राजद्रोह कानून | 03 May 2023
प्रिलिम्स के लिये:राजद्रोह, धारा 124A, सर्वोच्च न्यायालय, IPC, अनुच्छेद 19 मेन्स के लिये:राजद्रोह कानून - महत्त्व और मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया है कि सरकार ने भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124A (राजद्रोह) की "पुन: परीक्षा की प्रक्रिया" शुरू कर दी है और इस संबंध में परामर्श अपने "अंतिम चरण" में हैं।
- मई 2022 में न्यायालय ने एक अंतरिम आदेश में देश भर में धारा 124A के तहत लंबित आपराधिक मुकदमों और न्यायालयी कार्यवाही को रोकते हुए धारा 124A के उपयोग को निलंबित कर दिया था।
राजद्रोह कानून:
- ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
- राजद्रोह कानून को 17वीं शताब्दी में इंग्लैंड में अधिनियमित किया गया था, उस समय विधि निर्माताओं का मानना था कि सरकार के प्रति अच्छी राय रखने वाले विचारों को ही केवल अस्तित्त्व में या सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होना चाहिये, क्योंकि गलत राय सरकार तथा राजशाही दोनों के लिये नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न कर सकती थी।
- इस कानून का मसौदा मूल रूप से वर्ष 1837 में ब्रिटिश इतिहासकार और राजनीतिज्ञ थॉमस मैकाले द्वारा तैयार किया गया था, लेकिन वर्ष 1860 में भारतीय दंड सहिता (IPC) लागू करने के दौरान इस कानून को IPC में शामिल नहीं किया गया।
- धारा 124A को 1870 में जेम्स स्टीफन द्वारा पेश किये गए एक संशोधन द्वारा जोड़ा गया था जब उन्होंने अपराध से निपटने के लिये एक विशिष्ट खंड की आवश्यकता महसूस की थी।
- वर्तमान में भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124A के तहत राजद्रोह एक अपराध है।
- राजद्रोह कानून को 17वीं शताब्दी में इंग्लैंड में अधिनियमित किया गया था, उस समय विधि निर्माताओं का मानना था कि सरकार के प्रति अच्छी राय रखने वाले विचारों को ही केवल अस्तित्त्व में या सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होना चाहिये, क्योंकि गलत राय सरकार तथा राजशाही दोनों के लिये नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न कर सकती थी।
- वर्तमान में राजद्रोह कानून:
- भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124A:
- यह कानून राजद्रोह को एक ऐसे अपराध के रूप में परिभाषित करता है जिसमें ‘किसी व्यक्ति द्वारा भारत में कानूनी तौर पर स्थापित सरकार के प्रति मौखिक, लिखित (शब्दों द्वारा), संकेतों या दृश्य रूप में घृणा अथवा अवमानना या उत्तेजना पैदा करने का प्रयत्न किया जाता है।
- विद्रोह में वैमनस्य और शत्रुता की भावनाएँ शामिल होती हैं। हालाँकि इस धारा के तहत घृणा या अवमानना फैलाने की कोशिश किये बगैर की गई टिप्पणियों को अपराध की श्रेणी में शामिल नहीं किया जाता है।
- बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य (1995) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने दोहराया कि भाषण को देशद्रोही करार देने से पहले उसके वास्तविक इरादे को ध्यान में रखा जाना चाहिये।
- यह कानून राजद्रोह को एक ऐसे अपराध के रूप में परिभाषित करता है जिसमें ‘किसी व्यक्ति द्वारा भारत में कानूनी तौर पर स्थापित सरकार के प्रति मौखिक, लिखित (शब्दों द्वारा), संकेतों या दृश्य रूप में घृणा अथवा अवमानना या उत्तेजना पैदा करने का प्रयत्न किया जाता है।
- भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124A:
- दंड:
- राजद्रोह गैर-जमानती अपराध है। राजद्रोह के अपराध में तीन वर्ष से लेकर उम्रकैद तक की सज़ा हो सकती है और इसके साथ ज़ुर्माना भी लगाया जा सकता है।
- इस कानून के तहत आरोपित व्यक्ति को सरकारी नौकरी प्राप्त करने से रोका जा सकता है।
- आरोपित व्यक्ति को पासपोर्ट के बिना रहना होता है, साथ ही आवश्यकता पड़ने पर उसे न्यायालय में पेश होना ज़रूरी है।
राजद्रोह कानून का महत्त्व:
- उचित प्रतिबंध
- भारत का संविधान अपने नागरिकों को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है।
- हालाँकि यह अधिकार पूर्ण नहीं है और सरकार यह सुनिश्चित करने के लिये कुछ परिस्थितियों में इसे प्रतिबंधित कर सकती है ताकि इसका दुरुपयोग न हो।
- इन प्रतिबंधों को उचित माना जाता है और संविधान के अनुच्छेद 19(2) में निर्धारित किया गया है।
- भारत का संविधान अपने नागरिकों को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है।
- एकता और अखंडता बनाए रखना:
- राजद्रोह कानून सरकार को राष्ट्र-विरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्त्वों का मुकाबला करने में मदद करता है।
- राज्य की स्थिरता को बनाए रखना:
- यह चुनी हुई सरकार को हिंसा और अवैध तरीकों से उखाड़ फेंकने के प्रयासों से बचाने में मदद करता है।
- कानून द्वारा स्थापित सरकार का निरंतर अस्तित्त्व राज्य की स्थिरता के लिये एक अनिवार्य शर्त है।
संबंधित मुद्दे:
- औपनिवेशिक युग का अवशेष:
- औपनिवेशिक प्रशासकों ने ब्रिटिश नीतियों की आलोचना करने वाले लोगों को रोकने के लिये राजद्रोह कानून का इस्तेमाल किया।
- लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, भगत सिंह आदि स्वतंत्रता आंदोलन के दिग्गजों को ब्रिटिश शासन के तहत उनके "राजद्रोही" भाषणों, लेखन और गतिविधियों के लिये दोषी ठहराया गया था।
- औपनिवेशिक प्रशासकों ने ब्रिटिश नीतियों की आलोचना करने वाले लोगों को रोकने के लिये राजद्रोह कानून का इस्तेमाल किया।
- संविधान सभा का मत:
- संविधान सभा संविधान में राजद्रोह को शामिल करने के लिये सहमत नहीं थी क्योंकि सदस्यों को लगा कि यह बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कम कर देगा।
- उन्होंने तर्क दिया कि राजद्रोह कानून को विरोध करने के लोगों के वैध और संवैधानिक रूप से गारंटीकृत अधिकार को दबाने के लिये एक हथियार में बदल दिया जा सकता है।
- लोकतांत्रिक मूल्यों का दमन:
- मुख्य रूप से राजद्रोह कानून के कठोर और गणनात्मक उपयोग के कारण भारत को एक निर्वाचित निरंकुशता के रूप में वर्णित किया जा रहा है।
देशद्रोह के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के विगत निर्णय:
- वर्ष 1950 की शुरुआत में रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि "सरकार की आलोचना उसके प्रति असंतोष या बुरी भावनाओं को उत्तेजित करती है, अभिव्यक्ति और प्रेस की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करना एक न्यायोचित आधार के रूप में नहीं माना जाना चाहिये जैसे कि सुरक्षा को कमज़ोर करना या राज्य सत्ता को उखाड़ फेंकना।"
- इसके बाद दो उच्च न्यायालयों- तारा सिंह गोपीचंद बनाम राज्य (1951) मामले में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय तथा राम नंदन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1959) मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने IPC की धारा 124A घोषित की जो मुख्य रूप से देश में असंतोष को दबाने के लिये औपनिवेशिक आकाओं के लिये एक उपकरण था एवं प्रावधान को असंवैधानिक घोषित कर दिया।
- केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) मामले में देशद्रोह पर फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालयों के पहले के फैसलों को खारिज कर दिया और IPC की धारा 124A की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा। हालाँकि न्यायालय ने इसके दुरुपयोग की गुंज़ाइश को सीमित करने का प्रयास किया।
हाल के विकास:
- फरवरी 2021 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक राजनीतिक नेता और छह वरिष्ठ पत्रकारों को कथित रूप से ट्वीट करने एवं असत्यापित समाचार साझा करने हेतु उनके खिलाफ दर्ज कई राजद्रोह FIR से सुरक्षित किया।
- जून 2021 में आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा दो तेलुगू (भाषा) समाचार चैनलों को जबरदस्ती की कार्रवाई से बचाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने राजद्रोह की सीमा को परिभाषित करने पर ज़ोर दिया।
- जुलाई 2021 में सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें राजद्रोह कानून पर फिर से विचार करने की मांग की गई थी।
- न्यायालय ने फैसला सुनाया कि एक कानून जो 'सरकार के प्रति असंतोष' जैसे शब्दों की अस्पष्ट और असंवैधानिक परिभाषाओं के आधार पर अभिव्यक्ति का अपराधीकरण करता है, वह अनुच्छेद 19(1)(A) के तहत गारंटीकृत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर उचित प्रतिबंध नहीं है।
- इस तरह का कानून अभिव्यक्ति पर एक द्रुतशीतन प्रभाव उत्पन्न करता है, जिसका अर्थ है कि लोग सरकार द्वारा दंडित किये जाने के डर से स्वयं को सेंसर या सीमित करेंगे अथवा अपनी राय व्यक्त करने से परहेज करेंगे।
आगे की राह
- न्यायालय का हस्तक्षेप महत्त्वपूर्ण है क्योंकि अगर यह प्रावधान को रद्द कर देता है, तो उसे केदार नाथ के फैसले को रद्द करना होगा एवं पहले के फैसलों को बरकरार रखना होगा जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पर उदार थे।
- यदि सरकार भाषा को कमज़ोर करके या इसे निरस्त करके कानून की समीक्षा करने का निर्णय लेती है, तो प्रावधान को एक अलग रूप में फिर से बहाल किया जा सकता है।
- उच्च न्यायपालिका को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने वाले संवैधानिक प्रावधानों के प्रति मजिस्ट्रेट और पुलिस को संवेदनशील बनाने हेतु अपनी पर्यवेक्षी शक्तियों का उपयोग करना चाहिये।
- भारत की क्षेत्रीय अखंडता और देश की संप्रभुता से संबंधित मुद्दों को शामिल करने हेतु राजद्रोह की परिभाषा को संक्षिप्त किया जाना चाहिये।