अंतर्राष्ट्रीय संबंध
मध्यस्थता एवं सुलह (संशोधन) विधेयक, 2018
- 08 Mar 2018
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चर्चा में क्यों?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) विधेयक (Arbitration and Conciliation (Amendment) Bill), 2018 को लोकसभा में पेश करने संबंधी स्वीकृति प्रदान की गई है। यह विवादों के समाधान के लिये संस्थागत मध्यस्थता को प्रोत्साहित करने के सरकार के प्रयास का हिस्सा है और यह भारत को मज़बूत वैकल्पिक विवाद समाधान (Alternative Dispute Resolution - ADR) व्यवस्था का केंद्र बनाता है।
लाभ
- वर्ष 1996 के अधिनियम में संशोधन से मानक तय करने, मध्यस्थता प्रक्रिया को पक्षकार सहज बनाने और मामले को समय से निष्पादित करने के लिये एक स्वतंत्र संस्था स्थापित करके संस्थागत मध्यस्थता में सुधार का लक्ष्य प्राप्त करने में सहायता मिलेगी।
प्रमुख विशेषताएँ
- यह उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय द्वारा निर्दिष्ट मध्यस्थता संस्थानों के माध्यम से मध्यस्थों की तेज़ी से नियुक्ति करने में (न्यायालय से संपर्क की आवश्यकता के बिना) सहायक है।
- विधेयक में यह व्यवस्था है कि संबंधित पक्ष अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता (International Commercial arbitration) के लिये और संबंधित उच्च न्यायालयों के अन्य मामलों में उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्दिष्ट मध्यस्थता संस्थानों से सीधा संपर्क कर सकते हैं।
- इस संशोधन में एक स्वतंत्र संस्था भारत की मध्यस्थता परिषद (Arbitration Council of India -ACI) बनाने का प्रावधान है।
- यह संस्था मध्यस्थता करने वालें संस्थानों को ग्रेड देगी और नियम तय करके मध्यस्थता करने वालों को मान्यता प्रदान करेगी।
- साथ ही, वैसे सभी कदम उठाएगी जो मध्यस्थता, सुलह तथा अन्य वैकिल्पक समाधान व्यवस्था को बढ़ावा देंगे।
- इसका उद्देश्य मध्यस्थता तथा वैकल्पिक विवाद समाधान व्यवस्था से जुड़े सभी मामलों में पेशेवर मानकों को बनाने के लिये नीति और दिशा-निर्देश तय करना है।
- यह परिषद सभी मध्यस्थता वाले निर्णयों का इलेक्ट्रॉनिक डिपोज़िटरी रखेगी।
- एसीआई निकाय निगम (body corporate) होगी। एसीआई का अध्यक्ष वह व्यक्ति होगा जो उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश रहा हो या किसी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश और न्यायाधीश रहा हो।
- अन्य सदस्यों में सरकारी नामित लोगों के अतिरिक्त जाने-माने शिक्षाविद् आदि शामिल किये जाएंगे।
- विधेयक समय-सीमा से अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता (International Arbitration) को अलग करके तथा अन्य मध्यस्थताओं में निर्णय के लिये समय-सीमा विभिन्न पक्षों की दलीलें पूरी होने के 12 महीनों के अंदर करके सेक्शन 29ए के उप-सेक्शन (1) में संशोधन का प्रस्ताव है।
- इसमें नया सेक्शन 42ए जोड़ने का प्रस्ताव है ताकि मध्यस्थता करने वाला व्यक्ति या मध्यस्थता संस्थान निर्णय के सिवाय मध्यस्थता से जुड़ी कार्यवाहियों की गोपनीयता बनाए रखेंगे।
- नया सेक्शन 42बी मध्यस्थता करने वाले को मध्यस्थता सुनवाई के दौरान उसके किसी कदम या भूल को लेकर मुकदमा या कानूनी कार्यवाही से सुरक्षा प्रदान करता है।
- इसमें एक नया सेक्शन 87 जोड़ने का प्रस्ताव है जो यह स्पष्ट करेगा कि जब तक विभिन्न पक्ष सहमत नहीं होते संशोधन अधिनियम 2015 में - (ए) 2015 के संशोधन अधिनियम प्रारंभ होने से पहले शुरू हुई मध्यस्थता की कार्यवाही के मामले में (बी) संशोधन अधिनियम 2015 के प्रारंभ होने के पहले या ऐसी अदालती कार्यवाही शुरू होने के बावजूद मध्यस्थता प्रक्रिया के संबंध में चालू होने वाली अदालती कार्यवाहियों में लागू नहीं होगा।
- यह सेक्शन संशोधन अधिनियम 2015 के प्रारंभ होने या बाद की मध्यस्थता कार्यवाहियों में लागू होगा और ऐसी मध्यस्थता कार्यवाहियों से उपजी अदालती कार्यवाहियों के मामले में लागू होगा।
मध्यस्थता एवं सुलह (संशोधन) अधिनियम, 2015
- मध्यस्थता एवं सुलह (संशोधन) अधिनियम, 2015 [The Arbitration and Conciliation (Amendment) Act, 2015] के तहत मामलों के त्वरित प्रवर्तन (quick enforcement), मौद्रिक दावों की सुलभ वसूली, अदालतों में मामलों के लंबित रहने की अवधि में कटौती लाने, पंचाट के माध्यम से विवाद समाधान की प्रक्रिया में तेज़ी लाने तथा देश में विदेशी निवेशकों को कारोबार करने हेतु एक सुलभ वातावरण सुनिश्चित करने की परिकल्पना की गई है।
पृष्ठभूमि
- मध्यस्थता प्रक्रिया को सहज बनाने, लागत सक्षम बनाने, मामले के शीघ्र निष्पादन और मध्यस्थता करने वाले की तटस्थता सुनिश्चित करने के लिये मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम (Arbitration and Conciliation Act), 1996 में मध्यस्थता तथा सुलह (संशोधन) अधिनियम (Arbitration and Conciliation (Amendment) Act), 2015 द्वारा संशोधन किया गया।
- लेकिन तदर्थ मध्यस्थता के स्थान पर संस्थागत मध्यस्थता को प्रोत्साहित करने और मध्यस्थता तथा सुलह (संशोधन) अधिनियम, 2015 को लागू करने में आ रही कुछ व्यावहारिक कठिनाइयों को दूर करने के लिये केंद्र सरकार द्वारा भारत के उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश, न्यायमूर्ति बी.एच. श्रीकृष्ण की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति (High Level Committee - HLC) बनाई गई।
एचएलसी को निम्नलिखित कार्य सौंपे गए:
- भारत में मध्यस्थ संस्थानों के कामकाज और उनके कार्य प्रदर्शन का अध्ययन करके वर्तमान मध्यस्थता व्यवस्था के प्रभाव की जाँच करना।
- भारत में संस्थागत मध्यस्थता व्यवस्था को प्रोत्साहित करने के लिये रौडमैप तैयार करना।
- वाणिज्यिक विवाद समाधान के लिये कारगर और सक्षम मध्यस्थता प्रणाली विकसित करना और कानून में सुझाए गए सुधारों पर रिपोर्ट प्रस्तुत करना।
उच्चस्तरीय समिति द्वारा 30 जुलाई, 2017 को अपनी रिपोर्ट पेश की गई। समिति द्वारा मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 में संशोधन की सिफारिश की गई। प्रस्तावित संशोधन उच्चस्तरीय समिति की सिफारिशों के अनुसार किया जाएगा।
इसकी आवश्यकता क्यों है?
- केंद्र सरकार द्वारा पंचाट तंत्रों के संदर्भ में विधायी एवं प्रशासनिक पहलें आरंभ की जा रही हैं, जिनका उद्देश्य अदालतों के हस्तक्षेप में कमी लाना, केस की सुनवाई की प्रक्रिया में आने वाली लागत में कमी लाना, मामलों के शीघ्र निपटान हेतु एक समय-सीमा सुनिश्चित करना तथा पंचाट की तटस्थता सुनिश्चित करना है।
- वाणिज्यिक विवादों के त्वरित समाधान तथा विभिन्न समझौतों के तहत निर्मित घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय पंचाट तंत्रों के प्रभावी संचालन की सुविधा को सुनिश्चित करने के लिये पंचाट तंत्र के विभिन्न कारकों में तेज़ी लाने तथा देश में पंचाट व्यवस्था को सशक्त बनाने हेतु गंभीर प्रयास किये जाने की आवश्यकता है।
- इसके साथ-साथ भारत को अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय पंचाट तंत्र के संदर्भ में एक मज़बूत केंद्र बनाने की दिशा में आवश्यक कुछ विशिष्ट मुद्दों एवं दिशा-निर्देशों की पूर्ण सटीकता एवं ईमानदारी से जाँच किये जाने की भी ज़रूरत है।
वैकल्पिक विवाद समाधान
(Alternative Dispute Resolution - ADR)
- कानूनी तथा गैर-कानूनी मामलों की बढ़ती तादात को मद्देनज़र रखते हुए अदालतों पर पड़ने वाले अतिरिक्त दबाव को कम करने के लिये कुछ विशेष मामलों को वैकल्पिक तरीकों से सुलझाया जाना चाहिये।
- इस संदर्भ में पंचाट, मध्यस्थता तथा समाधान (इन्हें संयुक्त रूप से पंचाट तंत्र कहा जाता है) कुछ ऐसे उपाय हैं जो वैकल्पिक क्षतिपूर्ति प्रणाली के आधार-स्तंभों के रूप में उपस्थित हैं।
पंचाट
- यह वस्तुतः वह प्रक्रिया होती है जिसके अंतर्गत (तटस्थ रूप से उपस्थित) तीसरा पक्ष मामले की सुनवाई करता है तथा निर्णय देता है। भारत में पंचाट तंत्रों की स्थापना पंचाट एवं समाधान अधिनियम के तहत की गई है।
मध्यस्थता
- इस प्रक्रिया का उद्देश्य, तीसरे (तटस्थ) पक्ष के माध्यम से विवादित पक्षों के मध्य पूर्ण सहमति से समस्या के समाधान को सुनिश्चित करना है।
समाधान
- इस प्रक्रिया का उद्देश्य, दो पक्षों के मध्य सुलह अथवा स्वैच्छिक समझौते के माध्यम से समाधान को सुनिश्चित करना है।
- पंचाट के विपरीत समाधान कराने वाले व्यक्ति को कोई बाध्यकारी परिणाम प्रदान करने की आवश्यकता नहीं होती है।
- वादी तथा प्रतिवादी दोनों, समाधान कराने वाले व्यक्ति की सिफारिश को मंज़ूर भी कर सकते हैं और नकार भी सकते हैं।
- सामान्य तौर पर भारत में समाधानकर्त्ता अक्सर कोई सरकारी अधिकारी ही होता है, जबकि कानूनी मामलों के संदर्भ में यह दायित्व राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण (नालसा जो एक सांविधिक निकाय है) को प्रदान किया गया है।