भारत में महाभियोग प्रक्रिया और न्यायिक जवाबदेही | 12 Dec 2024
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
हाल ही में एक धार्मिक संगठन द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में विवादास्पद टिप्पणी के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक वर्तमान न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पर विचार किया जा रहा है। कई लोगों द्वारा सांप्रदायिक भावना से प्रेरित मानी गई इन टिप्पणियों ने न्यायिक औचित्य और निष्पक्षता पर चिंताएँ उत्पन्न कर दी हैं।
भारत में न्यायाधीशों के लिये महाभियोग प्रक्रिया क्या है?
- परिचय:
- यद्यपि संविधान में महाभियोग का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, लेकिन बोलचाल की भाषा में यह उस प्रक्रिया को संदर्भित करता है जिसके द्वारा किसी न्यायाधीश को संसद द्वारा उसके पद से हटाया जा सकता है।
- भारत में न्यायाधीशों के लिये महाभियोग प्रक्रिया न्यायपालिका की स्वतंत्रता को संरक्षित करते हुए न्यायिक जवाबदेही को बनाए रखने के लिये एक महत्त्वपूर्ण तंत्र के रूप में कार्य करती है।
- संवैधानिक सुरक्षा उपाय और महाभियोग के आधार:
- अनुच्छेद 124(4): यह अनुच्छेद सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया को रेखांकित करता है, जो अनुच्छेद 218 के अनुसार उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर भी लागू होता है। महाभियोग के आधार स्पष्ट रूप से “सिद्ध कदाचार” और “अक्षमता” तक सीमित हैं।
- सिद्ध कदाचार: न्यायाधीश द्वारा किया गया ऐसा कृत्य या आचरण जो न्यायपालिका के नैतिक और व्यावसायिक मानकों का उल्लंघन करता है।
- अक्षमता: शारीरिक या मानसिक अक्षमता के कारण न्यायिक कर्त्तव्यों का पालन करने में न्यायाधीश की असमर्थता।
- अनुच्छेद 124(4): यह अनुच्छेद सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया को रेखांकित करता है, जो अनुच्छेद 218 के अनुसार उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर भी लागू होता है। महाभियोग के आधार स्पष्ट रूप से “सिद्ध कदाचार” और “अक्षमता” तक सीमित हैं।
- महाभियोग प्रक्रिया के चरण:
- प्रस्ताव की शुरूआत:
- महाभियोग प्रस्ताव को लोकसभा में कम से कम 100 सदस्यों या राज्यसभा में 50 सदस्यों का समर्थन प्राप्त होना चाहिये।
- प्रस्ताव को स्वीकार या अस्वीकार करने का निर्णय लेने से पहले अध्यक्ष या सभापति प्रासंगिक विषय की समीक्षा कर सकते हैं तथा व्यक्तियों से परामर्श कर सकते हैं।
- उदाहरण के लिये, वर्ष 2018 में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ प्रस्ताव को उचित विचार-विमर्श के बाद खारिज कर दिया गया था।
- इससे यह सुनिश्चित होता है कि यह प्रक्रिया लापरवाही से या निर्वाचित प्रतिनिधियों के महत्त्वपूर्ण समर्थन के बिना शुरू नहीं की जा सकती।
- जाँच समिति का गठन:
- प्रस्ताव स्वीकार होने पर, लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति एक तीन सदस्यीय समिति गठित करते हैं, जिसमें निम्नलिखित शामिल होते हैं:
- भारत के मुख्य न्यायाधीश या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश
- किसी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश
- एक प्रतिष्ठित विधिवेत्ता
- समिति आरोपों की गहन जाँच करती है, साक्ष्य एकत्र करती है और आरोपों की वैधता निर्धारित करने के लिये गवाहों की जाँच करती है।
- प्रस्ताव स्वीकार होने पर, लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति एक तीन सदस्यीय समिति गठित करते हैं, जिसमें निम्नलिखित शामिल होते हैं:
- समिति की रिपोर्ट और संसदीय बहस:
- समिति अपने निष्कर्ष सदन के पीठासीन अधिकारी को सौंपती है, जहाँ प्रस्ताव पेश किया गया था। यदि न्यायाधीश कथित कदाचार या अक्षमता का दोषी पाया जाता है, तो रिपोर्ट पर संसद में बहस होती है।
- संसद के दोनों सदनों को विशेष बहुमत से प्रस्ताव को मंजूरी देनी होगी, जिसके लिये निम्नलिखित की आवश्यकता होगी:
- सदन की कुल सदस्यता का बहुमत।
- उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों में से कम से कम दो-तिहाई सदस्य।
- प्रस्ताव की शुरूआत:
- राष्ट्रपति द्वारा अंतिम रूप से हटाना:
- एक बार दोनों सदनों में प्रस्ताव स्वीकृत हो जाने पर उसे उसी सत्र में राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है।
- नियंत्रण और संतुलन:
- महाभियोग के लिये समय सीमा: महाभियोग प्रस्ताव को आरंभ करने और अनुमोदित करने से संबंधित कठोर प्रक्रियाओं से इसके दुरुपयोग की संभावना कम हो जाती है।
- विशेषज्ञों द्वारा वस्तुनिष्ठ जाँच: जाँच समिति में न्यायिक तथा विधिक विशेषज्ञों को शामिल करने से निष्पक्ष जाँच सुनिश्चित होती है।
- संसदीय निगरानी: संसद के दोनों सदनों को शामिल करने से इस प्रक्रिया में जवाबदेहिता सुनिश्चित होती है।
- महाभियोग के प्रयासों के उदाहरण:
- भारत में महाभियोग के कुछ प्रयास हुए हैं जिनमें न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी (1993) तथा न्यायमूर्ति सौमित्र सेन (2011) से संबंधित उल्लेखनीय मामले शामिल हैं।
- हालांकि इनमें से किसी भी न्यायाधीश को पूरी तरह से हटाया नहीं जा सका। ये उदाहरण इस प्रक्रिया की कठोरता एवं जवाबदेहिता बनाए रखने में इसकी भूमिका पर प्रकाश डालते हैं।
- भारत में महाभियोग के कुछ प्रयास हुए हैं जिनमें न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी (1993) तथा न्यायमूर्ति सौमित्र सेन (2011) से संबंधित उल्लेखनीय मामले शामिल हैं।
न्यायाधीशों के सार्वजनिक वक्तव्यों को कौन से दिशा-निर्देश विनियमित करते हैं?
- ज़िम्मेदारी के साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता: न्यायाधीश, सभी नागरिकों की तरह संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हकदार हैं। हालाँकि, यह अधिकार लोक व्यवस्था, नैतिकता एवं उनके कार्यालय की अखंडता को बनाए रखने के क्रम में उचित प्रतिबंधों के अधीन है।
- न्यायाधीशों के सार्वजनिक वक्तव्यों में किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह या पक्षपात का आभास नहीं होना चाहिये तथा यह सुनिश्चित होना चाहिये कि वे अपने न्यायिक पद की गरिमा बनाए रखें।
- बेंगलुरु न्यायिक आचरण सिद्धांत (2002)
- न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्स्थापन (1997)
- न्यायिक आचरण हेतु आंतरिक तंत्र: न्यायपालिका के पास ऐसे मामलों से निपटने हेतु आंतरिक प्रोटोकॉल हैं जिनमें न्यायाधीशों के सार्वजनिक वक्तव्यों को अनुचित या विवादास्पद माना जा सकता है।
- न्यायिक संयम पर विशिष्ट दिशानिर्देश:
- राजनीतिक मामलों में हस्तक्षेप न करना: न्यायाधीशों से अपेक्षा की जाती है कि वे पक्षपातपूर्ण न समझे जाने के क्रम में राजनीतिक घटनाओं या नीतियों पर टिप्पणी करने से बचें।
- मामलों में पूर्वाग्रह से बचना: न्यायाधीशों को चल रहे मामलों या विधिक मुद्दों के बारे में ऐसे वक्तव्यों से बचना चाहिये जिन्हें पूर्वाग्रह या पक्षपात के रूप में समझा जा सकता है।
- विवादास्पद घटनाओं में भागीदारी न करना: न्यायाधीशों को ऐसे आयोजनों या मंचों में भाग लेने से बचना चाहिये जिससे उनकी स्वतंत्रता से समझौता होता हो।
- सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ:
- न्यायमूर्ति सीएस कर्णन मामले (2017) में न्यायालय ने न्यायपालिका की अखंडता को कमज़ोर करने वाले एक न्यायाधीश के सार्वजनिक वक्तव्यों से होने वाले नकारात्मक प्रभाव पर प्रकाश डाला।
- दिशानिर्देशों के कार्यान्वयन संबंधी चुनौतियाँ:
- संहिताबद्ध नियमों का अभाव: न्यायिक व्यवहार के कुछ पहलू (जैसे सार्वजनिक वक्तव्य) वैधानिक विनियमों के बजाय परंपराओं पर निर्भर हैं।
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत ग्रे एरिया: न्यायाधीश के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार एवं न्यायिक मर्यादा बनाए रखने के उत्तरदायित्व के बीच संतुलन, अक्सर व्यक्तिपरक होता है।
विविधतापूर्ण समाज में न्यायपालिका, निष्पक्षता को किस प्रकार बनाए रख सकती है?
- संवैधानिक मूल्यों का पालन करना: न्यायपालिका के मार्गदर्शक ढाँचे के रूप में कार्य करने वाले संविधान में निहित समानता, न्याय एवं पंथनिरपेक्षता जैसे सिद्धांतों को महत्त्व देना चाहिये।
- न्यायाधीशों को इन सिद्धांतों की व्याख्या एवं इनका अनुप्रयोग बिना किसी पूर्वाग्रह या पक्षपात के करना चाहिये।
- न्यायपालिका में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना:
- समावेशी भर्ती: यह सुनिश्चित करना कि विभिन्न पृष्ठभूमियों से आने वाले न्यायाधीशों, जिनमें अल्प-प्रतिनिधित्व वाले समुदाय भी शामिल हैं, को न्यायपीठ में नियुक्त किया जाए।
- लैंगिक संतुलन: कानूनी व्याख्या में लैंगिक पूर्वाग्रहों को दूर करने के लिये न्यायपालिका में महिलाओं के अधिक प्रतिनिधित्व को प्रोत्साहित करना ।
- हाशिये पर पड़े समुदायों के प्रति जागरूकता: न्यायाधीशों को अल्पसंख्यकों और हाशिये पर पड़े समुदायों के समक्ष आने वाली चुनौतियों को पहचानने के लिये प्रशिक्षित किया जाना चाहिये।
- न्यायाधीशों की शिक्षा और संवेदनशीलता:
- विविधता और समता पर प्रशिक्षण: न्यायिक अकादमियों को नियमित रूप से सांस्कृतिक क्षमता, अंतर्निहित पूर्वाग्रह और सामाजिक विविधता के प्रति संवेदनशीलता पर कार्यक्रम आयोजित करने चाहिये।
- ऐतिहासिक असमानताओं के प्रति जागरुकता: न्यायाधीशों को समाज में विद्यमान प्रणालीगत असमानताओं को समझना चाहिये तथा यह भी समझना चाहिये कि ये असमानताएँ किस प्रकार व्यक्तियों की न्याय तक पहुँच को प्रभावित करती हैं।
- वस्तुनिष्ठ निर्णय लेना:
- न्यायिक निर्णय केवल तथ्यों, साक्ष्यों और निर्धारित कानूनों पर आधारित होने चाहिये, तथा इसमें शामिल पक्षकारों की पहचान का कोई प्रभाव नहीं होना चाहिये।
- न्यायाधीशों को सुविचारित निर्णय देने चाहिये, जो उनकी तटस्थता और विधि के शासन के प्रति पालन को प्रदर्शित करते हों।
- न्यायपालिका में प्रणालीगत पूर्वाग्रहों को संबोधित करना:
- पूर्व उदाहरणों की समीक्षा: न्यायालयों को अतीत के निर्णयों की समालोचनात्मक जाँच करनी चाहिये ताकि उन उदाहरणों की पहचान की जा सके, जिससे उनका समाधान किया जा सके, जहाँ पूर्वाग्रहों ने निर्णयों को प्रभावित किया हो।
- कानूनों की न्यायसंगत व्याख्या: न्यायाधीशों को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि कानूनों को इस प्रकार लागू किया जाए, जिससे समता और न्याय को बढ़ावा मिले, विशेष रूप से वंचित समूहों के लिये।
- कमज़ोर समुदायों की सुरक्षा हेतु सक्रिय उपाय:
- सामाजिक न्यायपीठ: विशेष पीठ, जैसे कि वर्ष 2014 में उच्चतम न्यायालय द्वारा स्थापित पीठ, हाशिये पर पड़े समुदायों को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करती है।
- विधिक सहायता और निःशुल्क सेवाएँ: आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों के लिये विधिक सहायता सुनिश्चित करने से समावेशिता और निष्पक्षता में वृद्धि होती है।
- नागरिक समाज और मीडिया की भूमिका:
- एक जागरूक नागरिक समाज और सतर्क मीडिया के निगरानीकर्त्ता के रूप में कार्य कर सकते हैं तथा यह सुनिश्चित कर सकते हैं, कि न्यायिक निष्पक्षता बनी रहे।
- न्यायिक कार्यों की रचनात्मक आलोचना और जाँच, स्वतंत्रता से समझौता किये बगैर जवाबदेही को सुदृढ़ करने में सहायता करती है।
निष्कर्ष
भारत जैसे विविधतापूर्ण लोकतंत्र में न्यायपालिका के लिये निष्पक्षता और जनता का विश्वास बनाए रखना बहुत आवश्यक है। विवादास्पद आचरण के उदाहरण न्यायिक जवाबदेही को स्वतंत्रता के साथ संतुलित करने की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं। न्यायपालिका की अखंडता को बनाए रखने और न्याय एवं समानता के संरक्षक के रूप में इसकी भूमिका को सुदृढ़ करने के लिये मज़बूत महाभियोग तंत्र, संवैधानिक मूल्यों का पालन और प्रशिक्षण एवं समावेशी प्रतिनिधित्व जैसे सक्रिय उपाय आवश्यक हैं।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: न्यायपालिका की विश्वसनीयता और निष्पक्षता को बनाए रखने के लिये न्यायिक जवाबदेही आवश्यक है, विशेष रूप से भारत जैसे विविधतापूर्ण समाज में। टिप्पणी कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)मेन्सप्रश्न 1. भारत में जनहित याचिकाओं के बढ़ने के कारण स्पष्ट कीजिये। इसके परिणामस्वरूप, क्या भारत का उच्चतम न्यायालय दुनिया की सबसे शक्तिशाली न्यायपालिका के रूप में उभरा है? (2024) प्रश्न 2. विविधता, समता और समावेशिता सुनिश्चित करने के लिये उच्चतर न्यायपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने की वांछनीयता पर चर्चा कीजिये। (2021) प्रश्न 3. भारत में उच्चतर न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017) |