भारतीय अर्थव्यवस्था
PLI योजना
प्रिलिम्स के लिये:नीति आयोग, PLI योजना मेन्स के लिये:PLI योजना और इसका महत्त्व, PLI योजना के मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में नीति आयोग ने उत्पादन-लिंक्ड प्रोत्साहन (PLI) योजनाओं के तहत वित्तीय पुरस्कार प्राप्त करने वाली कंपनियों द्वारा मूल्यवर्द्धन को ट्रैक करने के उद्देश्य से मानकों के एक सेट को विकसित करने पर काम शुरू किया गया है।
- सचिवों के अधिकार प्राप्त समूह को जून 2020 में स्थापित किया गया था, जिसे PLI योजनाओं में बाधाओं की पहचान करने, राज्यों और कंपनियों के बीच तेज़ी से अनुमोदन के लिये समन्वय करने, PLI योजनाओं में त्वरित निवेश का मूल्यांकन तथा परियोजनाओं के समग्र बदलाव को सुनिश्चित करने का काम सौंपा गया था।
- समूह की अध्यक्षता कैबिनेट सचिव द्वारा की जाती है और नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी, उद्योग एवं आंतरिक व्यापार विभाग के सचिव तथा संबंधित मंत्रालय के सचिव इसके सदस्य के रूप में शामिल हैं।
क्या है योजना?
- सभी क्षेत्रों में PLI योजनाओं में प्रगति की निगरानी के लिये एक केंद्रीकृत डेटाबेस बनाने का प्रयास करते हुए नीति आयोग ने एक बाह्य एजेंसी- राज्य के स्वामित्व वाली IFCI लिमिटेड या सिडबी के साथ डेटाबेस तैयार करने की योजना बनाई है।
- यह डेटाबेस मूल्यवर्द्धन, की गई प्रतिबद्धताओं के विरुद्ध वास्तविक निर्यात और रोज़गार सृजन को कवर करेगा।
- राज्य स्तर पर बाधाओं को दूर करने के लिये एक डैशबोर्ड भी बनाया जाएगा।
PLI योजना के सामने क्या चुनौतियाँ हैं?
- मानकों का कोई सामान्य सेट नहीं:
- PLI योजना के तहत प्रोत्साहन प्राप्त करने या ऐसी संभावना वाली कंपनियों द्वारा मूल्यवर्द्धन को समझने के लिये कोई सामान्य मानदंड नहीं थे।
- वर्तमान में विभिन्न मंत्रालय अपनी संबंधित PLI योजनाओं के मूल्यवर्द्धन की निगरानी करते हैं और दो अलग-अलग योजनाओं की तुलना करने का कोई स्थापित तरीका नहीं है।
- इसके अलावा विभिन्न वितरण योग्य जैसे कि नौकरियों की संख्या ने निर्यात में वृद्धि और गुणवत्ता में सुधार किया है तथा इन सभी को मापने के लिये कोई केंद्रीकृत डेटाबेस उपलब्ध नहीं है।
- कंपनियों के लिये प्रोत्साहन लक्ष्य में भी वृद्धि:
- अपने क्षेत्र में कार्य कर रही कंपनियों के साथ बातचीत करने वाले विभागों और मंत्रालयों को भी कुछ विशिष्ट मुद्दों का सामना करना पड़ता है।
- उदाहरण- कई बार कंपनियों के लिये प्रोत्साहन हेतु अर्हता प्राप्त करने का लक्ष्य बहुत अधिक होता है।
- अपने क्षेत्र में कार्य कर रही कंपनियों के साथ बातचीत करने वाले विभागों और मंत्रालयों को भी कुछ विशिष्ट मुद्दों का सामना करना पड़ता है।
- एक या दो आपूर्ति शृंखलाओं पर निर्भर घरेलू कंपनियाँ:
- पिछले वित्त वर्ष तक केवल 3-4 कंपनियाँ ही स्वीकृत चौदह कंपनियों से पीएलआई योजना के लिये अर्हता प्राप्त करने हेतु संवर्द्धित बिक्री लक्ष्य (Incremental Sales Targets) हासिल करने में कामयाब रही थीं।
- वैश्विक कंपनियों के विपरीत अधिकांश घरेलू कंपनियाँ एक या दो आपूर्ति शृंखलाओं पर निर्भर थीं, जो कि गंभीर रूप से बाधित हो गई हैं और बिना किसी गलती ये कंपनियाँ प्रोत्साहन हेतु योग्य नहीं होंगी।
‘उत्पादन-संबद्ध प्रोत्साहन’ योजना (PLI Scheme):
- परिचय:
- उच्च आयात प्रतिस्थापन और रोज़गार सृजन के साथ घरेलू विनिर्माण क्षमता को बढ़ाने के लिये PLI योजना की कल्पना की गई थी।
- सरकार ने विभिन्न क्षेत्रों हेतु PLI योजनाओं के तहत 1.97 लाख करोड़ रुपए अलग रखे तथा वित्त वर्ष 2022-23 के बजट में सौर पीवी मॉड्यूल के लिये PLI हेतु 19,500 करोड़ रुपए का अतिरिक्त आवंटन किया गया है।
- मार्च 2020 में शुरू की गई इस योजना ने शुरू में तीन उद्योगों को लक्षित किया था:
- मोबाइल और संबद्ध घटक निर्माण
- विद्युत घटक निर्माण
- चिकित्सा उपकरण
- योजना के तहत प्रोत्साहन:
- संवर्द्धित बिक्री के आधार पर गणना की गई प्रोत्साहन राशि, इलेक्ट्रॉनिक्स और प्रौद्योगिकी उत्पादों के लिये कम-से-कम 1% से लेकर महत्त्वपूर्ण प्रारंभिक दवाओं के संबंध में 20% तक है।
- उन्नत रसायन सेल बैटरी, कपड़ा उत्पाद और ड्रोन उद्योग जैसे कुछ क्षेत्रों में प्रोत्साहन की गणना पाँच वर्षों की अवधि में की गई बिक्री, प्रदर्शन एवं स्थानीय मूल्यवर्द्धन के आधार पर की जाएगी।
- वे क्षेत्र जिनके लिये PLI योजना की घोषणा की गई है:
- अब तक सरकार ने ऑटोमोबाइल एवं ऑटो घटकों, इलेक्ट्रॉनिक्स एवं आईटी हार्डवेयर, दूरसंचार, फार्मास्यूटिकल्स, सौर मॉड्यूल, धातु एवं खनन, कपड़ा एवं परिधान, ड्रोन व उन्नत रसायन सेल बैटरी सहित 14 क्षेत्रों के लिये PLI योजनाओं की घोषणा की है।
- उद्देश्य:
- सरकार ने चीन एवं अन्य देशों पर भारत की निर्भरता को कम करने के लिये इस योजना की शुरुआत की है।
- यह श्रम प्रधान क्षेत्रों का समर्थन करती है और भारत में रोज़गार अनुपात को बढ़ाने का लक्ष्य रखती है।
- यह योजना आयात बिलों को कम करने एवं घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने के लिये भी काम करती है।
- PLI योजना विदेशी कंपनियों को भारत में अपनी इकाइयाँ स्थापित करने के लिये आमंत्रित करती है और घरेलू उद्यमों को अपनी उत्पादन इकाइयों का विस्तार करने हेतु प्रोत्साहित करती है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
शासन व्यवस्था
पूर्वोत्तर राज्यों में हिंदी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन
प्रिलिम्स के लिये:त्रि-भाषा नीति, संविधान की छठी अनुसूची, भाषा से संबंधित संवैधानिक प्रावधान, कोठारी आयोग मेन्स के लिये:सरकारी नीतियाँ और हस्तक्षेप, राज्यों का भाषायी संगठन, कोठारी आयोग, विविधता में एकता |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत सरकार ने आठ पूर्वोत्तर राज्यों में हिंदी को कक्षा 10 तक अनिवार्य करने का प्रावधान किया है।
- हिंदी को ‘भारत की भाषा’ के रूप में वर्णित किया गया है।
- हालाँकि पूर्वोत्तर के विभिन्न संगठनों द्वारा इस कदम का विरोध किया जा रहा है। साथ ही कई दक्षिण भारतीय राज्यों ने केंद्र सरकार के फैसले की आलोचना की है।
- इसके बजाय ये समूह त्रिभाषा नीति- अंग्रेज़ी, हिंदी और स्थानीय भाषा का समर्थन कर रहे हैं।
पूर्वोत्तर संगठन द्वारा प्रस्तुत तर्क:
- छठी अनुसूची: ये राज्य संविधान की छठी अनुसूची द्वारा संरक्षित हैं, ऐसे में केंद्र सरकार छात्रों पर हिंदी भाषा को थोप नहीं सकती है।
- भेदभाव: केंद्र सरकार का यह कदम हिंदी भाषियों को आर्थिक, शैक्षणिक एवं प्रशासनिक बढ़त प्रदान करेगा और उन्हें दीर्घकाल में देश के गैर-हिंदी भाषी क्षेत्रों को नियंत्रित करने में सहायता करेगा।
हिंदी भाषा और पहचान की समस्या:
- राज्यों का भाषायी संगठन: भारत में अधिकांश राज्यों का गठन भाषायी आधार पर किया गया है।
- भारत में सीमित संसाधनों के कारण पहचान को लेकर विशेष रूप से भाषाओं को लेकर संघर्ष बढ़ जाता है।
- भाषायी विभाजन के उदाहरण: भाषा की स्थिति एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा रही है, जो कि अतीत में राज्यों के विभाजन का कारण बना।
- आंध्र प्रदेश (भाषायी आधार पर गठित पहला राज्य), पंजाब और गुजरात जैसे राज्य भाषायी आधार पर राज्य की मांग के कारण बनाए गए थे।
- संघर्ष प्रबंधन का साधन: भाषा नीति एक तरीका है, जिसके द्वारा सरकारें जातीय संघर्ष का प्रबंधन करने का प्रयास करती हैं।
- इस प्रकार संघीय सहयोग विकसित करने के लिये भाषा नीति पर राज्यों की स्वायत्तता त्रिभाषा सूत्र लागू करने की तुलना में अधिक व्यवहार्य विकल्प हो सकती है।
त्रिभाषा सूत्र क्या है और इसकी आवश्यकता क्यों है?
- परिचय: त्रिभाषा सूत्र पहली बार कोठारी आयोग द्वारा 1968 में प्रस्तावित किया गया था। इस योजना के तहत:
- पहली भाषा: यह मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा होगी।
- दूसरी भाषा: हिंदी भाषी राज्यों में यह अन्य आधुनिक भारतीय भाषाएंँ या अंग्रेज़ी होगी। गैर-हिंदी भाषी राज्यों में यह हिंदी या अंग्रेज़ी होगी।
- तीसरी भाषा: हिंदी भाषी राज्यों में यह अंग्रेज़ी या आधुनिक भारतीय भाषा होगी। गैर-हिंदी भाषी राज्य में यह अंग्रेज़ी या आधुनिक भारतीय भाषा होगी।
- आवश्यकता: प्राथमिक उद्देश्य बहुभाषावाद और राष्ट्रीय सद्भाव को बढ़ावा देना है।
- कोठारी समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि भाषा सीखना बच्चे के संज्ञानात्मक विकास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
- कार्यान्वयन: माध्यमिक स्तर पर राज्य सरकारों को त्रिभाषा सूत्र अपनाना था।
- इसमें हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी और अंग्रेज़ी के अलावा एक आधुनिक भारतीय भाषा का अध्ययन करना शामिल था, अधिमानतः दक्षिणी भाषाओं में से एक।
- 'गैर-हिंदी भाषी राज्यों' में क्षेत्रीय भाषा और अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी का अध्ययन किया जाना चाहिये।
- कार्यान्वयन में समस्या: हिंदी पट्टी के राज्य (जैसे उत्तर प्रदेश और बिहार में) त्रिभाषा सूत्र के तहत दक्षिण भारतीय भाषाओं को शिक्षण में बढ़ावा नहीं दे सके।
- तमिलनाडु, पुद्दुचेरी और त्रिपुरा जैसे राज्य अपने स्कूली पाठ्यक्रम में हिंदी पढ़ाने के लिये तैयार नहीं थे।
- इसके बजाय उन्होंने इस मुद्दे की स्वायत्तता की मांग की।
भाषाओं से संबंधित संवैधानिक प्रावधान क्या हैं?
- भारत के संविधान का अनुच्छेद 29 अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करता है। अनुच्छेद में कहा गया है कि नागरिकों के किसी भी वर्ग की अपनी एक अलग भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे इसे संरक्षित करने का अधिकार होगा।
- अनुच्छेद 343 भारत संघ की आधिकारिक भाषा के बारे में है। इस अनुच्छेद के अनुसार, देवनागरी लिपि में हिंदी होनी चाहिये और अंकों को भारतीय अंकों के अंतर्राष्ट्रीय रूप का पालन करना चाहिये।
- इस अनुच्छेद में यह भी कहा गया है कि संविधान के लागू होने के 15 वर्षों तक अंग्रेज़ी को आधिकारिक भाषा के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहेगा।
- अनुच्छेद 346 राज्यों और संघ एवं राज्य के बीच संचार हेतु आधिकारिक भाषा के विषय में प्रबंध करता है।
- अनुच्छेद के अनुसार, उक्त कार्य के लिये "अधिकृत" भाषा का उपयोग किया जाएगा। हालाँकि यदि दो या दो से अधिक राज्य सहमत हैं कि उनके मध्य संचार की भाषा हिंदी होगी, तो आधिकारिक भाषा के रूप में हिंदी का उपयोग किया जा सकता है।
- अनुच्छेद 347 राष्ट्रपति को किसी राज्य की आधिकारिक भाषा के रूप में एक भाषा को चुनने की शक्ति प्रदान करता है, बशर्ते कि राष्ट्रपति संतुष्ट हो कि उस राज्य का एक बड़ा हिस्सा भाषा को मान्यता देना चाहता है।
- ऐसी मान्यता राज्य के किसी हिस्से या पूरे राज्य के लिये हो सकती है।
- अनुच्छेद 350A प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधाएँ प्रदान करता है।
- अनुच्छेद 350B भाषायी अल्पसंख्यकों के लिये एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति का प्रावधान करता है।
- विशेष अधिकारी की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी, यह भाषायी अल्पसंख्यकों के सुरक्षा उपायों से संबंधित सभी मामलों की जाँच करेगा तथा सीधे राष्ट्रपति को रिपोर्ट सौंपेगा।
- तत्पश्चात् राष्ट्रपति उस रिपोर्ट को संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है या उसे संबंधित राज्य/राज्यों की सरकारों को भेज सकता है।
- अनुच्छेद 351 केंद्र सरकार को हिंदी भाषा के विकास के लिये निर्देश जारी करने की शक्ति देता है।
- भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 आधिकारिक भाषाओं को सूचीबद्ध किया गया है।
आगे की राह
- अनेकता में एकता हमेशा से भारत की ताकत रही है। इसलिये भाषा से जुड़ी पहचान तथा भारत के एक संघीय राज्य होने के संदर्भ में केंद्र और राज्यों दोनों को सहकारी मॉडल का पालन करना चाहिये तथा भाषा आधिपत्य/अराजकता से बचना चाहिये।
स्रोत: द हिंदू
भारतीय राजनीति
न्यायिक प्रक्रिया में मध्यस्थता
प्रिलिम्स के लिये:मध्यस्थता, सुप्रीम कोर्ट, मध्यस्थता, बातचीत, सुलह, मध्यस्थता से संबंधित विभिन्न कानून। मेन्स के लिये:विवाद निवारण तंत्र, मध्यस्थता प्रक्रिया, इससे संबंधित कानून, मुद्दे और आगे का रास्ता। |
चर्चा में क्यों?
मध्यस्थता और सूचना प्रौद्योगिकी पर राष्ट्रीय न्यायिक सम्मेलन को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति ने न्यायिक प्रक्रिया में मध्यस्थता की अवधारणा की वकालत की।
मध्यस्थता क्या है?
- मध्यस्थता एक स्वैच्छिक, बाध्यकारी प्रक्रिया है जिसमें एक निष्पक्ष और तटस्थ मध्यस्थ विवादित पक्षों के बीच समझौता कराने में मदद करता है।
- मध्यस्थ विवाद का कोई समाधान प्रदान नहीं करता है बल्कि एक अनुकूल वातावरण बनाता है जिसमें विवादित पक्ष अपने सभी विवादों को हल कर सकते हैं।
- मध्यस्थता विवाद समाधान का एक आजमाया हुआ और परखा हुआ वैकल्पिक तरीका है। यह दिल्ली, रांची, जमशेदपुर, नागपुर, चंडीगढ़ एवं औरंगाबाद शहरों में सफल साबित हुआ है।
- मध्यस्थता एक संरचित प्रक्रिया है जहाँ एक तटस्थ व्यक्ति विशेष संचार और बातचीत तकनीकों का उपयोग करता है तथा मध्यस्थता प्रक्रिया में भाग लेने वाले पक्षों द्वारा स्पष्ट रूप से इसका समर्थन किया जाता है।
- यह एक निपटान प्रक्रिया है जिसके द्वारा विवादित पक्ष परस्पर स्वीकार्य समझौतों पर पहुँचते हैं।
- मध्यस्थता के अलावा कुछ अन्य विवाद समाधान विधियाँ जैसे- विवाचन (Arbitration), बातचीत (Negotiation) और सुलह (Conciliation) हैं ।
मध्यस्थ कौन हो सकता है?
- कोई भी व्यक्ति जो सर्वोच्च न्यायालय (SC) की मध्यस्थता और सुलह परियोजना समिति (Mediation and Conciliation Project Committee) द्वारा निर्धारित आवश्यक 40 घंटे के प्रशिक्षण से गुज़रता है, मध्यस्थ हो सकता है।
- उसे एक योग्य मध्यस्थ के रूप में मान्यता प्राप्त करने हेतु कम-से-कम दस मध्यस्थताओं, जिनके परिणामस्वरूप एक समझौता हुआ हो तथा समग्र तौर पर कम-से-कम 20 मध्यस्थताओं के रूप में हिस्सा लेने की आवश्यकता होती है।
मध्यस्थ की भूमिका:
- निष्पक्ष और तटस्थ होना।
- पार्टियों के बीच बातचीत का प्रबंधन।
- पार्टियों के बीच संचार की सुविधा।
- किसी समझौते की बाधाओं की पहचान करना।
- पार्टियों के हितों की पहचान करना।
- समझौते की शर्तें तैयार करना।
मध्यस्थता का महत्त्व:
- त्वरित एवं उत्तरदायी।
- किफायती।
- कोई अतिरिक्त लागत नहीं।
- सामंजस्यपूर्ण निपटान।
- उपाय एवं उपचार।
- गोपनीय एवं अनौपचारिक।
- कार्यवाही का नियंत्रण पक्षों के हाथ में।
मध्यस्थता की प्रक्रिया से संबंधित चुनौतियाँ:
- संहिताकरण की कमी: जनवरी 2020 में एमआर कृष्ण मूर्ति बनाम न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने भारत में मध्यस्थता हेतु एक समान कानून बनाने की तत्काल आवश्यकता पर ध्यान दिया था।
- मध्यस्थता के प्रति आशंका और जागरूकता की कमी: कानूनी विशेषज्ञों के बीच अभी भी मध्यस्थता का पर्याप्त ढंग से स्वागत नहीं किया गया है।
- मध्यस्थता को विवाद समाधान तंत्र के रूप में लोकप्रिय बनाने के लिये मध्यस्थता के लाभों से न्यायाधीशों को परिचित कराने हेतु प्रशिक्षण सत्र एवं सेमिनार आयोजित किये जाने चाहिये।
- ढाँचागत मुद्दे एवं गुणवत्ता नियंत्रण: मध्यस्थता को बढ़ावा देने से ज़ाहिर तौर पर उन मध्यस्थता केंद्रों पर काम का बोझ बढ़ जाएगा, जिनमें अभी प्रशासनिक क्षमता की कमी है।
- इससे मध्यस्थता के मूल सिद्धांत यानी विवादों के तीव्र समाधान का उल्लंघन होगा।
- इस मुद्दे से निपटने के लिये भारत में मध्यस्थता की प्रक्रिया को पेशेवर बनाया जाना चाहिये।
- मध्यस्थता को लेकर मौजूदा कानूनों के बीच असंगति: सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले में कहा था कि 'मध्यस्थता' और 'सुलह' शब्द एक-दूसरे के समानार्थक हैं।
- इसके विपरीत नागरिक प्रक्रिया संहिता (सीपीसी), 1908 की धारा 89 की भाषा दर्शाती है कि इस धारा के पीछे विधायी मंशा ‘मध्यस्थता’ और ‘सुलह’ के बीच अंतर करना था।
- इस प्रकार मौजूदा अस्पष्टता ने मध्यस्थता की प्रक्रिया में अस्पष्टता को और बढ़ा दिया है।
मध्यस्थता से संबंधित कानूनी प्रावधान:
- भारत में मध्यस्थता मुख्य रूप से दो विधायी कानूनों द्वारा शासित होती है। CPC 1908 तथा मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 (ACA)।
- कई अन्य वैधानिक प्रावधान भी हैं, जो न्यायालय में मुकदमा दायर करने के लिये मध्यस्थता को अनिवार्य शर्त बनाते हैं। इनमें से कुछ क़ानून हैं:
आगे की राह
- कोविड-19 महामारी ने विवाद समाधान के साधन के रूप में मध्यस्थता के महत्त्व को बढ़ा दिया है। महामारी की वजह से शुरू हुए मामलों का उचित समाधान एक त्वरित और प्रभावी निवारण तथा मध्यस्थता से हो सकता है।
- हालाँकि कई चुनौतियांँ हैं जो मध्यस्थता की प्रभावशीलता को सीमित करती हैं। विभिन्न उच्च न्यायालयों के लिये अलग-अलग मध्यस्थता नियमों के मौजूदा ढांँचे ने मध्यस्थता प्रक्रिया में अनिश्चितता में वृद्धि की है।
- इस प्रकार समाधान के लिये एक प्रभावी उपकरण के रूप में मध्यस्थता को मान्यता देने की दिशा में सबसे महत्त्वपूर्ण कदम केवल मध्यस्थता हेतु एक कानून बनाना होगा।
- मध्यस्थता विधेयक, 2021 को सभी हितधारकों के सभी आवश्यक इनपुट के साथ जल्द से जल्द पारित किया जाना चाहिये।
- कानून को प्रवर्तन और गुणवत्ता नियंत्रण की चिंताओं को दूर करने का प्रयास करना चाहिये।
- हालाँकि यह सुनिश्चित करने के लिये सावधानी बरती जानी चाहिये कि कानून मध्यस्थता में संलग्न पक्षों की स्वायत्तता में हस्तक्षेप न करे।
- अधिनियम को मध्यस्थता की लचीली प्रकृति का पूरक होना चाहिये और मध्यस्थता में शामिल प्रक्रियाओं के मानकीकरण में मदद करनी चाहिये।
- इसके अलावा मुकदमेबाज़ी से पहले इसे अनिवार्य कदम बनाकर मध्यस्थता को बढ़ावा देने का प्रयास किया जाना चाहिये।
स्रोत: द हिंदू
भूगोल
मुल्लापेरियार बाँध मुद्दा
प्रिलिम्स के लिये:मुल्लापेरियार बाँध, सर्वोच्च न्यायालय, एनडीएसए, पेरियार नदी, पश्चिमी घाट। मेन्स के लिये:मुल्लापेरियार बाँध से संबंधित मुद्दा और बाँध सुरक्षा अधिनियम, जल संसाधन। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने मुल्लापेरियार बाँध की पर्यवेक्षी समिति के पुनर्गठन का आदेश दिया।
- समिति में बाँध की सुरक्षा से संबंधित विवाद में शामिल दो राज्यों तमिलनाडु और केरल के एक-एक तकनीकी विशेषज्ञ शामिल होंगे।
सर्वोच्च न्यायालय का फैसला:
- न्यायालय ने पैनल को राष्ट्रीय बाँध सुरक्षा प्राधिकरण (NDSA) के समान कार्यों और शक्तियों के साथ अधिकार दिया है।
- NDSA बाँध सुरक्षा अधिनियम, 2021 के तहत परिकल्पित निकाय है।
- विफलता के किसी भी कार्य के लिये न केवल न्यायालय के निर्देशों का उल्लंघन करने हेतु बल्कि अधिनियम के तहत संबंधित व्यक्तियों के खिलाफ "उचित कार्रवाई" की जाएगी।
- अधिनियम कानून के तहत गठित निकायों के निर्देशों का पालन करने से इनकार करने पर एक साल के कारावास या जुर्माना या दोनों की बात करता है।
- सर्वोच्च न्यायालय के नवीनतम आदेश के अनुसार दोनों राज्यों से दो सप्ताह के भीतर पर्यवेक्षी समिति में एक-एक प्रतिनिधि के अलावा एक-एक व्यक्ति को नामित करने की उम्मीद है।
मुल्लापेरियार बाँध:
- लगभग 126 साल पुराना मुल्लापेरियार बाँध केरल के इडुक्की ज़िले में मुल्लायार और पेरियार नदियों के संगम पर स्थित है।
- इस बाँध की लंबाई 365.85 मीटर और ऊँचाई 53.66 मीटर है।
- बाँध का स्वामित्व, संचालन और रखरखाव तमिलनाडु के पास है।
- तमिलनाडु ने सिंचाई, पेयजल आपूर्ति और जल विद्युत उत्पादन सहित कई उद्देश्यों के लिये इसे बनाए रखा।
पेरियार नदी की मुख्य विशेषताएँ:
- पेरियार नदी 244 किलोमीटर की लंबाई के साथ केरल राज्य की सबसे लंबी नदी है।
- इसे ‘केरल की जीवनरेखा’ (Lifeline of Kerala) के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि यह केरल राज्य की बारहमासी नदियों में से एक है।
- पेरियार नदी पश्चिमी घाट (Western Ghat) की शिवगिरी पहाड़ियों (Sivagiri Hill) से निकलती है और ‘पेरियार राष्ट्रीय उद्यान’ (Periyar National Park) से होकर बहती है।
- पेरियार की मुख्य सहायक नदियाँ- मुथिरपूझा, मुल्लायार, चेरुथोनी, पेरिनजंकुट्टी हैं।
विवाद क्या है?
- वर्ष 1979 के अंत में बाँध की संरचनात्मक स्थिरता पर विवाद उत्पन्न होने के बाद केंद्रीय जल आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष के.सी. थॉमस की अध्यक्षता में एक त्रिपक्षीय बैठक में यह निर्णय लिया गया कि जल स्तर को 152 फीट के पूर्ण जलाशय स्तर के मुकाबले 136 फीट तक कम किया जा सकता है ताकि तमिलनाडु सुदृढ़ीकरण के उपाय कर सके।
- वर्ष 2006 और वर्ष 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि जल स्तर 142 फीट तक बढ़ाया जाए, जिस स्तर तक तमिलनाडु ने पिछले वर्ष (2021) भी पानी जमा किया था।
- वर्ष 2014 के न्यायालय के फैसले ने पर्यवेक्षी समिति के गठन एवं तमिलनाडु द्वारा शेष कार्य को पूरा करने का भी प्रावधान किया।
- लेकिन हाल के वर्षों में केरल में भूस्खलन के साथ बाँध को लेकर मुकदमों की संख्या बढ़ती ही जा रही है।
- हालाँकि बाँध स्थल के आसपास भूस्खलन की कोई रिपोर्ट नहीं मिली थी, किंतु राज्य के अन्य हिस्सों में हुई घटनाओं ने बाँध के खिलाफ एक नए अभियान की शुरुआत की है।
- केरल सरकार ने प्रस्तावित किया कि मौजूदा बाँध को बंद कर दिया जाए और एक नया बनाया जाए।
- ये विकल्प तमिलनाडु को पूरी तरह से स्वीकार्य नहीं हैं, जो शेष सुदृढ़ीकरण कार्य को पूरा करना चाहता है और जल स्तर को 152 फीट तक बहाल करना चाहता है।
बाँध सुरक्षा अधिनियम:
- परिचय:
- बाँध सुरक्षा अधिनियम, 2021 दिसंबर 2021 में लागू हुआ था।
- इस अधिनियम का उद्देश्य पूरे देश में प्रमुख बाँधों की सुरक्षा से संबंधित मुद्दों को संबोधित करना है।
- यह कुछ बाँधों के सुरक्षित कामकाज को सुनिश्चित करने के लिये संस्थागत तंत्र के अलावा बाँध की विफलता से संबंधित आपदाओं की रोकथाम के लिये कुछ बाँधों की निगरानी, निरीक्षण, संचालन और रखरखाव का भी प्रावधान करता है।
- इस अधिनियम में उन बाँधों को शामिल किया गया है, जिनकी ऊँचाई 15 मीटर से अधिक और कुछ विशिष्ट परिस्थिति में 10 मीटर से 15 मीटर के बीच है।
- दो राष्ट्रीय संस्थानों का निर्माण:
- बाँध सुरक्षा पर राष्ट्रीय समिति (NCDS): यह बाँध सुरक्षा नीतियों को विकसित करने एवं आवश्यक नियमों की सिफारिश करने का प्रयास करती है।
- राष्ट्रीय बाँध सुरक्षा प्राधिकरण (NDSA): यह नीतियों को लागू करने और दोनों राज्यों के बीच अनसुलझे मुद्दों को हल करने का प्रयास करता है। NDSA एक नियामक संस्था होगी।
- दो राज्य स्तरीय संस्थानों का निर्माण:
- कानून में बाँध सुरक्षा पर राज्य बाँध सुरक्षा संगठनों और राज्य समितियों के गठन की भी परिकल्पना की गई है।
- बाँधों के निर्माण, संचालन, रखरखाव और पर्यवेक्षण के लिये बाँध मालिकों को ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा।
- कानून में बाँध सुरक्षा पर राज्य बाँध सुरक्षा संगठनों और राज्य समितियों के गठन की भी परिकल्पना की गई है।
बाँध सुरक्षा अधिनियम मुल्लापेरियार को कैसे प्रभावित करता है?
- चूँकि अधिनियम यह निर्धारित करता है कि NDSA किसी ऐसे बाँध के लिये ‘राज्य बाँध सुरक्षा संगठन’ की भूमिका निभाएगा, जो किसी एक विशिष्ट राज्य में स्थित है, जबकि उसका उपयोग किसी दूसरे राज्य द्वारा भी किया जाता है, ऐसे में मुल्लापेरियार बाँध NDSA के दायरे में आ जाता है।
- इसके अलावा सर्वोच्च न्यायालय जो कि वर्ष 2014 में अपने फैसले के बाद याचिका पर सुनवाई कर रहा है, ने बाँध की सुरक्षा एवं रखरखाव का प्रभार लेने के लिये अपनी पर्यवेक्षी समिति की शक्तियों का विस्तार करने का विचार रखा है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, पिछले वर्ष के प्रश्न (PYQs):प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन सा युग्म सही सुमेलित नहीं है? (2010) बाँध/झील नदी (a) गोविंद सागर : सतलुज उत्तर: (b)
प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2009)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (d)
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