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जैव विविधता और पर्यावरण

भारत का आर्कटिक अभियान

  • 17 Apr 2024
  • 25 min read

यह एडिटोरियल 16/04/2024 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “India’s Arctic Imperative” लेख पर आधारित है। इसमें आर्कटिक में विभिन्न अनुसंधान स्टेशनों के बारे में चर्चा की गई है और इस बात पर बल दिया गया है कि यदि भारत सरकार इस क्षेत्र में समुद्री खनन एवं संसाधन दोहन से लाभ उठाने में रुचि रखती है तो उसे संवहनीय निष्कर्षण अभ्यासों का दृढ़ता से समर्थन करना चाहिये।

प्रिलिम्स के लिये:

आर्कटिक क्षेत्र, जलवायु परिवर्तन, हिमाद्री अनुसंधान केंद्र, ग्रीनलैंड, पर्माफ्रॉस्ट, ग्लोबल वार्मिंग, ध्रुवीय भालू, राष्ट्रीय ध्रुवीय और महासागर अनुसंधान केंद्र (NCPOR), आर्कटिक प्रवर्धन, जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (IPCC), IndARC, अल्बेडो, ध्रुवीय जेट स्ट्रीम

मेन्स के लिये:

भारत के लिये आर्कटिक क्षेत्र का महत्त्व, आर्कटिक क्षेत्र से संबंधित वर्तमान चुनौतियाँ, भारत की आर्कटिक नीति।

दिसंबर 2023 में जब चार भारतीय जलवायु वैज्ञानिक आर्कटिक में भारत के पहले शीतकालीन अभियान के लिये पारिस्थिति-अनुकूलन (acclimatisation) शुरू करने के उद्देश्य से ओस्लो (नॉर्वे) पहुँचे तो उन्हें इस बात का थोड़ा भी अंदाज़ा नहीं था कि आगे क्या होने वाला है। नॉर्वे के स्वालबार्ड में अंतर्राष्ट्रीय आर्कटिक रिसर्च बेस में अवस्थित भारत का अनुसंधान स्टेशन ‘हिमाद्री’ अब तक केवल ग्रीष्मकालीन मिशन की ही मेजबानी करता था। इस शीतकालीन अभियान में कठोर पारिस्थिति-अनुकूलन की अवधि के बाद तीव्र ठंड (-15 डिग्री सेल्सियस से कम) में अनुसंधान स्टेशन पर रहना और कार्य करना शामिल है। भारतीय शोधकर्ताओं के लिये अधिक चिंताजनक यह था कि वे ध्रुवीय रातों की चुनौतीपूर्ण संभावना का सामना कैसे करेंगे। आर्कटिक क्षेत्र की क्षमता का संवहनीय दोहन करने के लिये इन चुनौतियों से निपटना अब भारत के लिये आवश्यक हो गया है।

आर्कटिक क्षेत्र (Arctic Region):

  • अवस्थिति और भूगोल:
    • आर्कटिक क्षेत्र पृथ्वी के सबसे उत्तरी भाग में स्थित है, जो उत्तरी ध्रुव के आसपास केंद्रित है।
    • इसमें आर्कटिक महासागर और कनाडा, रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका, नॉर्वे एवं ग्रीनलैंड सहित कई देशों के हिस्से शामिल हैं।
    • इस क्षेत्र में अत्यधिक ठंडे तापमान का अनुभव होता है, विशेषकर शीतकाल में अधिकांश क्षेत्र हिम से ढका रहता है।
  • जलवायु और पर्यावरण:
    • आर्कटिक की विशेषता इसकी ठंडी जलवायु है, जहाँ तापमान प्रायः शून्य से नीचे चला जाता है।
    • यह क्षेत्र हिम से आच्छादित है, जिसमें समुद्री हिम और हिमच्छद (ice caps) शामिल हैं, जो सूर्य के प्रकाश को प्रतिबिंबित करके पृथ्वी की जलवायु को विनियमित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
    • आर्कटिक में एक अद्वितीय पारिस्थितिकी तंत्र पाया जाता है, जहाँ ध्रुवीय भालू, सील, व्हेल और पक्षियों की विभिन्न प्रजातियाँ वास करती हैं।

Arctic Ocean

आर्कटिक क्षेत्र का महत्त्व:

  • आर्थिक महत्त्व:
    • आर्कटिक क्षेत्र में कोयला, जिप्सम और हीरे के समृद्ध भंडार मौजूद हैं, जबकि जस्ता, सीसा, प्लसर सोना और क्वार्ट्ज के भी पर्याप्त भंडार हैं।
      • अकेले ग्रीनलैंड के ही पास दुनिया के दुर्लभ मृदा तत्व भंडार का लगभग एक चौथाई भाग मौजूद है।
      • आर्कटिक में अभी तक अनन्वेषित हाइड्रोकार्बन संसाधनों का भी बड़ा भंडार मौजूद है, जो विश्व के गैर-आविष्कृत प्राकृतिक गैस का 30% है।
    • भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा ऊर्जा खपत करने वाला देश और तीसरा सबसे बड़ा तेल आयातक है। हिम के पिघलन में वृद्धि इन संसाधनों को निष्कर्षण के लिये अधिक सुलभ एवं व्यवहार्य बनाती है।
      • इस प्रकार, आर्कटिक संभावित रूप से भारत की ऊर्जा सुरक्षा आवश्यकताओं और रणनीतिक एवं दुर्लभ मृदा खनिजों की कमी को संबोधित कर सकता है।
  • भौगोलिक महत्त्व:
    • आर्कटिक विश्व की महासागरीय धाराओं के परिसंचरण और ठंडे एवं गर्म जल को दुनिया भर में ले जाने में मदद करता है।
      • इसके अलावा, आर्कटिक समुद्री हिम ग्रह के शीर्ष पर एक विशाल श्वेत परावर्तक के रूप में कार्य करता है, जो सूर्य की कुछ किरणों को वापस अंतरिक्ष में भेज देता है, जिससे पृथ्वी को एक समान तापमान पर रखने में मदद मिलती है।
  • भू-राजनीतिक महत्त्व:
    • आर्कटिक के हिम के पिघलने से भू-राजनीतिक तापमान भी उस स्तर तक बढ़ रहा है जो शीत युद्ध के बाद से नहीं देखा गया। चीन ने ट्रांस-आर्कटिक शिपिंग मार्गों को ‘पोलर सिल्क रोड’ के रूप में संदर्भित किया है, जहाँ इसे बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के लिये तीसरे परिवहन गलियारे के रूप में चिह्नित किया है और रूस के अलावा वह एकमात्र देश है जो ‘न्यूक्लियर आइस-ब्रेकर’ का निर्माण कर रहा है।
      • इस परिदृश्य में, आर्कटिक में चीन की सॉफ्ट पावर चालों का मुक़ाबला करना अत्यंत आवश्यक है और इसी क्रम में भारत भी अपनी आर्कटिक नीति के माध्यम से आर्कटिक राज्यों में गहरी दिलचस्पी ले रहा है।
  • पर्यावरणीय महत्त्व:
    • आर्कटिक और हिमालय हालाँकि भौगोलिक रूप से दूर स्थित हैं, लेकिन आपस में संबद्ध हैं और सदृश चिंताएँ साझा करते हैं। आर्कटिक का पिघलन वैज्ञानिक समुदाय को हिमालय में हिमनदों के पिघलन को बेहतर ढंग से समझने में मदद कर रहा है। उल्लेखनीय है कि हिमालय को प्रायः ‘तीसरा ध्रुव’ (third pole) कहा जाता है और यह उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों के बाद मीठे जल का का सबसे बड़ा भंडार रखता है।
      • इसलिये आर्कटिक का अध्ययन भारतीय वैज्ञानिकों के लिये महत्त्वपूर्ण है। इसी क्रम में भारत ने वर्ष 2007 में आर्कटिक महासागर में अपना पहला वैज्ञानिक अभियान शुरू किया और स्वालबार्ड द्वीपसमूह (नॉर्वे) में ‘हिमाद्रि’ अनुसंधान केंद्र स्थापित किया। तब से भारत सक्रिय रूप से वहाँ अनुसंधान कार्यों में संलग्न है।

आर्कटिक क्षेत्र में भारत की बढ़ती रुचि के पीछे कारण:

  • आर्कटिक सागर क्षेत्र के समान जलवायु घटनाएँ:
    • एक दशक से भी अधिक समय से भारत के राष्ट्रीय ध्रुवीय एवं महासागर अनुसंधान केंद्र (National Centre for Polar and Ocean Research) को आर्कटिक में शीतकालीन मिशन का कोई कारण नज़र नहीं आया था। भारतीय नीति में बदलाव तब आया जब वैज्ञानिक डेटा से प्रकट हुआ है कि आर्कटिक पहले की तुलना में अधिक तेज़ी से गर्म हो रहा है। जब भारत में विनाशकारी जलवायु घटनाओं को आर्कटिक सागर के हिम पिघलन से संबद्ध करने वाले तथ्य सामने आए तब निर्णय निर्माताओं को इस दिशा में कार्रवाई के लिये विवश होना पड़ा।
  • संभावनाशील व्यापार मार्ग:
    • भारत आर्कटिक समुद्री मार्ग, विशेष रूप से उत्तरी समुद्री मार्ग (Northern Sea Route) के खुलने से उत्साहित है और इस क्षेत्र के माध्यम से भारतीय व्यापार के संचालन की इच्छा रख सकता है। इससे भारत को माल भेजने में समय, ईंधन और सुरक्षा लागत के साथ-साथ शिपिंग कंपनियों के लिये लागत कम करने में मदद मिल सकती है।
  • उभरते भू-राजनीतिक खतरे:
    • आर्कटिक में चीन के बढ़ते निवेश ने भारत की चिंता बढ़ा दी है। चीन को उत्तरी समुद्री मार्ग तक विस्तारित पहुँच प्रदान करने के रूस के निर्णय ने इस चिंता को और गहरा कर दिया है।
    • आर्कटिक पर भारत का ध्यान ऐसे समय में बढ़ रहा है जब इस क्षेत्र में तनाव की वृद्धि हुई है, जो रूस-यूक्रेन संघर्ष के कारण प्रेरित हुई है और विभिन्न क्षेत्रीय सहकारी मंचों के निलंबन के कारण और बढ़ गई है।
      • इन तनावों के संभावित परिणामों को लेकर चिंताएँ बनी हुई हैं, विशेष रूप से कोला प्रायद्वीप में तैनात अपने परमाणु निवारक पर रूस की बढ़ती निर्भरता को देखते हुए। भारत के लिये, जिसका लक्ष्य पश्चिमी देशों और रूस दोनों के साथ रचनात्मक संबंध बनाए रखना है, ये घटनाक्रम महत्त्वपूर्ण रणनीतिक निहितार्थ रखते हैं।
  • हिमालय और भारतीय मानसून के लिये परिणाम:
    • भारत आर्कटिक में कोई नव आगंतुक नहीं है। इस क्षेत्र में इसकी भागीदारी पेरिस में स्वालबार्ड संधि पर हस्ताक्षर के साथ वर्ष 1920 से चली आ रही है। वर्ष 2007 में भारत ने आर्कटिक सूक्ष्म जीव विज्ञान, वायुमंडलीय विज्ञान और भूविज्ञान के अन्वेषण के लिये अपना पहला अनुसंधान मिशन शुरू किया था।
    • एक वर्ष बाद ही भारत चीन के अलावा आर्कटिक अनुसंधान आधार स्थापित करने वाला एकमात्र विकासशील देश बन गया था। वर्ष 2013 में आर्कटिक काउंसिल द्वारा ‘पर्यवेक्षक’ का दर्जा दिये जाने के बाद, भारत ने 2014 में स्वालबार्ड में एक मल्टी-सेंसर मूर्ड वेधशाला (multi-sensor moored observatory) और 2016 में एक वायुमंडलीय प्रयोगशाला की स्थापना की।
      • इन स्टेशनों पर जारी कार्य आर्कटिक हिम प्रणालियों एवं ग्लेशियरों और हिमालय एवं भारतीय मानसून पर आर्कटिक पिघलन के परिणामों की जाँच पर केंद्रित है।

आर्कटिक क्षेत्र के समक्ष विद्यमान विभिन्न चुनौतियाँ:

  • भारत में नीति विभाजन:
    • आर्कटिक में भारतीय भागीदारी का मुद्दा देश के शैक्षणिक और नीति समुदायों को विभेदित करता है। भारत की अर्थव्यवस्था पर आर्कटिक में बदलती जलवायु के संभावित प्रभावों पर मत विभाजित हैं। चिंता मुख्य रूप से जीवाश्म ईंधन के लिये क्षेत्र में खनन से संबंधित है, जो एक ऐसा क्षेत्र हैं जहाँ भारत ने अभी तक एक स्पष्ट आर्थिक रणनीति तैयार नहीं की है।
      • आर्कटिक में आर्थिक दोहन के समर्थक इस क्षेत्र में विशेष रूप से तेल और गैस की खोज एवं खनन के संबंध में व्यावहारिक दृष्टिकोण की वकालत करते हैं, जबकि संशयवादी संभावित पर्यावरणीय परिणामों के बारे में चेतावनी देते हैं।
  • आर्कटिक प्रवर्धन (Arctic Amplification):
    • हाल के दशकों में आर्कटिक में तापन या ‘वार्मिंग’ दुनिया के शेष भागों की तुलना में बहुत तेज़ रही है। आर्कटिक में स्थायी तुषार भूमि (permafrost) पिघल रही है और इस क्रम में कार्बन एवं मीथेन का उत्सर्जन कर रही है जो ग्लोबल वार्मिंग के लिये ज़िम्मेदार प्रमुख ग्रीनहाउस गैसों में शामिल हैं। इससे हिम का पिघलना और बढ़ रहा है, जिससे आर्कटिक प्रवर्धन में वृद्धि हो रही है।
  • समुद्र स्तर के बढ़ने से संबद्ध चिंता:
    • आर्कटिक के हिम के पिघलने से समुद्र का स्तर बढ़ रहा है। इसके परिणामस्वरूप तटीय क्षरण की वृद्धि हो रही है और तूफान की आवृति बढ़ रही है क्योंकि गर्म हवा और समुद्र का तापमान बारंबार एवं तीव्र तटीय तूफान का कारण बनता है। यह भारत को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है जो 7,516.6 किमी लंबी तटरेखा रखता है और जहाँ कई महत्त्वपूर्ण बंदरगाह शहर अवस्थित हैं।
  • उभरती प्रतिस्पर्द्धा:
    • आर्कटिक में शिपिंग मार्गों और संभावनाओं के द्वार खुलने से संसाधन निष्कर्षण की दौड़ को बढ़ावा मिल रहा है, जो भू-राजनीतिक ध्रुवों—अमेरिका, चीन और रूस की ओर ले जा रहा है, जहाँ वे इस क्षेत्र में स्थिति एवं प्रभाव के लिये प्रतिस्पर्द्धा कर रहे हैं।
  • जैव विविधता को खतरा:
    • पूरे वर्ष हिम की अनुपस्थिति और उच्च तापमान आर्कटिक क्षेत्र के जंतुओं, पादपों और पक्षियों के अस्तित्व को कठिन बना रहे हैं। उल्लेखनीय है कि ध्रुवीय भालू को सील का शिकार करने के साथ-साथ बड़े घरेलू क्षेत्रों में घूमने के लिये समुद्री हिम की आवश्यकता होती है।
    • हिम के घटते आवरण के कारण ध्रुवीय भालू सहित अन्य आर्कटिक प्रजातियों का जीवन खतरे में है। इसके अलावा, गर्म होते समुद्रों ने खाद्य जाल (food web) में हेरफेर करते हुए मछली प्रजातियों को ध्रुव की ओर धकेलना शुरू कर दिया है।
      • टुंड्रा पुनः दलदली स्थिति में लौट रहा है क्योंकि अचानक आने वाले तूफान तटीय इलाकों को (विशेष रूप से कनाडा और रूस के आंतरिक भाग) तबाह कर रहे हैं और वनाग्नि टुंड्रा क्षेत्रों में स्थायी तुषार भूमि को क्षति पहुँचा रही है।

आर्कटिक क्षेत्र के संबंध में उठाए जाने वाले आवश्यक कदम:

  • नॉर्वे के साथ सहयोग:
    • आर्कटिक परिषद (Arctic Council) के वर्तमान अध्यक्ष नॉर्वे के भारत के साथ घनिष्ठ संबंध हैं। 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध से दोनों देशों ने आर्कटिक और अंटार्कटिक में बदलती परिस्थितियों के साथ-साथ दक्षिण एशिया पर उनके प्रभाव की जाँच के लिये सहयोग स्थापित किया है।
    • चूँकि जलवायु परिवर्तन आर्कटिक और दक्षिण एशियाई मानसून को अधिक गहराई से प्रभावित कर रहा है, इसलिये हिमालयी और आर्कटिक क्षेत्र की चुनौतियों से निपटने के लिये समय के साथ इन प्रयासों में तेज़ी लाने की ज़रूरत है।
  • आर्कटिक देशों के साथ संरेखण:
    • भारत की वर्तमान नीति यह है कि अपने ‘उत्तरदायी हितधारक’ की साख को मज़बूत करने के एक तरीके के रूप में हरित ऊर्जा और हरित एवं स्वच्छ उद्योगों में आर्कटिक देशों के साथ सहयोग किया जाए। उदाहरण के लिये, भारत ने डेनमार्क और फिनलैंड के साथ अपशिष्ट प्रबंधन, प्रदूषण नियंत्रण, नवीकरणीय ऊर्जा एवं हरित प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में सहयोग निर्माण किया है।
  • संसाधन निष्कर्षण के संवहनीय तरीके का पालन करना:
    • जबकि भारत सरकार आर्कटिक में समुद्र-तल खनन और संसाधन दोहन से लाभ उठाने की इच्छा रखती है, उसे स्पष्ट रूप से निष्कर्षण के एक संवहनीय तरीके का समर्थन करना चाहिये।
      • ऐसा माना जाता है कि नॉर्वे के साथ साझेदारी भारत के लिये परिवर्तनकारी सिद्ध हो सकती है क्योंकि यह ‘ब्लू इकॉनोमी’, कनेक्टिविटी, समुद्री परिवहन, निवेश  एवं अवसंरचना और ज़िम्मेदार संसाधन विकास जैसे मुद्दों से निपटने के लिये आर्कटिक परिषद के कार्य समूहों में अधिक भारतीय भागीदारी को सक्षम बनाएगी।
  • भारत की आर्कटिक नीति को आर्कटिक परिषद के उद्देश्यों के साथ संरेखित करना:
    • नॉर्डिक देशों के साथ साझेदारी वैज्ञानिक अनुसंधान और जलवायु एवं पर्यावरण संरक्षण पर केंद्रित होने की संभावना है। ये उन छह स्तंभों में से दो हैं जिनसे भारत की आर्कटिक नीति तैयार होती है (अन्य चार हैं: आर्थिक एवं मानव विकास; परिवहन एवं कनेक्टिविटी; शासन एवं अंतर्राष्ट्रीय सहयोग; और राष्ट्रीय क्षमता निर्माण)।
      • भारत आर्कटिक में आर्थिक अवसरों की तलाश की इच्छा रखता है। इस संदर्भ में आर्कटिक परिषद भारत को ऐसी संवहनीय नीति तैयार करने में मदद कर सकती है जो वैज्ञानिक समुदाय एवं उद्योग दोनों की आवश्यकता को पूरा करे।
  • एक नोडल निकाय का गठन करना:
    • वर्तमान में राष्ट्रीय ध्रुवीय और महासागर अनुसंधान केंद्र (National Centre for Polar and Ocean Research- NCPOR) ध्रुवीय और दक्षिणी महासागर क्षेत्रों (जिसमें आर्कटिक भी शामिल है) के मामलों का प्रबंधन करता है, जबकि भारतीय विदेश मंत्रालय आर्कटिक परिषद को बाहरी इंटरफ़ेस प्रदान करता है।
      • आर्कटिक अनुसंधान एवं विकास से स्पष्ट रूप से संबद्ध होने और आर्कटिक से संबंधित भारत सरकार की सभी गतिविधियों का समन्वय करने के लिये एक एकल नोडल निकाय का निर्माण करने की आवश्यकता है।
  • वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परे आगे बढ़ना:
    • भारत को आर्कटिक में विशुद्ध वैज्ञानिक दृष्टिकोण तक सीमित नहीं रहते हुए इसके परे आगे बढ़ने की ज़रूरत है। वैश्विक मामलों में भारत के बढ़ते कद और परिणामी प्रभाव को देखते हुए, इसे आर्कटिक जनसांख्यिकी एवं शासन की गतिशीलता को समझने और आर्कटिक जनजातियों की आवाज़ बनने तथा वैश्विक मंचों पर उनके मुद्दों को उठाने के लिये सुदृढ़ स्थिति में होना चाहिये।
  • वैश्विक महासागर संधि को अपनाना:
    • वैश्विक महासागर प्रशासन को संवीक्षा के दायरे में रखना और ध्रुवीय क्षेत्रों एवं संबद्ध समुद्र स्तर वृद्धि संबंधी चुनौतियों पर विशेष ध्यान देने के साथ एक सहयोगी वैश्विक महासागर संधि (Global Ocean Treaty) की दिशा में आगे बढ़ना महत्त्वपूर्ण है।

निष्कर्ष:

आर्कटिक क्षेत्र एक अनूठा और भंगुर पारिस्थितिकी तंत्र है जो पृथ्वी की जलवायु को विनियमित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हालाँकि, जलवायु परिवर्तन के कारण इसे अभूतपूर्व पर्यावरणीय परिवर्तनों का सामना करना पड़ रहा है, जिसमें हिम का तीव्र गति से पिघलना और तापमान का बढ़ना शामिल है। इन परिवर्तनों का क्षेत्र के वन्य जीवन, स्वदेशी समुदायों और वैश्विक जलवायु पैटर्न पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है।

आर्कटिक के भंगुर/संवेदनशील पर्यावरण को संरक्षित करने और इसकी दीर्घकालिक व्यवहार्यता सुनिश्चित करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय सहयोग एवं संवहनीय अभ्यास आवश्यक हैं।

अभ्यास प्रश्न: भू-राजनीतिक बदलावों और पर्यावरणीय चिंताओं पर विचार करते हुए आर्कटिक क्षेत्र में भारत के रणनीतिक हितों, चुनौतियों एवं संभावित सहयोग पर चर्चा कीजिये।

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)    

प्रश्न. ‘मीथेन हाइड्रेट’ के निक्षेपों के बारे में निम्नलिखित में से कौन-से कथन सही हैं?  (2019)

1. भूमंडलीय तापन के कारण इन निक्षेपों से मीथेन गैस का निर्मुक्त होना प्रेरित हो सकता है।
2. ‘मीथेन हाइड्रेट’ के विशाल निक्षेप उत्तरी ध्रुवीय टुंड्रा में तथा समुद्र अधस्तल के नीचे पाए जाते हैं।
3. वायुमंडल के अंदर मीथेन एक या दो दशक के बाद कार्बन डाइऑक्साइड में ऑक्सीकृत हो जाती है।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (d)


मेन्स: 

प्रश्न.  आर्कटिक की बर्फ और अंटार्कटिक के ग्लेशियरों का पिघलना किस तरह से अलग-अलग ढंग से पृथ्वी पर मौसम के स्वरूप और मनुष्य की गतिविधियों पर प्रभाव डालते हैं? स्पष्ट कीजिये। (2021)

प्रश्न. आर्कटिक सागर में तेल की खोज और इसके संभावित पर्यावरणीय परिणामों के आर्थिक महत्त्व क्या हैं?  (2015)

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