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डेली न्यूज़

  • 02 May, 2023
  • 58 min read
सामाजिक न्याय

गर्भधारण पूर्व और प्रसवपूर्व निदान तकनीक अधिनियम, 1994

प्रिलिम्स के लिये: गर्भधारण पूर्व और प्रसवपूर्व निदान तकनीक अधिनियम, 1994, प्रसव पूर्व निदान तकनीक

मेन्स के लिये: प्रसवपूर्व निदान और लिंग-चयनात्मक गर्भपात से संबंधित नैतिक एवं कानूनी मुद्दे, गर्भधारण पूर्व और प्रसवपूर्व निदान तकनीक अधिनियम, 1994 के प्रावधान, उद्देश्य, भारत में लिंग-चयन गर्भपात के अभ्यास को रोकने में इसका महत्त्व

चर्चा में क्यों?

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की है कि PCPNDT के प्रभावी कार्यान्वयन के लिये गर्भधारण पूर्व और प्रसवपूर्व निदान तकनीक (Pre-Conception and Pre-Natal Diagnostic Techniques- PCPNDT) अधिनियम के कुछ पहलुओं पर पुनर्विचार किये जाने की आवश्यकता है।

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह निर्देश PCPNDT अधिनियम की विभिन्न धाराओं के तहत दर्ज एक प्राथमिकी को रद्द करने की मांग करने वाले व्यक्ति द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए दिया है।

PCPNDT अधिनियम:

  • परिचय:
    • गर्भधारण पूर्व और प्रसवपूर्व निदान तकनीक अधिनियम, 1994 भारत की संसद द्वारा पारित अधिनियम है जिसे कन्या भ्रूण हत्या को रोकने और भारत में गिरते लिंगानुपात को रोकने, प्रसवपूर्व लिंग चयन को प्रतिबंधित करने लिये अधिनियमित किया गया था।
  • उद्देश्य:
    • इस अधिनियम को लागू करने का मुख्य उद्देश्य गर्भाधान से पहले अथवा बाद में लिंग चयन तकनीकों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाना और लिंग-चयनात्मक गर्भपात के लिये प्रसवपूर्व निदान तकनीकों के दुरुपयोग को रोकना है।
  • प्रावधान:
    • यह अल्ट्रासाउंड मशीन जैसे- प्रसवपूर्व निदान तकनीकों के उपयोग को विनियमित करता है और इस प्रकार की मशीनों को केवल आनुवंशिक असामान्यताओं, चयापचय संबंधी विकार, क्रोमोसोमल असामान्यताओं, कुछ जन्मजात विकृतियों, हीमोग्लोबिनोपैथी तथा लिंग संबंधी विकार का पता लगाने के लिये उपयोग में लाने की अनुमति देता है।
    • भ्रूण के लिंग का पता लगाने के उद्देश्य से प्रयोगशाला या केंद्र अथवा क्लिनिक अल्ट्रासोनोग्राफी सहित कोई परीक्षण किया जाना निषिद्ध है।
    • अल्ट्रासाउंड जैसी तकनीकों के प्रयोग से व्यक्ति द्वारा गर्भवती महिला अथवा उसके रिश्तेदारों को शब्दों, संकेतों अथवा किसी अन्य तरीके से भ्रूण के लिंग की जानकारी देना निषिद्ध है।
    • कोई भी व्यक्ति जो नोटिस, सर्कुलर, लेबल अथवा किसी दस्तावेज़ के रूप में प्रसवपूर्व और गर्भधारण पूर्व लिंग चयन संबंधी सुविधाओं का विज्ञापन देता है या फिर इलेक्ट्रॉनिक अथवा प्रिंट रूप में अन्य मीडिया के माध्यम से विज्ञापित करता है, ऐसे व्यक्ति, संस्थान या केंद्र के संचालक को तीन वर्ष तक की कैद हो सकती है और 10,000 रुपए का जुर्माना लगाया जा सकता है।
  • इस अधिनियम के तहत आने वाले अपराध:
    • इस अधिनियम के तहत अपंजीकृत स्वास्थ्य केंद्रों में प्रसवपूर्व निदान तकनीकों का उपयोग करना एक अपराध है।
    • इस अधिनियम के तहत लिंग चयन निषिद्ध है।
    • इस अधिनियम में निर्दिष्ट उद्देश्य के अतिरिक्त किसी अन्य उद्देश्य के लिये प्रसवपूर्व निदान तकनीक का इस्तेमाल करना अपराध है।
    • इस अधिनियम के तहत किसी भी अल्ट्रासाउंड मशीन अथवा भ्रूण लिंग का पता लगाने में सक्षम किसी भी अन्य उपकरण की बिक्री, वितरण, आपूर्ति, किराए पर लेना आदि निषिद्ध है।

लिंग-चयनात्मक गर्भपात के खिलाफ पहल:

  • बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ:
    • यह अभियान भारत सरकार द्वारा वर्ष 2015 में शुरू किया गया था जिसका उद्देश्य लिंग आधारित चयन पर रोकथाम, बालिकाओं के अस्तित्त्व और सुरक्षा को सुनिश्चित करना तथा बालिकाओं के लिये शिक्षा की उचित व्यवस्था तथा उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने के संबंध में जागरूकता का प्रसार करना है।
  • बच्चों के लिये राष्ट्रीय कार्ययोजना, 2016:
    • यह बच्चों के अधिकारों और कल्याण के लिये प्रमुख प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में से एक के रूप में लिंग-पक्षपाती लिंग चयन के उन्मूलन की दिशा में कार्य करता है।

दिल्ली उच्च न्यायालय की चिंता का विषय:

  • छापे और बरामदगी में पुलिस की भागीदारी की व्यावहारिकता:
    • न्यायालय ने कहा कि हालाँकि PCPNDT नियमों में इस बात पर ध्यान दिया जाता है कि “जहाँ तक संभव हो” पुलिस छापेमारी, जब्ती आदि में शामिल न हो, लेकिन इस पहलू की व्यावहारिकता पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि ऐसी कार्रवाई सुविधा केंद्रों/क्लीनिकों पर छापे मारने के लिये CrPC के अनुसार होनी चाहिये"।
  • जाँच और गिरफ्तारी की शक्तियाँ:
    • न्यायालय ने पाया कि यद्यपि उपयुक्त प्राधिकारी को PCPNDT अधिनियम का उल्लंघन करने वाले चिकित्सा केंद्रों और सुविधाओं के पंजीकरण की जाँच करने तथा छापेमारी, रद्द या निलंबित करने की शक्तियाँ दी गई हैं, लेकिन उसके पास इस अधिनियम के तहत किसी को भी गिरफ्तार करने की शक्ति नहीं है
      • इस अधिनियम के तहत अपराधों को 'संज्ञेय' बनाया गया है, जिसका अर्थ है कि पुलिस गिरफ्तारी कर सकती है।
      • हालाँकि न्यायालय ने अधिनियम को लागू करने में उपयुक्त प्राधिकरण की भूमिका की प्रभावशीलता के बारे में चिंता जताई क्योंकि उसके पास गिरफ्तारी की शक्ति नहीं है।
  • सज़ा की कम दर:
    • कम दोष सिद्धि दर उन मामलों के प्रतिशत को संदर्भित करती है जिनमें अभियुक्त दोषी पाए जाते हैं और उस अपराध हेतु दोषी पाए जाते हैं जिसके लिये उन्हें आरोपित किया गया था।
    • PCPNDT अधिनियम के संदर्भ में इसका मतलब है कि वास्तव में अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करने के लिये दोषी ठहराए गए लोगों की संख्या बहुत कम है।
      • यह अपराधियों पर प्रभावी ढंग से मुकदमा चलाने और लिंग-चयन गर्भपात के अवैध अभ्यास को रोकने के लिये न्याय प्रणाली की विफलता को इंगित करता है।

दिल्ली उच्च न्यायालय की टिप्पणी के निहितार्थ:

  • पुलिस की जाँच और गिरफ्तारी की शक्तियों पर स्पष्टता:
    • न्यायालय द्वारा उठाई गई चिंताओं ने अधिनियम को लागू करने में पुलिस की भूमिका के साथ-साथ उपयुक्त प्राधिकारियों में निहित जाँच और गिरफ्तारी की शक्तियों पर अधिक स्पष्टता की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।
  • दोषसिद्धि दर में वृद्धि:
    • PCPNDT अधिनियम के तहत दोषसिद्धि की कम दर एक सतत् चुनौती रही है और अदालत की टिप्पणी लिंग-चयनात्मक गर्भपात से संबंधित मामलों में दोषसिद्धि दर बढ़ाने में मदद कर सकती है।

प्रसवपूर्व निदान और लिंग-चयनात्मक गर्भपात से जुड़े नैतिक मुद्दे :

  • अधिकारों और मानवीय गरिमा का उल्लंघन: लिंग-चयनात्मक गर्भपात लैंगिक भेदभाव एवं महिलाओं के खिलाफ हिंसा का एक रूप है जो उनके जीवन, सम्मान और समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है।
    • यह मानव जीवन के मूल्य और गरिमा तथा मानव समाज की विविधता को भी कमज़ोर करता है।
  • सामाजिक समस्याओं में वृद्धि: समाज पर इसके प्रतिकूल परिणाम देखे जाते हैं जैसे- विषम लिंगानुपात, बढ़ती तस्करी और महिलाओं के खिलाफ हिंसा, पुरुषों के लिये विवाह की संभावनाएँ कम होना आदि।
    • यह गैर-चिकित्सा उद्देश्यों के लिये प्रसवपूर्व निदान के उपयोग और अजन्मे बच्चे के प्रति माता-पिता और स्वास्थ्य देखभाल प्रदाताओं की ज़िम्मेदारी को लेकर नैतिक प्रश्न भी उठाता है।
  • हेल्थकेयर तक पहुँच: प्रसवपूर्व निदान और लिंग-चयनात्मक गर्भपात मौजूदा स्वास्थ्य असमानता और अन्य असमानताओं को बढ़ा सकता है, विशेष रूप से हाशिये पर रहने वाले उन समुदायों के लिये जिनकी स्वास्थ्य सेवा और जानकारी तक सीमित पहुँच हो सकती है।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न:

मेन्स:

प्रश्न. आप उन आँकड़ों की व्याख्या कैसे करेंगे जो दिखाते हैं कि अनुसूचित जातियों के बीच लिंगानुपात की तुलना में भारत में जनजातियों में लिंगानुपात महिलाओं के लिये अधिक अनुकूल है? (2015)

स्रोत: द हिंदू


सामाजिक न्याय

हू इज़ टिपिंग द स्केल रिपोर्ट: IPES

प्रिलिम्स के लिये:

फूड गवर्नेंस, ब्लूवॉशिंग, CGIAR, खाद्य एवं कृषि संगठन, बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन, संयुक्त राष्ट्र

मेन्स के लिये:

हू इज़ टिपिंग द स्केल रिपोर्ट: IPES

चर्चा में क्यों?

हाल ही में इंटरनेशनल पैनल ऑफ एक्सपर्ट्स ऑन सस्टेनेबल फूड सिस्टम्स (IPES) द्वारा "हू इज़ टिपिंग द स्केल" शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की गई है, जिसमें बताया गया है कि कैसे वैश्विक खाद्य प्रशासन पर कॉर्पोरेट वर्चस्व बढ़ता जा रहा है एवं यह ब्लूवॉशिंग के बारे में चिंताएँ बढ़ा रहा है।

ब्लूवाशिंग:

  • ब्लूवॉशिंग उपभोक्ताओं को यह विश्वास दिलाने के लिये गलत सूचना का उपयोग कर रहा है कि एक कंपनी वास्तव में डिजिटल रूप से अधिक नैतिक एवं सुरक्षित है।
    • यह बिल्कुल ग्रीनवाशिंग की तरह है लेकिन यह पर्यावरण के बजाय सामाजिक और आर्थिक ज़िम्मेदारी पर अधिक ध्यान केंद्रित करता है।
    • ग्रीनवाशिंग भ्रामक विपणन का एक रूप है जिसमें एक कंपनी झूठा दावा करती है कि उसके उत्पाद, नीतियाँ या कार्यक्रम पर्यावरण के अनुकूल या लाभकारी हैं, जबकि ये व्यवहार में पर्यावरण की सहायता हेतु बहुत कम या कुछ भी नहीं करते हैं।
  • 'ब्लूवॉशिंग' शब्द का इस्तेमाल पहली बार उन कंपनियों हेतु किया गया था जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र ग्लोबल कॉम्पेक्ट एवं इसके सिद्धांतों पर हस्ताक्षर किये थे लेकिन कोई वास्तविक नीतिगत सुधार नहीं किया था।
  • यह कार्य प्रायः कंपनियों द्वारा अपने डेटा गोपनीयता और सुरक्षा के बारे में अस्पष्ट या निराधार दावा या कृत्रिम बुद्धिमत्ता की रक्षा एवं सुरक्षा के बारे में दावा कर किया जाता है।

प्रमुख बिंदु

  • खाद्य प्रशासन पर निगम का प्रभाव:
    • प्रशासन के क्षेत्र में वैध अभिनेता होने का दावा करने वाली फर्मों की संख्या में वृद्धि हुई है।
    • हाल के दशकों में निगम सरकारों को यह विश्वास दिलाने में सफल रहे हैं कि खाद्य प्रणालियों के भविष्य पर होने वाली किसी भी चर्चा में उनकी केंद्रीय भूमिका होनी चाहिये।
    • निगम भागीदारी ने निर्णय लेने पर अधिक प्रभाव वाले वैश्विक खाद्य प्रशासन संस्थानों और निगमों हेतु धन का एक प्रमुख स्रोत प्रदान किया है।
  • खाद्य प्रशासन में कॉर्पोरेट भूमिका का सामान्यीकरण:
    • सार्वजनिक-निजी भागीदारी और बहु-हितधारक गोलमेज़ (राउंडटेबल्स) द्वारा खाद्य प्रशासन एवं निर्णय लेने में निजी निगमों की भूमिका को सामान्य कर दिया गया है, जबकि सार्वजनिक प्रशासन की पहल निजी वित्तपोषण पर बहुत अधिक निर्भर हो गई है।
  • कॉर्पोरेट प्रभाव पर चिंता:
    • नागरिक सामाजिक संगठनों, खाद्य वैज्ञानिकों ने यह चिंता व्यक्त की है कि खाद्य प्रशासन में निगमों की बढ़ती भागीदारी से जनता की भलाई और लोगों तथा समुदायों के अधिकारों पर प्रभाव पड़ सकता है।
  • प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कॉर्पोरेट प्रभाव:
    • निगमों ने प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से वैश्विक खाद्य प्रशासन को प्रभावित किया है।
    • बेहतर पोषण हेतु वैश्विक गठबंधन, खाद्य एवं भूमि उपयोग गठबंधन और पोषण गतिविधियों में वृद्धि करने से वैश्विक खाद्य प्रणालियों के प्लेटफॉर्म में कॉर्पोरेट प्रभाव देखा जा सकता है।
    • निजी क्षेत्र के उद्यमों द्वारा राजनैतिक और संस्थागत अनुदान, व्यापार और निवेश नियमों एवं अनुसंधान रणनीतियों का नियमन और वैश्विक खाद्य प्रणालियों के विविध संरचनात्मक पहलू अन्य न्यून प्रभावी तरीके थे जिनमें खाद्य प्रणाली शासन में कॉर्पोरेट प्रभाव देखा गया था।
  • कॉर्पोरेट भागीदारी बढ़ने का कारण:
  • कॉर्पोरेट भागीदारी की घटनाएँ:
    • अंतर्राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान पर सलाहकार समूह (CGIAR) खाद्य उद्योग से जुड़े निजी फर्मों और निजी परोपकारी संस्थानों के वित्तपोषण पर निर्भर था।
    • बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन, जो वर्ष 2020 में CGIAR का दूसरा सबसे बड़ा दानकर्त्ता था, ने लगभग 100 मिलियन अमेरिकी डॉलर का योगदान दिया, जो संयुक्त राज्य अमेरिका सहित सरकारों द्वारा व्यक्तिगत रूप से दिये गए योगदान से कहीं अधिक था।
    • FAO को अपने पूरे इतिहास में उद्योग साझेदारी के माध्यम से निगमों के साथ घनिष्ठ सहयोग करने के लिये भी जाना जाता है। हालाँकि इन योगदानों के बारे में विवरण आसानी से उपलब्ध नहीं थे।

वैश्विक खाद्य प्रशासन में अत्यधिक कॉर्पोरेट भागीदारी से संबंधित चुनौतियाँ?

  • सीमित जवाबदेही:
    • खाद्य प्रणाली में निजी अभिकर्त्ता जनता या नियामक निकायों के प्रति जवाबदेह नहीं हो सकते हैं, जिससे खाद्य सुरक्षा, गुणवत्ता और स्थिरता को लेकर अपर्याप्त निगरानी की आशंका उत्पन्न हो सकती है।
    • निजी अभिकर्त्ता भी सार्वजनिक भलाई पर अपने मुनाफे को प्राथमिकता दे सकते हैं, जिससे हितों का टकराव हो सकता है जो खाद्य सुरक्षा, गुणवत्ता और स्थिरता से समझौता कर सकता है।
  • हाइपर नजिंग:
    • अत्यधिक कॉर्पोरेट भागीदारी से दैनिक लेन-देन डेटा (स्वचालित खाद्य सेवाओं के लिये डिजिटल वॉलेट) को पुनः प्राप्त किया जा सकता है, जिसे वे लोगों की खाने की आदतों में हेर-फेर करने हेतु इसे ऑनलाइन प्राप्त जानकारी के साथ जोड़ सकते हैं।
  • लाभों का असमान वितरण:
    • निजी अभिकर्त्ता लघु किसानों और उपभोक्ताओं की बजाय बड़े पैमाने पर उत्पादनकर्त्ताओं और खुदरा विक्रेताओं को प्राथमिकता प्रदान कर सकते हैं जिससे खाद्य प्रणाली से होने वाले लाभ का वितरण असमान हो सकता है।
  • सीमित पारदर्शिता:
    • निजी अभिकर्त्ताओं द्वारा उपयोग किये जाने वाले तरीकों, उत्पादों और नीतियों को स्पष्ट रूप से उजागर नहीं किये जाने से हितधारकों को उनके द्वारा उठाए गए कदमों का खाद्य प्रणाली पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन करना कठिन हो सकता है।
  • खाद्य सुरक्षा की गंभीर स्थिति:
    • खाद्य प्रणाली का नियंत्रण बिग डेटा टेक्नोलॉजीज़ और ई-कॉमर्स प्लेटफाॅर्म के हाथों में चले जाने से इससे खाद्य असुरक्षा की स्थिति और गंभीर हो सकती है, साथ ही पर्यावरणीय क्षरण में भी वृद्धि हो सकती है।
    • कृत्रिम बुद्धिमता खाद्य पारिस्थितिकी तंत्र की पुनर्संरचना करने की दिशा में अग्रसर है, डिजिटल अवसंरचना के रूप में रोबोटिक ट्रैक्टर्स और ड्रोन्स के आगमन के साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लाखों लोग शहरी क्षेत्रों की ओर जाने हेतु बाध्य हो जाएंगे।

सुझाव:

  • मानवाधिकारों पर आधारित एक ठोस शिकायत नीति और नए कार्यतंत्र की स्थापना की जानी चाहिये जो जन संगठनों, सामाजिक आंदोलनों और अन्य नागरिक समाज अभिकर्त्ताओं को अपनी शर्तों पर खाद्य प्रशासन में भाग लेने की अनुमति प्रदान करता हो।
  • जन संगठनों और सामाजिक आंदोलनों के दावों एवं प्रस्तावों के लिये स्वायत्त प्रक्रियाओं का निर्धारण किया जाना चाहिये, विशेष रूप से उनके लिये जो हाशिये के समुदायों के लिये एजेंसी का निर्माण करते हैं।

स्रोत: डाउन टू अर्थ


भारतीय राजव्यवस्था

आदर्श आचार संहिता

प्रिलिम्स के लिये:

आदर्श आचार संहिता (MCC), भारत निर्वाचन आयोग (ECI)

मेन्स के लिये:

MCC के विकास में ECI की भूमिका, आदर्श आचार संहिता - चुनावों में महत्त्व और इसकी आलोचना

चर्चा में क्यों?

जैसे-जैसे कर्नाटक विधानसभा चुनाव करीब आ रहे हैं, राजनीतिक दल एक-दूसरे के खिलाफ अभद्र भाषा का प्रयोग करने के आरोप लगा रहे हैं।

आदर्श आचार संहिता (MCC):

  • परिचय:
    • यह निर्वाचन आयोग द्वारा चुनाव से पूर्व राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों के विनियमन तथा स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने हेतु जारी दिशा-निर्देशों का एक समूह है।
    • यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 के अनुरूप है, जिसके तहत निर्वाचन आयोग (EC) को संसद तथा राज्य विधानसभाओं में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनावों की निगरानी और संचालन करने की शक्ति दी गई है।
    • आदर्श आचार संहिता उस तारीख से लागू हो जाती है जब निर्वाचन आयोग द्वारा चुनाव की घोषणा की जाती है और यह चुनाव परिणाम घोषित होने की तारीख तक लागू रहती है।
  • विकास:
    • आदर्श आचार संहिता की शुरुआत सर्वप्रथम वर्ष 1960 में केरल विधानसभा चुनाव के दौरान हुई थी, जब राज्य प्रशासन ने राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों के लिये एक ‘आचार संहिता' तैयार की थी।
    • इसके पश्चात् वर्ष 1962 के लोकसभा चुनाव में निर्वाचन आयोग (EC) ने सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों और राज्य सरकारों को फीडबैक के लिये आचार संहिता का एक प्रारूप भेजा, जिसके बाद से देश भर के सभी राजनीतिक दलों द्वारा इसका पालन किया जा रहा है।
    • वर्ष 1991 में चुनाव के नियमों के बार-बार उल्लंघन और भ्रष्टाचार जारी रहने के बाद चुनाव आयोग ने MCC को और सख्ती से लागू करने का फैसला किया।
  • राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों हेतु MCC:
    • प्रतिबंधित:
      • राजनीतिक दलों की आलोचना केवल उनकी नीतियों, कार्यक्रमों, पिछले रिकॉर्ड और कार्य तक सीमित होनी चाहिये।
      • जातिगत और सांप्रदायिक भावनाओं को आहत करने, असत्यापित रिपोर्टों के आधार पर उम्मीदवारों की आलोचना करने, मतदाताओं को रिश्वत देने या डराने और किसी के विचारों का विरोध करते हुए उसके घर के बाहर प्रदर्शन या धरना देने जैसी गतिविधियाँ पूर्णतः निषिद्ध हैं।
    • बैठकें:
      • पार्टियों को किसी भी बैठक के स्थान और समय के बारे में स्थानीय पुलिस अधिकारियों को समय पर सूचित करना चाहिये ताकि पुलिस पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था कर सके।
    • जुलूस:
      • यदि दो अथवा दो से अधिक उम्मीदवार एक ही मार्ग से जुलूस निकालने की योजना बनाते हैं, तो राजनीतिक दलों को यह सुनिश्चित करने के लिये पहले से संपर्क कर लेना करना चाहिये ताकि जुलूस में आपसी टकराव न हो।
      • राजनीतिक दलों के सदस्यों का प्रतिनिधित्त्व करने वालों को पुतले ले जाने और जलाने की अनुमति नहीं है।
    • चुनाव के दिन:
      • केवल मतदाताओं और चुनाव आयोग से प्राप्त वैध पास वाले लोगों को ही मतदान केंद्रों में प्रवेश करने की अनुमति होती है।
      • मतदान केंद्रों पर सभी अधिकृत पार्टी कार्यकर्त्ताओं को उपयुक्त बैज अथवा पहचान पत्र दिया जाना चाहिये।
      • उनके द्वारा मतदाताओं को दी जाने वाली पहचान पर्ची सादे (सफेद) कागज़ पर होगी और उसमें कोई प्रतीक, उम्मीदवार का नाम अथवा पार्टी का नाम नहीं होगा।
    • प्रेक्षक:
      • कोई भी उम्मीदवार चुनाव के संचालन के संबंध में समस्याओं की रिपोर्ट चुनाव आयोग द्वारा नियुक्त पर्यवेक्षकों को कर सकता है।
    • सत्ताधारी पार्टी:
      • MCC ने सत्ताधरी पार्टी के आचरण को विनियमित करते हुए वर्ष 1979 में कुछ प्रतिबंधों को शामिल किया। मंत्रियों की आधिकारिक यात्राएँ और चुनाव कार्य पृथक होने चाहिये अथवा चुनाव कार्य के लिये आधिकारिक साधनों का उपयोग नहीं करना चाहिये।
      • पार्टी को सरकारी संसाधनों की कीमत पर विज्ञापन देने अथवा चुनावों में जीत की संभावनाओं को बेहतर बनाने के लिये उपलब्धियों के प्रचार हेतु आधिकारिक जन मीडिया का उपयोग करने से बचना चाहिये।
      • आयोग द्वारा चुनावों की घोषणा किये जाने के समय से मंत्रियों और अन्य अधिकारियों को किसी भी वित्तीय अनुदान की घोषणा नहीं करनी चाहिये, सड़कों के निर्माण, पीने के जल की व्यवस्था आदि का वादा नहीं करना चाहिये। अन्य दलों को सार्वजनिक स्थानों तथा विश्रामगृहों का उपयोग करने की अनुमति दी जानी चाहिये और इन पर सत्ताधरी पार्टी का एकाधिकार नहीं होना चाहिये।
    • चुनावी घोषणापत्र:
      • भारतीय निर्वाचन आयोग का निर्देश है कि राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों को किसी भी चुनाव (संसद/राज्य विधानमंडल) के लिये चुनावी घोषणा पत्र जारी करते समय निम्नलिखित दिशा-निर्देशों का पालन करना आवश्यक है:
        • इस चुनाव घोषणापत्र में संविधान में निहित आदर्शों और सिद्धांतों के खिलाफ कुछ भी नहीं होगा।
        • राजनीतिक दलों को ऐसे वादे करने से बचना चाहिये जिनसे चुनाव प्रक्रिया की शुद्धता धूमिल होने या मतदाताओं पर अनुचित प्रभाव डालने की संभावना हो।
        • घोषणापत्र में वादों के औचित्य को प्रतिबिंबित करना चाहिये और इसके लिये वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के तरीकों एवं साधनों को व्यापक रूप से इंगित करना चाहिये।
      • जनप्रतिनिधित्त्व अधिनियम, 1951 की धारा 126 के तहत एकल या बहु-चरणीय चुनावों के लिये निर्धारित प्रतिबंधात्मक अवधि के दौरान घोषणापत्र जारी नहीं किया जाएगा।

MCC में कुछ हालिया परिवर्द्धन:

  • ECI द्वारा अधिसूचित अवधि के दौरान ओपिनियन पोल और एग्जिट पोल का विनियमन।
  • मतदान के दिन और उससे एक दिन पहले प्रिंट मीडिया में विज्ञापनों पर प्रतिबंध जब तक कि विषय-वस्तु स्क्रीनिंग समितियों द्वारा पूर्व-प्रमाणित न हो।
  • चुनाव अवधि के दौरान राजनीतिक पदाधिकारियों की विशेषता वाले सरकारी विज्ञापनों पर प्रतिबंध।

MCC कानूनी रूप से लागू करने योग्य:

  • हालाँकि MCC के पास कोई वैधानिक समर्थन नहीं है, लेकिन निर्वाचन आयोग द्वारा इसके सख्त प्रवर्तन के कारण पिछले एक दशक में इसने शक्ति हासिल की है।
    • MCC के कुछ प्रावधानों को IPC 1860, CrPC 1973 और RPA 1951 जैसे अन्य कानूनों में संबंधित प्रावधानों के साथ लागू किया जा सकता है।
  • वर्ष 2013 में कार्मिक, लोक शिकायत, कानून एवं न्याय संबंधी स्थायी समिति ने MCC को कानूनी रूप से बाध्यकारी तथा RPA 1951 का हिस्सा बनाने की सिफारिश की।
  • हालाँकि ECI इसे कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाने के खिलाफ है। इसके अनुसार, चुनावों को अपेक्षाकृत कम समय या 45 दिनों के करीब पूरा किया जाना चाहिये क्योंकि न्यायिक कार्यवाही में सामान्यतः अधिक समय लगता है, इसलिये इसे कानून द्वारा लागू करने योग्य बनाना संभव नहीं है।

MCC की आलोचनाएँ:

  • कदाचार पर अंकुश लगाने में अप्रभावी:
    • MCC हेट स्पीच, फेक न्यूज़, धन बल, बूथ कैप्चरिंग, मतदाताओं को डराने-धमकाने और हिंसा जैसी चुनावी कदाचारों को रोकने में विफल रही है।
    • ECI को नई प्रौद्योगिकियों और सोशल मीडिया प्लेटफाॅर्मों द्वारा भी चुनौती दी जाती है जो गलत सूचना को तीव्र रूप से फैलाने तथा उसका व्यापक रूप से प्रसार करते हैं।
  • कानूनी प्रवर्तनीयता का अभाव:
    • MCC, वैद्यानिक रूप से बाध्यकारी दस्तावेज़ नहीं है, वह अनुपालन के लिये केवल नैतिक अनुनय और जनमत पर निर्भर करती है।
  • शासन के साथ हस्तक्षेप:
    • MCC नीतिगत निर्णयों, सार्वजनिक व्यय, कल्याणकारी योजनाओं, स्थानांतरण और नियुक्तियों पर प्रतिबंध लगाती है।
    • MCC को बहुत जल्दी या बहुत देर से लागू करने, विकास गतिविधियों और सार्वजनिक हित को प्रभावित करने के लिये ECI की अक्सर आलोचना की जाती है।
  • जागरूकता और अनुपालन की कमी:
    • इसे व्यापक रूप से मतदाताओं, उम्मीदवारों, पार्टियों और सरकारी अधिकारियों द्वारा नहीं समझा जाता है।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न:

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2017)

  1. भारत का चुनाव आयोग पांँच सदस्यीय निकाय है।
  2. केंद्रीय गृह मंत्रालय आम चुनाव और उपचुनाव दोनों के संचालन के लिये चुनाव कार्यक्रम तय करता है।
  3. चुनाव आयोग मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों के विभाजन/विलय से संबंधित विवादों का समाधान करता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2
(c) केवल 2 और 3
(d) केवल 3

उत्तर: (d)

मेन्स:

प्रश्न. आदर्श आचार संहिता के विकास के आलोक में भारत के चुनाव आयोग की भूमिका पर चर्चा कीजिये। (मुख्य परीक्षा, 2022)

स्रोत: द हिंदू


जैव विविधता और पर्यावरण

जलवायु परिवर्तन से निपटने में पेरिस समझौते की विफलता

प्रिलिम्स के लिये:

पेरिस समझौता, भारत का राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान लक्ष्य, जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क अभिसमय, स्टेट ऑफ द ग्लोबल क्लाइमेट 2022 रिपोर्ट

मेन्स के लिये:

हू इज़ टिपिंग द स्केल रिपोर्ट: IPES

चर्चा में क्यों?

हाल ही में विश्व मौसम विज्ञान संगठन (World Meteorological Organization- WMO) ने स्टेट ऑफ द ग्लोबल क्लाइमेट 2022 रिपोर्ट जारी की जिसमें बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौता अपने एजेंडे को पूरा करने में अप्रभावी रहा है।

  • पेरिस समझौता जलवायु परिवर्तन पर चल रही वैश्विक वार्ता का केंद्रीय बिंदु है, इस पर वर्ष 2015 में हस्ताक्षर किये गए थे।

रिपोर्ट के अनुसार पेरिस समझौते का प्रदर्शन:

  • जलवायु संबंधी लक्ष्यों को प्राप्त करने में असमर्थता:
    • इस समझौते पर हस्ताक्षर करने के उपरांत पिछले आठ वर्ष (2015-2022) विश्व स्तर पर लगातार सबसे गर्म वर्ष रहे हैं।
      • यदि पिछले तीन वर्षों में ला नीना की घटना नहीं हुई होती, जिसका मौसम प्रणाली पर शीतलन प्रभाव पड़ता है, तो स्थिति और भी खराब हो सकती थी।
    • अद्यतित 2 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य (जबकि 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य भी प्राप्त नहीं किया जा सका है) के संदर्भ में विश्व स्तर पर अद्यतन राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) संबंधी जानकारी स्पष्ट नहीं है।
    • जीवाश्म ईंधन जलवायु संकट के लिये मुख्य रूप से ज़िम्मेदार कारक है, यह पेरिस समझौते के तहत इसके उपयोग को पूरी तरह से समाप्त करने की प्रतिबद्धता में सफल नहीं रहा है।
    • जलवायु-प्रेरित चरम मौसमी घटनाओं से निपटने के लिये न तो NDC और न ही आपदा जोखिम में कमी और जलवायु जोखिम प्रबंधन योजनाएँ कारगर रही हैं।
  • सुझाव:
    • पेरिस समझौते के पूरक हेतु जीवाश्म ईंधन संधि के रूप में एक नया वैश्विक ढाँचा पेश किया जाना चाहिये।
    • अधिकांश औद्योगिक और उत्सर्जन उत्पादक देशों को पेरिस समझौते की शर्तों का पालन करने हेतु बाध्य किया जाना चाहिये।
    • तीव्र और तेज़ कार्बन कटौती के साथ त्वरित जलवायु कार्रवाई की आवश्यकता है, क्योंकि साधन, सूचना और समाधान मौजूद हैं।
    • अनुकूलन और लचीलापन में बड़े पैमाने पर निवेश करने की आवश्यकता है, विशेष रूप से सबसे कमज़ोर देशों और समुदायों के लिये जिन्होंने संकट पैदा करने में कम- से-कम काम योगदान दिया है।

जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौता:

  • यह जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क अभिसमय (United Nations Framework Convention on Climate Change- UNFCCC) के तहत कानूनी रूप से बाध्यकारी वैश्विक समझौता है जिसे 2015 में अपनाया गया था। इसे UNFCCC COP21 में अपनाया गया था।
    इसका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन का सामना करना और ग्लोबल वार्मिंग को पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 2oC से नीचे तक सीमित करना है, साथ ही वार्मिंग को 1.5oC तक सीमित करने का लक्ष्य है।
  • इसने क्योटो प्रोटोकॉल के रूप में प्रसिद्ध पूर्व जलवायु परिवर्तन समझौते का स्थान लिया है।
  • पेरिस समझौता ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के अनुकूल होने और जलवायु परिवर्तन को उजागर करने के अपने प्रयासों में विकासशील देशों को सहायता प्रदान करने हेतु एक साथ काम करने के लिये देशों के संदर्भ में रूपरेखा तैयार करता है।
  • पेरिस समझौते के तहत प्रत्येक देश को ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने और जलवायु परिवर्तन को अपनाने के लिये अपनी योजनाओं की रूपरेखा तैयार करते हुए उसे प्रत्येक 5 वर्ष में NDC को प्रस्तुत और अद्यतन करने की आवश्यकता होती है।
    • NDC, देशों द्वारा अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के अनुकूल बनाने हेतु लिया गया एक वचनपत्र है।
    • भारत के अद्यतन NDC:

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न: 

प्रिलिम्स:

प्रश्न. "अभीष्ट राष्ट्रीय निर्धारित अंशदान (Intended Nationally Determined Contributions)" पद को कभी-कभी समाचारों में किस संदर्भ में देखा जाता है? (2016)

  1. युद्ध-प्रभावित मध्य-पूर्व के शरणार्थियों के पुनर्वास के लिये यूरोपीय देशों द्वारा दिया गया वचन
  2. जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिये विश्व के देशों द्वारा बनाई गई कार्ययोजना
  3. एशियाई अवसंरचना निवेश बैंक (एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक) की स्थापना करने में सदस्य राष्ट्रों द्वारा किया गया पूंजी योगदान
  4. धारणीय विकास लक्ष्यों के बारे में विश्व के देशों द्वारा बनाई गई कार्ययोजना

उत्तर : (B)

प्रश्न. वर्ष 2015 में पेरिस में UNFCCC की बैठक में हुए समझौते के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (2016)

  1. समझौते पर संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य देशों ने हस्ताक्षर किये थे और यह 2017 में प्रभावी होगा।
  2. समझौते का उद्देश्य ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को सीमित करना है ताकि इस सदी के अंत तक औसत वैश्विक तापमान में वृद्धि पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 2 डिग्री सेल्सियस या 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक न हो।
  3. विकसित देशों ने ग्लोबल वार्मिंग में अपनी ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी को स्वीकार किया और विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद करने के लिये वर्ष 2020 से प्रतिवर्ष $1000 बिलियन दान करने के लिये प्रतिबद्ध हैं।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

  1. केवल 1 और 3
  2. केवल 2
  3. केवल 2 और 3
  4. 1, 2 और 3

उत्तर: (b)

मेन्स:

प्रश्न. 'जलवायु परिवर्तन' एक वैश्विक समस्या है। जलवायु परिवर्तन से भारत कैसे प्रभावित होगा? भारत के हिमालयी और तटीय राज्य जलवायु परिवर्तन से कैसे प्रभावित होंगे? (2017)


प्रश्न. संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) के पक्षकारों के सम्मेलन (COP) के 26वें सत्र के प्रमुख परिणामों का वर्णन कीजिये। इस सम्मेलन में भारत द्वारा की गई प्रतिबद्धताएँ क्या हैं? (2021)


स्रोत: डाउन टू अर्थ


शासन व्यवस्था

राष्ट्रीय स्वास्थ्य लेखा अनुमान

प्रिलिम्स के लिये:

आउट-ऑफ-पॉकेट व्यय, WHO, सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज

मेन्स के लिये:

राष्ट्रीय स्वास्थ्य लेखा अनुमान

चर्चा में क्यों?

  • हाल ही में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने भारत के लिये 7वाँ राष्ट्रीय स्वास्थ्य लेखा (National Health Accounts- NHA) अनुमान (2019-20) जारी किया है, जिसे राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणाली संसाधन केंद्र द्वारा तैयार किया गया है।
    • NHA अनुमान विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization- WHO) द्वारा प्रदान किये गए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत स्वास्थ्य लेखा प्रणाली 2011 के आधार पर लेखांकन ढाँचे का उपयोग कर तैयार किये जाते हैं।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणाली संसाधन केंद्र:

  • इसकी स्थापना वर्ष 2006-07 में भारत सरकार के राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (National Rural Health Mission- NRHM) के तहत तकनीकी सहायता हेतु एक शीर्ष निकाय के रूप में की गई थी।
  • इसका जनादेश नीति एवं रणनीति तैयार करने, राज्यों हेतु तकनीकी सहायता जुटाने, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (MoHFW) हेतु क्षमता निर्माण तथा स्वास्थ्य देखभाल के प्रावधान का समर्थन करना है।

प्रमुख बिंदु

स्वास्थ्य संकेतक परिभाषा विकसित रुझानों के आँकड़े
पॉकेट व्यय (OOPE) से बाहर OOPE, स्वास्थ्य संरक्षण प्राप्त करने के बिंदुओं पर परिवारों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से भुगतान किया जाने वाला धन है। यह तब होता है जब न तो सरकारी स्वास्थ्य सुविधा के माध्यम से सेवाएँ मुफ्त प्रदान की जाती हैं, न ही व्यक्ति को किसी सार्वजनिक या निजी बीमा या सामाजिक सुरक्षा योजना के तहत सुरक्षा प्रदान की जाती है। कुल स्वास्थ्य व्यय में OOPE की भागीदारी वर्ष 2014-15 के 62.6% से घटकर 2019-20 में 47.1% हो गई है।
सरकारी स्वास्थ्य व्यय (GHE) जब धन को सरकारी संगठनों के माध्यम से सरकार की निम्नतम स्वास्थ्य प्रणाली के लिये दिया जाता है तब GHE केंद्र, राज्य और स्थानीय सरकारों द्वारा वित्तपोषित एवं प्रबंधित सभी योजनाओं के तहत खर्च करता है, जिसमें अर्द्ध-सरकारी संगठन और दानकर्त्ता शामिल हैं। देश की कुल GDP में GHE की भागीदारी 1.13% (2014-15) से बढ़कर 1.35% (2019-20) हो गई।
सामान्य सरकारी व्यय (GGE)

यह सरकारी हिस्से का अनुपात है।

यह सामान्य सरकारी व्यय में स्वास्थ्य देखभाल के लिये व्यय और स्वास्थ्य देखभाल के प्रति सरकार की प्राथमिकता को इंगित करता है।

IGGE में वर्ष 2014-15 और वर्ष 2019-20 के बीच स्वास्थ्य क्षेत्र के व्यय का भाग लगातार 3.94% से बढ़कर 5.02% हो गया है।

कुल स्वास्थ्य व्यय (THE)

वर्तमान पूंजी का गठन करता है

बाहरी निधियों सहित सरकारी और निजी स्रोतों द्वारा किये गए व्यय।

I वर्ष 2014-15 और 2019-20 के बीच देश के कुल स्वास्थ्य व्यय (THE) में GHE की हिस्सेदारी 29% से बढ़कर 41.4% हो गई है।
सामाजिक सुरक्षा व्यय (SSE)

सस्वास्थ्य पर एसएसई की हिस्सेदारी, जिसमें सरकार द्वारा वित्तपोषित स्वास्थ्य बीमा, सरकारी कर्मचारियों को चिकित्सा प्रतिपूर्ति और सामाजिक स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम शामिल हैं.

स्वास्थ्य पर एसएसई की हिस्सेदारी वर्ष 2014-15 के 5.7% से बढ़कर वर्ष 2019-20 में 9.3% हो गई है।
निजी स्वास्थ्य बीमा व्यय (PHIE)

PHIE स्वास्थ्य बीमा कंपनियों के माध्यम से खर्च करता है, जहाँ परिवार या नियोक्ता एक विशिष्ट स्वास्थ्य योजना के तहत कवर किये जाने के लिये प्रीमियम का भुगतान करते हैं।

कुल स्वास्थ्य व्यय में से निजी स्वास्थ्य बीमा व्यय वर्ष 2013-14 के 3.4% से बढ़कर वर्ष 2019-20 में 7% हो गया है।

स्वास्थ्य के लिये बाहरी/दाता अनुदान यह दाताओं की सहायता से देश के लिये उपलब्ध सभी निधियों को संघटित करता है। यह वर्ष 2013-14 के 0.3% से बढ़कर वर्ष 2019-20 में कुल स्वास्थ्य व्यय का 0.5% हो गया है।

आगे की राह

  • राज्य सरकारों को स्वास्थ्य देखभाल पर खर्च को बढ़ाकर अपने कुल बजट का लगभग 8% प्रतिशत तक करना चाहिये, वर्तमान में कई राज्यों के लिये यह आँकड़ा 4-5% है और "यह खर्च नागरिकों की सहायता के समग्र लक्ष्य के अनुरूप होना चाहिये"।
  • प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल पर खर्च के पैटर्न को बनाए रखना आवश्यक है ताकि प्राथमिक एवं पूर्ण स्वास्थ्य के लिये निवारक और प्रचारात्मक उपायों पर ध्यान दिया जा सके।
  • पंद्रहवें वित्त आयोग की सिफारिशों के अनुसार, सरकार द्वारा स्‍वास्‍थ्‍य पर किये जाने वाले खर्च को वर्ष 2025 तक जीडीपी के प्रतिशत से 2.5 प्रतिशत करने की नीतिगत सिफारिश की गई है।
    • वर्तमान में 20% आबादी के पास सामाजिक और निजी स्वास्थ्य बीमा है, जबकि शेष 30%, जिन्हें "मिसिंग मिडिल" के रूप में जाना जाता है, के पास कोई स्वास्थ्य बीमा नहीं है।

हेल्थकेयर से संबंधित पहल:

स्रोत: पी.आई.बी.


भारतीय अर्थव्यवस्था

धार्मिक स्वतंत्रता

प्रिलिम्स के लिये:

धार्मिक स्वतंत्रता, अनुच्छेद 25-28, मौलिक अधिकार, NIA, CBI, जबरन धर्मांतरण

मैंस के लिये:

धार्मिक स्वतंत्रता और संबंधित संवैधानिक प्रावधान

चर्चा में क्यों?

हाल ही में तमिलनाडु सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका के प्रत्युत्तर में कहा है कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25 (धार्मिक स्वतंत्रता) प्रत्येक नागरिक को अपने धर्म का प्रचार करने का अधिकार प्रदान करता है।

  • याचिकाकर्त्ता ने याचिका में मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर तमिलनाडु में जबरन धर्मांतरण करने की घटनाओं के बारे में शिकायत की थी।

मामला:

  • याचिकाकर्त्ता ने NIA (राष्ट्रीय जाँच एजेंसी)/CBI (केंद्रीय जाँच ब्यूरो) द्वारा तमिलनाडु में एक 17 वर्षीय लड़की की मृत्यु के "मूल कारण" की जाँच करने की मांग की, याचिकाकर्त्ता का आरोप है कि लड़की को ईसाई धर्म में परिवर्तित करने के लिये मजबूर किया गया था। याचिका में तर्क दिया गया था कि जबरन या धोखे से धर्मांतरण मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
  • तमिलनाडु सरकार ने इसका जवाब देते हुए कहा है कि मिशनरियों (प्रचारकों) द्वारा ईसाई धर्म का प्रसार करने को अवैध रूप से नहीं देखा जा सकता है क्योंकि संविधान प्रत्येक नागरिक को अनुच्छेद 25 के तहत अपने धर्म का प्रचार करने का अधिकार प्रदान करता है।
    • यदि उनका अपने धर्म के प्रसार का कार्य सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के विपरीत है और संविधान के भाग III के अन्य प्रावधानों के खिलाफ है तो इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिये।

धर्म की स्वतंत्रता:

  • परिचय:
    • प्रत्येक नागरिक को अधिकार है कि वह अपनी पसंद के धर्म का प्रचार-प्रसार, अभ्यास करने के लिये स्वतंत्र है।
      • यह सरकार के हस्तक्षेप के भय के बिना सभी को अपने धर्म का प्रचार करने के अधिकार का अवसर प्रदान करता है।
      • लेकिन साथ ही राज्य द्वारा यह अपेक्षा की जाती है कि वह देश के अधिकार क्षेत्र के भीतर सौहार्दपूर्ण ढंग से इसका अभ्यास करे।
  • आवश्यकता:
    • भारत विभिन्न धर्मों का पालन करने वाले और विभिन्न धर्मों को मानने वाले लोगों का देश है। प्यू रिसर्च सेंटर के वर्ष 2021 के आँकड़ों के अनुसार, 4,641,403 लोग ऐसे हैं जो छह प्रमुख धर्मों- हिंदू धर्म, जैन धर्म, इस्लाम, बौद्ध धर्म, सिख धर्म और ईसाई धर्म के अलावा अन्य धर्मों का पालन करते हैं।
    • इसलिये इतनी विविधतापूर्ण आबादी के साथ विभिन्न धर्मों और विश्वासों का पालन करते हुए प्रत्येक धर्म की आस्था के संबंध में अधिकारों की रक्षा और उन्हें सुरक्षित करना आवश्यक हो जाता है।
  • धर्मनिरपेक्षता:
    • 1976 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान की प्रस्तावना में 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द को जोड़ा गया। भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य होने के नाते इसका कोई राज्य धर्म नहीं है जिसका अर्थ है कि यह किसी विशेष धर्म का पालन नहीं करता है।
      • अहमदाबाद सेंट जेवियर्स कॉलेज बनाम गुजरात राज्य (1975) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ न तो ईश्वर विरोधी है और न ही ईश्वर समर्थक। यह सिर्फ यह सुनिश्चित करता है कि राज्य के मामलों में ईश्वर की अवधारणा को समाप्त करते हुए धर्म के आधार पर किसी को अलग नहीं किया जाए।
  • धर्म की स्वतंत्रता से संबंधित कुछ प्रावधान:
    • अनुच्छेद 25: यह धार्मिक स्वतंत्रता को बढ़ावा देता है, जिसमें किसी धर्म को स्वतंत्र रूप से मानने, अभ्यास करने और प्रचार करने का अधिकार शामिल है।
    • अनुच्छेद 26: यह धार्मिक मामलों के प्रबंधन की स्वतंत्रता देता है।
    • अनुच्छेद 27: यह किसी धर्म विशेष के प्रचार के लिये करों के भुगतान के रूप में स्वतंत्रता निर्धारित करता है।
    • अनुच्छेद 28: यह कुछ शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक शिक्षा अथवा धार्मिक पूजा में उपस्थिति होने की स्वतंत्रता देता है।

धर्मनिरपेक्षता, भारत बनाम संयुक्त राष्ट्र:

  • भारत धर्म के प्रति 'तटस्थता' और 'सकारात्मक भूमिका' की अवधारणा का अनुसरण करता है। राज्य धार्मिक सुधार लागू कर सकता है, अल्पसंख्यकों की रक्षा कर सकता है तथा धार्मिक मामलों पर नीतियों का निर्माण कर सकता है।
  • अमेरिका धर्म के मामलों में 'अहस्तक्षेप' के सिद्धांत का पालन करता है। राज्य धार्मिक मामलों में कोई कार्रवाई नहीं कर सकता है।

धर्म की स्वतंत्रता पर प्रमुख न्यायिक घोषणाएँ:

  • बिजोय इमैनुएल और अन्य बनाम केरल राज्य (1986):
    • इस मामले में यहोवा के साक्षी संप्रदाय के तीन बच्चों को स्कूल से निलंबित कर दिया गया था क्योंकि उन्होंने यह दावा करते हुए राष्ट्रगान गाने से इनकार कर दिया कि यह उनके विश्वास के सिद्धांतों के खिलाफ है। न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह निष्कासन मौलिक अधिकारों और धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है।
  • आचार्य जगदीश्वरानंद बनाम पुलिस आयुक्त, कलकत्ता (1983):
    • न्यायालय के निर्णय के अनुसार, आनंद मार्ग कोई अलग धर्म नहीं बल्कि एक धार्मिक संप्रदाय है और सार्वजनिक सड़कों पर तांडव का प्रदर्शन आनंद मार्ग का एक आवश्यक अभ्यास नहीं है।
  • एम. इस्माइल फारूकी बनाम भारत संघ (1994):
    • सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, मस्जिद इस्लाम की एक आवश्यक प्रथा नहीं है, अतः एक मुसलमान खुले स्थान पर कहीं भी नमाज (प्रार्थना) कर सकता है।
  • राजा बिराकिशोर बनाम उड़ीसा राज्य (1964):
    • इसमें जगन्नाथ मंदिर अधिनियम, 1954 की वैधता को चुनौती दी गई थी क्योंकि इसने पुरी मंदिर के मामलों के प्रबंधन के प्रावधानों को इस आधार पर अधिनियमित किया था कि यह अनुच्छेद 26 का उल्लंघन था। न्यायालय ने कहा कि अधिनियम केवल सेवा पूजा के धर्मनिरपेक्ष पहलू को विनियमित करता है, अतः यह अनुच्छेद 26 का उल्लंघन नहीं है।

नोट:

  • कर्नाटक, अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों ने धर्म परिवर्तन को प्रतिबंधित करने वाले कानून पारित किये हैं।
  • मार्च 2022 में हरियाणा राज्य विधानसभा ने प्रलोभन, ज़बरदस्ती या धोखाधड़ी के माध्यम से धर्म परिवर्तन के खिलाफ हरियाणा धर्म परिवर्तन रोकथाम विधेयक, 2022 पारित किया।
  • अगस्त 2022 में हिमाचल प्रदेश सरकार ने हिमाचल प्रदेश धर्म स्वतंत्रता (संशोधन) विधेयक, 2022 भी पारित किया, जिसमें बड़े पैमाने पर धर्मांतरण को अपराध बनाने की मांग की गई थी।

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न: 

प्रश्न. धर्मनिरपेक्षता की भारतीय अवधारणा धर्मनिरपेक्षता के पश्चिमी मॉडल से कैसे भिन्न है? चर्चा कीजिये। (मुख्य परीक्षा, 2016)


स्रोत: द हिंदू


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