परिहार पर सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश | 24 Feb 2025
प्रिलिम्स के लिये:परिहार, राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति, अनुच्छेद 72, राष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय, अनुच्छेद 161, राज्यपाल, कारागार अधिनियम, 1894, केहर सिंह बनाम भारत संघ (1989), दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC)। मेन्स के लिये:परिहार पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश, भारत में परिहार नियम और संबंधित संवैधानिक और कानूनी प्रावधान। |
स्रोत: द हिंदु
चर्चा में क्यों?
सर्वोच्च न्यायालय ने परिहार पर दिशा-निर्देश जारी करते हुए राज्यों को निर्देश दिया कि वे परिहार नीतियों के तहत कैदियों की समय-पूर्व रिहाई पर विचार करें, और उनके लिये सजा में स्थायी छूट को लेकर आवेदन करना ज़रूरी नहीं है
- वर्ष 2021 में शुरू किये गए एक स्वप्रेरित मामले में दिये गए इस फैसले का उद्देश्य जेल में भीड़भाड़ की समस्या को दूर करना है, साथ ही छूट के लये निष्पक्ष और गैर-भेदभावपूर्ण दृष्टिकोण सुनिश्चित करना है।
परिहार नीति (2025) पर सर्वोच्च न्यायालय के नवीनतम दिशा-निर्देश क्या हैं?
- निर्देश: राज्यों को संवैधानिक और न्यायिक सिद्धांतों के साथ संरेखण सुनिश्चित करते हुए 2 महीने के भीतर एक स्पष्ट परिहार नीति तैयार करनी चाहिये।
- विधिक मानदंड: परिहार के मानदंड उचित होने चाहिये, जैसा कि माफाभाई मोतीभाई सागर मामले (2024) में बरकरार रखा गया था।
- उचित प्रक्रिया की आवश्यकता: परिहार को मनमाने ढंग से रद्द नहीं किया जा सकता है, यदि शर्तों का उल्लंघन किया जाता है, तो राज्य को अपराधी को औचित्य के साथ नोटिस देना चाहिए और अंतिम निर्णय लेने से पहले उसे जवाब देने का अवसर प्रदान करना चाहिये।
नोट:
- राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के वर्ष 2022 के आँकड़ों के अनुसार, भारत की जेलों में 131.4% कैदी हैं, जिनमें 75.8% विचाराधीन हैं।
- भारत में जेल सांख्यिकी रिपोर्ट (2022) के अनुसार, समय से पहले रिहाई की संख्या 2,321 (2020) से बढ़कर 5,035 (2022) हो गई है।
परिहार (Remission) क्या है?
- परिचय:
- परिहार (Remission) का तात्पर्य सजा की प्रकृति में परिवर्तन किये बिना जेल की सजा की अवधि को कम करना है।
- इसमें दोषी को न्यायालय द्वारा निर्धारित मूल अवधि से पहले रिहा करने की अनुमति दी जा सकती है, बशर्ते कि वह विशिष्ट पात्रता मानदंडों को पूरा करता हो।
- संवैधानिक प्रावधान:
- अनुच्छेद 72 भारत के राष्ट्रपति को संघीय कानून के तहत या सैन्य न्यायालयों से जुड़े मामलों में अपराध के लिये दोषी ठहराए गए किसी भी व्यक्ति की सजा को क्षमा, विलंब, राहत या परिहार या निलंबित करने, क्षमा करने या सजा की अवधि कम करने का अधिकार प्रदान करता है।
- अनुच्छेद 161 राज्य कानूनों के तहत अपराधों के लिये राज्यपाल को समान शक्तियाँ प्रदान करता है।
- अनुच्छेद 32 और 226, क्रमशः सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय को क्षमा कार्यवाही में शामिल होने के लिये अपने रिट क्षेत्राधिकार का उपयोग करने का अधिकार प्रदान करते हैं।
- विधिक प्रावधान:
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 की धारा 473 (पूर्व में CrPC की धारा 432): राज्य सरकारों को किसी भी समय, शर्त के साथ या बिना शर्त के परिहार की शक्ति प्रदान करती है।
- शर्तों का पालन न करने पर परिहार को रद्द किया जा सकता है और बिना वारंट के पुनः गिरफ्तारी हो सकती है।
- BNSS की धारा 475 (पूर्व में CrPC की धारा 433A): मृत्युदंड योग्य अपराधों के लिये आजीवन कारावास की सजा पाए दोषियों को 14 वर्ष की कारावास अवधि पूरी करने से पहले रिहा नहीं किया जा सकता।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 की धारा 473 (पूर्व में CrPC की धारा 432): राज्य सरकारों को किसी भी समय, शर्त के साथ या बिना शर्त के परिहार की शक्ति प्रदान करती है।
प्रमुख शब्दावली
- क्षमा: अपराधी को पूर्णतः सभी संबंधित दंडों और निरर्हताओं को समाप्त करते हुए उसकी दोषसिद्धि और दंडादेश दोनों को हटा कर उसे दोषमुक्त किया जाता है।
- लघूकरण/न्यूनीकरण: किसी दंड का लघूकरण करना, जैसे मृत्युदंड को कठोर कारावास में परिवर्तित करना।
- विराम: विशेष परिस्थितियों, जैसे कि दोषी की शारीरिक दिव्यांगता या गर्भावस्था को ध्यान में रखते हुए दंड में कमी की जाती है।
- प्रविलंबन: किसी दंड के निष्पादन को अस्थायी रूप से विलंबित किया जाता है, विशेष रूप से मृत्युदंड, जिससे दोषी को क्षमा या दंड में छूट मांगने का समय मिल जाता है।
परिहार से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय क्या हैं?
- लक्ष्मण नस्कर बनाम भारत संघ (2000) में, सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने न्याय और लोक सुरक्षा हेतु एक संतुलित दृष्टिकोण सुनिश्चित करते हुए परिहार अथवा माफी हेतु 5 कारकों को रेखांकित किया: जिसमें सामाजिक प्रभाव, अपराध की गंभीरता, पुनरावृत्ति का जोखिम, कारावास का आचरण और पुनः एकीकरण की संभावना, शामिल है।
- एपुरु सुधाकर बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2006) में, सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि विवेक का प्रयोग न करने, असद्भावपूर्वक आशय, बाहरी अथवा अप्रासंगिक विचारों पर निर्भरता, प्रासंगिक सामग्रियों का अपवर्जन, अथवा स्वेच्छाचारिता जैसे आधारों पर प्रदान परिहार आदेशों की न्यायिक समीक्षा किया जाना अनुज्ञेय है।
- हरियाणा राज्य बनाम महेंद्र सिंह (2007) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अभिपुष्ट किया, हालाँकि दंड का परिहार किसी दोषी का मूल अधिकार नहीं है किंतु राज्य को प्रासंगिक कारकों के आधार पर प्रत्येक मामले पर विचार करते हुए अपनी कार्यकारी शक्ति का विवेकपूर्ण रूप से प्रयोग करना चाहिये।
- संगीत एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य (2013) में सर्वोच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि CrPC की धारा 432 के तहत परिहार किये जाने हेतु दोषी के आवेदन की आवश्यकता होती है और सरकार द्वारा इसे स्वतः स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
- मोहिंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य (2013) में, सर्वोच्च न्यायालय ने पुनः पुष्टि की कि न्यायालयों के पास स्वयं से परिहार करने का अधिकार नहीं है, तथा इस तथ्य पर बल दिया कि परिहार की प्रक्रिया औपचारिक अनुरोध के माध्यम से शुरू की जानी चाहिये।
- भारत संघ बनाम वी. श्रीहरन (2015) मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने दोषी के "अंतिम क्षण" तक बिना किसी परिहार के आजीवन कारावास को बरकरार रखा और इसे मृत्युदंड का विकल्प माना।
- सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2024 में बिलकिस बानो मामले में 11 दोषियों के लिये गुजरात सरकार के परिहार आदेश को रद्द कर दिया और वर्ष 2022 के निर्णय को अपास्त किया, जिसके अंतर्गत गुजरात को उनकी समयपूर्व रिहाई पर निर्णय करने की अनुमति प्रदान की गई थी।
- न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि CrPC की धारा 432(7) के अनुसार, परिहार के लिये "समुचित सरकार" वह है जहाँ अपराधी को दण्डादिष्ट किया गया है, न कि जहाँ अपराध कारित किया गया। इस सिद्धांत की पुष्टि वी. श्रीहरन बनाम भारत संघ (2015) से की गई।
- माफभाई मोतीभाई सागर बनाम गुजरात राज्य (2024) में, सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि परिहार की स्थितियाँ युक्तियुक्त होनी चाहिये, यह सुनिश्चित करते हुए कि वे न तो मनमाना रूप से कठोर हों और न ही अस्पष्ट हों।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: Q. भारतीय कानून के तहत क्षमा, दंड में परिवर्तन, छूट, प्रशमन और राहत के बीच अंतर बताइए। ये कार्यकारी शक्तियाँ न्याय और सुधार के सिद्धांतों में किस प्रकार योगदान देती हैं? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नमेन्स:प्रश्न. मृत्यु दंडादेशों के लघुकरण में राष्ट्रपति के विलंब के उदाहरण न्याय प्राख्यान (डिनायल) के रूप में लोक वाद-विवाद के अधीन आए हैं। क्या राष्ट्रपति द्वारा ऐसी याचिकाओं को स्वीकार करने/अस्वीकार करने के लिये एक समय-सीमा का विशेष रूप से उल्लेख किया जाना चाहिये? विश्लेषण कीजिये। (2014) |