सामाजिक न्याय
भारत में बहुविवाह
प्रिलिम्स के लिये:भारत में बहुविवाह, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955, NFHS, भारतीय दंड संहिता, 1860, मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) अधिनियम, 1937 मेन्स के लिये:भारत में धार्मिक समूहों के बीच बहुविवाह |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में असम के मुख्यमंत्री ने कहा है कि राज्य सरकार "विधायी कार्रवाई" के माध्यम से बहुविवाह की प्रथा पर प्रतिबंध लगाने हेतु कदम उठाएगी और इस मुद्दे की जाँच के लिये "विशेषज्ञ समिति" का गठन किया जाएगा।
बहुविवाह (Polygamy):
- परिचय:
- बहुविवाह (Polygamy) दो शब्दों से बना है: ‘बहु’ जिसका अर्थ है ‘बहुत’ और ‘गामोस’ जिसका अर्थ है ‘विवाह’। नतीजतन बहुविवाह उन विवाहों से संबंधित है जिसमें व्यक्ति द्वारा एक से अधिक विवाह किये जाते हैं।
- इस प्रकार बहुविवाह में किसी भी महिला या पुरुष के एक ही समय में एक से अधिक वैवाहिक साथी हो सकते हैं।
- भारत में परंपरागत तौर पर बहुविवाह के तहत मुख्यतः एक से अधिक पत्नियों वाले पुरुष की स्थिति व्यापक रूप से प्रचलित थी। हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 ने इस प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया।
- विशेष विवाह अधिनियम (Special Marriage Act- SMA), 1954 व्यक्तियों को अंतर-धार्मिक विवाह करने की अनुमति देता है, लेकिन इसमें बहुविवाह की मनाही है। अधिनियम का उपयोग कई मुस्लिम महिलाओं द्वारा बहुविवाह प्रथा को रोकने में मदद हेतु किया गया है।
- बहुविवाह (Polygamy) दो शब्दों से बना है: ‘बहु’ जिसका अर्थ है ‘बहुत’ और ‘गामोस’ जिसका अर्थ है ‘विवाह’। नतीजतन बहुविवाह उन विवाहों से संबंधित है जिसमें व्यक्ति द्वारा एक से अधिक विवाह किये जाते हैं।
- प्रकार:
- बहुपत्नीत्व (Polygyny):
- यह एक वैवाहिक संरचना है जिसमें एक पुरुष की कई पत्नियाँ होती हैं। इस रूप में बहुविवाह अधिक सामान्य अथवा व्यापक है।
- माना जाता है कि सिंधु घाटी सभ्यता में राजाओं और सम्राटों की कई पत्नियाँ होती थीं।
- बहुपतित्व प्रथा (Polyandry):
- यह एक प्रकार का विवाह है जिसमें एक महिला के कई पति होते हैं।
- ऐसी घटनाएँ अत्यंत असामान्य हैं।
- द्विविवाह (Bigamy):
- जब कोई व्यक्ति पहले से ही मान्य रूप से विवाहित होते हुए भी किसी और के साथ विवाह करता है, इसे द्विविवाह के रूप में जाना जाता है और ऐसा करने वाले व्यक्ति को द्विविवाही कहा जाएगा।
- इसे भारत सहित कई देशों में एक अपराध माना जाता है। दूसरे शब्दों में यह किसी व्यक्ति के साथ मान्य विवाह में होते हुए भी किसी अन्य व्यक्ति के साथ विवाह करने की क्रिया है।
- बहुपत्नीत्व (Polygyny):
- भारत में प्रचलन:
- राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (वर्ष 2019-20) में पाया गया है कि बहुविवाह का प्रचलन ईसाइयों में 2.1%, मुसलमानों में 1.9%, हिंदुओं में 1.3% और अन्य धार्मिक समूहों में 1.6% था।
- आँकड़ों से पता चला है कि बहुपत्नीत्व विवाहों का सबसे अधिक प्रसार जनजातीय आबादी वाले पूर्वोत्तर राज्यों में था।
- उच्चतम बहुपत्नीत्व दर वाले 40 ज़िलों की सूची में उच्च जनजातीय आबादी वाले लोगों की संख्या सबसे अधिक थी।
भारत में विवाह से संबंधित विभिन्न धार्मिक कानून:
- हिंदू:
- वर्ष 1955 में लागू हुए हिंदू विवाह अधिनियम ने यह स्पष्ट कर दिया कि हिंदू बहुविवाह को समाप्त कर दिया जाएगा और इसे अपराध बना दिया जाएगा।
- अधिनियम 1955 की धारा 11 में बहुविवाह को अमान्य घोषित किया गया है, अर्थात् अधिनियम एकल विवाह को मान्यता प्रदान करता है।
- ऐसी स्थिति में अधिनियम की धारा 17 के साथ-साथ भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 494 और 495 के तहत दंडित किया जाता है।
- पारसी:
- पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 ने पहले ही द्विविवाह को गैरकानूनी घोषित कर दिया था।
- कोई भी पारसी, व्यक्ति अपने पति या पत्नी के जीवनकाल में इस अधिनियम या किसी किसी अन्य विधि के अधीन तब तक विवाह नहीं करेगा जब तक कि उसने अपनी पत्नी या पति से विधिपूर्ण तलाक नहीं ले लेता। पत्नी या पति द्वारा कानूनी रूप से तलाक दिये बिना या उसकी पिछली शादी को अमान्य या भंग घोषित किये बिना भारतीय दंड संहिता द्वारा प्रदान किये गए दंड के अधीन है।
- मुस्लिम:
- मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) अनुप्रयोग अधिनियम [The Muslim Personal Law (Shariat) Application Act] 1937 के तहत अखिल भारतीय मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा प्रदत्त खंड भारत में मुसलमानों पर लागू होते हैं।
- बहुविवाह मुस्लिम कानून में निषिद्ध नहीं है क्योंकि इसे एक धार्मिक प्रथा के रूप में मान्यता प्राप्त है, इसलिये वे इस प्रथा को संरक्षित और स्वीकार करते हैं।
- फिर भी यह स्पष्ट है कि यदि यह तरीका संविधान के मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है, तो इसे बदला जा सकता है।
- जब भारतीय दंड संहिता और व्यक्तिगत कानूनों के बीच असहमति होती है, तो व्यक्तिगत कानूनों को लागू किया जाता है क्योंकि यह एक कानूनी सिद्धांत है कि एक विशिष्ट कानून सामान्य कानून का स्थान लेता है।
बहुविवाह से संबंधित न्यायिक दृष्टिकोण:
- परयांकंडियाल बनाम के. देवी और अन्य (1996):
- सर्वोच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि एक विवाह वाले रिश्ते हिंदू समाज के मानक और विचारधारा थे, जो दूसरे विवाह की निंदा और उसका तिरस्कार करते थे।
- धर्म के प्रभाव के कारण बहुविवाह को हिंदू संस्कृति का अंग नहीं बनने दिया गया।
- बॉम्बे राज्य बनाम नरसु अप्पा माली (1951):
- बॉम्बे उच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि बॉम्बे (हिंदू द्विविवाह रोकथाम) अधिनियम, 1946 भेदभावपूर्ण नहीं था।
- सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि एक राज्य विधायिका के पास लोक कल्याण और सुधार उपायों को लागू करने का अधिकार है, भले ही वह हिंदू धर्म या रीति-रिवाजों का उल्लंघन करता हो।
- जावेद और अन्य बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य (2003):
- सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला सुनाया कि स्वतंत्रता, सामाजिक सद्भाव, गरिमा और कल्याण अनुच्छेद 25 के अंतर्गत आते हैं।
- मुस्लिम कानून चार महिलाओं से विवाह की अनुमति प्रदान करता है, लेकिन यह अनिवार्य नहीं है।
- यह चार महिलाओं से शादी नहीं करने के लिये धार्मिक प्रथा का उल्लंघन नहीं होगा।
भारतीय समाज और संवैधानिक दृष्टिकोण में बहुविवाह:
- बहुविवाह का भारतीय समाज पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव है, इसकी वैधता के लिये विशेष रूप से इस्लाम और हिंदू जैसे- धर्मों के संबंध में संवैधानिक दृष्टिकोण से परिचर्चा की गई है।
- भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, जहाँ किसी भी धर्म को दूसरे से श्रेष्ठ या अधीनस्थ नहीं माना जाता है, प्रत्येक धर्म को विधि के तहत समान माना जाता है।
- भारतीय संविधान सभी नागरिकों को मौलिक अधिकारों की सुनिश्चितता प्रदान करता है, इन अधिकारों के विपरीत किसी भी कानून को असंवैधानिक माना जाता है।
- संविधान का अनुच्छेद 13 निर्दिष्ट करता है कि संविधान के भाग III का उल्लंघन करने वाला कोई भी कानून अमान्य होगा।
- आर.सी. कूपर बनाम भारत संघ (1970) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सैद्धांतिक दृष्टिकोण के घटक और राज्य का हस्तक्षेप, सुरक्षा की गंभीरता प्रकट करते हैं जो कि एक वंचित समूह के लिये संवैधानिक रूप से असंगत हो सकता है, जिसका उद्देश्य साधारण नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा प्रदान करना है।
- संविधान का अनुच्छेद 14 भारत के राज्यक्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति को कानून के तहत समान उपचार और सुरक्षा की गारंटी देता है।
- अनुच्छेद 15(1) के अनुसार, राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध उसके धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा ।
इन देशों में बहुविवाह वैध है:
- भारत, सिंगापुर, मलेशिया जैसे देशों में बहुविवाह विशेष रूप से केवल मुसलमानों के लिये अनुमत तथा वैध है।
- वर्तमान में अल्जीरिया, मिस्र तथा कैमरून जैसे देशों में बहुविवाह मान्यता प्राप्त और प्रचलित है। केवल ये ही विश्व के ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ बहुविवाह वैध है।
निष्कर्ष:
- यह सच है कि भारतीय समाज में बहुविवाह लंबे समय से अस्तित्त्व में है और वर्तमान समय में अवैध होने के बावजूद कुछ क्षेत्रों में इसका प्रचलन है।
- बहुविवाह की प्रथा केवल किसी एक धर्म या संस्कृति से संबंधित नहीं है बल्कि अतीत में इसे विभिन्न कारणों से उचित ठहराया गया है।
- हालाँकि समाज के विकास के साथ बहुविवाह का कोई औचित्य नहीं रह गया है और इस प्रथा का त्याग कर दिया जाना चाहिये।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न: भारत के संविधान का कौन-सा अनुच्छेद अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने के किसी व्यक्ति के अधिकार को संरक्षण देता है? (a) अनुच्छेद 19 उत्तर: (b) व्याख्या:
अतः विकल्प (b) सही उत्तर है। मेन्स:प्रश्न: रीति-रिवाजों एवं परंपराओं द्वारा तर्क को दबाने से प्रगतिविरोध उत्पन्न हुआ है। क्या आप इससे सहमत हैं? (2020) |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
शासन व्यवस्था
प्रवर्तन निदेशालय
प्रिलिम्स के लिये:प्रवर्तन निदेशक, सर्वोच्च न्यायालय, FATF, धन शोधन, नशीले पदार्थों की तस्करी, भगोड़ा आर्थिक अपराधी अधिनियम मेन्स के लिये:प्रवर्तन निदेशक, इसके कार्य और संबंधित मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को सूचित किया है कि प्रवर्तन निदेशालय (ED) के प्रमुख का कार्यकाल नवंबर 2023 से आगे जारी नहीं रहेगा।
मुद्दा:
- नवंबर 2021 में भारत के राष्ट्रपति ने दो अध्यादेश जारी किये थे जिसमें ED के निदेशक के कार्यकाल को दो वर्ष से बढ़ाकर पाँच वर्ष करने की अनुमति दी गई थी और बताया गया था कि इसमें एक वर्ष में तीन बार कार्य अवधि के विस्तार की भी संभावना है।
- ED प्रमुख के कार्य अवधि विस्तार की अनुमति के इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय ने बरकरार रखा है परंतु केवल दुर्लभ एवं असाधारण मामलों में और वह भी कम अवधि के लिये।
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि केंद्र सरकार द्वारा दो वर्ष की अवधि से आगे के लिये ED को नियुक्त करने की शक्ति पर कोई प्रतिबंध नहीं है। इसके अतिरिक्त उन्होंने स्पष्ट किया कि केंद्रीय सतर्कता आयोग अधिनियम, 2003 की धारा 25 (D) में वाक्यांश "दो वर्ष से कम नहीं" का अर्थ "दो वर्ष से अधिक नहीं" के रूप में नहीं लिया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने कहा, "दो वर्ष की अवधि से अधिक की अवधि के लिये प्रवर्तन निदेशक नियुक्त करने में केंद्र सरकार की शक्ति पर कोई बंधन नहीं है"।
- वित्तीय कार्रवाई कार्य बल द्वारा लंबित समीक्षा के लिये सरकार के कार्यकाल के हालिया विस्तार को एक कारण के रूप में उद्धृत किया गया है।
- सरकार द्वारा हाल ही में कार्य अवधि के विस्तार के कारण वित्तीय कार्रवाई कार्य बल (Financial Action Task Force- FATF) के आसन्न मूल्यांकन में देरी हो रही है।
- केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने एक हलफनामे में कहा कि ED के निदेशक के कार्यकाल में विस्तार प्रशासनिक दृष्टिकोण से आवश्यक था, जिसमें संगठन के प्रमुख के कार्यकाल की निरंतरता कई महत्त्वपूर्ण मामलों के लिये आवश्यक है। ये ऐसे मामले हैं जिनके पर्यवेक्षण के लिये मामले की पृष्ठभूमि और ऐतिहासिकता की जानकारी की आवश्यकता होती है।
- एक नवनियुक्त निदेशक को नए कार्यालय और ED के कामकाज़ का जायजा लेने और अभ्यस्त होने में काफी समय लगेगा और दक्षता के इष्टतम स्तर पर काम करना मुश्किल हो सकता है।
- न्यायालय द्वारा पूर्व में उचित समझे गए कार्यकाल से परे कार्यकाल का विस्तार करने की संवैधानिकता पर सवाल उठाया गया है, जिसके कारण सर्वोच्च न्यायालय में इस निर्णय को लेकर एक नई अपील की गई है। मामला फिलहाल विचाराधीन है।
प्रवर्तन निदेशालय:
- परिचय:
- प्रवर्तन निदेशालय (ED) एक बहु-अनुशासनात्मक संगठन है जो मनी लॉन्ड्रिंग (अवैध धन को वैध करना) के अपराधों और विदेशी मुद्रा कानूनों के उल्लंघन की जाँच करता है।
- यह वित्त मंत्रालय के राजस्व विभाग के अधीन कार्य करता है।
- भारत सरकार की एक प्रमुख वित्तीय जाँच एजेंसी के रूप में ED भारत के संविधान और कानूनों के सख्त अनुपालन में कार्य करता है।
- प्रवर्तन निदेशालय (ED) एक बहु-अनुशासनात्मक संगठन है जो मनी लॉन्ड्रिंग (अवैध धन को वैध करना) के अपराधों और विदेशी मुद्रा कानूनों के उल्लंघन की जाँच करता है।
- संरचना:
- मुख्यालय: प्रवर्तन निदेशालय (ED) का मुख्यालय नई दिल्ली में है, जिसका नेतृत्व प्रवर्तन निदेशक करता है।
- प्रवर्तन के विशेष निदेशकों की अध्यक्षता में मुंबई, चेन्नई, चंडीगढ़, कोलकाता और दिल्ली में पाँच क्षेत्रीय कार्यालय हैं।
- भर्ती: अधिकारियों की भर्ती सीधे और अन्य जाँच एजेंसियों के अधिकारियों में से की जाती है।
- इसमें IRS (भारतीय राजस्व सेवा), IPS (भारतीय पुलिस सेवा) और IAS (भारतीय प्रशासनिक सेवा) के अधिकारी शामिल हैं जैसे- आयकर अधिकारी, उत्पाद शुल्क अधिकारी, सीमा शुल्क अधिकारी और पुलिस।
- कार्यकाल: दो वर्ष, लेकिन तीन वर्ष का विस्तार देकर निदेशकों के कार्यकाल को दो से पाँच वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है।
- दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम (Delhi Special Police Establishment- DSPE Act), 1946 और केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC) अधिनियम, 2003 में संशोधन किया गया है ताकि सरकार को दो प्रमुखों को उनके शुरुआती दो वर्ष के शासनादेश के बाद एक अतिरिक्त वर्ष के लिये अपने पदों पर बनाए रखने का अधिकार प्रदान किया जा सके।
- मुख्यालय: प्रवर्तन निदेशालय (ED) का मुख्यालय नई दिल्ली में है, जिसका नेतृत्व प्रवर्तन निदेशक करता है।
- कार्य:
- COFEPOSA: विदेशी मुद्रा का संरक्षण और तस्करी गतिविधियों की रोकथाम अधिनियम, 1974 के तहत इस निदेशालय को FEMA के उल्लंघन के संबंध में निवारक निरोध के मामलों को प्रायोजित करने का अधिकार है।
- विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम, 1999 (फेमा): यह विदेशी व्यापार एवं भुगतान की सुविधा से संबंधित कानूनों को समेकित और संशोधित करने तथा भारत में विदेशी मुद्रा बाज़ार के व्यवस्थित विकास और रखरखाव को बढ़ावा देने के लिये लागू किया गया एक नागरिक कानून है।
- ED को विदेशी मुद्रा कानूनों और नियमों के उल्लंघनों की जाँच करने, कानून का उल्लंघन करने वालों पर निर्णय लेने तथा उन पर जुर्माना लगाने का उत्तरदायित्व सौंपा गया है।
- धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 (PMLA): FATF इंडिया की सिफारिशों के बाद PMLA को अधिनियमित किया गया था।
- ED को अपराध की आय से प्राप्त संपत्ति का पता लगाने के लिये जाँच कर संपत्ति को अनंतिम रूप से कुर्क करने और विशेष अदालत द्वारा अपराधियों के खिलाफ मुकदमा चलाने तथा संपत्ति की जब्ती सुनिश्चित करने के लिये PMLA के प्रावधानों को क्रियान्वित करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है।
- भगोड़ा आर्थिक अपराधी अधिनियम, 2018 (FEOA): हाल ही में विदेशों में आश्रय लेने वाले आर्थिक अपराधियों से संबंधित मामलों की संख्या में वृद्धि के साथ भारत सरकार ने भगोड़ा आर्थिक अपराधी अधिनियम, 2018 (FEOA) पेश किया और ED को इसके प्रवर्तन का ज़िम्मा सौंपा गया है।
- यह कानून आर्थिक अपराधियों को भारतीय अदालतों के अधिकार क्षेत्र से बाहर रहकर भारतीय कानून की प्रक्रिया से बचने से रोकने के लिये बनाया गया था।
- इस कानून के तहत ED को उन भगोड़े आर्थिक अपराधियों की संपत्तियों को कुर्क करना अनिवार्य है जो गिरफ्तारी का वारंट लेकर भारत से भाग गए हैं और केंद्र सरकार को उनकी संपत्तियों को जब्त करने का प्रावधान है।
ED से संबंधित मुद्दे:
- शक्ति का दुरुपयोग:
- ED के पास मनी लॉन्ड्रिंग जैसे आर्थिक अपराधों की जाँच करने की शक्ति और विवेकाधिकार है तथा उन्हें राजनेताओं या सरकारी अधिकारियों पर मुकदमा चलाने के लिये सरकार से अनुमति की आवश्यकता नहीं है।
- हालाँकि इस शक्ति का दुरुपयोग किया गया है, क्योंकि मामूली अपराधों को भी PMLA के दायरे में लाया जाने लगा है, जबकि इसका मूल उद्देश्य नशीले पदार्थों की तस्करी से संबंधित मनी लॉन्ड्रिंग को रोकना था।
- पारदर्शिता की कमी:
- ED जाँच के लिये मामलों का चयन कैसे करता है, इस संबंध में भी पारदर्शिता की कमी है और अक्सर इसे विपक्षी दलों को लक्षित करने के लिये जाना जाता है।
- ED द्वारा दर्ज मामलों में दोषसिद्धि की दर बहुत कम है, लेकिन मीडिया ट्रायल के चलते अभियुक्त की प्रतिष्ठा दोष सिद्ध होने पहले ही खराब हो जाती है।
- वर्ष 2005 से 2013-14 के बीच दोषसिद्धि की दर शून्य थी और वर्ष 2014-15 तथा वर्ष 2021-22 के बीच ED द्वारा दर्ज किये गए कुल 888 मामलों में से केवल 23 मामलों में ही दोषसिद्धि हो सकी।
- राजनीतिक पक्षपात:
- कुछ मामलों में ऐसे आरोप भी सामने आए हैं कि सत्ताधारी दल में सम्मिलित हो जाने वाले राजनीतिक व्यक्तियों के साथ ED ने अनुकूल व्यवहार किया। कुछ मामलों में इन व्यक्तियों को कथित तौर पर या तो "क्लीन चिट" दे दी गई या ED ने मनी लॉन्ड्रिंग जैसे आर्थिक अपराधों में अपनी जाँच प्रक्रिया को काफी धीमा कर दिया।
- इन आरोपों ने ED की कार्यवाहियों में संभावित राजनीतिक पक्षपात और स्वतंत्रता की कमी जैसी चिंताओं को उजागर किया है।
आगे की राह
- प्रवर्तन निदेशक के पास PMLA के तहत व्यापक शक्तियाँ हैं, लेकिन राजनीतिक विरोधियों पर इनका इस्तेमाल अव्यावहारिक रूप से नहीं किया जाना चाहिये। जाँच को सज़ा के रूप में प्रदर्शित नहीं करना चाहिये, साथ ही मामलों को तेज़ी से सुलझाया जाना चाहिये ताकि त्वरित परीक्षण एवं दोषसिद्धि सुनिश्चित की जा सके।
- भ्रष्टाचार का सामना करने हेतु जाँच में सुधार और न्यायिक प्रक्रिया में न्याय एवं पारदर्शिता की गारंटी आवश्यक है। प्रवर्तन निदेशक का उद्देश्य समीचीनता तथा नैतिकता के बीच संतुलन बनाना है। इसका समाधान सख्त कार्रवाइयों के बजाय प्रणालीगत समायोजन में समाहित है।
- भ्रष्टाचार को काफी हद तक कम करने हेतु सरकारी एजेंसियों के काम करने के तरीके को बदलना आवश्यक है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. चर्चा कीजिये कि किस प्रकार उभरती प्रौद्योगिकियाँ और वैश्वीकरण मनी लॉन्ड्रिंग में योगदान करते हैं। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर मनी लॉन्ड्रिंग की समस्या से निपटने के लिये किये जाने वाले उपायों को विस्तार से समझाइये। (मुख्य परीक्षा, 2021) |
स्रोत: द हिंदू
भारतीय राजव्यवस्था
महाराष्ट्र में फ्लोर टेस्ट के आह्वान पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय
प्रिलिम्स के लिये:सर्वोच्च न्यायालय, राज्यपाल, फ्लोर टेस्ट, संविधान की 10वीं अनुसूची, दल-बदल विरोधी कानून, व्हिप मेन्स के लिये:फ्लोर टेस्ट बुलाने की राज्यपाल की शक्ति |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि महाराष्ट्र के पूर्व राज्यपाल द्वारा सदन में बहुमत साबित करने हेतु तत्कालीन मुख्यमंत्री को फ्लोर टेस्ट के लिये बुलाने का निर्णय उचित नहीं था। हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय पूर्व सरकार को बहाल नहीं कर सकता क्योंकि उसने फ्लोर टेस्ट में भाग नही लिया था।
फ्लोर टेस्ट:
- यह बहुमत के परीक्षण के लिये इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द है। यदि किसी राज्य के मुख्यमंत्री के खिलाफ संदेह है, तो उसे सदन में बहुमत साबित करने के लिये कहा जा सकता है।
- गठबंधन सरकार के मामले में मुख्यमंत्री को विश्वास मत पेश करने और बहुमत हासिल करने के लिये कहा जा सकता है।
- स्पष्ट बहुमत के अभाव में जब सरकार बनाने के लिये एक से अधिक व्यक्तिगत हिस्सेदारी की आवशयकता होती है, तो राज्यपाल यह जानने के लिये एक विशेष सत्र बुला सकता है कि सरकार बनाने के लिये किसके पास बहुमत है।
- कुछ विधायक अनुपस्थित हो सकते हैं या मतदान करने से इनकार कर सकते हैं। अर्थात् आँकड़ों की गणना केवल उन विधायकों के आधार पर की जाती है जो मतदान में उपस्थित हों।
पृष्ठभूमि:
- वर्ष 2022 में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली सरकार को गिरा दिया गया और उसकी जगह दूसरी सरकार ने ले ली, जिसमें शिवसेना का एक गुट शामिल था। शिवसेना से अलग हुए गुट के नेता एकनाथ शिंदे महाराष्ट्र के नए मुख्यमंत्री बने।
- इसके बाद ठाकरे समूह द्वारा तत्कालीन महाराष्ट्र के राज्यपाल के इस्तीफे से पहले विश्वास मत के फैसले को चुनौती देते हुए याचिका दायर की गई थी।
सर्वोच्च न्यायालय का फैसला:
- फ्लोर टेस्ट पर:
- राजनीतिक दल के भीतर समस्याओं को हल करने के लिये फ्लोर टेस्ट का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिये और पार्टी की असहमति को पार्टी के संविधान या अन्य तरीकों के अनुसार हल किया जाना चाहिये।
- सचेतक (Whip) की नियुक्ति:
- अध्यक्ष को केवल पार्टी संविधान के प्रावधानों के संदर्भ में राजनीतिक दल को सचेतक (Whip) के रूप में मान्यता देनी चाहिये। सचेतक (Whip) और सदन में दल का नेता दोनों की नियुक्ति केवल राजनीतिक दल द्वारा की जानी चाहिये, न कि विधायक दल द्वारा।
- संसदीय बोलचाल की भाषा में सचेतक (Whip) सदन में एक पार्टी के सदस्यों को एक निश्चित अनुदेशों का पालन करने हेतु एक लिखित आदेश और पार्टी के एक नामित अधिकारी को संदर्भित कर सकता है जो इस तरह के निर्देश जारी करने का अधिकार रखता है।
- सचेतक (Whip) की अवधारणा औपनिवेशिक ब्रिटिश शासन से विरासत में मिली थी।
- संसदीय बोलचाल की भाषा में सचेतक (Whip) सदन में एक पार्टी के सदस्यों को एक निश्चित अनुदेशों का पालन करने हेतु एक लिखित आदेश और पार्टी के एक नामित अधिकारी को संदर्भित कर सकता है जो इस तरह के निर्देश जारी करने का अधिकार रखता है।
- अध्यक्ष को केवल पार्टी संविधान के प्रावधानों के संदर्भ में राजनीतिक दल को सचेतक (Whip) के रूप में मान्यता देनी चाहिये। सचेतक (Whip) और सदन में दल का नेता दोनों की नियुक्ति केवल राजनीतिक दल द्वारा की जानी चाहिये, न कि विधायक दल द्वारा।
- दल-बदल के आधार पर अयोग्यता:
- संविधान की 10वीं अनुसूची के अनुसार अध्यक्ष को अयोग्यता संबंधित याचिकाओं पर निर्णय लेने का अधिकार है।
- सामान्यतः न्यायालय 10वीं अनुसूची के तहत अयोग्यता संबंधित याचिकाओं पर निर्णय नहीं दे सकता है।
- महाराष्ट्र विधानसभा के तत्कालीन उपाध्यक्ष द्वारा 10वीं अनुसूची के अंतर्गत 40 बागी विधायकों के विरुद्ध नोटिस जारी किये गए थे, जो कि दल-बदल के आधार पर अयोग्यता से संबंधित थे।
संविधान की 10वीं अनुसूची:
- दलबदल विरोधी कानून: दसवीं अनुसूची को आमतौर पर ‘दलबदल विरोधी कानून’ (Anti-Defection Law) के रूप में जाना जाता है। संसद ने इसे वर्ष 1985 में 52वें संशोधन अधिनियम के माध्यम से दसवीं अनुसूची के रूप में संविधान में शामिल किया था।
- यह दल-बदल के आधार पर संसद सदस्यों (सांसदों) और राज्य विधानसभाओं के सदस्यों की निरर्हता/अयोग्यता से संबंधित प्रावधान करता है।
- यह निर्वाचित सदस्यों को निर्वाचन के बाद दल परिवर्तन से रोककर राजनीतिक दलों के बीच राजनीतिक स्थिरता और अनुशासन को बढ़ावा देना चाहता है।
- निरर्हता: इसके अनुसार, संसद या राज्य विधानमंडल का एक सदस्य तब अयोग्य हो जाता/जाती है यदि वह स्वेच्छा से उस राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है जिसके टिकट पर वह निर्वाचित हुआ था/हुई थी, अथवा यदि वह राजनीतिक दल के निर्देशों के खिलाफ सदन में मतदान करता है या मतदान से दूर रहता/रहती है।
- हाँलाकि एक सदस्य को अयोग्य नहीं माना जाएगा यदि वह दो या दो से अधिक राजनीतिक दलों के विलय के कारण दल छोड़ देता/देती है या यदि दल स्वयं किसी अन्य दल में विलय कर लेता है।
- 52वें संशोधन के अनुसार, एक राजनीतिक दल के निर्वाचित सदस्यों के एक-तिहाई सदस्यों द्वारा 'दलबदल' को 'विलय' माना जाता था।
- लेकिन 91वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2003 ने इसे बदल दिया और अब किसी पार्टी के कम-से-कम 2/3 सदस्यों को "विलय" के पक्ष में होना चाहिये ताकि कानून की नज़र में इसकी वैधता हो।
- 52 वें संशोधन के अनुसार, एक राजनीतिक दल के निर्वाचित सदस्यों के एक- तिहाई को 'दल बदल' को 'विलय' माना जाता था।
- लेकिन 91 संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2003 ने इसे बदल दिया और अब किसी पार्टी के कम-से-कम 2/3 सदस्य "विलय" के पक्ष में होने चाहिये ताकि कानून की नज़र में वैध हो।
फ्लोर टेस्ट के लिये बुलाने की राज्यपाल की शक्तियाँ:
- परिचय:
- संविधान का अनुच्छेद 174 राज्यपाल को राज्य विधानसभा बुलाने, भंग करने और सत्रावसान करने का अधिकार देता है।
- अनुच्छेद 175(2) के अनुसार, सरकार के पास संख्या बल है या नहीं यह साबित करने के लिये राज्यपाल सदन को फ्लोर टेस्ट के लिये बुला सकता है।
- हालाँकि राज्यपाल संविधान के अनुच्छेद 163 के अनुसार उपरोक्त का प्रयोग कर सकता है जो कहता है कि राज्यपाल मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर कार्य करता है (जब विधानसभा का सत्र नहीं चल रहा हो)।
- हालाँकि जब सदन सत्र में होता है तो विधानसभा अध्यक्ष फ्लोर टेस्ट के लिये बुला सकता है।
- राज्यपाल की विवेकाधीन शक्ति:
- अनुच्छेद 163 (1) के अनुसार, मुख्यमंत्री के नेतृत्व में मंत्रियों का एक समूह होगा जो राज्यपाल को उसके कार्यों को करने में सहायता और सलाह देगा। हालाँकि राज्यपाल का निर्णय किसी भी मामले में अंतिम होगा जहाँ उसे संविधान के अनुसार अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करना आवश्यक है।
- संविधान यह स्पष्ट करता है कि यदि कोई प्रश्न उठता है कि कोई मामला राज्यपाल के विवेकाधिकार के अंतर्गत आता है अथवा नहीं, तो राज्यपाल का निर्णय अंतिम होता है और उसकी किसी भी बात की वैधता पर इस आधार पर सवाल नहीं उठाया जा सकता कि उसे अपने विवेकाधिकार से काम करना चाहिये था अथवा नहीं।
- राज्यपाल अनुच्छेद 174 के तहत अपनी विवेकाधीन शक्ति का प्रयोग कर सकता है, जब मुख्यमंत्री ने सदन का समर्थन खो दिया हो और उसकी शक्ति चर्चा योग्य हो।
- विपक्ष और राज्यपाल अक्सर तब फ्लोर टेस्ट की एक साथ मांग कर सकते हैं जब उन्हें इस बात का संदेह हो कि मुख्यमंत्री ने बहुमत खो दिया है।
- अनुच्छेद 163 (1) के अनुसार, मुख्यमंत्री के नेतृत्व में मंत्रियों का एक समूह होगा जो राज्यपाल को उसके कार्यों को करने में सहायता और सलाह देगा। हालाँकि राज्यपाल का निर्णय किसी भी मामले में अंतिम होगा जहाँ उसे संविधान के अनुसार अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करना आवश्यक है।
राज्यपाल द्वारा फ्लोर टेस्ट की मांग संबंधी पूर्ववर्ती फैसले:
- नबाम रेबिया और बमांग फेलिक्स बनाम उपाध्यक्ष मामला (2016): सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सदन को बुलाने की शक्ति पूरी तरह से राज्यपाल में निहित नहीं है और इसका प्रयोग मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से किया जाना चाहिये, न कि स्वयं।
- शिवराज सिंह चौहान और अन्य बनाम अध्यक्ष (2020): इस प्रकार के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने फ्लोर टेस्ट के लिये बुलाने की स्पीकर की शक्ति को बरकरार रखा, यदि प्रथम दृष्टया यह प्रतीत हो कि सरकार ने अपना बहुमत खो दिया है।