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शासन व्यवस्था

जमानत कानून में सुधार

  • 14 Jul 2022
  • 16 min read

प्रिलिम्स के लिये:

अपराधों के प्रकार, जमानत देने की शक्ति, CrPC, IPC, सर्वोच्च न्यायालय के फैसले।

मेन्स के लिये:

मनमानी गिरफ्तारी का समाज पर प्रभाव, शासन के समक्ष भीड़भाड़ वाली जेलों की चुनौतियाँ, पुलिसिंग में सुधार और संबंधित निर्णय, संवैधानिक संरक्षण

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात को रेखांकित किया कि जमानत से संबंधित कानून में सुधार किया जाना अति आवश्यक है और सरकार से यूनाइटेड किंगडम के कानून की तर्ज पर एक विशेष कानून बनाने पर विचार करने का आह्वान किया।

न्यायालय के निर्णय के बारे में:

  • दो न्यायाधीशों की बेंच ने जुलाई 2021 में जमानत कानून में सुधार (Bail Reform), (सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम CBI) पर दिये गए एक पुराने फैसले को लेकर कुछ स्पष्टीकरण जारी किये हैं।
    • निर्णय अनिवार्य रूप से आपराधिक प्रक्रिया के कई महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों की पुनरावृत्ति है।
  • देश में जेलों की स्थिति, जहाँ दो-तिहाई से अधिक विचाराधीन कैदी हैं, का उल्लेख करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने रेखांकित किया कि गिरफ्तारी एक कठोर उपाय है जिसका संयम से प्रयोग किये जाने की आवश्यकता है।
  • सैद्धांतिक रूप से न्यायालय ने मनमानी गिरफ्तारी के विचार को "जेल नही, जमानत" के नियम की अनदेखी करने वाले न्यायाधीशो की औपनिवेशिक मानसिकता से जोड़ा है।
    • दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) पहली बार 1882 में तैयार की गई थी और समय-समय पर संशोधनों के साथ इसका उपयोग जारी है।

जमानत के संबंध में भारत का कानून:

  • CrPC जमानत शब्द को परिभाषित नहीं करता है, लेकिन केवल भारतीय दंड संहिता के तहत अपराधों को 'जमानती' और 'गैर-जमानती' के रूप में वर्गीकृत करता है।
  • CrPC जमानती अपराधों के लिये न्यायाधीशो को जमानत देने का अधिकार देता है।
    • इसमें जमानतनामा या जमानत बॉण्ड प्रस्तुत न करने पर भी रिहाई होगी।
  • गैर-जमानती अपराध के मामले में एक न्यायाधीश ही यह निर्धारित करेगा कि आरोपी जमानत पर रिहा होने के योग्य है या नहीं।
    • गैर-जमानती अपराध संज्ञेय हैं जो पुलिस अधिकारी को बिना वारंट के गिरफ्तार करने में सक्षम बनाता है।
    • दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 436 में कहा गया है कि P.C के तहत एक जमानती अपराध के आरोपी व्यक्ति को जमानत दी जा सकती है। दूसरी ओर दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 437 में कहा गया है कि गैर-जमानती अपराधों में आरोपी को जमानत का अधिकार नहीं है। गैर-जमानती अपराधों के मामले में जमानत देना अदालत का विवेकाधिकार है।

यूनाइटेड किंगडम में जमानत कानून:

  • यूनाइटेड किंगडम का जमानत अधिनियम, 1976 जमानत देने की प्रक्रिया निर्धारित करता है। 
  • इसका एक प्रमुख विशेषता यह है कि कानून का एक उद्देश्य "कैदियों की आबादी के आकार को कम करना" है।
  • कानून में प्रतिवादियों के लिये कानूनी सहायता सुनिश्चित करने के प्रावधान भी हैं।
  • अधिनियम जमानत दिये जाने के लिये एक "सामान्य अधिकार" को मान्यता देता है।
    • इसकी धारा 4 (1) के अनुसार, यह कानून उस व्यक्ति पर लागू होता है जिसे अधिनियम की अनुसूची 1 में दिये गए प्रावधान में जमानत दी जाएगी।
  • जमानत खारिज करने के लिये अभियोजन पक्ष को यह दिखाना होगा कि जमानत हेतु प्रतिवादी पर विश्वास करने के लिये आधार मौजूद हैं कि वह हिरासत में आत्मसमर्पण नहीं करेगा, न ही जमानत पर रहते हुए अपराध करेगा या गवाहों के साथ हस्तक्षेप करेगा और न ही न्याय के मार्ग में बाधा डालेगा, तब तक प्रतिवादी को अपने कल्याण या सुरक्षा के लिये या अन्य परिस्थितियों में हिरासत में नहीं लिया जाना चाहिये।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुधारों हेतु बनाए गए नियम:

  • जमानत हेतु अलग कानून:
    • न्यायालय ने रेखांकित किया कि CrPC में स्वतंत्रता के बाद किये गए संशोधनों के बावजूद यह बड़े पैमाने पर अपने मूल ढाँचे को बरकरार रखता है, जैसा कि अपने विषयों पर औपनिवेशिक शक्ति द्वारा तैयार किया गया था।
    • न्यायालय ने कहा कि फैसलों के बावजूद संरचनात्मक रूप से संहिता अपने आप में मौलिक स्वतंत्रता के मुद्दे के रूप में गिरफ्तारी के लिये ज़िम्मेदार नहीं है।
    • इसने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि यह ज़रूरी नहीं कि जिस्ट्रेट अपनी विवेकाधीन शक्तियों का समान रूप से प्रयोग करें।
    • न्यायालय के निर्णयों में एकरूपता और निश्चितता न्यायिक व्यवस्था की नींव है।
    • एक ही तरह के अपराध के आरोपी व्यक्तियों के साथ एक ही न्यायालय या अलग-अलग न्यायालय द्वारा कभी भी भिन्न व्यवहार नहीं किया जाएगा।
    • इस तरह की कार्रवाई भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का गंभीर उल्लंघन होगी।
    • न्यायालय एक अलग कानून बनाने की वकालत करता है जो जमानत देने से संबंधित है।
  • विवेकहीन गिरफ्तारियाँ:  
    • न्यायालय ने कहा कि बहुत अधिक एवं विवेकहीनगिरफ्तारियों की प्रवृत्ति, विशेष रूप से गैर-संज्ञेय अपराधों के लिये अनुचित है।
      • इसने इस बात पर ज़ोर दिया कि संज्ञेय अपराधों के लिये भी गिरफ्तारी अनिवार्य नहीं है और इसे "आवश्यक" होना चाहिये।
        • इस तरह की आवश्यक गिरफ्तारी भविष्य में किसी भी अपराध को रोकने के लिये उचित जाँच और सबूत के गायब करने या सबूत के साथ छेड़छाड़ करने से रोकने के लिये की जाती है।
        • ऐसे व्यक्ति को तथ्यों या सबूतों के संदर्भ में किसी भी व्यक्ति को कोई प्रलोभन, धमकी या वादा करने से रोकने के लिये उसे गिरफ्तार भी किया जा सकता है, ताकि उसे उक्त तथ्यों को न्यायालय या पुलिस अधिकारी के सामने प्रकट करने से रोका जा सके।
        • एक और आधार जिस पर गिरफ्तारी आवश्यक हो सकती है, वह यह है कि जब न्यायालय के समक्ष उसकी उपस्थिति आवश्यक हो और वह उपस्थित न हो
    • निचली न्यायालय का इस बात से संतुष्ट होना आवश्यक है कि शर्तों को पूरा किया गया है, इसी आधार "कोई गैर-अनुपालन आरोपी को जमानत लेने का हकदार होगा"।
  • जमानत आवेदन:  
    • संहिता की धारा 88, 170, 204 और 209 के तहत आवेदन पर विचार करते समय जमानत आवेदन पर ज़ोर देने की ज़रूरत नहीं है।
      • ये धाराएँ मुकदमे के विभिन्न चरणों से संबंधित हैं जिनके आधार पर मजिस्ट्रेट आरोपी की रिहाई पर फैसला कर सकता है।
      • ये मजिस्ट्रेट की पेशी के लिये बॉण्ड लेने की शक्ति (धारा 88) से लेकर समन जारी करने की शक्ति (धारा 204) तक हैं।
      • सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने कहा कि इन परिस्थितियों में मजिस्ट्रेट को नियमित रूप से एक अलग जमानत आवेदन पर ज़ोर दिये बिना जमानत देने पर विचार करना चाहिये।
  • राज्यों के लिये निर्देश:
    • सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्य सरकारों और केंद्रशासित प्रदेशों को आदेशों का पालन करने और विवेकहीन गिरफ्तारी से बचने के लिये स्थायी आदेशों की सुविधा प्रदान करने का भी निर्देश दिया।
    • यह निश्चित रूप से न केवल अनुचित गिरफ्तारी को रोकेगा बल्कि विभिन्न न्यायालयों के समक्ष जमानत आवेदनों को भी रोकेगा क्योंकि सात साल तक के अपराधों के लिये इनकी आवश्यकता भी नहीं हो सकती है।

भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली हेतु कानूनी ढाँचा:

  • भारतीय दंड संहिता (IPC) भारत की आधिकारिक आपराधिक सहिंता है जिसे वर्ष 1834 में स्थापित भारत के पहले विधि आयोग की सिफारिशों पर चार्टर अधिनियम, 1833 के तहत वर्ष 1860 में लॉर्ड थॉमस बबिंगटन मैकाले की अध्यक्षता में तैयार किया गया था।
  • आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) भारत में वास्तविक आपराधिक कानून के प्रशासन के लिये मुख्य कानून है। यह वर्ष 1973 में अधिनियमित किया गया था और 1 अप्रैल, 1974 को लागू हुआ था।

मनमानी गिरफ्तारी के खिलाफ संवैधानिक प्रावधान:

  • अनुच्छेद 20:
    • अनुच्छेद 20 यह कहते हुए मनमानी गिरफ्तारी के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करता है कि "कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिये तब तक दोषी नहीं ठहराया जाएगा, जब तक कि उसने ऐसा कोई कार्य करते समय, जिसमें वह अपराधी के रूप में आरोपित है, किसी प्रवृत्त विधि का अतिक्रमण नहीं किया है या उससे अधिक सज़ा का भागी नहीं होगा जो उस अपराध के किये जाने के समय प्रवृत्त विधि के अधीन अधिरोपित की जा सकती थी।"
  • अनुच्छेद 21:
    • अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा प्रदान करता है।
    • किसी व्यक्ति की नरबंदी भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है।
  • अनुच्छेद 22:
    • अनुच्छेद 22 गिरफ्तारी और नज़रबंदी के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है।
    • अनुच्छेद 22 का पहला भाग सामान्य कानून से संबंधित है और इसमें शामिल हैं:
      • गिरफ्तारी के आधार के बारे में सूचित करने का अधिकार।
      • एक विधि व्यवसायी से परामर्श करने और बचाव करने का अधिकार।
      • यात्रा के समय को छोड़कर 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश होने का अधिकार।
      • 24 घंटे के बाद रिहा होने का अधिकार जब तक कि मजिस्ट्रेट आगे की हिरासत के लिये अधिकृत नहीं करता

आगे की राह

  • पुलिस कर्मियों के बीच कानूनों के बारे में जागरूकता बढ़ाना, एक क्षेत्र में शिकायतों की संख्या के अनुपात में पुलिस कर्मियों और स्टेशनों की संख्या में वृद्धि करना तथा आपराधिक न्याय प्रणाली में सामाजिक कार्यकर्त्ताओं एवं मनोवैज्ञानिकों को शामिल करना।
  • पीड़ित के अधिकारों और स्मार्ट पुलिसिंग पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। पुलिस अधिकारियों की दोषसिद्धि की दर और उनके द्वारा कानून का पालन न करने की दर का अध्ययन करने की आवश्यकता है।
  • जैसा कि उच्चतम न्यायालय ने रेखांकित किया है, देश में विचाराधीन मामलों के प्रभावी प्रबंधन के लिये जमानत पर एक अलग कानून का मसौदा तैयार किया जाना चाहिये।
  • समाज के विभिन्न वर्गों से पुलिस बल में समावेशन बढ़ाना, ताकि किसी भी जाति/वर्ग/समुदाय के खिलाफ मनमानी गिरफ्तारी से बचने के लिये संतुलित मानसिकता प्रदान की जा सके।

यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, पिछले वर्ष के प्रश्न

प्रश्न. भारत के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:

  1. न्यायिक हिरासत का अर्थ है कि एक आरोपी संबंधित मजिस्ट्रेट की हिरासत में है और ऐसे आरोपी को पुलिस थाने में बंद कर दिया गया है, जेल में नहीं।
  2. न्यायिक हिरासत के दौरान मामले के प्रभारी पुलिस अधिकारी को अदालत की मंज़ूरी के बिना संदिग्ध से पूछताछ करने की अनुमति नहीं है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: B

व्याख्या:

  • न्यायिक हिरासत में एक आरोपी संबंधित मजिस्ट्रेट की हिरासत में होता है और जेल में बंद होता है, जबकि पुलिस हिरासत के मामले में एक आरोपी को थाने में बंद किया जाता है। अतः कथन 1 सही नहीं है।
  • न्यायिक हिरासत के दौरान मामले का प्रभारी पुलिस अधिकारी संदिग्ध से पूछताछ कर सकता है लेकिन मजिस्ट्रेट की पूर्व अनुमति से। पुलिस हिरासत के मामले में पुलिस अधिकारी संदिग्ध से पूछताछ कर सकता है लेकिन उसे 24 घंटे के भीतर आरोपी को अदालत में पेश करना होगा। अत: कथन 2 सही है

अतः विकल्प (B) सही उत्तर है।

स्रोत: इंडियन एक्स्प्रेस

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