अंतर्राष्ट्रीय संबंध
UNSC में भारत की स्थायी सदस्यता का मामला
प्रिलिम्स के लियेसंयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, इज़रायल-फिलिस्तीनी संघर्ष, जी4 मेन्स के लियेUNSC में भारत : विगत योगदान तथा वर्तमान चुनौतियाँ , भारत द्वारा UNSC की अध्यक्षता ग्रहण करने के लाभ एवं वैशिक परिदृश्य में इसका महत्त्व |
चर्चा में क्यों?
पूर्व में ओबामा और ट्रम्प प्रशासन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में भारत की स्थायी सदस्यता की दावेदारी का समर्थन किया था। हालाँकि नए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन शासन के तहत अमेरिकी विदेश विभाग के हालिया बयान इस मुद्दे पर एक अस्पष्ट या आधे-अधूरे विचार को दर्शाते हैं।
प्रमुख बिंदु
हाल के दृष्टिकोण की मुख्य विशेषताएँ:
- अमेरिका के अनुसार, सुरक्षा परिषद में ऐसा सुधार होना चाहिये, जिसमें सभी का प्रतिनिधित्व हो, प्रभावी हो और जो अमेरिका तथा संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य देशों के हित में प्रासंगिक हो।
- हालाँकि अमेरिका स्थायी व अस्थायी सदस्यों के लिये परिषद (UNSC ) के विस्तार पर आम सहमति कायम करने का पूर्ण समर्थन करता है।
- अमेरिका वीटो के विस्तार का समर्थन नहीं करेगा, जिसका वर्तमान में पाँच स्थायी सदस्यों (P-5) द्वारा प्रयोग किया जाता है: चीन, फ्राँस, रूस, यूके तथा यूएस।
- साथ ही संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी राजदूत ने इस बात से इनकार किया था कि अमेरिका ने UNSC की स्थायी सदस्यता के लिये भारत और G4 (जापान, जर्मनी और ब्राज़ील) के अन्य सदस्यों का समर्थन किया है।
- इसने यूनाइटिंग फॉर कंसेंसस (UFC) समूह- पाकिस्तान, दक्षिण कोरिया, इटली और अर्जेंटीना द्वारा क्षेत्रीय असहमति का हवाला दिया, जो G4 योजना का विरोध करता है।
UNSC में सुधारों की आवश्यकता:
- UNSC की गैर-लोकतांत्रिक प्रकृति: दो क्षेत्रों (उत्तरी अमेरिका और यूरोप) को छोड़कर अन्य क्षेत्रों को या तो कम प्रतिनिधित्व दिया जाता है (जैसे- एशिया) या बिल्कुल भी प्रतिनिधित्व (अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और छोटे विकासशील द्वीपीय राज्य) नहीं दिया जाता है।
- वीटो पावर का दुरुपयोग: P-5 देशों द्वारा वीटो पावर का इस्तेमाल अपने और अपने सहयोगियों के रणनीतिक हितों की पूर्ति के लिये किया जाता है।
- उदाहरण के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका ने इज़रायल-फिलिस्तीनी संघर्ष के मामले में अपने सहयोगी इज़रायल का समर्थन करने हेतु 16 बार परिषद के प्रस्तावों पर वीटो पेश किया।
- ग्लोबल गवर्नेंस का अभाव: इंटरनेट, स्पेस, हाई सीज़ (किसी के EEZ-अनन्य आर्थिक क्षेत्र से बाहर) जैसे ग्लोबल कॉमन्स के लिये कोई नियामक तंत्र नहीं है।
- साथ ही ये आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन, साइबर सुरक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य (जैसा कि वर्तमान महामारी में देखा गया है) जैसे वैश्विक मुद्दों से निपटने के तरीके पर एकमत नहीं हैं।
- इन सभी कारकों के कारण संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान ने कहा कि सुरक्षा परिषद को या तो सुधार करना चाहिये या तेज़ी से अप्रासंगिक होने का जोखिम उठाना चाहिये।
UNSC में भारत की स्थायी सदस्यता का मामला:
- संयुक्त राष्ट्र प्रणाली के साथ भारत का ऐतिहासिक संघ: भारत संयुक्त राष्ट्र का संस्थापक सदस्य है।
- भारत अब तक दो वर्ष की गैर-स्थायी सदस्य सीट के लिये आठ बार निर्वाचित हुआ है।
- सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भारत में P5 देशों की तुलना में ज़मीन पर तैनात शांति सैनिकों की संख्या लगभग दोगुनी है।
नोट:
- अतीत में भारत को दोनों महाशक्तियों अमेरिका और तत्कालीन सोवियत संघ द्वारा क्रमशः वर्ष 1950 और 1955 में UNSC में शामिल होने की पेशकश की गई थी।
- हालाँकि भारत ने उस दौर में शीत युद्ध की राजनीति के चलते इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था।
- भारत वर्तमान में (2021 और 2022 के लिये) UNSC का अस्थायी सदस्य है और अगस्त महीने के लिये अध्यक्ष है।
- भारत का आंतरिक मूल्य: भारत दुनिया में सबसे बड़ा लोकतंत्र और दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश (जल्द ही सबसे अधिक आबादी वाला देश) होने के कारण इसे UNSC में स्थायी सदस्यता प्रदान करने के प्राथमिक कारण हैं।
- साथ ही भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं और सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है।
- भारत की भू-राजनीतिक स्थिति: मई 1998 में भारत को एक परमाणु हथियार संपन्न राज्य (NWS) का दर्जा प्राप्त हुआ था, जो कि एक स्थायी सदस्य के रूप में भारत की दावेदारी का महत्त्वपूर्ण आधार है, क्योंकि परिषद के वर्तमान सभी स्थायी सदस्य परमाणु हथियार संपन्न देश हैं।
- इसके अलावा भारत को विभिन्न निर्यात नियंत्रण व्यवस्थाओं जैसे- MTCR और वासेनर व्यवस्था आदि में शामिल किया गया है।
- राजनीति, सतत् विकास, अर्थशास्त्र, संस्कृति और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी जैसे विविध क्षेत्रों में भारत के लगातार बढ़ते वैश्विक कद के कारण देश की वैश्विक क्षमता काफी मज़बूत हुई है।
- विकासशील विश्व का प्रतिनिधित्व: भारत तीसरी दुनिया के देशों का निर्विवाद प्रतिनिधि है, जो कि गुटनिरपेक्ष आंदोलन में भारत की नेतृत्वकारी भूमिका से परिलक्षित होता है।
स्थायी सदस्यता संबंधी भारत की चुनौतियाँ:
- आलोचकों द्वारा यह तर्क दिया जाता है कि भारत ने अभी भी परमाणु अप्रसार संधि (NPT) पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं और वर्ष 1996 में व्यापक परमाणु-परीक्षण-प्रतिबंध संधि पर हस्ताक्षर करने से भी इनकार कर दिया था।
- चीन, जिसके पास UNSC में वीटो पावर है, स्थायी सदस्य बनने के भारत के प्रयासों को लेकर चुनौतियाँ पैदा कर रहा है।
- यद्यपि भारत वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक महत्त्वपूर्ण स्थान पर है और देश का व्यापक आर्थिक बुनियादी ढाँचा भी स्थिर है, किंतु भारत मानव विकास सूचकांक जैसे कई सामाजिक-आर्थिक संकेतकों में भारत खराब प्रदर्शन कर रहा है।
- हिंद महासागर क्षेत्र से परे अपनी सैन्य शक्ति को प्रदर्शित करने की भारत की क्षमता का परीक्षण किया जाना अभी शेष है। इसके अलावा भारत अपनी सैन्य आवश्यकताओं के लिये अमेरिका और रूस से हथियारों के आयात पर बहुत अधिक निर्भर करता है।
स्रोत: द हिंदू
सामाजिक न्याय
अफ्रीकी मूल के लोगों का स्थायी मंच
प्रिलिम्स के लिये:संयुक्त राष्ट्र महासभा, अफ्रीकी मूल के लोगों का स्थायी मंच मेन्स के लिये:संयुक्त राष्ट्र महासभा में अफ्रीकी मूल के लोगों हेतु एक स्थायी मंच की स्थापना के प्रस्ताव से नस्लवाद जैसे मुद्दों का समाधान |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अफ्रीकी मूल के लोगों हेतु एक स्थायी मंच की स्थापना के प्रस्ताव को मंज़ूरी दी है।
- यह फोरम मान्यता, न्याय और विकास के विषयों पर केंद्रित है।
प्रमुख बिंदु
परिचय:
- यह फोरम नस्लवाद, नस्लीय भेदभाव, ज़ेनोफोबिया और असहिष्णुता की चुनौतियों का समाधान करने के लिये विशेषज्ञ सलाह प्रदान करेगा।
- यह "अफ्रीकी मूल के लोगों की सुरक्षा और जीवन की गुणवत्ता तथा आजीविका में सुधार के लिये एक मंच" एवं उन समाजों में उनके पूर्ण समावेश के रूप में काम करेगा, जहाँ वे रहते हैं।
- इसे जनादेश की एक शृंखला प्रदान की गई थी।
- इनमें "अफ्रीकी मूल के लोगों का पूर्ण राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक समावेश" सुनिश्चित करने में मदद करना तथा जिनेवा स्थित मानवाधिकार परिषद, महासभा की मुख्य समितियों व संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों को नस्लवाद से निपटने हेतु सिफारिशें प्रदान करना शामिल है।
- फोरम में 10 सदस्य होंगे:
- सभी क्षेत्रों से महासभा द्वारा चुने गए पाँच सदस्य।
- अफ्रीकी मूल के लोगों के क्षेत्रीय समूहों और संगठनों के साथ परामर्श के बाद मानवाधिकार परिषद द्वारा नियुक्त पाँच सदस्य।
- यह संकल्प वर्ष 2022 में होने वाले फोरम के पहले सत्र आयोजन का आह्वान करता है।
अफ्रीकी मूल के लोग:
- परिचय:
- अमेरिका में रहने वाले लगभग 200 मिलियन लोग अफ्रीकी मूल के होने के नाते अपनी पहचान बना रहे हैं।
- अफ्रीकी महाद्वीप के बाहर भी दुनिया के अन्य हिस्सों में कई लाख और लोग रहते हैं।
- मुद्दे:
- चाहे वे ट्रान्स अटलांटिक दास व्यापार से पीड़ितों के वंशज हों या हाल के प्रवासियों के रूप में, वे कुछ सबसे गरीब और सबसे हाशिये पर स्थित समूहों का गठन करते हैं।
- गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं, आवास और सामाजिक सुरक्षा तक उनकी पहुँच अभी भी सीमित है।
- वे सभी अक्सर न्याय तक पहुँच के मामले में भेदभाव का अनुभव करते हैं और नस्लीय प्रोफाइलिंग के साथ-साथ पुलिस हिंसा की खतरनाक रूप से उच्च दर का सामना करते हैं।
- इसके अलावा मतदान और राजनीतिक पदों पर कब्ज़ा करने में उनकी राजनीतिक भागीदारी अक्सर कम होती है।
- संबंधित पहल:
- डरबन घोषणा और कार्ययोजना (2001):
- इसने स्वीकार किया कि अफ्रीकी मूल के लोग गुलामी, दास व्यापार और उपनिवेशवाद के शिकार थे तथा इसके परिणामों के शिकार बने रहे।
- इसने उनकी दृश्यता को बढ़ाया और राज्यों, संयुक्त राष्ट्र, अन्य अंतर्राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय निकायों तथा नागरिक समाज द्वारा की गई ठोस कार्रवाइयों के परिणामस्वरूप उनके अधिकारों के प्रचार और संरक्षण की महत्त्वपूर्ण प्रगति में योगदान दिया।
- वर्ष 2014 में महासभा ने आधिकारिक तौर पर अफ्रीकी मूल के लोगों के लिये अंतर्राष्ट्रीय दशक (2015 - 2024) का शुभारंभ किया।
- डरबन घोषणा और कार्ययोजना (2001):
नस्लवाद
परिचय:
- नस्लवाद का आशय ऐसी धारणा से है, जिसमें यह माना जाता है कि मनुष्यों को ‘नस्ल’ के रूप में अलग और विशिष्ट जैविक इकाइयों में विभाजित किया जा सकता है; इस धारणा के मुताबिक, विरासत में मिली भौतिक विशेषताओं और व्यक्तित्व, बुद्धि, नैतिकता तथा अन्य सांस्कृतिक एवं व्यावहारिक विशेषताओं के लक्षणों के बीच संबंध होता है और कुछ विशिष्ट ‘नस्लें’ अन्य की तुलना में बेहतर होती हैं।
- यह शब्द राजनीतिक, आर्थिक या कानूनी संस्थानों और प्रणालियों पर भी लागू होता है, जो ‘नस्ल’ के आधार पर भेदभाव करते हैं अथवा धन एवं आय, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, नागरिक अधिकारों तथा अन्य क्षेत्रों में नस्लीय असमानताओं को बढ़ावा देते हैं।
- प्रायः ज़ेनोफोबिया और नस्लवाद को एक जैसा माना जाता है, किंतु इनमें अंतर यह है कि नस्लवाद में शारीरिक विशेषताओं के आधार पर भेदभाव किया जाता है, जबकि ज़ेनोफोबिया में इस धारणा के आधार पर भेदभाव किया जाता है कि कोई विदेशी है अथवा किसी अन्य समुदाय या राष्ट्र से संबद्ध है।
- ‘ज़ेनोफोबिया’ शब्द की उत्पत्ति ग्रीक शब्द ‘ज़ेनो’ से हुई है।
- प्रायः ज़ेनोफोबिया और नस्लवाद को एक जैसा माना जाता है, किंतु इनमें अंतर यह है कि नस्लवाद में शारीरिक विशेषताओं के आधार पर भेदभाव किया जाता है, जबकि ज़ेनोफोबिया में इस धारणा के आधार पर भेदभाव किया जाता है कि कोई विदेशी है अथवा किसी अन्य समुदाय या राष्ट्र से संबद्ध है।
- भारतीय समाज में नस्लीय भेदभाव काफी गहरे तक मौजूद है।
नस्लीय भेदभाव के विरुद्ध पहलें:
- डरबन डिक्लेरेशन एंड प्रोग्राम ऑफ एक्शन (2001): इसे ‘नस्लवाद, नस्लीय भेदभाव, ज़ेनोफोबिया और संबंधित असहिष्णुता के खिलाफ विश्व सम्मेलन’ द्वारा अपनाया गया था।
- प्रतिवर्ष 21 मार्च को ‘अंतर्राष्ट्रीय नस्लीय भेदभाव उन्मूलन दिवस’ का आयोजन किया जाता है।
- ‘संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन’ (यूनेस्को) द्वारा शिक्षा, विज्ञान, संस्कृति और संचार के माध्यम से नस्लवाद के विरुद्ध की जा रही कार्रवाई इस संबंध में एक बेहतर उदाहरण प्रस्तुत करती है।
- ग्लोबल फोरम अगेंस्ट रेसिज़्म एंड डिस्क्रिमिनेशन: पेरिस स्थित यूनेस्को के मुख्यालय में कोरिया गणराज्य के साथ साझेदारी के माध्यम से इसकी मेजबानी की गई थी।
- जनवरी 2021 में विश्व आर्थिक मंच ने कार्यस्थल पर नस्लीय और जातीय न्याय में सुधार के लिये प्रतिबद्ध संगठनों का एक गठबंधन शुरू किया था।
- ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन ने न केवल संयुक्त राज्य अमेरिका बल्कि संपूर्ण विश्व में नस्लीय भेदभाव के विरुद्ध आक्रोश को जन्म दिया है। वैश्विक स्तर पर तमाम तरह के लोग नस्लीय भेदभाव की व्यापकता के विरुद्ध एकजुट हुए हैं।
भारत में नस्लीय भेदभाव के विरुद्ध प्रावधान:
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15, अनुच्छेद 16 और अनुच्छेद 29 ‘नस्ल’, ‘धर्म’ तथा ‘जाति’ के आधार पर भेदभाव पर प्रतिबंध लगाते हैं।
- भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 153A भी ’नस्ल’ को संदर्भित करती है।
- भारत ने वर्ष 1968 में ‘नस्लीय भेदभाव के सभी रूपों के उन्मूलन पर अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन’ (ICERD) की पुष्टि की थी।
आगे की राह
- अंतर-सांस्कृतिक संवाद का नवीनतम दृष्टिकोण युवाओं को किसी वर्ग विशिष्ट से संबंधित रूढ़ियों को समाप्त करने और उनमें सहिष्णुता बढ़ाने में सहायक हो सकता है।
- नस्लवाद और जातिवाद से संबंधित भेदभाव की हालिया घटनाएँ संपूर्ण समाज को समानता के संबंध में विभिन्न पहलुओं को नए सिरे से सोचने पर मजबूर करती हैं। नस्लवाद की समस्या को केवल सद्भाव अथवा सद्भावना के माध्यम से समाप्त नहीं किया जा सकता, बल्कि इसके लिये नस्लवाद-विरोधी कार्रवाई की भी आवश्यकता होगी।
- सुरक्षा में नई तकनीकों और कृत्रिम बुद्धिमत्ता का उपयोग 'तकनीकी-नस्लवाद' के खतरे को बढ़ाता है, क्योंकि चेहरे की पहचान प्रोग्राम नस्लीय समुदायों के संबंध में गलत पहचान को लक्षित कर सकता है।
- इसके लिये सहिष्णुता, समानता के साथ ही भेदभाव विरोधी एक वैश्विक संस्कृति का निर्माण किया जाना काफी महत्त्वपूर्ण है।
स्रोत: द हिंदू
भारतीय अर्थव्यवस्था
पूर्वव्यापी कराधान को दूर करना
प्रिलिम्स के लियेआयकर अधिनियम, ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस, स्थायी मध्यस्थता न्यायालय मेन्स के लियेपूर्वव्यापी कराधान व्यवस्था और वोडाफोन कर विवाद, नए विधेयक में प्रस्तावित परिवर्तन एवं इसका महत्त्व |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत सरकार ने लोकसभा में कराधान कानून (संशोधन) विधेयक, 2021 पेश किया है।
- यह विधेयक भारतीय संपत्ति के अप्रत्यक्ष हस्तांतरण पर कर लगाने हेतु 2012 के पूर्वव्यापी कानून का उपयोग करके की गई कर की मांगों को वापस लेने का प्रयास करता है।
प्रमुख बिंदु
पृष्ठभूमि:
- यूएस-आधारित वोडाफोन के पक्ष में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद वर्ष 2012 में पूर्वव्यापी कर कानून पारित किया गया था।
- वोडाफोन समूह की डच शाखा ने वर्ष 2007 में एक केमैन (Cayman) आइलैंड्स-आधारित कंपनी खरीदी, जिसने अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय फर्म हचिसन एस्सार लिमिटेड (Hutchison Essar Ltd) में बहुमत हिस्सेदारी रखी, बाद में इसका नाम बदलकर वोडाफोन इंडिया (11 बिलियन डॉलर में ) कर दिया गया।
- इसे वित्त अधिनियम में संशोधन के बाद पेश किया गया था, जिसने कर विभाग को सौदों के लिये पूर्वव्यापी पूंजीगत लाभ कर लगाने में सक्षम बनाया, 1962 के पश्चात् से इसमें भारत में स्थित विदेशी संस्थाओं में शेयरों का हस्तांतरण भी शामिल है।
- जबकि संशोधन का उद्देश्य वोडाफोन को दंडित करना था, कई अन्य कंपनियाँ एक दूसरे के अंतर्विरोध (Crossfire) में फँस गईं और वर्षों से भारत के लिये कई समस्याएँ उत्पन्न कर रही है।
- यह आयकर कानून में सर्वाधिक विवादास्पद संशोधनों में से एक है।
- पिछले वर्ष भारत ने हेग में अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता न्यायाधिकरण में केयर्न एनर्जी पीएलसी और केयर्न यूके होल्डिंग्स लिमिटेड (Cairn Energy Plc and Cairn UK holdings Ltd) पर कंपनी द्वारा प्राप्त किये गए कथित पूंजीगत लाभ पर कर लगाने के खिलाफ एक मामले को तब ख़ारिज कर दिया था, जब वर्ष 2006 में उसने स्थानीय इकाई को सूचीबद्ध करने से पहले देश में अपने व्यवसाय को पुनर्गठित किया था।
विधेयक में प्रस्तावित परिवर्तन:
- आयकर अधिनियम और वित्त अधिनियम, 2012 में संशोधन प्रभावी रूप से यह दर्शाता है कि यदि लेन-देन 28 मई, 2012 से पहले किया गया था तो भारतीय संपत्ति के किसी भी अप्रत्यक्ष हस्तांतरण के लिये कोई कर मांग नहीं की जाएगी।
- मई 2012 से पूर्व भारतीय संपत्तियों के अप्रत्यक्ष हस्तांतरण के लिये लगाया गया कर "निर्दिष्ट शर्तों की पूर्ति पर शून्य" होगा, जैसे- लंबित मुकदमे की वापसी तथा एक उपक्रम के कोई नुकसान का दावा दायर नहीं किया जाएगा।
- यह इन मामलों में फँसे कंपनियों द्वारा भुगतान की गई राशि को बिना ब्याज के वापस करने का भी प्रस्ताव करता है।
विधेयक का महत्त्व:
- यह विधेयक बेहतर कर स्पष्टता के लिये पूर्वव्यापी कर को हटाने की मांग करने वाले विदेशी निवेशकों की लंबे समय से लंबित मांग को पूरा करने की दिशा में उठाया गया एक कदम है।
- यह एक निवेश-अनुकूलित व्यवसायिक वातावरण स्थापित करने में मदद करेगा, जो आर्थिक गतिविधियों को बढ़ा सकता है तथा सरकार के लिये समय के साथ अधिक राजस्व संग्रहण करने में मदद करेगा।
- यह भारत की प्रतिष्ठा को बहाल करने और ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस में सुधार करने में मदद कर सकता है।
पूर्वव्यापी कराधान
- यह किसी भी देश को कुछ उत्पादों, वस्तुओं या सेवाओं पर कर लगाने को लेकर एक नियम पारित करने की अनुमति देता है। यह किसी भी कानून के पारित होने की तारीख की पूर्व अवधि से कंपनियों से शुल्क लेता है।
- वे देश अपनी कराधान नीतियों में किसी भी विसंगति को ठीक करने के लिये इस मार्ग का उपयोग करते हैं, जिन्होंने अतीत में कंपनियों को इस तरह की खामियों का फायदा उठाने की अनुमति दी थी।
- पूर्वव्यापी कराधान उन कंपनियों को आहत करता है जिन्होंने जान-बूझकर या अनजाने में कर नियमों की अलग-अलग व्याख्या की थी।
- भारत के अलावा संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, नीदरलैंड और बेल्जियम, ऑस्ट्रेलिया एवं इटली सहित कई देशों में पूर्वव्यापी कराधान वाली कंपनियाँ हैं।
पूंजी लाभ
- यह वृद्धि या लाभ 'आय' की श्रेणी में आता है।
- इसलिये उस वर्ष में उस राशि के लिये पूंजीगत लाभ कर का भुगतान करना आवश्यक होगा जिसमें पूंजीगत संपत्ति का हस्तांतरण होता है। इसे पूंजीगत लाभ कर कहा जाता है, जो अल्पकालिक या दीर्घकालिक हो सकता है।
- दीर्घकालिक पूंजीगत लाभ कर: यह एक वर्ष से अधिक समय तक रखी गई संपत्ति की बिक्री से होने वाले मुनाफे पर लगाया जाता है। कर देने वाले वर्गों (Tax Bracket) के आधार पर ये दरें 0%, 15% या 20% हैं।
- लघु अवधि पूंजीगत लाभ कर: यह एक वर्ष या उससे कम समय के लिये रखी गई संपत्ति पर लागू होता है और सामान्य आय के रूप में कर लगाया जाता है।
- पूंजीगत हानियों को घटाकर पूंजीगत लाभ को कम किया जा सकता है, जो तब होता है जब एक कर योग्य संपत्ति को मूल खरीद मूल्य से कम पर बेचा जाता है। कुल पूंजीगत लाभ में से किसी भी पूंजीगत हानि को घटाकर "शुद्ध पूंजीगत लाभ" के रूप में जाना जाता है।
- पूंजीगत परिसंपत्ति संपत्ति के महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं जैसे कि घर, कार, निवेश संपत्तियाँ, स्टॉक, बाॅण्ड और यहाँ तक कि संग्रहणता (Collectibles) या कला।
आगे की राह
- विवादों को अंतर्राष्ट्रीय न्यायालयों में जाने से रोकने हेतु और लागत तथा समय बचाने के लिये भारत को सीमा पार लेन-देन के मामले में सार्थक एवं स्पष्ट विवाद समाधान तंत्र तैयार करने की आवश्यकता है।
- मध्यस्थता पारिस्थितिकी तंत्र में सुधार से व्यापार करने में आसानी के साथ ही इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
अंतर्राष्ट्रीय संबंध
सुरक्षा पर भारत, श्रीलंका और मालदीव का सहयोग
प्रिलिम्स के लिये:राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, क्वाड मेन्स के लिये:रक्षा क्षेत्र में भारत, श्रीलंका और मालदीव के सहयोग का महत्त्व एवं चीन का प्रतिसंतुलन |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में श्रीलंका, भारत द्वारा आयोजित एक उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार-स्तरीय बैठक में श्रीलंका और मालदीव सुरक्षा सहयोग के "चार स्तंभों" पर काम करने के लिये सहमत हुए हैं।
- इन चार क्षेत्रों में समुद्री सुरक्षा, मानव तस्करी, आतंकवाद का मुकाबला और साइबर सुरक्षा शामिल है।
- कोलंबो सुरक्षा सम्मेलन के तहत हुई बैठक में बांग्लादेश, सेशेल्स और मॉरीशस ने पर्यवेक्षकों की भूमिका में भाग लिया।
प्रमुख बिंदु:
पृष्ठभूमि:
- नवंबर 2020 में कोलंबो में समुद्री सुरक्षा पर NSA (राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार) की त्रिपक्षीय बैठक के तुरंत बाद इस समूह का नाम बदलकर `कोलंबो सुरक्षा सम्मेलन' कर दिया गया। श्रीलंका की राजधानी (कोलंबो) में एक सचिवालय भी स्थापित किया गया है।
- यह त्रिपक्षीय ढाँचा वर्ष 2011 में स्थापित किया गया था।
- कॉन्क्लेव की स्थापना का उद्देश्य तीन हिंद महासागर देशों के बीच समुद्री और सुरक्षा मामलों पर घनिष्ठ सहयोग बनाना था।
- सैन्य और सुरक्षा सहयोग पर आधारित यह पहल भारत द्वारा श्रीलंका और मालदीव के साथ साझा की जाने वाली वर्तमान भू-रणनीतिक गतिशीलता के मद्देनज़र इस क्षेत्र में महत्त्व रखती है।
वर्तमान भूस्थैतिक गतिशीलता:
- श्रीलंका: इस वर्ष की शुरुआत में भारत ने अपनी दक्षिणी सीमा के करीब श्रीलंका के उत्तरी प्रांत के एक द्वीप में चीन द्वारा विकास परियोजनाओं को शुरू किये जाने पर सुरक्षा चिंताएँ ज़ाहिर की हैं।
- भारत-संयुक्त राज्य अमेरिका-जापान-ऑस्ट्रेलिया समूह जिसे 'क्वाड' के रूप में जाना जाता है, के सदस्यों के साथ मालदीव को विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग (खासकर रक्षा क्षेत्र में) कर रहा है।
नवीनतम बैठक के मुख्य बिंदु:
- इस बैठक का उद्देश्य चीन की बढ़ती उपस्थिति के बीच बंगाल की खाड़ी सहित संपूर्ण हिंद महासागर क्षेत्र (IOR) के लिये एक समुद्री सुरक्षा तंत्र स्थापित करना था।
- बैठक में भाग लेने वाले छह देशों के साथ फोकस क्षेत्रों का भी विस्तार किया गया और इसमें हथियारों तथा मानव तस्करी, आतंकवाद व हिंसक उग्रवाद का मुकाबला, समुद्री पर्यावरण की सुरक्षा, क्षमता निर्माण, नशीले पदार्थों सहित अंतर्राष्ट्रीय अपराध तथा मानवीय सहायता एवं आपदा राहत आदि को भी शामिल किया गया।
- हिंद महासागर क्षेत्र में समुद्री सुरक्षा को और मज़बूत करने हेतु नौसेनाओं तथा तटरक्षकों के संयुक्त अभ्यास के माध्यम से अधिक सहयोग पर भी चर्चा की गई।
- गौरतलब है कि हिंद महासागर क्षेत्र में प्रदूषण संबंधी कई दुर्घटनाएँ देखी गई हैं। एमवी एक्सप्रेस पर्ल, एमटी न्यू डायमंड और एमवी वाकाशियो जैसे जहाज़ों की इस क्षेत्र में दुर्घटनाएं हुईं, इससे समुद्री पर्यावरण प्रभावित हुआ। इसके मद्देनज़र सदस्यों ने पानी में होने वाले प्रदूषण से निपटने के तरीकों पर भी चर्चा की।
- इसके अलावा तीन पर्यवेक्षक देशों को अगली बैठक में पूर्ण सदस्य बनने के लिये आमंत्रित किया गया है। यह बैठक मालदीव में होगी।
महत्त्व
- सहयोग के विषयगत क्षेत्रों का विस्तार और बांग्लादेश, मॉरीशस तथा सेशेल्स के रूप में सदस्यता का विस्तार, हिंद महासागर क्षेत्र के देशों के बीच एक साझा मंच पर एक साथ काम करने व एक क्षेत्रीय ढाँचे के तहत जुड़ाव के क्षेत्रों को मज़बूत करने का संकेत देता है।
- भारत के तत्काल पड़ोसी देशों में हिंद महासागर क्षेत्र के 6 देशों का एक समान समुद्री सुरक्षा मंच पर साथ आना व्यापक वैश्विक संदर्भ में भी महत्त्वपूर्ण है।
- यह एक प्रमुख सुरक्षा भूमिका निभाने की भारत की इच्छा पर भी प्रकाश डालता है।
चिंताएँ:
- मालदीव के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन के नेतृत्व में माले (Male) के साथ दिल्ली के संबंध बिगड़ने से NSA स्तरीय त्रिपक्षीय बैठक की प्रगति प्रभावित हुई है।
- उपक्षेत्रीय सहयोग को द्विपक्षीय राजनीतिक संबंधों से अलग नहीं किया जा सकता है और इसलिये अलग-अलग देशों के साथ अच्छे द्विपक्षीय संबंध बनाए रखना तथा छोटे पड़ोसियों की बढ़ती आकांक्षाओं को पूरा करना महत्त्वपूर्ण होगा।
- उपक्षेत्रीय स्तर पर भारत के साथ कठिन सैन्य सहयोग करने की तुलना में अधिकांश छोटे पड़ोसी देश गैर-पारंपरिक सुरक्षा सहयोग करने में अधिक सहज हैं।
आगे की राह
- सुरक्षा सहयोग के निर्माण के लिये एक उपक्षेत्रीय दृष्टिकोण हाल के वर्षों में भारत की पड़ोस नीति में प्रमुखता प्राप्त कर रहा है। समुद्री सुरक्षा सहयोग पर NSA स्तरीय त्रिपक्षीय भारत-श्रीलंका-मालदीव वार्ता का पुनरुद्धार इस नीतिगत दृष्टिकोण को रेखांकित करता है।
- उपक्षेत्र की स्पष्ट सीमा तय करना एक चुनौती बना रहेगा क्योंकि सहयोग हमेशा निकटता कारक से नहीं बल्कि मुद्दे की प्रकृति से भी संचालित होगा। सीमा मुद्दे पर स्पष्टता उपक्षेत्रीय सुरक्षा सहयोग के उद्देश्यों को बेहतर ढंग से पूरा करने में मदद कर सकती है और सदस्यता के अतिव्यापी या गतिविधियों के दोहराव से बचा जा सकता है।
स्रोत: द हिंदू
भारतीय राजनीति
संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश (संशोधन) विधेयक, 2021
प्रिलिम्स के लिये:संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश (संशोधन) विधेयक, 2021, राज्यसभा, भारत की संचित निधि, जनगणना, 2011 मेन्स के लिये:संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश (संशोधन) विधेयक, 2021 का अनुसूचित जनजाति क्षेत्रों हेतु महत्त्व |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में राज्यसभा ने संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश (संशोधन) विधेयक, 2021 पारित किया है।
- यह विधेयक अरुणाचल प्रदेश राज्य से संबंधित संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश, 1950 की अनुसूची के भाग-XVIII को संशोधित करने का प्रावधान करता है।
प्रमुख बिंदु
विधेयक के संबंध में:
- यह अरुणाचल प्रदेश द्वारा अनुशंसित अनुसूचित जनजातियों की संवैधानिक सूची में संशोधन करना चाहता है।
- वर्तमान में अरुणाचल प्रदेश राज्य के संबंध में अनुसूचित जनजातियों की दृष्टांत सूची में 18 समुदाय हैं।
- अरुणाचल प्रदेश राज्य से संबंधित अनुसूचित जनजातियों की सूची में यह संशोधन विधेयक में प्रस्तावित समुदायों के लोगों को प्रदान किये जाने वाले लाभों हेतु भारत की संचित निधि से कोई अतिरिक्त आवर्ती व्यय नहीं करेगा।
- जनजातीय कार्य मंत्रालय अनुसूचित जनजाति की आबादी (10.45 करोड़) के कल्याण के लिये वित्तपोषण कर रहा है (जनगणना, 2011)।
- इसके अलावा अनुसूचित जनजाति के लोग केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की योजनाओं में भी अनुसूचित जनजाति घटक (STC) के तहत लाभ के पात्र हैं।
- अनुसूचित जनजाति घटक का मूल उद्देश्य अनुसूचित जनजातियों के विकास के लिये कम-से-कम उनकी जनसंख्या के अनुपात में केंद्रीय मंत्रालयों/विभागों में सामान्य क्षेत्रों से होने वाले परिव्यय और लाभों के प्रवाह को दिशा देना/निगरानी करना है।
- विधेयक अरुणाचल प्रदेश में चिह्नित अनुसूचित जनजातियों की सूची से अबोर (Abor) जनजाति को हटाता है। इसके अलावा यह कुछ अनुसूचित जनजातियों को अन्य जनजातियों के साथ प्रतिस्थापित करता है (जैसा कि नीचे दर्शाया गया है):
मूल सूची |
विधेयक के तहत प्रस्तावित परिवर्तन |
अबोर |
सूची से हटा दिया गया है। |
खाम्प्टी |
ताई खाम्प्टी |
मिश्मी, इदु और तारों |
मिश्मी-कमान (मिजू मिश्मी), इदु (मिश्मी) और तारों (दिगारू मिश्मी) |
मोम्बा |
मोनपा, मेंबा, सरतांग और सजोलंग (मिजी) |
कोई भी नागा जनजाति |
नोक्टे, तांगसा, तुत्सा और वांचो |
अरुणाचल प्रदेश में अनुसूचित जनजाति:
- 2001 की जनगणना के अनुसार, अरुणाचल प्रदेश की कुल जनसंख्या का लगभग 64.2 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति (ST) है।
- राज्य ने 1991-2001 की जनगणना में अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या में 28.1 प्रतिशत की दशकीय वृद्धि दर्ज की है।
अनुसूचित जनजाति:
- संविधान का अनुच्छेद 366 (25) अनुसूचित जनजातियों को उन समुदायों के रूप में संदर्भित करता है, जो संविधान के अनुच्छेद 342 के अनुसार निर्धारित हैं।
- अनुच्छेद 342 के अनुसार, केवल वे समुदाय जिन्हें राष्ट्रपति द्वारा प्रारंभिक सार्वजनिक अधिसूचना के माध्यम से या संसद के बाद के संशोधन अधिनियम के माध्यम से ऐसा घोषित किया गया है, उन्हें अनुसूचित जनजाति माना जाएगा।
- अनुसूचित जनजातियों की सूची राज्य/संघ राज्य क्षेत्र विशिष्ट है और एक राज्य में अनुसूचित जनजाति के रूप में घोषित समुदाय के लिये दूसरे राज्य में भी ऐसा होने की आवश्यकता नहीं है।
- किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति के रूप में निर्दिष्ट करने के मानदंड के बारे में संविधान मौन है। आदिमता, भौगोलिक अलगाव, शर्म और सामाजिक, शैक्षिक तथा आर्थिक पिछड़ापन ऐसे लक्षण हैं जो अनुसूचित जनजाति समुदायों को अन्य समुदायों से अलग करते हैं।
- कुछ अनुसूचित जनजातियाँ, जिनकी संख्या 75 है, उन्हें विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूहों (PVTG) के रूप में जाना जाता है, इनकी विशेषता है:
- प्रौद्योगिकी पूर्व कृषि स्तर
- स्थिर या घटती जनसंख्या
- अत्यंत कम साक्षरता
- अर्थव्यवस्था का निर्वाह स्तर
- सरकार की पहल: अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 (FRA), पंचायतों का प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996, लघु वनोपज अधिनियम 2005, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम और जनजातीय उप-योजना रणनीति जो कि अनुसूचित जनजातियों के सामाजिक-आर्थिक सशक्तीकरण पर केंद्रित हैं।
स्रोत: द हिंदू
भारतीय राजनीति
न्यायाधिकरणों की दयनीय स्थिति
प्रिलिम्स के लियेन्यायाधिकरण और संबंधित प्रावधान मेन्स के लियेन्यायाधिकरणों से संबंधित मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने केंद्र सरकार के खिलाफ नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए प्रश्न किया कि क्या सरकार वर्षों से लंबित रिक्तियों को न भरकर देश भर के न्यायाधिकरणों को ‘निष्क्रिय’ करने का विचार कर रही है।
प्रमुख बिंदु
न्यायाधिकरणों के विषय में
- न्यायाधिकरण या ट्रिब्यूनल एक अर्द्ध-न्यायिक संस्था है, जिसे प्रशासनिक या कर संबंधी विवादों को सुलझाने के लिये स्थापित किया जाता है।
- यह कई कार्य करता है, जिसमें विवादों का निपटान, चुनाव लड़ने वाले पक्षों के बीच अधिकारों का निर्धारण करना, प्रशासनिक निर्णय लेना, मौजूदा प्रशासनिक निर्णय की समीक्षा करना आदि शामिल हैं।
- न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) मूल संविधान का हिस्सा नहीं थे, इन्हें 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा भारतीय संविधान में शामिल किया गया था।
- अनुच्छेद 323A प्रशासनिक न्यायाधिकरणों से संबंधित है।
- अनुच्छेद 323-B अन्य मामलों के लिये न्यायाधिकरणों से संबंधित है।
- ट्रिब्यूनल की स्थापना न्यायालयों के कार्यभार को कम करने और निर्णयों में तेज़ी लाने के लिये की गई थी, जिसे ट्रिब्यूनल के अधिकार क्षेत्र में आने वाले वकीलों और विशेषज्ञों द्वारा संचालित किया जाएगा।
ट्रिब्यूनल से संबंधित मुद्दे:
- स्थायी रिक्तियाँ: सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि विभिन्न न्यायाधिकरणों में देश भर में 20 पीठासीन अधिकारियों, 110 न्यायिक सदस्यों और 111 तकनीकी सदस्यों की रिक्तियाँ लंबित थीं।
- उदाहरण के लिये राष्ट्रीय हरित अधिकरण, इनकम टैक्स अपीलीय न्यायाधिकरण, केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण में।
- इन रिक्तियों का जारी रहना उन्हें अनावश्यक बनाता है।
- सिफारिशों की अनदेखी: रिक्तियों को भरने के लिये सर्वोच्च न्यायालय के मौज़ूदा न्यायाधीशों के नेतृत्व वाली चयन समितियों द्वारा की गई नामों की सिफारिशों को सरकार ने काफी हद तक नज़रअंदाज कर दिया है।
- लोगों को न्याय प्राप्त करने के अधिकार से वंचित करना: न्यायालय ने कहा कि न्यायाधिकरण निष्क्रिय हैं तथा उच्च न्यायालयों के पास न्यायाधिकरणों द्वारा संचालित कानून के क्षेत्रों पर कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है, याचिकाकर्त्ताओं को न्याय के लिये भटकना पड़ता है।
- गैर-एकरूपता की समस्या: अधिकरणों में सेवा शर्तों, सदस्यों के कार्यकाल, विभिन्न न्यायाधिकरणों के प्रभारी नोडल मंत्रालयों के संबंध में गैर-एकरूपता की समस्या बनी हुई है।
- ये कारक अधिकरणों के प्रबंधन और प्रशासन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
हालिया विकास की पहलें:
- ट्रिब्यूनल रिफॉर्म्स (रेशनलाइज़ेशन एंड कंडीशंस ऑफ सर्विस) बिल, 2021 लोकसभा में पेश किया गया है।
- यह बिल कुछ मौजूदा अपीलीय निकायों को भंग करता है और उनके कार्यों को अन्य मौजूदा न्यायिक निकायों को स्थानांतरित करता है।
- एक ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष और सदस्यों की पदावधि चार वर्ष होगी, जो अध्यक्ष के लिये सत्तर वर्ष और अन्य सदस्यों के लिये 70 वर्ष की ऊपरी आयु सीमा के अधीन होगी।
- यह विधेयक निर्दिष्ट करता है कि अध्यक्ष या सदस्य के रूप में नियुक्ति के लिये पात्र व्यक्ति की आयु कम-से-कम 50 वर्ष होनी चाहिये।
आगे की राह:
- भारत में न्यायाधिकरण प्रणाली में सुधार किया जाना सदियों पुरानी समस्या का समाधान करने की कुंजी हो सकती है जो अभी भी भारतीय न्यायिक प्रणाली को अपंग बनाती है - न्यायिक देरी और बैकलॉग की समस्या।
- अधिकरणों की स्वतंत्रता से समझौता किये बिना उनके मामलों को विनियमित करने हेतु राष्ट्रीय न्यायाधिकरण आयोग (NTC) की स्थापना की गई है।
स्रोत-द हिंदू
भारतीय राजनीति
फ्यूचर रिटेल बनाम अमेज़न पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय
प्रिलिम्स के लिये:सिंगापुर इंटरनेशनल आर्बिट्रेशन सेंटर, ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस इंडेक्स मेन्स के लिये:मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) अधिनियम, 2021 |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने सिंगापुर इंटरनेशनल आर्बिट्रेशन सेंटर (SIAC) की आपातकालीन मध्यस्थता को लागू करने के एक आदेश को बरकरार रखा, जो रिलायंस इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड के साथ फ्यूचर ग्रुप के सौदे को समाप्त करता है।
सिंगापुर अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र
- यह सिंगापुर में स्थित एक गैर-लाभकारी अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता संगठन है, जो मध्यस्थता के अपने नियमों और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार कानून पर संयुक्त राष्ट्र आयोग (UNCITRAL) के मध्यस्थता नियमों के तहत मध्यस्थता का प्रबंधन करता है।
प्रमुख बिंदु:
पृष्ठभूमि:
- अगस्त 2020 में फ्यूचर रिटेल लिमिटेड (FRL) ने घोषणा की थी कि वह अपने खुदरा और थोक कारोबार को रिलायंस रिटेल को बेचेगी।
- सौदा निष्पादित होने से पहले ही अमेज़न ने इसका विरोध करते हुए आरोप लगाया कि इसने फ्यूचर कूपन (फ्यूचर रिटेल की प्रमोटर फर्म) के साथ अनुबंध का उल्लंघन किया है।
- अमेज़न ने कहा कि फ्यूचर कूपन के साथ उसके समझौते ने उसे एक "कॉल" विकल्प दिया था, जिसने समझौते के तीन से 10 वर्षों के भीतर उसे कंपनी में फ्यूचर रिटेल की पूरी हिस्सेदारी या उसके हिस्से का अधिग्रहण करने के विकल्प का प्रयोग करने में सक्षम बनाया।
- इसके उपरांत अमेज़न ने फ्यूचर रिटेल को SIAC के समक्ष आपातकालीन मध्यस्थता के आधार पर अपना लिया, जहाँ इस ‘आपातकालीन मध्यस्थ’ ने बाद वाले सौदे के साथ उसे आगे बढ़ने से रोक दिया।
- आपातकालीन मध्यस्थता एक ऐसा तंत्र है जो "औपचारिक रूप से मध्यस्थता न्यायाधिकरण के गठन से पहले एक विवादित पक्ष को तत्काल अंतरिम राहत के लिये आवेदन करने की अनुमति देता है"।
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का महत्त्व:
- ‘फ्यूचर रिटेल लिमिटेड’ के तर्क को खारिज कर दिया गया कि मध्यस्थता और सुलह अधिनियम 1996 के तहत ‘आपातकालीन मध्यस्थ’ एक मध्यस्थ न्यायाधिकरण नहीं है।
- इसने ‘आपातकालीन मध्यस्थ’ के निर्णय की वैधता को बरकरार रखा है। सर्वोच्च न्यायालय के मुताबिक, यह पुरस्कार ‘एक मध्यस्थ न्यायाधिकरण के आदेश की तरह’ ही है, जिस पर वर्ष 1996 के अधिनियम की धारा 17 लागू होती है। इसलिये ‘आपातकालीन मध्यस्थ’ द्वारा दिया गया निर्णय अधिनियम की धारा 17(1) (एक मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा आदेशित अंतरिम उपाय) के तहत एक आदेश की तरह ही है।
- अधिनियम की धारा 17 में मध्यस्थता कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान मध्यस्थ न्यायाधिकरण से अंतरिम राहत प्राप्त करने हेतु मध्यस्थता के पक्षकारों के लिये एक विशिष्ट तंत्र निर्धारित करना है।
- ‘आपातकालीन मध्यस्थ’ के आदेश ‘दीवानी अदालतों के बोझ को कम करने और पक्षों को शीघ्र अंतरिम राहत प्रदान करने में सहायता के लिये एक महत्त्वपूर्ण कदम है।’
- न्यायालय ने भारत में मध्यस्थता तंत्र के संस्थागतकरण की समीक्षा करने और वर्ष 2015 के बाद मध्यस्थता अधिनियम के प्रावधानों को देखने के लिये न्यायमूर्ति बी.एन. श्रीकृष्ण (सेवानिवृत्त) की अध्यक्षता में भारत सरकार द्वारा गठित एक उच्च स्तरीय समिति की सिफारिशों को रेखांकित किया।
- इसने कहा, ‘यह देखते हुए कि अंतर्राष्ट्रीय अभ्यास आपातकालीन निर्णयों को लागू करने के पक्ष में है (सिंगापुर, हॉन्गकॉन्ग और यूनाइटेड किंगडम सभी आपातकालीन पुरस्कारों को लागू करने की अनुमति देते हैं), यह उचित समय है कि भारत सभी मध्यस्थ कार्यवाहियों में आपातकालीन पुरस्कारों को लागू करने की अनुमति दे।’
- यह निर्णय पार्टियों को मध्यस्थता के नियमों और शर्तों से सावधानीपूर्वक सहमत होने के लिये एक अनुस्मारक के रूप में कार्य करेगा।
- अधिनियम की धारा 17(2) के तहत किये गए आपातकालीन मध्यस्थ के आदेश को लागू करने के खिलाफ मध्यस्थता अधिनियम की धारा 37 के तहत कोई अपील नहीं होगी।
- मध्यस्थता अधिनियम की धारा 37 अदालत और/या मध्यस्थ न्यायाधिकरण (जैसा भी मामला हो) के कुछ निश्चित आदेशों के खिलाफ अपील का निर्धारण करती है।
- हालाँकि अधिनियम की धारा 37 (धारा 34 के विपरीत) अपील दायर करने की सीमा अवधि को लेकर मौन है।
मध्यस्थता
परिचय:
- यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें विवाद को एक स्वतंत्र तीसरे पक्ष को नियुक्त कर सुलझाया जाता है जिसे मध्यस्थ (Arbitrator) कहा जाता है। मध्यस्थ समाधान पर पहुँचने से पहले दोनों पक्षों की बात सुनता है।
मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) अधिनियम, 2021:
- यह मध्यस्थता और सुलह अधिनियम (A&C अधिनियम 1996) में संशोधन करता है ताकि:
(i) कुछ मामलों में पुरस्कारों पर स्वत: रोक लग सके।
(ii) विनियमों द्वारा मध्यस्थों की मान्यता के लिये योग्यता, अनुभव और मानदंडों को निर्दिष्ट किया जा सके।- मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 घरेलू मध्यस्थता, अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता एवं विदेशी मध्यस्थ पुरस्कारों के प्रवर्तन से संबंधित कानून को संशोधित तथा समेकित करने के साथ-साथ सुलह से संबंधित कानून को परिभाषित करने या उसके साथ जुड़े मामलों के लिये एक अधिनियम है।
अधिनियम की विशेषताएँ:
- मध्यस्थों की योग्यता:
- यह मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की 8वीं अनुसूची के तहत मध्यस्थों की योग्यता को समाप्त करता है, जिसमें निर्दिष्ट किया गया था कि मध्यस्थ की योग्यता निम्न होनी चाहिये:
- अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के तहत 10 वर्षों के अनुभव के साथ एक वकील, या
- भारतीय विधि सेवा का एक अधिकारी।
- यह मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की 8वीं अनुसूची के तहत मध्यस्थों की योग्यता को समाप्त करता है, जिसमें निर्दिष्ट किया गया था कि मध्यस्थ की योग्यता निम्न होनी चाहिये:
- बिना शर्त पुरस्कार प्राप्त करना:
- यदि पुरस्कार एक कपटपूर्ण समझौते या भ्रष्टाचार के आधार पर दिया जा रहा है, तो अदालत उस पर बिना शर्त रोक लगा सकती है, जब तक कि मध्यस्थता कानून की धारा 34 के तहत अपील लंबित है।
लाभ:
- यह अधिनियम मध्यस्थता प्रक्रिया में सभी हितधारकों के बीच समानता लाएगा।
- मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 के प्रावधानों के दुरुपयोग को रोकने से करदाताओं के पैसे की बचत होगी और उन लोगों को जवाबदेह ठहराया जा सकता है जिन्होंने इसे गैरकानूनी तरीके से वसूल लिया है।
कमियाँ:
- जब अंतर्राष्ट्रीय अनुबंधों और समझौतों को लागू करने की बात आती है तो इसमें भारत पहले से ही पीछे है। यह अधिनियम ‘मेक इन इंडिया अभियान’ की भावना को और बाधित कर सकता है तथा ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस इंडेक्स में रैंकिंग को खराब कर सकता है।
- भारत का लक्ष्य घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता का केंद्र बनना है। इन विधायी परिवर्तनों के कार्यान्वयन के माध्यम से वाणिज्यिक विवादों के समाधान में अब अधिक समय लग सकता है।