्भर करता है, विशेष रूप से ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड पर।
- इस ऊन का उपयोग घरेलू बाज़ार के लिये कालीन, यार्न, कपड़े और वस्त्र जैसे उत्पादों को तैयार करने तथा विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप में निर्यात हेतु किया जाता है।
- राजस्थान ऊन का सबसे बड़ा उत्पादक है और अपने श्रेष्ठ कालीन ग्रेड चोकला व मगरा ऊन के लिये जाना जाता है।
- कालीन ग्रेड, परिधान ग्रेड की तुलना में अधिक मोटा होता है और भारत के कुल उत्पादन का 85% हिस्सा है।
- परिधान ग्रेड ऊन का उत्पादन 5% से कम होता है।
महत्त्व:
- ऊनी कपड़ा उद्योग 2.7 मिलियन श्रमिकों (संगठित क्षेत्र में 1.2 मिलियन, भेड़ पालन और खेती में 1.2 मिलियन एवं कालीन क्षेत्र में 0.3 मिलियन बुनकर) को रोज़गार प्रदान करता है।
चुनौतियाँ:
- स्वदेशी ऊन के उपयोग में गिरावट:
- वर्ष 2020 तक 10 वर्षों में देश की प्रसंस्करण इकाइयों द्वारा ऊन की खपत में 50% की वृद्धि हुई, लेकिन बीकानेर (राजस्थान) में स्वदेशी ऊन का उपयोग कुल वर्तमान बिक्री का लगभग 10% तक गिर गया।
- चरागाहों में कमी:
- वृक्षारोपण के साथ-साथ शहरीकरण में वृद्धि से देश भर में चरागाह कम हो रहे हैं।
- राज्य के कृषि विभाग के आँकड़ों के अनुसार, राजस्थान में चराई भूमि वर्ष 2007-08 में 1.7 मिलियन हेक्टेयर से गिरकर वर्ष 2017-18 में 1.6 मिलियन हेक्टेयर रह गई।
- वृक्षारोपण के साथ-साथ शहरीकरण में वृद्धि से देश भर में चरागाह कम हो रहे हैं।
- किसानों के रुझान में बदलाव:
- किसानों का ध्यान ऊन से हटकर मांस की ओर अधिक हो गया है।
- तेलंगाना सब्सिडी भेड़ वितरण योजना के माध्यम से मांस उत्पादक नस्ल नेल्लोर (Nellore) को बढ़ावा दे रहा है, जिससे राज्य के कुल भेड़ों की संख्या में इसकी हिस्सेदारी 51% तक हो गई है।
- किसानों का ध्यान ऊन से हटकर मांस की ओर अधिक हो गया है।
- अन्य:
- पुराने और अपर्याप्त करघा प्रसंस्करण सुविधाएँ।
- राज्य ऊन विपणन संगठनों की अप्रभावी भूमिका।
- न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) प्रणाली का अभाव।
- ऊन प्रौद्योगिकी के लिये कोई शैक्षणिक संस्थान नहीं।
सरकार की पहल:
- ऊन क्षेत्र के समग्र विकास के लिये कपड़ा मंत्रालय ने एक एकीकृत कार्यक्रम यानी एकीकृत ऊन विकास कार्यक्रम (Integrated Wool Development Programme- IWDP) तैयार किया है।
आगे की राह
- चूँकि देश में अधिकांश चरवाहे अपनी पसंद से भेड़ नहीं पालते हैं बल्कि वे अन्य विकल्पों की कमी के कारण या पारंपरिक प्रथा के कारण उन्हें पालते हैं। इसलिये इस क्षेत्र में जागरूकता बढ़ाने, चरागाह भूमि तक पहुँच में सुधार, ऊन के विपणन की सुविधा, लाभकारी कीमतों की पेशकश और समाज में निचले पायदान पर रहने वाले चरवाहों के लिये आपूर्ति शृंखला को उन्नत करके इस क्षेत्र को आकर्षक बनाने की आवश्यकता है।
स्रोत: डाउन टू अर्थ
राज्य विभाजन और आरक्षण की व्यवस्था
प्रिलिम्स के लियेअनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अनुच्छेद-341, अनुच्छेद-342 मेन्स के लियेआरक्षण व्यवस्था पर राज्य विभाजन का प्रभाव |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया है कि एक अविभाजित राज्य में आरक्षित श्रेणी से संबंधित व्यक्ति उत्तराधिकारी राज्यों में से किसी एक में आरक्षण के लाभ का दावा करने का हकदार है।
- झारखंड के एक निवासी (अनुसूचित जाति) द्वारा वर्ष 2007 की ‘राज्य सिविल सेवा परीक्षा’ में नियुक्ति से इनकार करने के उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ अपील दायर करने के बाद यह निर्णय लिया गया है।
- बिहार पुनर्गठन अधिनियम, 2000 के तहत संसद द्वारा पारित एक नया राज्य, झारखंड बिहार के एक हिस्से के रूप में बनाया गया था।
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद-3 संसद को नए राज्यों के गठन और मौजूदा राज्यों के परिवर्तन से संबंधित कानून बनाने का अधिकार देता है।
प्रमुख बिंदु
आरक्षण
- सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के मुताबिक, आरक्षित वर्ग से संबंधित व्यक्ति बिहार या झारखंड के उत्तराधिकारी राज्यों में से किसी एक में आरक्षण के लाभ का दावा करने का हकदार है।
- हालाँकि वह दोनों राज्यों में एक साथ आरक्षण के लाभ का दावा नहीं कर सकता है क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद-341(1) और 342(1) के विरुद्ध है।
- अनुच्छेद-341: राष्ट्रपति किसी राज्य या केंद्रशासित प्रदेश के संबंध में और जहाँ राज्य है वहाँ राज्यपाल से परामर्श करने के पश्चात् लोक अधिसूचना द्वारा उन जातियों, मूलवंशों या जनजातियों अथवा जातियों, मूलवंशों या जनजातियों के हिस्सों को विनिर्दिष्ट कर सकता है जिन्हें संविधान के प्रयोजन के लिये यथास्थिति उस राज्य या केंद्रशासित प्रदेश के संबंध में अनुसूचित जातियाँ समझा जाएगा।
- अनुच्छेद- 342: राष्ट्रपति किसी राज्य या केंद्रशासित प्रदेश के संबंध में और जहाँ राज्य है वहाँ उसके राज्यपाल से परामर्श करने के पश्चात् लोक अधिसूचना द्वारा उन जनजातियों या जनजाति समुदायों अथवा जनजातियों या जनजाति समुदायों के हिस्सों को विनिर्दिष्ट कर सकेगा, जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिये राज्य या केंद्रशासित प्रदेश के संबंध में अनुसूचित जनजातियाँ समझा जाएगा।
अन्य राज्य प्रवासी:
- आरक्षित वर्ग के सदस्य जो उत्तरवर्ती बिहार राज्य के निवासी हैं, झारखंड में खुले चयन में भाग लेने के दौरान उन्हें प्रवासी माना जाएगा और वे आरक्षण के लाभ का दावा किये बिना इसके विपरीत सामान्य श्रेणी में भाग ले सकते हैं।
भारत में आरक्षण को नियंत्रित करने वाले संवैधानिक प्रावधान
- भाग XVI केंद्र और राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के आरक्षण से संबंधित है।
- संविधान का अनुच्छेद 15 (4) और 16 (4) राज्य और केंद्र सरकार को अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के लिये सरकारी सेवाओं में सीटें आरक्षित करने में सक्षम बनाता है।
- संविधान (77वाँ संशोधन) अधिनियम, 1995 द्वारा संविधान में संशोधन किया गया और सरकार को पदोन्नति में आरक्षण प्रदान करने में सक्षम बनाने के लिये अनुच्छेद 16 में एक नया खंड (4A) जोड़ा गया।
- बाद में आरक्षण देकर पदोन्नत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों को परिणामी वरिष्ठता प्रदान करने के लिये संविधान (85वाँ संशोधन) अधिनियम, 2001 द्वारा खंड (4A) को संशोधित किया गया था।
- संविधान 81वाँ संशोधन अधिनियम, 2000 में अनुच्छेद 16 (4 B) सम्मिलित किया गया है इस संशोधन के तहत राज्यों को अधिकृत किया गया कि वह किसी वर्ष खाली पड़ी हुई आरक्षित सीटों को अलग से रिक्त सीटें माने तथा उन्हें अगले किसी वर्ष में भरे जाने की व्यवस्था करें। इस तरह की अलग से रिक्त पड़ी सीटों को उस वर्ष भरी जाने वाली सीटों, जो कि 50% आरक्षण की सीमा को पूरा करती हैं के साथ जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिये।
- अनुच्छेद 330 और 332 क्रमशः संसद व राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिये सीटों के आरक्षण के माध्यम से विशिष्ट प्रतिनिधित्व प्रदान करते हैं।
- अनुच्छेद 243D प्रत्येक पंचायत में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिये सीटों को आरक्षित करता है।
- अनुच्छेद 233T प्रत्येक नगर पालिका में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिये सीटों का आरक्षण प्रदान करता है।
- संविधान का अनुच्छेद 335 कहता है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के दावों को प्रशासन की प्रभावकारिता के रखरखाव के साथ लगातार ध्यान में रखा जाएगा।
- 103वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2019 ने केंद्र और राज्यों दोनों को सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में समाज के EWS (आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग) वर्ग को 10% आरक्षण प्रदान करने का अधिकार दिया।