डेली न्यूज़ (01 Apr, 2022)



‘राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम’ के तहत फिल्म निकायों का विलय

प्रिलिम्स के लिये:

राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम, केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (CBFC)

मेन्स के लिये:

राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम के तहत फिल्म निकायों के विलय से संबंधित मुद्दे।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने चार फिल्म मीडिया इकाइयों के विलय की घोषणा की है, जिसके तहत फिल्म डिवीज़न, फिल्म समारोह निदेशालय, भारतीय राष्ट्रीय फिल्म संग्रह और बाल चित्र समिति को ‘राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम’ में मिलाया जाएगा।

  • यह निर्णय बिमल जुल्का के नेतृत्व वाली विशेषज्ञ समिति (2020) की फिल्म मीडिया इकाइयों के युक्तिकरण और विलय पर रिपोर्ट के अनुरूप है।

प्रमुख बिंदु

  • चार फिल्म मीडिया इकाइयों के विषय में:
    • फिल्म डिवीज़न:
      • यह वर्ष 1948 में स्थापित किया गया था और चारों इकाइयों में सबसे पुराना है।
      • इसे मुख्य रूप से सरकारी कार्यक्रमों के प्रचार हेतु वृत्तचित्रों के निर्माण और समाचार पत्रिकाओं का प्रकाशन और भारतीय इतिहास का सिनेमाई रिकॉर्ड रखने के लिये बनाया गया था।
    • फिल्म समारोह निदेशालय:
      • भारत सरकार द्वारा वर्ष 1973 में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के तहत स्थापित फिल्म समारोह निदेशालय को भारतीय फिल्मों को बढ़ावा देने का कार्य सौंपा गया है।
      • यह फिल्म आधारित सांस्कृतिक आदान-प्रदान के माध्यम से अंतर-सांस्कृतिक समझ को बढ़ावा देने का भी प्रयास करता है।
    • भारतीय राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार:
      • भारतीय सिनेमाई विरासत की प्राप्ति और उसे संरक्षित करने के प्राथमिक उद्देश्य के साथ वर्ष 1964 में भारतीय राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार की स्थापना की गई थी।
    • बाल चित्र समिति (CFSI):
      • बाल चित्र समिति (Children’s Film Society of India-CFSI ने वर्ष 1955 में सूचना और प्रसारण मंत्रालय के तहत एक स्वायत्त निकाय के रूप में कार्य करना प्रारंभ किया।
      • CFSI ऐसी फिल्मों को बढ़ावा देता है जो बच्चों को स्वस्थ और सर्वांगीण मनोरंजन प्रदान कर उनके दृष्टिकोण को विश्व भर में प्रतिबिंबित करने में प्रोत्साहित कर सके।
  • NFDC के बारे में:
    • राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम (NFDC) सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधीन कार्यरत एक सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रम (PSU) है, जिसकी स्थापना वर्ष 1975 में भारतीय फिल्म उद्योग के एकीकृत विकास को संवर्द्धित और व्यवस्थित करने तथा सिनेमा में उत्कृष्टता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से की गई थी।
    • वर्तमान में रविंदर भाकर इसके अध्यक्ष हैं, जो कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी भी हैं।

विलय का महत्त्व:

  • बेहतर समन्वय:
    • इन सभी को एक प्रबंधन के तहत लाने से विभिन्न गतिविधियों के बीच ओवरलैप की स्थिति में कमी आएगी जिससे सार्वजनिक संसाधनों का बेहतर उपयोग सुनिश्चित हो सकेगा।
  • फिल्मों के निर्माण में प्रोत्साहन:
  • यह फीचर फिल्मों, वृत्तचित्रों, बाल फिल्मों और एनीमेशन फिल्मों सहित सभी शैलियों की फिल्मों के निर्माण तथा विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय समारोहों में भागीदारी के माध्यम से फिल्मों का प्रचार व विभिन्न समारोहों का घरेलू स्तर पर आयोजन, फिल्मी सामग्री का संरक्षण, फिल्मों का डिजिटलीकरण, बहाली एवं वितरण तथा आउटरीच गतिविधियाँ को मज़बूती के साथ प्रोत्साहन प्रदान करेगा।
    • हालाँकि इन इकाइयों की उपलब्ध संपत्ति का स्वामित्व भारत सरकार के पास रहेगा।

विलय से संबंधित मुद्दे:

  • राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम के घाटे की स्थिति:
    • घाटे में चल रहे निगम के साथ चार सार्वजनिक वित्तपोषित निकायों का विलय किया जा रहा है।
  • विलय को लेकर कोई ठोस योजना नहीं:
    • अभिलेखागार का हस्तांतरण कैसे किया जाएगा, इस संबंध में कोई ठोस योजना नहीं बनाई गई है क्योंकि सेल्युलाइड ('सिनेमैटोग्राफिक फिल्म के लिये प्रयुक्त किया जाने वाला पद) भंगुर और ज्वलनशील सामग्री होती है।
    • यदि NFDC लाभ अर्जित नहीं करेगा तो विनिवेश की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। उस स्थिति में यदि हमारे अभिलेखागार स्वायत्त सार्वजनिक संस्थान नहीं रहते हैं, तो निसंदेह उनके साथ छेड़छाड़ की जाएगी, उन्हें क्षतिग्रस्त किया जाएगा या हमेशा के लिये नष्ट कर दिया जाएगा।

भारतीय फिल्म उद्योग की स्थिति:

  • भारत विश्व स्तर पर फिल्मों का सबसे बड़ा निर्माता है। निजी क्षेत्र के नेतृत्व में यह उद्योग एक वर्ष में 3000 से अधिक फिल्मों का निर्माण करता है।
  • वित्तीय वर्ष 2020 में भारत में फिल्म उद्योग व्यवसाय लगभग 183 बिलियन रुपए का था।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


MSMEs के लिये RAMP योजना

प्रिलिम्स के लिये:

RAMP योजना, KV कामथ समिति, PMEAC, सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम मंत्रालय (MoMSME)।

मेन्स के लिये:

भारतीय अर्थव्यवस्था और संबंधित योजनाओं में एमएसएमई का महत्त्व।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने एमएसएमई के प्रदर्शन को बेहतर और तेज़ करने यानी RAMP (Rising and Accelerating MSME Performance) योजना को मंज़ूरी दी है, जिसकी शुरुआत वित्त वर्ष 2022-23 में होगी।

RAMP योजना

  • परिचय:
  • उद्देश्य:
    • बाज़ार और ऋण तक पहुँच में सुधार।
    • केंद्र एवं राज्यों में स्थित विभिन्‍न संस्थानों और शासन को मज़बूत करना
    • केंद्र-राज्य संबंधों और साझेदारियों को बेहतर करना 
    • MSME द्वारा विलंबित भुगतान और पर्यावरण अनुकूल उत्पाद एवं प्रक्रियाओं से संबंधित मुद्दों को सुलझाना। 
  • घटक:
    • RAMP का महत्त्वपूर्ण घटक रणनीतिक निवेश योजना (SIP) तैयार करना है जिसमें सभी राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों को आमंत्रित किया जाएगा।
      • SIP और RAMP के अंतर्गत सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों  हेतु योजना के रूप में प्रमुख बाधाओं और अंतरालों की पहचान करना, विशेष उपलब्धियों एवं परियोजना का निर्धारण तथा नवीकरणीय ऊर्जा, ग्रामीण व गैर-कृषि व्यवसाय, थोक एवं खुदरा व्यापार, ग्रामीण और कुटीर उद्योग, महिला उद्यम आदि प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के लिये आवश्यक बजट पेश करना शामिल है।
    • RAMP की समग्र निगरानी और नीति का अवलोकन एक शीर्ष राष्ट्रीय MSME परिषद द्वारा किया जाएगा।
      • इसमें विभिन्न मंत्रालयों के प्रतिनिधियों सहित MSME मंत्रालय के मंत्री शामिल होंगे। इस योजना के तहत MSME मंत्रालय के ​​सचिव की अध्यक्षता में एक कार्यक्रम समिति गठित होगी। 
  • निधियन:
    • इस योजना के लिये कुल परिव्यय 6,062.45 करोड़ रुपए है जिसमें से 3750 करोड़ रुपए विश्व बैंक से ऋण के रूप में प्राप्‍त होंगे तथा शेष 2312.45 करोड़ रुपए की व्यवस्था भारत सरकार द्वारा की जाएगी।
  • कार्यान्वयन रणनीति:
    • बाजार पहुँच और प्रतिस्पर्द्धात्मकता में सुधार पर ध्यान केंद्रित करते हुए MSME मंत्रालय के वर्तमान कार्यक्रमों का समर्थन करने के लिये भुगतान से जुड़े संकेतकों (Disbursement Linked Indicators- DLIs) से अलग मंत्रालय के बजट में RAMP के माध्यम से वित्त का आवंटन होगा।
    • विश्व बैंक से RAMP के लिये प्राप्त निधियों की अदायगी, भुगतान से जुड़े निम्नलिखित संकेतकों को पूरा करने हेतु की जाएगी:
      • राष्ट्रीय MSME सुधार एजेंडा को लागू करना।
      • MSME क्षेत्र के लिये केंद्र-राज्य सहयोग को तेज़ करना।
      • प्रौद्योगिकी उन्नयन योजना की प्रभावशीलता बढ़ाना (CLCS-TUS)। 
      • MSME के लिये प्राप्य वित्तपोषण बाज़ार को मज़बूत बनाना।
      • सूक्ष्म और लघु उद्यमों के लिये क्रेडिट गारंटी ट्रस्ट (CGTMSE) और "ग्रीनिंग एंड जेंडर" डिलीवरी की प्रभावशीलता बढ़ाना।
      • विलंबित भुगतान की घटनाओं को कम करना।

योजना के लाभ:

  • MSME क्षेत्र से जुड़ी चुनौतियों का समाधान:
    • RAMP कार्यक्रम प्रतिस्पर्द्धा के मामले में मौजूदा MSME योजनाओं के प्रभाव में वृद्धि कर MSME क्षेत्र की सामान्य एवं कोविड से जुड़ी चुनौतियों का समाधान करेगा।
  • MSME में अपर्याप्त रूप से संबोधित मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना:
    • यह कार्यक्रम अन्य बातों के अलावा क्षमता निर्माण, हैंडहोल्डिंग, कौशल विकास, गुणवत्ता संवर्द्धन, तकनीकी उन्नयन, डिजिटलीकरण, आउटरीच और मार्केटिंग प्रमोशन जैसे अपर्याप्त रूप से संबोधित मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास करेगा।
  • रोज़गार सृजन:
    • यह कार्यक्रम राज्यों के साथ अधिक सहयोग के माध्यम से एक रोज़गार सृजक, बाज़ार प्रमोटर और वित्त सुविधाकर्त्ता के रूप में कार्य करेगा।
  • औपचारिकरण की शुरुआत:
    • उन राज्यों में जहाँ MSME की उपस्थिति कम है, इस कार्यक्रम के तहत कवर की गई योजनाओं के उच्च प्रभाव के परिणामस्वरूप व्यापक औपचारिकरण की शुरुआत होगी।
    • इन राज्यों द्वारा विकसित SIPs एक बेहतर MSME क्षेत्र के विकास के लिये रोडमैप के रूप में कार्य करेंगे।
  • ‘आत्मनिर्भर भारत’ अभियान का पूरक:
    • यह कार्यक्रम उच्च उद्योग मानकों, उद्योग प्रथाओं में नवाचार और वृद्धि एवं विकास को बढ़ावा दे कर तथा MSMEs को आवश्यक तकनीकी इनपुट प्रदान कर ‘आत्मनिर्भर भारत मिशन’ का पूरक होगा।

भारतीय अर्थव्यवस्था में MSMEs का महत्त्व:

विगत वर्षों के प्रश्न:

प्रश्न. समावेशी विकास के सरकार के उद्देश्य को आगे बढ़ाने में निम्नलिखित में से कौन मदद कर सकता है? (2011)

  1. स्वयं सहायता समूहों को बढ़ावा देना
  2. सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों को बढ़ावा देना
  3. शिक्षा का अधिकार अधिनियम को लागू करना

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1
(b) केवल 1 और 2
(c) केवल 2 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (d)

  • समावेशी विकास एक ऐसी अवधारणा है, जो आर्थिक विकास के दौरान आर्थिक सहभागियों के लिये समान अवसरों को आगे बढ़ाती है, जिसका लाभ समाज के प्रत्येक वर्ग तक पहुँचता है।
  • स्वयं सहायता समूहों, MSMEs को बढ़ावा देना और शिक्षा का अधिकार अधिनियम के कार्यान्वयन, सभी समावेशी विकास को आगे बढ़ाने में सहायता करते हैं।

स्रोत: पी.आई.बी.


जीन एडिटिंग (Genome Editing)

प्रिलिम्स के लिये:

साइट डायरेक्टेड न्यूक्लीज़, जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति, डीऑक्सी-राइबोन्यूक्लिक एसिड,  जीनोम एडिटिंग।

मेन्स के लिये:

जेनेटिक इंजीनियरिंग।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सरकार ने जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (GEAC) के समक्ष बोझिल ‘GMO’ (आनुवंशिक रूप से संशोधित जीव) विनियमन के बिना जीनोम संपादित पौधों की अनुमति दी है।

  • सरकार ने पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के नियम 7-11 से ‘साइट डायरेक्टेड न्यूक्लीज़’ (SDN) 1 और 2 जीनोम को छूट दी है, इस प्रकार जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (GEAC) के माध्यम से इस प्रकार की GM फसलों के अनुमोदन हेतु एक लंबी प्रक्रिया से बचने की अनुमति मिलेगी।
  • पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के तहत संस्थागत जैव सुरक्षा समिति (IBSC) को अब यह प्रमाणित करने का कार्य सौंपा जाएगा कि जीनोम एडिटिंग वाली फसल किसी भी विदेशी डीएनए से रहित है।

जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति: 

  • यह पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEF&CC) के तहत कार्य करती है।
  • यह पर्यावरण के दृष्टिकोण से अनुसंधान एवं औद्योगिक उत्पादन में खतरनाक सूक्ष्मजीवों और पुनः संयोजकों के बड़े पैमाने पर उपयोग से जुड़ी गतिविधियों के मूल्यांकन हेतु उत्तरदायी है।
  • समिति प्रायोगिक क्षेत्र परीक्षणों सहित पर्यावरण में आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों और उत्पादों से संबंधित प्रस्तावों के मूल्यांकन के लिये भी ज़िम्मेदार है।
  • GEAC की अध्यक्षता MoEF&CC का विशेष सचिव/अतिरिक्त सचिव करता है और जैव प्रौद्योगिकी विभाग (DBT) के एक प्रतिनिधि द्वारा सह-अध्यक्षता की जाती है।

जीनोम एडिटिंग क्या है?

  • जीन एडिटिंग (जिसे जीनोम एडिटिंग भी कहा जाता है) प्रौद्योगिकियों का एक समुच्चय है जो वैज्ञानिकों को एक जीव के डीएनए (DNA) को बदलने की क्षमता उपलब्ध कराता है। 
  • ये प्रौद्योगिकियाँ जीनोम में विशेष स्थानों पर आनुवंशिक सामग्री को जोड़ने, हटाने या बदलने में सहायक होती हैं।

Genome-Editing

  • उन्नत शोध ने वैज्ञानिकों को अत्यधिक प्रभावी क्लस्टर्ड रेगुलरली इंटरस्पेस्ड पैलिंड्रोमिक रिपीट (CRISPR) से जुड़े प्रोटीन आधारित सिस्टम विकसित करने में मदद की है। यह प्रणाली जीनोम अनुक्रम में लक्षित हस्तक्षेप को संभव बनाती है।
    • इस युक्ति ने पादप प्रजनन में विभिन्न संभावनाओं को उजागर किया है। इस प्रणाली की सहायता से कृषि वैज्ञानिक अब जीन अनुक्रम में विशिष्ट लक्षणों को समाविष्ट कराने हेतु जीनोम को एडिट/संपादित कर सकते हैं।
  • एडिटिंग की प्रकृति के आधार पर संपूर्ण प्रक्रिया को तीन श्रेणियों में बाँटा गया है- SDN1, SDN2 और SDN3
    • साइट डायरेक्टेड न्यूक्लीज (SDN) 1 विदेशी आनुवंशिक सामग्री के प्रवेश के बिना ही छोटे सम्मिलन/विलोपन के माध्यम से मेज़बान जीनोम के DNA में परिवर्तन का का सूत्रपात करता है।
    • SDN2 के तहत एडिटिंग में विशिष्ट परिवर्तनों की उत्पत्ति हेतु एक छोटे DNA टेम्पलेट का उपयोग करना शामिल है। इन दोनों प्रक्रियाओं में विदेशी आनुवंशिक सामग्री शामिल नहीं होती है और अंतिम परिणाम पारंपरिक नस्ल वाली फसल की किस्मों के समरूप ही होता है।
    • SDN3 प्रक्रिया में बड़े DNA तत्त्व या विदेशी मूल के पूर्ण लंबाई वाले जीन शामिल होते हैं जो इसे आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों (GMO) के विकास के समान बनाता है।

जीन एडिटिंग GMO विकास से किस प्रकार भिन्न है?

  • यह आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों (GMO) में एक विदेशी आनुवंशिक सामग्री के प्रवेश द्वारा मेज़बान जीन की आनुवंशिक सामग्री में संशोधन करना है। 
  • कृषि के संदर्भ में मिट्टी में पाए जाने वाले जीवाणु ऐसे जीन के लिये सबसे अच्छा स्रोत हैं जिन्हें बाद में आनुवंशिक इंजीनियरिंग का उपयोग करके मेज़बान जीनोम में डाला जाता है। 
    • उदाहरण के लिये मिट्टी के जीवाणु बैसिलस थुरिंजिनेसिस (बीटी) से प्राप्त किये गए  क्राय 1 एसी और क्राय 2 एबी जीन देशी कपास के पौधे को स्वाभाविक रूप से गुलाबी बॉलवर्म से लड़ने के लिये एंडोटॉक्सिन (Endotoxins) उत्पन्न करने की अनुमति देते हैं।
    • बीटी कॉटन इस लाभ का उपयोग किसानों को स्वाभाविक रूप से गुलाबी बॉलवर्म से लड़ने में मदद करने के लिये करता है जो कपास किसानों हेतु सबसे आम कीट है।
  • जीनोम एडिटिंग और जेनेटिक इंजीनियरिंग के बीच मूल अंतर यह है कि जीनोम एडिटिंग में विदेशी आनुवंशिक सामग्री का प्रवेश शामिल नहीं है जबकि जेनेटिक इंजीनियरिंग में ऐसा होता है।
  • कृषि के संदर्भ में दोनों तकनीकों का उद्देश्य जैविक व अजैविक रूप से अधिक प्रतिरोधी तथा बेहतर उपज देने वाले बीज उत्पन्न करना है।
  • आनुवंशिक इंजीनियरिंग के आगमन से पहले चयनात्मक प्रजनन के माध्यम से इस तरह की विविधता में सुधार किया गया था जिसमें बीजों में वांछित गुण उत्पन्न करने के लिये विशिष्ट लक्षणों वाले पौधों को सावधानीपूर्वक उत्पन्न करना शामिल था।
  • जेनेटिक इंजीनियरिंग ने न केवल इस काम को और अधिक सटीक बना दिया है बल्कि वैज्ञानिकों को विशेष रूप से विकास पर अधिक नियंत्रण रखने की अनुमति भी दी है।

तकनीकी को रोकने से संबंधित नियामक मुद्दे:

  • आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलें या जीएम फसलें विश्व भर में चर्चा का विषय रही हैं, कई पर्यावरणविदों ने जैव सुरक्षा और अधूरे डेटा के आधार पर इसका विरोध भी किया है। भारत में जीएम फसलों की शुरुआत एक श्रमसाध्य प्रक्रिया है जिसमें जाँच के कई स्तर शामिल हैं।
    • अब तक बीटी कपास ही एकमात्र फसल है जिसे भारत में नियामकीय मंज़ूरी प्राप्त हुई है।
  • भारत और विश्व भर के वैज्ञानिकों ने जीएम फसलों और जीनोम संपादित फसलों के बीच अंतर स्पष्ट करने में तेज़ी से कार्य किया है। उन्होंने यह दर्शाया है कि जीनोम संपादित फसलों में ऐसी कोई विदेशी आनुवंशिक सामग्री नहीं है, इसलिये वे पारंपरिक संकर नस्लों के समरूप हैं।
    • वैश्विक स्तर पर, यूरोपीय संघ के देशों ने जीएम फसलों को जीनोम संपादित फसलों के समान ही  माना है। वहीं अर्जेंटीना, इज़रायल, अमेरिका, कनाडा आदि देशों में जीनोम संपादित फसलों के लिये उदार नियम हैं।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


AFSPA और पूर्वोत्तर

प्रिलिम्स के लिये:

सशस्त्र बल (विशेष शक्तियाँ) अधिनियम (AFSPA), 1958, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC)।

मेन्स के लिये:

सशस्त्र बल (विशेष शक्तियाँ) अधिनियम (AFSPA), 1958, उत्तर पूर्व विद्रोह।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्र सरकार ने तीन पूर्वोत्तर राज्यों- असम, नगालैंड और मणिपुर के हिस्सों में लागू सशस्त्र बल (विशेष शक्तियाँ) अधिनियम, 1958 (AFSPA) को आंशिक रूप से वापस ले लिया है।

  • वर्तमान में AFSPA इन तीन राज्यों के साथ-साथ अरुणाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों में भी लागू है।

AFSPA

AFSPA

  • AFSPA सशस्त्र बलों को निरंकुश शक्तियाँ देता है।
    • उदाहरण के लिये यह उन्हें कानून का उल्लंघन करने वाले या हथियार और गोला-बारूद रखने वाले किसी भी व्यक्ति के खिलाफ गोली चलाने की अनुमति देता है, भले ही इससे उस व्यक्ति की मृत्यु हो जाए
    • साथ ही यह उन्हें "उचित संदेह" के आधार पर वारंट के बिना ही व्यक्तियों को गिरफ्तार करने और परिसर की तलाशी लेने की शक्ति प्रदान करता है।
  • धारा 3 के तहत "अशांत" क्षेत्र घोषित किये जाने के बाद इसे केंद्र या किसी राज्य के राज्यपाल द्वारा, राज्य या उसके कुछ हिस्सों पर लगाया जा सकता है।
    • अधिनियम को वर्ष 1972 में संशोधित किया गया था, इसके अंतर्गत किसी क्षेत्र को "अशांत" घोषित करने की शक्तियाँ राज्यों के साथ-साथ केंद्र सरकार को भी प्रदान की गई थीं।
    • वर्तमान में केंद्रीय गृह मंत्रालय (MHA) केवल नगालैंड और अरुणाचल प्रदेश के लिये AFSPA का विस्तार करने हेतु समय-समय पर "अशांत क्षेत्र" अधिसूचना जारी करता है।
    • मणिपुर और असम के लिये अधिसूचना राज्य सरकारों द्वारा जारी की जाती है।
    • त्रिपुरा ने वर्ष 2015 में अधिनियम को निरस्त कर दिया तथा मेघालय 27 वर्षों के लिये AFSPA के अधीन था, जब तक कि इसे 1 अप्रैल, 2018 से MHA द्वारा निरस्त नहीं कर दिया गया।

 AFSPA के संदर्भ में राज्य सरकारों की भूमिका:

  • राज्य के साथ अनौपचारिक परामर्श: अधिनियम केंद्र सरकार को AFSPA लगाने का निर्णय एकतरफा रूप से लेने का अधिकार देता है, यह कार्य आमतौर पर अनौपचारिक रूप से राज्य सरकार के इच्छा अनुरूप होता है।
    • राज्य सरकार की सिफारिश के बाद ही केंद्र इस पर निर्णय लेता है।
  • स्थानीय पुलिस के साथ समन्वय: अधिनियम सुरक्षा बलों को गोली चलाने की शक्ति प्रदान करता है, यह संदिग्ध को पूर्व चेतावनी के बिना नहीं किया जा सकता है। 
    • अधिनियम के मुताबिक संदिग्धों की गिरफ्तारी के बाद 24 घंटे के अंदर सुरक्षाबलों को उन्हें स्थानीय थाने को सौंपना होता है।
    • इसमें कहा गया है कि सशस्त्र बलों को ज़िला प्रशासन के सहयोग से कार्य करना चाहिये, न कि एक स्वतंत्र निकाय के रूप में।

AFSPA को वापस लेने का कारण तथा इसके प्रभाव:

  • वापसी: AFSPA के तहत क्षेत्रों की सुरक्षा की स्थिति में सुधार भारत सरकार द्वारा उग्रवाद को समाप्त करने व उत्तर-पूर्व में स्थायी शांति लाने के लिये लगातार किये गए प्रयासों और समझौतों के परिणामस्वरूप तेज़ी से विकास का परिणाम है।
  • प्रभाव: पूर्वोत्तर भारत में लगभग बीते 60 वर्षों से AFSPA अनवरत रूप से लागू है, जिससे पूर्वोत्तर भारत के वासियों के बीच देश के शेष हिस्सों से अलगाव की भावना पैदा हो रही है।
    • मौजूदा हालिया कदम से इस क्षेत्र को असैन्य बनाने में मदद मिलने की उम्मीद है; यह चौकियों के माध्यम से तलाशी और निवासियों की आवाजाही पर प्रतिबंध को हटा देगा।

पूर्वोत्तर भारत पर AFSPA लगाए जाने का कारण:

  • नगा विद्रोह: जब 1950 के दशक में ‘नगा राष्ट्रीय परिषद’ (NNC) की स्थापना के साथ नगा राष्ट्रवादी आंदोलन शुरू हुआ तो असम पुलिस ने कथित तौर पर आंदोलन को दबाने के लिये बल प्रयोग किया।
    • जैसे ही नगालैंड में एक सशस्त्र आंदोलन ने जड़ें जमाईं तो संसद में AFSPA पारित किया गया और बाद में इसे पूरे राज्य में लागू कर दिया गया।
    • मणिपुर में भी इसे वर्ष 1958 में सेनापति, तामेंगलोंग और उखरुल के तीन नगा-बहुल ज़िलों में लगाया गया था, जहाँ NNC सक्रिय थी।
  • अलगाववादी और राष्ट्रवादी आंदोलन: जैसे ही अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में अलगाववादी एवं राष्ट्रवादी आंदोलन होने लगे AFSPA का प्रयोग और अधिक किया जाने लगा।

AFSPA के अलोकप्रिय होने के कारण:

  • अलगाव की भावना को बढ़ाना: नगा राष्ट्रवादी आंदोलन के नेताओं के अनुसार, बल प्रयोग और AFSPA के अनुचित प्रयोग ने नगा लोगों के बीच अलगाव की भावना को बढ़ाया है।
  • कठोर कानून और फर्जी मुठभेड़: पूर्वोत्तर राज्यों में हिंसा की विभिन्न घटनाएँ दर्ज की गई हैं, क्योंकि AFSPA सुरक्षा बलों को व्यापक अधिकार देता है।
    • वर्ष 2012 में सर्वोच्च न्यायालय में दायर एक रिट याचिका में न्यायेत्तर हत्याओं के पीड़ितों के परिवारों ने आरोप लगाया था कि पुलिस द्वारा मई 1979 से मई 2012 तक राज्य में 1,528 फर्जी मुठभेड़ों को अंजाम दिया गया था।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने इनमें से छह मामलों की जाँच के लिये एक आयोग का गठन किया और आयोग ने सभी छह को फर्जी मुठभेड़ पाया।
  • राज्य को दरकिनार करना: ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ केंद्र सरकार ने राज्य को दरकिनार कर दिया है, जिसमें वर्ष 1972 में त्रिपुरा में AFSPA लागू करना भी शामिल है।

AFSPA को निरस्त करने हेतु किये गए प्रयास:

  • इरोम शर्मिला द्वारा विरोध: वर्ष 2000 में सामाजिक कार्यकर्त्ता इरोम शर्मिला ने भूख हड़ताल शुरू की जो मणिपुर में AFSPA के खिलाफ 16 वर्ष तक जारी रहेगी।
  • जस्टिस जीवन रेड्डी: वर्ष 2004 में तत्कालीन केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व जस्टिस जीवन रेड्डी के नेतृत्व में पाँच सदस्यीय समिति का गठन किया था।
    • समिति ने AFSPA को निरस्त करने की सिफारिश की और इसे "अत्यधिक अवांछनीय" बताया, और माना कि यह कानून उत्पीड़न का प्रतीक बन गया है।
  • द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिश: बाद में वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने इन सिफारिशों का समर्थन किया।

आगे की राह

  • सरकार और सुरक्षा बलों को सर्वोच्च न्यायालय, जीवन रेड्डी आयोग और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों का पालन करना चाहिये।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस