भारतीय अर्थव्यवस्था
‘मेक इन इंडिया’: सफल या असफल
- 21 Jan 2020
- 12 min read
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में ‘मेक इन इंडिया’ पहल का मूल्यांकन करते हुए उसकी विफलता के विभिन्न कारणों पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ
वर्ष 2014 में केंद्र सरकार ने देश में विनिर्माण को प्रोत्साहित करने और विनिर्माण में निवेश के माध्यम से अर्थव्यवस्था को मज़बूत बनाने के उद्देश्य से ‘मेक इन इंडिया’ पहल की शुरुआत की थी। इसकी शुरुआत हुए आज पाँच वर्ष से भी अधिक समय बीत चुका है और इस दौरान देश का विनिर्माण क्षेत्र एवं अर्थव्यवस्था दोनों काफी परिवर्तित हुए हैं। ये परिवर्तन ‘मेक इन इंडिया’ पहल की सफलता और असफलता की कहानी बयाँ करते हैं। ऐसे में यह आवश्यक है कि इन परिवर्तनों का अध्ययन कर इस पहल में निहित कमियों को पहचाना जाए और उन्हें सुधरने का प्रयास किया जाए।
‘मेक इन इंडिया’ पहल
- ‘मेक इन इंडिया’ पहल की शुरुआत 25 सितंबर, 2014 को देशव्यापी स्तर पर विनिर्माण क्षेत्र के विकास के उद्देश्य से की गई थी।
- दरअसल औद्योगिक क्रांति ने इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की और संपूर्ण विश्व को यह दिखाया कि यदि किसी देश का विनिर्माण क्षेत्र मज़बूत हो तो वह किस प्रकार उच्च आय वाला देश बन सकता है। विदित हो कि चीन इस तथ्य का ज्वलंत उदाहरण है।
- इस पहल के माध्यम से भारत को एक वैश्विक विनिर्माण केंद्र के रूप में स्थापित करने का महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया गया था।
- इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये सरकार ने मुख्यतः 3 उद्देश्य निर्धारित किये थे:
- अर्थव्यवस्था में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिये इसकी विकास दर को 12-14 प्रतिशत प्रतिवर्ष तक बढ़ाना।
- वर्ष 2022 तक अर्थव्यवस्था में विनिर्माण क्षेत्र से संबंधित 100 मिलियन रोज़गारों का सृजन करना।
- यह सुनिश्चित करना कि सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में विनिर्माण क्षेत्र का योगदान वर्ष 2025 (जो कि संशोधन से पूर्व वर्ष 2022 था) तक बढ़कर 25 प्रतिशत हो जाए।
- ‘मेक इन इंडिया’ पहल में अर्थव्यवस्था के 25 प्रमुख क्षेत्रों जैसे- ऑटोमोबाइल, खनन, इलेक्ट्रॉनिक्स आदि पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
- ज्ञात हो कि इस पहल के तहत केंद्र और राज्य सरकारें भारत के विनिर्माण क्षेत्र को मज़बूत करने के लिये दुनिया भर से निवेश आकर्षित करने का प्रयास कर रही हैं।
- निवेशकों पर पड़ने वाले बोझ को कम करने के लिये सरकार काफी प्रयास कर रही है। इन्हीं प्रयासों के तहत व्यावसायिक संस्थाओं के सभी समस्याओं को हल करने के लिये एक समर्पित वेब पोर्टल की व्यवस्था भी की गई है।
‘मेक इन इंडिया’ का सकारत्मक पक्ष
- ‘मेक इन इंडिया’ पहल का एक मुख्य उद्देश्य भारत में रोज़गार के अवसरों को बढ़ाना है। इसके तहत देश के युवाओं पर ध्यान केंद्रित किया गया है। लक्षित क्षेत्रों, अर्थात् दूरसंचार, फार्मास्यूटिकल्स, पर्यटन आदि में निवेश, युवा उद्यमियों को अनिश्चितताओं की चिंता किये बिना अपने अभिनव विचारों के साथ आगे आने के लिये प्रोत्साहित करेगा।
- ‘मेक इन इंडिया’ पहल में विनिर्माण क्षेत्र के विकास पर काफी ध्यान दिया जा रहा है, जो न केवल व्यापार क्षेत्र को बढ़ावा देगा, बल्कि नए उद्योगों की स्थापना के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर को भी बढ़ाएगा।
- विदित हो कि योजना की शुरुआत के कुछ समय बाद ही वर्ष 2015 में भारत ने अमेरिका और चीन को पीछे छोड़ते हुए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) में शीर्ष स्थान प्राप्त कर लिया था।
‘मेक इन इंडिया’ का नकारात्मक पक्ष
- भारत एक कृषि प्रधान देश है और भारत की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित अर्थव्यवस्था है। विश्लेषकों का मानना है कि इस पहल का सबसे नकारात्मक प्रभाव भारत के कृषि क्षेत्र पर पड़ा है। इस पहल में भारत के कृषि क्षेत्र को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दिया गया है।
- चूँकि ‘मेक इन इंडिया’ मुख्य रूप से विनिर्माण उद्योगों पर आधारित है, इसलिये यह विभिन्न कारखानों की स्थापना की मांग करता है। आमतौर पर इस तरह की परियोजनाएँ बड़े पैमाने पर प्राकृतिक संसाधनों जैसे पानी, भूमि आदि का उपभोग करती हैं।
- इस पहल के तहत विदेशी कंपनियों को भारत में उत्पादन करने के लिये प्रेरित किया गया है, जिसके कारण भारत के छोटे उद्यमियों पर असर देखने को मिला है।
‘मेक इन इंडिया’ का मूल्यांकन
चूँकि इस पहल का उद्देश्य विनिर्माण क्षेत्र के तीन प्रमुख कारकों- निवेश, उत्पादन और रोज़गार में वृद्धि करना था। अतः इसका मूल्यांकन भी इन्हीं तीनों के आधार पर किया जा सकता है।
- निवेश
पिछले पाँच वर्षों में अर्थव्यवस्था में निवेश की वृद्धि दर काफी धीमी रही है। यह स्थिति तब और खराब हो जाती है जब हम विनिर्माण क्षेत्र में पूंजी निवेश पर विचार करते हैं। आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 के अनुसार, अर्थव्यवस्था में कुल निवेश को प्रदर्शित करने वाला सकल स्थायी पूंजी निर्माण (GFCF) जो कि वर्ष 2013-14 में GDP का 31.3 प्रतिशत था, वर्ष 2017-18 में घटकर 28.6 प्रतिशत हो गया। महत्त्वपूर्ण यह है कि इस अवधि के दौरान कुल निवेश में सार्वजनिक क्षेत्र की हिस्सेदारी कमोबेश समान ही रही, जबकि निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी 24.2 प्रतिशत से घटकर 21.5 प्रतिशत हो गई। दूसरी ओर इस अवधि में बचत संबंधी आँकड़ों से ज्ञात होता है कि घरेलू बचत दर में गिरावट आई है, जबकि निजी कॉर्पोरेट क्षेत्र की बचत दर में बढ़ोतरी हुई है। इस प्रकार हम एक ऐसी स्थित में हैं, जहाँ निजी क्षेत्र की बचत बढ़ रही है, किंतु निवेश में कमी आ रही है। - उत्पादन
औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (IIP) विनिर्माण क्षेत्र के उत्पादन में होने वाले परिवर्तन का सबसे बड़ा सूचक है। यदि अप्रैल 2012 से नवंबर 2019 के मध्य औद्योगिक उत्पादन सूचकांक के आँकड़ों पर गौर करें तो ज्ञात होता है कि इस दौरान मात्र 2 ही बार डबल डिजिट ग्रोथ दर्ज की गई, जबकि अधिकांश महीनों में यह या तो 3 प्रतिशत से कम थी या नकारात्मक थी। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि विनिर्माण क्षेत्र में अभी भी उत्पादन वृद्धि नहीं हो पाई है। - रोज़गार
हाल ही में सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) ने बेरोज़गारी दर के संबंध में आँकड़े जारी किये हैं, जिसके मुताबिक सितंबर-दिसंबर 2019 के दौरान भारत की बेरोज़गारी दर बढ़कर 7.5 प्रतिशत हो गई थी। शिक्षित युवाओं के मामले में बेरोज़गारी की दर और भी खराब थी, जो यह दर्शाता है कि वर्ष 2019 युवा स्नातकों के लिये सबसे खराब वर्ष था। ज्ञात हो कि मई-अगस्त 2017 में यह दर 3.8 प्रतिशत थी।
उक्त तीनों कारकों के आधार पर ‘मेक इन इंडिया’ पहल का मूल्यांकन करने पर ज्ञात होता है कि यह पहल इच्छा के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाई है।
कारण
- विश्लेषकों के अनुसार, इस पहल के संतोषजनक प्रदर्शन न कर पाने का मुख्य कारण यह था कि यह विदेशी निवेश पर काफी अधिक निर्भर थी, इसके परिणामस्वरूप एक अंतर्निहित अनिश्चितता पैदा हुई क्योंकि भारत में उत्पादन की योजना किसी और देश में मांग और पूर्ति के आधार पर निर्धारित की जा रही थी।
- भारत की अधिकांश योजनाएँ अकुशल कार्यान्वयन की समस्या का सामना कर रही हैं और ‘मेक इन इंडिया’ पहल की स्थिति में भी यह एक बड़े कारक के रूप में सामने आया है।
- एक अन्य कारण यह भी है कि इस पहल के तहत विनिर्माण क्षेत्र के लिये काफी महत्त्वाकांक्षी विकास दर निर्धारित की गई थी। विश्लेषकों का मानना है कि 12-14 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर औद्योगिक क्षेत्र की क्षमता से बाहर है। ऐतिहासिक रूप से भारत के विनिर्माण क्षेत्र ने कभी भी इतनी विकास दर प्राप्त नहीं की है।
- वैश्विक अर्थव्यवस्था की अनिश्चितताओं और लगातार बढ़ते व्यापार संरक्षणवाद का इस पहल पर प्रतिकूल प्रभाव देखने को मिला है।
आगे की राह
- ‘ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस इंडेक्स’ में भारत की रैंकिंग में काफी सुधार आया है, किंतु इसके बावजूद देश में निवेश नहीं बढ़ रहा है। यह स्पष्ट दर्शाता है कि भारत को विनिर्माण गतिविधियों को बढ़ाने के लिये नीतियों की विंडो ड्रेसिंग (Window Dressing) से कुछ अधिक की ज़रूरत है।
- विशेषज्ञों के अनुसार, सरकार को यह समझना चाहिये कि संसद में मात्र कुछ बिल पारित करने और निवेशकों की बैठक आयोजित करने से औद्योगीकरण को शुरू नहीं किया जा सकता है।
- भारत सरकार को उद्योगों विशेष रूप से विनिर्माण उद्योगों के विकास के लिये अनुकूल वातावरण बनाने हेतु और अधिक प्रयास करने होंगे।
प्रश्न: ‘मेक इन इंडिया’ पहल के उद्देश्यों का उल्लेख करते हुए इसका मूल्यांकन कीजिये।