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डेली न्यूज़

  • 19 Aug, 2023
  • 43 min read
शासन व्यवस्था

कावेरी जल विवाद

प्रिलिम्स के लिये:

कावेरी और उसकी सहायक नदी अर्कावती, कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण, केंद्रीय जल आयोग (CWC)

मेन्स के लिये:

अंतर्राज्यीय जल विवाद, अंतर्राज्यीय जल विवाद सुलझाने में कूटनीति, जल प्रशासन

चर्चा में क्यों? 

  • कावेरी जल विवाद एक बार फिर चर्चा के केंद्र में आ गया है, क्योंकि तमिलनाडु ने कर्नाटक द्वारा अपने जलाशय के जल से 24,000 क्यूबिक फीट प्रति सेकंड (क्यूसेक) का प्रवाह सुनिश्चित करने में हस्तक्षेप के लिये भारत के सर्वोच्च न्यायालय से अपील की है।
  • तमिलनाडु ने न्यायालय से कर्नाटक को कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण (CWDT) के फरवरी 2007 के अंतिम फैसले के अनुसार सितंबर 2023 के लिये निर्धारित 36.76 TMC (हजार मिलियन क्यूबिक फीट) का प्रवाह सुनिश्चित करने का निर्देश देने का भी आग्रह किया, जिसे 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने संशोधित किया था। 
  • तमिलनाडु की सर्वोच्च न्यायालय से अपील:

    • यह मुद्दा कर्नाटक द्वारा पहले से व्यक्त सहमति के अनुसार जल की मात्रा छोड़ने से इनकार करने से उत्पन्न हुआ।
      • तमिलनाडु निर्धारित 15 दिन की अवधि के लिये 10,000 क्यूसेक जल छोड़ने का समर्थन करता है। दूसरी ओर, कर्नाटक ने समान 15 दिन की समय-सीमा के लिये 8,000 क्यूसेक जल कम करने का सुझाव दिया है।
  • कर्नाटक का स्पष्टीकरण:
    • कर्नाटक कावेरी जलग्रहण क्षेत्र में कम वर्षा के कारण कम प्रवाह का हवाला देता है, जिसमें उद्गम बिंदु कोडागु भी शामिल है।
      • कर्नाटक ने जून से अगस्त तक कोडागु में 44% वर्षा की कमी को बात कही है।
    • कर्नाटक ने तमिलनाडु की संकट-साझाकरण फार्मूले की मांग को खारिज कर दिया।
  • आशय:
    • तमिलनाडु के किसान कर्नाटक की प्रतिक्रिया का इंतज़ार कर रहे हैं, क्योंकि मेट्टूर जलाशय में केवल 20 TMC जल एकत्रित है, जो दस दिनों तक रहता है।
    • इस जटिल विवाद को सुलझाने में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला अहम है।
    • न्यायसंगत जल प्रबंधन और संघर्ष समाधान के लिये सहयोगात्मक समाधान महत्त्वपूर्ण है।

कावेरी जल विवाद: 

  • एक सावधानीपूर्वक तैयार की गई मासिक अनुसूची कावेरी बेसिन के दो तटवर्ती राज्यों कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच जल के वितरण को नियंत्रित करती है।
    • कर्नाटक के लिये "सामान्य" जल वर्ष के दौरान जून से मई तक तमिलनाडु को 177.25 हज़ार मिलियन क्यूबिक फीट जल साझा करना अनिवार्य है।
    • इस वार्षिक कोटा में जून से सितंबर तक मानसून महीनों के दौरान आवंटित 123.14 हज़ार मिलियन क्यूबिक फीट जल शामिल है।
  • मौजूदा दक्षिण-पश्चिम मानसून के मौसम में अक्सर जल विवाद उत्पन्न होता है, विशेषकर जब बारिश उम्मीद से कम होती है।

कावेरी नदी विवाद : 

  • कावेरी नदी: 
    • इसे तमिल में 'पोन्नी' कहा जाता है और यह दक्षिण भारत की एक पवित्र नदी है।
    • यह दक्षिण-पश्चिमी कर्नाटक राज्य के पश्चिमी घाट की ब्रह्मगिरि पहाड़ी से निकलती है, कर्नाटक तथा तमिलनाडु राज्यों से होकर दक्षिण-पूर्व की ओर बहते हुए बड़े झरनों के रूप में पूर्वी घाट से उतरकर पुद्दुचेरी के माध्यम से बंगाल की खाड़ी में गिरती है।
    • बाएँ तट की सहायक नदियाँ: अर्कावती, हेमावती, शिमसा और हरंगी।
    • दाहिने किनारे की सहायक नदियाँ: लक्ष्मणतीर्थ, सुवर्णवती, नोयिल, भवानी, काबिनी और अमरावती।

  • विवाद: 
    • चूँकि कावेरी नदी कर्नाटक से निकलती है, केरल से आने वाली प्रमुख सहायक नदियों के साथ तमिलनाडु से होकर बहती है तथा पुद्दुचेरी के माध्यम से बंगाल की खाड़ी में गिरती है, इसलिये इस विवाद में 3 राज्य और एक केंद्रशासित प्रदेश शामिल हैं।
    • यह विवाद 150 वर्ष पुरान है, यह वर्ष 1892 और 1924 में तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी तथा मैसूर के बीच मध्यस्थता के दो समझौतों से संबंधित है।
    • इसमें निहित है कि किसी भी निर्माण परियोजना, जैसे कावेरी नदी पर जलाशय का निर्माण, के लिये ऊपरी तटवर्ती राज्य को निचले तटवर्ती राज्य की अनुमति लेना अनिवार्य है।
    • कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी जल विवाद 1974 में शुरू हुआ जब कर्नाटक ने तमिलनाडु की सहमति के बिना पानी मोड़ना शुरू कर दिया।
      • कई वर्षों के बाद इस मुद्दे को हल करने के लिये वर्ष 1990 में कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण की स्थापना की गई। 17 वर्षों के बाद CWDT ने अंततः वर्ष 2007 में एक अंतिम निर्णय जारी किया जिसमें कावेरी जल को चार तटवर्ती राज्यों के बीच विभाजित करने के बारे में बताया गया। इसमें निर्णय लिया गया कि संकट के वर्षों में जल का बँटवारा आनुपातिक आधार पर किया जाएगा।
      • CWDT ने फरवरी 2007 में अपना अंतिम निर्णय जारी किया, जिसमें सामान्य वर्ष में 740 TMC की कुल उपलब्धता पर विचार करते हुए कावेरी बेसिन में चार राज्यों के मध्य जल आवंटन निर्दिष्ट किया गया था।
        • चार राज्यों के मध्य जल का आवंटन इस प्रकार है: तमिलनाडु- 404.25 TMC, कर्नाटक- 284.75 TMC, केरल- 30 TMC, और पुडुचेरी- 7 TMC।
      • वर्ष 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने कावेरी को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित किया, साथ ही  बड़े पैमाने पर CWDT द्वारा निर्धारित जल-बँटवारे की व्यवस्था को बरकरार रखा।
        • इसने केंद्र को कावेरी प्रबंधन योजना को अधिसूचित करने का भी निर्देश दिया। 
        • केंद्र सरकार ने जून 2018 में 'कावेरी जल प्रबंधन प्राधिकरण' और 'कावेरी जल विनियमन समिति' का गठन करते हुए 'कावेरी जल प्रबंधन योजना' को अधिसूचित किया।

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न 

प्रिलिम्स

प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सा ‘संरक्षित क्षेत्र’ कावेरी बेसिन में स्थित है?

  1. नागरहोल राष्ट्रीय उद्यान 
  2. पापिकोंडा राष्ट्रीय उद्यान 
  3. सत्यमंगलम बाघ आरक्षित क्षेत्र 
  4. वायनाड वन्यजीव अभयारण्य

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 3 और 4
(c) केवल 1, 3 और 4
(d) 1, 2, 3 और 4

उत्तर: (c)


मेन्स:

प्रश्न. अंतर्राज्यीय जल विवादों को सुलझाने के लिये संवैधानिक तंत्र समस्याओं का समाधान करने में विफल रहे हैं। क्या यह विफलता संरचनात्मक या प्रक्रिया अपर्याप्तता के कारण है या इसमें दोनों कारण समाहित हैं? चर्चा कीजिये। (2013)

स्रोत: द हिंदू


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

सूरीनाम में भारतीय औषधकोश मान्यता

प्रिलिम्स के लिये:

सूरीनाम में भारतीय औषधकोश मान्यता, भारतीय औषधकोश आयोग (IPC), भारतीय औषधकोश, बौद्धिक संपदा अधिकार, आत्मनिर्भर भारत

मेन्स के लिये:

सूरीनाम में भारतीय औषधकोश मान्यता

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारतीय औषधकोश आयोग (IPC) और सूरीनाम के स्वास्थ्य मंत्रालय के बीच एक समझौता ज्ञापन (MOU) पर हस्ताक्षर किये गए हैं, जिसका उद्देश्य सूरीनाम में दवाओं के लिये एक मानक के रूप में भारतीय औषधकोश (IP) को मान्यता देना है।

  • हस्ताक्षरित समझौता ज्ञापन चिकित्सा विनियमन के क्षेत्र में निकट सहयोग के लिये भारत और सूरीनाम की पारस्परिक प्रतिबद्धता का उदाहरण है।
  • यह सहयोग दोनों देशों में दवाओं की गुणवत्ता सुनिश्चित करते समय संबंधित कानूनों और विनियमों के पालन के महत्त्व की मान्यता में निहित है।

भारतीय औषधकोश आयोग (IPC): 

  • IPC स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की एक स्वायत्त संस्था है।
  • IPC भारत में दवाओं के मानक तय करने के लिये बनाया गया है। इसका मूल कार्य इस क्षेत्र में प्रचलित रोगों के इलाज के लिये आमतौर पर आवश्यक दवाओं के मानकों को नियमित रूप से अद्यतन करना है।
  • यह भारतीय औषधकोश आयोग (IPC) के रूप में  जोड़ने और मौजूदा मोनोग्राफ को अद्यतन करने के माध्यम से दवाओं की गुणवत्ता में सुधार के लिये आधिकारिक दस्तावेज़ प्रकाशित करता है।
  • यह नेशनल फॉर्मूलरी ऑफ इंडिया को प्रकाशित करके जेनेरिक दवाओं के तर्कसंगत उपयोग को बढ़ावा देता है।
  • भारतीय औषधकोश आयोग मनुष्यों और जानवरों के स्वास्थ्य देखभाल के दृष्टिकोण से आवश्यक दवाओं की पहचान, शुद्धता और शक्ति के लिये मानक निर्धारित करता है।
  • IPC, IP संदर्भ पदार्थ (IP Reference Substances- IPRS) भी प्रदान करता है जो परीक्षण के तहत किसी वस्तु की पहचान और IP में निर्धारित उसकी शुद्धता के लिये फिंगरप्रिंट के रूप में कार्य करता है।

समझौता ज्ञापन की मुख्य विशेषताएँ: 

  • भारतीय औषधकोश (IP) की स्वीकृति:
    • समझौता ज्ञापन सूरीनाम में दवाओं के लिये मानकों की एक व्यापक पुस्तक के रूप में IP की स्वीकृति को मज़बूत करता है।
  • सुव्यवस्थित गुणवत्ता नियंत्रण:
    • IP ​​मानकों का पालन करने वाले भारतीय निर्माताओं द्वारा जारी किये गए विश्लेषण प्रमाणपत्र की स्वीकृति के माध्यम से सूरीनाम में दवाओं के दोहरे परीक्षण की आवश्यकता समाप्त हो गई है।
    • यह व्यवस्था अतिरेक को कम करती है, समय और संसाधनों की बचत करती है।
  • लागत प्रभावी मानक:
    • समझौता ज्ञापन उचित लागत पर IPC से IP संदर्भ पदार्थों (IP Reference Substances- IPRS) और अशुद्धता मानकों तक पहुँच की सुविधा प्रदान करता है।
    • यह प्रावधान सूरीनाम की गुणवत्ता नियंत्रण विश्लेषण प्रक्रियाओं को बढ़ाकर लाभान्वित करता है।

समझौता ज्ञापन का महत्त्व:

  • सस्ती दवाइयाँ: 
    • IP की मान्यता सूरीनाम में जेनेरिक दवाओं के विकास को संभव बनाती है। इससे सूरीनाम के नागरिकों के लिये लागत प्रभावी दवाओं की उपलब्धता में वृद्धि होगी, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य सुनिश्चित करने के लक्ष्य के अनुरूप है।
  • आर्थिक लाभ: 
    • भारत के लिये सूरीनाम में भारतीय फार्माकोपिया/औषधकोश की मान्यता 'आत्मनिर्भर भारत (Self-Reliant India)' की दिशा में एक कदम है। यह मान्यता भारतीय चिकित्सा उत्पादों के निर्यात को सुविधाजनक बनाती है, विदेशी मुद्रा अर्जित करती है तथा वैश्विक मंच पर भारत के फार्मास्यूटिकल उद्योग को मज़बूत करती है।
  • भारतीय फार्मास्यूटिकल निर्यात को बढ़ावा देना: 
    • सूरीनाम द्वारा IP की मान्यता से दोहरा परीक्षण और जाँच की आवश्यकता दूर हो जाती है, जिससे भारतीय दवा निर्यातकों को प्रतिस्पर्द्धा में बढ़त मिलती है। नियामक बाधाओं में कमी से भारतीय फार्मास्यूटिकल क्षेत्र के लिये व्यापार अधिक लाभकारी होगा।
  • व्यापक अंतर्राष्ट्रीय मान्यता:
    • भारतीय औषधकोश की आधिकारिक मान्यता पहले ही अफगानिस्तान, घाना, नेपाल, मॉरीशस और सूरीनाम तक विस्तृत है। यह विस्तार वैश्विक फार्मास्यूटिकल परिदृश्य में अपने प्रभाव एवं सहयोग को बढ़ाने के भारत के प्रयासों को दर्शाता है।

सूरीनाम के विषय में मुख्य तथ्य:

  • परिचय: 
    • सूरीनाम दक्षिण अमेरिका के उत्तर-पूर्वी तट पर स्थित है। इसकी सीमा उत्तर में अटलांटिक महासागर, पूर्व में फ्रेंच गुयाना, दक्षिण में ब्राज़ील और पश्चिम में गुयाना से लगती है।
    • सूरीनाम की राजधानी पारामारिबो है, जो सूरीनाम नदी के तट पर स्थित है।
    • सूरीनाम एक लोकतांत्रिक गणराज्य है जिसमें राज्य और सरकार का प्रमुख राष्ट्रपति होता है। देश में बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था है।

  • राजभाषा:
    • 25 नवंबर, 1975 को सूरीनाम, जिसे पहले डच गुयाना के नाम से जाना जाता था, ने नीदरलैंड से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की।
    • इसकी राजभाषा डच है, जो देश के औपनिवेशिक इतिहास को दर्शाती है। हालाँकि कई अन्य भाषाएँ बोली जाती हैं, जिनमें स्रानन टोंगो (सूरीनाम क्रियोल), हिंदुस्तानी, जावानीज़ और अंग्रेज़ी शामिल हैं।
  • अर्थव्यवस्था:
    • सूरीनाम की अर्थव्यवस्था विविध है, जिसमें खनन (सोना, बॉक्साइट, तेल), कृषि (चावल, केले, लकड़ी) और सेवाएँ शामिल हैं।
    • सूरीनाम प्राकृतिक संसाधनों, विशेष रूप से सोना, बॉक्साइट और हाल ही में खोजे गए तेल भंडार से समृद्ध है।

निष्कर्ष:

  • MoU भारत और सूरीनाम के बीच फार्मास्यूटिकल सहयोग, गुणवत्ता नियंत्रण और व्यापार की प्रगति को रेखांकित करता है।
  • यह रणनीतिक सहयोग न केवल दोनों देशों के फार्मास्यूटिकल क्षेत्रों को लाभान्वित करता है, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय फार्मास्यूटिकल बाज़ार में आत्मनिर्भरता और नेतृत्व के लिये भारत की आकांक्षा के अनुरूप भी है।

स्रोत: पी.आई.बी.


भारतीय अर्थव्यवस्था

आयुष क्षेत्र की प्रगति

प्रिलिम्स के लिये:

आयुष, विश्व स्वास्थ्य संगठन, वैश्विक पारंपरिक चिकित्सा शिखर सम्मेलन

मेन्स के लिये:

आयुष से संबंधित पहल, पारंपरिक चिकित्सा का महत्त्व

चर्चा में क्यों? 

आयुर्वेद, योग, प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध एवं होम्योपैथी (AYUSH) क्षेत्र में उल्लेखनीय वृद्धि देखने को मिली है। ऐसा अनुमान है कि इसमें और भी वृद्धि होगी तथा वर्ष 2023 के अंत तक यह 24 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुँच जाएगी।

  • इस आशाजनक परिदृश्य में विश्व स्वास्थ्य संगठन के वैश्विक पारंपरिक चिकित्सा शिखर सम्मेलन में आयुष क्षेत्र केंद्रीय विषय हो सकता है।

आयुष क्षेत्र:

  • परिचय:
    • आयुष क्षेत्र भारत की पारंपरिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों का प्रतिनिधित्व करता है।
    • भारतीय चिकित्सा प्रणाली वैविध्यपूर्ण, सुलभ और सस्ती है तथा इनकी व्यापक सार्वजनिक स्वीकृति है, यह विशेषता उन्हें प्रमुख स्वास्थ्य सेवा प्रदाता बनाती है। एक बड़ी आबादी को उनके द्वारा प्रदान की जाने वाली महत्त्वपूर्ण सेवाओं के परिणामस्वरूप उनके आर्थिक मूल्य में वृद्धि हो रही है।
  • आयुष के अंतर्गत विभिन्न क्षेत्र:
    • आयुर्वेद: समग्र कल्याण पर केंद्रित प्राचीन चिकित्सा प्रणाली।
    • योग: शारीरिक मुद्राओं और ध्यान के माध्यम से तन, मन और आत्मा का एकीकरण।
    • प्राकृतिक चिकित्सा: जल, वायु और आहार जैसे तत्त्वों के उपयोग से प्राकृतिक उपचार।
    • यूनानी: तरल सिद्धांत (Humoral Theory) और हर्बल उपचार के उपयोग से संतुलन की स्थापना।
    • सिद्ध: पाँच तत्त्वों और ह्यूमर तमिल चिकित्सा का आधार है।
    • होम्योपैथी: स्व-उपचार प्रतिक्रियाओं को उत्तेजित करने हेतु धीमी उपचार प्रक्रिया।
  • आयुष क्षेत्र की प्रगति:
    • तीव्र वित्तीय विकास:

      • आयुष दवाओं और सप्लीमेंट्स के उत्पादन में त्वरित वृद्धि देखी गई है।
      • इससे उत्पन्न होने वाला राजस्व 3 बिलियन अमेरिकी डॉलर (वर्ष 2014) से बढ़कर 18 बिलियन अमेरिकी डॉलर (वर्ष 2020) हो गया है।
      • वर्ष 2023 में 24 बिलियन अमेरिकी डॉलर की अनुमानित वृद्धि इसके वित्तीय प्रभाव को दर्शाती है।
    • स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र का एकीकरण:

      • आयुष फाउंडेशन वाले वेलनेस सेंटरों को बहुत अधिक समर्थन मिलता है।
      • वर्ष 2022 में 8.42 करोड़ रोगियों ने 7,000 सक्रिय केंद्रों की सेवाओं का उपयोग किया।
      • वर्तमान स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों का बढ़ता एकीकरण प्रदर्शित करता है।

AYUSH से संबंधित योजनाएँ:

WHO वैश्विक पारंपरिक चिकित्सा शिखर सम्मेलन:

  • परिचय:
    • WHO वैश्विक पारंपरिक चिकित्सा शिखर सम्मेलन एक महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम है जो वैश्विक स्वास्थ्य देखभाल प्रथाओं में पारंपरिक चिकित्सा के महत्त्व को रेखांकित करता है।
    • यह मंच पारंपरिक चिकित्सा के भविष्य पर चर्चा करने के साथ उसे आकार देने के लिये विशेषज्ञों, नीति निर्माताओं, शोधकर्त्ताओं एवं हितधारकों को एक साथ लाता है।
    • पहला WHO पारंपरिक चिकित्सा वैश्विक शिखर सम्मेलन भारत में गुजरात के गांधीनगर में होगा।
    • शिखर सम्मेलन WHO तथा भारत सरकार के बीच एक सहयोगात्मक प्रयास है, जिसके पास  वर्ष 2023 में G20 की अध्यक्षता है।
  • वैश्विक भागीदारी:
    • 90 से अधिक देशों की भागीदारी।
    • विभिन्न क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले विविध हितधारकों का एकीकरण।
  • उद्देश्य और फोकस क्षेत्र:
    • इसका उद्देश्य पारंपरिक चिकित्सा में सर्वोत्तम प्रथाओं, साक्ष्य, डेटा और नवाचारों को साझा करना है।
    • स्वास्थ्य और सतत् विकास में पारंपरिक चिकित्सा की भूमिका पर चर्चा करने के लिये मंच।

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न 

मेन्स:

प्रश्न. भैषजिक कंपनियों द्वारा आयुर्विज्ञान के पारंपरिक ज्ञान को पेटेंट कराने से भारत सरकार किस प्रकार रक्षा कर रही है? (2019)

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


सामाजिक न्याय

NMC पंजीकृत मेडिकल प्रैक्टिशनर (व्यावसायिक आचरण) विनियम 2023

प्रिलिम्स के लिये:

राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग, जेनेरिक औषधियाँ

मेन्स के लिये:

भारत में चिकित्सा शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल में परिवर्तन लाने में राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग का योगदान, जेनेरिक दवाओं से संबंधित नैतिक और कानूनी विमर्श

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में भारत में चिकित्सा शिक्षा और अभ्यास के लिये सर्वोच्च नियामक संस्था, राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ने डॉक्टरों के लिये पेशेवर आचरण संबंधी नए दिशा-निर्देश जारी किये हैं, इन निर्देशों के अनुसार उन्हें विशिष्ट कंपनियों की दवाओं के बजाय केवल जेनेरिक दवाएँ लिखना अनिवार्य हैं।

  • इस कारण देश में डॉक्टरों की सबसे बड़ी संस्था इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने इन दिशा-निर्देशों को "अवैज्ञानिक" और "अव्यावहारिक" बताते हुए विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया है।

राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग के दिशा-निर्देश:

  • सोशल मीडिया उपयोग दिशा-निर्देश:
    • डॉक्टर सत्यापन योग्य और विश्वसनीय जानकारी ऑनलाइन प्रदान कर सकते हैं।
    • रोगी के उपचार की जानकारियों पर चर्चा करने अथवा रोगी स्कैन साझा करने पर प्रतिबंध।
    • रोगी प्रशंसापत्र, चित्र और वीडियो साझा करने पर प्रतिबंध।
    • सोशल मीडिया के माध्यम से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रोगियों से आग्रह करने पर रोक।
  • उपचार से इनकार करने का अधिकार:
    • डॉक्टर दुर्व्यवहार करने वाले, अनियंत्रित या हिंसक रोगियों तथा रिश्तेदारों का उपचार करने से इनकार कर सकते हैं।
    • यदि रोगी इसका व्यय वहन नहीं कर सकता तो डॉक्टर इलाज से इनकार कर सकते हैं, लेकिन चिकित्सीय आपात स्थिति में नहीं।
    • लिंग, नस्ल, धर्म, जाति, सामाजिक-आर्थिक कारकों के आधार पर भेदभाव पर प्रतिबंध
  • प्रिस्क्रिप्शन एवं दवा दिशा-निर्देश:
    • प्रिस्क्रिप्शन, बड़े अक्षरों में लिखे जाने चाहिये।
    • विशिष्ट मामलों को छोड़कर, जेनेरिक दवाइयाँ निर्धारित की जानी चाहिये।
    • निश्चित खुराक संयोजनों का विवेकपूर्ण उपयोग के साथ केवल अनुमोदित संयोजनों को निर्धारित करना।
    • जेनेरिक तथा ब्रांडेड दवाओं की समानता के बारे में शिक्षा को प्रोत्साहित करना।
  • सतत् व्यावसायिक विकास (CPD):
    • डॉक्टरों के लिये अपने सक्रिय वर्षों के दौरान सीखना जारी रखना अनिवार्य है।

    • डॉक्टरों को प्रत्येक पाँच वर्ष में अपने संबंधित क्षेत्रों में 30 क्रेडिट प्वाइंट लेने चाहिये।
    • वार्षिक CPD सत्र की सिफारिश की जाती है, जिसमें अधिकतम 50% ऑनलाइन प्रशिक्षण आयोजित हो।
    • मान्यता प्राप्त डिग्रियों तथा पाठ्यक्रमों को राष्ट्रीय चिकित्सा रजिस्टर में जोड़ा गया।
  • सम्मेलन भागीदारी दिशा-निर्देश:
    • CPD सत्र या सम्मेलन फार्मास्यूटिकल उद्योग द्वारा प्रायोजित नहीं किये जा सकते।
    • डॉक्टरों को फार्मा प्रायोजकों के साथ तीसरे पक्ष की शैक्षणिक गतिविधियों में भाग नहीं लेना चाहिये।
    • डॉक्टरों या उनके परिवारों को फार्मास्यूटिकल कंपनियों से उपहार, आतिथ्य, नकद या अनुदान नहीं मिलना चाहिये।
    • रेफरल या समर्थन के लिये डायग्नोस्टिक सेंटर, चिकित्सा उपकरण आदि से कमीशन स्वीकार करने पर प्रतिबंध लगाना चाहिये।

राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग:

  • परिचय:
    • NMC, वर्ष 2019 में स्थापित एक वैधानिक निकाय है, जिसने मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (Medical Council of India- MCI) का स्थान लिया है तथा राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग अधिनियम (National Medical Commission Act), 2019 के तहत कार्य करता है। यह चिकित्सा शिक्षा के लिये भारत के नियामक निकाय के रूप में कार्य करता है।
  • लक्ष्य और दूरदर्शिता:
    • यह देश के सभी भागों में पर्याप्त एवं उच्च गुणवत्ता वाले चिकित्सा पेशेवरों की उपलब्धता सुनिश्चित करता है।
    • यह न्यायसंगत और सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल को बढ़ावा देता है जो सामुदायिक स्वास्थ्य परिप्रेक्ष्य को प्रोत्साहित करता है तथा चिकित्सा पेशेवरों की सेवाओं को सभी नागरिकों के लिये सुलभ बनाता है।
    • चिकित्सा पेशेवरों को अपने काम में नवीनतम चिकित्सा अनुसंधान को अपनाने तथा अनुसंधान में योगदान देने के लिये प्रोत्साहित करता है।
    • चिकित्सा सेवाओं के सभी पहलुओं में उच्च नैतिक मानकों को लागू करता है।
    • इसके पास मेडिकल पाठ्यक्रमों के लिये फीस को विनियमित करने और यह सुनिश्चित करने के लिये मेडिकल कॉलेजों का निरीक्षण करने का भी अधिकार है कि वे आवश्यक मानकों को पूरा करते हैं।

NMC दिशा-निर्देश:

  • जेनेरिक मेडिसिन के निर्देश:
    • डॉक्टरों द्वारा उठाई गई मुख्य चिंताओं में से एक भारत में उपलब्ध जेनेरिक दवाओं की गुणवत्ता और प्रभावकारिता है।
      • उनका दावा है कि जेनेरिक दवाओं के मानकीकरण और विनियमन का अभाव है तथा उनमें से कई दवाइयाँ अवमानक, अवैध या जाली हैं।
    • IMA के अनुसार, भारत में निर्मित 0.1% से भी कम दवाओं की गुणवत्ता का परीक्षण किया जाता है। डॉक्टरों का तर्क है कि जेनेरिक दवाओं की गुणवत्ता और सुरक्षा सुनिश्चित किये बिना उन्हें लिखना रोगी की देखभाल तथा परिणामों से समझौता कर सकता है एवं उन्हें कानूनी और नैतिक जोखिमों में डाल सकता है।
      • उनका यह भी कहना है कि भारत में जेनेरिक दवाओं के प्रतिकूल प्रभाव या ड्रग इंटरेक्शन की निगरानी के लिये कोई तंत्र नहीं है।
    • नए दिशा-निर्देश डॉक्टरों को एक विशिष्ट ब्रांड लिखने की अनुमति नहीं देते हैं, जिसका अर्थ है कि आपको फार्मासिस्ट स्टॉक में प्रासंगिक सक्रिय घटक वाली कोई भी दवा मिलेगी।
      • इसके अतिरिक्त किसी मरीज़ के लिये सबसे उपयुक्त दवा निर्धारित करने में डॉक्टरों की पसंद प्रतिबंधित हो सकती है, जिससे संभावित रूप से उपचार की प्रभावकारिता प्रभावित हो सकती है।
    • डॉक्टरों का यह भी आरोप है कि दवा निर्माताओं, थोक विक्रेताओं, खुदरा विक्रेताओं और नियामकों के बीच एक समझोता है, जो घटिया तथा नकली दवाओं को बाज़ार में प्रवेश करने की अनुमति देता है।
      • उनकी मांग है कि सरकार को जेनेरिक दवाओं को नुस्खे के लिये अनिवार्य बनाने से पहले उनका सख्त गुणवत्ता नियंत्रण और परीक्षण सुनिश्चित करना चाहिये।
  • अन्य मुद्दे:
    • CPD सत्रों के माध्यम से क्रेडिट अंक जमा करने के लिये डॉक्टरों पर अतिरिक्त बोझ डालना।
      • CPD आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु डॉक्टरों के लिये मान्यता प्राप्त निरंतर प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों की सीमित उपलब्धता।
    • फार्मास्यूटिकल उद्योग के प्रायोजन पर रोक के कारण शैक्षिक सत्र कम हो गए।
      • चिकित्सा प्रगति और अनुसंधान के प्रति डॉक्टरों के प्रदर्शन पर प्रभाव।
    • डॉक्टरों ने व्यापक दिशा-निर्देशों के पालन के कारण प्रशासनिक बोझ बढ़ने पर चिंता व्यक्त की है।
      • विभिन्न स्वास्थ्य देखभाल सेटिंग्स में डॉक्टर द्वारा सामना की जाने वाली व्यावहारिक चुनौतियों के साथ नैतिक आचरण को संतुलित करना।
    • उन स्थितियों को स्पष्ट रूप से चित्रित करने में चुनौतियाँ, जिनमें डॉक्टर नैतिक रूप से उपचार से इनकार कर सकते हैं।
      • मरीज़ों की भुगतान करने की क्षमता के आधार पर डॉक्टरों द्वारा इलाज से इनकार करने से उत्पन्न होने वाली कानूनी और नैतिक चिंताएँ।

    आगे की राह 

    • अधिक परीक्षण प्रयोगशालाएँ स्थापित करके, नियमित निरीक्षण करके, सख्त दंड लगाकर और दवा की गुणवत्ता के लिये एक राष्ट्रीय डेटाबेस बनाकर जेनेरिक दवाओं की गुणवत्ता एवं सुरक्षा बढ़ाना।
    • डॉक्टरों और मरीज़ों को जेनेरिक दवाओं के फायदे व नुकसान के विषय में शिक्षित करें, वैज्ञानिक प्रमाणों का उपयोग करें, मिथकों को दूर करें तथा तर्कसंगत दवा पद्धतियों को बढ़ावा दें।
    • चिकित्सा संस्थानों और पेशेवर निकायों को नियमित CPD सत्र आयोजित करने के लिये प्रोत्साहित करें जो चिकित्सा प्रगति की एक विस्तृत शृंखला को शामिल करते हैं।
    • NMC, चिकित्सकों, फार्मास्यूटिकल उद्योग के प्रतिनिधियों और मरीज़ समर्थन समूहों के बीच खुली चर्चा तथा परामर्श की सुविधा प्रदान करें।
    • उभरती चुनौतियों का समाधान करने और नैतिक रोगी देखभाल सुनिश्चित करने हेतु दिशा-निर्देशों को परिष्कृत एवं अनुकूलित करने के लिये चल रहे फीडबैक तथा सुझावों के लिये मंच बनाएँ।

    स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


    शासन व्यवस्था

    बिहार में चल रहे जातिगत सर्वेक्षण की जटिलताएँ

    प्रिलिम्स के लिये:

    सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना, भारत में जनगणना, सर्वोच्च न्यायालय, जाति-आधारित सर्वेक्षण, इंद्रा साहनी मामला, संविधान का अनुच्छेद 16(4) 

    मेन्स के लिये:

    जाति आधारित सर्वेक्षण का उद्देश्य, जाति आधारित सर्वेक्षण के सकारात्मक एवं नकारात्मक पहलू

    चर्चा में क्यों? 

    बिहार में चल रहे जाति-आधारित सर्वेक्षण ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया है, जिससे इसकी संवैधानिकता, आवश्यकता और संभावित निहितार्थों से संबंधित कानूनी बहस छिड़ गई है।

    जाति आधारित सर्वेक्षण का उद्देश्य:

    • जाति-आधारित सर्वेक्षण 7 जनवरी, 2023 को बिहार सरकार द्वारा शुरू किया गया था। सरकार ने कहा कि इससे सामाजिक-आर्थिक स्थितियों पर विस्तृत जानकारी प्राप्त करने एवं वंचित समूहों के लिये बेहतर नीतियाँ और योजनाएँ बनाने में मदद मिलेगी।
    • इस सर्वेक्षण में बिहार के 38 ज़िलों में 12.70 करोड़ की आबादी की जातिगत जानकारी के साथ-साथ आर्थिक स्थिति का डेटा जुटाना भी शामिल है।

    नोट: वर्ष 2011 में केंद्र सरकार ने सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना (SECC) की। हालाँकि डेटा अशुद्धियों के कारण लगभग 1.3 बिलियन भारतीयों से एकत्र किये गए डेटा का कभी प्रदर्शन नहीं किया गया।

    जाति-आधारित सर्वेक्षण को कानूनी चुनौतियों का सामना क्यों करना पड़ रहा है? 

    • जाति-आधारित सर्वेक्षण को लेकर आलोचकों का विरोध:
      • इस सर्वेक्षण को कई याचिकाकर्ताओं ने पटना उच्च न्यायालय में विभिन्न आधारों पर चुनौती दी थी, जैसे कि संविधान का उल्लंघन, गोपनीयता का उल्लंघन, राज्य सरकार की क्षमता से परे होना, राजनीति से प्रेरित होना और अविश्वसनीय तरीकों पर आधारित होना।
      • याचिकाकर्ताओं का कहना है कि राज्य सरकार के पास केंद्र सरकार द्वारा जारी जनगणना अधिनियम, 1948 की धारा 3 के तहत किसी अधिसूचना के बिना डेटा संग्रह के लिये ज़िला मजिस्ट्रेट और स्थानीय अधिकारियों को नियुक्त करने की कानूनी क्षमता का अभाव है। 
        • साथ ही सभी नागरिकों की एक जातिगत पहचान निर्दिष्ट करना (भले ही इससे राज्य के लाभों का उपयोग सुलभ हो) संविधान के विरुद्ध है। 
          • यह अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत पहचान के अधिकार, गरिमा के अधिकार, सूचनात्मक गोपनीयता के अधिकार और पसंद के अधिकार के खिलाफ है।

    नोट: सातवीं अनुसूची की संघ सूची में संविधान की एकमात्र प्रविष्टि संख्या 69, केंद्र सरकार को जनगणना करने का अधिकार देती है।  

    • दूसरे चरण पर हाईकोर्ट द्वारा रोक:
      • सर्वेक्षण के पहले चरण में घरों को सूचीबद्ध करना शामिल था। सरकार दूसरे चरण में थी जब 4 मई, 2023 को उच्च न्यायालय के आदेश के कारण सर्वेक्षण रोक दिया गया था।
    • सर्वेक्षण को उच्च न्यायालय की मान्यता:
      • हालाँकि हाल ही में उच्च न्यायालय के फैसले के बाद इस कदम का विरोध करने वाली सभी याचिकाएँ खारिज हो गईं, सरकार ने सर्वेक्षण के दूसरे चरण पर काम फिर से शुरू कर दिया।
        • दूसरे चरण में सभी लोगों की जाति, उपजाति और धर्म से संबंधित डेटा एकत्र किया जाना है।
      • न्यायालय ने इंद्रा साहनी वाद (Indra Sawhney Case) के फैसले पर विश्वास करते हुए कहा कि संविधान के अनुच्छेद 16(4) के तहत सामाजिक पिछड़ेपन को सुधारने के लिये जाति की पहचान करना गलत नहीं है।
    • चल रहे जाति सर्वेक्षण को बरकरार रखने वाले पटना उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय में कई याचिकाएँ भी दायर की गई हैं।

    जाति आधारित सर्वेक्षण के सकारात्मक और नकारात्मक पहलू: 

    • सकारात्मक:
      • सूचित नीति निर्माण: जाति-आधारित असमानताओं के बारे में सटीक और अद्यतन जानकारी नीति निर्माताओं को हाशिये पर रहने वाले समुदायों के उत्थान तथा सामाजिक असमानताओं को कम करने के लिये अधिक प्रभावी नीतियों और कार्यक्रमों को डिज़ाइन एवं कार्यान्वित करने में मदद कर सकती है।

        • अंतिम जाति-आधारित जनगणना, जो जनता के लिये खुले तौर पर उपलब्ध है, वर्ष 1931 की गई।
      • अंतर्विभागीयता को संबोधित करना: यह जाति लिंग, धर्म और क्षेत्र जैसे अन्य कारकों के साथ अंतर्विरोध करता है, जिससे हानि होती है।
        • एक सर्वेक्षण इन अंतर्संबंधों को उजागर कर सकता है, जिससे अधिक सूक्ष्म नीतिगत दृष्टिकोण सामने आ सकते हैं जो हाशिये के कई आयामों को लक्षित करते हैं।
    • नकारात्मक: 
    • संभावित कलंक: जाति की पहचान का खुलासा करने से कुछ जातियों से जुड़ी पूर्वकल्पित धारणाओं के आधार पर व्यक्तियों को कलंकित किया जा सकता है या उनके साथ भेदभाव किया जा सकता है।
      • यह ईमानदार प्रतिक्रियाओं को बाधित कर सकता है और सर्वेक्षण की सटीकता को कमज़ोर कर सकता है।
    • राजनीतिक हेर-फेर: राजनेताओं द्वारा अल्पकालिक लाभ के लिये जाति-आधारित डेटा का उपयोग किया जा सकता है, जिससे पहचान-आधारित वोट बैंक की राजनीति हो सकती है। यह वास्तविक नीतिगत मुद्दों से ध्यान भटका सकता है और विभाजनकारी राजनीति को कायम रख सकता है।
    • जाति पहचान की फ्लुईडीटी: सरलीकृत व्याख्याएँ अंतर-जातीय विविधताओं और ऐतिहासिक परिवर्तनों को नज़रअंदाज कर सकती हैं, जिससे ऐसी नीतियाँ बन सकती हैं जो समकालीन जाति गतिशीलता की बारीकियों को संबोधित करने में विफल रहती हैं।
      • इसके अलावा जाति की पहचान स्थिर नहीं है; अंतर-जातीय विवाह जैसे कारकों के कारण उनमें बदलाव आ सकता है। एक सर्वेक्षण को इन गतिशील परिवर्तनों को पहचानने में कठिनाई हो सकती है, जिससे वास्तविकता में गलत प्रतिनिधित्व हो सकता है।

    निष्कर्ष:

    जन जागरूकता अभियान, नियमित समीक्षा और क्षमता निर्माण पहल संयुक्त राष्ट्र सतत् विकास लक्ष्य-10 के सिद्धांतों के अनुरूप असमानताओं को कम करने और सामाजिक एकीकरण को बढ़ावा देने की दीर्घकालिक दृष्टि से योगदान कर सकते हैं।

     UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न 

    प्रिलिम्स:

    प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2009)

    1. जनगणना 1951 और जनगणना 2001 के बीच, भारत की जनसंख्या का घनत्व तीन गुना से अधिक बढ़ गया है।
    2. जनगणना 1951 और जनगणना 2001 के बीच, भारत की जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि दर (घातीय) दोगुनी हो गई है।

    उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

    (a) केवल  1
    (b) केवल 2
    (c) 1 और 2 दोनों
    (d) न तो 1 और न ही 2

    उत्तर: (d)


    मेन्स:

    प्रश्न. आप उन आँकड़ों को किस प्रकार स्पष्ट करते हैं, जो दर्शाते हैं कि भारत में जनजातीय लिंगानुपात, अनुसूचित जातियों के बीच लिंगानुपात के मुकाबले, महिलाओं के अधिक अनुकूल हैं। (2015)

    प्रश्न. यद्यपि भारत में निर्धनता के अनेक विभिन्न प्राक्कलन किये गए हैं, तथापि सभी समय गुज़रने के साथ निर्धनता  स्तरों में कमी आने का संकेत देते हैं। क्या आप सहमत हैं? शहरी और ग्रामीण निर्धनता संकेतकों का उल्लेख के साथ समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2015)

    स्रोत: द हिंदू 


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