इंदौर शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 11 नवंबर से शुरू   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली न्यूज़


शासन व्यवस्था

राजद्रोह कानून

  • 12 Feb 2021
  • 14 min read

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने एक राजनीतिक नेता और छह वरिष्ठ पत्रकारों को उनके खिलाफ दर्ज राजद्रोह के कई मामलो में गिरफ्तारी से संरक्षण प्रदान किया है।

प्रमुख बिंदु:

  • राजद्रोह कानून की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
    • राजद्रोह कानून को 17वीं शताब्दी में इंग्लैंड में अधिनियमित किया गया था, उस समय विधि निर्माताओं का मानना था कि सरकार के प्रति अच्छी राय रखने वाले विचारों को ही केवल अस्तित्व में या सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होना चाहिये, क्योंकि गलत राय सरकार और राजशाही दोनों के लिये नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न कर सकती थी।
    • इस कानून का मसौदा मूल रूप से वर्ष 1837 में ब्रिटिश इतिहासकार और राजनीतिज्ञ थॉमस मैकाले द्वारा तैयार किया गया था, लेकिन वर्ष 1860 में भारतीय दंड सहिता (Indian Penal Code- IPC) लागू करने के दौरान इस कानून को IPC में शामिल नहीं किया गया।
    • सर जेम्स स्टीफन को वर्ष 1870 में स्वतंत्रता सेनानियों के विचारों का दमन करने के लिये एक विशिष्ट कानून की आवश्यकता महसूस हुई। अतः उन्होंने धारा 124A को भारतीय दंड संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1870 के अंतर्गत IPC में शामिल किया।
    • यह उस समय उत्पन्न किसी भी प्रकार के असंतोष को दबाने हेतु लागू कई कठोर/सख्त कानूनों में से एक था।
    • वर्तमान में राजद्रोह कानून की स्थिति: भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124A के तहत राजद्रोह एक अपराध है।

राजद्रोह से जुड़े चर्चित मुद्दे

  • महारानी बनाम बाल गंगाधर तिलक- 1897

शायद इतिहास में राजद्रोह के सबसे प्रसिद्ध मामले औपनिवेशिक शासन के खिलाफ हमारे देश के स्वतंत्रता सेनानियों के ही रहे हैं। भारत की स्वतंत्रता के कट्टर समर्थक बाल गंगाधर तिलक पर दो बार राजद्रोह का आरोप लगाया गया था। सर्वप्रथम वर्ष 1897 में जब उनके एक भाषण ने कथित तौर पर अन्य लोगों को हिंसक व्यवहार के लिये उकसाया और जिसके परिणामस्वरूप दो ब्रिटिश अधिकारियों की मौत हो गई। इसके बाद वर्ष 1909 में जब उन्होंने अपने अखबार केसरी में एक सरकार विरोधी लेख लिखा।

  • केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य- 1962

यह मामला स्वतंत्र भारत की किसी अदालत में राजद्रोह का पहला मुकदमा था। इस मामले में पहली बार देश में राजद्रोह के कानून की संवैधानिकता को चुनौती दी गई और मामले की सुनवाई करते हुए अदालत ने देश और देश की सरकार के मध्य के अंतर को भी स्पष्ट किया। बिहार में फॉरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य केदार नाथ सिंह पर तत्कालीन सत्ताधारी सरकार की निंदा करने और क्रांति का आह्वान करने हेतु भाषण देने का आरोप लगाया गया था। इस मामले में अदालत ने स्पष्ट कहा था कि किसी भी परिस्थिति में सरकार की आलोचना करना राजद्रोह के तहत नहीं गिना जाएगा।

  • असीम त्रिवेदी बनाम महाराष्ट्र राज्य- 2012

विवादास्पद राजनीतिक कार्टूनिस्ट और कार्यकर्त्ता, असीम त्रिवेदी जो अपने भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान (कार्टून्स अगेंस्ट करप्शन) के लिये सबसे ज़्यादा जाने जाते हैं, को वर्ष 2010 में राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। उनके कई सहयोगियों का मानना था कि असीम त्रिवेदी पर राजद्रोह का आरोप भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान के कारण ही लगाया गया है।

    • वर्तमान में राजद्रोह कानून की स्थिति: भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124A के तहत राजद्रोह एक अपराध है।
      • धारा 124A IPC:
        • भारतीय दंड संहिता की धारा 124A के अनुसार, राजद्रोह एक प्रकार का अपराध है। इस कानून में राजद्रोह के अंतर्गत भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति मौखिक, लिखित (शब्दों द्वारा), संकेतों या दृश्य रूप में घृणा या अवमानना या उत्तेजना पैदा करने के प्रयत्न को शामिल किया जाता है।
        • विद्रोह में वैमनस्य और शत्रुता की सभी भावनाएँ शामिल होती हैं। हालाँकि इस खंड के तहत घृणा या अवमानना फैलाने की कोशिश किये बिना की गई टिप्पणियों को अपराध की श्रेणी में शामिल नहीं किया जाता है।
      • राजद्रोह के लिये दंड:
        • राजद्रोह गैर-जमानती अपराध है। राजद्रोह के अपराध में तीन वर्ष से लेकर उम्रकैद तक की सज़ा हो सकती है और इसके साथ ज़ुर्माना भी लगाया जा सकता है।
        • इस कानून के तहत आरोपित व्यक्ति को सरकारी नौकरी करने से रोका जा सकता है।
          • आरोपित व्यक्ति को पासपोर्ट के बिना रहना होगा, साथ ही आवश्यकता पड़ने पर उसे अदालत में पेश होना ज़रूरी है।
    • राजद्रोह कानून पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय:
      • सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वर्ष 1950 में बृज भूषण बनाम दिल्ली राज्य और रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य मामलों में दिये गए अपने निर्णयों में देशद्रोह पर प्रकाश डाला गया था।
        • इस मामले में न्यायालय ने माना कि वे कानून जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को इस आधार पर प्रतिबंधित करते हैं कि उनके कारण सार्वजनिक व्यवस्था बाधित हो सकती है, असंवैधानिक होंगे।
        • न्यायालय ने माना कि सार्वजनिक व्यवस्था को भंग करने का अर्थ राज्य की नींव को खतरे में डालने या विधि द्वारा स्थापित सत्ता को चुनौती देना होगा।
        • इस प्रकार इन निर्णयों ने प्रथम संविधान संशोधन का आधार निर्मित किया, जहांँ अनुच्छेद 19(2) को ‘सार्वजनिक व्यवस्था के हित में’ प्रतिस्थापित करने के उद्देश्य से दोबारा संशोधित किया गया था।
      • सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1962 में केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में धारा 124A की संवैधानिकता पर अपना निर्णय दिया।
        • इसने देशद्रोह की संवैधानिकता को बरकरार रखा, लेकिन इसे अव्यवस्था पैदा करने का इरादा, कानून और व्यवस्था की गड़बड़ी तथा हिंसा के लिये उकसाने की गतिविधियों तक सीमित कर दिया।
        • देशद्रोह की परिभाषा से सरकार की आलोचना करने वाले "प्रभावशाली भाषणों" (Very Strong Speech) या ‘असरदार शब्दों’ (Vigorous Words) को बाहर कर दिया गया।
      • सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1995 में बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले में उन नारेबाज़ी की घटनाओं को देशद्रोह की श्रेणी से बाहर कर दिया, जिनके विरुद्ध सार्वजनिक प्रतिक्रिया न व्यक्त की गई हो।
    • धारा 124A के समर्थन में तर्क:
      • IPC की धारा 124A राष्ट्र विरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्त्वों से निपटने में उपयोगी है।
      • यह धारा लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार को हिंसा और अवैध तरीकों से उखाड़ फेंकने के प्रयासों से बचाती है। विदित है कि कानून द्वारा स्थापित सरकार का स्थायी अस्तित्व राज्य की स्थिरता की एक अनिवार्य शर्त है।
      • यदि न्यायालय की अवमानना ​​के लिये दंडात्मक कार्रवाई सही है तो फिर सरकार की अवमानना ​​करने पर भी दंडात्मक कार्रवाई होनी चाहिये।
      • आज विभिन्न राज्य माओवादी विद्रोह का सामना कर रहे हैं, अतः इनसे निपटने के लिये यह कानून आवश्यक है।
      • ऐसे में धारा 124A का उपयोग केवल कुछ मामलों में गलत बताकर इसे समाप्त करना सही नहीं होगा।
    • धारा 124A के विरुद्ध तर्क:
      • धारा 124A औपनिवेशिक विरासत का अवशेष है जो एक लोकतांत्रिक देश में अनुपयुक्त है। यह भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी में बाधा डालता है।
      • एक जीवंत लोकतंत्र में सरकार से असहमति और इसकी आलोचना परिपक्व सार्वजनिक बहस के आवश्यक तत्त्व हैं। इन्हें देशद्रोह के रूप में नहीं देखा जाना चाहिये।
        • लोकतंत्र में प्रश्न करने, आलोचना करने और शासकों को बदलने का अधिकार इसका आधारभूत तत्त्व है।
      • अंग्रेज़ों ने स्वयं ही अपने देश में भारतीयों पर अत्याचार करने के लिये बनाए इस कानून को खत्म कर दिया है। अतः भारत में इस कानून को बनाए रखने का पर्याप्त कारण नहीं है।
      • धारा 124A के तहत इस्तेमाल किये जाने वाले शब्द जैसे कि 'असंतोष' (Disaffection) अस्पष्ट हैं, जाँच करने वाले अधिकारी अपनी सुविधा के अनुसार इनकी व्याख्या कर सकते हैं।
      • राष्ट्रीय अखंडता की रक्षा के लिये आईपीसी और गैर-कानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (Unlawful Activities Prevention Act), 2019 के अनुसार, "सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करना या सरकार को हिंसा तथा अवैध तरीकों से उखाड़ फेंकने की कोशिश करना" पर्याप्त कारण हैं। इसके लिये धारा 124A की कोई आवश्यकता नहीं है।
      • राजद्रोह कानून का दुरुपयोग राजनीतिक उपकरण के रूप में किया जा रहा है। इस धारा के कार्यान्वयन में विस्तृत और केंद्रित निर्णय अंतनिहित होता है, जिसके कारण इसका दुरुपयोग होता है।
      • भारत ने वर्ष 1979 में नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्‍ट्रीय नियम (ICCPR) की पुष्टि की है, जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिये मान्यता प्राप्त मानकों को निर्धारित करता है। अतः देशद्रोह का मनमाना आरोप भारत की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के विरुद्ध है।

    आगे की राह

    • भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और भाषण तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र का एक अनिवार्य घटक है। अतः उन अभिव्यक्तियों या विचारों जो कि सरकार की नीति के अनुरूप नहीं है, को देश विरोधी नहीं माना जाना चाहिये।
    • धारा 124A का दुरुपयोग भाषण की स्वतंत्रता को रोकने के एक उपकरण के रूप में नहीं किया जाना चाहिये। सर्वोच्च न्यायालय ने केदार नाथ मामले में कहा कि इस कानून के तहत लगाए गए अभियोग के दुरुपयोग की जाँच की जा सकती है। अतः इस धारा की आवश्यकता को बदले हुए तथ्यों और परिस्थितियों में पुनः जाँचने की ज़रूरत है।
    • सर्वोच्च न्यायपालिका को अपनी पर्यवेक्षी शक्तियों का उपयोग भाषण की स्वतंत्रता की रक्षा करने वाले संवैधानिक प्रावधानों को सुनिश्चित करने और पुलिस को संवेदनशील बनाने के लिये करना चाहिये।
    • देशद्रोह की परिभाषा को सीमित किया जाना चाहिये, जिसमें भारत की क्षेत्रीय अखंडता के साथ-साथ देश की संप्रभुता से संबंधित मुद्दे भी शामिल हों।
    • ‘देशद्रोह’ शब्द को परिभाषित करना बेहद जटिल कार्य है, अतः इसे सावधानी के साथ लागू करने की ज़रूरत है। यह एक तोप की तरह है जिसे चूहे को शूट करने के लिये इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिये, लेकिन तोपों को एक निवारक के रूप में शस्त्रागार में होना भी चाहिये।

    स्रोत: द हिंदू

    close
    एसएमएस अलर्ट
    Share Page
    images-2
    images-2