शासन व्यवस्था
राजद्रोह कानून
- 06 Mar 2020
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इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में राजद्रोह कानून व इससे संबंधित विभिन्न मुद्दों पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ
‘राजद्रोह’ इन दिनों चार अक्षरों का यह शब्द हर जगह चर्चा का विषय बना हुआ है। देश के बड़े राजनीतिक दल से लेकर स्थानीय स्तर के राजनीतिक संगठन तक इस विषय पर बहस कर रहे हैं। आम से लेकर खास तक हर कोई राजद्रोह शब्द के अलग-अलग मायने निकाल रहा है। हाल ही में नागरिकता संशोधन अधिनियम पारित होने के बाद पुलिस के द्वारा कई व्यक्तियों पर राजद्रोह कानून के अंतर्गत कार्यवाई की गई। इस कड़ी में कर्नाटक के बीदर स्थित एक स्कूल के प्रधानाचार्य व बच्चों के अभिभावकों पर भी राजद्रोह का मुकदमा दर्ज़ करने का मामला सामने आया है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, नागरिकता कानून पारित होने के बाद राजद्रोह के 194 मामले दर्ज़ किये गए। आँकड़े यह भी बताते हैं कि पिछले चार वर्षों में राजद्रोह के मुकदमों की संख्या में वृद्धि हुई है, परंतु केवल चार मामलों में ही दोष सिद्ध हो पाया है। वस्तुतः भारत में इस कानून की नींव रखने वाले देश इंग्लैंड ने भी वर्ष 2009 में अपने यहाँ राजद्रोह कानून को खत्म कर दिया। जो लोग इस कानून के पक्ष में नहीं हैं, उनकी सबसे बड़ी दलील है कि इसे अभिव्यक्ति की आजादी के विरुद्ध इस्तेमाल किया जाता रहा है। क्या वाकई इस दलील में दम है? चलिये इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिये इस आलेख में भारत की स्वतंत्रता से पहले और बाद के कुछ मामलों पर नज़र डालते हैं और इसकी प्रासंगिकता का मूल्यांकन करते हैं।
क्या है राजद्रोह?
- देश में राजद्रोह को भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code-IPC) की धारा 124A में परिभाषित किया गया है।
- भारतीय दंड संहिता की धारा 124A के अनुसार, जो कोई बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा या दृश्यरूपण द्वारा भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करेगा या पैदा करने का प्रयत्न करेगा या अप्रीति प्रदीप्त करेगा या प्रदीप्त करने का प्रयत्न करेगा, उसे आजीवन कारावास या तीन वर्ष तक की कैद और ज़ुर्माना अथवा दोनों से दंडित किया जाएगा। इस धारा के अंतर्गत 3 स्पष्टीकरण दिये गए हैं, जो इस प्रकार हैं-
- स्पष्टीकरण 1- अप्रीति (Disaffection) पद के अंतर्गत अभक्ति और शत्रुता की समस्त भावनाएँ आती हैं।
- स्पष्टीकरण 2- घॄणा, अवमान या अप्रीति को प्रदीप्त किये बिना या प्रदीप्त करने का प्रयत्न किये बिना, सरकार के कामों के प्रति विधिपूर्ण साधनों द्वारा उनको परिवर्तित कराने की दृष्टि से अननुमोदन प्रकट करने वाली टीका-टिप्पणियाँ इस धारा के अधीन अपराध नहीं हैं।
- स्पष्टीकरण 3- घॄणा, अवमान या अप्रीति को प्रदीप्त किये बिना या प्रदीप्त करने का प्रयत्न किये बिना, सरकार की प्रशासनिक या अन्य क्रिया के प्रति अननुमोदन प्रकट करने वाली टीका-टिप्पणियाँ इस धारा के अधीन अपराध कारित नहीं करती।
- भारत में राजद्रोह एक संज्ञेय अपराध है अर्थात् इसके तहत गिरफ्तारी के लिये वारंट की आवश्यकता नहीं होती है, साथ ही इसके तहत दोनों पक्षों के मध्य आपसी सुलह का भी कोई प्रावधान नहीं है।
- इसके अनुसार, सरकार या प्रशासन के विरुद्ध किसी भी प्रकार की आलोचनात्मक टिप्पणी करना अपराध नहीं है।
पृष्ठभूमि
- 17वीं शताब्दी में इंग्लैंड में राजद्रोह कानून को अधिनियमित किया गया, क्योंकि वहाँ के तत्कालीन कानूनविदों का मानना था कि सरकार और साम्राज्य के विरुद्ध कोई भी नकारात्मक विचार या टिप्पणी सत्ता के लिये हानिकारक हो सकती है।
- भारत में राजद्रोह कानून की उत्पत्ति 19वीं शताब्दी के वहाबी आंदोलन से जुड़ी है।
- मूल रूप से यह कानून वर्ष 1837 में ब्रिटिश इतिहासकार और राजनीतिज्ञ थॉमस मैकाले द्वारा तैयार किया गया था, लेकिन वर्ष 1860 में IPC लागू करने के दौरान इस कानून को उसमें शामिल नहीं किया गया।
- वर्ष 1870 में सर जेम्स स्टीफन ने स्वतंत्रता सेनानियों के विचारों का दमन करने के लिये एक विशिष्ट खंड की आवश्यकता महसूस हुई तो उन्होंने भारतीय दंड संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1870 के अंतर्गत धारा 124A को IPC में शामिल किया।
- ब्रिटिश सरकार ने इस कानून का उपयोग कई स्वतंत्रता सेनानियों को दोषी ठहराने और उन्हें सज़ा देने के लिये किया।
राजद्रोह से जुड़े चर्चित वाद
- महारानी बनाम जोगेंद्र चंद्र बोस, 1891- सर्वप्रथम इस कानून का प्रयोग वर्ष 1891 में एक अखबार के संपादक जोगेंद्र चंद्र बोस के विरुद्ध किया गया, क्योंकि उन पर आरोप था कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध लेख लिखा था।
- महारानी बनाम बाल गंगाधर तिलक, 1897- बाल गंगाधर तिलक पर 3 बार (वर्ष 1897, 1908 और 1916) में राजद्रोह के मुकदमे चलाए थे। उन पर भारत में ब्रिटिश सरकार की 'अवमानना ' करने के आरोप लगे थे। ये आरोप उनके अखबारों में लिखे व्याख्यान और भाषणों को आधार बनाते हुए तय किए गए थे।
- महारानी बनाम मोहनदास करमचंद गाँधी, 1922- महात्मा गांधी पर वर्ष 1922 में यंग इंडिया नामक पत्रिका में राजनीतिक रूप से 'संवेदनशील' लेख लिखने के कारण राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। उन पर आरोप लगे कि उनके लेख ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध असंतोष पैदा करने वाले थे और उन्हें 6 वर्ष के कारावास की सजा भी सुनाई गई।
- केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य,1962- यह मामला स्वतंत्र भारत के किसी न्यायालय में राजद्रोह का पहला मामला था। इस मामले में पहली बार देश में राजद्रोह के कानून की संवैधानिकता को चुनौती दी गई और मामले की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने देश और देश की सरकार के मध्य अंतर को भी स्पष्ट किया। बिहार में फॉरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य केदार नाथ सिंह पर तत्कालीन सत्ताधारी सरकार की निंदा करने और क्रांति का आह्वान करने हेतु भाषण देने का आरोप लगाया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने केदारनाथ वाद में निर्णय देते हुए कहा कि- ‘’किसी नागरिक को सरकार की आलोचना करने और उसके विरुद्ध बोलने का पूरा हक है, जब तक कि वह हिंसा को बढ़ावा ना दे रहा हो।’’
- बलवंत सिंह और अन्य बनाम पंजाब राज्य, 1984- पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या वाले दिन (31 अक्टूबर 1984) चंडीगढ़ में बलवंत सिंह नाम के एक शख्स ने अपने साथी के साथ मिलकर 'खालिस्तान जिंदाबाद' तथा के नारे लगाए थे। इस मामले में इन दोनों पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने इन लोगों को राजद्रोह के तहत सज़ा देने से इनकार कर दिया था।
- उपर्युक्त मामलों के अतिरिक्त असीम त्रिवेदी, अरविन्द केजरीवाल, अरुण जेटली पर भी राजद्रोह के मामले दर्ज़ हुए परंतु विभिन्न न्यायालयों के द्वारा इन मामलों को खारिज़ कर दिया गया।
राजद्रोह कानून के पक्ष में तर्क
- राजद्रोह कानून के पक्ष में बुद्धिजीवियों के एक वर्ग का मानना है कि IPC की धारा 124A सरकार को राष्ट्र विरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्त्वों का मुकाबला करने की शक्ति प्रदान करता है।
- यह लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार को हिंसा और अवैध तरीकों से उखाड़ फेंकने के प्रयासों से बचाता है। विदित है कि कानून द्वारा स्थापित सरकार का स्थायी अस्तित्व राज्य की स्थिरता की एक अनिवार्य शर्त है।
- विचारकों के अनुसार, यदि न्यायालय की अवमानना के लिये दंडात्मक कार्रवाई सही है, तो फिर सरकार की अवमानना करने पर भी दंडात्मक कार्रवाई होनी चाहिये।
- आज विभिन्न राज्य माओवादी विद्रोह का सामना कर रहे हैं और इनसे निपटने के लिये यह कानून आवश्यक है।
राजद्रोह कानून के विपक्ष में तर्क
- राजद्रोह कानून की आलोचना करने वाले विचारकों का मानना है कि यह गांधी दर्शन के मूल सिद्धांत- असंतोष का अधिकार की अवहेलना करता है।
- राजद्रोह कानून अनिवार्य रूप से सरकार के लिये अलोकप्रिय स्वतंत्र भाषण और स्वतंत्र विचार को दबाने का एक उपकरण है।
- धारा 124A औपनिवेशिक विरासत का एक अवशेष है एवं भारतीय लोकतंत्र में अनुपयुक्त है। यह संविधान द्वारा प्रदत्त विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है।
- एक जीवंत लोकतंत्र के लिये आवश्यक है कि उसमें सरकार की आलोचना और उसके प्रति असंतोष को भी स्थान दिया जाए, परंतु कई बार इस कानून का गलत प्रयोग ऐसा संभव नहीं होने देता।
- दरअसल धारा-124A में जिन शब्दों का प्रयोग किया गया है, उनकी स्पष्टता को लेकर सवाल उठते रहे हैं। धारा-124A में स्पष्टता न होने के कारण इस क़ानून के दुरुपयोग की संभावनाएँ भी बढ़ जाती हैं। कानून व्यवस्था के राज्य सूची में होने के कारण इस कानून का राज्य स्तर पर गलत इस्तेमाल किये जाने के मामले ज़्यादा देखे जाते हैं।
- इस कानून को लागू करने वाले देश इंग्लैंड ने भी अपने देश में इस कानून को समाप्त कर दिया है, जिसके कारण हमारे पास कोई भी कारण नहीं बचता कि हम इस वर्षों पुराने औपनिवेशिक कानून के बोझ को आज भी ढोते रहें।
- कई बार देश में राजद्रोह कानून के अनुचित प्रयोग की बात भी सामने आई है। प्रायः इसका प्रयोग सरकार की आलोचना को दबाने तथा राजनैतिक प्रतिशोध की भावना से किया जाता है।
आगे की राह
- वर्तमान में राजद्रोह की परिभाषा अति व्यापक है। अतः इस परिभाषा को संकीर्ण करना आवश्यक है और इसमें केवल भारत की क्षेत्रीय अखंडता और देश की संप्रभुता जैसे विषय ही शामिल करने चाहिये।
- कानून का अनुपालन सुनिश्चित कराने वाली एजेंसियों को राजद्रोह के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों की जानकारी प्रदान करना आवश्यक है।
- अंत में गाँधी जी के शब्दों में- “कानून के ज़रिए तंत्र के प्रति समर्पण पैदा नहीं किया जा सकता है। यदि किसी व्यक्ति को तंत्र या सरकार के प्रति असंतोष है तो उस व्यक्ति को असंतोष व्यक्त करने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिये, जब तक कि वह हिंसा का कारण न बने।”
प्रश्न- राजद्रोह कानून क्या है? आप इस कथन से कहाँ तक सहमत हैं कि ‘राजद्रोह कानून संविधान द्वारा प्रदत्त विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक अघोषित पहरा है।’ तर्क सहित अपना उत्तर दीजिये।