भारतीय राजव्यवस्था
तीसरी राष्ट्रीय लोक अदालत
प्रिलिम्स के लिये:राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) , राष्ट्रीय लोक अदालत , विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 , गांधीवादी सिद्धांत , वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR ) प्रणाली, अर्द्ध-न्यायिक निकाय , स्थायी लोक अदालतें मेन्स के लिये:वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) प्रणाली के रूप में लोक अदालत के कार्य और संबंधित चुनौतियाँ। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) द्वारा 27 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों के तालुकों, ज़िलों और उच्च न्यायालयों में वर्ष 2024 की तीसरी राष्ट्रीय लोक अदालत का आयोजन किया गया।
- इसका आयोजन भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश एवं नालसा के कार्यकारी अध्यक्ष न्यायमूर्ति संजीव खन्ना के नेतृत्व में किया गया।
तीसरी राष्ट्रीय लोक अदालत, 2024 की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं ?
- निपटाए गए मामलों की संख्या: तीसरी राष्ट्रीय लोक अदालत, 2024 के दौरान 1.14 करोड़ से अधिक मामलों का निपटारा किया गया। यह अदालतों में बढ़ते लंबित मामलों को कम करने की दिशा में एक बड़ा कदम है।
- निपटाए गए मामलों का विवरण: लोक अदालत में निपटाए गए 1,14,56,529 मामलों में से 94,60,864 मुकदमे-पूर्व मामले थे तथा 19,95,665 मामले विभिन्न अदालतों में लंबित थे।
- निपटाए गए मामलों के प्रकार: इन मामलों में समझौता योग्य आपराधिक अपराध , यातायात चालान, राजस्व, बैंक वसूली, मोटर दुर्घटना, चेक का विवेचक (dishonor), श्रम विवाद, वैवाहिक विवाद (तलाक के मामलों को छोड़कर), भूमि अधिग्रहण, बौद्धिक संपदा अधिकार और अन्य सिविल मामले शामिल हैं।
- निपटान का वित्तीय मूल्य: इन मामलों में कुल निपटान राशि का अनुमानित मूल्य 8,482.08 करोड़ रुपए था।
- सकारात्मक सार्वजनिक प्रतिक्रिया: इस कार्यक्रम में लोगों की भारी भागीदारी देखी गई, जो लोक अदालतों में जनता के मज़बूत विश्वास को दर्शाता है। यह विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 और राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (लोक अदालत) विनियम, 2009 में निर्धारित उद्देश्यों के अनुरूप है।
लोक अदालत क्या है?
- लोक अदालत या जन अदालत: न्यायालय में लंबित या मुकदमे-पूर्व विवादों को समझौते या सौहार्दपूर्ण समाधान के माध्यम से निपटान हेतु एक वैकल्पिक मंच है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर देते हुए कहा है कि लोक अदालत न्यायनिर्णयन की एक प्राचीन भारतीय प्रणाली है जो आज भी प्रासंगिक है और गांधीवादी सिद्धांतों पर आधारित है।
- यह वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR ) प्रणाली का एक हिस्सा है, जिसका उद्देश्य लंभित मामले के संदर्भ में भारतीय न्यायालयों को राहत प्रदान करना है।
- उद्देश्य: इसका उद्देश्य नियमित न्यायालयों में होने वाली लंबी और महँगी प्रक्रियाओं के बिना त्वरित न्याय प्रदान करना है।
- लोक अदालत में किसी की हार या जीत नहीं होती है, इसमें विवाद समाधान हेतु एक सामंजस्यपूर्ण दृष्टिकोण अपनाया जाता है।
- ऐतिहासिक विकास: स्वतंत्र भारत में पहला लोक अदालत शिविर 1982 में गुजरात में आयोजित किया गया था, जिसकी सफलता के बाद इसका विस्तार संपूर्ण देश में किया गया।
- कानूनी ढाँचा: प्रारंभ में कानूनी प्राधिकार के बिना एक स्वैच्छिक संस्था के रूप में कार्य करते हुए, विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 द्वारा लोक अदालतों को वैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
- इस अधिनियम द्वारा संस्था को न्यायालय के आदेश के समान प्रभाव वाले अधिकार प्रदान किये गए।
- आयोजक एजेंसियाँ: लोक अदालतों का आयोजन नालसा, राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण, ज़िला विधिक सेवा प्राधिकरण, सर्वोच्च न्यायालय विधिक सेवा समिति, उच्च न्यायालय विधिक सेवा समिति या तालुक विधिक सेवा समिति द्वारा आवश्यक समझे जाने वाली अवधि और स्थानों पर किया जा सकता है।
- संरचना: एक लोक अदालत में आमतौर पर एक न्यायिक अधिकारी (अध्यक्ष), एक वकील और एक सामाजिक कार्यकर्त्ता शामिल होते हैं।
- क्षेत्राधिकार:
- लोक अदालत को न्यायालय के क्षेत्राधिकार में आने वाले लंबित मामलों और मुकदमे-पूर्व मामलों सहित विवादों पर क्षेत्राधिकार प्राप्त है।
- यह वैवाहिक विवाद , समझौता योग्य आपराधिक अपराध, श्रम विवाद, बैंक वसूली, आवास और उपभोक्ता शिकायतों जैसे विभिन्न मामलों का निपटान करता है।
- लोक अदालत का गैर-समझौता युक्त अपराधों , जैसे गंभीर आपराधिक मामलों पर क्षेत्राधिकार नहीं है , क्योंकि इन्हें समझौते के माध्यम से सुलझाया नहीं जा सकता।
- लोक अदालत को मामले भेजना: मामले लोक अदालत को भेजे जा सकते हैं, यदि
- पक्षकार लोक अदालत में विवाद निपटान हेतु सहमत होते हैं।
- इनमें से एक पक्षकार द्वारा मामले को लोक अदालत में स्थानांतरित हेतु न्यायालय में आवेदन किया जाता है।
- मामला लोक अदालत द्वारा संज्ञान लेने योग्य है।
- मुकदमा-पूर्व स्थानांतरण: मुकदमा-पूर्व विवादों को किसी भी पक्ष से आवेदन प्राप्त होने पर स्थानांतरित किया जा सकता है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि विवादों का निपटारा न्यायालय में पहुँचाने से पहले ही कर दिया जाए।
- शक्तियाँ: लोक अदालत को निम्नलिखित मामलों के संबंध में मुकदमे की सुनवाई करते समय सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के तहत सिविल न्यायालय में निहित शक्तियाँ प्राप्त होंगी।
- किसी भी गवाह को बुलाना और उसकी उपस्थिति सुनिश्चित करना।
- किसी भी दस्तावेज़ की खोज और जाँच।
- शपथ-पत्र पर साक्ष्य प्राप्त करना।
- न्यायालयों या कार्यालयों से सार्वजनिक अभिलेखों या दस्तावेज़ों की मांग करना।
- लोक अदालत की कार्यवाही:
- स्व-निर्धारित प्रक्रिया: लोक अदालत विवादों के निपटान हेतु स्वयं की प्रक्रिया निर्दिष्ट कर सकती है, जिससे औपचारिक न्यायालयों की तुलना में प्रक्रिया सरल और अनौपचारिक हो जाती है।
- न्यायिक कार्यवाही: सभी लोक अदालतों की कार्यवाही को भारतीय दंड संहिता, 1860 (भारतीय न्याय संहिता, 2023) के तहत न्यायिक कार्यवाही माना जाता है और दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023) के तहत सिविल न्यायालय का दर्जा प्राप्त है।
- निर्णय की बाध्यकारिता:
- सिविल न्यायालय का निर्णय: लोक अदालत द्वारा दिये गए निर्णयों को सिविल न्यायालय के निर्णय के समान दर्जा प्राप्त होता है, यह अंतिम और सभी पक्षों पर बाध्यकारी होते हैं।
- अपील न किये जाने योग्य: निर्णयों के विरुद्ध किसी भी न्यायालय में अपील नहीं की जा सकती है, इसलिये लोक अदालतों में लंबी अपील संबंधी प्रक्रियाओं की आवश्यकता के बिना विवादों का तीव्र निपटान किया जा सकता है।
लोक अदालत के क्या लाभ हैं?
- न्यायालय शुल्क: लोक अदालत कोई न्यायालय शुल्क नहीं लेती है , बल्कि विवाद का निपटारा लोक अदालत में किया जाता है तो भुगतान की गई शुल्क वापस कर दी जाती है।
- प्रक्रिया का सरल होना: प्रक्रियाएँ सरल हैं और साक्ष्य या सिविल प्रक्रिया के तकनीकी नियमों के प्रावधानों के अधीन नही हैं, जिसके कारण ही विवादों का शीघ्र निपटारा संभव हो पाता है।
- प्रत्यक्ष संवाद: विवाद के पक्षकार अपने वकील के माध्यम से सीधे न्यायाधीश के साथ संवाद कर सकते हैं , जो कि न्यायालयों में संभव नहीं हो पाता है।
- अंतिम एवं बाध्यकारी निर्णय: लोक अदालत द्वारा दिया गया निर्णय पक्षकारों पर बाध्यकारी होता है जिसे सिविल न्यायालय का दर्जा प्राप्त होता है तथा यह अपील योग्य नहीं होता है , जिससे विवादों के अंतिम रूप से निपटान में देरी नहीं होती।
- निम्न समय अवधि: लोक अदालत शीघ्र समाधान प्रदान करती है, जो औपचारिक लंबी अदालती कार्यवाही से बचाती है।
- सामंजस्यपूर्ण निर्णय: लोक अदालत सहयोग की भावना को बढ़ावा देती है, जहाँ कोई भी पक्ष यह महसूस नहीं करता कि उसने हार मान ली है तथा विवादित पक्षों के बीच संबंध अक्सर बहाल हो जाते हैं।
लोक अदालत के समक्ष चुनौतियाँ क्या हैं?
- भागीदारी की स्वैच्छिक प्रकृति: जबकि लोक अदालतों का उद्देश्य सौहार्दपूर्ण विवाद का समाधान करना है, दोनों पक्षों को स्वेच्छा से भाग लेने के लिये सहमत होना चाहिये। यदि कोई भी पक्ष अनिच्छुक है, तो मामले को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है।
- शीघ्र कार्यवाही पर न्यायिक सावधानी: उच्च न्यायपालिका ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि लोक अदालत की कार्यवाही से किसी भी पक्ष के अधिकारों और निष्पक्ष प्रतिनिधित्व से समझौता नहीं होना चाहिये।
- सीमित दायरा: लोक अदालतों का अधिकार सिविल और समझौता योग्य आपराधिक मामलों तक ही सीमित है , जिससे कानूनी मुद्दों की व्यापक श्रेणी को संबोधित करने की उनकी क्षमता सीमित हो जाती है।
- अपील का अभाव: लोक अदालत का निर्णय अंतिम होता है जिसके निर्णय के बाद अपील नहीं की जा सकती है। यह वादकारी को, खासकर यदि वे परिणाम से असंतुष्ट हैं, तो इस तरह की कार्रवाई करने से हतोत्साहित कर सकता है।
- पक्षों की अनिच्छा: लोग कभी-कभी औपचारिक अदालती प्रक्रियाओं पर ही अड़े रहते हैं , क्योंकि उन्हें डर रहता है कि अदालत के बाहर समझौता उनके हितों को पूरी तरह से पूरा नहीं कर पाएगा।
आगे की राह:
- ADR के मूल सिद्धांतों को मज़बूत करना: लोक अदालतों को अर्द्ध-न्यायिक निकायों के रूप में विकसित होने के बजाय सुलह और निपटान मंच के रूप में अपनी भूमिका की पुष्टि करनी चाहिये।
- यह सुनिश्चित करने के लिये न्यायाधीशों और कार्मिकों का उचित प्रशिक्षण प्रदान करना आवश्यक है ताकि वे औपचारिक न्यायनिर्णयन की अपेक्षा सौहार्दपूर्ण विवाद समाधान को प्राथमिकता दें।
- कमज़ोर वर्गों के लिये पहुँच: एक सक्रिय आउटरीच रणनीति में विधिक सेवा प्राधिकरणों को शामिल किया जा सकता है, जो ग्रामीण और दूर-दराज़ के क्षेत्रों में जाकर मुकदमा-पूर्व परामर्श प्रदान कर सकते हैं तथा नागरिकों को यह मार्गदर्शन दे सकते हैं कि लोक अदालतें किस प्रकार उनके विवादों को सुलझाने में मदद कर सकती हैं।
- तीव्रता बनाम निष्पक्षता के बारे में चिंताओं का समाधान: लोक अदालतें एक स्तरीकृत प्रणाली अपना सकती हैं , जहाँ गहन सुनवाई की आवश्यकता वाले विवादों को अधिक समय तक आवंटित किया जाता है, ताकि जल्दबाज़ी में लिये गए निर्णयों के जोखिम को रोका जा सके, जिसके अन्यायपूर्ण परिणाम हो सकते हैं।
- स्थायी लोक अदालतों के क्षेत्राधिकार का विस्तार: स्थायी लोक अदालतों (जो वर्तमान में सार्वजनिक उपयोगिता सेवाओं तक सीमित हैं) के अधिकार क्षेत्र का विस्तार करके छोटे सिविल मामलें, उपभोक्ता संबंधी मामलें और पारिवारिक जैसे मामलों की अधिक श्रेणियों को कवर किया जा सकता है, जिससे न्यायालय में लंबित मामलों को कम करने तथा न्याय तक पहुँच में सुधार करने में मदद मिलेगी।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: भारत में वैकल्पिक विवाद समाधान प्रणाली के रूप में लोक अदालतों की भूमिका पर चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)प्रारंभिक:प्रश्न: राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2013))
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (c) प्रश्न. लोक अदालतों के संदर्भ में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सही है? (2010) (a) लोक अदालतों के पास पूर्व-मुकदमेबाज़ी के स्तर पर मामलों को निपटाने का अधिकार क्षेत्र है, न कि उन मामलों को जो किसी भी अदालत के समक्ष लंबित हैं। उत्तर: (d) प्रश्न: लोक अदालतों के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2009)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर : A मेन्स:प्रश्न1. राष्ट्रपति द्वारा हाल ही में प्रख्यापित अध्यादेश के द्वारा मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 में क्या प्रमुख परिवर्तन किये गए हैं? इससे भारत के विवाद समाधान तंत्र में किस सीमा तक सुधार होगा? चर्चा कीजिये। (2015) |
भूगोल
आर्कटिक समुद्री बर्फ का भारतीय मानसून पर प्रभाव
प्रिलिम्स के लिये:भारत का मानसून पैटर्न , पश्चिमी विक्षोभ , आर्कटिक सागर की बर्फ पिघलना , एल नीनो और ला नीना मेन्स के लिये:भारत के लिये मानसून का महत्त्व, भारतीय मानसून पर आर्कटिक समुद्री बर्फ का प्रभाव, भारत के लिये बदलते मानसून पैटर्न के निहितार्थ। |
स्रोत: द हिंदू
हाल ही में हुए शोध से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन के कारण आर्कटिक समुद्री बर्फ के स्तर में गिरावट भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून वर्षा (ISMR) को प्रभावित कर रही है, जिससे परिवर्तनशीलता और अप्रत्याशितता बढ़ रही है।
- इसमें पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अंतर्गत भारत के राष्ट्रीय ध्रुवीय एवं महासागर अनुसंधान केंद्र (NCPOR) और दक्षिण कोरिया के कोरिया ध्रुवीय अनुसंधान संस्थान के शोधकर्त्ताशामिल थे।
- एक अन्य अध्ययन में इस मानसून सीज़न में उत्तर-पश्चिमी भारत में हुई महत्त्वपूर्ण बारिश की अधिकता का श्रेय जलवायु संकट से प्रेरित दीर्घकालिक परिदृश्य को दिया गया है।
आर्कटिक समुद्री बर्फ भारतीय मानसून को किस प्रकार प्रभावित करती है?
- मध्य आर्कटिक सागर की बर्फ में कमी: आर्कटिक सागर (आर्कटिक महासागर और उसके आस-पास के समुद्री बर्फ आवरण) में कमी के कारण पश्चिमी और प्रायद्वीपीय भारत में वर्षा में कमी आती है, जबकि मध्य और उत्तरी भारत में वर्षा में वृद्धि होती है।
- ऐसा महासागर से वायुमंडल में ऊष्मा स्थानांतरण में वृद्धि के कारण होता है, जिससे रॉस्बी तरंगें मज़बूत होती हैं, जो वैश्विक मौसम पैटर्न को बदल देती हैं।
- बढ़ी हुई रॉस्बी तरंगें उत्तर-पश्चिम भारत पर उच्च दबाव और भूमध्य सागर पर निम्न दबाव उत्पन्न करती हैं , जिससे उपोष्णकटिबंधीय पूर्वी जेट उत्तर की ओर स्थानांतरित हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप पश्चिमी और प्रायद्वीपीय भारत में अधिक वर्षा होती है।
- बेरेंट्स-कारा सागर क्षेत्र की समुद्री बर्फ में कमी: बेरेंट्स-कारा सागर में समुद्री बर्फ की कमी के कारण दक्षिण-पश्चिम चीन पर उच्च दाब और सकारात्मक आर्कटिक दोलन होता है , जो वैश्विक मौसम पैटर्न को प्रभावित करता है।
- समुद्री बर्फ के कम होने से सागर गर्म होता है, जिससे उत्तर-पश्चिमी यूरोप में साफ आसमान देखने को मिलते है।
- यह व्यवधान उपोष्णकटिबंधीय एशिया और भारत में ऊपरी वायुमंडलीय स्थितियों को प्रभावित करता है , जिसके परिणामस्वरूप पूर्वोत्तर भारत में अधिक वर्षा होती है, जबकि मध्य तथा उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में कम वर्षा होती है।
- जलवायु परिवर्तन की भूमिका: गर्म होते अरब सागर और आस-पास के जल निकायों की आर्द्रता के कारण मौसम का प्रारूप और अस्थिर हो जाता है, जिससे मानसूनी वर्षा में परिवर्तनशीलता बढ़ जाती है।
उत्तर-पश्चिमी भारत में अधिशेष वर्षा से संबंधित अध्ययन के निष्कर्ष क्या हैं?
- अरब सागर की आर्द्रता में वृद्धि: अरब सागर की आर्द्रता में वृद्धि के कारण उत्तर-पश्चिमी भारत में मानसून अधिक आर्द्र रहता है। उच्च उत्सर्जन परिदृश्यों में यह प्रवृत्ति जारी रहने की आशा है ।
- पवन प्रतिरूपों में परिवर्तन: इस क्षेत्र में वर्षा में वृद्धि से पवन प्रतिरूपों में परिवर्तन से संबद्ध है। अरब सागर क्षेत्र में तेज़ पवनें एवं उत्तरी भारत क्षेत्र में पवनों की मंद गति उत्तर-पश्चिमी भारत में आर्द्रता को अवरुद्ध कर लेती है ।
- इन पवनों के कारण अरब सागर से होने वाला वाष्पीकरण भी क्षेत्र में वर्षा में वृद्धि का कारण बनता है।
- दाब प्रवणता में बदलाव: वायु प्रतिरूपों में परिवर्तन दाब प्रवणता में बदलाव के कारण होता है।
- मस्कारेने द्वीप समूह (हिंद महासागर) के आस-पास बढ़े हुए दाब और भूमध्यरेखीय हिंद महासागर में घटते दाब से उत्तर-पश्चिमी भारत में वर्षा होती है।
- पूर्व-पश्चिम दाब प्रवणता में वृद्धि: पूर्वी प्रशांत क्षेत्र पर उच्च दाब से प्रभावित पूर्व-पश्चिम दाब प्रवणता में वृद्धि, इन पवनों को और भी गति प्रदान करती है। इससे मानसून में और भी अधिक आर्द्रता बढ़ जाती है।
‘रॉस्बी’ तरंग
- ये बड़े पैमाने की वायुमंडलीय तरंगें हैं, जिन्हें ग्रहीय तरंगें भी कहा जाता है , जो मुख्य रूप से पृथ्वी के वायुमंडल के मध्य अक्षांशों में उत्पन्न होती हैं।
- वे पश्चिम से पूर्व की ओर बहने वाली उच्च ऊँचाई वाली वायु धाराओं के साथ जेट धाराओं के रूप में बनते हैं और इनका घुमावदार पैटर्न होता है जो उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध में मौसम को प्रभावित करता है।
- ये तरंगें वहाँ सर्वाधिक प्रबल होती हैं जहाँ भूमध्य रेखा और ध्रुवों के बीच तापमान में बहुत अधिक अंतर होता है ।
- वे वैश्विक मौसम पैटर्न को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं तथा तापमान चरम सीमा और वर्षा के स्तर को प्रभावित करता है।
- रॉस्बी तरंगें वैश्विक ताप वितरण को संतुलित करने में मदद करती हैं, ध्रुवीय क्षेत्रों को अधिक ठंडा होने से तथा भूमध्यरेखीय क्षेत्रों को अधिक गर्म होने से रोकती हैं।
भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून वर्षा (ISMR) क्या है?
- भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून वर्षा (ISMR) एक प्रमुख जलवायु घटना है जो तब होती है जब हिंद महासागर से ग्रहण कर वायु भारतीय उपमहाद्वीप की ओर बढ़ती है ।
- यह भारतीय उपमहाद्वीप में जुलाई से सितंबर तक होता है तथा अधिकांश वर्षा जुलाई और अगस्त में होती है।
- ISMR को प्रभावित करने वाले कारक: ISMR भारतीय, अटलांटिक और प्रशांत महासागरों के सतह के तापमान के साथ-साथ मध्य अक्षांशों पर प्रवाहित बड़े पैमाने पर वायुमंडलीय तरंग, सर्कम-ग्लोबल टेलीकनेक्शन (CGT) से प्रभावित होती है ।
- गठन:
- सूर्य का प्रकाश मध्य एशियाई और भारतीय भू-भाग को आस-पास के महासागर की तुलना में अधिक तेज़ी से गर्म करता है, जिससे एक निम्न-दाब पट्टी विकसित होती है जिसे अंतःउष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (ITCZ) के रूप में जाना जाता है।
- दक्षिण-पूर्व से प्रवाहित होने वाली व्यापारिक पवनें कोरिओलिस बल के कारण भारतीय भू-भाग की ओर मुड़ जाती हैं।
- ये पवनें भूमध्य रेखा को पार कर अरब सागर से आर्द्रता ग्रहण कर भारत में वर्षा करती हैं।
- दक्षिण-पश्चिम मानसून दो शाखाओं में विभाजित हो जाता है। एक शाखा पश्चिमी तट (अरब सागर शाखा) में वर्षा करती है तथा दूसरी शाखा से भारत के पूर्वी और पूर्वोत्तर भागों (बंगाल की खाड़ी शाखा) में वर्षा होती है।
- ये शाखाएँ पंजाब और हिमाचल प्रदेश में मिलती हैं।
- भारत में शीतकालीन मानसून वर्षा: पूर्वोत्तर मानसून सर्दियों के दौरान लौटता हुआ मानसून है (साइबेरियाई और तिब्बती पठारों पर बनने वाले उच्च दाब सेल्स के कारण)।
- यह वर्षा अक्तूबर से दिसंबर के दौरान होती है।
भारत के लिये मानसून का क्या महत्त्व है?
- कृषि के लिये उपयोगी: मानसून भारतीय कृषि के लिये महत्त्वपूर्ण है, जो खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण आजीविका को प्रभावित करता है। 61% किसान वर्षा पर निर्भर हैं, एक अच्छी तरह से वितरित मानसून भारत की 55% वर्षा-आधारित फसलों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है और कृषि उत्पादकता तथा अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है।
- जल संसाधन प्रबंधन: भारत में वार्षिक वर्षा 70-90% भाग मानसून ऋतु (जून से सितंबर) के दौरान प्राप्त होता है, जो नदियों, झीलों और भूजल के पुनः जल भराव के लिये आवश्यक है।
- यह अवधि सिंचाई, पेयजल और जलविद्युत के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- आर्थिक प्रभाव: अच्छा मानसून ग्रामीण आय और उपभोक्ता मांग को बढ़ाता है , जबकि खराब मानसून खाद्य मूल्य मुद्रास्फीति का कारण बन सकता है तथा समग्र अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकता है, जिससे मौद्रिक नीति तथा सरकारी व्यय प्रभावित हो सकता है।
- पारिस्थितिकी संतुलन: मानसून भारत के विविध पारिस्थितिकी तंत्रों का समर्थन करता है, जिससे जैवविविधता, वन्यजीव प्रवास और आवास स्वास्थ्य प्रभावित होता है। मानसून के पैटर्न में बदलाव से वनस्पति तथा जीव बाधित हो सकते हैं।
- जलवायु विनियमन: भारतीय मानसून वैश्विक जलवायु विनियमन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, वायुमंडलीय पैटर्न को प्रभावित करता है और एल नीनो व ला नीना जैसी घटनाओं के साथ अंतःक्रिया करता है।
आर्कटिक महासागर:
- यह विश्व का सबसे छोटा महासागर है, जो लगभग उत्तरी ध्रुव पर केंद्रित है।
- इसकी सीमा कनाडा, ग्रीनलैंड, आइसलैंड, नॉर्वे, स्वीडन, फिनलैंड, रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका से लगती है।
- प्रमुख समुद्र: इसमें बैरेंट्स, कारा, लाप्टेव, पूर्वी साइबेरियाई और ब्यूफोर्ट सागर शामिल हैं।
- हिम आवरण: मुख्य रूप से समुद्री बर्फ से ढका हुआ, जो मौसम के अनुसार पिघलता और जमता रहता है।
- जलवायु परिवर्तन: तेज़ी से बढ़ते तापमान के कारण हिम-आवरण में गिरावट हुई है, जिससे नए शिपिंग मार्ग (जैसे- उत्तरी समुद्री मार्ग) विकसित हुए हैं जिससे संसाधनों तक पहुँच बढ़ गई है।
- संसाधन: अनुमानतः विश्व के 13% तेल और 30% प्राकृतिक गैस भंडार यहीं मौजूद हैं।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: भारत में कृषि उत्पादकता पर मानसून के बदलते प्रारूप के प्रभाव पर चर्चा कीजिये। ये परिवर्तन खाद्य संरक्षा और ग्रामीण आजीविका को किस प्रकार प्रभावित करते हैं? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न. भारतीय मानसून का पूर्वानुमान करते समय कभी-कभी समाचारों में उल्लिखित 'इंडियन ओशन डाइपोल (IOD)' के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (2017)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 उत्तर: (b) मेन्सQ. आप कहाँ तक सहमत हैं कि मानवीकारी दृश्भूमियों के कारण भारतीय मानसून के आचरण में परिवर्तन होता रहा है? चर्चा कीजिये। (2015) |
भारतीय राजव्यवस्था
मणिपुर में आपातकालीन उपबंधों का प्रयोग और भारत की संघीय संरचना
प्रिलिम्स के लिये:आपातकालीन उपबंध, अनुच्छेद 355, अनुच्छेद 356, राष्ट्रपति शासन, भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची, भारत का सर्वोच्च न्यायालय, राष्ट्रीय आपातकाल मेन्स के लिये:मणिपुर आंतरिक संकट, भारत की संघीय संरचना और आपातकालीन उपबंध, भारतीय संविधान |
स्रोत: TH
चर्चा में क्यों?
मणिपुर में हाल ही में हुई हिंसा ने केंद्र-राज्य संबंधों और मणिपुर के आंतरिक संकटों से निपटने में केंद्र की भूमिका पर बहस को फिर से छेड़ दिया है तथा ऐसी स्थितियों में आपातकालीन उपबंधों के प्रयोग पर प्रकाश डाला है।
राज्य की सुरक्षा के लिये केंद्र द्वारा आपातकालीन उपबंध क्या हैं?
- संवैधानिक आधार: भारतीय संविधान के भाग XVIII में स्थित अनुच्छेद 355 और 356 ( अनुच्छेद 352 से 360 तक) आपातकाल के दौरान केंद्र तथा राज्य सरकारों की भूमिकाओं को परिभाषित करते हैं।
- अनुच्छेद 355: यह अधिदेश जारी करता है कि केंद्र राज्यों को बाह्य और आंतरिक अशांति (आंतरिक संकट) से बचाव करते हुए यह सुनिश्चित करना होगा कि राज्य सरकारें संवैधानिक रूप से कार्य करें।
- अनुच्छेद 356: किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की अनुमति देता है जब उसकी सरकार संविधान के अनुसार कार्य करने में असमर्थ हो, जिससे केंद्र को सीधे नियंत्रण संभालने में सक्षम बनाया जा सके।
नोट: भारत एक संघ है जिसमें केंद्र और राज्य सरकारें शामिल हैं। भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची संघ और राज्यों के बीच शक्तियों का वितरण करती है।
- भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची के अंतर्गत 'पुलिस' व 'लोक व्यवस्था' राज्य के विषय हैं और इसलिये अपराध को रोकना, उसका पता लगाना, अपराध को रजिस्टर करना, जाँच करना तथा अपराधियों पर मुकदमा चलाना राज्य सरकारों का प्राथमिक कर्त्तव्य है।
मणिपुर की स्थिति पर आपातकालीन उपबंध किस प्रकार लागू होता है?
- संकट की गंभीरता: मणिपुर में व्यापक हिंसा (जिसमें नागरिकों पर हमले और पुलिस शस्त्रागारों की लूट शामिल है) बताती है कि वहाँ स्थिति विधि-व्यवस्था की सामान्य स्थिति से भी अधिक गंभीर हो गई है।
- यह गंभीरता दर्शाती है कि इन परिस्थितियों में आपातकालीन उपबंधों को लागू करना उचित निर्णय हो सकता है।
- राष्ट्रपति शासन नहीं लगाया जाना: हिंसा की गंभीर प्रकृति के बावजूद, अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू नहीं किया गया है।
- अनुच्छेद 356 का प्रयोग न किये जाने से यह चिंता उत्पन्न होती है कि क्या राजनीतिक कारक संकट से निपटने की प्रतिक्रिया को प्रभावित कर रहे हैं।
- अनुच्छेद 355 का अनुप्रयोग: केंद्र द्वारा अनुच्छेद 355 के तहत कदम उठाया रहा है, जिसमें यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि राज्यों को संवैधानिक रूप से संरक्षित और शासित किया जाए।
- हालाँकि आलोचकों का तर्क है कि अब तक की कार्रवाई संकट के पैमाने को प्रभावी ढंग से निपटने के लिये पर्याप्त नहीं हो सकती है।
- इस मामले में अनुच्छेद 355 का प्रयोग विधि-व्यवस्था पुनर्स्थापित करने तथा चल रही हिंसा से निपटने के लिये अधिक निर्णायक उपायों की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
अनुच्छेद 355 और 356 के संबंध में क्या निर्णय हैं?
- ऐतिहासिक दुरुपयोग: भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माता डॉ. बी.आर. अंबेडकर को उम्मीद थी कि अनुच्छेद 355 और 356 अप्रयुक्त रहेंगे तथा ‘निरसित उपबंध’ बन जाएंगे।
- इस लक्ष्य के बावजूद, अनुच्छेद 356 का कई बार दुरुपयोग हुआ है, जिसके परिणामस्वरूप राजनीतिक एजेंडा और विधि-व्यवस्था बनाए रखने की चिंताओं जैसे विभिन्न कारणों से निर्वाचित राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया है।
- एस.आर. बोम्मई मामला, 1994: भारत के सर्वोच्च न्यायालय के इस ऐतिहासिक निर्णय ने अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को बहुत हद तक प्रतिबंधित कर दिया। न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि राष्ट्रपति शासन केवल संवैधानिक तंत्र के विघटन की स्थिति में ही लागू किया जाना चाहिये, न कि केवल कानून और व्यवस्था के मुद्दों के लिये।
- इसने यह भी अभिनिर्धारित किया कि इस प्रकार के अध्यारोपण न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं, तथा यह सुनिश्चित किया गया कि अनुच्छेद 356 का प्रयोग राजनीतिक उद्देश्यों के लिये नहीं किया जाएगा।
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संवैधानिक तंत्र के असफल हो जाने का अर्थ है कि राज्य में प्रशासन का संचालन वास्तव में असंभव है, न कि कोई साधारण समस्या।
- अनुच्छेद 355 का विस्तार: अनुच्छेद 356 पर न्यायिक प्रतिबंध थे, जबकि अनुच्छेद 355 का दायरा बढ़ाया गया है। शुरू में सर्वोच्च न्यायालय की अनुच्छेद 355 की व्याख्या सीमित थी, जो प्रायः इसे अनुच्छेद 356 के प्रयोग से जोड़ती थी।
- हालाँकि नागा पीपुल्स मूवमेंट ऑफ ह्यूमन राइट्स बनाम भारत संघ, 1998, सर्बानंद सोनोवाल बनाम भारत संघ, 2005 और एच.एस. जैन बनाम भारत संघ, 1997 जैसे मामलों में न्यायालय ने निर्वचन को व्यापक बनाया।
- संशोधित दृष्टिकोण संघ को राज्यों की सुरक्षा के लिये व्यापक कार्रवाई करने तथा यह सुनिश्चित करने की अनुमति देता है कि उनका शासन संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप हो।
अनुच्छेद 355 और अनुच्छेद 356 के संबंध में क्या सिफारिशें हैं?
- सरकारिया आयोग (वर्ष 1987): न्यायमूर्ति रणजीत सिंह सरकारिया की अध्यक्षता वाले इस आयोग ने सिफारिश की थी कि अनुच्छेद 356 का प्रयोग बहुत सावधानी से किया जाना चाहिये, केवल अत्यंत दुर्लभ परिस्थितियों में तथा किसी राज्य में संवैधानिक तंत्र के असफल हो जाने की स्थिति को हल करने और टालने के लिये सभी संभावित विकल्पों को समाप्त करने के बाद अंतिम उपाय के रूप में।
- संविधान के कार्यकरण की समीक्षा के लिये राष्ट्रीय आयोग (वर्ष 2002) और पुंछी आयोग (वर्ष 2010): आयोग ने राय दी है कि अनुच्छेद 355 संघ पर एक कर्त्तव्य अध्यारोपित करता है और उसे आवश्यक कार्रवाई करने की शक्ति प्रदान करता है तथा अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन अंतिम उपाय के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिये।
- पुंछी आयोग ने अनुच्छेद 355 और 356 के अंतर्गत ‘स्थानीय आपातकालीन उपबंधों’ का प्रस्ताव रखा है, जिसके तहत पूरे राज्य के बजाय किसी ज़िले या उसके कुछ हिस्सों जैसे स्थानीय क्षेत्रों को राज्यपाल शासन के अधीन रखा जा सकता है। यह स्थानीय आपातकाल तीन महीने से अधिक नहीं चलना चाहिये।
राष्ट्रपति शासन और राष्ट्रीय आपातकाल में क्या अंतर है?
राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356) |
राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352) |
इसकी घोषणा तब की जा सकती है जब किसी राज्य की सरकार संविधान के प्रावधानों के अनुरूप नहीं चल पाती है। इसका संबंध युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह से नहीं है। |
राष्ट्रीय आपातकाल केवल तभी घोषित किया जा सकता है, जब भारत या उसके किसी भाग की सुरक्षा को युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह से खतरा हो। |
इस दौरान, राज्य कार्यपालिका को बर्खास्त कर दिया जाता है और राज्य विधानमंडल को निलंबित या भंग कर दिया जाता है।
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इस दौरान, राज्य कार्यपालिका और विधायिका संविधान के प्रावधानों के तहत प्रदान की गई शक्तियों के अनुरूप कार्य करना जारी रखती हैं।
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इसके तहत संसद राज्य के लिये कानून बनाने की शक्ति राष्ट्रपति या किसी अन्य निर्दिष्ट प्राधिकारी को सौंप सकती है।
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संसद राज्य सूची के विषयों पर केवल स्वयं ही कानून बना सकती है तथा यह शक्ति किसी अन्य निकाय या प्राधिकरण को नहीं सौंप सकती। |
राष्ट्रपति शासन के लिये अधिकतम अवधि तीन वर्ष निर्धारित की गई है।
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राष्ट्रीय आपातकाल के लिये कोई अधिकतम अवधि निर्धारित नहीं है।
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इसके तहत केवल आपातकाल के दौरान राज्य का केंद्र के साथ संबंध संशोधित होता है। |
इसके तहत केंद्र और सभी राज्यों के बीच संबंधों में बदलाव किया किये जा सकते हैं। |
इसकी घोषणा या इसे जारी रखने का अनुमोदन संसद में केवल साधारण बहुमत से ही पारित किया जा सकता है। |
इसकी घोषणा या इसे जारी रखने का अनुमोदन संसद में विशेष बहुमत से ही पारित किया जा सकता है। |
इसका नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। |
इससे नागरिकों के मौलिक अधिकार प्रभावित होते हैं। |
इसे केवल राष्ट्रपति द्वारा ही निरस्त किया जा सकता है। |
लोकसभा इसके निरसन के लिये प्रस्ताव पारित कर सकती है। |
निष्कर्ष
मणिपुर में हुई हिंसा ने केंद्र-राज्य संबंधों और आपातकालीन प्रावधानों पर विवाद को सुर्खियों में ला दिया है। जबकि अनुच्छेद 355 केंद्र को संकट के समय कार्रवाई करने की अनुमति देता है, अनुच्छेद 356 राष्ट्रपति शासन का प्रावधान करता है, लेकिन इसका प्रयोग सावधानी से किया जाना चाहिये। मणिपुर की स्थिति संवैधानिक दिशा-निर्देशों का सम्मान करते हुए गंभीर हिंसा से निपटने के लिये निर्णायक कार्रवाई की आवश्यकता को उजागर करती है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. किसी राज्य की आंतरिक अशांति से निपटने के लिये संवैधानिक उपबंधों का परीक्षण कीजिये। मणिपुर में हाल ही में हुई हिंसा पर ये प्रावधान किस प्रकार लागू होते हैं? |
और पढ़ें: मणिपुर में हिंसा
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न. निम्नलिखित में कौन-सी लोक सभा की अनन्य शक्ति(याँ) है/हैं? (2022)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) 1 और 2 उत्तर: (b) प्रश्न. भारत के संविधान के सदंर्भ में सामान्य विधियों में अंतर्विष्ट प्रतिषेध अथवा निर्बंधन अथवा उपबंध, अनुच्छेद 142 के अधीन सांविधानिक शक्तियों पर प्रतिषेध अथवा निर्बंधन की तरह कार्य नहीं कर सकते। निम्नलिखित में से कौन-सा एक, इसका अर्थ हो सकता है? (2019) (a) भारत के निर्वाचन आयोग द्वारा अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करते समय लिये गए निर्णयों को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। उत्तर: (b) प्रश्न. भारत के राष्ट्रपति के निर्वाचन के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2018)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (b) मेन्सप्रश्न. किन परिस्थितियों में भारत के राष्ट्रपति द्वारा वित्तीय आपातकाल की उद्घोषणा की जा सकती है? ऐसी उद्घोषणा के लागू रहने तक, इसके अनुसरण के क्या-क्या परिणाम होते हैं? (2018) |
भारतीय इतिहास
शिवाजी महाराज और सूरत पर आक्रमण
प्रिलिम्स के लिये:छत्रपति शिवाजी महाराज , राजकोट किला, सिंधुदुर्ग किला, कुर्ते द्वीप, अरब सागर , सिद्दीस, ताप्ती नदी , सूरत का युद्ध, 1664 , फ्रेंकोइस बर्नियर, जीन बैप्टिस्ट टैवर्नियर, कोंडाना किला , अष्टप्रधान , चौथ, सरदेशमुखी। मेन्स के लिये:मराठा साम्राज्य की विरासत और उन्हें संरक्षित करने की आवश्यकता। |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सिंधुदुर्ग ज़िले के मालवण में राजकोट किले में अनावरण की गई छत्रपति शिवाजी महाराज की 35 फुट ऊँची प्रतिमा एक वर्ष से भी कम समय में ढह गई।
- इसके विपरीत, शिवाजी महाराज का सिंधुदुर्ग किला, जो 357 साल पहले बना था, आज भी मज़बूत है और सूरत हमलों जैसे सैन्य अभियानों का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा रहा है। सूरत पर आक्रमण से लूटे गए धन में से अधिकांश का प्रयोग सिंधुदुर्ग किले के निर्माण में किया गया था।
सिंधुदुर्ग किले के बारे में मुख्य बिंदु क्या हैं?
- निर्माण: किले का निर्माण 25 नवंबर, 1664 को शुरू तथा 29 मार्च, 1667 को पूर्ण हुआ।
- यह किला अरब सागर में कुर्ते द्वीप पर शिवाजी महाराज और एक विशेषज्ञ ( हिरोजी इंदुलकर) द्वारा गहन परीक्षण के बाद बनाया गया था।
- निर्माण लागत: किले के निर्माण में एक करोड़ होन्स (hons) की लागत का अनुमान है । होन्स एक सोने का सिक्का था जिसका इस्तेमाल 17 वीं शताब्दी में शिवाजी महाराज के शासनकाल के दौरान मुद्रा के रूप में किया जाता था।
- समुद्री प्रभुत्व: शिवाजी महाराज का दृष्टिकोण एक शक्तिशाली नौसेना के माध्यम से समुद्री नियंत्रण स्थापित करना और आर्थिक स्थिरता को बढ़ाना था।
- इस किले की स्थिति समुद्री पहुँच पर प्रभुत्व रखने तथा सिद्दी, पुर्तगाली और अन्य औपनिवेशिक विदेशी शक्तियों से संरक्षण हेतु रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण थी।
- वास्तुकला उत्कृष्टता: किले का निर्माण 45 सीढ़ियों और चार किलोमीटर लंबी सर्पिलाकार दीवार के साथ किया गया था। यह दस मीटर ऊँचा था। यहाँ बंदूकें तथा गार्ड क्वार्टर जैसी सुविधाएँ भी शामिल थी।
- इसके प्रवेश द्वार पर हनुमान की दक्षिणमुखी प्रतिमा थी तथा अतिरिक्त सुरक्षा हेतु पद्मगढ़, सरजेकोट और राजकोट जैसे छोटे किले भी थे।
- वर्तमान स्थिति: सिंधुदुर्ग किला शिवाजी महाराज की सैन्य और सामरिक शक्ति का एक अभेद्य प्रतीक बना हुआ है। यह मराठा नौसैनिक शक्ति एवं किलेबंदी तकनीकों का एक ऐतिहासिक प्रमाण है।
शिवाजी द्वारा किये गए सूरत पर आक्रमण:
- सूरत का सामरिक महत्त्व: सूरत को 'पूर्व का सबसे बड़ा व्यापारिक केंद्र और मुगल साम्राज्य का सबसे समृद्ध रत्न' के रूप में जाना जाता था।
- सूरत रणनीतिक रूप से ताप्ती नदी के दक्षिणी तट पर अवस्थित था।
- यह यूरोपीय, ईरानी और अरबों के साथ-साथ मुगल व्यापार का प्रमुख केंद्र था और साथ ही मक्का जाने वाले तीर्थयात्रियों के लिये एक पारगमन मार्ग भी था (मक्का का प्रवेश द्वार)।
- सूरत को निशाना बनाना मुगल अर्थव्यवस्था को बाधित करने और मराठा प्रभुत्व स्थापित करने की एक रणनीतिक चाल थी।
- सूरत पर पहला आक्रमण (जनवरी 1664): शिवाजी महाराज ने जनवरी 1664 में सूरत पर आक्रमण कर मुगल सेना को चौंका दिया।
- सूरत के गवर्नर इनायत खान ने भी शरण ग्रहण कर ली, जिससे शहर रक्षाहीन हो गया।
- सूरत का युद्ध( सूरत की लूट) में नकदी, सोना, चाँदी, मोती और बढ़िया कपड़ों सहित अनुमानित एक करोड़ रुपए की संपत्ति प्राप्त हुई।
- लूटी गई धनराशि से सिंधुदुर्ग किले का निर्माण किया गया तथा मराठा नौसेना का विस्तार किया गया।
- प्रभाव: सूरत में शिवाजी महाराज की गतिविधियों ने अंग्रेज़ों को चिंतित कर दिया और उन्होंने अपना गोदाम सूरत से बॉम्बे स्थानांतरित कर दिया। मई 1664 तक पुर्तगालियों ने बॉम्बे को अंग्रेज़ों को उपहार में दे दिया था तथा शिवाजी महाराज के महान कार्य व्यापक रूप से प्रसिद्ध हो गए थे।
- सूरत पर दूसरा आक्रमण (अक्तूबर 1670): वर्ष 1670 में शिवाजी महाराज ने सूरत पर दूसरा आक्रमण किया , जिसमें लगभग 6.6 मिलियन रुपए की संपत्ति लूटी गई।
- डच और अंग्रेज़ व्यापारियों को नुकसान नहीं पहुचाया गया क्योंकि शिवाजी महाराज का प्राथमिक लक्ष्य मुगल ही थे।
- लूट में लगभग पाँच मिलियन रुपए मूल्य के रत्न, सोना और सिक्के शामिल थे।
- सूरत पर दूसरा आक्रमण (अक्तूबर 1670): वर्ष 1670 में शिवाजी महाराज ने सूरत पर दूसरा आक्रमण किया , जिसमें लगभग 6.6 मिलियन रुपए की संपत्ति लूटी गई।
- सूरत आक्रमण का रणनीतिक महत्त्व: आक्रमण/छापों का उद्देश्य मुगल आर्थिक स्थिरता को बाधित करना और मराठा शक्ति का प्रदर्शन करना था। शिवाजी महाराज की सावधानीपूर्वक योजना और रणनीतिक क्रियान्वयन , नागरिकों को पहुँचाने में उनके संयम, सभी का उद्देश्य मुगल नियंत्रण के प्रभाव को कम करना था।
शिवाजी महाराज के संदर्भ में मुख्य बिंदु क्या हैं?
- जन्म: उनका जन्म 19 फरवरी, 1630 को वर्तमान महाराष्ट्र राज्य के पुणे ज़िले के शिवनेरी किले में हुआ था।
- प्रारंभिक जीवन: किशोरावस्था में ही उन्होंने बीजापुर के अधीन तोरणा किले पर सफलतापूर्वक नियंत्रण प्राप्त कर लिया था। उन्होंने बीजापुर के आदिल शाह से कोंडाना किला भी हासिल कर लिया था।
- मृत्यु: छत्रपति शिवाजी की मृत्यु 3 अप्रैल, 1680 को रायगढ़ में तीन सप्ताह तक बुखार रहने के बाद हुई।
महत्त्वपूर्ण लड़ाइयाँ:
युद्ध |
पार्टियाँ |
प्रतापगढ़ का युद्ध, वर्ष 1659 |
छत्रपति शिवाजी महाराज के नेतृत्व वाली मराठा सेना और आदिलशाही सेनापति अफजल खान के बीच। |
सूरत की लड़ाई, वर्ष 1664 |
छत्रपति शिवाजी महाराज और मुगल गवर्नर इनायत खान के बीच । |
पुरंदर का युद्ध, वर्ष 1665 |
छत्रपति शिवाजी महाराज और मुगल सेनापति जय सिंह के बीच । |
संगमनेर की लड़ाई, वर्ष 1679 |
मुगल साम्राज्य और मराठा साम्राज्य के बीच यह आखिरी लड़ाई थी जिसमें मराठा राजा शिवाजी ने लड़ाई लड़ी थी। |
- शीर्षक: 6 जून, 1674 को रायगढ़ में उन्हें मराठों के राजा के रूप में ताज पहनाया गया।
- उसने छत्रपति, शककर्त्ता, क्षत्रिय कुलवंत तथा हैण्डव धर्मोधारक की उपाधियाँ धारण कीं।
- प्रशासन:
- केंद्रीय प्रशासन: राजा राज्य का सर्वोच्च प्रमुख होता था, जिसकी सहायता के लिये आठ मंत्रियों का एक समूह होता था, जिन्हें 'अष्टप्रधान' कहा जाता था ।
- राजस्व प्रशासन: चौथ और सरदेशमुखी आय के महत्त्वपूर्ण स्रोत थे।
- चौथ: यह राजस्व मांग का 1/4 हिस्सा था जो शिवाजी की सेनाओं द्वारा गैर-मराठा क्षेत्रों पर आक्रमण के विरुद्ध सुरक्षा के रूप में मराठों को दिया जाता था।
- सरदेशमुखी: यह उन भूमियों पर 10% का अतिरिक्त कर था जिन पर मराठों ने वंशानुगत अधिकार का दावा किया था।
शिवाजी के बाद मराठों की यात्रा क्या थी?
- शिवाजी महाराज की मृत्यु के बाद अशांति: शिवाजी की मृत्यु के बाद, उनके पुत्र संभाजी सिंहासन पर बैठे, लेकिन वर्ष 1689 में मुगलों द्वारा पकड़े जाने और मार दिये जाने के कारण उनका शासनकाल अल्पकालिक रहा।
- संभाजी की मृत्यु के बाद, साम्राज्य का नेतृत्व शिवाजी के छोटे भाई छत्रपति राजाराम महाराज ने किया।
- पेशवा के अधीन मराठाओं का उत्थान: वर्ष 1713 में बालाजी विश्वनाथ की पेशवा के रूप में नियुक्ति एक महत्त्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुई। उनकी कूटनीति और सुधारों ने मराठा विस्तार एवं एकीकरण की नींव रखी।
- बाजी राव प्रथम (वर्ष 1720-1740) ने मराठा नियंत्रण को उत्तरी भारत में विस्तारित किया और उनकी रणनीतिक दूरदर्शिता तथा सैन्य कौशल ने मराठा प्रभुत्व को सुदृढ़ किया।
- मराठा संघ: 18 वीं शताब्दी के प्रारंभ तक आंतरिक कलह और बाह्य दबावों के कारण मराठा साम्राज्य की केंद्रीय शक्ति कमज़ोर हो गई थी।
- यह संघ एक केंद्रीकृत राज्य नहीं था, बल्कि विभिन्न मराठा राज्यों और नेताओं का गठबंधन था, जिसमें पुणे के पेशवा, इंदौर के होल्कर, बड़ौदा के गायकवाड़ एवं ग्वालियर के सिंधिया शामिल थे ।
- मराठाओं का अंग्रेज़ों से संघर्ष:
- प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (वर्ष 1775-1782): यह युद्ध वर्ष 1782 में सालबाई की संधि के साथ समाप्त हुआ, जिसके परिणामस्वरूप साल्सेट द्वीप अंग्रेज़ों को सौंप दिया गया और सूरत तथा भड़ौच के मराठा बंदरगाहों को ब्रिटिश व्यापार के लिये खोल दिया गया।
- द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध (वर्ष 1803-1805): आर्थर वेलेस्ली के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने सिंधिया और भोंसले की संयुक्त सेनाओं को पराजित किया तथा उन्हें सहायक गठबंधन स्वीकार करने के लिये मजबूर किया गया ।
- तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (वर्ष 1817-1818): यह मराठों की अंतिम हार थी , इस युद्ध के परिणामस्वरूप मराठा साम्राज्य का विघटन हो गया।
निष्कर्ष:
प्रतिमा को लेकर चल रही बहस ऐतिहासिक व्यक्तित्व के सम्मान और संरक्षण की आवश्यकता पर ज़ोर देती है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि आधुनिक श्रद्धांजलि ऐतिहासिक उपलब्धियों की सच्ची विरासत को प्रतिबिंबित करती है। समकालीन प्रशासन और परियोजना प्रबंधन की तीव्र सार्वजनिक आलोचना से ऐतिहासिक शख्सियतों के बेहतर संरक्षण एवं सांस्कृतिक धरोहर स्थलों के रूप में उनके मूल्य को सुदृढ़ करने में मदद मिलेगी।
अधिक पढ़ें: मराठा सैन्य परिदृश्य
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न. शिवाजी की रणनीतियों और नेतृत्व ने मुगल विस्तार के खिलाफ मराठा प्रतिरोध को किस प्रकार आकार दिया? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, पिछले वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न. अहमद शाह अब्दाली द्वारा भारत पर आक्रमण करने और पानीपत की तीसरी लड़ाई लड़ने का तात्कालिक कारण क्या था? (2010) (a) वह लाहौर से अपने वायसराय तैमूर शाह को मराठों द्वारा निकाले जाने का बदला लेना चाहता था। उत्तर: (a) मेन्सप्रश्न. सुस्पष्ट कीजिये कि मध्य-अठारहवीं शताब्दी का भारत विखंडित राज्यतंत्र की छाया से किस प्रकार ग्रसित था? (2017) |