तीसरी आर्कटिक विज्ञान मंत्रिस्तरीय बैठक
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत ने ‘तीसरी आर्कटिक विज्ञान मंत्रिस्तरीय’ (ASM) बैठक में भाग लिया और आर्कटिक क्षेत्र में अनुसंधान कार्य और सहयोग के लिये दीर्घकालिक योजनाओं को भी साझा किया है।
- पहली दो बैठकों- ASM1 और ASM2 का आयोजन क्रमश: वर्ष 2016 (अमेरिका) और वर्ष 2018 (जर्मनी) में किया गया था।
आर्कटिक क्षेत्र:
- आर्कटिक क्षेत्र के अंतर्गत आर्कटिक महासागर और कुछ विशिष्ट हिस्से, जैसे- अलास्का (संयुक्त राज्य अमेरिका), कनाडा, फिनलैंड, डेनमार्क (ग्रीनलैंड), आइसलैंड, नॉर्वे, रूस और स्वीडन को शामिल किया जाता है।
- ये देश एक साथ मिलकर आर्कटिक काउंसिल नामक एक अंतर-सरकारी फोरम का निर्माण करते हैं।
- मुख्यालय: नॉर्वे
प्रमुख बिंदु
तीसरी आर्कटिक विज्ञान मंत्रिस्तरीय बैठक:
- आयोजक देश : इसका आयोजन आइसलैंड और जापान द्वारा संयुक्त रूप से किया गया था।
- यह एशिया (टोक्यो, जापान) में आयोजित की जाने वाली पहली आर्कटिक विज्ञान मंत्रिस्तरीय बैठक है ।
- उद्देश्य: इस बैठक का आयोजन आर्कटिक क्षेत्र के बारे में सामूहिक समझ को बढ़ाने के साथ-साथ इसकी निरंतर निगरानी पर ज़ोर देते हुए शिक्षाविदों, स्थानीय समुदायों, सरकारों और नीति निर्माताओं सहित विभिन्न हितधारकों को इस दिशा में अवसर प्रदान करने के लिये किया गया है।
- थीम (Theme): ‘संवहनीय आर्कटिक के लिये जानकारी’ (Knowledge for a Sustainable Arctic)
भारत का रूख:
- भारत ने आर्कटिक में, ‘इन-सीटू’ (in-situ) और ‘रिमोट सेंसिंग’, दोनों प्रकार की अवलोकन प्रणालियों में योगदान दिया है।
- भारत महासागरीय सतही गतिविधियों और समुद्री मौसम संबंधी मापदंडों की दीर्घकालिक निगरानी के लिये आर्कटिक महासागर में स्थित खुले सागर में नौबंध (Mooring) की तैनाती करेगा।
- भारत द्वारा अमेरिका (USA) के सहयोग से ‘NISAR’ (NASA-ISRO Synthetic Aperture Radar) उपग्रह मिशन का शुभारंभ किया जा रहा है।
- सतत् आर्कटिक निगरानी नेटवर्क (Sustained Arctic Observational Network– SAON) में भारत का योगदान जारी रहेगा।
नासा-इसरो सिंथेटिक एपर्चर रडार (NISAR)
- निसार (NISAR) अपने तीन-वर्षीय मिशन के दौरान प्रत्येक 12 दिनों में पृथ्वी की सतह का चक्कर लगाकर पृथ्वी की सतह, बर्फ की चादर, समुद्री बर्फ के दृश्यों का चित्रण करेगा, ताकि ग्रह का एक अभूतपूर्व दृश्य मिल सके और बेहतर तरीके से समझा जा सके।
- इसका उद्देश्य उन्नत रडार इमेजिंग की मदद से पृथ्वी की सतह के परिवर्तन के कारणों और परिणामों का वैश्विक मापन करना है।
सतत् आर्कटिक निगरानी नेटवर्क (SAON)
- यह अंतर्राष्ट्रीय आर्कटिक विज्ञान समिति (IASC) और आर्कटिक परिषद की एक संयुक्त गतिविधि है।
- IASC एक गैर-सरकारी, अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक संगठन है।
- इसका उद्देश्य सतत् और समन्वित संपूर्ण-आर्कटिक अवलोकन और डेटा साझाकरण प्रणालियों के लिये बहुराष्ट्रीय समझौते के विकास हेतु समर्थन को और मज़बूत करना है।
आर्कटिक में भारत की उपस्थिति :
- आर्कटिक क्षेत्र में भारत की उपस्थिति वर्ष 1920 में पेरिस की स्वालबार्ड संधि पर हस्ताक्षर के साथ शुरू हुई थी।
- भारत ने वर्ष 2008 में आर्कटिक क्षेत्र में एक स्थायी अनुसंधान स्टेशन का निर्माण किया। इसे ‘हिमाद्री’ कहा जाता है। हिमाद्री नॉर्वे के स्वालबार्ड क्षेत्र के न्यालेसुंड में स्थित है।
- भारत को वर्ष 2013 में आर्कटिक परिषद में ‘पर्यवेक्षक’ देश का दर्जा प्रदान किया गया तथा वर्तमान में चीन सहित विश्व के कुल 13 देशों को ‘पर्यवेक्षक’ का दर्जा प्राप्त है। वर्ष 2018 में भारत के ‘पर्यवेक्षक’ दर्जे का नवीनीकरण किया गया था।
- भारत द्वारा, जुलाई 2014 से कांग्सजॉर्डन फोर्ड (Kongsfjorden fjord) में इंडआर्क (IndARC) नामक एक बहु-संवेदक यथास्थान वेधशाला (Multi-Sensor Moored Observatory) भी तैनात की गई।
- आर्कटिक क्षेत्र में भारत के अनुसंधान कार्यों का समन्वयन, संचालन और प्रचार-प्रसार भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के तहत गोवा स्थित ‘राष्ट्रीय ध्रुवीय एवं समुद्री अनुसंधान केंद्र’ (NCPOR) द्वारा किया जाता है।
- हाल ही में भारत ने एक नया आर्कटिक नीति मसौदा भी तैयार किया है, जिसका उद्देश्य आर्कटिक क्षेत्र में वैज्ञानिक अनुसंधान, स्थायी पर्यटन और खनिज तेल एवं गैस की खोज को बढ़ावा देना है।
भारत के लिये आर्कटिक अध्ययन का महत्त्व:
- यद्यपि भारत का कोई भी क्षेत्र सीधे आर्कटिक क्षेत्र में नहीं आता है, किंतु यह एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है, क्योंकि आर्कटिक पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र के वायुमंडलीय, समुद्र संबंधी और जैव-रासायनिक चक्रों को प्रभावित करता है।
- आर्कटिक क्षेत्र मे बढ़ती गर्मी और इसकी बर्फ पिघलना वैश्विक चिंता का विषय है, क्योंकि यह जलवायु, समुद्र के स्तर को विनियमित करने और जैव विविधता को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं।
- इसके अलावा, आर्कटिक और हिंद महासागर (जो भारतीय मानसून को नियंत्रित करता है) के बीच करीब संबंध होने के प्रमाण हैं। इसलिये, भौतिक प्रक्रियाओं की समझ में सुधार करना और भारतीय गर्मियों के मानसून पर आर्कटिक बर्फ के पिघलने के प्रभाव को कम करने की दिशा में यह महत्त्वपूर्ण है।