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डेली न्यूज़

  • 03 Oct, 2020
  • 49 min read
सामाजिक न्याय

निर्णय प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी

प्रिलिम्स के लिये

ज़ीका और इबोला वायरस

मेन्स के लिये

अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर निर्णय प्रक्रिया में महिलाओ की भागीदारी, महत्त्व और चुनौतियाँ

चर्चा में क्यों?

एक अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, सार्वजानिक पटल पर उपलब्ध आँकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि दुनिया भर के विभिन्न देशों में कोरोना वायरस (COVID-19) महामारी के प्रबंधन से संबंधित महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने वाले प्रमुख सलाहकार निकायों में से 85% निकायों में अधिकांशतः पुरुष ही शामिल हैं।

प्रमुख बिंदु 

  • इस अध्ययन के दौरान 87 देशों के 115 निर्णय लेने और प्रमुख सलाहकार निकायों के विश्लेषण में पाया गया कि 85% से अधिक निकायों में अधिकांशतः या पूर्णतः पुरुषों का वर्चस्व है, वहीं 11% सलाहकार निकायों में महिलाओं की प्रमुख भूमिका है, जबकि केवल 3.5% निकाय ही ऐसे हैं जहाँ लैंगिक समानता देखने को मिली है।
  • अध्ययन के अनुसार, अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य निकायों में भी महिला प्रतिनिधित्त्व की स्थिति कुछ ख़ास नहीं है, उदाहरण के लिये विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization-WHO) की आपातकालीन समिति की पहली, दूसरी और तीसरी बैठक में सदस्यों की संख्या में महिला प्रतिनिधित्त्व क्रमशः 23.8%, 23.8% और 37.5% ही था।

gender-parity

निर्णय प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी

आवश्यकता

  • महामारी से संबंधित महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने वाले निकायों में महिलाओं की कम भागीदारी से महामारी के दौरान महिलाओं के लिये प्रासंगिक मुद्दों को संबोधित नहीं किया जा पाता है, ऐसे में महिलाओं को इस प्रक्रिया में शामिल करने से उनके लिये प्रासंगिक मुद्दों को सही ढंग से संबोधित किया जा सकेगा।
  • कई जानकार मान रहे हैं कि महिलाओं पर कोरोना वायरस महामारी का दीर्घकालीन सामाजिक-आर्थिक प्रभाव देखने को मिलेगा, ऐसे में यदि इन मुद्दों को अभी संबोधित नहीं किया गया तो भविष्य में घातक परिणाम हो सकते हैं।
    • पिछली कई महामारियों जैसे ज़ीका और इबोला आदि का महिलाओं पर काफी प्रतिकूल प्रभाव देखने को मिला है, प्रायः महामारी के पश्चात् मातृत्त्व मृत्यु और असुरक्षित गर्भपात की दर में बढ़ोतरी देखने को मिलती है।

महत्त्व

  • अध्ययन में कहा गया है कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में अधिक-से-अधिक महिलाओं को शामिल करने से हमें कोरोना वायरस (COVID-19) महामारी से संबंधित इस मुकाबले में एक नवीन दृष्टिकोण मिलेगा और महामारी की निगरानी तथा इसका जोखिम प्रबंधन अधिक प्रभावपूर्ण होगा।
  • कई अन्य अध्ययनों में भी सामने आया है कि उन देशों ने महामारी के प्रबंधन के प्रति बेहतर कार्य किया है, जिनका नेतृत्त्व किसी महिला द्वारा किया जा रहा है, साथ ही इन देशों में कोरोना वायरस के कारण होने वाली मौतों की संख्या भी कम है। 

भागीदारी में कमी के कारण

  • महिलाओं और लैंगिक अल्पसंख्यकों को महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल न करने के मुख्य कारणों में लैंगिक पूर्वाग्रह, भेदभाव और कार्यस्थल संस्कृति आदि अन्य कारक शामिल है।
    • यद्यपि वैश्विक स्वास्थ्य कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी तकरीबन 70% हैं, किंतु वैश्विक स्वास्थ्य क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने वाली भूमिका में केवल 25% महिलाएँ हैं।
  • इस प्रकार महिलाओं को निर्णयन की प्रक्रिया में शामिल न करके एक विशिष्ट दृष्टिकोण को दरकिनार किया जाता है, जिससे हमारा दायरा काफी सीमित हो जाता है और इस सीमित दायरे में समय के साथ आने वाली नवीन चुनौतियों का सामना करना काफी मुश्किल होता है।

आगे की राह

  • लिंग आधारित कोटा सार्वजनिक क्षेत्र में असमानताओं को समाप्त करने और लैंगिक समानता के माध्यम से प्रभावी निर्णय लेने की क्षमता बढ़ाने का एक महत्त्वपूर्ण साधन हो सकता है। 
  • यद्यपि महिलाओं के प्रतिनिधित्त्व में बढ़ोतरी करना लैंगिक असमानता को दूर करने की दिशा में एक अनिवार्य कदम हो सकता है, किंतु इसे एकमात्र कदम के रूप में नहीं देखा जा सकता है। 
  • नेतृत्त्व में महिलाओं की भागीदारी को सुनिश्चित करने से यह ज़रूरी नहीं है कि महिलाओं के साथ होने वाले लैंगिक पूर्वाग्रह में भी कमी आएगी।
  • जानकार मानते हैं कि महिलाओं के प्रति इस दृष्टिकोण को समाप्त करने के लिये औपचारिक माध्यमों जैसे- रोज़गार संबंधी कानून में बदलाव और सकारात्मक भेदभाव की नीति आदि के साथ-साथ उन अनौपचारिक माध्यमों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है, जो महिलाओं की भागीदारी को प्रभावित करते हैं, उदाहरण के लिये कार्य स्थल पर महिला विशिष्ट प्रतिबंधों को समाप्त करना।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


सामाजिक न्याय

भारतीय कानून और महिला सशक्तीकरण

प्रिलिम्स के लिये 

महिला सशक्तीकरण से संबंधित भारतीय कानून और योजनाएँ 

मेन्स के लिये:

महिला सशक्तीकरण से संबंधित मुद्दे और सरकार के प्रयास 

चर्चा में क्यों?

केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने लिंग समानता में भारत की उपलब्धियों को उजागर करने के लिये बीजिंग घोषणा (Beijing Declaration) और प्लेटफार्म फॉर एक्शन (Platform for Action) की 25वीं वर्षगांँठ पर संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित किया।

प्रमुख बिंदु:

  • यह उच्च-स्तरीय बैठक बीजिंग घोषणा के कार्यान्वयन के लिये राजनीतिक इच्छाशक्ति और नेतृत्व का प्रदर्शन करने हेतु सदस्य राष्ट्रों के लिये एक अवसर है। बीजिंग घोषणा लिंग समानता के सिद्धांतों पर 15 सितंबर, 1995 को अपनाया गया एक संकल्प है।

भारत के प्रयास:

चुनौतियाँ:

  • जाति और धार्मिक विभाजन।
  • घरेलू हिंसा जैसे मुद्दे अभी भी गंभीरता से भारतीय समाज में विद्यमान हैं। 
  • जन धन खाते महिलाओं को सीमित आर्थिक स्थिरता प्रदान कर पा रहे हैं।
  • शिक्षा और गुणवत्ता पाठ्यक्रम में महिलाओं की सीमित भागीदारी विशेष रूप से उच्च शिक्षा नामांकन दर में महिलाओं की स्थिति। 
  • ज़मीनी स्तर पर महिलाओं को परामर्श, चिकित्सा, कानूनी, आश्रय और अन्य सेवाओं तक पहुँच की असमर्थता।
  • महिलाएँ आधी आबादी हैं, लेकिन महिलाओं की ज़रूरतों और सुरक्षा को दी गई प्राथमिकता की कमी को महिला और बाल विकास मंत्रालय के बजट से देखा जा सकता है, जहाँ महिलाओं की सेवाओं और सशक्तीकरण तथा अपराधों की रोकथाम के लिये आवंटित वित्त बजट का मात्र 4% हिस्सा रहा है। 

आगे की राह: 

  • समाज को विभाजित करने वाले इन प्रतिगामी विचारों को सामाजिक जागरूकता के माध्यम से रोकना चाहिये।
  • वैश्विक एजेंडा के लिये अनुकूल माहौल बनाने और परिवर्तनकारी बदलाव सुनिश्चित करने की आवश्यकता है।

बीजिंग घोषणा

  • वर्ष 1995 में चीन की राजधानी बीजिंग में संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्त्वावधान में चतुर्थ विश्व महिला सम्मेलन आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा महिला अधिकारों पर बीजिंग घोषणा पत्र को भी अपनाया गया था।
    • प्रथम संयुक्त राष्ट्र विश्व महिला सम्मेलन (मैक्सिको), 1975
    • द्वितीय संयुक्त राष्ट्र विश्व महिला सम्मेलन (कोपेनहेगन), 1980
    • तृतीय संयुक्त राष्ट्र विश्व महिला सम्मेलन (नैरोबी), 1985
  • मैक्सिको सम्मेलन में सौ से अधिक देशों के प्रतिनिधियों ने पुरुषों एवं महिलाओं में व्याप्त विषमताओं को मिटाने की दिशा में चल रहे सरकारी प्रयासों के मार्गदर्शन के लिये एक विश्व कार्ययोजना का निर्धारण किया था।
  • बीजिंग सम्मलेन में प्लेटफॉर्म फॉर एक्शन (Platform for Action–PFA) को अपनाया गया था।
    • यह महिलाओं के प्रति सभी प्रकार के भेदभावों को समाप्त करने हेतु अभिसमय (Convention on the Elimination of All Forms of Discrimination Against Women–CEDAW) और संयुक्त राष्ट्र महासभा तथा आर्थिक एवं सामाजिक विकास संगठन (ECOSCO) द्वारा अपनाए गए प्रासंगिक प्रस्तावों को अनुमोदित करता है।

स्रोत: द हिंदू


भारतीय राजनीति

सज़ा निलंबन की शक्ति और सुधारवादी सिद्धांत

प्रिलिम्स के लिये

आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) और भारतीय संविधान की विशिष्ट धाराएँ

मेन्स के लिये

सज़ा का सुधारवादी सिद्धांत और इसका महत्त्व

चर्चा में क्यों?
सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने अपने एक हालिया निर्णय में कहा है कि जेल की सज़ा की अवधि अथवा अपराध की गंभीरता जेल से समय पूर्व रिहाई की याचिका को खारिज करने का एकमात्र आधार नहीं हो सकती है।

प्रमुख बिंदु

  • जस्टिस एन.वी. रमण की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि रिहाई के बाद पुनः अपराध करने की आशंका का अनुमान ‘जेल की अवधि के दौरान उस व्यक्ति के आचरण और उसके अतीत के आधार पर लगाया जाना चाहिये, न कि केवल उस व्यक्ति की उम्र और पीड़ितों तथा गवाहों की आशंका के आधार पर।’

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय

  • सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने कहा कि प्रत्येक समाज को शांतिपूर्ण और भयमुक्त जीवन जीने का अधिकार प्राप्त है, किंतु भारतीय न्याय प्रणाली में सुधारवादी सिद्धांत भी इस अधिकार जितना ही महत्त्वपूर्ण है।
  • न्यायालय के अनुसार, हमें सुधारवादी न्याय में केवल सार्वजनिक सद्भाव पर ध्यान केंद्रित नहीं करना चाहिये, बल्कि भाईचारे और आपसी स्वीकार्यता को भी बढ़ावा देना चाहिये।
    • इस संबंध में पहली बार अपराध करने वाले अपराधियों को विशेष रूप से सुधरने का दूसरा अवसर दिया जाना चाहिये।

पृष्ठभूमि 

  • सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय उत्तर प्रदेश के दो कैदियों के संबंध में आया है, जिन पर फिरौती की रकम के लिये एक असफल अपहरण का आरोप लगाया था।
  • दोनों कैदियों ने जेल में तकरीबन 16 वर्ष बिता लिये हैं और उन्होंने अपनी समय पूर्व रिहाई के संबंध में याचिका दायर की थी, किंतु अपराध की प्रकृति, अपराधियों की आयु, गवाहों की आशंका और समाज पर प्रत्यक्ष प्रभाव के चलते उनकी याचिका को रद्द कर दिया गया था।
  • इसके बाद उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की और अब न्यायालय ने दोनों कैदियों की समय पूर्व रिहाई का आदेश दे दिया है।

संबंधित कानून

  • आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC)
    • आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 432(1) राज्य सरकारों को किसी भी दोषी की सज़ा को पूर्णतः अथवा आंशिक रूप से निलंबित करने की शक्ति प्रदान करती है।
    • आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 432(2) के मुताबिक, यदि राज्य सरकार के पास किसी दोषी की सज़ा को निलंबित करने का कोई आवेदन आता है तो संबंधित राज्य सरकार इस मामले पर उस पीठासीन न्यायाधीश की राय ले सकती है जिसने दोषी को सज़ा सुनाई थी।
    • CrPC की धारा 433 राज्य सरकारों को न्यायालय द्वारा दी गई सज़ा को परिवर्तित करने की शक्ति प्रदान करती है, जबकि धारा 433A इस शक्ति के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाती है।
    • CrPC की धारा 433A के अनुसार, यदि किसी दोषी को उम्रकैद की सज़ा हुई है तो उसे कारावास से तब तक रिहा नहीं किया जा सकता है, जब तक कि वह कम-से-कम 14 वर्ष की सज़ा पूरी न कर ले।
  • भारतीय संविधान 
    • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 72 में राष्ट्रपति को अधिकार दिया गया है कि वह किसी अपराध के लिये दोषी करार दिये गए व्यक्ति को क्षमादान देने अर्थात् दंडादेश का निलंबन, प्राणदंड स्थगन, राहत और माफी प्रदान कर सकता है।
    • ध्यातव्य है कि राष्ट्रपति उन सभी मामलों में अपनी इस शक्ति का प्रयोग कर सकता है, जहाँ सज़ा कोर्ट मार्शल द्वारा सुनाई गई हो, जहाँ किसी ऐसे कानून का उल्लंघन किया गया हो जो कि संघ की कार्यकारी शक्तियों के अधीन हो और जहाँ किसी अपराध के लिये मृत्यु दंड दिया गया हो।
    • वहीं भारतीय संविधान का अनुच्छेद 161 राज्य के राज्यपाल को क्षमादान करने और कुछ विशिष्ट मामलों में सज़ा को निलंबित करने, कम करने अथवा परिवर्तित करने की शक्ति प्रदान करता है।
    • किसी भी राज्य के राज्यपाल को ऐसे सभी मामलों में क्षमादान, सज़ा को निलंबित करने, कम करने और परिवर्तित करने की शक्ति प्राप्त है, जहाँ किसी ऐसे कानून का उल्लंघन किया गया हो जो कि राज्य की कार्यकारी शक्तियों के अधीन हो।

राज्य सज़ा समीक्षा बोर्ड

  • वर्ष 1999 से पूर्व देश के सभी राज्य सज़ा निलंबित करने की अपनी शक्ति का प्रयोग भिन्न-भिन्न तरीकों से करते थे, जिसके कारण प्रायः जटिलताएँ उत्पन्न होती थीं।
  • इस मामले पर संज्ञान लेते हुए वर्ष 1999 मैं राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने एक समिति का गठन किया और इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि समय-पूर्व रिहाई अथवा सज़ा के निलंबन से संबंधित मामलों पर विचार करने के लिये सभी राज्यों में राज्य सज़ा समीक्षा बोर्डों के गठन की सिफारिश की।
  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने नवंबर 1999 मैं सभी राज्यों के सज़ा समीक्षा बोर्डों में एकरूपता सुनिश्चित करने के लिये कुछ व्यापक दिशा-निर्देश जारी किये।

सज़ा का सुधारवादी सिद्धांत

  • सज़ा का सुधारवादी सिद्धांत मानता है कि किसी भी दोषी को सज़ा देने का उद्देश्य उस व्यक्ति में सुधार लाना होना चाहिये, न कि सज़ा के माध्यम से एक उदाहरण प्रस्तुत करना।
  • इस प्रकार के सिद्धांत की वकालत करने वाले लोग मानते हैं कि अपराधी ने किसी विशिष्ट परिस्थिति में अपराध किया होगा और यह परिस्थिति पुनः उत्पन्न नहीं होगी, इसलिये उसे कारावास अवधि के दौरान सुधारने का प्रयास किया जाना चाहिये। 
  • इस प्रकार अपराधियों को दी जानी वाली सज़ा का उद्देश्य अपराधी में नैतिक सुधार लाना होना चाहिये। साथ ही अपराधी को कारावास की अवधि के दौरान किसी विशिष्ट कौशल में प्रशिक्षित किया जाना चाहिये, ताकि वह जेल से बाहर आने के बाद एक नया जीवन शुरू कर सके।

सुधारवादी सिद्धांत का महत्त्व

  • सुधारवादी सिद्धांत का प्रमुख ज़ोर कारावास अवधि के दौरान कैदियों के पुनर्वास पर होता है ताकि वे कानून का पालन कर अच्छे नागरिक बन सकें।
  • यह सिद्धांत कारावास के दौरान कैदियों के साथ मानवीय व्यवहार करने और मानवीय गरिमा बनाए रखने पर अधिक ध्यान केंद्रित करता है।
  • इस सिद्धांत की वकालत करने वालों का दावा है कि अपराधियों के साथ सहानुभूतिपूर्ण और विनम्र व्यवहार किये जाने से उनके व्यक्तित्त्व में एक क्रांतिकारी बदलाव लाया जा सकता है।

स्रोत: द हिंदू


शासन व्यवस्था

डेटा गवर्नेंस क्वालिटी इंडेक्स

प्रिलिम्स के लिये 

डेटा गवर्नेंस क्वालिटी इंडेक्स, नीति आयोग, केंद्र प्रायोजित योजनाएँ

मेन्स के लिये:

केंद्र प्रायोजित योजनाओं की निगरानी प्रणाली, विकास योजनाओं के क्रियान्वयन में नीति आयोग की भूमिका  

चर्चा में क्यों?

हाल ही में जारी ‘डेटा गवर्नेंस क्वालिटी इंडेक्स’ (Data Governance Quality Index- DGQI) की रिपोर्ट में केंद्रीय रसायन और उर्वरक मंत्रालय (Ministry of Chemicals and Fertilizers) के तहत आने वाले ‘उर्वरक विभाग’ (Department of Fertilizers) को 16 आर्थिक मंत्रालयों/विभागों में दूसरा स्थान प्राप्त हुआ है।

प्रमुख बिंदु:

  • डेटा गवर्नेंस क्वालिटी इंडेक्स की सर्वेक्षण रिपोर्ट में उर्वरक विभाग’ (Department of Fertilizers) को कुल 5 में से 4.11 अंक प्राप्त हुए।
  • इसके साथ ही उर्वरक विभाग को इस सर्वेक्षण रिपोर्ट में 65 मंत्रालयों/विभागों में तीसरा स्थान प्राप्त हुआ है।
  • यह सर्वेक्षण नीति आयोग (NITI Aayog) के ‘विकास निगरानी और मूल्यांकन कार्यालय’ (Development Monitoring and Evaluation Office- DMEO) द्वारा संचालित किया गया था।

‘डेटा गवर्नेंस क्वालिटी इंडेक्स’

(Data Governance Quality Index- DGQI):  

  • DMEO द्वारा DGQI में अंकों के निर्धारण के लिये विभिन्न मंत्रालयों/विभागों में डेटा तैयारियों के स्तर की स्व-मूल्यांकन आधारित समीक्षा की गई।
  • इसके लिये एक मानकीकृत ढाँचे पर विभिन्न मंत्रालयों/विभागों द्वारा डेटा तैयारी के आकलन के लिये एक सर्वेक्षण शुरू किया गया।
  • इस सर्वेक्षण के दौरान स्पष्ट और अव्यवहारिक तुलना से बचने के लिये मंत्रालयों/विभागों को छह श्रेणियों (प्रशासनिक, सामरिक, अवसंरचना, सामाजिक, आर्थिक और वैज्ञानिक) में विभाजित किया गया था। 
  • इस सर्वेक्षण के लिये DGQI ने छह प्रमुख विषयों के तहत एक ऑनलाइन प्रश्नावली तैयार की थी
    1. डेटा जुटाना 
    2. डेटा की गुणवत्ता
    3. प्रौद्योगिकी का प्रयोग
    4. डेटा विश्लेषण, उपयोग और प्रसार,  
    5. डेटा सुरक्षा 
    6. मानव संसाधन क्षमता और मामलों का अध्ययन
  • इस सर्वेक्षण के दौरान कुल 65 मंत्रालयों/विभागों से 250 CS/CSS योजनाओं के अनुपालन के संबंध में जानकारी एकत्रित की गई। 

उद्देश्य और प्रभाव:  

  • इस सर्वेक्षण का उद्देश्य केंद्रीय क्षेत्र की योजनाओं (Central Sector Schemes- CS) और केंद्र प्रायोजित योजनाओं (Centrally Sponsored Schemes- CSS) के कार्यान्वयन में विभिन्न मंत्रालयों/विभागों के प्रदर्शन का आकलन करना था
  • साथ ही इसका उद्देश्य विभिन्न मंत्रालयों/विभागों के बीच सकारात्मक प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा देना और उन्हें एक दूसरे की सर्वोत्तम प्रथाओं से सीखने के लिये प्रेरित करना है। 
  • यह सूचकांक सरकारी नीतियों, योजनाओं और कार्यक्रमों के कार्यान्वयन ढांचे को बेहतर बनाने में सहायक होगा। 

विकास निगरानी और मूल्यांकन कार्यालय’

(Development Monitoring and Evaluation Office- DMEO):  

  • विकास निगरानी और मूल्यांकन कार्यालय की स्थापना सितंबर 2015 में पूर्ववर्ती 'कार्यक्रम मूल्यांकन कार्यालय' (Program Evaluation Office- PEO) और 'स्वतंत्र मूल्यांकन कार्यालय' (Independent Evaluation Office- IEO) का विलय कर की गई थी।
  • DMEO नीति आयोग का एक संबद्ध कार्यालय है, इसका उद्देश्य नीति आयोग के निगरानी और मूल्यांकन (Monitoring and Evaluation- M&E) संबंधी कार्यों को पूरा करना तथा देश में निगरानी एवं मूल्यांकन पारितंत्र का निर्माण करना है। 
  • DMEO का लक्ष्य लक्ष्य सरकारी कार्यक्रमों की उच्चस्तरीय निगरानी और मूल्यांकन को संभव बनाना है जिससे सेवा प्रदायगी की प्रभावकारिता, दक्षता, साम्यता, संधारणीयता, परिणाम और प्रभावों में वृद्धि हो सके।

केंद्रीय योजनाएँ:

  • राज्य स्तर पर लागू की जाने वाली केंद्रीय कल्याण योजनाओं को दो भागो- केंद्रीय क्षेत्रक योजनाएँ (Central Sector Schemes) और केंद्र प्रायोजित योजनाएँ (Centrally Sponsored Schemes) में विभाजित किया गया है।

1. केंद्रीय क्षेत्रक योजनाएँ (Central Sector Schemes): 

  • केंद्रीय क्षेत्रक योजनाएँ पूर्ण रूप (100%) से केंद्र सरकार द्वारा वित्तपोषित होती हैं।
  •  साथ ही इनका कार्यान्वयन भी केंद्रीय तंत्र द्वारा ही किया जाता है।
  • केंद्रीय क्षेत्रक योजनाएँ मुख्य रूप से संघ सूची में उल्लेखित विषयों पर बनाई जाती हैं।
  • इसके अलावा केंद्रीय क्षेत्रक योजनाओं में कुछ अन्य कार्यक्रम भी शामिल हैं, जो विभिन्न केंद्रीय मंत्रालयों द्वारा सीधे राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में लागू किये जाते हैं।

उदाहरण: प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (पीएम किसान), भारतनेट, नमामि गंगे आदि।

2. केंद्र प्रायोजित योजनाएँ (Centrally Sponsored Schemes): 

  • केंद्र प्रायोजित योजनाओं के कार्यान्वयन हेतु वित्त की व्यवस्था केंद्र तथा राज्य द्वारा मिलकर की जाती है।
  • केंद्र प्रायोजित योजनाओं को मुख्यतः 3 भागों में विभाजित किया जा सकता है।
    (I) कोर ऑफ द कोर स्कीम (Core of the Core Schemes): राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम , मनरेगा आदि।
    (II) कोर स्कीम (Core Schemes): हरित क्रांति’ योजना, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना आदि।
    (III) ऑप्शनल स्कीम (Optional Schemes): सीमा क्षेत्र विकास कार्यक्रम, श्यामा प्रसाद मुखर्जी रुर्बन मिशन आदि।

स्रोत: पीआईबी


भारतीय अर्थव्यवस्था

प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण घरेलू बीमाकर्त्ता

प्रिलिम्स के लिये 

‘प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण घरेलू बीमाकर्त्ता, अंतर्राष्ट्रीय बीमा पर्यवेक्षक संघ 

मेन्स के लिये:

बीमा क्षेत्र में सार्वजनिक कंपनियों की भूमिका, बीमा क्षेत्र में स्थिरता हेतु सरकार के प्रयास  

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ‘भारतीय बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण’ (Insurance Regulatory and Development Authority of India- IRDAI) द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र की तीन बीमा कंपनियों को वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिये ‘प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण घरेलू बीमाकर्त्ता’ (Domestic Systemically Important Insurers or D-SIIs) के तौर पर चिह्नित किया गया है।

प्रमुख बिंदु:

  • IRDAI द्वारा भारतीय जीवन बीमा निगम (Life Insurance Corporation of India- LIC), भारतीय साधारण बीमा निगम (General Insurance Corporation of India) और न्यू इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड को वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिये D-SIIs के रूप में चिह्नित किया गया है।
  • D-SIIs को ऐसे बीमाकर्त्ताओं के रूप में देखा जाता है, जो ‘टू बिग ऑर टू इंपोर्टेंट टू फेल’ (Too Big or Too Important to Fail- TBTF) के सिद्धांत पर कार्य करते हैं।
  • D-SIIs ऐसे आकार और बाज़ार महत्त्व, घरेलू तथा वैश्विक परस्पर संबंध के बीमाकर्त्ताओं को संदर्भित करता है, जिनका संकट या विफलता घरेलू वित्तीय प्रणाली में एक बड़ी अव्यवस्था का कारण बन सकता है।
  • अतः राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को बीमा सेवाओं की निर्बाध उपलब्धता के लिये निरंतर D-SIIs का कार्य करना आवश्यक है।
  • गौरतलब है कि वित्तीय वर्ष 2019-20 में भारतीय रिज़र्व बैंक (Reserve Bank of India- RBI) द्वारा भारतीय स्टेट बैंक (SBI), आईसीआईसीआई बैंक (ICICI Bank) और एचडीएफसी बैंक (HDFC Bank) को ‘प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण घरेलू बैंक’ ( Domestic Systemically Important Banks or D-SIB) के तौर पर  चिह्नित किया गया था।
  • RBI के मानदंडों के अनुसार, D-SIB के रूप में चिह्नित बैंकों को अपने निरंतर संचालन के लिये पूंजी संरक्षण बफर के रूप (Capital Conservation Buffer) में अधिक पूंजी अलग रखनी होती है।

कारण:  

  • D-SIIs के साथ जुड़ी हुई TBTF की अवधारणा और सरकार के समर्थन से जुड़ी अपेक्षाएँ ऐसी इकाइयों की जोखिम लेने की भावना में वृद्धि, बाज़ार में अनुशासन की कमी तथा प्रतिस्पर्द्धी विकृतियाँ पैदा कर सकती हैं जिससे भविष्य में इनमें संकट की संभावनाएँ भी बढ़ सकती हैं।
  • IRDAI के अनुसार, पिछले 15 वर्षों में देश के बीमा क्षेत्र में तेज़ी से वृद्धि हुई है, इसके साथ ही कुछ बीमाकर्त्ताओं का बाज़ार के एक बड़े हिस्से पर हस्तक्षेप है और वे अन्य वित्तीय संस्थानों से भी जुड़े हैं। ऐसे में इनकी असफलता अर्थव्यवस्था के लिये एक बड़ी चुनौती बन सकती है।
  • इन चिंताओं को देखते हुए IRDAI द्वारा D-SIIs को प्रणालीगत जोखिमों (Systemic Risks)और नैतिक खतरे (Moral Hazard) के मुद्दों से निपटने के लिये अतिरिक्त नियामकीय उपायों के अधीन किये जाने का सुझाव दिया गया है।
  • गौरतलब है कि बीमा क्षेत्र से जुड़ी चिंताओं को देखते जनवरी 2019 में IRDAI द्वारा D-SIIs पर एक समिति का गठन किया गया था।
  • इससे पहले ‘अंतर्राष्ट्रीय बीमा पर्यवेक्षक संघ’ (International Association of Insurance Supervisors- IAIS) द्वारा सभी सदस्य देशों को स्थानीय/घरेलू D-SIIs के विनियमन हेतु एक नियमकीय ढाँचा तैयार करने के लिये कहा गया था।   

प्रभाव:   

  • IRDAI का यह निर्णय ऐसे समय में आया है जब केंद्र सरकार द्वारा अगले वर्ष LIC के शेयरों को ‘आरंभिक सार्वजनिक निर्गम’ (Initial Public Offer-IPO) के माध्यम से स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध करने पर विचार किया जा रहा है। 
  • सार्वजनिक क्षेत्र की इन तीन बीमा कंपनियों को D-SIIs के रूप में चिह्नित करने से इनमें पारदर्शिता बढ़ेगी और इनकी कार्यप्रणाली में भी सुधार होगा।   
  • IRDAI के अनुसार, इन तीन बीमाकर्त्ताओं को अपने  कॉर्पोरेट प्रशासन के स्तर को बढ़ाने के लिये कहा गया है।
  • इसके साथ ही इनमें सभी प्रासंगिक जोखिमों की पहचान करने और एक प्रभावी जोखिम प्रबंधन प्रणाली को बढ़ावा देने का निर्देश दिया गया है।

D-SIIs में स्थिरता सुनिश्चित करने के प्रयास: 

  • IRDAI द्वारा D-SIIs की पहचान और उनके पर्यवेक्षक के लिये एक पद्धति का विकास किया गया है।
  • इसमें  संचालन का आकार (कुल राजस्व के संदर्भ में), प्रबंधन के तहत संपत्ति का मूल्य, एक से अधिक क्षेत्राधिकार में वैश्विक गतिविधियाँ आदि मापदंडों को शामिल किया गया है।
  • IRDAI द्वारा वार्षिक आधार पर  D-SIIs की पहचान कर ऐसे बीमाकर्त्ताओं के नामों को सार्वजनिक किया जाएगा। 

‘भारतीय बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण’

(Insurance Regulatory and Development Authority of India- IRDAI):

  • IRDAI की स्थापना वर्ष 1999 में आर.एन. मल्होत्रा समिति की सिफारिशों के आधार पर एक स्वायत्त निकाय के रूप में की गई थी।
  •  अप्रैल 2000 में इसे एक वैधानिक निकाय का दर्जा प्रदान किया गया।
  • इसका मुख्यालय हैदराबाद में स्थित है।
  • IRDAI का मुख्य उद्देश्य पॉलिसीधारकों के हितों और अधिकारों की रक्षा तथा बीमा उद्योग के विकास को बढ़ावा देना है।   

‘अंतर्राष्ट्रीय बीमा पर्यवेक्षक संघ’

(International Association of Insurance Supervisors- IAIS):

  • IAIS बीमा पर्यवेक्षकों और नियामकों का एक स्वैच्छिक सदस्यता संगठन है। 
  • इसकी स्थापना वर्ष 1994 में की गई थी। 
  • यह बीमा क्षेत्र में एक अंतर्राष्ट्रीय मानक निर्धारण निकाय है, जो बीमा क्षेत्र के पर्यवेक्षण हेतु मानकों और सिद्धांतों के निर्धारण और क्रियान्वयन में सहायता प्रदान करता है।

स्रोत: द हिंदू


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संकेतक

प्रिलिम्स के लिये 

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संकेतक, विश्व बौद्धिक संपदा संगठन

मेन्स के लिये:

भारत में गुणवत्तापूर्ण नवाचारों की कमी 

चर्चा में क्यों?

भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (Department of Science and Technology- DST) ने अगस्त, 2020 में वर्ष 2019-20 के लिये नवीनतम विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संकेतक (Science & Technology Indicators- STI) जारी किये थे।

प्रमुख बिंदु:

  • नवीनतम विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संकेतकों के अनुसार, भारत नवाचार के संदर्भ में अभी भी उत्कृष्ट स्तर तक नहीं पहुँचा है।   
    • विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कुशल होने के बावजूद देश में विलक्षण रूप से अच्छे विचारों की कमी दिखाई देती है इसीलिये किसी भी भारतीय उत्पाद या व्यावसायिक मॉडल ने वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान नहीं बनाई है।

STI रिपोर्ट:

  • STI रिपोर्ट से पता चला कि वर्ष 2005-06 और वर्ष 2017-18 के बीच देश में कुल 510000 पेटेंट आवेदन दाखिल किये गए थे किंतु इनमें से तीन-चौथाई से अधिक विदेशी संस्थाओं या व्यक्तियों द्वारा दाखिल किये गए थे। अर्थात् इन 13 वर्षों में भारतीयों की ओर से केवल 24% पेटेंट आवेदन दाखिल किये गए।
  • विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (World Intellectual Property Organisation- WIPO) के अनुसार, दाखिल किये गए पेटेंट आवेदनों की संख्या के आधार पर भारत 7वें स्थान पर है।

आईबीएम इंस्टीट्यूट फॉर बिज़नेस वैल्यू की रिपोर्ट:

  • आईबीएम इंस्टीट्यूट फॉर बिज़नेस वैल्यू (IBM Institute for Business Value) की एक रिपोर्ट में कहा गया कि यद्यपि भारत एक विशाल बाज़ार एवं मज़बूत जनसांख्यिकी वाला देश है किंतु यहाँ अधिकांश स्टार्ट-अप विफल हो गए हैं क्योंकि उनके पास नई प्रौद्योगिकियों के आधार पर अग्रणी विचारों की कमी है और अद्वितीय व्यावसायिक मॉडल भी नहीं हैं।
    • आईबीएम ने पाया कि भारतीय स्टार्ट-अप्स सफल विचारों को कहीं और से कॉपी करना पसंद करते हैं और स्थानीय बाज़ारों में इन सफल कॉन्सेप्ट्स को लघु स्तर पर लागू करके कीमत सृजन पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
    • भारतीय सफल विचारों को कहीं और से कॉपी करने में या अपने जुगाड़ को बढ़ावा देने में बहुत गर्व करते हैं।

जुगाड़ आधारित नवाचार: 

  • इसे कुछ विश्लेषकों द्वारा किफायती नवाचार (Frugal Innovation) भी कहा गया है। जबकि कुछ लोगों का मानना है कि यह हमारी रचनात्मकता को दर्शाता है किंतु क्या हमने कोई भी ऐसा स्टार्ट-अप बनाया है जिसका मूल्य $ 1 बिलियन से अधिक हो।
  • वहीं भारत सरकार द्वारा 100 से अधिक चीनी एप पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद इस तरफ किसी का ध्यान ही नहीं गया कि प्रतिबंधित एप्स का कोई भी भारतीय विकल्प क्यों नहीं मौजूद है।
  • गौरतलब है कि चीन लंबे समय तक संयुक्त राज्य अमेरिका और जापान से अंतर्राष्ट्रीय पेटेंट आवेदन दाखिल करने के मामले में शीर्ष स्थान पर रहा है जिसके कारण कई चीनी उत्पादों को वैश्विक स्तर पर पहचान मिली है। जैसे- हुआवेई। 

भारतीयों द्वारा पेटेंट आवेदन में कमी के कारण: भारतीयों द्वारा पेटेंट आवेदनों में कमी के लिये विश्लेषकों द्वारा निम्नलिखित कारण बताए गए हैं:  

  • निजी क्षेत्र और भारत सरकार द्वारा अनुसंधान एवं विकास में कम निवेश
  • उच्च शिक्षा की दयनीय स्थिति
  • विभिन्न क्षेत्रों में कुशल कर्मियों की कमी एवं अयोग्यता

समाधान:

  • प्रमुख संस्थानों विशेष रूप से विश्वविद्यालयों में शोध सामग्री को अपग्रेड किया जाना चाहिये।
  • R & D में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाने की आवश्यकता है।
  • शुद्ध अनुसंधान (Pure Research) को अनुप्रयुक्त अनुसंधान (Applied Research) का हिस्सा बनाया जाना चाहिये जिससे इसे विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट किया जा सकता है और नवाचार को बढ़ावा दिया जा सकता है।
    • उद्योगों ने आमतौर पर शिकायत की है कि वे फंड की कमी और स्टार्ट-अप के लिये अनुकूल माहौल से प्रभावित हैं। 

आगे की राह:

  • जुगाड़ जैसे नवाचार अल्पकालिक समाधान प्रदान करते हैं किंतु नवाचार को आगे बढ़ाने के लिये शुद्ध शोध की आवश्यकता होती है, जो तब संभव है जब भारतीय नए एवं मूल विचारों के साथ आएंगे। 
  • विकासशील देशों के अनुभव से पता चलता है कि जो विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी नवाचार नीतियाँ राष्ट्रीय विकास रणनीतियों में अच्छी तरह से एकीकृत हैं वे संस्थागत एवं संगठनात्मक परिवर्तनों के साथ मिलकर उत्पादकता बढ़ाने, फर्म प्रतिस्पर्द्धा में सुधार करने, तेज़ी से विकास का समर्थन करने और नौकरियाँ उत्पन्न करने में मदद कर सकती हैं।

स्रोत: डाउन टू अर्थ


जैव विविधता और पर्यावरण

मानव-तेंदुआ संघर्ष

प्रिलिम्स के लिये 

भारतीय तेंदुआ

मेन्स के लिये 

मानव-वन्यजीव संघर्ष तथा उसे कम करने के उपाय

चर्चा में क्यों?

कर्नाटक में किये गए एक अध्ययन से संकेत मिलता है कि भारत सरकार द्वारा मानव-तेंदुआ संघर्ष को कम करने के लिये जिन नीतिगत दिशा निर्देशों को लागू किया गया है उनका ज़मीनी स्तर पर बहुत कम प्रभाव पड़ा है।

प्रमुख बिंदु

  • वर्ष 2011 में मानव-तेंदुए नीति संबंधी दिशा निर्देशों को लागू करने के बावजूद प्रति माह पकड़े गए तेंदुओं की संख्या तीन गुना से अधिक (1.5 से 4.6 तक) बढ़ गई।
  • इसी प्रकार, प्रति माह स्थानांतरित किये गए तेंदुओं की संख्या में तीन गुना वृद्धि हुई (1 से 3.5 तक)।
  • तेंदुए के साथ संघर्ष को कम करने, उनके शिकार को हतोत्साहित करने और आपातकालीन संघर्ष स्थितियों से निपटने के बेहतर तरीके सुझाने के लिये अप्रैल 2011 में मानव-तेंदुआ संघर्ष प्रबंधन हेतु दिशा निर्देश लाए गए थे। 

अध्ययन से संबंधित अन्य बिंदु:

  • कर्नाटक में, 357 तेंदुए संघर्ष की स्थिति में थे और वर्ष 2009 और 2016 के बीच पकड़े गए थे। इनमे से 314 तेंदुओं के बारे में अंतिम आँकड़े उपलब्ध हैं। 
  • इनमें से 268 तेंदुओं को ‘स्पिरिट ऑफ द पॉलिसी’ के उल्लंघन में स्थानांतरित कर दिया गया, 34 तेंदुओं को पकड़कर कैद में रखा गया, जबकि 12 की मौत हो गई।
  • कर्नाटक को एक केस स्टडी के रूप में लेते हुए, शोधकर्ताओं ने पहले और बाद के दिशा-निर्देशों के तहत तेंदुए की पकड़, कैद के कारणों और पकड़े गए तेंदुओं के संबंध में परिणाम का विश्लेषण किया।

प्रमुख संख्यात्मक आँकड़े:

  • अध्ययन में पाया गया कि वर्ष 2009-16 के दौरान राज्य के 30 ज़िलों में से 23 में 357 तेंदुओं को पकड़ लिया गया।
  • मैसूरु, उडुपी, हसन, तुमकुरु, रामनगरम, बल्लारी, कोप्पल और मांड्या ज़िलों में ये घटनाएँ सर्वाधिक (79%) देखने को मिलीं।
  • स्थानांतरित किये गए 268 तेंदुओं में से कई को संरक्षित क्षेत्रों (59.7%) और कुछ को आरक्षित/राज्य/लघु वनों (29.8%) में स्थानांतरित कर दिया गया। बांदीपुर टाइगर रिज़र्व (22.5%) में सबसे अधिक, उसके बाद नागरहोल टाइगर रिज़र्व (20.6%) और कावेरी वन्यजीव अभयारण्य (15%) में तेंदुओं का स्थानांतरण हुआ।
  • अध्ययन के अनुसार, 80 तेंदुओं को आरक्षित/राज्य/लघु वनों में स्थानांतरित कर दिया गया था, ज्यादातर रिलीज केंपहोल आरक्षित वन (16.2%) में थे, इसके बाद देवनारायण दुर्ग राज्य वन (7.5%) और बुक्कापन्ना राज्य वन (5%) शामिल थे।
  • हालांकि तेंदुओं को पकड़ने और उनके स्थानांतरण के लिये आठ कारणों को ज़िम्मेदार ठहराया गया। जिनमें से कुछ निम्न हैं-
    • जाल में फंसने और कुओं में गिरने से (15.7%)
    • पशुधन अपव्यय (13.7%)
    • मानव बस्तियों में तेंदुए के देखे जाने की चिंता के कारण (13.7%)
    • तेंदुए के मानव आवासों (10.9%) में प्रवेश करने के कारण
    • मानव-तेंदुआ संघर्ष में मानव को लगी चोटों के कारण (4.5%) 
    • मानव मृत्यु (2%)

तेंदुआ (Common leopard)

सामान्य नाम- भारतीय तेंदुआ या सामान्य तेंदुआ (Indian leopard or common leopard)

वैज्ञानिक नाम- पैंथेरा पार्डस (Panthera pardus)

संख्या- कोई आधिकारिक देशव्यापी संख्या अनुमान उपलब्ध नहीं है। हालांकि, भारत के 17 बाघों की उपस्थिति वाले राज्यों में, तेंदुआ लगभग 1,74,066 वर्ग किमी. क्षेत्र में उपस्थित है, जो बाघ की उपस्थिति वाले क्षेत्र का लगभग दोगुना है। 

ऊँचाई: 45-80 सेमी.

लंबाई: हैड बॉडी लेंथ- 100-190 सेमी., टेल लेंथ- 70-95 सेमी. 

वजन: नर- 30-70 किग्रा., मादा- 28-60 किग्रा.

स्थिति- भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की अनुसूची-I में सूचीबद्ध और CITES के परिशिष्ट-I में शामिल।  IUCN की रेड लिस्ट में नियर थ्रेटेंड (Near Threatened) के रूप में सूचीबद्ध। 

स्रोत- द हिंदू


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