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डेली न्यूज़

  • 16 Sep, 2024
  • 65 min read
कृषि

जूट उद्योग में सुधार

प्रिलिम्स के लिये:

प्राकृतिक फाइबर, जलोढ़ मिट्टी, जलकुंभी, सीमांत और छोटे किसान, कार्बन पृथक्करण, भू-वस्त्र, जूट पैकेजिंग सामग्री (वस्तुओं की पैकिंग में अनिवार्य उपयोग) अधिनियम, 1987, तकनीकी कपड़ा मिशन, सिंचाई।

मेन्स के लिये:

भारत के जूट उद्योग में संभावनाएँ और चुनौतियाँ।

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में भारतीय जूट मिल्स एसोसिएशन ने जूट की खेती के महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर प्रकाश डाला, जिसमें इस क्षेत्र के समक्ष आने वाली चुनौतियाँ भी शामिल हैं।

जूट से संबंधित प्रमुख बिंदु क्या हैं?

  • परिचय:  जूट एक प्राकृतिक रेशा (फाइबर) है जो सन, भांग, केनाफ और रेमी जैसे बास्ट फाइबर की श्रेणी अंतर्गत आता है।
    • यह पारंपरिक रूप से भारतीय उपमहाद्वीप के पूर्वी भाग में इसका उत्पादन किया जाता है, जो वर्तमान भारत के पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के मैदानी इलाकों का हिस्सा है।
    • भारत में पहली जूट मिल वर्ष 1855 में कोलकाता के पास रिषड़ा में स्थापित की गई थी।
  • आदर्श स्थिति: जूट कई प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है, लेकिन इसके उत्पादन के लिये उपजाऊ दोमट मिट्टी अधिक उपयुक्त होती है। 
    • 40-90% के बीच सापेक्ष आर्द्रता और 17°C तथा 41°C के बीच तापमान, साथ ही 120 सेमी. से अधिक अच्छी तरह से वितरित वर्षा जूट की खेती एवं विकास के लिये अनुकूल है।
    • प्रजातियाँ: सामान्यतः दो प्रजातियाँ क्रमशः टोसा और सफेद जूट का व्यावसायिक स्तर पर उत्पादन किया जाता है। 
      • एक अन्य बास्ट फाइबर (Bast Fibre) फसल जिसे आमतौर पर मेस्टा के नाम से जाना जाता है, की दो प्रजातियाँ उगाई जाती हैं- हिबिस्कस कैनाबिनस (Hibiscus cannabinus) और हिबिस्कस सब्दारिफा (Hibiscus Sabdariffa)
  • कटाई की तकनीक: बास्ट फाइबर (Bast Fibre) फसल को वानस्पतिक वृद्धि की एक निश्चित अवधि के बाद, आमतौर पर 100 से 150 दिनों के बीच, किसी भी अवस्था में काटा जा सकता है।
    • जूट की फसल की कटाई कली-पूर्व या कली अवस्था (Pre-Bud or Bud Stage) में करने से सर्वोत्तम गुणवत्ता वाला रेशा प्राप्त होता है, हालाँकि पैदावार कम होती है। 
    • ओल्डर क्रॉप्स प्रक्रिया से अधिक उत्पादन होता है, लेकिन रेशा मोटा हो जाता है और तना पर्याप्त रूप से पुनर्विकसित नहीं होता है।
      • रीटिंग प्रक्रिया एक ऐसी विधि है जिसमें पौधे के रेशों को तने से अलग करने के लिये नमी और सूक्ष्मजीवों का उपयोग किया जाता है। 
    • इसलिये, यह निर्धारित किया गया है कि अधि उत्पादन और गुणवत्ता के बीच संतुलन के रूप में कटाई फल विकसित होने के प्रारंभिक चरण (Pod Formation Stage) में सबसे अच्छी होती है।
  • गलाने की प्रक्रिया: जूट के तने के बंडलों को पानी में रखा जाता है इसके बाद उन्हें आमतौर पर परतों के क्रम में रखकर एक साथ बाँध दिया जाता है। 
    • वे जलकुंभी या किसी अन्य ऐसे खरपतवार से ढके होते हैं जिनसे टैनिन और लौह का उत्सर्जन नहीं होता है।
    • धीमी गति से बहते साफ पानी में रीटिंग सबसे अच्छी होती है। इष्टतम तापमान लगभग 34 डिग्री सेल्सियस है।
    • रीटिंग की प्रक्रिया द्वारा रेशे को लकड़ी से आसानी से बाहर निकल दिया जाता है।
  • अस्थिरता: यह लंबी, मज़बूत घास 2.5 मीटर तक बढ़ती है और इसके प्रत्येक भाग का विभिन्न कार्यों में उपयोग किया जाता हैं।
    • तने की बाहरी परत से रेशे का निर्माण होता है जिसका उपयोग जूट के उत्पाद बनाने में किया जाता है। 
    • इसकी पत्तियों का उपयोग कर सूप, स्टू, करी और सब्ज़ी के व्यंजन तैयार किये जाते हैं।
    • इसके लकड़ी युक्त तने का उपयोग कागज़ बनाने के लिये किया जा सकता है।
    • फसल कटाई के बाद ज़मीन में बची हुई जड़ें अगली फसलों हेतु उपयोगी होती हैं। 
  • उत्पादन: पश्चिम बंगाल, असम और बिहार देश में प्रमुख जूट उत्पादक राज्य हैं तथा यहाँ मुख्य रूप से सीमांत एवं छोटे किसानों द्वारा जूट की खेती की जाती हैं।
  • रोज़गार: जूट एक श्रम-प्रधान फसल है, जो स्थानीय किसानों को रोज़गार के बड़े अवसर और लाभ प्रदान करती है। 
    • कच्चे जूट की खेती और व्यापार लगभग 14 मिलियन लोगों की आजीविका का साधन है।
  •  महत्त्व: स्वर्ण रेशे के रूप में जाना जाने वाला जूट, खेती और उपयोग की दृष्टि से कपास के बाद भारत में दूसरी सबसे महत्त्वपूर्ण नकदी फसल है। 
    • भारत विश्व में जूट का सबसे बड़ा उत्पादक है।

जूट के उपयोग के क्या लाभ हैं?

  • जैव-निम्नीकरणीय: कई देश प्लास्टिक वस्तुओं, विशेषकर प्लास्टिक बैगों के उपयोग को कम करने का प्रयास कर रहे हैं। 
    • प्लास्टिक बैगों के बजाय जूट के बैग जैव-निम्नीकरणीय (बायोडिग्रेडेबल) और पर्यावरण-अनुकूल प्रमुख विकल्प हैं।
  • मूल्य-वर्द्धित उत्पाद: पारंपरिक उपयोग के साथ-साथ, जूट मूल्य-वर्द्धित उत्पादों जैसे- कागज़, लुगदी, कंपोजिट, वस्त्र, वाल कवरिंग, फर्श, परिधान और अन्य सामग्रियों के उत्पादन में योगदान दे सकता है।
  • किसानों की आय में वृद्धि: एक एकड़ ज़मीन से लगभग नौ क्विंटल फाइबर या रेशा उत्पन्न किया जाता है। जिसका मूल्य 3,500-4,000 रुपए प्रति क्विंटल है।
    • पत्तियाँ और उनके लकड़ी के तने की कीमत लगभग 9,000 रुपए है। अतः प्रति एकड़ पैदावार 35,000 एवं 40,000 रुपए है।
  • स्थायित्त्व: कपास की तुलना में जूट को केवल आधी भूमि और समय की आवश्यकता होती है, सिंचाई में पानी का पाँचवाँ हिस्सा से भी कम उपयोग होता है साथ ही इसमें बहुत कम रसायनों की आवश्यकता होती है।
    • यह काफी हद तक कीट-प्रतिरोधी होते है और इसकी तीव्र वृद्धि खरपतवारों की वृद्धि को कम करती है। 
  • कार्बन तटस्थ फसल: चूँकि जूट पौधों से प्राप्त होता है जो एक बायोमास है, इसलिये यह स्वाभाविक रूप से कार्बन-तटस्थ होता है।
  • कार्बन पृथक्करण: जूट प्रतिवर्ष प्रति हेक्टेयर 1.5 टन कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर सकता है। 
    • यह जलवायु परिवर्तन को कम करने में मदद कर सकती है। 
    • जूट एक तेज़ी से बढ़ने वाला पौधा है, जो कम समय में बहुत अधिक मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित कर सकता है।

जूट की खेती में क्या चुनौतियाँ शामिल हैं?

  • प्राकृतिक जल की कम उपलब्धता: ऐतिहासिक रूप से प्रत्येक वर्ष नदी में बाढ़ आने से खेत जलमग्न हो जाते थे, जिससे जूट के बंडल सीधे खेतों में डूब जाते थे, जिससे रीटिंग प्रक्रिया सरल हो जाती है।
    • कम बाढ़ के कारण, मौजूदा प्रक्रियाओं में रेटिंग प्रक्रिया के लिये जूट को मानव निर्मित तालाबों में ले जाया जाता है।
  • अप्राप्त क्षमता: जूट उद्योग की कार्य क्षमता लगभग 55% की है, जिससे 50,000 से अधिक श्रमिक प्रभावित हो रहे हैं। वर्ष 2024-25 तक जूट बैग की मांग घटकर 30 लाख बेल (Bales) रह जाने का अनुमान है।
  • पुरानी तकनीक: जूट आयुक्त कार्यालय के अनुसार, भारत में कई जूट मिलें 30 साल से ज़्यादा पुरानी मशीनरी का प्रयोग करती हैं। इससे परिचालन दक्षता कम हो जाती है और उत्पादन लागत बढ़ जाती है।
  • उत्पाद विविधीकरण का अभाव: जूट एक बहुउद्देशीय रेशा है जिसका उपयोग दीवार कवरिंग, जियोटेक्सटाइल, इन्सुलेशन (ग्लास वूल के स्थान पर) और अन्य उद्देश्यों के लिये किया जा सकता है।
    • इन उच्च विकास वाले क्षेत्रों में उत्पादों की कमी का अर्थ है कि जूट का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा अभी भी अप्रयुक्त है, जिससे समग्र उद्योग विकास और स्थिरता प्रभावित हो रही है।
  • जूट मिलों का संकेंद्रण: देश में लगभग 70 जूट मिलें हैं, जिनमें से लगभग 60 पश्चिम बंगाल में हुगली नदी के दोनों किनारों पर स्थित हैं।
    • इसके परिणामस्वरूप कच्चे माल और तैयार उत्पादों के वितरण में बाधाएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
    • इस क्षेत्र के बाहर, विशेषकर पूर्वोत्तर भारत में जूट की खेती को संसाधनों और बाज़ारों तक पहुँच हेतु चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
  • अपर्याप्त समर्थन: जूट पैकिंग सामग्री (वस्तु पैकिंग अनिवार्य प्रयोग) अधिनियम, 1987 के बावजूद जूट क्षेत्र को नीति कार्यान्वयन और समर्थन में चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।

जूट उद्योग से संबंधित सरकारी योजनाएँ क्या हैं?

आगे की राह: 

  • गोल्डन फाइबर क्रांति: विभिन्न हितधारकों द्वारा लंबे समय से 'गोल्डन फाइबर क्रांति' की मांग की जा रही है।
    • इसका उद्देश्य जूट की खेती को बढ़ाना, जूट उत्पादों की गुणवत्ता में सुधार करना, निर्यात को बढ़ावा देना तथा जूट किसानों और श्रमिकों की आजीविका में सुधार लाना है।
  • बाढ़ प्रबंधन: जल प्रबंधन प्रथाओं का समर्थन करना, जो प्राकृतिक बाढ़ प्रतिरूप को बहाल करने या नियंत्रित सिंचाई के माध्यम से उनका अनुकरण करने में मदद कर सकती हैं। इससे रीटिंग प्रक्रिया आसान हो जाएगी तथा कृत्रिम तरीकों पर निर्भरता कम हो जाएगी।
  • मशीनरी का उन्नयन: जूट प्रसंस्करण के लिये नई प्रौद्योगिकियों और मशीनरी में निवेश को प्रोत्साहित करना। सरकार तकनीकी उन्नयन के लिये मिलों को सब्सिडी या कम ब्याज दर पर ऋण दे सकती है।
  • उत्पाद नवाचार को बढ़ावा देना: जूट के लिये नए अनुप्रयोगों, जैसे कि जियोटेक्सटाइल्स और सक्रिय कार्बन का पता लगाने के लिये अनुसंधान तथा विकास का समर्थन करना। नए उत्पाद लाइनों को विकसित करने के लिये उद्योग विशेषज्ञों के साथ जुड़ना।
    • नवाचार और बाज़ार विस्तार को प्रोत्साहित करने के लिये कंपनियों को कर लाभ, अनुदान या सब्सिडी प्रदान की जा सकती है।
  • नीतियों को लागू करना और उनका विस्तार करना: जूट पैकिंग सामग्री (वस्तु पैकिंग अनिवार्य प्रयोग) अधिनियम, 1987 का प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित करना। वर्तमान उद्योग की ज़रूरतों और बाज़ार की स्थितियों को संबोधित करने के लिये अधिनियम की समीक्षा करना तथा उसे अद्यतन करना।
  • नीति और उद्योग समीक्षा: बदलती बाज़ार स्थितियों और तकनीकी प्रगति को प्रतिबिंबित करने के लिये नीतियों तथा उद्योग प्रथाओं की नियमित समीक्षा एवं समायोजन करना।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: जूट उद्योग के समक्ष आने वाली चुनौतियों का आलोचनात्मक विश्लेषण तथा इसे पुनर्जीवित करने के लिये एक व्यापक रणनीति पर चर्चा कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स

प्रश्न: निचले गंगा के मैदान में पूरे वर्ष उच्च तापमान के साथ आर्द्र जलवायु की विशेषता होती है। इस क्षेत्र के लिये फसलों के निम्नलिखित भागों में से कौन-सा सबसे उपयुक्त है?  (2011)

(a) धान और कपास

(b) गेहूँ और जूट

(c) धान और जूट

(d) गेहूँ और कपास

उत्तर: (C)


मेन्स

प्रश्न. भारत में स्वतंत्रता के बाद कृषि क्षेत्र में हुई विभिन्न प्रकार की क्रांतियों की व्याख्या कीजिये। इन क्रांतियों ने भारत में गरीबी उन्मूलन और खाद्य सुरक्षा में किस प्रकार मदद की है?  (2017)


जैव विविधता और पर्यावरण

वायु प्रदूषण नियंत्रण पर दिल्ली की शीतकालीन योजना

प्रिलिम्स के लिये:

वायु प्रदूषण, दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (DPCC), दिल्ली नगर निगम (MCD), पीएम 2.5 उत्सर्जन, भूमंडलीय लेवल ओज़ोन (O3) प्रदूषणसफर, पराली दहन, वाष्पशील कार्बनिक यौगिक (VOC), धुंध, पराबैंगनी (UV) विकिरण  

मेन्स के लिये:

सर्दियों के दौरान दिल्ली में वायु प्रदूषण, दिल्ली में भूमंडलीय ओज़ोन का प्रभाव 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में दिल्ली सरकार ने वायु प्रदूषण से निपटने के लिये 21 सूत्री शीतकालीन कार्य योजना शुरू की, जिसमें वास्तविक समय ड्रोन सर्वेक्षण और एक विशेष टास्क फोर्स शामिल है।

दिल्ली की शीतकालीन कार्य योजना में क्या शामिल है?

  • वास्तविक समय ड्रोन सर्वेक्षण: पहली बार  ड्रोन वास्तविक समय डेटा प्रदान करने और प्रदूषण नियंत्रण प्रयासों को बढ़ाने के लिये पूरे शहर में प्रदूषण हॉटस्पॉट की निगरानी करेंगे।
  • विशेष कार्य बल: कार्य योजना के कार्यान्वयन की निगरानी और प्रभावी निष्पादन सुनिश्चित करने के लिये एक समर्पित कार्य बल की स्थापना की जाएगी।
  • योजना के मुख्य केंद्र बिंदु:  इस योजना का लक्ष्य प्रदूषण के हॉटस्पॉटों पर ध्यान केंद्रित करना है, जिसका लक्ष्य उच्चतम प्रदूषण स्तर वाले क्षेत्रों पर ध्यान देना है। 
    • यह वाहनों से होने वाले उत्सर्जन को कम करके तथा धूल को नियंत्रित करके वाहनों और धूल प्रदूषण की समस्या का समाधान करता है।
    • रणनीति का एक महत्त्वपूर्ण घटक घर से कार्य करने की नीति है, जिसका उद्देश्य निजी संगठनों को दूरस्थ कार्य अपनाने के लिये प्रोत्साहित करके वाहनों से होने वाले उत्सर्जन को कम करना है।
    • यह योजना पराली एवं अपशिष्ट दहन की समस्या से निपटती है, औद्योगिक उत्सर्जन को नियंत्रित करती है तथा वाहनों की सम-विषम योजना, प्रदूषण स्तर को नियंत्रित करने के लिये कृत्रिम वर्षा और हरित रत्न (पर्यावरण अनुकूल गतिविधियों में भाग लेने वाले संगठनों के लिये एक हरित पुरस्कार) जैसे आपातकालीन उपायों हेतु तैयारी करती है।
  • प्रमुख हितधारक: प्रदूषण की निगरानी के लिये पर्यावरण विभाग को दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (DPCC), दिल्ली नगर निगम (MCD), दिल्ली यातायात पुलिस, दिल्ली विकास प्राधिकरण (DDA) और दिल्ली राज्य औद्योगिक एवं बुनियादी ढाँचा विकास निगम (DSIIDC) के साथ मिलकर योजना के विभिन्न पहलुओं की देखरेख करने हेतु नामित किया गया है।

सर्दियों के दौरान दिल्ली में वायु प्रदूषण के मुख्य कारण क्या हैं?

  • पराली दहन:  पंजाब और हरियाणा में किसान अगली फसल हेतु अपने खेतों को तैयार करने के लिये फसल अवशेष जलाते हैं। इससे बहुत अधिक धुआँ तथा पार्टिकुलेट मैटर (PM) का उत्सर्जन होता है, जो वायु के साथ दिल्ली तथा उत्तर भारत के अन्य हिस्सों में पहुँच जाता है।
  • वाहन उत्सर्जन: दिल्ली में चलने वाली असंख्य कारों, ट्रकों, बसों और दोपहिया वाहनों से निकलने वाला उत्सर्जन वायु प्रदूषण का प्रमुख स्रोत है।  
    • ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार, दिल्ली में पीएम 2.5 उत्सर्जन का मुख्य स्रोत परिवहन क्षेत्र है (कुल पीएम 2.5 उत्सर्जन का 28%)।
    • दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (DPCC) के अनुसार, दिल्ली में ट्रैफिक हॉट स्पॉट भूमंडलीय लेवल ओज़ोन (O3) प्रदूषण के खतरनाक स्तर पर पहुँच गया है, जिसके स्वास्थ्य पर गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
  • वायु की दिशा: दिल्ली के वायु प्रदूषण में विशेषकर सर्दियों के महीनों के दौरान वायु की दिशा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। दिल्ली में वायु की प्रमुख दिशा मानसून के बाद उत्तर-पश्चिमी होती है। हरियाणा व पंजाब में जब पराली दहन किया जाता है तो ये वायु शहर में धूल और धुआँ  लेकर आती हैं।
    • राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला द्वारा किये गए एक अध्ययन के अनुसार, सर्दियों में दिल्ली की 72% वायु भारत के उत्तर-पश्चिमी भागों और पाकिस्तान से आती है, जबकि शेष 28% वायु सिंधु-गंगा के मैदानों से आती है।
    • वायु की दिशा में परिवर्तन हानिकारक प्रदूषकों को शहर में प्रवेश करने से रोकता है।
    • ला नीना वायुमंडलीय परिसंचरण गतिशीलता में परिवर्तन करके दिल्ली में वायु पैटर्न को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित कर सकता है।
  • शुष्क एवं स्थिर वायु: सर्दियों में कम वर्षा और कम वायु गति के कारण प्रदूषक बह नहीं पाते या फैल नहीं पाते, जिससे वायु की गुणवत्ता में कमी आती है तथा वायु में PM का संचय होता है।
  • तापमान व्युत्क्रमण: तापमान व्युत्क्रमण एक ऐसी घटना है, जो तब होती है जब वायु का तापमान सामान्य रूप से घटने के बजाय ऊँचाई के साथ बढ़ता है। इससे ठंडी वायु की परत के ऊपर गर्म वायु की एक परत बन जाती है, जिससे प्रदूषक ज़मीन के पास फँस जाते हैं।
    • दिल्ली का प्रदूषण सर्दियों में, जब मौसम ठंडा और शांत होता है, तापमान व्युत्क्रमण से प्रभावित होता है।
    • प्रदूषक निचले वायुमंडल में एकत्र हो जाते हैं और धुंध की एक मोटी परत बनाते हैं, जो प्रदूषकों को ऊपर उठने तथा फैलने से रोकता है, जिससे सतह के पास प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है।
  • प्रदूषण के अन्य स्रोत: अन्य शीतकालीन प्रदूषण स्रोतों में शामिल हैं; धूल भरी आँधी जो शुष्क क्षेत्रों से धूल लाती है, त्योहारों के दौरान पटाखे जो धुआँ एवं धात्विक कणिका पदार्थ मुक्त करते हैं तथा हीटिंग के लिये घरेलू बायोमास जलाना जो वायु में कार्बन मोनोऑक्साइड और कण जोड़ता है।
    • IIT-कानपुर द्वारा वर्ष 2015 में किये गए एक अध्ययन में कहा गया है कि सर्दियों में दिल्ली में 17-26% कण बायोमास जलने के कारण उत्पन्न होते हैं।

वायु प्रदूषण से संबंधित भारत सरकार की पहल क्या हैं?

वायु प्रदूषण से संबंधित प्रमुख शब्दावली:

  • वायु गुणवत्ता सूचकांक: यह दैनिक वायु गुणवत्ता की रिपोर्टिंग के लिये एक सूचकांक है। यह प्रदूषित वायु में साँस लेने के कुछ घंटों या दिनों के बाद स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों पर केंद्रित है।
    • AQI की गणना आठ प्रमुख वायु प्रदूषकों के माध्यम से की जाती है; ग्राउंड-लेवल ओज़ोन, PM10, PM2.5, कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), सल्फर डाइऑक्साइड (SO2 ) , नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (NO2 ) , अमोनिया (NH3 ), और लेड (Pb)
  • वाष्पशील कार्बनिक यौगिक (VOCs) : ये कार्बन युक्त रसायन हैं, जो पेट्रोल और डीज़ल वाहनों से उत्सर्जित होते हैं, जिनका प्रभाव वायु की गुणवत्ता तथा मानव स्वास्थ्य पर पड़ता है।
    • हालाँकि VOCs की उत्पत्ति प्राकृतिक रूप से भी हो सकती है। पौधे परागणकों को आकर्षित करने, कीटों और शिकारियों से खुद को बचाने तथा पर्यावरणीय तनाव के अनुकूल होने के लिये इन रसायनों का उत्सर्जन करते हैं।
  • ग्राउंड-लेवल ओज़ोन: ग्राउंड-लेवल ओज़ोन या ट्रोपोस्फेरिक ओज़ोन, एक द्वितीयक प्रदूषक है जो वाहनों, उद्योगों और विद्युत् संयंत्रों से उत्सर्जित नाइट्रोजन ऑक्साइड (NOx) तथा वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों (VOCs) के सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में अभिक्रिया करने से उत्पन होता है, जिसका स्तर विशेष रूप से गर्मियों के दौरान बढ़ जाता है। यह पृथ्वी की सतह के ठीक ऊपर निर्मित एक रंगहीन गैस है।

आगे की राह:

  • उत्सर्जन नियंत्रण नीतियाँ: वाहन उत्सर्जन नियमों के प्रवर्तन को सुदृढ़ करना और इलेक्ट्रिक मोबिलिटी प्रमोशन स्कीम (EMPS) 2024 तथा जन जागरूकता जैसे अभियानों के माध्यम से इलेक्ट्रिक वाहनों (EV) में परिवर्तन को बढ़ावा देना।
  • अपशिष्ट प्रबंधन और विनियमन: खुले में अपशिष्ट को जलाने और लैंडफिल उत्सर्जन को कम करने हेतु अपशिष्ट प्रबंधन में सख्त विनियमन एवं प्रभावी प्रवर्तन।
    • दिल्ली में भारत के अन्य भागों से निर्माण और ठोस अपशिष्ट प्रबंधन में सर्वोत्तम मानकों की जाँच करके अपने वायु गुणवत्ता प्रबंधन का विस्तार किया जा सकता है, जैसे कि सूरत की स्वच्छ निर्माण पुस्तिका और अपशिष्ट प्रबंधन रणनीति ( 2015 तथा 2020 के बीच खुले में अपशिष्ट जलाने में 25% से 2% की कमी), एवं  इंदौर की ठोस अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली (जिसमें पूर्ण अपशिष्ट पृथक्करण व  डोर-टू-डोर संग्रह शामिल है)।
    • खुलेआम जलाए जाने वाले अपशिष्ट की मात्रा को कम करने के लिये पुनर्चक्रण, खाद निर्माण और अपशिष्ट से ऊर्जा उत्पन्न करने की पहल को प्रोत्साहित करना।
  •  फसल अवशेष प्रबंधन (CRM): किसानों को अवशेष प्रबंधन के लिये हैप्पी सीडर जैसे सतत् और लागत प्रभावी विकल्प प्रदान करके तथा सब्सिडी वाले  फसल अवशेष प्रबंधन (CRM) मशीनों की तैनाती करके फसल जलाने की समस्या का समाधान करना
    • इन तरीकों को प्रोत्साहित करने और बढ़ावा देने से अपशिष्ट को जलाने की आवश्यकता को काफी हद तक कम किया जा सकता है।
  • हरित अवसंरचना का कार्यान्वयन: प्रदूषकों को अवशोषित करने की शहर की प्राकृतिक क्षमता को बढ़ाने हेतु शहरी हरित पहलों को बढ़ावा देना, जैसे कि हरित पट्टियों, पार्कों और वनरोपण परियोजनाओं का विकास करना।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: दिल्ली में वायु प्रदूषण के कारणों पर चर्चा कीजिये। इस प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिये लागू किये गए वर्तमान उपायों की प्रभावशीलता का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये?

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, पिछले वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स: 

प्रश्न. राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एन.जी.टी.) किस प्रकार केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सी.पी.सी.बी.) से भिन्न है?  (2018)

  1. एन.जी.टी. का गठन एक अधिनियम द्वारा किया गया है जबकि सी.पी.सी.बी. का गठन सरकार के कार्यपालक आदेश से किया गया है।
  2. एन.जी.टी. पर्यावरणीय न्याय उपलब्ध कराता है और उच्चतर न्यायालयों में मुकदमों के भार को कम करने में सहायता करता है जबकि सी.पी.सी.बी. झरनों तथा कुँओं की सफाई को प्रोत्साहित करता है एवं देश में वायु की गुणवत्ता में सुधार लाने का लक्ष्य रखता है।

उपर्युक्त में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (b)


मेन्स

प्रश्न. हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा जारी संशोधित वैश्विक वायु गुणवत्ता दिशा-निर्देशों (AQGs) के प्रमुख बिंदुओं का वर्णन कीजिये। 2005 में इसके अंतिम अद्यतन से ये कैसे भिन्न हैं? संशोधित मानकों को प्राप्त करने के लिये भारत के राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम में क्या बदलाव आवश्यक हैं? (2021)


शासन व्यवस्था

भारत की डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना

प्रिलिम्स के लिये:

G-20 अध्यक्षता, डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना (DPI), सतत् विकास, आधार, UPI, डेटा एम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन आर्किटेक्चर (DEPA), आयुष्मान भारत डिजिटल मिशन, कोविन प्लेटफॉर्म, साइबर हमले, रैनसमवेयर, राज्य प्रायोजित हैकिंग 

मेन्स के लिये:

भारत की डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना (DPI) की चुनौतियाँ और समाधान।

स्रोत: IE 

चर्चा में क्यों?

G-20 अध्यक्षता के दौरान भारत ने तकनीकी नवाचार के माध्यम से समावेशी और सतत् विकास को बढ़ावा देने के लिये डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना (DPI) को एक  महत्त्वपूर्ण उपकरण के रूप में महत्त्व दिया।

  • DPI (खुलापन, अंतर-संचालनीयता एवं मापनीयता) की परिभाषित विशेषताएँ न केवल एक तकनीकी ढाँचे के रूप में बल्कि सार्वजनिक और निजी सेवा वितरण को बढ़ाने के लिये एक आवश्यक प्रवर्तक के रूप में इसके महत्त्व को उजागर करती हैं।

डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना (DPI) क्या है? 

  • डिजिटल पहचान प्रणालियाँ (Digital Identity Systems): व्यक्तियों की पहचान को ऑनलाइन माध्यम से सत्यापित करने और उसे प्रबंधित करने के लिये विभिन्न प्लेटफॉर्म हैं; जैसे- भारत में आधार (Aadhaar)
    • डिजिटल भुगतान प्रणालियाँ (Digital Payment Systems): डिजिटल वॉलेट, पेमेंट गेटवे और बैंकिंग प्लेटफॉर्म सहित सुरक्षित वित्तीय लेनदेन का समर्थन करने वाली बुनियादी संरचना।
    • डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना (Digital Public Infrastructure- DPI) से तात्पर्य सरकार या सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा प्रदत्त मूलभूत डिजिटल प्रणालियों और सेवाओं से है, जो डिजिटल अर्थव्यवस्था एवं समाज के कार्यकरण को समर्थन देने तथा उसे आगे बढ़ाने का लक्ष्य रखती है।   
    • सार्वजनिक डिजिटल सेवाएँ (Public Digital Services): सरकार द्वारा प्रदत्त ऑनलाइन सेवाएँ, जैसे- ई-गवर्नेंस पोर्टल, सार्वजनिक स्वास्थ्य सूचना और डिजिटल शिक्षा प्लेटफॉर्म।
    • डेटा अवसंरचना (Data Infrastructure): डेटा को सुरक्षित रूप से संगृहीत करने, प्रबंधित करने और साझा करने के लिये प्रणालियाँ, जो डेटा संप्रभुता एवं निजता सुनिश्चित करती हैं। जैसे- डिजिलॉकर।  
    • साइबर सुरक्षा संबंधी ढाँचे (Cybersecurity Frameworks): साइबर खतरों से डिजिटल परिसंपत्तियों और व्यक्तिगत सूचनाओं की सुरक्षा के लिये विभिन्न उपाय एवं प्रोटोकॉल। उदाहरण के लिये सूचना सुरक्षा प्रबंधन प्रणाली (ISMS)
    • ब्रॉडबैंड और कनेक्टिविटी: सभी क्षेत्रों में हाई-स्पीड इंटरनेट तक व्यापक एवं समतामूलक पहुँच सुनिश्चित करने के लिये आधारभूत संरचना।
  • इसे सामान्यतः दो समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है-
  • DPI का प्रभाव:
    • कोविन (CoWIN) प्लेटफॉर्म के तहत 2.2 बिलियन से अधिक कोविड-19 टीकों के प्रशासन की सुविधा के लिये आधार-आधारित प्रमाणीकरण का उपयोग किया गया।
    • 1.3 बिलियन से अधिक आधार नामांकन और 10 बिलियन से अधिक मासिक UPI लेनदेन ने परिवर्तनकारी प्रभाव डाला है।
    • ऋण, ई-कॉमर्स, शिक्षा, स्वास्थ्य और शहरी प्रशासन जैसे क्षेत्रों में शासन में सुधार हुआ है

नोट: DPI के विषय में नेशनल एसोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विस कंपनीज (Nasscom) की टिप्पणियाँ।

  • डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना भारत को वर्ष 2030 तक 8 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने में सहायता कर सकती है।
  • DPI द्वारा जोड़ा गया आर्थिक मूल्य वर्ष 2022 में 0.9% से बढ़कर वर्ष 2030 तक सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के 2.9% से 4.2% के बीच हो सकता है।
  • भारत के डिजिटल स्वास्थ्य बुनियादी अवसंरचना को सुदृढ़ करने के लिये शुरू किये गए आयुष्मान भारत डिजिटल मिशन (ABDM) से मूल्य वृद्धि में महत्त्वपूर्ण योगदान मिलने की उम्मीद है।
  • उद्योग एवं आंतरिक व्यापार संवर्धन विभाग द्वारा स्थापित एक खुला ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म, ओपन नेटवर्क फॉर डिजिटल कॉमर्स (ONDC) से खुदरा व्यय में उल्लेखनीय वृद्धि होने की उम्मीद है

भारत की DPI से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?

  • डेटा गोपनीयता और सुरक्षा चिंताएँ: DPI द्वारा व्यक्तिगत डेटा का व्यापक संग्रह और उपयोग डेटा गोपनीयता, सुरक्षा एवं संवेदनशील जानकारी के संभावित दुरुपयोग के संबंध में चिंताएँ उत्पन्न करता है। 
  • डिजिटल डिवाइड: भारत की तीव्र डिजिटल प्रगति के बावजूद इंटरनेट कनेक्टिविटी, स्मार्टफोन और डिजिटल साक्षरता सहित डिजिटल बुनियादी अवसंरचना तक पहुँच अभी भी सीमित है।
    • वर्ष 2024 में भारत की इंटरनेट पहुँच दर 52% होने की उम्मीद है, जिसका अर्थ है कि देश के 1.4 बिलियन लोगों में से आधे से अधिक लोगों के पास इंटरनेट तक पहुँच होगी।
  • विनियामक अंतराल और विखंडन: डिजिटल प्रौद्योगिकियों की विकासशील प्रकृति के लिये  गतिशील और सुसंगत विनियामक अवसंरचना की आवश्यकता है। 
    • मौजूदा नियामक तंत्र,प्लेटफॉर्म एकाधिकार, डेटा एकाधिकार और सीमा पार डेटा प्रवाह जैसे उभरते मुद्दों से निपटने के लिये अपर्याप्त हैं।
    • उदाहरण के लिये भुगतान डेटा को स्थानीय स्तर पर संगृहीत करने के भारतीय रिज़र्व बैंक के आदेश के कारण अंतर्राष्ट्रीय भुगतान प्रदाताओं के लिये अनुपालन जटिलताएँ उत्पन्न हो गई हैं।  
  • साइबर सुरक्षा के खतरे: डिजिटल बुनियादी अवसंरचना पर बढ़ती निर्भरता भारत को साइबर हमलों, रैनसमवेयर और राज्य प्रायोजित हैकिंग सहित साइबर सुरक्षा खतरों की बढ़ती शृंखला के प्रति उजागर करती है। ऐसे खतरों के विरुद्ध DPI की लचीलापन क्षमता में सुधार करना राष्ट्रीय सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
    • वर्ष 2021 तक महाराष्ट्र भारत में सबसे अधिक लक्षित राज्य था, जिसे सभी रैनसमवेयर हमलों में से 42% का सामना करना पड़ा।
  • डिजिटल अवसंरचना का एकाधिकार: एकाधिकार प्रथाओं के जोखिम से छोटी निजी संस्थाओं के लाभ में कमी जैसी चुनौतियाँ उत्पन्न होती हैं, क्योंकि वे स्वयं को उन्नत करने में असमर्थ होती हैं।
  • डिजिटल अवसंरचना की स्थिरता: वित्तीय व्यवहार्यता, तकनीकी रखरखाव और मापनीयता के संदर्भ में DPI की दीर्घकालिक स्थिरता बनाए रखना एक सतत् चुनौती है जिसके लिये निरंतर नवाचार व निवेश की आवश्यकता होती है।

भारत की DPI का लचीलापन बढ़ाने हेतु क्या कदम उठाए जा सकते हैं?

  • डेटा संरक्षण और गोपनीयता अवसंरचना को मज़बूत करना: नागरिकों के डेटा की सुरक्षा और गोपनीयता सुनिश्चित करने के लिये एक व्यापक एवं प्रभावी डेटा संरक्षण कानून लागू करना महत्त्वपूर्ण है। 
    • इसमें डेटा संग्रहण, भंडारण और उपयोग के लिये कड़े मानदंड शामिल होने चाहिये, साथ ही डेटा उल्लंघनों के लिये सहमति, जवाबदेही तथा उपाय तंत्र पर स्पष्ट दिशानिर्देश भी शामिल होने चाहिये।
  • डिजिटल डिवाइड को पाटना: समान पहुँच सुनिश्चित करने के लिये डिजिटल बुनियादी अवसंरचना का विस्तार करना आवश्यक है। इसके लिये डिजिटल साक्षरता में सुधार लाने पर केंद्रित पहल की आवश्यकता है, जिससे समाज के सभी वर्गों को डिजिटल अर्थव्यवस्था में भाग लेने में सक्षम बनाया जा सके।
  • अनुकूली विनियामक तंत्र विकसित करना: प्लेटफॉर्म एकाधिकार, डेटा एकाधिकार और सीमा-पार डेटा शासन जैसी उभरती चुनौतियों का समाधान करने के लिये गतिशील एवं दूरदर्शी विनियामक अवसंरचना की स्थापना महत्त्वपूर्ण है।
    • ये अवसंरचना इतनी लचीली होनी चाहिये कि वे डिजिटल प्रौद्योगिकियों और बाज़ारों के तीव्र विकास के अनुकूल हो सकें।
  • साइबर सुरक्षा उपायों को बढ़ाना: साइबर जोखिमों को कम करने के लिये नियमित ऑडिट, सिमुलेशन और वास्तविक समय की निगरानी को संस्थागत बनाया जाना चाहिये।
  • सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) को बढ़ावा देना: तकनीकी जानकारी, नवाचार और संसाधनों का लाभ उठाने के लिये सरकार एवं निजी क्षेत्र के बीच सहयोग को प्रोत्साहित करना आवश्यक है। 
    • सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) डिजिटल बुनियादी अवसंरचना की तैनाती में तेज़ी ला सकती है, नवाचार को बढ़ावा दे सकती है तथा डिजिटल सेवाओं के विस्तार में आने वाली चुनौतियों का समाधान कर सकती है।
  • उदार कानून की आवश्यकता: हालाँकि कठोर कानूनी अवसंरचना DPI विकास में बाधा डाल सकती हैं, लेकिन सर्वोत्तम प्रथाओं (डेटा एन्क्रिप्शन, पहुँच प्रतिबंध) को बढ़ावा देने वाले उदार कानून उपकरण सार्वजनिक हित की रक्षा कर सकते हैं।
    • DPI के पहलुओं को वैधानिक, संविदात्मक और उदार कानून अवसंरचना के अंतर्गत अलग करने से नवाचार एवं विनियमन दोनों को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने में सहायता मिल सकती है।

निष्कर्ष

भारत की G-20 अध्यक्षता ने समावेशी और सतत् विकास के प्रमुख चालक के रूप में DPI की परिवर्तनकारी क्षमता को प्रदर्शित किया। DPI के लचीलेपन को और मज़बूत करने के लिये, भारत को मज़बूत डेटा सुरक्षा ढाँचे को अपनाना चाहिये, डिजिटल विभाजन को पाटना चाहिये, अनुकूल नियम विकसित करने चाहिये और निरंतर नवाचार एवं सार्वजनिक-निजी भागीदारी के माध्यम से अपनी डिजिटल बुनियादी अवसंरचना की दीर्घकालिक स्थिरता सुनिश्चित करनी चाहिये। 

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: भारत में शासन और सेवा वितरण में सुधार लाने में डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना (DPI) की भूमिका का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये। 

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सा/से भारत सरकार का/के ‘‘डिजिटल इंडिया’’ योजना का/के उद्देश्य है/हैं? (2018)

  1. भारत की अपनी इंटरनेट कंपनियों का गठन, जैसा कि चीन ने किया।
  2. एक नीतिगत ढाँचे की स्थापना जिससे बड़े आँकड़े एकत्र करने वाली समुद्रपारीय बहु-राष्ट्रीय कंपनियों को प्रोत्साहित किया जा सके कि वे हमारी राष्ट्रीय भौगोलिक सीमाओं के अन्दर अपने बड़े डेटा केंद्रों की स्थापना करें।
  3. हमारे अनेक गाँवों को इन्टरनेट से जोड़ना तथा हमारे बहुत से विद्यालयों, सार्वजनिक स्थलों एवं प्रमुख पर्यटक केंद्रों में वाई-फाई (Wi-Fi) लाना।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2    
(b) केवल 3
(c) केवल 2 और 3   
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (b)


मेन्स

प्रश्न:"चौथी औद्योगिक क्रांति (डिजिटल क्रांति) के प्रादुर्भाव ने ई-गवर्नेन्स को सरकार का अविभाज्य अंग बनाने में पहल की है"। विवेचन कीजिये। (2020)


भारतीय अर्थव्यवस्था

निवारक निरोध हेतु नए मानक

प्रिलिम्स के लिये:

सर्वोच्च न्यायालय, निवारक निरोध, विदेशी मुद्रा संरक्षण और तस्करी निवारण अधिनियम, 1974, अनुच्छेद 22 (5), मौलिक अधिकार, संसद, राज्य विधानमंडल, 44वाँ संशोधन अधिनियम, 1978, गैर-कानूनी गतिविधियाँ रोकथाम अधिनियम (UAPA), 1967, अनुच्छेद 21।

मेन्स के लिये:

निवारक निरोध कानूनों के साथ लोकतांत्रिक सिद्धांतों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को संतुलित करने में न्यायपालिका की भूमिका।

स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, जसीला शाजी बनाम भारत संघ मामले, 2024 में  सर्वोच्च न्यायालय (SC) द्वारा निवारक निरोध हेतु नए मानक स्थापित किये गए।

निवारक निरोध हेतु नए मानक क्या हैं?

  • निष्पक्ष और प्रभावी अवसर: सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संबंधित प्राधिकारी द्वारा हिरासत में लिये गए व्यक्ति को हिरासत के लिये आवश्यक सभी दस्तावेज़ों  की प्रतियाँ उपलब्ध करानी होंगी और ऐसा नहीं किये जाने पर हिरासत को अमान्य कर दिया जाएगा।
  • संवैधानिक अधिकार: सर्वोच्च न्यायालय ने ज़ोर देकर कहा कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता एक सर्वोपरि संवैधानिक अधिकार है। हिरासत को प्रभावी ढंग से चुनौती देने के लिये सभी प्रासंगिक दस्तावेज़ और जानकारी प्रदान करने में विफलता संविधान के अनुच्छेद 22 (5) के तहत मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगी।
  • गैर-मनमाने कार्यवाहियाँ: प्राधिकारियों से अपेक्षा की जाती है कि वे मनमाने कार्यों से बचें तथा यह सुनिश्चित करें कि सभी चरणों में हिरासत में लिये गए व्यक्ति के अधिकारों का सम्मान किया जाए।
    • इसमें गिरफ्तार किये गए व्यक्ति समझ में आने वाली भाषा में दस्तावेज़ प्रस्तुत करना शामिल है।
  • अनावश्यक रूप से हुई देरी : अधिकारियों को अनावश्यक रूप से हुई देरी से बचने के लिये उपलब्ध प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हुए, हिरासत से संबंधित सूचना समय पर सुनिश्चित करनी चाहिये।

गिरफ्तारी और नज़रबंदी के विरुद्ध संरक्षण के संदर्भ में मुख्य तथ्य क्या हैं?

  • संवैधानिक आधार: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 22 गिरफ्तार या हिरासत में लिये गए व्यक्तियों को सुरक्षा प्रदान करता है। 
    • ये प्रावधान गिरफ्तारी या नज़रबंदी की विभिन्न परिस्थितियों में मौलिक अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं।
    • नज़रबंदी के प्रकार: नज़रबंदी दो प्रकार की होती है।
    • दंडात्मक निरोध (Punitive Detention) : किसी व्यक्ति को उसके द्वारा किये गए अपराध के लिये न्यायालय में सुनवाई और दोषसिद्धि के पश्चात दंडित किया जाता है। यह विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया का पालन करता है।
    • निवारक निरोध (Preventive Detention) : इसमें किसी व्यक्ति को बिना किसी मुकदमे या दोषसिद्धि के हिरासत में लिया जाता है, जिसका उद्देश्य भविष्य में अपराध को रोकना होता है। यह निरोध संदेह के आधार पर होता है और संभावित नुकसान से बचने के लिये एहतियाती उपाय के रूप में कार्य करता है।
      • अनुच्छेद 22 के भाग: अनुच्छेद 22 के दो भाग हैं।
    • पहला भाग: पहला भाग सामान्य कानून के तहत अधिकारों (शत्रु विदेशी या निवारक निरोध कानूनों के तहत हिरासत में लिये  गए व्यक्तियों को छोड़कर सभ अधिकारों में शामिल हैं) से संबंधित है, न की निवारक निरोध से।
      • कानूनी प्रतिनिधित्व का अधिकार : गिरफ्तार व्यक्ति को कानूनी सलाहकार से परामर्श लेने और बचाव का अधिकार है।
      • त्वरित न्यायिक समीक्षा का अधिकार : उन्हें गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिये।
      • लंबे समय तक हिरासत में रखने के विरूद्ध अधिकार : उन्हें 24 घंटे के बाद रिहा कर दिया जाना चाहिये, जब तक कि मजिस्ट्रेट आगे भी हिरासत में रखने का आदेश न दे।
    • दूसरा भाग: यह विशेष रूप से निवारक निरोध कानूनों के तहत सुरक्षा से संबंधित है, जो नागरिकों और गैर-नागरिकों दोनों पर लागू होता है।
      • बिना समीक्षा के अधिकतम हिरासत अवधि : किसी व्यक्ति की हिरासत तीन महीने से अधिक नहीं हो सकती जब तक कि सलाहकार बोर्ड (बोर्ड में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश शामिल होंगे) विस्तारित हिरासत के लिये पर्याप्त कारण न बताए।
      • हिरासत के आधार की जानकारी : हिरासत के आधार की जानकारी हिरासत में लिये गए व्यक्ति को दी जानी चाहिये। हालाँकि  सार्वजनिक हित के विरुद्ध माने जाने वाले तथ्यों का खुलासा करना ज़रूरी नहीं है।
      • प्रतिनिधित्व का अधिकार: हिरासत में लिये गए व्यक्ति को नज़रबंदी आदेश के विरुद्ध प्रतिनिधित्व का अवसर दिया जाना चाहिये।
  • निवारक निरोध पर विधायी शक्तियाँ: संसद को रक्षा, विदेशी मामलों और भारत की सुरक्षा से जुड़े कारणों के लिये निवारक निरोध पर कानून बनाने का विशेष अधिकार है। 
    • संसद तथा राज्य विधानमंडल दोनों ही राज्य की सुरक्षा, लोक व्यवस्था बनाए रखने तथा समुदाय के लिये आवश्यक आपूर्तियों और सेवाओं को बनाए रखने से संबंधित कारणों से निवारक निरोध का कानून एक साथ बना सकते हैं। 
  • नियंत्रण हेतु संसद की शक्ति: अनुच्छेद 22 संसद को यह निर्धारित करने का अधिकार देता है कि:
    • वे परिस्थितियाँ और मामलों के वर्ग जिनमें किसी व्यक्ति को सलाहकार बोर्ड की राय प्राप्त किये बिना निवारक निरोध कानून के तहत  तीन महीने से अधिक समय तक हिरासत में रखा जा सकता है;
    • वह अधिकतम अवधि जिसके लिये किसी व्यक्ति को निवारक निरोध कानून के तहत किसी भी वर्ग के मामलों में  हिरासत में रखा जा सकता है; तथा
    • किसी जाँच में सलाहकार बोर्ड द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया।
  • प्रमुख संशोधन: 44 वें संशोधन अधिनियम, 1978 ने सलाहकार बोर्ड की राय प्राप्त किये बिना हिरासत की अवधि को तीन महीने से घटाकर दो महीने कर दिया है। 
    • हालाँकि यह प्रावधान अभी तक लागू नहीं हुआ है, इसलिये तीन महीने की मूल अवधि अभी भी जारी है।
  • भारत में निवारक निरोध कानून: राष्ट्रीय सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने तथा अपराध को रोकने के लिये संसद द्वारा कई निवारक निरोध कानून बनाए गए हैं। उदाहरण:
  • भारत में निवारक निरोध की आलोचना: विश्व के किसी भी लोकतांत्रिक देश ने निवारक निरोध को संविधान का अभिन्न अंग नहीं बनाया है, जैसा कि भारत में किया गया है। 
    • संयुक्त राज्य अमेरिका में यह अज्ञात है। 
    • इसका प्रयोग ब्रिटेन में केवल प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान किया गया था। 
    • भारत में निवारक निरोध ब्रिटिश शासन के दौरान भी मौजूद था। उदाहरण के लिये बंगाल राज्य कैदी विनियमन, 1818 और भारत रक्षा अधिनियम, 1939 में निवारक निरोध का प्रावधान था। 

निवारक निरोध कानून से संबंधित मुद्दे क्या हैं?

  • कानून का दुरुपयोग : निवारक निरोध भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों के साथ मौजूद है, लेकिन राजनीतिक लाभ या मुक्त भाषण को नियंत्रित करने के लिये इसका दुरुपयोग चिंता का विषय है।
    • उत्तर प्रदेश में ऐसे मामले सामने आए हैं, जहाँ स्थानीय क्रिकेट विवाद जैसे मामूली मुद्दों पर निवारक निरोध लागू किया गया  तथा इसके दुरुपयोग की संभावना भी दिखाई देती है।
  • नियंत्रण और संतुलन का अभाव: सीमित न्यायिक निगरानी के साथ हिरासत में रखने की व्यापक शक्तियों से प्राधिकार के दुरुपयोग का खतरा बढ़ जाता है।
    • न्यायिक जाँच का दायरा यह सुनिश्चित करने तक सीमित है कि प्रक्रियागत सुरक्षा उपायों का पालन किया गया है, लेकिन हिरासत के गुण-दोष को सुनिश्चित करना इसमें शामिल नहीं है
  • पारदर्शिता का अभाव: असहमति को रोकने के लिये बार-बार हिरासत में लेने का प्रयोग, अधिक जवाबदेही की आवश्यकता को दर्शाता है।
  • औपनिवेशिक युग के कानून : कुछ निवारक निरोध कानून औपनिवेशिक काल के हैं जो आधुनिक मानवाधिकार मानकों के अनुरूप नहीं हैं।

निवारक निरोध से संबंधित महत्त्वपूर्ण न्यायिक मामले कौन से हैं?

  • शिब्बन लाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामला, 1954 : सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि न्यायालय उन तथ्यों की सत्यता की जाँच करने के लिये सक्षम नहीं हैं जो हिरासत का आधार बनते हैं। 
    • इससे निवारक निरोध मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप की सीमित भूमिका का संकेत मिलता है।
  • खुदीराम बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामला, 1975 : सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि आंतरिक सुरक्षा अधिनियम (MISA) 1971 के तहत नज़रबंदी के आधार की वैधता का आकलन करने की शक्ति उसके पास नहीं है। 
    • सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर देते हुए कहा कि हिरासत में लेने वाले प्राधिकारी का निर्णय अंतिम होता है तथा न्यायालय अपने निर्णय को प्रतिस्थापित करने में असमर्थ होते हैं।
  • नंद लाल बजाज बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य मामला, 1981 : सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि निवारक निरोध कानून संसदीय प्रणाली के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं। 
    • हालाँकि इसने फैसला सुनाया कि यह मुद्दा राजनीतिक प्रकृति का है, इसलिये यह न्यायपालिका की नहीं, बल्कि विधायिका की ज़िम्मेदारी है।
  • रेखा बनाम तमिलनाडु राज्य मामला, 2011 : सर्वोच्च न्यायालय ने निवारक निरोध को "लोकतांत्रिक विचारों के प्रतिकूल"  कहा तथा अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन होने से बचने के लिये इसे संकीर्ण सीमाओं के भीतर लागू करने का आग्रह किया।
  • मरियप्पन बनाम ज़िला कलेक्टर एवं अन्य मामला, 2014 : मद्रास उच्च न्यायालय ने दोहराया कि निवारक निरोध का उद्देश्य राज्य को होने वाले नुकसान को रोकना है, न कि बंदी को दंडित करना। 
    • हिरासत में लेने का निर्णय राज्य सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, विदेशी मामले और सामुदायिक सेवाओं जैसे मानदंडों के अंतर्गत प्राधिकारी की व्यक्तिपरक संतुष्टि पर आधारित होता है।
  • प्रेम नारायण बनाम भारत संघ केस, 2019 : इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि निवारक निरोध किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन है जिसे लापरवाहीपूर्वक आरोपित से नहीं किया जा सकता। 
  • अभयराज गुप्ता बनाम अधीक्षक, सेंट्रल जेल, बरेली केस, 2021 : इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने माना कि जब कोई व्यक्ति पहले से ही हिरासत में हो तो निवारक निरोध का उपयोग नहीं किया जाना चाहिये।
    • न्यायालय ने कहा कि यदि हिरासत में लिये गए व्यक्ति के कार्यों से व्यापक सार्वजनिक अव्यवस्था नहीं फैलती है या सामाजिक शांति भंग नहीं होती है, तो उसे निवारक निरोध कानूनों के तहत हिरासत में लेने का कोई वैध आधार नहीं है।

निष्कर्ष

यद्यपि भारतीय संविधान द्वारा निवारक निरोध की अनुमति दी गई है, लेकिन इसे अक्सर व्यक्तिगत स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिये खतरा माना जाता है। अनियंत्रित प्राधिकरण मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर सकता है, जिसमें जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार भी शामिल है, जबकि यह राष्ट्रीय सुरक्षा बनाए रखने के लिये आवश्यक है। निष्पक्ष प्रक्रियाओं की गारंटी देने, दुरुपयोग को रोकने और सुरक्षा तथा  मानवाधिकारों के बीच संतुलन बनाने हेतु सुधार आवश्यक हैं। आधुनिक भारत में निवारक निरोध को निष्पक्ष और उचित बनाने के लिये, औपनिवेशिक युग के कानून का गहन परिक्षण एवं अद्यतन की आवश्यकता है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: भारत में निवारक निरोध से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों का परिक्षण कीजिये। निवारक निरोध के संबंध में न्यायपालिका व्यक्तिगत स्वतंत्रता और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संतुलन बनाने में किस प्रकार मदद करती है?

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, पिछले वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स  

प्र. रॉलेट अधिनियम का उद्देश्य था:  (2012)

(a) युद्ध प्रयासों के लिये अनिवार्य आर्थिक सहायता प्रदान करना 
(b) परीक्षण के लिये परीक्षण और सारांश प्रक्रियाओं के बिना कारावास
(c) खिलाफत आंदोलन का दमन करना 
(d) प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाना

उत्तर: (B)


प्रश्न. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान रॉलेट एक्ट ने किस कारण से सार्वजनिक रोष उत्पन्न किया? (2009)

(a) इसने धर्म की स्वतंत्रता को कम किया
(b) इसने भारतीय पारंपरिक शिक्षा को दबा दिया
(c) इसने सरकार को बिना मुकदमे के लोगों को कैद करने के लिये अधिकृत किया
(d) इसने ट्रेड यूनियन गतिविधियों पर अंकुश लगाया

उत्तर: (c)


मेन्स

प्रश्न: भारत सरकार ने हाल ही में गैर-कानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम (UAPA), 1967 और NIA अधिनियम में संशोधन करके आतंकवाद विरोधी कानूनों को मज़बूत किया है। मानवाधिकार संगठनों द्वारा UAPA के विरोध के दायरे और कारणों पर चर्चा करते हुए मौजूदा सुरक्षा माहौल के संदर्भ में, इन परिवर्तनों का विश्लेषण कीजिये। (2019)


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