कृषि को भारत का विकास इंजन बनाना | 05 Sep 2024

यह एडिटोरियल 04/09/2024 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित “How agriculture can be an engine for growth” लेख पर आधारित है। इसमें चर्चा की गई है कि भारतीय कृषि, अपनी वर्तमान ‘लो-टेक’ एवं निर्वाह प्रकृति के बावजूद, किस प्रकार पारिस्थितिक, प्रौद्योगिकीय एवं संस्थागत चुनौतियों का समाधान कर आर्थिक विकास और रोज़गार सृजन को गति देने की क्षमता रखती है। यह उत्पादकता एवं संवहनीयता को बढ़ाने के लिये सिंचाई, फसल विविधता और संस्थागत नवाचारों में उन्नति की आवश्यकता को उजागर करता है।

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय कृषि क्षेत्र, प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (PM-KISAN), प्रधानमंत्री प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (PMFBY), मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY), ई-राष्ट्रीय कृषि बाज़ार (e-NAM), राष्ट्रीय सतत् कृषि मिशन, परम्परागत कृषि विकास योजना (PMKVY), डिजिटल कृषि मिशन, एकीकृत किसान सेवा मंच (UFSP), कृषि में राष्ट्रीय ई-गवर्नेंस योजना (NeGP-A),पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिए जैविक मूल्य श्रृंखला विकास मिशन” (MOVCDNER)

मेन्स के लिये:

भारतीय कृषि क्षेत्र की वर्तमान स्थिति, भारतीय कृषि क्षेत्र से संबंधित मुद्दे।

 भारतीय कृषि क्षेत्र, जिसे पारंपरिक रूप से निम्न-तकनीक (low-tech) एवं निर्वाह-उन्मुख माना जाता है, विकास और रोज़गार सृजन का वाहक बनने की क्षमता है। जबकि कृषि वर्तमान में 46% कार्यबल को रोज़गार प्रदान करती है और सकल घरेलू उत्पाद में 18% का योगदान देती है, इसकी वृद्धि असंगत एवं पर्यावरणीय रूप से चिंताजनक है। कृषि को विकास का प्रमुख ‘इंजन’ बनाने के लिये पारिस्थितिक, प्रौद्योगिकीय और संस्थागत चुनौतियों पर नियंत्रण पाना आवश्यक है। इसमें जल संसाधनों को पुनर्जीवित करना, सिंचाई का विस्तार करना, फसल विविधता को अपनाना और सूक्ष्म सिंचाई एवं जलवायु-प्रत्यास्थी खेती जैसे उच्च-तकनीक समाधानों को अंगीकृत करना शामिल है। 

इसके अलावा, कृषि एवं ग्रामीण गैर-कृषि क्षेत्र के बीच तालमेल का निर्माण करने, समूह खेती मॉडल्स को प्रोत्साहित करने और मत्स्य पालन एवं पशुधन जैसे संबद्ध क्षेत्रों को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये। समूह खेती (group farming) के माध्यम से छोटे किसानों के सहयोग को बढ़ावा देने जैसे संस्थागत नवाचारों ने आशाजनक परिणाम दिखाए हैं, उत्पादकता में वृद्धि की है और किसानों, विशेष रूप से महिला कृषकों को सशक्त बनाया है। इन परिवर्तनों को अपनाकर, भारतीय कृषि तकनीकी रूप से अधिक उन्नत, पर्यावरण की दृष्टि से संवहनीय और आर्थिक रूप से व्यवहार्य बन सकती है, जो फिर शिक्षित युवाओं को आकर्षित कर सकती है तथा देश के विकास को गति दे सकती है। 

भारतीय कृषि क्षेत्र की वर्तमान स्थिति क्या है? 

वृहत आबादी को रोज़गार प्रदान करने के बावजूद भारतीय कृषि का प्रदर्शन खराब क्यों है? 

  • खंडित भूमि जोत: भारत की कृषि भूमि अत्यधिक खंडित है, जहाँ औसत खेत का आकार वर्ष 1970-71 में 2.3 हेक्टेयर से घटकर वर्ष 2015-16 में 1.08 हेक्टेयर रह गया है। 
    • भारत की कृषि जनगणना 2015-16 के अनुसार, 86.1% भारतीय किसान छोटे और सीमांत (SMF) हैं, यानी उनके पास 2 हेक्टेयर से कम भूमि है। 
      • इनमें से आधे से अधिक पाँच भारतीय राज्यों- उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में रहते हैं। 
      • यह विखंडन आकारिक मितव्ययिता (economies of scale), मशीनीकरण और ऋण तक पहुँच को सीमित करता है। 
    • इतने छोटे भूखंडों के कारण आधुनिक कृषि तकनीकों को लागू करना या प्रौद्योगिकी में निवेश करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है, जिससे किसानों की उत्पादकता और आय कम हो जाती है। 
  • बदलती जलवायु में सिंचाई संबंधी चुनौतियाँ: विश्व की 18% आबादी का वहन करने के बावजूद भारत के पास वैश्विक जल संसाधनों का केवल 4% ही है। 
    • मानसून की वर्षा पर अत्यधिक निर्भरता और अकुशल सिंचाई पद्धतियों के कारण कृषि उत्पादकता में बाधा उत्पन्न होती है। 
    • वर्ष 2022-23 तक की स्थिति के अनुसर केवल 52% खेती योग्य भूमि पर ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है। 
    • आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 में अनुमान लगाया गया कि जलवायु परिवर्तन से वार्षिक कृषि आय में औसतन 15-18% की कमी आ सकती है और असिंचित क्षेत्रों में यह कमी 25% तक हो सकती है। 
      • वर्ष 2022 और 2023 में ग्रीष्म लहर या हीट वेव की घटनाओं ने कई राज्यों में गेहूँ की फसलों को नुकसान पहुँचाया, जो जलवायु परिवर्तनशीलता के प्रति भारतीय कृषि की संवेदनशीलता को परिलक्षित करता है। 
  • प्रौद्योगिकीय पिछड़ापन, नवाचार में अंतराल: हरित क्रांति ने 1960 और 70 के दशक में उत्पादकता में उल्लेखनीय वृद्धि की, उसके बाद से भारतीय कृषि प्रौयोगिकीय प्रगति के साथ तालमेल बनाए रखने में संघर्ष ही करती रही है। 
    • परिशुद्ध खेती, ड्रोन प्रौद्योगिकी और AI-संचालित समाधानों के अंगीकरण का स्तर निम्न रहा है। 
    • यह प्रौद्योगिकीय पिछड़ापन वैश्विक मानकों की तुलना में कम पैदावार में योगदान देता है। उदाहरण के लिये, भारत की चावल की पैदावार चीन की तुलना में कम है। 
  • बाज़ार की अकुशलताएँ: कृषि उपज बाज़ार समिति (APMC) प्रणाली का उद्देश्य किसानों की रक्षा करना है, लेकिन इसने प्रायः बिचौलियों द्वारा शोषण को बढ़ावा ही दिया है। 
    • किसानों को आमतौर पर उनकी उपज के खुदरा मूल्य का केवल 15-20% ही प्राप्त होता है। 
    • वर्ष 2020 में पारित कृषि कानूनों (जिन्हें अब निरस्त कर दिया गया है) ने इस मुद्दे को हल करने का प्रयास किया, लेकिन उन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ा। 
    • वर्ष 2016 में लॉन्च किये गए E-NAM (Electronic National Agriculture Market) का उद्देश्य एक एकीकृत राष्ट्रीय बाज़ार का निर्माण करना है, लेकिन फ़रवरी 2024 तक केवल 1.77 करोड़ किसान ही इस प्लेटफॉर्म पर पंजीकृत थे। 
  • ऋण संकट – ऋण जाल: औपचारिक ऋण तक सीमित पहुँच के कारण कई किसानों को अनौपचारिक ऋणदाताओं पर निर्भर रहना पड़ता है, जो अत्यधिक ब्याज दर वसूलते हैं। 
    • नाबार्ड (NABARD) के अखिल भारतीय ग्रामीण वित्तीय समावेशन सर्वेक्षण 2017 के अनुसार, केवल 30.3% कृषि परिवारों ने संस्थागत स्रोतों से ऋण प्राप्त किया था। 
    • ‘ग्रामीण भारत में कृषि परिवारों और भू-जोतों की स्थिति का आकलन, 2019’ के अनुसार, भारत के आधे से अधिक कृषि परिवार कर्ज में डूबे थे, जिन पर औसत बकाया राशि 74,121 रुपए थी। 
    • यह ऋण बोझ प्रायः गरीबी के चक्र को जन्म देता है और चरम मामलों में किसान आत्महत्या भी कर लेते हैं। 
  • नीतिगत पक्षाघात – सब्सिडी की समस्या: भारत की कृषि नीति पर लंबे समय से सब्सिडी का प्रभुत्व रहा है, जो प्रायः बाज़ार की गतिशीलता और संसाधन आवंटन को विकृत कर देती है। 
    • सरकार ने हाल ही में अनुमान लगाया है कि वित्त वर्ष 2024 के दौरान उर्वरक पर कुल सब्सिडी 2.25 लाख करोड़ रुपए तक पहुँच सकती है।  
    • यद्यपि इन सब्सिडियों का उद्देश्य किसानों को सहायता प्रदान करना है, लेकिन प्रायः इनसे जल और उर्वरकों जैसे इनपुटों के अत्यधिक उपयोग को बढ़ावा मिलता है, जिससे पर्यावरण को क्षति पहुँचती है। 
    • न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) प्रणाली किसानों के लिये सुरक्षा जाल तो प्रदान करती है, लेकिन इसके कारण अधिक पौष्टिक और पर्यावरण की दृष्टि से उपयुक्त विकल्पों की कीमत पर गेहूँ एवं चावल जैसी कुछ फसलों का अधिक उत्पादन किया जा रहा है। 
    • नीति-प्रेरित फसल पैटर्न की यह विसंगति कृषि संवहनीयता और किसानों की आय दोनों को प्रभावित करती है। 
  • पोस्ट-हार्वेस्ट हानियाँ: भारत में भंडारण और परिवहन अवसंरचना की कमी के कारण कृषि उपज का एक बड़ा भाग नष्ट हो जाता है। 
    • ICAR-CIPHET (ICAR-Central Institute of Post-Harvest Engineering and Technology) के अनुसार वार्षिक कटाई-उपरांत हानि (post-harvest losses) लगभग 92,651 करोड़ रुपए मूल्य की है। 
    • भारत में शीत भंडारण क्षमता देश की कुल उपज के केवल 11% भाग को ही समायोजित कर सकती है। 
    • इससे फसल कटाई के मौसम में किसानों को संकटपूर्ण बिक्री (distress) के लिये विवश होना पड़ता है, जिससे उनकी आय संभावना और कम हो जाती है। 
  • ज्ञान की कमी: विशाल कार्यबल को रोज़गार देने के बावजूद, भारतीय कृषि में कौशल का भारी अभाव है। 
    • औपचारिक प्रशिक्षण का अभाव आधुनिक कृषि पद्धतियों और प्रौद्योगिकियों के अंगीकरण में बाधा उत्पन्न करता है। 
    • उदाहरण के लिये, कीटनाशकों के अनुचित प्रयोग से न केवल फसल की उपज कम होती है, बल्कि स्वास्थ्य संबंधी जोखिम भी उत्पन्न होते हैं। 
    • प्रधानमंत्री​ कौशल विकास योजना (PMKVY) ने इस समस्या का समाधान करने का प्रयास किया है, लेकिन कृषि क्षेत्र पर इसका प्रभाव अभी सीमित ही है। 
  • विविधीकरण की दुविधा: भारतीय कृषि मुख्य रूप से चावल और गेहूँ जैसी प्रमुख फसलों पर केंद्रित रही है। विविधीकरण की कमी न केवल मृदा के स्वास्थ्य को प्रभावित करती है, बल्कि किसानों की आय क्षमता को भी सीमित करती है। 
    • फल और सब्जियों जैसी उच्च-मूल्य फसलें संभावित रूप से किसानों की आय बढ़ा सकती हैं। लेकिन बागवानी फसलों की खेती के लिये केवल 17% कृषि योग्य भूमि का उपयोग किया जा रहा है 
    • वर्ष 2023 को अंतर्राष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष के रूप में मनाए जाने के बीच, हाल में भारत में मोटे अनाज (millets) को दिया गया प्रोत्साहन विविधीकरण की दिशा में एक कदम है, लेकिन व्यापक रूप से इसका अंगीकरण एक चुनौती बनी हुई है। 
  • लैंगिक असमानता – अदृश्य महिला कृषक: भारत में कृषि श्रम शक्ति में महिलाओं की हिस्सेदारी 42% है, फिर भी उनके पास केवल 14% कृषि भूमि का स्वामित्व है। 
    • भूमि स्वामित्व में यह लैंगिक असमानता ऋण एवं इनपुट तक पहुँच और निर्णय लेने की शक्ति को प्रभावित करती है। 
    • FAO की वर्ष 2011-12 की एक रिपोर्ट के अनुसार, यदि महिला किसानों को पुरुषों के समान उत्पादक संसाधनों और प्रशिक्षण तक पहुँच प्राप्त हो तो वे कृषि उपज में 20-30% की वृद्धि कर सकती हैं, जिससे विकासशील देशों में कृषि उत्पादन में 2.5-4% की वृद्धि हो सकती है तथा भुखमरी में 12-17% की कमी आ सकती है। 
    • महिला किसान सशक्तीकरण परियोजना जैसी पहल का उद्देश्य महिला किसानों को सशक्त बनाना है, लेकिन प्रगति धीमी रही है। 

विश्व भर में कृषि से संबंधित प्रमुख केस स्टडीज़ 

  • यूनाइटेड किंगडम: ‘GrowUp Farms’ वर्टिकल फार्मिंग (vertical farming) में उत्कृष्टता रखता है, जहाँ नियंत्रित वातावरण में वर्ष भर ताज़ा उपज का उत्पादन किया जाता है। 
  • नीदरलैंड: राइज्क ज़्वान (Rijk Zwaan) उच्च गुणवत्तापूर्ण सब्जी उत्पादन के लिये जलवायु नियंत्रण एवं LED प्रकाश व्यवस्था के साथ उन्नत ग्रीनहाउस का उपयोग करता है और डच सरकार बायोगैस ऊर्जा एवं पुनर्चक्रित सामग्रियों के माध्यम से चक्रीय कृषि को बढ़ावा देती है। 
  • चीन: चीन के बीजिंग में स्थित झोंगगुआनचुन साइंस पार्क (Zhongguancun Science Park- Z-Park) जैव-चिकित्सा सहित कई क्षेत्रों में नवाचार का एक बढ़ता हुआ केंद्र है। 

कृषि क्षेत्र की उत्पादकता बढ़ाने के लिये क्या उपाय किये जा सकते हैं? 

  • परिशुद्ध कृषि – संख्याओं के आधार पर खेती: परिशुद्ध कृषि तकनीकों के क्रियान्वयन से उत्पादकता में उल्लेखनीय वृद्धि हो सकती है। 
    • इसमें संसाधन उपयोग को अनुकूलित करने के लिये GPS-निर्देशित मशीनरी, IoT सेंसर और डेटा एनालिटिक्स का उपयोग करना शामिल है। 
    • महाराष्ट्र में परिशुद्ध कृषि तकनीक का उपयोग करते हुए एक पायलट परियोजना में फसल की पैदावार में उल्लेखनीय वृद्धि और जल उपयोग में उल्लेखनीय कमी दर्ज की गई। 
    • इसे देशव्यापी स्तर पर लागू करने से संभावित रूप से अरबों लीटर जल की बचत हो सकती है और समग्र कृषि उत्पादन में वृद्धि हो सकती है। 
  • फसल विविधीकरण – गेहूँ और चावल तक सीमित नहीं रहना: किसानों को फसलों में विविधता लाने के लिये प्रोत्साहित करने से उनकी आय में वृद्धि हो सकती है और मृदा स्वास्थ्य में सुधार हो सकता है। 
    • सरकार द्वारा हाल ही में मोटे अनाजों पर बल दिया जाना इसी दिशा में उठाया गया एक कदम है। 
    • ओडिशा जैसे राज्यों ने फसल विविधीकरण कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक लागू किया है। इससे न केवल किसानों की आय में सुधार हुआ बल्कि पोषण सुरक्षा भी बढ़ी। 
    • क्षेत्र-विशिष्ट उच्च-मूल्य फसलों पर ध्यान केंद्रित करते हुए ऐसे कार्यक्रमों का देशव्यापी विस्तार करने से कृषि उत्पादकता में व्यापक परिवर्तन आ सकता है। 
  • कृषक उत्पादक संगठन (FPOs): FPOs को बढ़ावा देने और सुदृढ़ करने से छोटे और सीमांत किसानों को आकारिक मितव्ययिता (economies of scale) प्राप्त करने में मदद मिल सकती है। 
    • महाराष्ट्र में सह्याद्री किसान उत्पादक कंपनी ने सामूहिक सौदेबाजी और प्रत्यक्ष बाज़ार पहुँच के माध्यम से किसानों की आय में 25-30% की वृद्धि की है। 
    • पर्याप्त समर्थन और क्षमता निर्माण के साथ, पूरे भारत में इस मॉडल को अपनाने से किसानों की आय और कृषि उत्पादकता में उल्लेखनीय वृद्धि हो सकती है। 
  • जलवायु-कुशल कृषि (Climate-Smart Agriculture): जलवायु-कुशल कृषि पद्धतियों को लागू करना दीर्घकालिक संवहनीयता के लिये महत्त्वपूर्ण है। 
    • इसमें सूखा प्रतिरोधी फसल किस्मों, जल संरक्षण तकनीकों और जलवायु पूर्वानुमान उपकरणों को बढ़ावा देना शामिल है। 
    • उदाहरण के लिये, बाढ़-सहिष्णु चावल की किस्म स्वर्ण-सब1 (Swarna-Sub1) ने उपज में लाभ दिखाया है। 
    • भारतीय प्रधानमंत्री ने हाल ही में 61 फसलों की 109 किस्मों का अनावरण किया, जिनमें 34 खेत फसलें (field crops) और 27 बागवानी फसलें (horticultural crops) शामिल हैं, जो सही दिशा में उठाया गया कदम है। 
  • एग्री-टेक स्टार्टअप: एक जीवंत एग्री-टेक स्टार्टअप पारितंत्र को बढ़ावा देने से इस क्षेत्र में नवाचार को प्रोत्साहन मिल सकता है। 
    • किसानों को एंड-टू-एंड सेवाएँ प्रदान करने वाले ‘देहात’ (DeHaat) जैसे स्टार्ट-अप ने आशाजनक परिणाम दिखाए हैं। 
    • इनक्यूबेशन केंद्रों, वित्तपोषण और नीतिगत समर्थन के माध्यम से ऐसे स्टार्ट-अप्स के लिये एक सहायक पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण कर कृषि में प्रौद्योगिकी अंगीकरण में तेज़ी लाई जा सकती है। 
  • अपशिष्ट को न्यूनतम करना, मूल्य को अधिकतम करना: शीत भंडारण, खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों और कुशल परिवहन सहित विभिन्न पोस्ट-हार्वेस्ट अवसंरचना में निवेश करने से उपज की बर्बादी को व्यापक रूप से कम किया जा सकता है और किसानों की आय में वृद्धि की जा सकती है। 
    • उदाहरण के लिये, रायगढ़ा में मेगा फूड पार्क ने बड़ी संख्या में किसानों को उनकी उपज के लिये प्रसंस्करण सुविधाएँ प्रदान कर लाभान्वित किया है। 
    • देश भर में, विशेष रूप से प्रमुख उत्पादक क्षेत्रों में, इसी तरह की आधारभूत संरचनाओं की स्थापना से 92,651 करोड़ रुपए अनुमानित मूल्य की पोस्ट-हार्वेस्ट हानियों को कम करने में मदद मिल सकती है। 
  • कृषि शिक्षा और विस्तार: कृषि शिक्षा और विस्तार सेवाओं को सुदृढ़ करने से कृषक समुदायों में ज्ञान की खाई को दूर किया जा सकता है। 
    • प्रगति (Promoting Risk Aware Governance and Technology Infusion- PRAGATI) योजना का उद्देश्य कृषि विस्तार सेवाओं में सुधार लाना है। 
    • ऐसे नवोन्मेषी विस्तार मॉडलों को आगे बढ़ाने तथा कृषि विश्वविद्यालयों के आधुनिकीकरण से अधिक कुशल एवं ज्ञान-संपन्न कृषि कार्यबल का निर्माण हो सकता है। 

निष्कर्ष: 

भारतीय कृषि को विकास के एक प्रबल ‘इंजन’ में बदलने के लिये इस क्षेत्र की बहुमुखी चुनौतियों का समाधान करना अत्यंत आवश्यक है। इस दिशा में परिशुद्ध कृषि को अपनाना, फसल विविधीकरण का विस्तार करना और पोस्ट-हार्वेस्ट अवसंरचना में निवेश करना आवश्यक कदम होंगे। किसान सहकारी समितियों को सुदृढ़ करना और एग्री-टेक में प्रगति का लाभ उठाना उत्पादकता, संवहनीयता एवं आर्थिक व्यवहार्यता को संवृद्ध कर सकता है, जिससे कृषि क्षेत्र भारत के आर्थिक विकास में अधिक गतिशील योगदानकर्ता के रूप में उभर सकेगा। 

अभ्यास प्रश्न: विकासशील देशों में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने और आर्थिक विकास को समर्थन देने के लिये कृषि उत्पादकता महत्त्वपूर्ण है। कृषि उत्पादकता बढ़ाने में भारत के समक्ष विद्यमान प्रमुख चुनौतियों की चर्चा कीजिये। 

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्षों के प्रश्न  

प्रिलिम्स: 

प्रश्न: किसान क्रेडिट कार्ड योजना के अंतर्गत किसानों को निम्नलिखित में से किस उद्देश्य के लिये अल्पकालिक ऋण सुविधा प्रदान की जाती है? (2020)

  1. कृषि संपत्तियों के रखरखाव के लिये कार्यशील पूंजी 
  2. कंबाइन हार्वेस्टर, ट्रैक्टर और मिनी ट्रक की खरीद 
  3. खेतिहर परिवारों की उपभोग आवश्यकताँ 
  4. फसल के बाद का खर्च 
  5. पारिवारिक आवास का निर्माण एवं ग्राम कोल्ड स्टोरेज सुविधा की स्थापना

निम्नलिखित कूट की सहायता से सही उत्तर का चयन कीजिये:

(a) केवल 1, 2 और 5
(b) केवल 1, 3 और 4
(c) केवल 2, 3, 4 और 5
(d) 1, 2, 3, 4 और 5

उत्तर: (b)


प्रश्न. भारत में निम्नलिखित में से किसे कृषि में सार्वजनिक निवेश माना जा सकता है? (2020) 

  1. सभी फसलों की कृषि उपज के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करना 
  2. प्राथमिक कृषि ऋण समितियों का कंप्यूटरीकरण 
  3. सामाजिक पूंजी का विकास 
  4. किसानों को मुफ्त बिजली की आपूर्ति 
  5. बैंकिंग प्रणाली द्वारा कृषि ऋण की छूट 
  6. सरकारों द्वारा कोल्ड स्टोरेज सुविधाओं की स्थापना

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: 

(a) केवल 1, 2 और 5 
(b) केवल 1, 3, 4 और 5 
(c) केवल 2, 3 और 6 
(d) 1, 2, 3, 4, 5 और 6 

उत्तर: C