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'विवाह का असाध्य रूप से टूटना' तलाक का आधार: सर्वोच्च न्यायालय

  • 04 May 2023
  • 15 min read

प्रिलिम्स के लिये:

संविधान का अनुच्छेद 142(1), हिंदू विवाह अधिनियम (HMA), 1955, तलाक पर सर्वोच्च न्यायालयके फैसले

मेन्स के लिये:

भारत में तलाक की मांग करने वाले लोगों के सामने कानूनी चुनौतियाँ, तलाक के मामलों में अनुच्छेद 142(1) का महत्त्व, विवाह का असाध्य रूप से टूटना, भारत में विवाह समानता पर सर्वोच्च न्यायालय और विधि आयोग - महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियाँ

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 142 द्वारा प्राप्त 'पूर्ण न्याय' करने की अपनी शक्ति का उपयोग करते हुए फैसला सुनाया कि न्यायालय किसी दंपति के बीच सुलह की बिलकुल भी गुंजाइश न रहने की स्थिति में विवाह को भंग कर सकता है। दूसरी ओर, संबद्ध पक्षकारों को पारिवारिक न्यायालय में आपसी सहमति से तलाक के आदेश के लिये 6-18 महीने तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है, ऐसे में इस प्रक्रिया की तुलना में सर्वोच्च न्यायालय की प्रक्रिया से त्वरित निर्णय की संभावना है।

सर्वोच्च न्यायालय का फैसला:

  • फैसले:
    • शिल्पा सैलेश बनाम वरुण श्रीनिवासन के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया है कि न्यायालय के पास दंपति के बीच सुलह की बिलकुल भी गुंजाइश न रहने की स्थिति के आधार पर विवाह को भंग करने की शक्ति है।
      • मूल मामला वर्ष 2014 में दायर किया गया था, जिसका शीर्षक शिल्पा शैलेश बनाम वरुण श्रीनिवासन था, जहाँ पक्षकारों ने अनुच्छेद 142 के तहत तलाक की मांग रखी थी।
    • न्यायालय हिंदू विवाह अधिनियम (HMA), 1955 के तहत तलाक के लिये अनिवार्य छह महीने की प्रतीक्षा अवधि को खत्म कर सकता है और एक पक्ष के इच्छुक न होने पर भी सुलह की गुंजाइश न रहने के आधार पर विवाह को भंग करने की अनुमति दे सकता है।
  • शर्त:

  • यह निर्णय महत्त्वपूर्ण है क्योंकि वर्तमान में हिंदू विवाह अधिनियम (HMA) 1955 के तहत दंपत्ति में सुलह की स्थिति नहीं होने पर तलाक का आधार नहीं है।
    • विवाह विच्छेद के लिये अभी भी कोई संहिताबद्ध विधान नहीं है। हालाँकि हिंदू विवाह अधिनियम 1955, धारा 13 में विवाह विच्छेद के लिये कुछ आधारों की पहचान करता है।
  • निर्णय के निहितार्थ:
    • सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णय का अर्थ यह नहीं है कि लोग तुरंत तलाक के लिये सीधे सर्वोच्च न्यायालय जा सकते हैं।
      • दंपत्ति में सुलह न होने की स्थिति के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तलाक देना "अधिकार का मामला नहीं है, बल्कि विवेकाधिकार है जिसे बहुत सावधानी और सतर्कता से प्रयोग करने की आवश्यकता है"।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि एक पक्ष भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 (या अनुच्छेद 226) के तहत रिट याचिका दायर नहीं कर सकता है और सीधे दंपत्ति में सुलह की स्थिति नहीं होने के आधार पर विवाह विच्छेद की मांग नहीं कर सकता है।
  • त्रुटिपूर्ण सिद्धांत का त्याग:
    • 5-न्यायाधीशों की पीठ ने हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13 (1) के तहत "त्रुटि सिद्धांत" और "तलाक के अभियोगात्मक सिद्धांत" को त्यागने के लिये सर्वोच्च न्यायालय की आवश्यकता पर प्रकाश डाला, जिसमें पति-पत्नी में से किसी एक को क्रूरता, व्यभिचार या परित्याग जैसे कुछ कुकर्मों के लिये दोषी ठहराया जा सकता है।
    • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 और विशेष विवाह अधिनियम, 1954 तलाक के उद्देश्य से ‘दोष’ या 'वैवाहिक अपराध' सिद्धांत पर आधारित हैं।
      • यदि दूसरा पक्ष वैवाहिक अपराध करता है तो यह निर्दोष पक्ष को तलाक प्राप्त करने की अनुमति देता है।
      • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत तलाक के लिये 7 दोष आधार हैं: व्यभिचार, क्रूरता, परित्याग, धर्मांतरण, पागलपन, कुष्ठ रोग, यौन रोग और संन्यास।
        • चार आधार हैं जिन पर पत्नी अकेले मुकदमा दायर कर सकती है: बलात्कार, समलैंगिकता, व्यभिचार, भरण-पोषण के आदेश के बाद फिर से सहवास न करना और भरण-पोषण के लिये डिक्री।
      • बचाव पक्ष को यह साबित करना होगा कि इस सिद्धांत के तहत दिये जाने वाले तलाक के लिये वे निर्दोष हैं।

नोट:

  • भारत के विधि आयोग ने 1978 और 2009 में अपनी रिपोर्ट में तलाक के अतिरिक्त आधार के रूप में इर्रीटेबल ब्रेकडाउन को जोड़ने की सिफारिश की थी।
    • विधि आयोग ने अपनी 71वीं रिपोर्ट (1978) में विवाह के विवाह का असाध्य रूप से टूटना की अवधारणा पर विचार किया।
  • रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि 1920 तक न्यूज़ीलैंड राष्ट्रमंडल देशों में पहला था जिसने यह प्रावधान पेश किया कि तलाक के लिये न्यायालयों में याचिका दायर करने हेतु तीन वर्ष या उससे अधिक का अलगाव समझौता आधार था।
    • विवाह कानून में वैवाहिक संबध टूटने की अवधारणा को कई मौकों पर इस तरह व्यक्त किया गया है।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955:

  • परिचय:
    • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 भारत की संसद द्वारा बनाया गया एक अधिनियम है जो हिंदुओं और अन्य लोगों के बीच विवाह से संबंधित कानून को संहिताबद्ध एवं संशोधित करता है।
    • यह हिंदुओं, बौद्धों, जैनियों, सिखों और उन व्यक्तियों पर लागू होता है जो धर्म से मुस्लिम, ईसाई, पारसी या यहूदी नहीं हैं।
  • HMA के तहत तलाक की वर्तमान प्रक्रिया:
    • HMA की धारा 13 B में "आपसी सहमति से तलाक" का प्रावधान है, जिसके तहत विवाह के दोनों पक्षों को एक साथ ज़िला न्यायालय में याचिका दायर करनी होगी।
      • यह इस आधार पर किया जाएगा कि वे एक वर्ष या उससे अधिक की अवधि से अलग-अलग रह रहे हैं तथा एक साथ रहने में सक्षम नहीं हैं और पारस्परिक रूप से सहमत हैं कि उनके वैवाहिक रिश्ते को समाप्त कर देना चाहिये।
    • दोनों पक्षों को पहली याचिका की प्रस्तुति की तारीख के कम-से-कम 6 महीने बाद और उक्त तिथि के पश्चात् 18 महीने के बाद अदालत के समक्ष दूसरा प्रस्ताव पेश करना चाहिये (बशर्ते, याचिका इस बीच वापस नहीं ली जाती है)।
      • छह महीने की अनिवार्य प्रतीक्षा का उद्देश्य पक्षकारों को अपनी याचिका वापस लेने का समय देना है।
    • आपसी सहमति से तलाक की याचिका शादी के एक वर्ष बाद ही दायर की जा सकती है।
  • HMA की धारा 14 में कहा गया है, " प्रतिवादी की ओर से अत्यधिक दुष्टता या याचिकाकर्ता को हो रही असाधारण कठिनाई" की स्थिति में तलाक की याचिका तुरंत दायर की जा सकती है।
  • परिवारिक न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत आवेदन में धारा 13 B (2) के तहत छह महीने की प्रतीक्षा अवधि की छूट की मांग की जा सकती है।

तलाक से संबंधित अन्य निर्णय:

  • अमित कुमार बनाम सुमन बेनीवाल (2021): सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, “जहाँ सुलह की संभावना हो, भले ही मामूली हो, तलाक की याचिका दायर करने की तारीख से छह महीने अलग रहने की अवधि लागू की जानी चाहिये। हालाँकि यदि सुलह की कोई संभावना नहीं है, तो विवाह के पक्षकारों की पीड़ा को लंबा खींचना व्यर्थ होगा।
  • भागवत पीतांबर बोरसे बनाम अनुसयाबाई भागवत बोरसे (2018): बॉम्बे हाईकोर्ट ने माना कि पत्नी का सात साल से अधिक समय तक बिना किसी उचित कारण के वापस न लौटने का इरादा तलाक के लिये एक वैध आधार है।
  • जून 2016 में दो न्यायाधीशों की पीठ ने पक्षकारों को पारिवारिक अदालत में भेजे बिना तलाक देने के लिये अनुच्छेद 142 के तहत शक्तियों के प्रयोग के संबंध में मामले को 5 न्यायाधीशों की बड़ी पीठ को संदर्भित किया।
    • शीर्ष न्यायालय की विभिन्न पीठों द्वारा लिये गए परस्पर विरोधी निर्णयों का हवाला देते हुए इसने सहमति देने वाले पक्षों के बीच विवाह को भंग करने के लिये अनुच्छेद 142 के तहत शक्तियों के प्रयोग के लिये व्यापक मापदंडों पर स्पष्टता मांगी है।
    • छोटी बेंच ने वर्ष 2016 में वरिष्ठ अधिवक्ताओं इंदिरा जयसिंह, दुष्यंत दवे, वी गिरि और मीनाक्षी अरोड़ा को संविधान पीठ की सहायता के लिये एमिकस क्यूरी (अदालत के मित्र) के रूप में नियुक्त किया था।

संविधान का अनुच्छेद 142 (1):

  • अनुच्छेद 142 (1) सर्वोच्च न्यायालय को इस तरह की डिक्री पारित करने या किसी भी कारण या मामले में 'पूर्ण न्याय' करने हेतु आवश्यक आदेश देने के लिये व्यापक शक्ति प्रदान करता है।
  • अनुच्छेद 142(1) के तहत शक्ति का प्रयोग करने का निर्णय "मौलिक रूप से सामान्य और विशिष्ट सार्वजनिक नीति पर आधारित" होना चाहिये।
    • सार्वजनिक नीति की मूलभूत सामान्य शर्तें मौलिक अधिकारों, धर्मनिरपेक्षता, संघवाद और संविधान की अन्य बुनियादी विशेषताओं को संदर्भित करती हैं; विशिष्ट सार्वजनिक नीति को न्यायालय द्वारा परिभाषित किया गया था जिसका अर्थ है "किसी भी मूल कानून में कुछ पूर्व-प्रतिष्ठित निषेध, न कि किसी विशेष वैधानिक योजना के लिये शर्तें और आवश्यकताएँ"।

भारत में वैवाहिक समानता की स्थिति:

  • भारत में तलाक दर और उनके रुझान:
    • वर्ष 2018 के एक सर्वेक्षण से पता चला है कि 160,000 परिवारों के 93% विवाहित भारतीयों का 'व्यवस्था विवाह’ (Arrange Marriage) हुआ था, जबकि वैश्विक औसत लगभग 55% था।
      • भारत में प्रति 1,000 लोगों पर 1.1 की न्यूनतम वार्षिक तलाक दर है, प्रत्येक 1,000 में से केवल 13 विवाहों में तलाक की स्थिति उत्पन्न होती है, जिसमें सामान्यतः पुरुष आरंभकर्त्ता होते हैं।
      • प्रचलित सामाजिक मानदंड महिलाओं को तलाक लेने से हतोत्साहित करते हैं और जब वे ऐसा करते हैं, तो उन्हें कानूनी बाधाओं एवं सामाजिक-आर्थिक अलगाव का सामना करना पड़ता है, विशेषकर अगर वे अपने जीवनसाथी पर आर्थिक रूप से निर्भर हैं।
  • महिलाओं की आर्थिक निर्भरता:
  • तलाक के बाद महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक चुनौतियाँ:
    • वैवाहिक संबंध का विघटन असमान रूप से महिलाओं को प्रभावित करता है, जिसमें घरेलू आय में अनुपातहीन नुकसान, गृह स्वामित्त्व खोने का उच्च जोखिम, पुन: साझेदारी के कम अवसर और एकल पालन-पोषण का भारी बोझ शामिल है।

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न: 

प्रिलिम्स:

प्रश्न. भारत के संविधान के संदर्भ में सामान्य विधियों में अंतर्विष्ट प्रतिषेध अथवा निर्बंधन अथवा उपबंध, अनुच्छेद 142 के अधीन सांविधानिक शक्तियों पर प्रतिषेध अथवा निर्बंधन की तरह कार्य नहीं कर सकते। निम्नलिखित में से कौन-सा एक इसका अर्थ हो सकता है? (2019)

(a) भारत के निर्वाचन आयोग द्वारा अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय लिये गए निर्णयों को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है।
(b) भारत का सर्वोच्च न्यायालय अपनी शक्तियों के प्रयोग में संसद द्वारा निर्मित विधियों से बाध्य होता है।
(c) देश में गंभीर वित्तीय संकट की स्थिति में भारत का राष्ट्रपति मंत्रिमंडल के परामर्श के बिना वित्तीय आपातकाल घोषित कर सकता है।
(d) कुछ मामलों में राज्य विधानमंडल, संघ विधानमंडल की सहमति के बिना विधि निर्मित नहीं कर सकते।

उत्तर: (b)

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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