इंदौर शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 11 नवंबर से शुरू   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली न्यूज़

  • 07 Sep, 2023
  • 55 min read
शासन व्यवस्था

प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना

प्रिलिम्स के लिये:

प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना, उज्ज्वला 2.0

मेन्स के लिये:

प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के उद्देश्यों को प्राप्त करने में चुनौतियों, सरकारी नीतियाँ और हस्तक्षेप

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों? 

प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना की शुरुआत ग्रामीण और वंचित परिवारों को LPG गैस सिलेंडर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से की गई थी, किंतु लाभार्थियों को गैस सिलेंडरों की लगातार आपूर्ति सुनिश्चित करने में इस योजना को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है।

  • प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना से जुड़े 9.58 करोड़ परिवारों में से 1.18 करोड़ परिवारों ने वर्ष 2022-23 में कोई रिफिल सिलेंडर नहीं खरीदा और 1.51 करोड़ परिवारों ने केवल ही बार  सिलेंडर को रिफिल कराया
  • रीफिलिंग की कम दर लाभार्थियों के बीच निरंतर उपयोग सुनिश्चित करने की योजना की क्षमता पर सवाल पैदा करती है।

PMUY से संबंधित चिंताएँ:

  • रिफिल की सीमित खपत:
    • प्राप्त डेटा से पता चलता है कि औसत PMUY लाभार्थियों ने वर्ष 2022-23 के दौरान चार से कम LPG  सिलेंडर रिफिल कराए।
    • वर्ष 2022-2023 में प्रति चार PMUY लाभार्थियों में से एक ने किसी भी LPG सिलेंडर का उपयोग नहीं किया या सिर्फ एक रिफिल कराया।
      • इसके विपरीत गैर-PMUY परिवारों में काफी अधिक सिलेंडर रिफिल की खपत देखी गई, इनकी प्रति परिवार LPG सिलेंडर की खपत 6.67 रिफिल थी, यह डेटा खपत पैटर्न में असमानता को दर्शाता है।
  • LPG सिलेंडरों की बढ़ती कीमतें:
    • सब्सिडी के साथ LPG सिलेंडरों की कीमत में भारी बढ़ोतरी के कारण यह ग्रामीण और वंचित परिवारों के लिये कम किफायती रह गया है।
      • LPG सिलेंडरों की कीमतें ऊँची होने के कारण लाभार्थियों द्वारा खाना पकाने के लिये LPG का उपयोग न किया जाना, कुछ सीमा तक इस योजना के उद्देश्य की विफलता हो सकती है।
  • सब्सिडी व्यय:
    • जनवरी 2018 और मार्च 2023 के बीच सब्सिडी वाले LPG सिलेंडर की दरों में 82% की वृद्धि हुई, यह जनवरी 2018 में 495.64 रुपए थी जो मार्च 2023 में 903 रुपए तक पहुँच गई।
      • सब्सिडी की राशि खुदरा बिक्री मूल्य और सरकार द्वारा निर्धारित सब्सिडी लागत के बीच अंतर पर निर्भर करती है।
    • गैर-सब्सिडी वाले LPG सिलेंडर की कीमत में 49% की वृद्धि देखी गई, जो मार्च 2023 में 1,103 रुपए तक पहुँच गई।
  • LPG की कीमतों को प्रभावित करने वाले अंतर्राष्ट्रीय कारक:
    • LPG की कीमत बढ़ने में आयात शुल्क, बॉटलिंग शुल्क, माल ढुलाई, डिलीवरी शुल्क, जीएसटी और वितरक कमीशन सहित विभिन्न कारक शामिल हैं।

प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना (PMUY):

  • परिचय: 
    • खाना पकाने के लिये लकड़ी, कोयला, गोबर के उपले आदि ईंधनों का उपयोग करने वाले ग्रामीण और वंचित परिवारों को LPG जैसे स्वच्छ इंधन उपलब्ध कराने के उद्देश्य से पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय ने एक प्रमुख योजना के रूप में 'प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना' की शुरुआत की।
      • खाना पकाने के पारंपरिक ईंधन के उपयोग का ग्रामीण महिलाओं के स्वास्थ्य के साथ-साथ पर्यावरण पर भी हानिकारक प्रभाव पड़ता है।
  • उद्देश्य: 
    • महिलाओं को सशक्त बनाना और उनके स्वास्थ्य की रक्षा करना।
    • भारत में खाना पकाने के लिये उपयोग की जाने वाले अशुद्ध ईंधन के कारण होने वाली मौतों की संख्या में कमी लाना।
    • जीवाश्म ईंधन जलाने से घर के अंदर वायु प्रदूषण के कारण होने वाली गंभीर श्वसन बीमारियों से छोटे बच्चों को बचाना।
  • विशेषताएँ: 
    • इस योजना में BPL परिवारों को प्रत्येक LPG कनेक्शन के लिये 1600 रुपए की वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है।
    • उज्ज्वला 2.0 लाभार्थियों को डिपाॅज़िट-फ्री LPG कनेक्शन के साथ पहला रिफिल और एक चूल्हा मुफ्त दिया जाता है।
  • PMUY के लाभ:
    • इस योजना के अंतर्गत लाभार्थियों को मुफ्त LPG कनेक्शन प्राप्त होते हैं।
    • इन लाभार्थियों को 14.2 किलोग्राम सिलेंडर के पहले छह रिफिल या 5 किलोग्राम सिलेंडर के आठ रिफिल पर भी सब्सिडी प्राप्त होती है।
    • लाभार्थी चूल्हा/स्टोव की लागत और पहली रिफिल के भुगतान के लिये EMI सुविधा के विकल्प का चयन कर सकते हैं।
    • लाभार्थी सीधे अपने बैंक खातों में सब्सिडी राशि प्राप्त करने के लिये पहल योजना (PAHAL Scheme) से भी जुड़ सकते हैं।
  • PMUY योजना:
    • चरण I : 
      • यह योजना 1 मई, 2016 को शुरू की गई थी।
      • इस योजना के तहत मार्च 2020 तक वंचित परिवारों को 8 करोड़ LPG कनेक्शन जारी करने का लक्ष्य रखा गया था।
      • योजना के तहत 8 करोड़ LPG कनेक्शन जारी कर LPG कवरेज को 1 मई, 2016 के 62% से बढ़ाकर 1 अप्रैल, 2021 तक 99.8% करने में भी सहायता प्राप्त हुई है।
    • उज्ज्वला 2.0: 
      • वित्त वर्ष 21-22 के केंद्रीय बजट में पात्र परिवारों को 31 मार्च, 2022 तक अतिरिक्त 1 करोड़ LPG कनेक्शन जारी करने का प्रावधान है।
        • यह लक्ष्य जनवरी 2022 में हासिल कर लिया गया था। इसके बाद उज्ज्वला 2.0 के तहत अतिरिक्त 60 लाख LPG कनेक्शन जारी करने का लक्ष्य रखा गया, जिसे OMC ने 31 दिसंबर, 2022 तक 1.6 करोड़ LPG कनेक्शन जारी करके  हासिल कर लिया।

LPG मूल्य की गणना के लिये सूत्र:

  • LPG की कीमत की गणना आयात समता मूल्य (Import Parity Price- IPP) नामक फार्मूले के आधार पर की जाती है।
  • मूल रूप से IPP के अनुसार गणना अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार पर निर्भर होती है।
  • IPP की गणना सऊदी अरामको की LPG कीमत के माध्यम से की जाती है, जो विश्व में सबसे बड़ी गैस उत्पादक है।
    • इस कीमत में अन्य चीज़ों के अलावा फ्री ऑन बोर्ड (Free On Board- FOB) प्राइस, समुद्री माल ढुलाई, सीमा शुल्क, बंदरगाह शुल्क और बीमा लागत आदि शामिल हैं।
  • कच्चे तेल की कीमत में उतार-चढ़ाव का प्रभाव LPG की अंतर्राष्ट्रीय कीमत पर भी पड़ता है।
    • अंतर्देशीय कीमतों में माल ढुलाई लागत, तेल कंपनी का मार्जिन, बोतलबंद लागत, विपणन व्यय, डीलर कमीशन और वस्तु एवं सेवा कर (Goods and Services Tax- GST) शामिल हैं।
  • इस प्रकार गणना की गई अंतिम कीमत से विभिन्न राज्यों में उपभोक्ताओं के लिये गैर-सब्सिडी वाले रसोई गैस सिलेंडर के लिये खुदरा बिक्री मूल्य तय किया जाता है।
  • भारत IPP का उपयोग करता है क्योंकि इसकी अधिकांश खपत की पूर्ति आयात के माध्यम से होती है। LPG सिलेंडर का फॉर्मूला मासिक आधार पर संशोधित किया जाता है।
    • इंडियन ऑयल, BPCL और HPCLजैसे तीन प्रमुख PSU रसोई गैस (LPG) के महत्त्वपूर्ण आपूर्तिकर्ता हैं, जो विभिन्न लागत संरचनाओं तथा परिचालन क्षमता के साथ ज़्यादातर समान कीमतें वसूलते हैं।

आगे की राह

  • सरकार को LPG उपयोग के स्वास्थ्य और पर्यावरणीय लाभों के बारे में लाभार्थियों को शिक्षित करने के प्रयासों को तेज़ करना चाहिये।
  • लाभार्थियों के लिये LPG को किफायती बनाए रखने के लिये सब्सिडी राशि और इसकी प्रक्रिया का समय-समय पर मूल्यांकन करना आवश्यक है।
  • PMUY योजना की प्रभावशीलता का नियमित मूल्यांकन करना चाहिये तथा उभरती चुनौतियों का समाधान करने के लिये तद्नुसार नीतियों को अपनाना चाहिये।


भारतीय समाज

लैसिते: फ्राँस में धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत

प्रिलिम्स के लिये:

लैसिते, प्रस्तावना, मौलिक अधिकार, स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व

मेन्स के लिये:

भारतीय और फ्राँसीसी धर्मनिरपेक्षता के बीच तुलना

स्रोत: द हिंदू 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में फ्राँसीसी सरकार ने सरकारी स्कूलों में पारंपरिक इस्लामी परिधान अबाया (Abaya) पहनने पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की।

  • यह निर्णय फ्राँस की धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता, लैसिते/Laïcité के सिद्धांत को बनाए रखने के उपाय के रूप में लागू किया गया था। इस कदम के समर्थन के साथ ही इसे आलोचना का भी सामना करना पड़ा, जिससे आधुनिक फ्राँस में Laïcité की भूमिका के बारे में व्यापक चर्चा शुरू हुई।

Laïcité:

  • परिचय: 
    • Laïcité/लैसिते फ्राँस में एक जटिल और राजनीतिक रूप से आरोपित शब्द है। यह राज्य तथा चर्च के औपचारिक अलगाव का प्रतीक है, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र से धार्मिक मूल्यों को पूरी तरह से हटाने पर बल दिया गया है, उनकी जगह स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व जैसे धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को अपनाया गया है।
      • Laïcité की उत्पत्ति कैथोलिक चर्च की शक्ति के विरुद्ध एंटी-क्लेरिकल रिपब्लिकन के संघर्ष के कारण हुई।
  • बदलती जनसांख्यिकी और तनाव: 
    • 20वीं सदी के अधिकांश समय में देश की सापेक्ष एकरूपता के कारण फ्राँस में Laïcité को आमतौर पर एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा नहीं माना जाता था।
    • हालाँकि वर्ष 1950 और वर्ष 1960 के दशक के दौरान उत्तरी अफ्रीका में महत्त्वपूर्ण उपनिवेशीकरण प्रयासों के परिणामस्वरूप मुख्य रूप से ट्यूनीशिया, मोरक्को तथा अल्जीरिया जैसे मुस्लिम देशों से फ्राँस में बड़े पैमाने पर व्यक्तियों का प्रवास हुआ।
      • इस जनसांख्यिकीय बदलाव ने लैसिते से संबंधित तनाव और चुनौतियों को उत्पन्न किया।
  • संबंधित विवादास्पद विधान और व्याख्याएँ:
    • वर्ष 2004 में फ्राँस ने कैथोलिक पोशाक, यहूदी किप्पा और मुस्लिम हेडस्कार्फ सहित सार्वजनिक स्थानों पर "आडंबरपूर्ण" धार्मिक प्रतीकों को पहनने पर प्रतिबंध लगाने वाला एक कानून बनाया।
    • वर्ष 2011 में सार्वजनिक स्थानों पर चेहरा ढकने वाले बुर्के पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। ऐसे प्रत्येक निर्णय ने लैसिते की नई व्याख्याओं को जन्म दिया।

लैसिते की भारतीय धर्मनिरपेक्षता से तुलना:

  • ऐतिहासिक उत्पत्ति:
    • लैसिते: लैसिते फ्राँसीसी इतिहास में निहित एक अवधारणा है और फ्राँसीसी गणराज्य की आधारशिला है।
      • चर्च और राज्य के पृथक्करण पर वर्ष 1905 के कानून के अधिनियमन के साथ इसे और मज़बूत किया गया।
    • भारतीय धर्मनिरपेक्षता: भारतीय संविधान की प्रस्तावना भारत को एक "संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य" घोषित करती है। यह राज्य की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति के लिये आधार तैयार करता है।
  • विशेषताएँ:
    • लैसिते: फ्राँस में लैसिते की विशेषता धार्मिक संस्थानों को राज्य से सख्ती से अलग करना है।
      • इसमें सार्वजनिक स्कूलों, सरकारी भवनों और सार्वजनिक क्षेत्रों में धार्मिक प्रतीकों का निषेध शामिल है।
    • भारतीय धर्मनिरपेक्षता: भारतीय धर्मनिरपेक्षता, जैसा कि भारतीय संविधान में निहित है, धार्मिक विविधताओं के प्रति अधिक अनुकूल है।
      • राज्य को धर्म से अलग नहीं किया गया है बल्कि उससे सभी धर्मों के साथ समान और निष्पक्ष व्यवहार करने की अपेक्षा की जाती है।
      • भारत सरकार धार्मिक संस्थानों को वित्तीय सहायता प्रदान कर सकती है और विभिन्न सार्वजनिक स्थानों पर धार्मिक प्रतीकों की अनुमति देती है।
  • भारतीय धर्मनिरपेक्षता से फ्राँस निम्नलिखित प्रेरणा ले सकता है: 
    • सर्व धर्म समभाव की प्रेरणा:  धर्मनिरपेक्षता का भारतीय दर्शन "सर्व धर्म समभाव" से प्रेरित है (शाब्दिक रूप से इसका अर्थ है कि सभी धर्मों द्वारा अपनाए गए मार्गों का गंतव्य एक ही है, हालाँकि मार्ग भिन्न हो सकते हैं) जिसका अर्थ है सभी धर्मों के लिये समान सम्मान।
      • भारतीय धर्मनिरपेक्षता धर्म को सार्वजनिक क्षेत्र से बाहर नहीं करती है, बल्कि इसे इस तरह से समायोजित करती है कि दूसरों के अधिकारों का उल्लंघन न हो।
    • अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा: भारतीय धर्मनिरपेक्षता सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन धर्म को मानने, अभ्यास करने तथा प्रचार करने के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता देती है।
      • यह अल्पसंख्यकों के शैक्षिक और सांस्कृतिक अधिकारों की भी रक्षा करता है तथा उन्हें अपने स्वयं के संस्थान स्थापित करने व प्रशासित करने की अनुमति देता है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

मेन्स:

प्रश्न.धर्मनिरपेक्षता की भारतीय अवधारणा धर्मनिरपेक्षता के पश्चिमी मॉडल से कैसे भिन्न है? चर्चा कीजिये। (2016)


भारतीय अर्थव्यवस्था

वन-आवर ट्रेड सेटलमेंट

प्रिलिम्स के लिये:

वन-आवर ट्रेड सेटलमेंट, भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड, एप्लीकेशन सपोर्टेड बाय ब्लॉक्ड अमाउंट  (ASBA), तात्कालिक ट्रेड सेटलमेंट

मेन्स के लिये:

वन-आवर ट्रेड सेटलमेंट के लाभ

स्रोत : द हिंदू 

चर्चा में क्यों?  

  • हाल ही में भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) ने घोषणा की है कि उसका लक्ष्य व्यापार निपटान प्रक्रियाओं की दक्षता बढ़ाने के लिये मार्च 2024 तक ट्रेडों का वन-आवर ट्रेड सेटलमेंट अर्थात् एक घंटे का निपटान शुरू करना है।
  • SEBI जनवरी 2024 तक सेकेंडरी मार्केट में ट्रेडिंग के लिये एप्लीकेशन सपोर्टेड बाय ब्लॉक्ड अमाउंट (ASBA) जैसी सुविधा लॉन्च करेगा।

एप्लीकेशन सपोर्टेड बाय ब्लॉक्ड अमाउंट  (ASBA): 

  • ASBA SEBI द्वारा आरंभिक सार्वजनिक पेशकश (IPOs), अधिकार मुद्दों और अन्य प्रतिभूतियों की पेशकश के लिये आवेदन एवं आवंटन प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाने हेतु शुरू की गई एक व्यवस्था है।
  • ASBA को निवेशकों को पूरी आवेदन राशि अग्रिम रूप से हस्तांतरित किये बिना शेयरों के लिये आवेदन करने की अनुमति देकर आवेदन प्रक्रिया को अधिक कुशल और निवेशक-अनुकूल बनाने हेतु डिज़ाइन किया गया है।
  • इसमें शेयरों की सदस्यता के लिये भुगतान की जाने वाली राशि निवेशक के खाते से तब तक डेबिट नहीं की जाती जब तक कि कंपनी द्वारा शेयर आवंटित नहीं किये जाते।  

व्यापार समझौता: 

  • परिचय:
    • व्यापार निपटान वित्तीय बाज़ारों में एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है जिसमें व्यापार में शामिल पक्षों के बीच धन और प्रतिभूतियों का हस्तांतरण शामिल होता है।
    • इससे यह सुनिश्चित होता है कि खरीदार को खरीदी गई प्रतिभूतियाँ और विक्रेता को संविदित धनराशि प्राप्त हो। 
    • प्रतिभूति व्यापार के संदर्भ में यह निपटान प्रक्रिया लेन-देन को अंतिम रूप देती है।
  • T+1 निपटान चक्र:
    • जनवरी 2023 में भारत ने T+1 निपटान चक्र अपनाया, जहाँ T व्यापार तिथि का प्रतिनिधित्व करता है।
    • इसका तात्पर्य यह है कि व्यापार-संबंधी निपटान वास्तविक लेन-देन के 1 व्यावसायिक दिवस या 24 घंटों के भीतर होता है।
    • शीर्ष-सूचीबद्ध प्रतिभूतियों में T+1 निपटान चक्र लागू करने वाला भारत, चीन के बाद दूसरा देश बन गया है।
    • इस बदलाव से कई फायदे हुए, जिनमें परिचालन दक्षता में वृद्धि, द्रुत फंड ट्रांसफर, त्वरित शेयर डिलीवरी और शेयर बाज़ार में प्रतिभागियों के लिये बेहतर सुविधा शामिल है।

रियल टाइम ट्रेड सेटलमेंट हेतु SEBI की नई योजना

  • वन-आवर ट्रेड सेटलमेंट: 
    • इस योजना के तहत जब कोई निवेशक शेयर बेचता है, तो बिक्री की राशि वन-आवर अर्थात् एक घंटे के अंदर उसके खाते में जमा कर दी जाएगी और खरीदार को उसी समय-सीमा के अंदर अपने डीमैट खाते में खरीदे गए शेयर प्राप्त होंगे।
    • यह मौजूदा T+1 चक्र की तुलना में निपटान समय में कमी को दर्शाता है।
  • तात्कालिक ट्रेड सेटलमेंट: 
    • SEBI स्वीकार करता है कि तात्कालिक निपटान करना अधिक जटिल कार्य है, जिसके लिये अतिरिक्त प्रौद्योगिकी विकास की आवश्यकता है।
    • इसलिये उनकी योजना पहले वन-आवर ट्रेड सेटलमेंट को लागू करने पर केंद्रित है और फिर तात्कालिक निपटान की दिशा में आगे बढ़ने की है।
      • तात्कालिक निपटान शुरू करने की समय-सीमा वर्ष 2024 के अंत तक होने का अनुमान है।

वन-आवर ट्रेड सेटलमेंट के लाभ:

  • त्वरित लेन-देन:
    • निवेशकों को निपटान समय में कमी का अनुभव होगा, जिससे धनराशि और प्रतिभूतियों तक त्वरित पहुँच संभव होगी।
  • बढ़ी हुई तरलता:
    • त्वरित निपटान से बाज़ार में तरलता में सुधार हो सकता है क्योंकि पुनर्निवेश के लिये धनराशि जल्द ही उपलब्ध हो जाएगी।
  • जोखिम में कटौती:
    • निपटान समय को कम करने से प्रतिपक्ष और बाज़ार जोखिम को कम किया जा सकता है, जिससे समग्र बाज़ार स्थिरता में वृद्धि होगी।
  • निवेशक सुविधा:
    • निवेशक अपने फंड और प्रतिभूतियों तक त्वरित पहुँच की सराहना करेंगे, जिससे बाज़ार अधिक उपयोगकर्ता-अनुकूल बन जाएगा।

जैव विविधता और पर्यावरण

पूर्वोत्तर भारत में वन संरक्षण और जनजातीय अधिकार

प्रिलिम्स के लिये:

वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम 2023, दर्ज वनक्षेत्र, वन अधिकार अधिनियम 2006

मेन्स के लिये:

पूर्वोत्तर भारत में वन संरक्षण और जनजातीय अधिकार

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

हाल ही मे मिज़ोरम विधानसभा ने वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2023 का विरोध करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया है, जिसमें पूर्वोत्तर भारत में वन संरक्षण और जनजातीय अधिकारों से संबंधित चुनौतियों पर प्रकाश डाला गया है।

FCA के विरोध में पूर्वोत्तर राज्यों द्वारा व्यक्त चिंताएँ:

  • पूर्वोत्तर भारत पर इस संशोधन का प्रभाव:
    • वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 के विपरीत वर्ष 2023 का वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम भारत की उन विदेशी सीमाओं से 100 किलोमीटर अथवा उससे कम दूरी पर परियोजनाओं के लिये वन भूमि के डायवर्ज़न (अन्य उद्देश्यों के लिये भूमि का आवंटन) की अनुमति देता है।
    • पूर्वोत्तर भारत का अधिकांश भाग 100 किमी. के दायरे में आता है जिससे विभिन्न परियोजनाओं के कारण उत्पन्न होने वाली पर्यावरणीय प्रभाव और जनजातीय अधिकारों के उल्लंघन को लेकर चिंताएँ बढ़ गई हैं।
  • आधिकारिक तौर पर गैर-वर्गीकृत वनों की असुरक्षा:
    • वर्ष 1996 तक FCA के प्रावधान केवल उन वनों पर लागू होते थे जिन्हें वन के रूप में घोषित या अधिसूचित किया गया था और 25 अक्तूबर, 1980 को या उसके बाद सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज वनों पर।
    • जिन क्षेत्रों को आधिकारिक तौर पर सरकारी रिकॉर्ड में वनों के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया है, भले ही वे स्थायी वन हों, उन्हें व्यावसायिक दोहन या किसी अन्य प्रकार के विचलन से संरक्षित नहीं किया जाएगा।
      • यह गोदावर्मन मामले में वर्ष 1996 के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को बदल देता है जिसमें कहा गया था कि वन शब्द से मिलता-जुलता कोई भी क्षेत्र संरक्षण कानूनों के तहत संरक्षित किया जाएगा।
  • राज्य विपक्ष:
    • मिज़ोरम और त्रिपुरा ने अपने व्यक्तियों के अधिकारों एवं हितों की रक्षा के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त कर संशोधन का विरोध करते हुए प्रस्ताव पारित किये हैं।
    • नगालैंड को भी इसका पालन करने की मांग का सामना करना पड़ रहा है और सिक्किम ने भी 100 किमी. छूट वाले खंड का विरोध किया है।
  • महत्त्वपूर्ण क्षेत्र अवर्गीकृत वन:
    • उत्तर-पूर्व में वनों का एक बड़ा हिस्सा निजी स्वामित्व में है: जो व्यक्तियों या कुलों या ग्राम परिषदों या समुदायों के विशेष विशेषाधिकारों द्वारा सुनिश्चित हैं तथा संविधान आदिवासी समुदायों को गारंटी देता है।
    • उत्तर-पूर्व में रिकॉर्डेड वन क्षेत्र (RFA) का 50% से अधिक हिस्सा"अवर्गीकृत वन" के अंतर्गत आता है- वे वन जो किसी भी कानून के तहत अधिसूचित नहीं हैं।
      •  उदाहरण के लिये नगालैंड में RFA का 97.3%, मेघालय में 88.2%, मणिपुर में 76%, अरुणाचल प्रदेश में 53%, त्रिपुरा में 43%, असम में 33% और मिज़ोरम में 15.5% अवर्गीकृत वन श्रेणी में आते हैं।
    • इसका अर्थ यह है कि अवर्गीकृत वनों के इन बड़े क्षेत्रों को इस अधिनियम से बाहर रखा जाएगा जब तक कि उन्हें सरकारी रिकॉर्ड में शामिल नहीं किया जाता है।

उत्तर-पूर्व भारत में वनों की सुरक्षा:

  • अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम (FRA), 2006:
    • वन भूमि में अवर्गीकृत वन, गैर-सीमांकित वन, मौजूदा या डीम्ड वन, संरक्षित वन, आरक्षित वन, अभयारण्य और राष्ट्रीय उद्यान शामिल हैं।
    • यह वर्ष 1996 के सर्वोच्च न्यायालय की पुनर्परिभाषा का अनुपालन करता है।
  • अनुच्छेद 371A और 371G:
    • अनुच्छेद 371A (नगालैंड) और 371G (मिज़ोरम) में विशेष संवैधानिक सुरक्षा उन कानूनों के कार्यान्वयन करने पर रोक लगाती है जो आदिवासी प्रथागत कानून, भूमि स्वामित्व और राज्य विधानसभाओं के प्रस्तावों के बिना हस्तांतरण पर रोक लगाते हैं।
      • नगालैंड के विपरीत मिज़ोरम एक राज्य के रूप में अपनी स्थिति के कारण FCA के दायरे में आता है। यह संशोधन इसके 84.53% वन क्षेत्रों को प्रभावित करता है।
      • केंद्रशासित प्रदेश से मिज़ोरम संविधान (53वाँ संशोधन) अधिनियम, 1986 के साथ एक राज्य बन गया, जिसमें संविधान में अनुच्छेद 371G जोड़ा गया, इसमें कहा गया कि 1986 से पहले लागू सभी केंद्रीय अधिनियम FCA सहित राज्य तक विस्तृत हैं।
  • वन अधिकार अधिनियम (FRA) 2006:
    • FRA विभिन्न वन प्रकारों में पारंपरिक वन अधिकारों को मान्यता देता है, जिसमें अवर्गीकृत वन भी शामिल हैं, जो आदिवासी समुदायों के लिये सुरक्षा की एक अतिरिक्त स्तर प्रदान करता है।
      • असम और त्रिपुरा को छोड़कर अधिकांश पूर्वोत्तर राज्यों ने भूमि स्वामित्व पैटर्न और वन-निर्भर समुदायों की कमी जैसे कारणों का हवाला देते हुए FRA लागू नहीं किया है।

संवैधानिक अनुच्छेद जो पूर्वोत्तर राज्यों को छूट प्रदान करते हैं:

अनुच्छेद (संशोधन)

राज्य 

प्रावधान

अनुच्छेद 371A (13वाँ संशोधन अधिनियम, 1962)

नगालैंड

संसद नगा धर्म या सामाजिक प्रथाओं, नगा प्रथागत कानून और प्रक्रिया, नगा प्रथागत कानून के अनुसार निर्णय लेने वाले नागरिक एवं आपराधिक न्याय प्रशासन तथा राज्य विधानसभा की सहमति के बिना भूमि के स्वामित्व व हस्तांतरण के मामलों में कानून नहीं बना सकती है।

अनुच्छेद 371जी (53वाँ संशोधन अधिनियम, 1986)

मिज़ोरम

संसद मिज़ो की धार्मिक या सामाजिक प्रथाओं, मिज़ो प्रथागत कानून और प्रक्रिया, मिज़ो प्रथागत कानून के अनुसार निर्णय लेने वाले नागरिक एवं आपराधिक न्याय के प्रशासन, भूमि के स्वामित्व तथा हस्तांतरण पर तब तक कानून नहीं बना सकती जब तक कि विधानसभा निर्णय न ले।


जैव विविधता और पर्यावरण

आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

प्रिलिम्स के लिये:

आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ, जैवविविधता, जलकुंभी, कुनमिंग-मॉन्ट्रियल वैश्विक जैवविविधता फ्रेमवर्क, जैविक विविधता पर अभिसमय, प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण पर अभिसमय, वन्यजीवों और वनस्पतियों की संकटापन्न प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर अभिसमय 

मेन्स के लिये:

बढ़ती आक्रामक प्रजातियों और उनके प्रभावों के लिये ज़िम्मेदार कारक

चर्चा में क्यों?

इंटरगवर्नमेंटल साइंस-पॉलिसी प्लेटफॉर्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज़ (IPBES) ने हाल ही में "आक्रामक विदेशी प्रजातियों और उनके नियंत्रण पर मूल्यांकन रिपोर्ट" जारी की है।

  • यह व्यापक अध्ययन विश्व में आक्रामक विदेशी प्रजातियों के खतरनाक प्रसार और वैश्विक जैवविविधता पर उनके विनाशकारी प्रभाव पर प्रकाश डालता है।

रिपोर्ट के प्रमुख बिंदु:

  • विदेशी प्रजातियों के आक्रमण की समस्या का पैमाना:
    • रिपोर्ट विभिन्न क्षेत्रों और बायोम में मानवीय गतिविधियों द्वारा लाई गई लगभग 37,000 विदेशी प्रजातियों की उपस्थिति का खुलासा करती है।
    • इनमें से 3,500 से अधिक को आक्रामक विदेशी प्रजातियों के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जो स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र के लिये गंभीर खतरा उत्पन्न करते हैं।
      • लगभग 6% विदेशी पौधे, 22% विदेशी अकशेरुकी, 14% विदेशी कशेरुक और 11% विदेशी रोगाणु आक्रामक माने जाते हैं।
  • अग्रणी आक्रामक प्रजातियाँ:
    • जलकुंभी भूमि पर विश्व की सबसे व्यापक आक्रामक विदेशी प्रजाति के रूप में शामिल है।
    • लैंटाना, एक फूलदार झाड़ी और काला चूहा वैश्विक आक्रमण पैमाने पर दूसरे तथा तीसरे स्थान पर हैं।
    • भूरे चूहे और घरेलू चूहे भी व्यापक आक्रमणकारी होते हैं।
  • अनुमानित लाभ बनाम नकारात्मक प्रभाव:
    • कई आक्रामक विदेशी प्रजातियों को जान-बूझकर वानिकी, कृषि, बागवानी, जलीय कृषि और पालतू जानवरों जैसे क्षेत्रों में कथित लाभ के लिये पेश किया गया था।
    • हालाँकि जैवविविधता और स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र पर उनके नकारात्मक प्रभावों पर अक्सर विचार नहीं किया गया।
      • आक्रामक विदेशी प्रजातियों ने 60% प्रलेखित वैश्विक पौधों और जंतुओं के विलुप्त होने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।  
      • इन प्रजातियों को अब भूमि और समुद्री उपयोग परिवर्तन, जीवों के प्रत्यक्ष शोषण, जलवायु परिवर्तन तथा प्रदूषण के साथ-साथ जैवविविधता की हानि के पाँच प्राथमिक चालकों में से एक के रूप में पहचाना जाता है।
      • मनुष्यों पर प्रकृति के योगदान के मामले में आक्रामक  प्रजातियों के लगभग 80% प्रलेखित प्रभाव नकारात्मक हैं।
  • क्षेत्रीय वितरण: जैविक आक्रामक प्रजातियों के 34% प्रभाव अमेरिका से, 31% यूरोप एवं मध्य एशिया से, 25% एशिया तथा प्रशांत से और लगभग 7% अफ्रीका से रिपोर्ट किये गए।
    • अधिकांश नकारात्मक प्रभाव भूमि पर, विशेषकर वनों, काष्ठभूमि और कृषि क्षेत्रों में होते हैं।
    • द्वीपों पर आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ सबसे अधिक हानिकारक हैं। सभी द्वीपों में से 25% से अधिक पर विदेशी पौधों की संख्या अब स्थानीय पौधों से अधिक है।
    • स्थानीय प्रजातियों पर जैविक आक्रमण के 85% प्रभाव नकारात्मक होते हैं।

आक्रामक/प्रवेशी विदेशी प्रजातियाँ:

  • परिचय
    • आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ, जिन्हें आक्रामक बाह्य प्रजातियाँ या गैर-स्थानीय प्रजातियाँ भी कहा जाता है, उन जीवों को संदर्भित करती हैं जिन्हें उनकी मूल सीमा के बाहर के क्षेत्रों या पारिस्थितिक तंत्रों में लाया गया है और जिन्होंने स्व-निर्भर समष्टि स्थापित की है।
    • ये प्रजातियाँ प्रायः देशी/स्थानीय प्रजातियों से प्रतिस्पर्द्धा करती हैं और पारिस्थितिक तंत्र के संतुलन को बाधित करती हैं, जिससे कई प्रकार के नकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं।
  • बढ़ती आक्रामक प्रजातियों के लिये ज़िम्मेदार कारक:
    • व्यापार और यात्रा का वैश्वीकरण: बढ़ते अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और यात्रा ने सीमा पार/ बाह्य प्रजातियों के अनजाने प्रसार को उत्प्रेरित किया है।
      • आक्रामक प्रजातियाँ मालवाहक जहाज़, हवाई जहाज़ और वाहनों द्वारा अनजाने में कार्गो के भीतर, जलमार्ग के माध्यम से या उनकी सतहों के साथ ले जाए जाते हैं, जिससे उनका अनजाने में प्रसार और भी आसान हो जाता है।
        • 1800 के दशक के अंत में जहाज़ों और मोती उद्योग के माध्यम से ऑस्ट्रेलिया में प्रस्तुत किये गए ब्लैक रैट को IUCN द्वारा "विश्व की सबसे खराब" आक्रामक  प्रजातियों में से एक माना जाता है।
    • जलवायु परिवर्तन: उच्च तापमान और वर्षा पैटर्न में बदलाव आक्रामक  प्रजातियों के उपनिवेशीकरण एवं प्रसार के लिये अनुकूल वातावरण को बढ़ावा देते हैं।
      • ऋतुओं के समय में बदलाव देशी प्रजातियों के जीवन चक्र को बाधित कर सकता है, जिससे वे आक्रामक प्रतिस्पर्द्धियों और शिकारियों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं।
    • विदेशी प्रजातियों का समावेश: बागवानी, भू-निर्माण और कीट नियंत्रण जैसे उद्देश्यों के लिये गैर-देशी प्रजातियों का जान-बूझकर समावेश, तब आक्रमण का कारण बन सकता है, जब ये प्रजातियाँ कृषि जुताई के दौरान बच जाती हैं।
  • आक्रामक विदेशी प्रजातियों के प्रभाव:
    • पारिस्थितिक प्रभाव: आक्रामक प्रजातियाँ भोजन, जल और आवास जैसे संसाधनों के लिये देशी प्रजातियों से प्रतिस्पर्द्धा कर सकती हैं, जिससे देशी प्रजातियों में गिरावट आ सकती है या वे विलुप्त हो सकती हैं।
      • कुछ देशी प्रजातियाँ आक्रामक प्रजातियों की शिकार बन सकती हैं, जिससे उनकी आबादी में गिरावट आ सकती है।
      • इन व्यवधानों से पारिस्थितिकी तंत्र की स्थिरता और लचीलेपन पर दूरगामी परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं।
    • आर्थिक प्रभाव: आक्रामक विदेशी प्रजातियों की वार्षिक लागत वर्ष 1970 के बाद से हर दशक में चौगुनी हो गई है। वर्ष  2019 में इन प्रजातियों की वैश्विक आर्थिक लागत वार्षिक रूप से 423 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक हो गई है।
      • ज़ेबरा मसल्स जैसी प्रजातियाँ जल के पाइप और बुनियादी ढाँचे को अवरुद्ध कर सकती हैं, जिससे मरम्मत और रखरखाव महँगा हो जाता है।
    • खाद्य आपूर्ति पर प्रभाव: खाद्य आपूर्ति में कमी विदेशी आक्रामक प्रजातियों का सबसे आम परिणाम है।
      • उदाहरणतः इसमें केरल में मत्स्यपालन को हानि पहुँचाने वाला कैरेबियन फाल्स मसल्स शामिल है।
    • स्वास्थ्य पर प्रभाव: एडीज़ एल्बोपिक्टस(Aedes Albopictus) और एडीज़ एजिप्टी(Aedes Aegyptii) जैसी आक्रामक प्रजातियाँ मलेरिया, ज़ीका और वेस्ट नाइल फीवर जैसी बीमारियाँ फैलाती हैं, जिससे मानव स्वास्थ्य पर असर पड़ता है।
      • विक्टोरिया झील में जलकुंभी के कारण तिलापिया (मछली) की कमी हो गई, जिससे स्थानीय मत्स्यपालन प्रभावित हुआ है।
  • आक्रामक प्रजातियों के लिये अंतर्राष्ट्रीय उपाय और कार्यक्रम:

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिये अंतर्राष्ट्रीय संघ (इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंज़र्वेशन ऑफ नेचर एंड नेचुरल रिसोर्सेज़) (IUCN) तथा वन्यजीवों एवं वनस्पतिजात की संकटापन्न स्पीशीज़ के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर अभिसमय (CITES) के संदर्भ में निम्नलिखित में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं? (2015)

  1. IUCN संयुक्त राष्ट्र(UN) का एक अंग है तथा CITES सरकारों के बीच एक अंतर्राष्ट्रीय करार है।
  2. IUCN प्राकृतिक वातावरण के बेहतर प्रबंधन के लिये विश्व भर में हज़ारों क्षेत्र-परियोजनाएँ चलाता है।
  3. CITES उन राज्यों पर वैध रूप से आबद्धकर है जो इसमें शामिल हुए हैं, लेकिन यह अभिसमय राष्ट्रीय विधियों का स्थान नहीं लेता है।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (b)


जैव विविधता और पर्यावरण

समुद्री रेत निष्कर्षण

प्रिलिम्स के लिये:

सतत् रेत खनन प्रबंधन दिशा-निर्देश 2016, समुद्री रेत निगरानी

मेन्स के लिये:

समुद्री रेत निष्कर्षण, भारत में रेत खनन के पर्यावरणीय और सामाजिक-आर्थिक प्रभाव

स्रोत: डाउन टू अर्थ

चर्चा में क्यों?

"मरीन सैंड वॉच (Marine Sand Watch)" नामक एक नवीनतम डेटा प्लेटफॉर्म ने रेत निष्कर्षण के पैमाने तथा इसके दूरगामी परिणामों का खुलासा करते हुए इससे संबंधित प्रमुख मुद्दों पर प्रकाश डाला है।

  • विश्व के महासागरों से रेत का निरंतर उत्खनन समुद्री पारिस्थितिक तंत्र तथा तटीय समुदायों के लिये गंभीर खतरा उत्पन्न कर रहा है।

समुद्री रेत निष्कर्षण:

  • परिचय:
    • समुद्री रेत निष्कर्षण निर्माण, भूमि सुधार, समुद्र तट पोषण (Beach Nourishment) या खनन जैसे विभिन्न उद्देश्यों के लिये समुद्र तल या तटीय क्षेत्र से रेत निकालने की प्रक्रिया है।
  • प्रक्रिया:
    • ड्रेजिंग:
      • ड्रेजिंग (Dredging) समुद्री रेत निष्कर्षण का सबसे आम तरीका है। इसमें समुद्र तल से रेत निकालने और उसे किनारे या किसी अन्य स्थान पर ले जाने के लिये सक्शन पाइप या यांत्रिक पकड़ से सुसज्जित एक जहाज़ का उपयोग करना शामिल है।
    • खनन:
      • खनन समुद्री रेत निष्कर्षण का एक अन्य तरीका है। इसमें रेत के भंडार को विखंडित करने और उनमें से खनिज या धातु निष्कर्षण के लिये विशेष उपकरण, जैसे- ड्रिल, कटर या जेट का उपयोग करना शामिल है।
    • संचयन:
      • संचयन, समुद्री रेत निष्कर्षण की एक न्यूनतम प्रचलित विधि है। इसमें तटीय क्षेत्र से रेत एकत्रित करने और इसे तट पर संचय करने के लिये लहरों, धाराओं या ज्वार जैसी प्राकृतिक शक्तियों का उपयोग करना शामिल है।
  • निष्कर्षण अनुमान:
    • इस प्लेटफॉर्म का अनुमान है कि प्रत्येक वर्ष समुद्र तल से चार से आठ अरब टन रेत का निष्कर्षण किया जा रहा है।
      • समुद्री रेत निष्कर्षण प्रतिवर्ष 10 से 16 बिलियन टन तक बढ़ने की उम्मीद है, जो प्राकृतिक पुनः पूर्ति दर या वह मात्रा है जो नदियों को तटीय और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र संरचना तथा कार्य को बनाए रखने के लिये आवश्यक है।

मरीन सैंड वाॅच:

  • यह संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) के अंतर्गत सेंटर फॉर एनालिटिक्स द्वारा विकसित एक डेटा प्लेटफॉर्म है।
  • यह प्लेटफॉर्म विश्व के समुद्री वातावरण में रेत, मिट्टी, गाद, बजरी और चट्टान की ड्रेजिंग (हटाने) गतिविधियों को ट्रैक और मॉनीटर करेगा।
  • यह विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र वाले देशों द्वारा रेत निष्कर्षण के लिये उपयोग किये जाने वाले क्षेत्रों, पूंजी और रखरखाव, ड्रेजिंग के क्षेत्रों, रेत-व्यापार बंदरगाहों/हबों, जहाज़ों और ऑपरेटरों की संख्या, तलछट के निष्कर्षण एवं अन्य प्रकार की गतिविधियों के बारे में जानकारी प्रदान करेगा।

समुद्री रेत निष्कर्षण के प्रभाव:

  • पर्यावरणीय प्रभाव:
    • जल का मैलापन: रेत निकालने से जल का मैलापन (किसी तरल पदार्थ की सापेक्ष स्पष्टता का माप) बढ़ जाता है, जिससे जल की स्पष्टता कम हो जाती है तथा जलीय पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित होता है।
    • पोषक तत्त्वों में परिवर्तन: यह पोषक तत्त्वों की उपलब्धता को प्रभावित करने के साथ-साथ संभावित रूप से समुद्री वनस्पतियों तथा जीवों को नुकसान पहुँचाता है।
    • ध्वनि प्रदूषण: निष्कर्षण प्रक्रिया से ध्वनि प्रदूषण होता है जो समुद्री जीवों और उनके आवासों को प्रभावित कर सकता है।
  • सामुदायिक और अवसंरचनात्मक प्रभाव:
    • तटीय समुदाय की संवेदनशीलता: तटीय समुदायों को समुद्र के बढ़ते स्तर और तूफानों से संरक्षण के लिये सुरक्षा अवसंरचनाओं के लिये रेत की आवश्यकता होती है, समुद्री रेत निष्कर्षण के कारण उनमें सुरक्षा संबंधी जोखिम बढ़ने की काफी संभावना होती है।
    • अवसंरचना निर्माण में महत्त्व: पवन और तरंग टरबाइन सहित अपतटीय ढाँचे के निर्माण के लिये समुद्री रेत महत्त्वपूर्ण है।
    • लवणीकरण का जोखिम: तटीय निष्कर्षण से जलभृतों का लवणीकरण हो सकता है जिससे मीठे जल के संसाधन प्रभावित हो सकते हैं।
    • पर्यटन विकास: रेत निकासी कार्य आने वाले समय में तटीय क्षेत्रों में पर्यटन विकास में बाधा बन सकता है, जिसका स्थानीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ सकता है।

समुद्री रेत निष्कर्षण पर प्रतिक्रियाएँ:

  • भारत में रेत खनन:
    • खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1957 के तहत रेत को "लघु खनिज" के रूप में वर्गीकृत किया गया है और लघु खनिजों का प्रशासनिक नियंत्रण राज्य सरकारों के पास है।
    • नदियाँ और तटीय क्षेत्र रेत के मुख्य स्रोत हैं तथा देश में निर्माण और बुनियादी ढाँचे के विकास में आई तेज़ी के कारण हाल के वर्षों में इसकी मांग काफी बढ़ गई है।
    • पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने वैज्ञानिक रेत खनन तथा पर्यावरण के अनुकूल प्रबंधन प्रथाओं को बढ़ावा देने के लिये "सतत् रेत खनन प्रबंधन दिशा-निर्देश 2016" जारी किये हैं।
  • वैश्विक प्रतिक्रियाएँ:
    • इंडोनेशिया, थाईलैंड, मलेशिया, वियतनाम तथा कंबोडिया जैसे कुछ देशों ने पिछले दो दशकों में समुद्री रेत निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया है।
  • UNEP की सिफारिशें:
    • UNEP, रेत निष्कर्षण तथा उपयोग की बेहतर निगरानी की वकालत करता है।
    • UNEP समुद्री पर्यावरण में रेत निष्कर्षण के लिये अंतर्राष्ट्रीय मानकों की स्थापना का आह्वान करता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय समुद्री प्राधिकरण (ISA):

आगे की राह

  • समुद्री रेत निष्कर्षण के संधारणीय विकल्पों के लिये अधिक नवाचार तथा निवेश की आवश्यकता है। इसमें बेहतर निर्माण सामग्री, पुनर्चक्रण एवं चक्रीय अर्थव्यवस्था सिद्धांतों के माध्यम से रेत की मांग को कम करना शामिल है।
  • इसमें रेत के वैकल्पिक स्रोतों की खोज भी शामिल है, जैसे क्रश्ड रॉक्स अथवा खदान की धूल से विनिर्मित रेत, रेगिस्तान या ज्वालामुखीय रेत जैसे प्राकृतिक स्रोत भी शामिल हैं।
  • विभिन्न स्तरों पर समुद्री रेत निष्कर्षण का प्रभावी प्रशासन तथा विनियमन महत्त्वपूर्ण है। इसमें पर्यावरण मूल्यांकन, लाइसेंसिंग, रिपोर्टिंग एवं ऑडिटिंग के लिये स्पष्ट मानक स्थापित करना शामिल है।
  • UNEP मरीन सैंड वॉच पहल एक सकारात्मक कदम है, लेकिन बेहतर डेटा तथा नीति निर्धारण के लिये हितधारकों से अधिक सहयोग एवं समर्थन की आवश्यकता है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न.प्निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)

  1. वैश्विक महासागर आयोग अंतर्राष्ट्रीय जल में समुद्र तल की खोज और खनन के लिये लाइसेंस प्रदान करता है।
  2. भारत को अंतर्राष्ट्रीय जल में समुद्र तल खनिज अन्वेषण के लिये लाइसेंस प्राप्त हुआ है।
  3. 'दुर्लभ मृदा खनिज' अंतर्राष्ट्रीय समुद्र जल तल पर मौजूद हैं।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-से सही हैं?

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (b)

  • वैश्विक महासागर आयोग वर्ष 2013 और वर्ष 2016 के बीच जागरूकता बढ़ाने, महासागर के क्षरण को संबोधित करने के लिये कार्रवाई को बढ़ावा देने तथा इसे पूर्ण स्वास्थ्य एवं उत्पादकता में बहाल करने हेतु एक अंतर्राष्ट्रीय पहल थी।
  • इंटरनेशनल सीबेड अथॉरिटी (ISA) संयुक्त राष्ट्र का एक निकाय है, जो अंतर्राष्ट्रीय जल में महासागरों के समुद्री गैर-जीवित संसाधनों की खोज और दोहन को विनियमित करने के लिये स्थापित किया गया है। यह गहन समुद्री संसाधनों की खोज एवं दोहन पर विचार करता है, जो पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन करता है तथा खनन गतिविधियों की निगरानी करता है। अतः कथन 1 सही नहीं है।
  • भारत वर्ष 1987 में 'पायनियर इन्वेस्टर' का दर्जा प्राप्त करने वाला पहला देश था और नोड्यूल की खोज के लिये भारत को मध्य हिंद महासागर बेसिन (CIOB) में लगभग 5 लाख वर्ग किमी. के क्षेत्र पर अनुमति प्रदान की गई थी। मध्य हिंद महासागर बेसिन में समुद्र तल से पॉलीमेटेलिक नोड्यूल्स की खोज करने के लिये भारत के विशेष अधिकारों को वर्ष 2017 में पाँच वर्षों के लिये बढ़ा दिया गया था। अत: कथन 2 सही है।
  • दुर्लभ पृथ्वी खनिजों में अद्वितीय चुंबकीय, ल्यूमिनसेंट और इलेक्ट्रोकेमिकल गुण होते हैं तथा इस प्रकार उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स, कंप्यूटर और नेटवर्क, संचार, स्वास्थ्य देखभाल, राष्ट्रीय रक्षा आदि सहित कई आधुनिक प्रौद्योगिकियों में इन्हें उपयोग किया जाता है। उन्हें 'दुर्लभ पृथ्वी' (रेयर अर्थ) कहा जाता है क्योंकि पहले तकनीकी रूप से उन्हें उनके ऑक्साइड रूपों से निकालना कठिन था।
  • दुर्लभ मृदा खनिज अंतर्राष्ट्रीय जल में समुद्र तल पर पाए जाते हैं। विभिन्न महासागरों के समुद्र तल में दुर्लभ-पृथ्वी खनिजों का विश्व का सबसे बड़ा अप्रयुक्त संग्रह है। अत: कथन 3 सही है।

मेन्स:

प्रश्न. तटीय बालू खनन, चाहे वह वैध हो या अवैध, हमारे पर्यावरण के सामने सबसे बड़े खतरों में से एक है। भारतीय तटों पर बालू के प्रभाव का विशिष्ट उदाहरणों का हवाला देते हुए विश्लेषण कीजिये। (2019)


close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2