जैव विविधता और पर्यावरण
भारत में औद्योगिक उत्सर्जन में कमी के प्रयास
- 07 Feb 2025
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यह एडिटोरियल 07/02/2025 को द हिंदू में प्रकाशित “The saga of regulating India’s thermal power emissions” पर आधारित है। इस लेख में भारत के थर्मल पावर क्षेत्र द्वारा SO2 उत्सर्जन मानदंडों के अनुपालन में बार-बार की जाने वाली विलंब को सामने लाया गया है, जिसमें नवीनतम विस्तार इसे वर्ष 2027 तक आगे बढ़ा सकता है। यह शासन संबंधी चुनौतियों को उजागर करता है जहाँ आर्थिक प्राथमिकताएँ प्रायः पर्यावरण और सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं पर हावी हो जाती हैं।
प्रिलिम्स के लिये:भारत का ताप विद्युत क्षेत्र, उत्सर्जन अंतराल रिपोर्ट, फ्लू गैस डिसल्फराइजेशन (FGD) तकनीक, मीथेन लीक, SATAT योजना, नैनो-यूरिया, ग्रीन हाइड्रोजन, PAT (प्रदर्शन, उपलब्धि और व्यापार), विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व, कार्बन कैप्चर और स्टोरेज (CCS) परिनियोजन, समर्पित माल ढुलाई गलियारा मेन्स के लिये:भारत में प्रमुख उत्सर्जन-गहन उद्योग, भारत में औद्योगिक उत्सर्जन में कमी लाने में प्रमुख बाधाएँ। |
वायु प्रदूषण में प्रमुख योगदानकर्त्ता भारत का ताप विद्युत क्षेत्र लंबे समय से उत्सर्जन मानदंडों को लागू करने में विलंब से जूझ रहा है, SO2 अनुपालन के लिये नवीनतम विस्तार ने समय सीमा को दिसंबर 2027 तक बढ़ा दिया है। हालाँकि, थर्मल पावर से परे स्टील, सीमेंट और परिवहन जैसे उद्योग भी उत्सर्जन में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं, जिससे वायु गुणवत्ता संबंधी चिंताएँ और जलवायु चुनौतियाँ बढ़ जाती हैं। जैसे-जैसे भारत आर्थिक विकास की ओर अग्रसर हो रहा है, पर्यावरणीय दायित्व के साथ औद्योगिक विस्तार को संतुलित करना अनिवार्य है। नियामक प्रवर्तन को दृढ़ करना, स्वच्छ प्रौद्योगिकियों में तीव्रता लाना और सभी क्षेत्रों में व्यापक उत्सर्जन में कमी के लिये रणनीति का अंगीकरण सार्वजनिक स्वास्थ्य की सुरक्षा करते हुए सतत् विकास को प्राप्त करने में महत्त्वपूर्ण होगा।
भारत में प्रमुख उत्सर्जन-गहन उद्योग कौन से हैं?
- विद्युत उत्पादन (ताप विद्युत संयंत्र): भारत का विद्युत क्षेत्र ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन में सबसे बड़ा योगदानकर्त्ता है, जिसका मुख्य कारण कोयला आधारित ताप विद्युत संयंत्र हैं, जो देश के ईंधन-संबंधित CO2 उत्सर्जन में लगभग 50% का योगदान करते हैं।
- फ्लू गैस डिसल्फराइजेशन (FGD) तकनीक के कार्यान्वयन में विलंब और SO2 उत्सर्जन मानदंडों में लगातार विस्तार से प्रदूषण और अधिक बढ़ गया है।
- इसके अतिरिक्त, पुराने विद्युत संयंत्रों की अकुशलता और उच्च संचरण हानि के कारण अनावश्यक उत्सर्जन होता है।
- लोहा और इस्पात उद्योग: इस्पात क्षेत्र अत्यधिक ऊर्जा-गहन है, जो CO2 उत्सर्जन और कणिका पदार्थ प्रदूषण में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है।
- अधिकांश भारतीय इस्पात उत्पादन स्वच्छ विद्युत आर्क भट्टियों के बजाय कोयला आधारित ब्लास्ट भट्टियों पर निर्भर है, जिससे उत्सर्जन बढ़ रहा है।
- उच्च लागत और सीमित हाइड्रोजन अवसंरचना के कारण हरित हाइड्रोजन आधारित इस्पात निर्माण की ओर परिवर्तन धीमा है।
- भारत दूसरा सबसे बड़ा कच्चा इस्पात उत्पादक है, जिसने वर्ष 2022 में 242 मीट्रिक टन CO₂ उत्सर्जित किया। स्टील स्क्रैप रीसाइक्लिंग नीति (वर्ष 2021) का उद्देश्य उत्सर्जन को कम करना है, फिर भी महत्त्वपूर्ण अंतराल बने हुए हैं।
- अधिकांश भारतीय इस्पात उत्पादन स्वच्छ विद्युत आर्क भट्टियों के बजाय कोयला आधारित ब्लास्ट भट्टियों पर निर्भर है, जिससे उत्सर्जन बढ़ रहा है।
- सीमेंट उद्योग: सीमेंट विनिर्माण एक 'हार्ड-टू-अबैट' क्षेत्र है क्योंकि यह चूना पत्थर के कैल्सीनेशन पर निर्भर है, जो सीधे CO₂ उत्सर्जित करता है।
- निर्माण क्षेत्र सीमेंट और ईंट उत्पादन के साथ-साथ डीज़ल चालित मशीनरी के कारण प्रमुख उत्सर्जक है।
- मिश्रित सीमेंट (फ्लाई ऐश, स्लैग) और वैकल्पिक ईंधन का उपयोग करने के प्रयासों से उत्सर्जन को कम करने में मदद मिली है, लेकिन आर्थिक बाधाओं के कारण इसका अंगीकरण अभी भी सीमित है।
- सीमेंट उत्पादन वर्तमान वैश्विक CO2 उत्सर्जन के 7-8% और भारत में CO2 उत्सर्जन के लगभग 5.8% (2022) के लिये जिम्मेदार है।
- निर्माण क्षेत्र सीमेंट और ईंट उत्पादन के साथ-साथ डीज़ल चालित मशीनरी के कारण प्रमुख उत्सर्जक है।
- तेल और गैस उद्योग (रिफाइनरियाँ और पेट्रोकेमिकल्स): रिफाइनरियाँ और पेट्रोकेमिकल संयंत्र मीथेन लीक, CO2 और वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों (VOCs) के प्रमुख स्रोत हैं।
- भारत द्वारा रणनीतिक पेट्रोलियम भंडार और शोधन क्षमता बढ़ाने के प्रयासों से उत्सर्जन में वृद्धि हुई है।
- अनुमान है कि भारत में तेल की मांग वर्ष 2045 तक दोगुनी वृद्धि के साथ 11 मिलियन बैरल प्रतिदिन तक पहुँच जाएगी, जिससे उत्सर्जन संबंधी समस्याएँ और भी गंभीर हो जाएंगी।
- यद्यपि SATAT योजना के अंतर्गत जैव ईंधन और संपीड़ित बायोगैस (CBG) परियोजनाओं का उद्देश्य कच्चे तेल पर निर्भरता कम करना है, फिर भी प्रगति धीमी बनी हुई है।
- उर्वरक उद्योग: उर्वरक क्षेत्र नाइट्रस ऑक्साइड (N₂O) का एक प्रमुख उत्सर्जक है, जो एक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है जो CO₂ से 300 गुना अधिक शक्तिशाली है।
- यूरिया आधारित उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग से न केवल मृदा स्वास्थ्य का क्षरण होता है, बल्कि अमोनिया संश्लेषण, जो जीवाश्म ईंधन पर निर्भर करता है, से होने वाले उत्सर्जन में भी वृद्धि होती है।
- यद्यपि सरकार ने उपयोग को कम करने के लिये नैनो-यूरिया की शुरुआत की है, लेकिन बड़े पैमाने पर इसके अंगीकरण की गति धीमी है।
- भारत का उर्वरक क्षेत्र उत्पादित उर्वरक के प्रति टन लगभग 0.58 टन CO₂ उत्सर्जित करता है, जिससे सत्र 2022-23 में कुल उत्सर्जन लगभग 25 मिलियन टन CO₂ हो गया।
- यूरिया आधारित उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग से न केवल मृदा स्वास्थ्य का क्षरण होता है, बल्कि अमोनिया संश्लेषण, जो जीवाश्म ईंधन पर निर्भर करता है, से होने वाले उत्सर्जन में भी वृद्धि होती है।
- एल्युमीनियम और गैर-लौह धातु उद्योग: एल्युमीनियम उत्पादन सबसे अधिक ऊर्जा-गहन औद्योगिक प्रक्रियाओं में से एक है, क्योंकि यह बिजली और कार्बन एनोड पर निर्भर है, जिससे उच्च CO₂ उत्सर्जन होता है।
- भारतीय एल्युमीनियम उद्योग प्रति टन एल्युमीनियम 20.88 टन CO2 उत्सर्जित करता है।
- भारत के विशाल बॉक्साइट रिज़र्व ने घरेलू उत्पादन को बढ़ावा दिया है, लेकिन अधिकांश प्रगालक अभी भी कोयला आधारित बिजली पर निर्भर हैं।
- यद्यपि एल्युमीनियम के पुनर्चक्रण से उत्सर्जन में कमी आ सकती है, परंतु भारत में स्क्रैप पुनर्चक्रण की बुनियादी अवसंरचना अविकसित है।
- हरित एल्युमीनियम की वैश्विक मांग बढ़ रही है, लेकिन भारतीय उत्पादक स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों के अंगीकरण में पीछे हैं।
- परिवहन एवं ऑटोमोटिव उद्योग: वाहन स्वामित्व, माल ढुलाई और विमानन विकास में वृद्धि के कारण परिवहन क्षेत्र का उत्सर्जन तीव्रता से बढ़ रहा है।
- राजमार्गों के विस्तार और एसयूवी की बिक्री में वृद्धि ने जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को और बढ़ा दिया है।
- NITI आयोग के अनुसार, भारत का परिवहन क्षेत्र तीसरा सबसे अधिक ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जित करने वाला क्षेत्र है और सड़क परिवहन वर्तमान में भारत के ऊर्जा-संबंधित CO2 उत्सर्जन का 12% हिस्सा है और शहरी वायु प्रदूषण में इसका प्रमुख योगदान है।
भारत में औद्योगिक उत्सर्जन में कमी लाने में प्रमुख बाधाएँ क्या हैं?
- कोयला आधारित ऊर्जा पर निर्भरता: भारत का औद्योगिक क्षेत्र बिजली और प्रक्रम ऊष्मा के लिये कोयले पर बहुत अधिक निर्भर है, जिससे उत्सर्जन में कमी लाना चुनौतीपूर्ण हो गया है।
- इस्पात, सीमेंट और एल्युमीनियम जैसे कई उद्योगों में उच्च तापमान प्रक्रियाओं की आवश्यकता होती है, जहाँ कोयला सबसे सस्ता एवं सुलभ विकल्प है।
- नवंबर 2024 में, सरकार ने बढ़ती ऊर्जा मांगों को पूरा करने के लिये 36 नई कोयला परियोजनाओं को मंजूरी दी, जिससे कोयले पर निरंतर निर्भरता पर ज़ोर दिया गया।
- स्वच्छ प्रौद्योगिकियों की उच्च लागत: उच्च पूंजी निवेश के कारण कार्बन कैप्चर, ग्रीन हाइड्रोजन और ऊर्जा-कुशल प्रक्रियाओं को अपनाने की गति धीमी है।
- उदाहरण के लिये, ग्रीन हाइड्रोजन की कीमत 350-400 रुपए प्रति किलोग्राम है, जिससे यह बड़े पैमाने पर औद्योगिक उपयोग के लिये अव्यवहारिक है।
- कई उद्योगों, विशेषकर MSME को दीर्घकालिक ऊर्जा बचत के बावजूद बहुत अधिक प्रारंभिक लागत लगती है।
- ताप विद्युत संयंत्रों में फ्लू गैस डिसल्फराइजेशन (FGD) और इस्पात उत्पादन में विद्युतीकरण जैसी प्रौद्योगिकियाँ वित्तीय बाधाओं के कारण कम उपयोग में लाई जाती हैं।
- इसके अलावा, हालाँकि भारत ने अपनी नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता का विस्तार किया है, लेकिन ग्रिड एकीकरण के मुद्दे, ट्रांसमिशन बाधाएँ और औद्योगिक पैमाने पर भंडारण की कमी इसे अपनाने में बाधा उत्पन्न कर रही है।
- कमज़ोर विनियामक प्रवर्तन और नीतियों का बार-बार कमज़ोर पड़ना: उद्योगों के लिये उत्सर्जन मानदंडों को प्रायः समय सीमा विस्तार, कमज़ोर पड़ने या असंगत कार्यान्वयन का सामना करना पड़ता है।
- उद्योग, स्वच्छ प्रौद्योगिकियों में निवेश से बचने के लिये विनियामक कमियों और अनुपालन जाँच में विलंब का लाभ उठाते हैं।
- प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों में प्रायः उल्लंघनों की सख्ती से निगरानी करने और दंडित करने की क्षमता एवं संसाधनों का अभाव होता है, जिसके परिणामस्वरूप अनियंत्रित उत्सर्जन होता है।
- उदाहरण के लिये, SO2 उत्सर्जन अनुपालन की समय सीमा वर्ष 2027 तक बढ़ा दी गई है, जिससे स्वच्छ वायु लाभ में विलंब हो रही है।
- डीकार्बोनाइजेशन के लिये वित्तीय प्रोत्साहन का अभाव: जबकि भारत ने PAT (प्रदर्शन, उपलब्धि और व्यापार) और कार्बन ट्रेडिंग बाज़ार जैसी पहल शुरू की है, उद्योगों को प्रायः पर्याप्त वित्तीय सहायता का अभाव रहता है।
- हरित वित्तपोषण के विकल्प सीमित हैं, तथा स्वच्छ निवेश से मिलने वाले रिटर्न में अनिश्चितता के कारण बैंक ऋण देने में अनिच्छुक हैं।
- कार्बन क्रेडिट की कीमत अभी भी कम है, जिससे उत्सर्जन में कमी के लिये न्यूनतम प्रोत्साहन मिलता है।
- भारत का कार्बन क्रेडिट बाज़ार मूल्य 300-600 रुपए प्रति टन है, जो महत्त्वपूर्ण परिवर्तन लाने के लिये बहुत कम है।
- औद्योगिक प्रक्रियाओं में अकुशलता: कई भारतीय उद्योग अभी भी पुरानी, अकुशल मशीनरी के साथ काम कर रहे हैं, जिससे उनकी ऊर्जा खपत एवं उत्सर्जन बढ़ रहा है।
- भारत में अधिकांश ताप विद्युत संयंत्र 1990 के दशक के अंत में स्थापित किये गये थे और वे घटती दक्षता की समस्या का सामना कर रहे हैं।
- पुराने संयंत्रों का नवीनीकरण महंगा है तथा उद्योग प्रायः दक्षता में सुधार के बजाय उत्पादन आउटपुट को प्राथमिकता देते हैं।
- जागरूकता और तकनीकी विशेषज्ञता की कमी के कारण अपशिष्ट ऊष्मा पुनर्प्राप्ति, सह-उत्पादन और निम्न-कार्बन विनिर्माण तकनीकें अभी भी कम उपयोग में लाई जा रही हैं।
- भारत में अधिकांश ताप विद्युत संयंत्र 1990 के दशक के अंत में स्थापित किये गये थे और वे घटती दक्षता की समस्या का सामना कर रहे हैं।
- चक्रीय अर्थव्यवस्था और अपशिष्ट प्रबंधन में धीमी प्रगति: औद्योगिक अपशिष्ट पुनर्चक्रण और पुन: उपयोग अविकसित रह गया है, जिससे कच्चे माल की मांग एवं उत्सर्जन में वृद्धि हो रही है।
- कई उद्योग चक्रीय अर्थव्यवस्था के सिद्धांतों के अंगीकरण में विफल रहते हैं, जिसके परिणामस्वरूप अत्यधिक संसाधन निष्कर्षण एवं अपशिष्ट उत्पादन होता है।
- उदाहरण के लिये, भारत में प्रतिवर्ष लगभग 4.43 मिलियन टन खतरनाक अपशिष्ट उत्पन्न होता है, जिसमें से केवल 71,833 टन को ही भस्मीकरणीय (दहन प्रक्रिया के तहत निपटान के लिये उपयुक्त) श्रेणी में वर्गीकृत किया जाता है।
- इसके अलावा, भारत का केवल 21% स्टील स्क्रैप से बनाया जाता है।
- औद्योगिक डीकार्बोनाइज़ेशन में सामाजिक-आर्थिक समझौता: आर्थिक विकास, रोज़गार सृजन एवं उत्सर्जन में कमी के बीच संतुलन बनाना एक महत्त्वपूर्ण चुनौती है।
- कई उत्सर्जन-गहन उद्योग प्रमुख रोज़गार सृजनकर्त्ता हैं, जिससे सख्त नियमन राजनीतिक रूप से संवेदनशील हो जाते हैं।
- न्यायोचित परिवर्तन कार्यढाँचे के बिना, स्वच्छ उद्योगों की ओर संक्रमण को श्रमिकों और व्यवसायों से कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ सकता है।
- नौकरियों के संदर्भ में, अध्ययन का अनुमान है कि 3.6 मिलियन लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोयला खनन और बिजली क्षेत्रों में कार्यरत हैं, जिससे संक्रमण कठिन होता जा रहा है।
उत्सर्जन में कमी और संवहनीयता के लिये सर्वोत्तम वैश्विक पद्धतियाँ क्या हैं?
- नवीकरणीय ऊर्जा संक्रमण: पवन ऊर्जा से डेनमार्क की लगभग 60% बिजली उत्पन्न होती है।
- जर्मनी की एनर्जीवेंडे नीति के कारण सौर एवं पवन ऊर्जा को व्यापक रूप से अपनाया गया है।
- कार्बन मूल्य निर्धारण और कर: स्विट्ज़रलैंड और लिकटेंस्टीन वर्तमान में प्रति टन कार्बन उत्सर्जन पर $130.81 की उच्चतम कार्बन कर दर लगाते हैं।
- कनाडा ने अनेक उद्योगों को कवर करने वाली संघीय कार्बन मूल्य निर्धारण प्रणाली लागू की है।
- यूरोपीय संघ की उत्सर्जन व्यापार प्रणाली (ETS) कार्बन उत्सर्जन को विनियमित करने के लिये कैप-एंड-ट्रेड मॉडल का अनुसरण करती है।
- संवहनीय परिवहन: नॉर्वे में इलेक्ट्रिक वाहनों का प्रचलन सबसे अधिक है, जहाँ 80% से अधिक नई कारें इलेक्ट्रिक हैं।
- चीन दुनिया का सबसे बड़ा EV चार्जिंग नेटवर्क चलाता है, जिसमें 1.8 मिलियन सार्वजनिक चार्जिंग स्टेशन हैं।
- ऊर्जा दक्षता और हरित भवन: जापान का टॉप रनर कार्यक्रम उपकरणों के लिये दक्षता मानक निर्धारित करता है।
- सिंगापुर के ग्रीन बिल्डिंग मास्टरप्लान का लक्ष्य शुद्ध-शून्य उत्सर्जन है।
- वनरोपण और कार्बन सिंक: कोस्टा रिका ने पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिये भुगतान (PES) कार्यक्रम के माध्यम से अपने वन क्षेत्र का 50% से अधिक पुनःस्थापन कर लिया है।
- चीन ग्रेट ग्रीन वॉल के साथ विश्व की सबसे बड़ी वनरोपण पहल का नेतृत्व कर रहा है।
औद्योगिक उत्सर्जन को कम करने और ऊर्जा परिवर्तन में तीव्रता लाने के लिये भारत क्या उपाय लागू कर सकता है?
- कार्बन मूल्य निर्धारण और उत्सर्जन व्यापार को मज़बूत करना: भारत को उत्सर्जन में कमी को वित्तीय रूप से व्यवहार्य बनाने के लिये कड़े कैप-एंड-ट्रेड विनियमों के साथ एक अनिवार्य कार्बन मूल्य निर्धारण तंत्र को लागू करना चाहिये।
- कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग योजना का विस्तार कर इसे अधिक उद्योगों तक पहुँचाने तथा वैश्विक बाज़ारों के साथ एकीकृत करने से इसकी प्रभावशीलता बढ़ेगी।
- उच्च कार्बन मूल्य निर्धारण उद्योगों को स्वच्छ ईंधन, ऊर्जा दक्षता और कार्बन कैप्चर अंगीकरण की ओर प्रेरित करेगा।
- सरकार को गैर-अनुपालन के लिये कठोर दंड भी लगाना चाहिये, ताकि उद्योगों को उत्सर्जन में कटौती करने के बजाय कम जुर्माना भरने से रोका जा सके।
- कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग योजना का विस्तार कर इसे अधिक उद्योगों तक पहुँचाने तथा वैश्विक बाज़ारों के साथ एकीकृत करने से इसकी प्रभावशीलता बढ़ेगी।
- हरित हाइड्रोजन और जैव ईंधन पारिस्थितिकी तंत्र का विस्तार: नीतिगत प्रोत्साहन और सार्वजनिक-निजी भागीदारी के माध्यम से हरित हाइड्रोजन उत्पादन को बढ़ाने से इस्पात, सीमेंट और उर्वरक क्षेत्रों को कार्बन मुक्त करने में मदद मिल सकती है।
- इसके साथ ही, SATAT योजना के तहत जैव ईंधन और संपीड़ित बायोगैस (CBG) को बढ़ावा देने से परिवहन एवं शोधन क्षेत्रों में जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम हो जाएगी।
- उद्योगों को इस ओर आकर्षित करने के लिये इन स्वच्छ विकल्पों को कम लागत वाले वित्तपोषण द्वारा समर्थित किया जाना चाहिये।
- विनिर्माण में चक्रीय अर्थव्यवस्था को तीव्र अंगीकरण: भारत को इस्पात, सीमेंट, वस्त्र और ई-अपशिष्ट जैसे उद्योगों के लिये सख्त विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व (ईपीआर) लागू करना चाहिये, तथा पुनर्नवीनीकृत और द्वितीयक कच्चे माल की ओर बदलाव को अनिवार्य बनाना चाहिये।
- औद्योगिक सहजीवन को बढ़ावा देने से- जहाँ एक उद्योग का अपशिष्ट दूसरे उद्योग के लिये कच्चे माल के रूप में काम करता है - उत्सर्जन में काफी कमी आ सकती है।
- स्वच्छ उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिये ZED (शून्य दोष, शून्य प्रभाव) प्रमाणन जैसे स्थिरता कार्यढाँचे के तहत अनिवार्य सामग्री पुनर्प्राप्ति लक्ष्य निर्धारित किये जाने चाहिये।
- इसके अतिरिक्त, पुनर्चक्रित सामग्री के बाज़ार बनाने से आपूर्ति शृंखला दक्षता में सुधार हो सकता है तथा कच्चे माल की मांग कम हो सकती है।
- तीव्र FGD और CCS परिनियोजन के माध्यम से ताप विद्युत संयंत्रों का डीकार्बोनाइज़ेशन: भारत को कार्बन कैप्चर और स्टोरेज (CCS) परिनियोजन में तीव्रता लाते हुए कोयला आधारित विद्युत संयंत्रों में लंबे समय से विलंबित फ्लू गैस डिसल्फराइजेशन (FGD) स्थापना को लागू करना चाहिये।
- कार्बन उपयोग केंद्रों की स्थापना, जहाँ एकत्रित CO₂ को रसायनों, सिंथेटिक ईंधनों और निर्माण सामग्री के लिये पुन: उपयोग किया जा सके, आर्थिक व्यवहार्यता को बढ़ा सकती है।
- पुराने कोयला संयंत्रों को सुपरक्रिटिकल प्रौद्योगिकी से सुसज्जित करने से दक्षता में सुधार आएगा तथा उत्पादित बिजली की प्रति यूनिट उत्सर्जन में कमी आएगी।
- इसके समानांतर, कोयला गैसीकरण और हाइब्रिड ऊर्जा मॉडल (कोयला + नवीकरणीय) की ओर क्रमिक बदलाव को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
- औद्योगिक ऊर्जा दक्षता मानकों को सुदृढ़ बनाना: क्षेत्र-विशिष्ट दक्षता मानदंडों के साथ अधिक ऊर्जा-गहन उद्योगों को शामिल करने के लिये प्रदर्शन, उपलब्धि और व्यापार (PAT) योजना का विस्तार करने से लक्षित सुधार सुनिश्चित होंगे।
- कारखानों के लिये ऊर्जा संरक्षण भवन संहिता (ECBC) का अनुपालन अनिवार्य बनाने से अपशिष्ट ऊष्मा पुनर्प्राप्ति, सह-उत्पादन और स्मार्ट ग्रिड सॉल्यूशन को अपनाने को बढ़ावा मिलेगा।
- उत्सर्जन में बड़े पैमाने पर कमी लाने के लिये MSME को प्रौद्योगिकी उन्नयन निधि (TUF) जैसी योजनाओं के तहत ऊर्जा कुशल मशीनरी और डिजिटल निगरानी उपकरणों तक सब्सिडी वाली पहुँच मिलनी चाहिये।
- उद्योगों में नवीकरणीय ऊर्जा को अपनाने में तीव्रता लाना: जीवाश्म ईंधन आधारित बिजली पर निर्भरता कम करने के लिये उद्योगों को कैप्टिव सौर, पवन और हाइब्रिड नवीकरणीय ऊर्जा समाधानों को अपनाने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
- मुक्त पहुँच नवीकरणीय ऊर्जा नीतियों का विस्तार करने से उद्योगों को हरित ऊर्जा आपूर्तिकर्त्ताओं से कम दरों पर सीधे बिजली खरीदने की सुविधा मिलेगी।
- व्यवहार्यता अंतर वित्तपोषण के माध्यम से तीव्रता से बैटरी भंडारण की स्थापना, औद्योगिक उपयोग के लिये नवीकरणीय ऊर्जा की विश्वसनीयता में सुधार लाएगी।
- निम्न-कार्बन परिवहन और हरित लॉजिस्टिक्स का विकास: माल परिवहन को कार्बन मुक्त करने के लिये, उद्योगों को इलेक्ट्रिक और हाइड्रोजन-चालित ट्रकों की ओर रुख करना होगा, जिन्हें EV बैटरी स्वैपिंग पारिस्थितिकी तंत्र का समर्थन प्राप्त होगा।
- समर्पित माल ढुलाई गलियारा (DFC) को बढ़ाने तथा सड़क परिवहन की अपेक्षा रेल आधारित माल परिवहन को बढ़ावा देने से उत्सर्जन में काफी कमी आएगी।
- प्रमुख बंदरगाहों में हरित शिपिंग पहल का विस्तार करने तथा शून्य-उत्सर्जन गोदामों को अनिवार्य बनाने से आपूर्ति शृंखला उत्सर्जन में और कमी आएगी।
- रेल विद्युतीकरण को औद्योगिक परिवहन नीतियों के साथ जोड़ने से स्वच्छ परिवहन के लिये समन्वित संक्रमण सुनिश्चित हो सकता है।
- कोयला-निर्भर उद्योगों के लिये न्यायसंगत परिवर्तन सुनिश्चित करना: कम कार्बन विकल्पों की ओर बढ़ते हुए, भारत को कोयला खनन, ताप विद्युत और ऊर्जा-गहन उद्योगों पर निर्भर श्रमिकों एवं समुदायों की सुरक्षा के लिये न्यायसंगत परिवर्तन कार्यढाँचे को लागू करना चाहिये।
- एक राष्ट्रीय पुनर्कौशल और हरित नौकरियाँ कार्यक्रम सौर पैनल विनिर्माण, हाइड्रोजन ईंधन सेल प्रौद्योगिकी और EV घटक उत्पादन में श्रमिकों को प्रशिक्षित कर सकता है।
- औद्योगिक क्षेत्रों को स्वच्छ ऊर्जा और संधारणीय विनिर्माण केंद्रों के रूप में पुनः उपयोग में लाया जाना चाहिये, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि ऊर्जा परिवर्तन में कोई भी क्षेत्र पीछे न छूट जाए।
- अपशिष्ट से ऊर्जा और औद्योगिक अपशिष्ट प्रबंधन का सुदृढ़ीकरण: अपशिष्ट से ऊर्जा संयंत्रों, जैव-CNG उत्पादन और औद्योगिक अपशिष्ट मूल्यांकन को बढ़ाने से मीथेन और CO2 उत्सर्जन में काफी कमी आएगी।
- बड़े उद्योगों के लिये शून्य लैंडफिल नीतियों को लागू करने से वस्त्र, रसायन और खाद्य प्रसंस्करण जैसे क्षेत्रों को बंद लूप उत्पादन अपनाने के लिये प्रेरित किया जाएगा।
- प्लास्टिक-भारी उद्योगों में जैव-निम्नीकरणीय विकल्पों और रासायनिक पुनर्चक्रण को प्रोत्साहित करने से भी उत्सर्जन कम करने में मदद मिलेगी।
- उद्योगों को स्रोत पर अपशिष्ट उत्पादन को रोकने के लिये प्रमाणित हरित पैकेजिंग का उपयोग करना अनिवार्य किया जाना चाहिये।
निष्कर्ष:
भारत के औद्योगिक क्षेत्र को सतत् विकास सुनिश्चित करने के लिये उत्सर्जन में कमी के साथ आर्थिक विकास को तत्काल संतुलित करना चाहिये। क्योटो प्रोटोकॉल के सामान्य लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों (CBDR) के सिद्धांत के साथ तालमेल बिठाते हुए, भारत को अपनी विकासात्मक आवश्यकताओं पर विचार करते हुए अपने बदलाव को तीव्र करना चाहिये। इन उपायों को लागू करने से SDG7 (सस्ती और स्वच्छ ऊर्जा), SDG 9 (उद्योग, नवाचार और बुनियादी अवसंरचना) और SDG 13 (जलवायु कार्रवाई) में भी योगदान मिलेगा।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. भारत में उत्सर्जन के प्राथमिक स्रोतों और उनके शमन में चुनौतियों का परीक्षण कीजिये। भारत आर्थिक विकास और पर्यावरणीय स्थिरता के बीच संतुलन किस प्रकार हासिल कर सकता है? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न 1. यू० एन० ई० पी० द्वारा समर्थित 'कॉमन कार्बन मेट्रिक' को किसलिये विकसित किया गया है? (2021) (a) संपूर्ण विश्व में निर्माण कार्यों के कार्बन पदचिह्न का आकलन करने के लिये उत्तर: (a) प्रश्न 2. "मोमेंटम फॉर चेंज : क्लाइमेट न्यूट्रल नाउ" यह पह किसके द्वारा प्रवर्तित की गई है? (2018) (a) जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल उत्तर: (c) प्रश्न 3. 'पारितंत्र एवं जैवविविधता का अर्थतंत्र [The Economics of Ecosystems and Biodiversity (TEEB)]' नामक पहल के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (c) |