इसरो के नए अध्यक्ष एस. सोमनाथ
प्रिलिम्स के लिये:भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो), गगनयान मिशन, लघु उपग्रह प्रक्षेपण यान (एसएसएलवी), राष्ट्रीय अंतरिक्ष परिवहन नीति (एनएसटीपी), इन-स्पेस, न्यूस्पेस इंडिया लिमिटेड (एनएसआईएल), इंडियन स्पेस एसोसिएशन (आईएसपीए) मेन्स के लिये:इसरो और इसकी उपलब्धियाँ, इसरो के समक्ष वर्तमान मुद्दे, घरेलू अंतरिक्ष कानून की आवश्यकता, अंतरिक्ष क्रांति के लिये उठाए गए कदम |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में एक प्रख्यात रॉकेट वैज्ञानिक एस सोमनाथ को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अध्यक्ष और अंतरिक्ष सचिव के रूप में नियुक्त किया गया है।
डॉ. सोमनाथ का प्रमुख योगदान
- उन्होंने पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल (PSLV) और जियोसिंक्रोनस सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल Mk-III (GSLV Mk-III) के विकास में प्रमुख भूमिका निभाई है।
- वह वर्ष 2003 में GSLV Mk-III परियोजना में शामिल हुए और वर्ष 2010 से 2014 तक परियोजना निदेशक के रूप में कार्य किया।
- वह प्रमोचन वाहनों के सिस्टम इंजीनियरिंग के क्षेत्र में विशेषज्ञ हैं।
- बाद में उन्होंने जीएसएलवी के लिये स्वदेशी क्रायोजेनिक चरणों के विकास में योगदान दिया।
प्रमुख बिंदु
- इसरो:
- यह भारत की अग्रणी अंतरिक्ष अन्वेषण एजेंसी है, जिसका मुख्यालय बंगलूरू में है।
- इसरो का गठन वर्ष 1969 में ग्रहों की खोज और अंतरिक्ष विज्ञान अनुसंधान को आगे बढ़ाते हुए अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के विकास और दोहन की दृष्टि से किया गया था।
- इसरो ने अपने पूर्ववर्ती INCOSPAR (अंतरिक्ष अनुसंधान के लिये भारतीय राष्ट्रीय समिति) की जगह ली, जिसकी स्थापना वर्ष 1962 में भारत के पहले प्रधानमंत्री पं जवाहरलाल नेहरू और वैज्ञानिक विक्रम साराभाई को भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के संस्थापकों में से एक माना जाता है।
- इसरो की उपलब्धियाँ:
- पहला भारतीय उपग्रह आर्यभट्ट इसरो द्वारा बनाया गया था जो 19 अप्रैल 1975 को सोवियत संघ की मदद से लॉन्च किया गया था।
- वर्ष 1980 ने रोहिणी के प्रक्षेपण को चिह्नित किया, जो कि पहला उपग्रह था जिसे एसएलवी -3 द्वारा सफलतापूर्वक कक्षा में भेजा गया, यह एक भारत निर्मित प्रक्षेपण यान था।
- इसके बाद इसरो द्वारा दो अन्य रॉकेट विकसित किये गए: पीएसएलवी (पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल) उपग्रहों को ध्रुवीय कक्षाओं में रखने के लिये और जीएसएलवी (जियोसिंक्रोनस सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल) उपग्रहों को भूस्थिर कक्षाओं में रखने के लिये।
- दोनों रॉकेटों ने भारत के साथ-साथ अन्य देशों के लिये कई पृथ्वी अवलोकन और संचार उपग्रहों को सफलतापूर्वक लॉन्च किया है।
- आईआरएनएसएस और गगन जैसे स्वदेशी उपग्रह नेविगेशन सिस्टम भी तैनात किये गए हैं।
- क्षेत्रीय नेविगेशन सैटेलाइट सिस्टम को हिंद महासागर के पानी में जहाजों के नेविगेशन में सहायता के लिये सटीक स्थिति सूचना सेवा प्रदान करने हेतु डिज़ाइन किया गया है।
- गगन (GAGAN) भारत का पहला उपग्रह आधारित ग्लोबल पोज़ीशनिंग सिस्टम (Global Positioning System) है जो इसरो के जीसैट उपग्रहों पर निर्भर करता है।
- जनवरी 2014 में ISRO ने GSAT-14 उपग्रह के GSLV-D5 प्रक्षेपण के लिये स्वदेशी रूप से निर्मित क्रायोजेनिक इंजन का उपयोग किया, जिससे यह क्रायोजेनिक तकनीक विकसित करने वाले दुनिया के केवल छह देशों में शामिल हो गया।
- इसरो की कुछ उल्लेखनीय अंतरिक्ष खोजों में चंद्रयान-1 चंद्र ऑर्बिटर, मार्स ऑर्बिटर मिशन (मंगलयान -1) और एस्ट्रोसैट अंतरिक्ष वेधशाला शामिल हैं।
- मार्स ऑर्बिटर मिशन की सफलता ने भारत को मंगल की कक्षा में पहुँचने वाला दुनिया का चौथा देश बना दिया।
- भारत ने 22 जुलाई 2019 को चंद्रयान-1 के बाद अपना दूसरा चंद्र अन्वेषण मिशन चंद्रयान-2 लॉन्च किया।
- 2021 में इसरो की प्रमुख उपलब्धियांँ:
- अमेज़ोनिया -1
- गगन की 53वीं उड़ान भारत की पहली उपग्रह-आधारित वैश्विक स्तर की प्रणाली है जो इसरो के जीसैट उपग्रहों पर निर्भर है। PSLV-C51 द्वारा इसरो की वाणिज्यिक शाखा, न्यू स्पेस इंडिया लिमिटेड (NSIL) का यह पहला समर्पित मिशन था
- नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस रिसर्च (आईएनपीई) का ऑप्टिकल अर्थ ऑब्जर्वेशन सैटेलाइट अमेज़ोनिया-1, अमेज़ॅन क्षेत्र में वनों की कटाई की निगरानी और ब्राजील के क्षेत्र में विविध कृषि के विश्लेषण के लिये उपयोगकर्ताओं को रिमोट सेंसिंग डेटा प्रदान करेगा।
- यूनिटीसैट (तीन उपग्रह):
- इन्हें रेडियो रिले सेवाएँ प्रदान करने के लिये तैनात किया गया है।
- सतीश धवन उपग्रह:
- सतीश धवन उपग्रह (SDSAT) एक नैनो उपग्रह है जिसका उद्देश्य विकिरण स्तर/अंतरिक्ष मौसम का अध्ययन करना और लंबी दूरी की संचार प्रौद्योगिकियों का प्रदर्शन करना है।
- अमेज़ोनिया -1
- आगामी मिशन:
- गगनयान मिशन: भारत का पहला अंतरिक्ष मिशन, गगनयान, वर्ष 2023 में लॉन्च किया जाएगा।
- चंद्रयान-3 मिशन: चंद्रयान-3 के 2022 की तीसरी तिमाही के दौरान लॉन्च होने की संभावना है।
- तीन भू प्रेक्षण उपग्रह (EOSs):
- EOS-4 (Resat-1A) और EOS-6 (Oceansat-3) - को इसरो के PSLV का उपयोग करके लॉन्च किया जाएगा, तीसरा, EOS-2 (माइक्रोसैट), स्माल सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल (SSLV) की पहली विकासात्मक उड़ान से लॉन्च किया जाएगा।
- इन उपग्रहों को वर्ष 2022 की पहली तिमाही में लॉन्च किया जाएगा।
- अन्य:
- शुक्रयान मिशन: इसरो भी शुक्र ग्रह के लिये एक मिशन की योजना बना रहा है, जिसे अस्थायी रूप से शुक्रयान कहा जाता है।
- स्वयं का अंतरिक्ष स्टेशन: भारत वर्ष 2030 तक अपना खुद का अंतरिक्ष स्टेशन लॉन्च करने की योजना बना रहा है, जो अमेरिका, रूस और चीन की लीग में एक विशिष्ट अंतरिक्ष क्लब में शामिल हो गया है।
- इसरो के समक्ष चुनौतियांँ:
- वैश्विक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था में नाम मात्र का योगदान:
- भारत का योगदान वैश्विक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था का केवल 2% हिस्सा है।
- इसके दो प्रमुख कारण अंतरिक्ष विशिष्ट कानूनों की कमी और अंतरिक्ष से संबंधित सभी गतिविधियों पर इसरो द्वारा प्राप्त प्रभावी एकाधिकार का अभाव हैं।
- अंतर्राष्ट्रीय संधि:
- भारत की वर्तमान अंतरिक्ष गतिविधियाँ वर्तमान में दो राष्ट्रीय नीतियों के साथ कुछ अंतर्राष्ट्रीय संधियों द्वारा शासित हैं जो उपग्रह संचार नीति (SATCOM) और रिमोट सेंसिंग डेटा नीति (RSDP) है।
- सैटकॉम नीति वर्ष 1997 में पेश की गई थी और इसका उद्देश्य भारत के भीतर अंतरिक्ष एवं उपग्रह संचार उद्योग का विकास करना है।
- वर्ष 2000 में 1997 की नीति के कार्यान्वयन के लिये मानदंड पेश किये गए थे।
- RSDP को वर्ष 2001 में पेश किया गया था और इसे वर्ष 2011 में संशोधित किया गया था।
- यह भारत के भीतर उपग्रह रिमोट सेंसिंग डेटा के वितरण के लिये स्पष्ट दिशा-निर्देश देता है और कहता है कि भारत सरकार भारतीय रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट (आईआरएस) से प्राप्त सभी डेटा की अनन्य मालिक है, जिसके लिये निजी संस्थाएँ केवल नोडल एजेंसी के माध्यम से लाइसेंस प्राप्त कर सकती हैं।
- सैटकॉम नीति वर्ष 1997 में पेश की गई थी और इसका उद्देश्य भारत के भीतर अंतरिक्ष एवं उपग्रह संचार उद्योग का विकास करना है।
- भारत की वर्तमान अंतरिक्ष गतिविधियाँ वर्तमान में दो राष्ट्रीय नीतियों के साथ कुछ अंतर्राष्ट्रीय संधियों द्वारा शासित हैं जो उपग्रह संचार नीति (SATCOM) और रिमोट सेंसिंग डेटा नीति (RSDP) है।
- घरेलू अंतरिक्ष कानून नहीं होना::कुछ समय पहले तक घरेलू अंतरिक्ष कानून की आवश्यकता महसूस नहीं की गई थी क्योंकि अंतरिक्ष को घरेलू के बजाय एक अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे के रूप में देखा जाता था।
- इसके अलावा निजी क्षेत्र ने हाल ही में वाणिज्यिक अंतरिक्ष गतिविधि की क्षमता को महसूस करने के बाद भारत के अंतरिक्ष क्षेत्र में निवेश करने और बड़ी भूमिका निभाने की इच्छा जताई।
- वैश्विक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था में नाम मात्र का योगदान:
- अंतरिक्ष क्रांति के लिये उठाए गए कदम:
- राष्ट्रीय अंतरिक्ष परिवहन नीति (NSTP)
- IN-SPACE
- न्यू स्पेस इंडिया लिमिटेड (एनएसआईएल)
- भारतीय अंतरिक्ष संघ
आगे की राह
- क्षुद्रग्रह अवलोकन, पृथ्वी अवलोकन, अंतरिक्ष पर्यटन, उपग्रह प्रक्षेपण, गहरे अंतरिक्ष अन्वेषण और उपग्रह इंटरनेट जैसी गतिविधियाँ नई अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था के कारक होंगे।
- लागत प्रभावी प्रौद्योगिकी, नवोदित स्टार्ट-अप संस्कृति, युवाओं की प्रचुरता, तकनीकी ज्ञान और इसरो के साथ पहले से ही एक स्प्रिंगबोर्ड के रूप में कार्य करने के साथ भारत में वैश्विक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था में वैश्विक नेता बनने की क्षमता है।
- घरेलू अंतरिक्ष कानून बनाते समय सरकार को केवल सावधान रहने की ज़रूरत है क्योंकि इसमें भारत के भविष्य को बेहतर रूप में बदलने की क्षमता है।
स्रोत- द हिंदू
‘प्रौद्योगिकी हेतु राष्ट्रीय शैक्षिक गठबंधन’ पहल
प्रिलिम्स के लिये:प्रौद्योगिकी हेतु राष्ट्रीय शैक्षिक गठबंधन, अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (AICTE) मेन्स के लिये:एडटेक, राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, डिजिटल डिवाइड |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में मानव संसाधन विकास मंत्रालय (MHRD) ने उच्च शिक्षा क्षेत्र में बेहतर परिणाम प्राप्त करने हेतु प्रौद्योगिकी का उपयोग करने के लिये ‘प्रौद्योगिकी हेतु राष्ट्रीय शैक्षिक गठबंधन 3.0‘ (NEAT 3.0) की घोषणा की है।
प्रमुख बिंदु
- NEAT योजना का मॉडल: यह सरकार और भारत की शिक्षा प्रौद्योगिकी (एडटेक) कंपनियों के बीच एक सार्वजनिक-निजी भागीदारी मॉडल पर आधारित है।
- उद्देश्य: NEAT का उद्देश्य समाज के आर्थिक एवं सामाजिक रूप से कमज़ोर वर्गों की सुविधा के लिये शिक्षा अध्यापन में सर्वोत्तम तकनीकी समाधानों को एक मंच पर लाना है।
- लक्षित क्षेत्र: इसके तहत अत्यधिक रोज़गार योग्य कौशल वाले विशिष्ट क्षेत्रों में सीखने या ई-सामग्री के लिये आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का उपयोग करने वाले प्रौद्योगिकी समाधानों की पहचान करने पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है।
- कार्य पद्धति: इसके तहत सरकार एडटेक कंपनियों द्वारा पेश किये जाने वाले पाठ्यक्रमों की एक शृंखला के लिये मुफ्त कूपन वितरित करने की योजना बना रही है।
- कार्यान्वयन एजेंसी: अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (AICTE)
अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (AICTE):
- इसकी स्थापना नवंबर 1945 में राष्ट्रीय स्तर के शीर्ष सलाहकार निकाय के रूप में की गई थी।
- इसका उद्देश्य तकनीकी शिक्षा हेतु उपलब्ध सुविधाओं पर एक सर्वेक्षण करना और समन्वित एवं एकीकृत रूप से देश में विकास को बढ़ावा देना है।
- राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के अनुसार, AICTE में निहित हैं:
- मानदंडों और मानकों के नियोजन, निर्माण और रखरखाव के लिये सर्वोच्च प्राधिकरण।
- गुणवत्ता सुनिश्चित करना।
- देश में तकनीकी शिक्षा का प्रबंधन।
एड-टेक
- एड-टेक के बारे में: एडटेक एक अधिक आकर्षक, समावेशी और व्यक्तिगत रूप से सीखने के अनुभव हेतु कक्षा में आईटी उपकरण का अभ्यास से संबंधित है।
- एड-टेक के इच्छित लाभ: प्रौद्योगिकी में अविश्वसनीय क्षमता है और यह मानव को इच्छित लाभ प्राप्त करने में सक्षम है, जो इस प्रकार हैं:
- शिक्षा के अधिक-से-अधिक निजीकरण को बढ़ावा।
- सीखने की दर में सुधार करके शैक्षिक उत्पादकता में वृद्धि करना।
- अवसंरचनात्मक सामग्री की लागत को कम करना और बड़े पैमाने पर सेवा प्रदान करना।
- शिक्षकों/निर्देशकों के समय का बेहतर उपयोग करना।
- राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020: भारत की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 निर्देश के हर स्तर पर प्रौद्योगिकी को एकीकृत करने के स्पष्ट आह्वान के लिये उत्तरदायी है।
- शिक्षा, मूल्यांकन, योजनाओं के निर्माण और प्रशासनिक क्षेत्र में तकनीकी के प्रयोग पर विचारों के स्वतंत्र आदान-प्रदान हेतु ‘राष्ट्रीय शैक्षिक प्रौद्योगिकी मंच’ (National Educational Technology Forum- NETF) नामक एक स्वायत्त निकाय की स्थापना की जाएगी।
- स्कोप: भारतीय एड-टेक इकोसिस्टम में इनोवेशन की काफी संभावनाएँ हैं।
- 4,500 से अधिक स्टार्ट-अप और लगभग 700 मिलियन अमेरिकी डॉलर के मौजूदा मूल्यांकन के साथ बाज़ार तेज़ी से विकास कर रहा है अनुमान है कि अगले 10 वर्षों में इसके 30 अरब अमेरिकी डॉलर का बाज़ार बनने की संभावना है।
- एड-टेक के साथ जुड़े मुद्दे:
- प्रौद्योगिकी पहुँच की कमी: हर कोई जो स्कूल जाने का खर्च वहन नहीं कर सकता उनके पास ऑनलाइन कक्षाओं में भाग लेने के लिये फोन, कंप्यूटर या यहाँ तक कि एक गुणवत्तापूर्ण इंटरनेट कनेक्शन भी नहीं है।
- वर्ष 2017-18 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आँकड़ों के अनुसार, केवल 42% शहरी और 15% ग्रामीण परिवारों के पास इंटरनेट की सुविधा थी।
- ऐसे में एड-टेक पहले से मौजूद डिजिटल डिवाइड को बढ़ा सकता है।
- शिक्षा के अधिकार के साथ विरोधाभास: प्रौद्योगिकी सभी के लिये उपलब्ध नहीं है, पूरी तरह से ऑनलाइन शिक्षा की ओर बढ़ना उन लोगों के शिक्षा के अधिकार को छीनने जैसा है जो प्रौद्योगिकी का उपयोग नहीं कर सकते हैं।
- प्रौद्योगिकी पहुँच की कमी: हर कोई जो स्कूल जाने का खर्च वहन नहीं कर सकता उनके पास ऑनलाइन कक्षाओं में भाग लेने के लिये फोन, कंप्यूटर या यहाँ तक कि एक गुणवत्तापूर्ण इंटरनेट कनेक्शन भी नहीं है।
- उठाए गए प्रमुख कदम :
- ज्ञान साझा करने के लिये डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर (दीक्षा)।
- पीएम ई विद्या।
- स्वयं प्रभा टीवी चैनल
- स्वयं पोर्टल
आगे की राह:
- व्यापक एड-टेक नीति: एक व्यापक एड-टेक नीति संरचना में चार प्रमुख तत्त्वों पर ध्यान दिया जाना चाहिये:
- विशेष रूप से वंचित समूहों को सीखने के लिये पहुँच प्रदान करना।
- शिक्षण, सीखने और मूल्यांकन की प्रक्रियाओं को सक्षम करना।
- शिक्षक प्रशिक्षण और निरंतर व्यावसायिक विकास की सुविधा प्रदान करना।
- योजना, प्रबंधन और निगरानी प्रक्रियाओं सहित शासन प्रणाली में सुधार करना।
- प्रौद्योगिकी एक उपकरण है, रामबाण नहीं: सार्वजनिक शिक्षण संस्थान सामाजिक समावेश और सापेक्ष समानता में अनुकरणीय भूमिका निभाते हैं।
- यह वह स्थान है, जहाँ सभी लिंग, वर्ग, जातियों और समुदायों के लोग मिलते हैं और एक समूह को दूसरों के सामने झुकने के लिये मजबूर नहीं किया जा सकता है।
- इसलिये, प्रौद्योगिकी स्कूलों को प्रतिस्थापित या शिक्षकों की जगह नहीं ले सकती है। इस प्रकार इसे "शिक्षक बनाम प्रौद्योगिकी" नहीं बल्कि "शिक्षक और प्रौद्योगिकी" होना चाहिये।
- एड-टेक के लिये बुनियादी ढाँचा प्रदान करना: तत्काल अवधि में एड-टेक परिदृश्य में विशेष रूप से उनके पैमाने, पहुँच और प्रभाव को पूरी तरह से मापने करने के लिये एक तंत्र होना चाहिये।
- शिक्षकों और छात्रों के लिये पहुँच, इक्विटी, बुनियादी ढाँचे, शासन और गुणवत्ता से संबंधित परिणामों और चुनौतियों पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये।
- डिजिटल डिवाइड को दो स्तरों पर संबोधित करने के लिये विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये - प्रौद्योगिकी का प्रभावी ढंग से उपयोग करने और इसका लाभ उठाने के लिये पहुँच व कौशल।
स्रोत- इंडियन एक्सप्रेस
भारत वन स्थिति रिपोर्ट-2021
प्रिलिम्स के लिये:भारत वन स्थिति रिपोर्ट-2021, वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 मेन्स के लिये:भारत वन स्थिति रिपोर्ट-2021, देश में वन क्षेत्र में सुधार की आवश्यकता, संबंधित चुनौतियाँ, वन आवरण में सुधार हेतु की गई पहलें। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने भारत वन स्थिति रिपोर्ट-2021 जारी की है।
- अक्तूबर, 2021 में भारत के वन शासन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन लाने के लिये MoEFCC द्वारा वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 में एक संशोधन प्रस्तावित किया गया था।
प्रमुख बिंदु
- भारत वन स्थिति रिपोर्ट-2021 के बारे में:
- यह भारत के वन और वृक्ष आवरण का आकलन है। इस रिपोर्ट को द्विवार्षिक रूप से ‘भारतीय वन सर्वेक्षण’ द्वारा प्रकाशित किया जाता है।
- वर्ष 1987 में पहला सर्वेक्षण प्रकाशित हुआ था वर्ष 2021 में भारत वन स्थिति रिपोर्ट (India State of Forest Report-ISFR) का यह 17वांँ प्रकाशन है।
- ISFR का उपयोग वन प्रबंधन के साथ-साथ वानिकी और कृषि वानिकी क्षेत्रों में नीतियों के नियोजन एवं निर्माण में किया जाता है।
- वनों की तीन श्रेणियों का सर्वेक्षण किया गया है जिनमें शामिल हैं- अत्यधिक सघन वन (70% से अधिक चंदवा घनत्व), मध्यम सघन वन (40-70%) और खुले वन (10-40%)।
- स्क्रबस (चंदवा घनत्व 10% से कम) का भी सर्वेक्षण किया गया लेकिन उन्हें वनों के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया।
- ISFR 2021 की विशेषताएंँ:
- इसने पहली बार टाइगर रिज़र्व, टाइगर कॉरिडोर और गिर के जंगल जिसमें एशियाई शेर रहते हैं में वन आवरण का आकलन किया है।
- वर्ष 2011-2021 के मध्य बाघ गलियारों में वन क्षेत्र में 37.15 वर्ग किमी (0.32%) की वृद्धि हुई है, लेकिन बाघ अभयारण्यों में 22.6 वर्ग किमी (0.04%) की कमी आई है।
- इन 10 वर्षों में 20 बाघ अभयारण्यों में वनावरण में वृद्धि हुई है, साथ ही 32 बाघ अभयारण्यों के वनावरण क्षेत्र में कमी आई।
- बक्सा (पश्चिम बंगाल), अनामलाई (तमिलनाडु) और इंद्रावती रिज़र्व (छत्तीसगढ़) के वन क्षेत्र में वृद्धि देखी गई है जबकि कवल (तेलंगाना), भद्रा (कर्नाटक) और सुंदरबन रिज़र्व (पश्चिम बंगाल) में हुई है।
- अरुणाचल प्रदेश के पक्के टाइगर रिज़र्व में सबसे अधिक लगभग 97% वन आवरण है।
- रिपोर्ट के निष्कर्ष:
- क्षेत्र में वृद्धि:
- पिछले दो वर्षों में 1,540 वर्ग किलोमीटर के अतिरिक्त कवर के साथ देश में वन और वृक्षों के आवरण में वृद्धि जारी है।
- भारत का वन क्षेत्र अब 7,13,789 वर्ग किलोमीटर है, यह देश के भौगोलिक क्षेत्र का 21.71% है जो वर्ष 2019 में 21.67% से अधिक है।
- वृक्षों के आवरण में 721 वर्ग किमी. की वृद्धि हुई है।
- वनों में वृद्धि/कमी:
- वनावरण में सबसे अधिक वृद्धि दर्शाने वाले राज्यों में तेलंगाना (3.07%), आंध्र प्रदेश (2.22%) और ओडिशा (1.04%) हैं।
- वनावरण में सबसे अधिक कमी पूर्वोत्तर के पाँच राज्यों- अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिज़ोरम और नगालैंड में हुई है।
- उच्चतम वन क्षेत्र/आच्छादन वाले राज्य:
- क्षेत्रफल की दृष्टि से: मध्य प्रदेश में देश का सबसे बड़ा वन क्षेत्र है, इसके बाद अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और महाराष्ट्र हैं।
- कुल भौगोलिक क्षेत्र के प्रतिशत के रूप में वन आवरण के मामले में शीर्ष पाँच राज्य मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मणिपुर और नगालैंड हैं।
- शब्द 'वन क्षेत्र' '(Forest Area) सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार भूमि की कानूनी स्थिति को दर्शाता है, जबकि 'वन आवरण' (Forest Cover) शब्द किसी भी भूमि पर पेड़ों की उपस्थिति को दर्शाता है।
- मैंग्रोव:
- मैंग्रोव में 17 वर्ग किमी. की वृद्धि देखी गई है। भारत का कुल मैंग्रोव आवरण अब 4,992 वर्ग किमी. हो गया है।
- जंगल में आग लगने की आशंका :
- 35.46% वन क्षेत्र जंगल की आग से ग्रस्त है। इसमें से 2.81% अत्यंत अग्नि प्रवण है, 7.85% अति उच्च अग्नि प्रवण है और 11.51% उच्च अग्नि प्रवण है।
- वर्ष 2030 तक भारत में 45-64% वन जलवायु परिवर्तन और बढ़ते तापमान से प्रभावित होंगे।
- सभी राज्यों (असम, मेघालय, त्रिपुरा और नगालैंड को छोड़कर) में वन अत्यधिक संवेदनशील जलवायु वाले हॉटस्पॉट होंगे। लद्दाख (वनावरण 0.1-0.2%) के सबसे अधिक प्रभावित होने की संभावना है।
- कुल कार्बन स्टॉक:
- देश के जंगलों में कुल कार्बन स्टॉक 7,204 मिलियन टन होने का अनुमान है, जिसमें वर्ष 2019 से 79.4 मिलियन टन की वृद्धि हुई है।
- वन कार्बन स्टॉक का आशय कार्बन की ऐसी मात्रा से है जिसे वातावरण से अलग किया गया है और अब वन पारिस्थितिकी तंत्र के भीतर संग्रहीत किया जाता है, मुख्य रूप से जीवित बायोमास और मिट्टी के भीतर और कुछ हद तक लकड़ी और अपशिष्ट में भी।
- देश के जंगलों में कुल कार्बन स्टॉक 7,204 मिलियन टन होने का अनुमान है, जिसमें वर्ष 2019 से 79.4 मिलियन टन की वृद्धि हुई है।
- बाँस के वन:
- वर्ष 2019 में वनों में मौजूद बाँस की संख्या 13,882 मिलियन से बढ़कर वर्ष 2021 में 53,336 मिलियन हो गई है।
- क्षेत्र में वृद्धि:
- चिंताएँ
- प्राकृतिक वनों में गिरावट:
- मध्यम घने जंगलों या ‘प्राकृतिक वन’ में 1,582 वर्ग किलोमीटर की गिरावट आई है।
- यह गिरावट खुले वन क्षेत्रों में 2,621 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि के साथ-साथ देश में वनों के क्षरण को दर्शाती है।
- साथ ही झाड़ी क्षेत्र में 5,320 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है, जो इस क्षेत्र में वनों के पूर्ण क्षरण को दर्शाता है।
- मध्यम घने जंगलों या ‘प्राकृतिक वन’ में 1,582 वर्ग किलोमीटर की गिरावट आई है।
- प्राकृतिक वनों में गिरावट:
बहुत घने जंगलों में 501 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है।
पूर्वोत्तर क्षेत्र के वन आवरण में गिरावट:
पूर्वोत्तर क्षेत्र में वन आवरण में कुल मिलाकर 1,020 वर्ग किलोमीटर की गिरावट देखी गई है।
- पूर्वोत्तर राज्यों के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 7.98% हिस्सा है लेकिन कुल वन क्षेत्र का 23.75% हिस्सा है।
- पूर्वोत्तर राज्यों में गिरावट का कारण क्षेत्र में प्राकृतिक आपदाओं, विशेष रूप से भूस्खलन और भारी बारिश के साथ-साथ मानवजनित गतिविधियों जैसे कि कृषि को स्थानांतरित करना, विकासात्मक गतिविधियों का दबाव और पेड़ों की कटाई को उत्तरदायी ठहराया गया है।
सरकारी पहलें
- हरित भारत हेतु राष्ट्रीय मिशन:
- यह जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC) के तहत आठ मिशनों में से एक है।
- इसे फरवरी 2014 में देश के जैविक संसाधनों और संबंधित आजीविका को प्रतिकूल जलवायु परिवर्तन के खतरे से बचाने तथा पारिस्थितिक स्थिरता, जैव विविधता संरक्षण और भोजन- पानी एवं आजीविका पर वानिकी के महत्त्वपूर्ण प्रभाव को पहचानने के उद्देश्य से शुरू किया गया था।
- राष्ट्रीय वनीकरण कार्यक्रम (NAP):
- इसे निम्नीकृत वन भूमि के वनीकरण के लिये वर्ष 2000 से लागू किया गया है।
- इसे पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा कार्यान्वित किया जा रहा है।
- क्षतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण (CAMPA Funds):
- इसे 2016 में लॉन्च किया गया था , इसके फंड का 90% राज्यों को दिया जाना है, जबकि 10% केंद्र द्वारा बनाए रखा जाता है।
- धन का उपयोग जलग्रहण क्षेत्रों के उपचार, प्राकृतिक उत्पादन, वन प्रबंधन, वन्यजीव संरक्षण और प्रबंधन, संरक्षित क्षेत्रों व गांवों के पुनर्वास, मानव-वन्यजीव संघर्षो को रोकने, प्रशिक्षण एवं जागरूकता पैदा करने, काष्ठ सुरक्षा वाले उपकरणों की आपूर्ति तथा संबद्ध गतिविधियों के लिये किया जा सकता है।
- नेशनल एक्शन प्रोग्राम टू कॉम्बैट डेज़र्टिफिकेशन
- इसे 2001 में मरुस्थलीकरण से संबंधित मुद्दों को संबोधित करने के लिये तैयार किया गया था।
- इसे पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) द्वारा कार्यान्वित किया जा रहा है।
- वन अग्नि निवारण और प्रबंधन योजना (एफएफपीएम):
- यह केंद्र द्वारा वित्तपोषित एकमात्र कार्यक्रम है जो विशेष रूप से जंगल की आग से निपटने में राज्यों की सहायता के लिये समर्पित है।
स्रोत- इंडियन एक्सप्रेस
नाटो-रूस परिषद वार्ता
प्रिलिम्स के लिये:नाटो, नाटो-रूस परिषद, यूरोपीय संघ (EU), रोम घोषणा। मेन्स के लिये:रूस-यूक्रेन संकट, नाटो, नाटो-रूस संबंध। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में ‘उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन’ (नाटो) और रूस के मध्य ब्रुसेल्स में नाटो-रूस परिषद (NRC) में यूक्रेन की मौजूदा स्थिति और यूरोप की सुरक्षा हेतु इसके निहितार्थों पर चर्चा की गई।
- नाटो और रूस के प्रतिनिधियों के बीच वार्ता बिना किसी स्पष्ट परिणाम के संपन्न हुई।
प्रमुख बिंदु
- नाटो-रूस परिषद
- ‘नाटो-रूस परिषद’ की स्थापना 28 मई 2002 को रोम (रोम घोषणा) में नाटो-रूस शिखर सम्मेलन में की गई थी।
- इसने स्थायी संयुक्त परिषद (PJC) का स्थान लिया, जो कि आपसी संबंधों पर वर्ष 1997 के नाटो-रूस स्थापना अधिनियम द्वारा परामर्श और सहयोग हेतु एक मंच है।
- ‘नाटो-रूस परिषद’ परामर्श, सर्वसम्मति-निर्माण, सहयोग, संयुक्त निर्णय और संयुक्त कार्रवाई हेतु एक तंत्र है, जिसमें व्यक्तिगत नाटो सदस्य राज्य और रूस समान हित के सुरक्षा मुद्दों के व्यापक स्पेक्ट्रम पर समान भागीदार के रूप में काम करते हैं।
- ‘नाटो-रूस परिषद’ की स्थापना 28 मई 2002 को रोम (रोम घोषणा) में नाटो-रूस शिखर सम्मेलन में की गई थी।
- बैठक की मुख्य विशेषताएँ:
- नाटो ने यूरोप में एक नए सुरक्षा समझौते की रूस की मांग को खारिज कर दिया, रूस को यूक्रेन के पास तैनात सैनिकों को वापस लेने और खुले संघर्ष के खतरे को कम करने हेतु बातचीत में शामिल होने की चुनौती दी।
- अमेरिका और यूरोपीय संघ के लिये यूक्रेन रूस के साथ एक महत्त्वपूर्ण बफर के रूप में कार्य करता है। यूक्रेन ओचाकिव में और दूसरा बर्दियांस्क में एक नौसैनिक अड्डा भी बना रहा है, जिससे रूस खुश नहीं है।
- रूस ने नाटो में और सदस्यों को शामिल करने तथा अपने पूर्वी सहयोगियों से पश्चिमी ताकतों को वापस लेने की मांग की। इसने यह भी चेतावनी दी कि इससे "यूरोपीय सुरक्षा के लिये सबसे अप्रत्याशित और सबसे भयानक परिणाम" हो सकते हैं।
- नाटो सहयोगियों और रूस के मध्य अत्यधिक मतभेद हैं जिन्हें पाटना आसान नहीं होगा।
- नाटो ने यूरोप में एक नए सुरक्षा समझौते की रूस की मांग को खारिज कर दिया, रूस को यूक्रेन के पास तैनात सैनिकों को वापस लेने और खुले संघर्ष के खतरे को कम करने हेतु बातचीत में शामिल होने की चुनौती दी।
- रूस-यूक्रेन संकट पर भारत का रुख:
- भारत पश्चिमी शक्तियों द्वारा क्रीमिया में रूस के हस्तक्षेप की निंदा में शामिल नहीं है तथा इस मुद्दे पर उसने अपना एक तटस्थ रुख रखा।
- नवंबर 2020 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र (UN) में यूक्रेन द्वारा प्रायोजित एक प्रस्ताव के खिलाफ मतदान किया, जिसमें क्रीमिया में कथित मानवाधिकार उल्लंघन की निंदा की गई थी तथा रूस द्वारा इसका समर्थन किया गया था।
उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो):
- नाटो की स्थापना 4 अप्रैल, 1949 की उत्तरी अटलांटिक संधि (जिसे वाशिंगटन संधि भी कहा जाता है) द्वारा संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा और कई पश्चिमी यूरोपीय देशों द्वारा सोवियत संघ के खिलाफ सामूहिक सुरक्षा प्रदान करने के लिये की गई थी।
- नाटो सामूहिक रक्षा के सिद्धांत पर काम करता है, जिसका तात्पर्य ‘एक या अधिक सदस्यों पर आक्रमण सभी सदस्य देशों पर आक्रमण माना जाता है। ज्ञातव्य है कि यह नाटो के अनुच्छेद 5 में निहित है।
- वर्ष 2019 तक इसके सदस्य देशों की संख्या 30 थी। वर्ष 2017 में मोंटेनेग्रो इस गठबंधन में शामिल होने वाला नवीनतम सदस्य देश बन गया है।
आगे की राह
- स्थिति का एक व्यावहारिक समाधान मिन्स्क शांति प्रक्रिया को पुनर्जीवित करना है। इसलिये पश्चिम (अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों) को दोनों पक्षों के बीच बातचीत फिर से शुरू करने तथा सीमा पर शांति बहाल करने हेतु मिन्स्क समझौते के अनुसार अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिये प्रेरित करना चाहिये।
- यूरोपीय सुरक्षा को हो रहे नुकसान, मानवीय और आर्थिक लागतों को मज़बूत करने तथा यूक्रेन की संप्रभुता के लिये खतरे को रोकने हेतु अमेरिका को सभी पक्षों के साथ एक ओएससीई-मध्यस्थता प्रक्रिया में सीधे शामिल होने के लिये समझौता कीकरना चाहिये
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
सौर अपशिष्ट
प्रिलिम्स के लिये:सौर अपशिष्ट और इसके उदाहरण, संबंधित पहल मेन्स के लिये:भारत और दुनिया के अन्य हिस्सों में सौर अपशिष्ट का प्रबंधन, सौर अपशिष्ट से उत्पन्न चुनौतियाँ, सुझाव, संबंधित पहल। |
चर्चा में क्यों?
नेशनल सोलर एनर्जी फेडरेशन ऑफ इंडिया (NSEFI) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत 2030 तक भारत में 34,600 टन से अधिक संचयी सौर अपशिष्ट उत्पन्न कर सकता है।
- भारत में सौर अपशिष्ट प्रबंधन नीति नहीं है, लेकिन महत्त्वाकांक्षी सौर ऊर्जा स्थापना लक्ष्य है।
- एनएसईएफआई भारत के सभी सौर ऊर्जा हितधारकों का एक ‘अंब्रेला’ संगठन है। जो नीति समर्थन के क्षेत्र में काम करता है और भारत में सौर ऊर्जा विकास से जुड़े सभी मुद्दों को संबोधित करने के लिये एक राष्ट्रीय मंच है।
प्रमुख बिंदु
- परिचय:
- सौर अपशिष्ट एक प्रकार का इलेक्ट्रॉनिक कचरा है जो छोड़े गए सौर पैनलों द्वारा उत्पन्न होता है। उन्हें देश में कबाड़ के रूप में बेचा जाता है।
- यह अगले दशक तक कम से कम चार-पाँच गुना बढ़ सकता है। सौर कचरे से निपटने के लिये भारत को अपना ध्यान व्यापक नियम बनाने पर केंद्रित करना चाहिये।
- रिपोर्ट:
- यह संभावना है कि इस दशक के अंत तक भारत को सौर कचरे की समस्याओं का सामना करना पड़ेगा और सौर अपशिष्ट जल्द ही कचरे का सबसे प्रचलित रूप बन जाएगा।
- सोलर पैनल की लाइफ 20-25 वर्ष होती है इसलिये कचरे की समस्या भविष्य में चुनौती बन सकती है।
- जबकि फोटोवोल्टिक वैश्विक बिजली का केवल 3% उत्पन्न करते हैं, वे दुनिया के 40% टेल्यूरियम, 15% चांदी व सेमीकंडक्टर-ग्रेड क्वार्ट्ज का एक बड़ा हिस्सा और कम लेकिन अभी भी महत्त्वपूर्ण मात्रा में इंडियम, जस्ता, टिन और गैलियम का उपभोग करते हैं।
- सौर पैनलों से बरामद कच्चे माल का बाज़ार मूल्य वर्ष 2030 तक 450 मिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच सकता है।
- पुनर्प्राप्त करने योग्य सामग्रियों का मूल्य वर्ष 2050 तक 15 बिलियन अमेरिकी डॉलर को पार कर सकता है जो कि दो अरब सौर पैनलों के साथ 630 गीगावॉट बिजली प्रदान करने के लिये पर्याप्त होगा।
- यह संभावना है कि इस दशक के अंत तक भारत को सौर कचरे की समस्याओं का सामना करना पड़ेगा और सौर अपशिष्ट जल्द ही कचरे का सबसे प्रचलित रूप बन जाएगा।
विश्व स्तर पर यह उम्मीद की जाती है कि सौर पैनलों के एंड-ऑफ-लाइफ (ईओएल) अगले 10-20 वर्षों में सौर पैनल रीसाइक्लिंग के व्यवसाय में वृद्धि होगी।
- सौर अपशिष्ट को संभालने वाले अन्य देश:
- यूरोपीय संघ:
- यूरोपीय संघ का अपशिष्ट विद्युत और इलेक्ट्रॉनिक उपकरण (WEEE) निर्देश उन निर्माताओं या वितरकों पर कचरे के निपटान की ज़िम्मेदारी डालता है जो पहली बार ऐसे उपकरण पेश करते हैं या स्थापित करते हैं।
- WEEE निर्देश के अनुसार, फोटोवोल्टिक (PV) निर्माता अपने जीवनचक्र के अंत में मॉड्यूल के संग्रह, प्रबंधन और उपचार के लिये पूरी तरह से ज़िम्मेदार हैं।
- यूके:
- यूके में एक उद्योग-प्रबंधित "टेक-बैक और रीसाइक्लिंग योजना" भी है, जहाँ सभी पीवी उत्पादकों को आवासीय सौर बाज़ार (व्यवसाय-से-उपभोक्ता) और गैर-आवासीय बाज़ार के लिये उपयोग किये जाने वाले उत्पादों से संबंधित डेटा को पंजीकृत करने और जमा करने की आवश्यकता होगी।
- अमेरिका:
- जबकि अमेरिका में कोई संघीय कानून या नियम नहीं हैं जो रीसाइक्लिंग के बारे में बात करते हो, किंतु कुछ राज्य ऐसे हैं, जिन्होंने एंड-ऑफ-लाइफ पीवी मॉड्यूल प्रबंधन को संबोधित करने हेतु नीतियों को सक्रिय रूप से परिभाषित किया है।
- वाशिंगटन और कैलिफोर्निया ‘विस्तारित निर्माता उत्तरदायित्व’ (EPR) नियमों के साथ आए हैं। वाशिंगटन को अब पीवी मॉड्यूल निर्माताओं को अंतिम उपयोगकर्त्ता को बिना किसी कीमत के राज्य के भीतर या राज्य में बेचे जाने वाले पीवी मॉड्यूल के टेक-बैक और पुन: उपयोग या पुनर्चक्रण के वित्तपोषण की आवश्यकता है।
- ऑस्ट्रेलिया:
- ऑस्ट्रेलिया में संघीय सरकार ने चिंता को स्वीकार किया है और पीवी सिस्टम के लिये उद्योग के नेतृत्व वाली उत्पाद प्रबंधन योजना को विकसित करने तथा लागू करने हेतु राष्ट्रीय उत्पाद प्रबंधन निवेश कोष के हिस्से के रूप में 2 मिलियन अमेरिकी डॉलर के अनुदान की घोषणा की है।
- जापान और दक्षिण कोरिया:
- जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देशों ने पहले ही पीवी कचरे की समस्या के समाधान के लिये समर्पित कानून बनाने के अपने संकल्प का संकेत दिया है।
- यूरोपीय संघ:
- सिफारिशें:
- मज़बूत ई-अपशिष्ट या अक्षय ऊर्जा अपशिष्ट कानून: सौर पैनल के जीवन के अंत के दौरान उत्तरदायित्त्व निर्धारित करने हेतु निर्माता और डेवलपर्स के लिये ‘विस्तारित निर्माता उत्तरदायित्व’ (EPR) लागू किया जा सकता है।
- पीवी मॉड्यूल यूरोपीय संघ के WEEE नियमों में शामिल किये जाने वाले पहले नियम थे। इसमें अपशिष्ट प्रबंधन के वित्तपोषण के विकल्प शामिल हैं।
- बुनियादी ढाँचा: पुनर्चक्रण की लागत को कम करने के लिये बुनियादी ढाँचे में निवेश की आवश्यकता है, अक्षय ऊर्जा कचरे को कुशलतापूर्वक संभालने के लिये ऊर्जा और अपशिष्ट क्षेत्र के बीच समन्वय और अधिक रीसाइक्लिंग संयंत्रों का निर्माण करना आवश्यक है।
- पर्यावरण निपटान और पुनर्चक्रण: सौर अपशिष्ट पर्यावरण निपटान और पुनर्चक्रण परियोजना डेवलपर्स के साथ बिजली खरीद समझौते SECI / DISCOMS / में सरकार के मुद्दों का हिस्सा हो सकती है।
- लैंडफिल पर प्रतिबंध: सौर पैनल अपशिष्ट पर्यावरण के लिये हानिकारक हैं क्योंकि इसमें ज़हरीली धातु और खनिज होते हैं जिनका जमीन में रिसकते हैं।
- व्यापार प्रोत्साहन: पुनर्चक्रण उद्योग को भाग लेने हेतु प्रोत्साहित करने के लिये नए व्यापार मॉडल, प्रोत्साहन या हरित प्रमाणपत्र के मुद्दे शामिल किये जाने चाहिये।
- अनुसंधान और विकास: डिज़ाइन में नवाचार का उनके द्वारा उत्पन्न कचरे के प्रकार पर प्रभाव पड़ सकता है; नवीकरणीय ऊर्जा अपशिष्ट के प्रभाव को कम करने में प्रौद्योगिकी प्रगति महत्त्वपूर्ण होगी। उदाहरण के लिये- नए पैनल निर्माण प्रक्रिया के दौरान कम सिलिकॉन का उपयोग कर कम अपशिष्ट उत्पन्न को बढ़ावा दिया जा सकता है।
- मज़बूत ई-अपशिष्ट या अक्षय ऊर्जा अपशिष्ट कानून: सौर पैनल के जीवन के अंत के दौरान उत्तरदायित्त्व निर्धारित करने हेतु निर्माता और डेवलपर्स के लिये ‘विस्तारित निर्माता उत्तरदायित्व’ (EPR) लागू किया जा सकता है।
- संबंधित भारतीय पहल:
- ड्राफ्ट ईपीआर अधिसूचना: प्लास्टिक पैकेजिंग अपशिष्ट
- प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन संशोधन नियम, 2021
- ई-कचरा (प्रबंधन) नियम, 2016
- ई-अपशिष्ट (प्रबंधन) संशोधन नियम, 2018
- केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड
स्रोत: डाउन टू अर्थ
असम-मेघालय सीमा विवाद
प्रिलिम्स के लिये:असम-मेघालय सीमा विवाद, संविधान का अनुच्छेद 263 मेन्स के लिये:अंतर-राज्यीयसीमा विवाद और संबंधित मुद्दे तथा आगे की राह। |
चर्चा में क्यों?
21 जनवरी, 2022 में को मेघालय राज्य के 50वें स्थापना दिवस समारोह से पूर्व, गृह मंत्री द्वारा असम-मेघालय सीमा के छह क्षेत्रों में विवाद को समाप्त करने के लिये अंतिम समझौते पर मुहर लगाए जाने की उम्मीद है।
प्रमुख बिंदु
- असम-मेघालय सीमा विवाद के बारे में:
- असम और मेघालय दोनों राज्य 885 किलोमीटर लंबी सीमा साझा करते हैं। फिलहाल उनकी सीमाओं पर 12 बिंदुओं पर विवाद है।
- असम-मेघालय सीमा विवाद ऊपरी ताराबारी, गज़ांग आरक्षित वन, हाहिम, लंगपीह, बोरदुआर, बोकलापारा, नोंगवाह, मातमुर, खानापारा-पिलंगकाटा, देशदेमोराह ब्लॉक I और ब्लॉक II, खंडुली और रेटचेरा के क्षेत्रों पर हैं।
- मेघालय को असम पुनर्गठन अधिनियम, 1971 के तहत असम से अलग किया गया, यह कानून जिसे मेघालय द्वारा चुनौती दी गई विवाद का कारण बना।
- विवाद का प्रमुख बिंदु:
- असम और मेघालय के बीच विवाद का एक प्रमुख बिंदु असम के कामरूप ज़िले की सीमा से लगे पश्चिम गारो हिल्स में लंगपीह ज़िला है।
- लंगपीह ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान कामरूप ज़िले का हिस्सा था, लेकिन आज़ादी के बाद यह गारो हिल्स और मेघालय का हिस्सा बन गया।
- असम इसे मिकिर पहाड़ियों (असम में स्थित) का हिस्सा मानता है।
- मेघालय ने मिकिर हिल्स के ब्लॉक I और II पर सवाल उठाया है, जो अब कार्बी आंगलोंग क्षेत्र असम का हिस्सा है। मेघालय का कहना है कि ये तत्कालीन यूनाइटेड खासी और जयंतिया हिल्स ज़िलों के हिस्से थे।
- विवादों को सुलझाने के प्रयास:
- असम और मेघालय दोनों ने सीमा विवाद निपटान समितियों का गठन किया है।
- सीमा विवादों को चरणबद्ध तरीके से हल करने के लिये दो क्षेत्रीय समितियों का गठन करने का निर्णय लिया गया है और सीमा विवाद को हल करते समय पाँच पहलुओं पर विचार किया जाएगा।
- वे ऐतिहासिक तथ्य, जातीयता, प्रशासनिक सुविधा, संबंधित लोगों की मनोदशा और भूमि से निकटता हैं।
- पहले चरण में छह स्थलों पर विचार किया जा रहा है। ये ताराबारी, गिजांग, हाहिम, बकलापारा, खानापारा-पिलिंगकाटा और रातचेरा हैं।
- ये विवादित क्षेत्र असम की तरफ कछार, कामरूप मेट्रो और कामरूप ग्रामीण तथा मेघालय की तरफ पश्चिम खासी हिल्स, री भोई ज़िले व पूर्वी जयंतिया हिल्स का हिस्सा हैं।
- असम और सीमा मुद्दे:
- पूर्वोत्तर के राज्य बड़े पैमाने पर असम से जुड़े हुए हैं, जिसका कई राज्यों के साथ सीमा विवाद है।
- अरुणाचल प्रदेश और नगालैंड के साथ असम के सीमा विवाद सर्वोच्च न्यायालय में लंबित हैं।
- मिजोरम के साथ असम के सीमा विवाद फिलहाल बातचीत के जरिये समाधान के चरण में हैं।
- विभिन्न राज्यों के बीच अन्य सीमा विवाद:
- बेलागवी सीमा विवाद (कर्नाटक और महाराष्ट्र के मध्य)
- ओडिशा सीमा विवाद
आगे की राह
- राज्यों के बीच सीमा विवादों को वास्तविक सीमा स्थानों के उपग्रह मानचित्रण का उपयोग करके सुलझाया जा सकता है।
- अंतर्राज्यीय संवाद (Inter State Dialogues) अंतर्राज्यीय परिषद (Inter State Councils) और अधिकरण में विचार-विमर्श तथा इस प्रकार के विवादों को सुलझाने हेतु सहकारी संघवाद की भावना को अपनाने की आवश्यकता है।
- संविधान के अनुच्छेद 263 के तहत, अंतर-राज्य परिषद से विवादों की जांच और सलाह देने, सभी राज्यों के लिये सामान्य विषयों पर चर्चा करने और बेहतर नीति समन्वय के लिये सिफारिशें करने की अपेक्षा की जाती है।
- इसी तरह, प्रत्येक क्षेत्र में राज्यों के लियेए सामान्य चिंता के मामलों पर चर्चा करने हेतु क्षेत्रीय परिषदों को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है- सामाजिक और आर्थिक योजना, सीमा विवाद, अंतर-राज्य परिवहन आदि से संबंधित मामले।
- भारत अनेकता में एकता का प्रतीक है। हालाँकि इस एकता को और मज़बूत करने के लिये केंद्र और राज्य सरकारों दोनों को सहकारी संघवाद के लोकाचार को आत्मसात करने की आवश्यकता है।
स्रोत- द हिंदू
भारत-ब्रिटेन मुक्त व्यापार समझौता
प्रिलिम्स के लिये:मुक्त व्यापार समझौता (FTA), G20 देश, क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी सौदा, विश्व व्यापार संगठन। मेन्स के लिये:भारत-ब्रिटेन मुक्त व्यापार समझौता और भारत के लिये इसका महत्त्व, मुक्त व्यापार समझौते |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत और ब्रिटेन ने औपचारिक ‘मुक्त व्यापार समझौता’ (FTA) वार्ता शुरू की है, जिसे दोनों देशों ने वर्ष 2022 के अंत तक समाप्त करने की परिकल्पना की है।
- तब तक दोनों देश एक अंतरिम मुक्त व्यापार क्षेत्र पर विचार कर रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप अधिकांश वस्तुओं पर शुल्क कम हो जाएगा।
प्रमुख बिंदु
- समझौते के विषय में:
- दोनों देश कुछ चुनिंदा सेवाओं के लिये नियमों में ढील देने के अलावा वस्तुओं के एक छोटे से समूह पर टैरिफ कम करने के लिये एक प्रारंभिक फसल योजना या एक सीमित व्यापार समझौते पर सहमत हुए हैं।
- इसके अलावा वे ‘संवेदनशील मुद्दों’ से बचने और उन क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करने पर सहमत हुए जहाँ अधिक पूरकता मौजूद है।
- व्यापार वार्ता में कृषि और डेयरी क्षेत्रों को भारत के लिये संवेदनशील क्षेत्र माना जाता है।
- साथ ही वर्ष 2030 तक भारत और यूनाइटेड किंगडम (यूके) के बीच व्यापार को दोगुना करने का लक्ष्य भी रखा गया है।
- मुक्त व्यापार समझौता (FTA):
- यह दो या दो से अधिक देशों के बीच आयात और निर्यात में बाधाओं को कम करने हेतु किया गया एक समझौता है।
- एक मुक्त व्यापार नीति के तहत वस्तुओं और सेवाओं को अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के पार खरीदा एवं बेचा जा सकता है, जिसके लिये बहुत कम या न्यून सरकारी शुल्क, कोटा तथा सब्सिडी जैसे प्रावधान किये जाते हैं।
- मुक्त व्यापार की अवधारणा व्यापार संरक्षणवाद या आर्थिक अलगाववाद (Economic Isolationism) के विपरीत है।
- FTAs को अधिमान्य व्यापार समझौता, व्यापक आर्थिक सहयोग समझौता, व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौता (सीईपीए) के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।
भारत-ब्रिटेन व्यापार संबंध:
- परिचय:
- भारत और ब्रिटेन हमारे साझा इतिहास और समृद्ध संस्कृति पर बनी साझेदारी के साथ जीवंत लोकतंत्र हैं।
- ब्रिटेन में विविध भारतीय डायस्पोरा जो एक "लिविंग ब्रिज" के रूप में कार्य करता है दोनों देशों के बीच संबंधों को और गति प्रदान करता है।
- G20 देशों में ब्रिटेन भारत के सबसे बड़े निवेशकों में से एक है।
- भारत और ब्रिटेन के बीच एफटीए का महत्त्व:
- माल का निर्यात बढ़ाना: यूके के साथ व्यापार सौदों से कपड़ा, चमड़े का सामान और जूते जैसे बड़े रोज़गार पैदा करने वाले क्षेत्रों के निर्यात को बढ़ावा मिल सकता है।
- सेवा व्यापार पर स्पष्टता: एफटीए से निश्चितता, पूर्वानुमेयता और पारदर्शिता प्रदान करने की उम्मीद है इसे यह एक अधिक उदार, सुविधाजनक एवं प्रतिस्पर्द्धी सेवा व्यवस्था बनाएगा।
- आयुष और ऑडियो-विजुअल सेवाओं सहित आईटी/आईटीईएस, नर्सिंग, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा जैसे सेवा क्षेत्रों में निर्यात बढ़ाने की भी काफी संभावनाएँ हैं।
- भारत के लिये सेवा व्यापार को बढ़ावा देने हेतु वीज़ा प्रतिबंध एक प्रमुख मुद्दा रहा है।
- RCEP से बाहर निकलना: भारत ने नवंबर 2019 में क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी सौदे से बाहर होने का विकल्प चुना।
- इसलिये अमेरिका, यूरोपीय संघ और यूके के साथ व्यापार सौदों पर नए सिरे से ध्यान केंद्रित किया जा रहा है जो भारतीय निर्यातकों के लिये प्रमुख बाज़ार हैं और अपने सोर्सिंग में विविधता लाने के इच्छुक हैं।
- रणनीतिक लाभ: यूरोप में एक सुरक्षा सहयोगी के रूप में बने रहते हुए ब्रिटेन हिंद-प्रशांत क्षेत्र की तरफ झुक रहा है, जहाॅं भारत एक स्वाभाविक सहयोगी हो सकता है।
- वैश्विक स्तर पर चीन के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए भारत को क्षेत्रीय संतुलन बहाल करने के लिये व्यापक गठबंधन की आवश्यकता है।
- संबंधित चुनौतियाॅं:
- FTA पर हस्ताक्षर करने में देरी: अंतरिम समझौते, जो कुछ उत्पादों पर टैरिफ को कम करते हैं, हालाँकि कुछ मामलों में व्यापक एफटीए में महत्त्वपूर्ण देरी हो सकती है।
- भारत ने वर्ष 2004 में थाईलैंड के साथ 84 वस्तुओं पर शुल्क कम करने के लिये एक अंतरिम व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किये लेकिन समझौते को कभी भी पूर्ण एफटीए में परिवर्तित नहीं किया गया।
- विश्व व्यापार संगठन की चुनौतियाँ: अंतरिम एफटीए पूर्ण एफटीए में स्नातक नहीं है, विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) अन्य देशों की चुनौतियों का भी सामना करना पड़ सकता है।
- विश्व व्यापार संगठन के नियम केवल सदस्यों को अन्य देशों के लिये तरजीही की अनुमति देते हैं यदि उनके पास द्विपक्षीय समझौते हैं जो उनके बीच "पर्याप्त रूप से सभी व्यापार" को शामिल करते हैं।
- FTA पर हस्ताक्षर करने में देरी: अंतरिम समझौते, जो कुछ उत्पादों पर टैरिफ को कम करते हैं, हालाँकि कुछ मामलों में व्यापक एफटीए में महत्त्वपूर्ण देरी हो सकती है।
आगे की राह
- भारत विश्व की सबसे तेज़ी से उभरती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है और भारत ने यूके के साथ FTA व्यापार को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
- हालांँकि नीति निर्माताओं के अनुसार, यूके के साथ भारत द्वारा हस्ताक्षरित FTA अपेक्षित लाभप्रदाता की स्थिति में नहीं है एवं इसके विपरीत उदार नियमों के कारण देश के विनिर्माण क्षेत्र को नुकसान पहुंँचा है।
- इसलिये इसमें शामिल सभी हितधारकों द्वारा वस्तुओं, सेवाओं और निवेश प्रवाह के संदर्भ में FTA के विस्तृत मूल्यांकन की आवश्यकता है।