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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

बहुविवाह एवं निकाह हलाला संवैधानिक पीठ के दायरे में

  • 27 Mar 2018
  • 7 min read

चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मुस्लिमों के बीच बहुविवाह और 'निकाह हलाला’ की संवैधानिक वैधता की जाँच करने पर सहमति व्यक्त करते हुए इन प्रथाओं पर केंद्र सरकार और विधि आयोग के विचार माँगे हैं। ध्यातव्य है कि भारत के चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली एक पीठ द्वारा 2017 में दिये गए एक फैसले में तीन तलाक के मुद्दे को खारिज करते हुए बहुविवाह और ‘निकाह हलाला’ के मुद्दे को जारी रखने का आदेश दिया था। न्यायालय द्वारा एक ऐतिहासिक निर्णय सुनाते हुए 3:2 के बहुमत से तीन तलाक को असंवैधानिक करार दिया गया। 

बहुविवाह प्रथा (polygamy)

  • इस्लामिक प्रथा में बहुविवाह का चलन है। इस प्रथा के तहत, एक आदमी को चार शादियाँ करने की इज़ाज़त होती है। इसके पीछे यह तर्क दिया जाता है कि अगर कोई औरत विधवा है या बेसहारा है तो उसे सहारा दिया जाए। समाज में ऐसी औरतों को बुरी नज़र से बचाने के लिये उनके साथ शादी करने की इज़ाज़त दी जाती है।

निकाह हलाला क्या है?

  • निकाह हलाला वह प्रथा है जिसमें यदि किसी महिला को उसका शौहर तलाक दे देता है और उसके बाद उसी शौहर से दोबारा निकाह करना हो तो उसके लिये पहले महिला को एक अन्य व्यक्ति से निकाह करके उस अन्य व्यक्ति से तलाक लेना होगा। उसके बाद ही महिला का पूर्व शौहर से दोबारा निकाह हो सकता है।

मुता एवं मिस्यार निकाह क्या है?

  • मुता एवं मिस्यार निकाह के अंतर्गत ‘मेहर’ (यह वो रकम होती है जो किसी लड़की के होने वाले शौहर द्वारा उसे तोहफे के तौर पर दी जाती है। इस मेहर को न तो वापस लिया जा सकता है और न ही माफ करने के लिये लड़की पर दबाव ही डाला जा सकता है) तय करके एक निश्चित अवधि के लिये एक-साथ रहने का लिखित करार किया जाता है।
  • इस निश्चित समयावधि के पूरा होने पर निकाह स्वत: समाप्त हो जाता है। इसके पश्चात् महिला को तीन महीने की इद्दत अवधि बितानी होती है।

निकाह हलाला एवं बहुविवाह को चुनौती देने वाली याचिका

  • राजधानी दिल्ली की समीना बेगम की ओर से निकाह हलाला और बहुविवाह को चुनौती दी गई। इस अर्जी में कहा गया है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ एप्लिकेशन एक्ट 1937 की धारा-2 के अंतर्गत, निकाह हलाला और बहुविवाह को मान्यता प्रदान की गई है, जोकि संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), 15 (कानून के सामने लिंग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं) और अनुच्छेद 21 (जीवन के अधिकार) का उल्लंघन करता है, लिहाज़ा इन प्रथाओं को असंवैधानिक और गैरकानूनी घोषित कर दिया जाना चाहिये।
  • याचिकाकर्त्ताओं द्वारा कहा गया है कि पर्सनल लॉ पर, कॉमन लॉ को वरीयता दी गई है और कॉमन लॉ पर संवैधानिक कानून की वरीयता है।
  • समीना के शौहर ने निकाह के बाद न केवल उसे प्रताड़ित किया बल्कि दो बच्चे होने के बाद एक पत्र के ज़रिये तलाक भी दे दिया। उसने दूसरा निकाह भी किया, लेकिन दूसरे शौहर ने भी तलाक दे दिया। 
  • समीना द्वारा दाखिल अर्जी में कहा गया है कि निकाह हलाला करने वालों के खिलाफ रेप का मामला दर्ज़ होना चाहिये, जबकि बहुविवाह के खिलाफ आईपीसी की धारा 494 के तहत केस दर्ज़ किया जाना चाहिये।
  • दिल्ली की ही रहने वाली नफीसा खान का निकाह 5 जून, 2008 को हुआ था। दो बच्चे होने के बाद उनसे दहेज़ की माँग की जाने लगी और प्रताड़ित किया जाने लगा। इसके बाद उनके शौहर ने तलाक के बिना ही दूसरी शादी कर ली।
  • इसके बाद उन्होंने पुलिस में शिकायत भी की और आईपीसी की धारा 494 के तहत केस दर्ज करने की गुहार लगाई, तो पुलिस ने यह कहकर मामला दर्ज करने से इनकार कर दिया कि शरीयत बहुविवाह की इज़ाज़त देता है। अत: नफीसा खान द्वारा लगाए गए इल्ज़ाम बेबुनियादी हैं।
  • हैदराबाद निवासी मौलिम मोहिसिन बिन हुसैन बिन अबदाद अल खतीरी द्वारा दायर याचिका में मुता और मिस्यार निकाह को चुनौती दी गई है। याचिका में कहा गया है कि मुता विवाह एक निश्चित अवधि के लिये साथ रहने का करार होता है, लेकिन मुता विवाह का अधिकार केवल पुरुषों को है, न कि महिलाओं को।

इन प्रथाओं को अपराध घोषित किया जाए

  • इसके अलावा, मुसलमानों के निकाह, तलाक और उत्तराधिकार के मामलों को तय करने वाली शरई अदालतों के खिलाफ केंद्र सरकार को उचित कार्रवाई करने का आदेश मांगा गया है। 
  • न्यायालय द्वारा स्पष्ट किया गया है कि मुस्लिम पर्सनल ला (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट 1937 की धारा 2 के उस अंश को असंवैधानिक घोषित किया जाए जो इन प्रचलनों को मान्यता देती है।
  • ये प्रथाएँ मुस्लिम महिलाओं के समानता और सम्मान के साथ जीवन जीने के मौलिक अधिकारों का हनन करती है।
  • साथ ही, यह भी निहित किया गया है कि मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के शरीयत के तहत, मामले तय करने के लिये समानांतर अदालतें गठित करने के खिलाफ सरकार द्वारा कोई कार्रवाही नहीं की गई, जबकि समानांतर न्यायिक व्यवस्था संविधान के खिलाफ है।
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