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डेली न्यूज़

  • 17 Apr, 2023
  • 42 min read
भारतीय इतिहास

डॉ. भीमराव अंबेडकर का जीवन और विरासत

प्रिलिम्स के लिये:

गोलमेज़ सम्मेलन, पूना पैक्ट, प्रारूप समिति, बौद्ध धर्म, भारत रत्न।

मेन्स के लिये:

डॉ. भीमराव अंबेडकर का योगदान, वर्तमान समय में अंबेडकर की प्रासंगिकता।

चर्चा में क्यों?

देश भर में 14 अप्रैल, 2023 को डॉ. भीमराव अंबेडकर जयंती मनाई गई।

डॉ. भीमराव अंबेडकर:

  • परिचय:  
    • डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर एक प्रमुख भारतीय विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, समाज सुधारक और राजनीतिज्ञ थे।
    • उनका जन्म 14 अप्रैल, 1891 में मध्य प्रदेश के महू में हुआ था।
      • उनके पिता सूबेदार रामजी मालोजी सकपाल पढ़े-लिखे व्यक्ति और संत कबीर के अनुयायी थे।
  • शिक्षा:  
    • अंबेडकर ने बॉम्बे विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की और आगे की पढ़ाई न्यूयॉर्क में कोलंबिया विश्वविद्यालय एवं लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में की।
  • योगदान:
    • वर्ष 1924 में उन्होंने दलित वर्गों के कल्याण हेतु एक संगठन की शुरुआत की और वर्ष 1927 में दलित वर्गों की स्थिति को उजागर करने के लिये बहिष्कृत भारत समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू किया।
      • उन्होंने मार्च 1927 में महाड सत्याग्रह का भी नेतृत्त्व किया।
    • उन्होंने तीनों गोलमेज़ सम्मेलनों में भाग लिया।
    • वर्ष 1932 में डॉ. अंबेडकर ने महात्मा गांधी के साथ पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर किये जिसमें दलित वर्गों (कम्युनल अवार्ड) हेतु अलग निर्वाचक मंडल के विचार को त्याग दिया गया।
    • वर्ष 1936 में उन्होंने दलित वर्गों के हितों की रक्षा हेतु इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी का गठन किया।
    • वर्ष 1942 में डॉ. अंबेडकर को भारत के गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद में श्रम सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया और वर्ष 1946 में बंगाल से संविधान सभा हेतु चुना गया।
    • डॉ. अंबेडकर वर्ष 1947 में स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल में कानून मंत्री बने।
      • हिंदू कोड बिल पर मतभेदों को लेकर उन्होंने वर्ष 1951 में कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया। 
  • अतिरिक्त विवरण:  
    • उन्होंने बाद में बौद्ध धर्म को अपना लिया। 6 दिसंबर, 1956 को उनका निधन हो गया, जिसे महापरिनिर्वाण दिवस के रूप में मनाया जाता है।
      • चैत्य भूमि, मुंबई में डॉ. भीमराव अंबेडकर का स्मारक है।  
    • उन्हें वर्ष 1990 में भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया था
  • महत्त्वपूर्ण कार्य:
    • पत्रिकाएँ:
      • मूकनायक (1920)
      • बहिष्कृत भारत (1927)
      • समता (1929)
      • जनता (1930)
    • पुस्तकें:
      • एनीहिलेशन ऑफ कास्ट 
      • बुद्ध और कार्ल मार्क्स
      • द अनटचेबल: हू आर दे एंड व्हाय दे हैव बिकम अनटचेबल्स
      • बुद्ध एंड हिज़ धम्म
      • द राइज़ एंड फॉल ऑफ हिंदू वुमेन
    • संगठन:
      • बहिष्कृत हितकारिणी सभा (1923)
      • इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (1936)
      • अनुसूचित जाति संघ (1942) 
  • वर्तमान समय में अंबेडकर की प्रासंगिकता: 
    • उनके विचार एवं योगदान विशेष रूप से जाति-आधारित भेदभाव के विरुद्ध लड़ाई तथा सामाजिक न्याय के लिये संघर्ष में भारत के वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में भी प्रासंगिक बने हुए हैं। 
    • एक समावेशी और समतावादी समाज का उनका दृष्टिकोण, जैसा कि भारतीय संविधान में निहित है, देश के भविष्य के विकास के लिये एक मार्गदर्शक सिद्धांत बना हुआ है। 
      • इसके अतिरिक्त सशक्तीकरण के साधन के रूप में शिक्षा पर उनका ध्यान वर्तमान समय में विशेष रूप से प्रासंगिक है क्योंकि भारत एक वैश्विक नेता के रूप में अपनी पूरी क्षमता हासिल करना चाहता है।
    • डॉ. अंबेडकर की विरासत भारत की राष्ट्रीय पहचान का एक अभिन्न अंग है और उनके विचार भविष्य की पीढ़ियों को प्रेरित करते रहेंगे।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित में से किस पार्टी की स्थापना डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने की थी? (2012)

  1. पीज़ेंट्स एंड वर्कर्स पार्टी ऑफ इंडिया
  2. ऑल इंडिया शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन 
  3. द इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (B) 


मेन्स:

प्रश्न. अलग-अलग दृष्टिकोण और रणनीतियों के बावजूद महात्मा गांधी तथा डॉ. बी.आर. अंबेडकर का दलितों के उत्थान का एक सामान्य लक्ष्य था। स्पष्ट कीजिये। (2015)

स्रोत: पी. आई. बी.


शासन व्यवस्था

केंद्र सरकार स्वास्थ्य योजना

प्रिलिम्स के लिये:

केंद्र सरकार स्वास्थ्य योजना

मेन्स के लिये:

भारत की स्वास्थ्य अवसंरचना

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में स्वास्थ्य मंत्रालय ने सभी CGHS लाभार्थियों के लिये केंद्र सरकार स्वास्थ्य योजना पैकेज दरों में संशोधन की घोषणा की है और वीडियो कॉल सुविधा प्रदान करके कर्मचारियों के लिये CGHS रेफरल प्रक्रिया को सुव्यवस्थित रूप प्रदान किया है।

  • केंद्र सरकार ने आउट-पेशेंट डिपार्टमेंट (OPD)/इन-पेशेंट डिपार्टमेंट (IPD) के लिये परामर्श शुल्क की CGHS दरों को 150 रुपए से बढ़ाकर 350 रुपए कर दिया है और साथ ही ICU शुल्क में संशोधन कर इसे 5,400 रुपए कर दिया गया है।

CGHS में किये गए हालिया परिवर्तनों के प्रभाव:  

  • स्वास्थ्य सेवाओं की लागत: 
    • परामर्श शुल्क, ICU शुल्क और कमरे के किराये में वृद्धि सहित CGHS पैकेज दरों में संशोधन से लाभार्थियों के लिये स्वास्थ्य देखभाल लागत में वृद्धि होने की संभावना है। जबकि संशोधित दरों का उद्देश्य स्वास्थ्य सेवाओं की बढ़ती लागत को कवर करना है, इस कदम से कुछ लोगों के लिये स्वास्थ्य देखभाल का खर्च उठाना अधिक कठिन हो सकता है।
  • स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच:
    • वीडियो कॉल रेफरल प्रक्रिया से स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच में सुधार की उम्मीद है, खासकर उन लोगों के लिये जिन्हें वेलनेस सेंटर में व्यक्तिगत रूप से जाना मुश्किल है। यह भी अनुमान लगाया गया है कि यह सरलीकृत प्रक्रिया लाभार्थियों के लिये विलंबता और असुविधा को कम करके CGHS की दक्षता में वृद्धि करेगी।

CGHS:

  • परिचय:
    • CGHS एक व्यापक स्वास्थ्य सेवा योजना है जिसके तहत केंद्र सरकार द्वारा अपने कर्मचारियों, पेंशनभोगियों और उनके आश्रितों को लाभ प्रदान किया जाता है।
    • इसकी स्थापना वर्ष 1954 में सरकारी कर्मचारियों और उनके परिवारों को गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करने के उद्देश्य से की गई थी।
  • प्रदान की जाने वाली सुविधाएँ:
    • कल्याण केंद्रों में OPD उपचार, जिसमें दवाएँ उपलब्ध कराना शामिल है।
    • CGHS से रेफरल के साथ पॉलीक्लिनिक, सरकारी अस्पतालों और CGHS नामांकित अस्पतालों में विशेषज्ञ परामर्श।
    • कैशलेस उपचार सुविधाओं के साथ सरकारी एवं नामांकित अस्पतालों में पेंशनभोगियों के लिये OPD और आंतरिक रोगी उपचार तथा पैनलबद्ध अस्पतालों एवं डायग्नोस्टिक केंद्रों में चिह्नित लाभार्थियों के लिये उपचार। 
    • आपात स्थिति में सरकारी या निजी अस्पतालों में हुए उपचार खर्च की प्रतिपूर्ति
    • अनुमति प्राप्त करने के बाद श्रवण यंत्र, कृत्रिम अंग और उपकरणों की खरीद के लिये किये गए व्यय की प्रतिपूर्ति। 
    • मातृत्त्व और बाल स्वास्थ्य सेवाएँ, परिवार कल्याण और चिकित्सा परामर्श। 
    • आयुर्वेद, होम्योपैथी, यूनानी और सिद्ध औषधि प्रणाली (आयुष) के तहत दवाओं का वितरण।
  • उपलब्धियाँ:
    • वर्तमान में पूरे भारत के 79 शहरों में लगभग 42 लाख लाभार्थी CGHS द्वारा कवर किये गए हैं तथा सेवाओं की पहुँच में सुधार के लिये और अधिक शहरों को शामिल करने का प्रयास किया जा रहा है। 

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-से 'राष्ट्रीय पोषण मिशन (नेशनल न्यूट्रिशन मिशन)' के उद्देश्य हैं? (2017)

  1. गर्भवती महिलाओं तथा स्तनपान कराने वाली माताओं में कुपोषण संबंधी जागरूकता उत्पन्न करना। 
  2. छोटे बच्चों, किशोरियों तथा महिलाओं में रक्ताल्पता की घटना को कम करना। 
  3. बाजरा, मोटे अनाज और अपरिष्कृत चावल के उपभोग को बढ़ाना। 
  4. मुर्गी के अंडे के उपभोग को बढ़ाना।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 1, 2 और 3
(c) केवल 1, 2 और 4
(d) केवल 3 और 4

उत्तर: (a)

व्याख्या:

  • राष्ट्रीय पोषण मिशन (पोषण अभियान) महिला और बाल विकास मंत्रालय, भारत सरकार का एक प्रमुख कार्यक्रम है, जो आंँगनवाड़ी सेवाओं, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना, स्वच्छ-भारत मिशन आदि जैसे विभिन्न कार्यक्रमों के साथ अभिसरण सुनिश्चित करता है।
  • राष्ट्रीय पोषण मिशन (National Nutrition Mission- NNM) का लक्ष्य 2017-18 से शुरू होकर अगले तीन वर्षों के दौरान 0-6 वर्ष के बच्चों, किशोरियों, गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं की पोषण स्थिति में समयबद्ध तरीके से सुधार करना है। अतः कथन 1 सही है।
  • NNM का लक्ष्य स्टंटिंग, अल्पपोषण, एनीमिया/रक्ताल्पता (छोटे बच्चों, महिलाओं और किशोर लड़कियों के बीच) एवं बच्चों के जन्म के समय कम वज़न की समस्या को कम करना है। अत: कथन 2 सही है।
  • NNM के तहत बाजरा, बिना पॉलिश किये चावल, मोटे अनाज एवं अंडों की खपत से संबंधित ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। अत: कथन 3 और 4 सही नहीं हैं।

अतः विकल्प (a) सही है।


प्रश्न. "एक कल्याणकारी राज्य की नैतिक अनिवार्यता के अलावा प्राथमिक स्वास्थ्य संरचना धारणीय विकास की एक आवश्यक पूर्व शर्त है।" विश्लेषण कीजिये। (मुख्य परीक्षा, 2021)

स्रोत: द हिंदू


सामाजिक न्याय

बाल संदिग्धों के आकलन हेतु दिशा-निर्देश

प्रिलिम्स के लिये:

NCPCR, पोस्को, JJB, अनुच्छेद 21, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (DPSP)

मेन्स के लिये:

बाल संदिग्धों के आकलन हेतु दिशा-निर्देश।

चर्चा में क्यों? 

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (National Commission for Protection of Child Rights- NCPCR) ने यह निर्धारित करने हेतु आकलन के लिये दिशा-निर्देश जारी किये हैं कि आपराधिक मामलों में बच्चे को नाबालिग माना जाना चाहिये या नहीं। बच्चों द्वारा किये गए आपराधिक मामले किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 के तहत ‘जघन्य’ अपराध श्रेणी के अंतर्गत आते हैं।

प्रमुख बिंदु

  • बाल संदिग्धों का आकलन विशेषज्ञों की एक टीम द्वारा किया जाना चाहिये, जिसमें बाल मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सक, एक चिकित्सक और सामाजिक कार्यकर्त्ता शामिल हों।
    • आकलन में बच्चे की उम्र, विकासात्मक अवस्था और परिपक्वता स्तर के साथ-साथ आघात या दुर्व्यवहार के किसी भी विवरण को ध्यान में रखा जाना चाहिये।
  • टीम को बच्चे की संज्ञानात्मक क्षमता और उस पर लगे आरोपों को समझने की क्षमता पर भी विचार करना चाहिये।
  • बाल संदिग्धों को कानूनी सहायता और बाल कल्याण एजेंसियों द्वारा सहायता प्रदान की जाएगी।
  • किशोर न्याय बोर्ड (Juvenile Justice Board- JJB) संदिग्ध बच्चे का प्रारंभिक मूल्यांकन करने के लिए ज़िम्मेदार होगा।
    • JJB को बच्चे को पहली बार उसके सामने लाए जाने की तारीख से तीन महीने के भीतर इस आकलन को पूरा करना होगा।
    • यदि JJB यह निर्धारित करता है कि बच्चे का परीक्षण एक वयस्क के रूप में किये जाने की आवश्यकता है, तो वह मामले को बाल न्यायालय में स्थानांतरित किया जाएगा। JJB अनिवार्य रूप से आकलन प्रक्रिया में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है और यह निर्धारित करता है कि मामला किशोर न्यायालय या वयस्क न्यायालय में चलाया जाना चाहिये या नहीं।

JJ अधिनियम, वर्ष 2015 के तहत अपराधों की श्रेणियाँ और उनका विभेदीकरण:

  • JJ अधिनियम, वर्ष 2015 बच्चों द्वारा किये गए अपराधों को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत करता है: छोटे अपराध, गंभीर अपराध और जघन्य अपराध।  
    • छोटे अपराधों में वे शामिल हैं जिनके लिये किसी भी कानून के तहत अधिकतम कारावास तीन वर्ष तक की कैद है
    • गंभीर अपराधों में वे अपराध शामिल हैं जिनके लिये न्यूनतम कारावास तीन वर्ष से अधिक लेकिन सात वर्ष से अधिक नहीं है।
    • जघन्य अपराधों में वे शामिल हैं जिनके लिये भारतीय दंड संहिता या किसी अन्य कानून के तहत न्यूनतम सात वर्ष या उससे अधिक का कारावास है।
  • एक विशिष्ट प्रावधान है जिसके तहत जघन्य अपराध की जाँच की शुरुआत बच्चे की उम्र के आधार पर की जाती है और इस प्रारंभिक आकलन के लिये दो आवश्यक शर्तों को पूरा करने की आवश्यकता होती है:
    • अपराध अधिनियम में परिभाषित ‘जघन्य’ की श्रेणी में होना चाहिये।
    • जिस बच्चे ने कथित रूप से अपराध किया है उसकी आयु 16-18 वर्ष के बीच होनी चाहिये।

दिशा-निर्देशों की आवश्यकता: 

  • भलाई सुनिश्चित करना:  
    • जिन बच्चों पर जघन्य अपराध करने का आरोप लगाया जाता है, वे कमज़ोर होते हैं, अतः उनकी शारीरिक और भावनात्मक भलाई सुनिश्चित करने हेतु विशेष देखभाल एवं ध्यान देने की आवश्यकता हो सकती है।
    • आकलन किसी भी अंतर्निहित मानसिक स्वास्थ्य मुद्दों, आघात या दुर्व्यवहार की पहचान करने में मदद कर सकता है जिसके लिये हस्तक्षेप की आवश्यकता हो सकती है।
  • संज्ञानात्मक क्षमता निर्धारित करना:  
    • बच्चों के संज्ञानात्मक विकास के विभिन्न स्तर होते हैं, जो उनके खिलाफ आरोपों को समझने और कानूनी कार्यवाही में भाग लेने की उनकी क्षमता को प्रभावित कर सकते हैं।
    • यह आकलन उनकी समझ के स्तर को निर्धारित करने में मदद कर सकता है और यह सुनिश्चित कर सकता है कि उन्हें उन कार्यों हेतु गलत तरीके से ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है जिन्हें वे पूरी तरह से समझ नहीं सकते हैं।
  • कानूनी निर्णय:  
    • बाल संदिग्धों का आकलन न्यायाधीशों और कानूनी पेशेवरों को महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान कर सकता है, जिन्हें किसी मामले में आगे बढ़ने के तरीके के बारे में निर्णय लेने की आवश्यकता हो सकती है।
      • उदाहरण के लिये आकलन यह निर्धारित करने में मदद कर सकता है कि क्या कोई बच्चा परीक्षण हेतु तैयार है या क्या अन्य उपाय, जैसे पुनर्वास या परामर्श अधिक उपयुक्त हो सकते हैं।

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (National Commission for Protection of Child Rights- NCPCR): 

  • NCPCR बाल अधिकार संरक्षण आयोग (CPCR) अधिनियम, 2005 के तहत मार्च 2007 में स्थापित एक वैधानिक निकाय है।
  • यह महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण में है।
  • आयोग का प्राथमिक कार्य यह सुनिश्चित करना है कि सभी देशों में निर्मित सभी कानून, नीतियाँ, कार्यक्रम और प्रशासनिक तंत्र, बाल अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में भारतीय संविधान एवं बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के अनुरूप हों।
  • यह शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के तहत एक बच्चे के मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार से संबंधित शिकायतों की जाँच करता है।
  • यह यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (Protection of Children from Sexual Offences- POCSO) अधिनियम, 2012 के कार्यान्वयन की निगरानी करता है।

बच्चों से संबंधित संवैधानिक प्रावधान: 

  • संविधान प्रत्येक बच्चे को गरिमा के साथ जीने का अधिकार (अनुच्छेद 21), व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 21), निजता का अधिकार (अनुच्छेद 21), समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14) और/या उसके विरुद्ध भेदभाव का अधिकार (अनुच्छेद 15), शोषण के खिलाफ अधिकार (अनुच्छेद 23 एवं 24) की गारंटी देता है।
  • 6-14 वर्ष आयु वर्ग के सभी बच्चों के लिये मुफ्त और अनिवार्य प्रारंभिक शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 21A)।
  • राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों एवं विशेष रूप से अनुच्छेद 39 (f) के तहत राज्य की यह सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी है कि बच्चों के जीवन के विकास, उन्हें स्वतंत्रता एवं सम्मानपूर्वक जीवन जीने के लिये अवसर और संसाधन प्रदान किये जाएँ। साथ ही बच्चों और किशोरों के शोषण तथा उन्हें भौतिक एवं नैतिक परित्याग से बचाना राज्य का कर्त्तव्य है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


सामाजिक न्याय

द स्टेटस ऑफ वुमेन इन एग्रीफूड सिस्टम्स: FAO

प्रिलिम्स के लिये:

FAO, लैंगिक समानता, कृषि खाद्य प्रणाली, SDG, कोविड-19, CAC, WFP

मेन्स के लिये: 

द स्टेटस ऑफ वुमेन इन एग्रीफूड सिस्टम्स।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में खाद्य और कृषि संगठन (Food and Agriculture Organization- FAO) ने कृषि क्षेत्र में लैंगिक समानता के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए "द स्टेटस ऑफ वुमेन इन एग्रीफूड सिस्टम्स" शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की है।

प्रमुख बिंदु 

  • लैंगिकता आधारित बाधाएँ: 
    • महिलाएँ कृषि कार्यबल में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं, जो वैश्विक कृषि श्रम शक्ति का लगभग 40% हिस्सा है। हालाँकि महिलाओं को अक्सर महत्त्वपूर्ण लैंगिकता आधारित बाधाओं का सामना करना पड़ता है जो संसाधनों, प्रौद्योगिकी एवं बाज़ारों तक उनकी पहुँच को सीमित करती हैं, साथ ही उनकी उत्पादकता तथा आय को प्रभावित कर सकती हैं।
  • अपरिवर्तित अंतराल: 
    • हाल के वर्षों में भले ही महिलाओं ने डिजिटल तकनीक और वित्तीय सेवाओं जैसे कुछ संसाधनों तक अधिक पहुँच प्राप्त की है, फिर भी कई क्षेत्रों में विशेष रूप से ग्रामीण महिलाओं हेतु अंतराल बना हुआ है या इसमें वृद्धि देखी जा रही है।
      • कोविड-19 महामारी के बाद से महिलाओं और पुरुषों के बीच खाद्य सुरक्षा को लेकर अंतर 4.3% हो गया है, जबकि तुलनात्मक रूप से ग्रामीण महिलाओं के बीच खाद्य असुरक्षा काफी अधिक देखी गई है।
  • अतिरिक्त चुनौतियाँ: 
    • जटिल लैंगिक मानदंडों और भूमिकाओं, असमान शक्ति वितरण और भेदभावपूर्ण सामाजिक संरचनाओं के परिणामस्वरूप महिलाओं एवं लड़कियों को पुरुषों तथा लड़कों की तुलना में अधिक बाधाओं का सामना करना पड़ता है। 
    • जलवायु परिवर्तन, आर्थिक कारण और कीमतों में गिरावट, संघर्षों तथा लिंग आधारित हिंसा के बढ़ते जोखिमों से उत्पन्न अन्य चुनौतियाँ महिलाओं की प्रगति में अधिक बाधाएँ उत्पन्न करती हैं।
  • महिलाओं की सीमांत भूमिकाएँ:
    • आजीविका और परिवारों के कल्याण के लिये कृषि-खाद्य प्रणालियों में महिलाओं के महत्त्व के बाद भी वे हाशिये पर हैं, साथ ही पुरुषों की तुलना में उन्हें अधिक खराब स्थिति में कार्य करना पड़ता है जिसमें अनियमित, अनौपचारिक, अंशकालिक, कम-कुशल, श्रमिक-गहन आदि स्थितियाँ शामिल हैं।

सुझाव:

  • कृषि-खाद्य प्रणालियों में लैंगिक अंतर को समाप्त करने से विकासशील देशों में कृषि उत्पादकता में 4 प्रतिशत तक की वृद्धि हो सकती है, जो वैश्विक GDP (सकल घरेलू उत्पाद) को 2 प्रतिशत तक बढ़ा सकती है। उत्पादकता और आय में यह वृद्धि गरीबी एवं भुखमरी को कम करने तथा खाद्य सुरक्षा व पोषण में सुधार करने में सहायता कर सकती है।
    • लैंगिक अंतर को कम करने और महिलाओं को सशक्त बनाने से वैश्विक GDP में 1 प्रतिशत/ लगभग 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की वृद्धि होगी।
  • सतत विकास लक्ष्यों (SDGs), विशेष रूप से SDG-2 की प्राप्ति के लिये कृषि-खाद्य प्रणालियों में लैंगिक समानता आवश्यक है, जिसका उद्देश्य भूख को समाप्त करना, खाद्य सुरक्षा एवं बेहतर पोषण प्राप्त करना और स्थायी कृषि को बढ़ावा देना है।
  • यह सतत् विकास लक्ष्य 5, जिसका उद्देश्य लैंगिक समानता और सभी महिलाओं तथा लड़कियों को सशक्त बनाना है, को प्राप्त करने के लिये भी महत्त्वपूर्ण है।
  • लैंगिक समानता को बढ़ावा देने वाले और कृषि क्षेत्र में महिलाओं को सशक्त बनाने वाली ऐसी और भी नीतियों एवं कार्यक्रमों की आवश्यकता है।
  • महिलाओं को अपनी आजीविका बढ़ाने के लिये आवश्यक पशुधन, जल, बीज, भूमि, प्रौद्योगिकी और वित्त तक अधिक पहुँच तथा नियंत्रण की आवश्यकता है।

खाद्य और कृषि संगठन:

  • परिचय: 
    • खाद्य और कृषि संगठन की स्थापना वर्ष 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ के तहत की गई थी, यह संयुक्त राष्ट्र की एक विशेष एजेंसी है।
    • प्रत्येक वर्ष विश्व में 16 अक्तूबर को विश्व खाद्य दिवस मनाया जाता है। यह दिवस FAO की स्थापना की वर्षगाँठ की याद में मनाया जाता है।
    • यह संयुक्त राष्ट्र के खाद्य सहायता संगठनों में से एक है जो रोम (इटली) में स्थित है। इसके अलावा विश्व खाद्य कार्यक्रम और कृषि विकास के लिये अंतर्राष्ट्रीय कोष (IFAD) भी इसमें शामिल हैं।
  • FAO की पहलें:
  • फ्लैगशिप पब्लिकेशन (Flagship Publications): 

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, पिछले वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. FAO पारंपरिक कृषि प्रणालियों को 'सार्वभौमिक रूप से महत्त्वपूर्ण कृषि विरासत प्रणाली (Globally Important System 'GIAHS’) की हैसियत प्रदान करता है। इस पहल का संपूर्ण लक्ष्य क्या है? (2016) 

  1. अभिनिर्धारित GIAHS के स्थानीय समुदायों को आधुनिक प्रौद्योगिकी, आधुनिक कृषि प्रणाली का प्रशिक्षण एवं वित्तीय सहायता प्रदान करना ताकि उनकी कृषि उत्पादकता अत्यधिक बढ़ जाए।
  2. पारितंत्र-अनुकूली परंपरागत कृषि पद्धतियाँ और उनसे संबंधित परिदृश्य (लैंडस्केप), कृषि जैवविविधता और स्थानीय समुदायों के ज्ञानतंत्र का अभिनिर्धारण एवं संरक्षण करना।
  3. इस प्रकार चिह्नित अभिनिर्धारित GIAHS के सभी भिन्न-भिन्न कृषि उत्पादों को भौगोलिक सूचक (जियोग्राफिकल इंडिकेशन) की हैसियत प्रदान करना।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 3
(b) केवल 2
(c) केवल 2 और 3
(d) 1, 2 और 3 

उत्तर: (b) 

स्रोत: डाउन टू अर्थ  


भारतीय राजव्यवस्था

न्यायेतर हत्याएँ

प्रिलिम्स के लिये:

न्यायेतर हत्याएँ, सर्वोच्च न्यायालय, मौलिक अधिकार, IPC, NHRC, CID

मेन्स के लिये:

न्यायेतर हत्याएँ

चर्चा में क्यों? 

उत्तर प्रदेश में पुलिस मुठभेड़ (Encounter) के मामलों को देखते हुए हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने भारत में न्यायेतर हत्याओं (Extra-Judicial Killings- EJK) पर अपने विचार व्यक्त किये हैं और कहा है कि जीवन का अधिकार संविधान के तहत एक मौलिक अधिकार है और न्यायेतर हत्याएँ इस अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन हैं। 

  • सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि हाल के वर्षों में भारत में पुलिस मुठभेड़ों और न्यायेतर हत्याओं के कई मामले सामने आए हैं जिससे पुलिस द्वारा शक्ति के दुरुपयोग किये जाने को लेकर चिंता जताई जाती रही है

न्यायेतर हत्याएँ: 

  • परिचय: 
    • न्यायेतर हत्या से तात्पर्य राज्य या उसके एजेंटों द्वारा बिना किसी न्यायिक अथवा कानूनी कार्यवाही के किसी व्यक्ति की हत्या करने से है।
      • इसका मतलब यह है कि किसी व्यक्ति को बिना किसी मुकदमे, उचित प्रक्रिया या किसी कानूनी औचित्य के मार दिया जाता है।
    • इसके विभिन्न रूप हो सकते हैं, जैसे कि न्यायेतर मृत्युदंड (Extrajudicial Executions), अविलंबित मृत्युदंड (Summary Executions) और बलपूर्वक गायब किया जाना आदि। ये सभी कार्य अवैध हैं और मानवाधिकारों तथा कानून के शासन का उल्लंघन करते हैं।
    • अक्सर कानून व्यवस्था बनाए रखने अथवा आतंकवाद का मुकाबला करने के नाम पर ऐसे कार्य कानून प्रवर्तन एजेंसियों अथवा सुरक्षा बलों द्वारा किये जाते हैं।
  • संवैधानिक प्रावधान:
    • संविधान के अनुसार, भारत में कानून का शासन होना चाहिये, संविधान ही सर्वोच्च शक्ति है और विधायी एवं कार्यपालिका इसी से अधिकृत होते हैं।
    • संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का गैर-परक्राम्य अधिकार है। निर्दोषता या अपराध के बावजूद यह पुलिस का कर्त्तव्य है कि वह संविधान को बनाए रखे एवं सभी के जीवन के अधिकार की रक्षा करे। 
  • पुलिस के अधिकार: 
    • पुलिस आत्मरक्षा में या शांति और व्यवस्था बनाए रखने हेतु घातक बल सहित बल का प्रयोग कर सकती है।
    • भारतीय दंड संहिता की धारा-96 के तहत प्रत्येक व्यक्ति को आत्मरक्षा का अधिकार है।
      • आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-46 पुलिस को किसी गंभीर अपराध के आरोपी को गिरफ्तार करने हेतु घातक बल सहित बल प्रयोग करने की अनुमति देती है।
  • भारत में EJK की स्थिति: 
    • भारत में वर्ष 2016-17 और 2021-22 के बीच छह वर्षों में दर्ज पुलिस मुठभेड़ में हत्या के मामलों में 15% की गिरावट आई है, जबकि  वर्ष 2021-22 से मार्च 2022 तक पिछले दो वर्षों में मामलों में 69.5% की वृद्धि हुई।
      • भारत में पिछले छह वर्षों में पुलिस मुठभेड़ में हत्याओं के 813 मामले दर्ज किये गए हैं।
    • अप्रैल 2016 से छह वर्षों में छत्तीसगढ़ में न्यायेतर हत्या के सबसे अधिक 259 मामले दर्ज किये गए, इसके बाद उत्तर प्रदेश में 110 एवं असम में 79 मामले दर्ज किये गए।

EJK का कारण: 

  • सार्वजनिक जन समर्थन: 
    • कभी-कभी लोग ऐसी हत्याओं का समर्थन इसलिये करते हैं क्योंकि उनका मानना है कि न्यायालयी व्यवस्था समय पर न्याय नहीं देगी। यह जन समर्थन पुलिस को और अधिक साहसी बनाता है, जिससे ऐसी हत्याओं में वृद्धि होती है। 
  • राजनीतिक समर्थन: 
    • कई राजनेताओं का मानना है कि पुलिस मुठभेड़ की अधिक  घटनाएँ राज्य में कानून व्यवस्था बनाए रखने के संदर्भ में उनकी उपलब्धि के रूप में काम करेगी। 
  • दंडात्मक हिंसा:
    • कुछ पुलिस अधिकारियों का मानना है कि हिंसा और यातना का प्रयोग अपराध को नियंत्रित करने और संभावित अपराधियों के बीच भय की भावना पैदा करने का एकमात्र तरीका है। 
  • नायक के रूप में चित्रित करना: 
    • ऐसी हत्याओं को अकसर जनता और मीडिया द्वारा महिमामंडित किया जाता है, इसमें शामिल पुलिस अधिकारियों को नायकों के रूप में चित्रित किया जाता है जो समाज को भय मुक्त करने का कार्य कर रहे हैं।  
    • इस गैरकानूनी हिंसा का जश्न मना रही जनता और मीडिया यह भूल जाती है कि पुलिस के पास इस तरह का कृत्य करने का कोई अधिकार नहीं है और यह आरोपी के मानवाधिकारों का उल्लंघन है।  
  • पुलिस की अक्षमता:
    • जाँच करने के लिये पुलिस के पास पर्याप्त संसाधन नहीं होने से सज़ा देने की दर को कम हो सकती है। मुठभेड़ों को पुलिस के लिये क्षेत्र में कानून व्यवस्था बनाए रखने की सकारात्मक छवि बनाने के एक आसान तरीके के रूप में देखा जाता है।

भारत में पुलिस मुठभेड़ से संबंधित दिशा-निर्देश: 

  • सर्वोच्च न्यायालय:
    • सितंबर 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने "पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र" के मामले में मौत के प्रकरणों में पुलिस मुठभेड़ों की जाँच के लिये दिशा-निर्देश जारी किये। दिशा-निर्देशों में निम्नलिखित शामिल थे: 
      • मजिस्ट्रियल जाँच के प्रावधानों के साथ अनिवार्य रूप से प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) का पंजीकरण।
      • पूछताछ में मृतक के परिजनों को शामिल करना।
      • गोपनीय सूचनाओं का लिखित रिकॉर्ड रखना। 
      • स्पष्ट और निष्पक्ष जाँच सुनिश्चित करने के लिये CID जैसी स्वतंत्र एजेंसी द्वारा जाँच। 
      • घटना के बारे में जानकारी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) या राज्य मानवाधिकार आयोग को भेजी जानी चाहिये, हालाँकि NHRC की भागीदारी आवश्यक नहीं है, जब तक कि स्वतंत्र और निष्पक्ष जाँच के बारे में गंभीर संदेह न हो।
    • न्यायालय ने निर्देश दिया कि इन आवश्यकताओं/मानदंडों को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत घोषित एक कानून मानते हुए पुलिस मुठभेड़ों में होने वाली मौत और गंभीर चोट के सभी मामलों में सख्त रवैया अपनाया जाना चाहिये।
  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC): 
    • वर्ष 1997 में NHRC ने पुलिस मुठभेड़ में हुई मौतों के बारे में जानकारी दर्ज करने, राज्य CID (केंद्रीय जाँच विभाग) द्वारा स्वतंत्र जाँच की अनुमति देने और पुलिस अधिकारियों के दोषी होने की स्थिति में मृतक के आश्रितों को मुआवज़ा देने के लिये दिशा-निर्देश प्रदान किये।
    • वर्ष 2010 में इन दिशा-निर्देशों में संशोधन किया गया था ताकि प्राथमिकी दर्ज करना, मजिस्ट्रेटी जाँच करना और सभी मौतों के मामलों की रिपोर्ट 48 घंटे के भीतर वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक या पुलिस अधीक्षक द्वारा NHRC को दी जाए। तीन महीने के बाद पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट, जाँच रिपोर्ट और पूछताछ के निष्कर्षों के साथ दूसरी रिपोर्ट भेजी जानी चाहिये।

आगे की राह 

  • पुलिस मुठभेड़ में होने वाली मौतों की स्वतंत्र जाँच की जानी चाहिये क्योंकि इनसे विधि के शासन का नियम प्रभावित होता है। यह सुनिश्चित किये जाने की आवश्यकता है कि समाज में एक कानून व्यवस्था विद्यमान हो जिसका प्रत्येक राज्य प्राधिकरण और जनता द्वारा पालन किया जाना चाहिये।
  • पुलिस कर्मियों को बेहतर ढंग से प्रशिक्षित करने और उन्हें सभी प्रासंगिक कौशल से युक्त करने के लिये मानक दिशा-निर्देशों को निर्धारित करने की आवश्यकता है ताकि वे किसी भी गंभीर स्थिति से प्रभावी ढंग से निपट सकें।
  • मुठभेड़ों में हुई हत्याओं की बढ़ती संख्या मानवाधिकारों के उल्लंघन का कारण बन रही है, इसलिये पुलिस अधिकारियों को मानवाधिकारों के महत्त्व के बारे में शिक्षित करना और इन गैरकानूनी हत्याओं को रोकना आवश्यक है।

 स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


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